सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ
संस्कृतिकरण:
संस्कृतिकरण नामक अवधारणा का प्रयोग भारतीय सामाजिक संरचना में सांस्कृतिक गतिशीलता की प्रक्रिया का वर्णन करने हेतु किया गया । दक्षिण भारत के कुर्ग लोगों के सामाजिक और धार्मिक जीवन के विश्लेषण में प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्रीय प्रो ० एम ० श्री निवास ने इस अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग किया । मैसूर में कुर्ग लोगों का अध्ययन करते समय प्रो ० एम ० एस ० श्री निवास ने पाया कि निम्न जातियों के लोग ब्राह्मणों को कुछ प्रथाओं का अनुकरण करने और अपनी स्वयं की कुछ प्रथाओं जैसे मांस खाना , शराब का प्रयोग तथा पशु – बलि आदि छोड़ने में लगे हुए थे । वे सब कुछ इसलिए कर रहे थे ताकि जातीय – संस्करण की प्रणाली में उनकी स्थिति ऊँची उठ सके । ब्राह्मणों का वेशभूषा , भोजन संबंधी आदतें तथा कर्मकाण्ड आदि अपनाकर वे अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयल कर रहे थे । उन्होंने ब्राह्मणों की जीवन पद्धति का अनुकरण करके एक दो पीढ़ी में जातीय संस्तरण की प्रणाली में उच्च स्थिति प्राप्त करने की दृष्टि से माँग प्रस्तुत की , गतिशीलता की इस प्रक्रिया का वर्णन करने हेतु प्रो ० श्रीनिवास ने प्रारम्भ में ‘ ब्राह्मणीकरण ‘ मक शब्द का प्रयोग किया । लेकिन बाद में उसके स्थान पर अपने ‘ संस्कृतिकरण ‘ नामक अवधारणा का प्रयोग ज्यादा उपयुक्त समझा । प्रो ० श्रीनिवास ने अपनी पुस्तक ‘ रिलीजन एण्ड सोसायटी अमंग दी कुर्गस ऑफ साउथ इंडिया ‘ में गतिशीलता को व्यक्त करने के लिए संस्कृतिकरण नामक प्रत्यय का प्रयोग किया । इनके अनुसार “ जाति अवस्था उस कठोर प्रणाली से जिसमें काफी दूर है जिसमें प्रत्येक घटक जाति की स्थिति हमेशा के लिए निश्चित कर दी जाती है । यहाँ गतिशीलता सदैव संभव रही है , और विशेषतः संस्तरण की प्रणाली के मध्य भागों में , एक निम्न जाति एक या दो पीढ़ी में शाकाहारी बनकर मद्यपान को छोड़कर तथा अपने कर्मकाण्ड एवं देवगण का संस्कृतिकरण कर संस्तरण की प्रणाली में अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने समर्थ हो जाती । संक्षिप्त में , जहाँ तक संभव था , वह ब्राह्मणों के प्रथाओं , अनुष्ठानों एवं विश्वासों को अपना लेती । साधारणतः निम्न जातियों के द्वारा ब्राह्मणी जीवन प्रणाली को प्रायः अपना लिया जाता यद्यपि सैद्धान्तिक रूप से यह वर्जित था । इस प्रक्रिया को ब्राह्मणीकरण की बजाय संस्कृतिकरण कहा गया है । ” डा ० योगेन्द्र सिंह ने लिखा हैं कि संस्कृतिकरण ब्राह्मणीकरण की अपेक्षा अधिक विस्तृत अवधारणा है ।
प्रो ० श्रीनिवास ने स्वयं यह महसूस कर लिया था कि जिस प्रक्रिया ने निम्न जातियों को मैसूर में ब्राह्मणों के रीति – रिवाजों का अनुकरण करने के लिए प्रेरित किया , निम्न जातियों में उच्च जातियों के सांस्कृतिक तरीकों का अनुकरण करने की एक सामान्य प्रवृत्ति का ही एक विशिष्ट उदाहरण था । बहुत से मामलों में उच्च जातियाँ अ – ब्राह्मण थीं । वे देश के विभिन्न भागों में क्षत्रिय जात , वैश्य आदि थे । संस्कृतिकरण का अर्थ : प्रो ० श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण को परिभाषित करते हुए लिखा ” संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू जाति या कोई जनजाति अथवा कोई अन्य समूह , किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति ( ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य ) की दिशा में अपने रीति – रिवाज , कर्मकाण्ड , विचारधारा और जीवन पद्धति को बदलता है । “ साधारणतः ऐसे परिवर्तनों के बाद निम्न जाति जातीय संस्तरण की प्रणाली में स्थानीय समुदाय में परम्परागत रूप में उसे जो स्थिति प्राप्त है , उसे उच्च स्थिति का दावा करने लगती हैं । डॉ ० बी ० आर चौहान ने संस्कृतिकरण नामक अवधारणा का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है , ” यह एक उपकरण है जिसके द्वारा हम उस प्रक्रिया को मालूम कर सकते हैं जिसमें निम्न जाती तथा जनजाति अपने व्यवहार एवं जीवन के तरीके हिन्दू समाज के उच्च वर्गों के अनुसार बदलती हैं ।
प्रो ० श्रीनिवास के अनुसार सामान्यतः संस्कृतिकरण के साथ – साथ और प्रायः उसके फलस्वरूप सम्बद्ध जाति ऊपर की ओर गतिशील होती है , परंतु गतिशीलता संस्कृतिकरण के बिना भी , अथवा गतिशीलता के बिना भी संस्कृतिकरण संभव है । किन्तु संस्कृतिकरण सम्बद्ध गतिशीलता के परिणामस्वरूप अवस्था में केवल पदमूलक परिवर्तन होते हैं और इससे कोई संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होते अर्थात् एक जाति अपने पास की जातियों से ऊपर उठ जाती है और दूसरी नीचे आ जाती हैं । परंतु यह सब कुछ अनिवार्यतः स्थायी संस्तरणात्मक व्यवस्था में घटित होता है , व्यवस्था स्वयं परिवर्तित नहीं होती है । संस्कृतिकरण के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करते हुए प्रो ० श्रीनिवास ने लिखा ” संस्कृतिकरण का तात्पर्य केवल नई प्रथाओं एवं आदतों को ग्रहण करना नहीं है बल्कि नए विचारों व मूल्यों को भी व्यक्त करना है जिसका संबंध पवित्रता और धर्म निरपेक्षता से है और जो संस्कृत साहित्य में उपलब्ध है । कर्म , धर्म , पाप , प्रण्य , मोक्ष , आदि ऐसे शब्द हैं जिनका संबंध धार्मिक संस्कृत साहित्य से है । जब लोगों का संस्कृतिकरण हो जाता है तो उनके द्वारा अनायास ही इन शब्दों को प्रयोग किया जाता है । उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से कोई निम्न हिन्दू जातीय समूह अथवा कोई जनजातीय समूह अपनी संपूर्ण जीवन – विधि को उच्च जातियों या वर्णों की दिशा में बदल कर अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है , जातीय संस्तरण की प्रणाली में उच्च होने का दावा प्रस्तुत करता है । प्रो ० श्रीनिवास ने प्रारंभ में संस्कृतिकरण के आदर्श के रूप में ब्राह्मणी मॉडल पर जोर दिया परंतु कालान्तर में यह महसूस किया कि इसके अतिरिक्त क्षत्रीय एवं वैश्य मॉडल भी उपलब्ध रहे हैं । अर्थात् ब्राह्मणों के अतिरिक्त क्षत्रीय , वैश्य एवं कहीं – कहीं किसी अन्य प्रभु जाति की जीवन पद्धति का भी अनुकरण किया गया है |
संस्कृतिकरण की विशेषताएँ :
- संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का संबंध निम्न हिन्दू जातियों , जनजातियों तथा कुछ अन्य समूहों से है । हिन्दू जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत संस्तरण की प्रणाली में अपने समूह की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने की दृष्टि से उपयुक्त समूहों ने संस्कृतिकरण का सहारा लिया है । भील , ओराँव , संथाल तथा गोंड एवं हिमालय के पहाड़ी लोगों का उन जनजातीय लोगों में सम्मिलित किया जाता है जिन्होंने संस्कृतिकरण के माध्यम से अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने और हिंदू समाज का अंग बनने का प्रयत्न किया । अन्य समूहों के अंतर्गत वे लोग आते हैं , जिनका हिन्दू धर्म व संस्कृति से संबंध न होकर अन्य धर्मों एवं संस्कृतियों से संबंध है ।
- संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत अपने से उच्च जातियों की जीवन – विधि का अनुकरण किया जाता है , उनकी प्रथाओं , रीति – रिवाजों , खान – पान , विश्वासों एवं मूल्यों को अपना लिया जाता है
- संस्कृतिकरण के आदर्श या मॉडल एक अधिक हैं । अर्थात् निम्न जातियों एवं कुछ जनजातीय समूहों ने केवल ब्राह्मणों को ही आदर्श मानकर उनका अनुकरण नहीं किया , बल्कि
क्षणिय , वैश्य एवं किसी स्थानीय प्रभु जाति का अनुकरण भी किया , उनकी जीवन शैली को अपनाया । पोकॉक ने बतलाया है कि निम्न जातियों के लिए आदर्श अपने ऊपर की वे जातियाँ होती हैं जिनसे उनकी सबसे अधिक निकटता हो । प्रो ० श्रीनिवास ने भी पोकॉक के इस कथन को सही माना
- संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में अग्रिम समाजीकरण का विचार शामिल है । डॉ ० योगेन्द्र सिंह , संस्कृतिकरण को अग्रिम समाजीकरण मानते हैं , अर्थात् कोई निम्न जातीय समूह एक दो पीढ़ी तक किसी उच्च जाति की जीवन – शैली की दिशा में अपना समाजीकरण करता है ताकि भविष्य में उसे उसके स्थानीय समुदाय में उच्च स्थान प्राप्त हो जाये । कोई भी जातीय समूह अपने इस प्रयत्न में उस समय आसानी से सफलता प्राप्त कर पाता है जब उसकी राजनीतिक एवं आर्थिक शक्ति बढ़ने लगती है या उसका संबंध किसी मठ , तीर्थ – केन्द्र आदि से हो जाता है ।
- संस्कृतिकरण की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह पदमूलक परिवर्तन को व्यक्त करने वाली प्रक्रिया है , न कि संरचनात्मक परिवर्तन को । इसका तात्पर्य यही है कि संस्कृतिकरण के माध्यम से किसी जातीय – समूह की स्थिति आस – पास की जातियों से कुछ ऊपर उठ जाती है परंतु स्वयं जाति – अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होता है । संस्कृतिकरण की प्रक्रिया सामाजिक गतिशीलता को व्यक्त करती है । इससे किसी निम्न जातीय समूह के ऊपर उठने की संभावना रहती है ।
- संस्कृतिकरण की प्रक्रिया सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन को व्यक्त करती है । मिल्टन सिंगर ने लिखा है “ एम ० एन ० श्रीनिवास का संस्कृतिकरण का सिद्धान्त भारतीय सभ्यता में सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन का अत्यन्त विस्तृत और व्यापक रूप से स्वीकृत मानवशास्त्रीय सिद्धांत है । ” कहने का तात्पर्य यह है कि संस्कृतिकरण केवल सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया नहीं है बल्कि सांस्कृतिक परिवर्तनों की भी एक प्रक्रिया है । संस्कृतिकरण के फलस्वरूप भाषा , साहित्य , संगीत , विज्ञान , दर्शन , औषधि तथा धार्मिक विधान आदि के क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तनों के अन्तर्गत ही आते हैं ।
- संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का संबंध किसी व्यक्ति या परिवार से नहीं होकर समूह से होता है , इस प्रक्रिया के द्वारा कोई जातीय या जनजातीय समूह अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है । यदि कोई व्यक्ति या परिवार ऐसा करता है जो उसे न केवल अन्य जातियों के बल्कि स्वयं की जाति के अन्य सदस्यों के क्रोध का भी भाजन बनना पड़ता है ।
- बर्नार्ड कोहन तथा हेरोल्ड गोल्ड नामक विद्वानों के अध्ययनों के आधार पर प्रो ० श्रीनिवास ने बताया है जहाँ निम्न जातियाँ अपनी जीवन – शैलियों का संस्कृतिकरण कर रहीं हैं वहीं उच्च जातियाँ आधुनिकीकरण एवं धर्म – निरपेक्षीकरण की ओर बढ़ रही हैं ।
प्रो ० श्रीनिवास ने स्वयं यह महसूस किया कि अपने प्रारम्भ में संस्कृतिकरण के ब्राह्मणी आदर्श पर आवश्यकता से अधिक जोर दिया । वास्तविकता यह है कि संस्कृतिकरण के आदर्श सदैव ब्राह्मण ही नहीं रहे हैं । पोकॉक ने क्षत्रिय आदर्श के अस्तित्व की चर्चा की है । मिल्टन सिंगर ने बतलाया है कि संस्कृतिकरण के एक या दो आदर्श ही नहीं पाये जाते , बल्कि चार नहीं तो कम से कम तीन आदर्श अवश्य मौजूद हैं । प्रथम तीन वर्ण के लोगों को द्विज कहते हैं क्योंकि इनका उपनयन संस्कार होता है और इन्हें वैदिक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करने का अधिकार होता है जिनमें वेदों के मंत्रों का उच्चारण किया जाता है । श्रीनिवास के अनुसार , ” द्विज ‘ वर्गों में ब्राह्मण इन संस्कारों को पूरा करने के संबंध से सबसे अधिक सावधान होते हैं , और इसलिए दूसरों की अपेक्षा उन्हें संस्कृतिकरण का उत्तम आदर्श माना जा सकता है । लेकिन हमें यहाँ नहीं भूलना चाहिए कि स्वयं ब्राह्मण वर्ण में भी काफी विभिन्नता पाई जाती हैं ।
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ पर ब्राह्मणों के अलावा क्षत्रिय और वैश्य वर्ण भी संस्कृतिकरण के आदर्श रहे हैं । देश के विभिन्न भागों में क्षत्रिय और वैश्य होने का दावा वे सब समूह करते हैं जिनकी क्रमशः सैनिक कार्य तथा व्यापार की परम्पराएँ रही हैं । देश के विभिन्न भागो में भी क्षत्रियो की और सभी वैश्यों की कोई समान कर्मकाण्ड की परम्परा नहीं रही है । इनमें से बहुत से लोगों के वे सब संस्कार नहीं होते जो कि द्विज वर्गों के लिए आवश्यक माने जाते हैं । कहीं कुछ समूहों ने ब्राह्मणों का , तो कहीं क्षत्रियों का और कहीं वैश्यों का अनुकरण किया है , उनकी जीवन – शैली को अपनाया है । नाई , कुम्हार , तेली , बढ़ई , लुहार , जुलाहे , गड़रिये आदि जातियाँ अपवित्रता रेखा के ठीक ऊपर अस्पृश्य या अछूत समूहों के निकट हैं । ये जातियाँ शूद्र वर्ग की जातियों का प्रतिनिधित्व करती हैं । प्रो ० श्रीनिवास का अवलोकन के आधार पर यह अनुभव है कि शूद्रों की व्यापक श्रेणी में कुछ अन्य जातियों का संस्कृतिकरण बहुत कम हुआ है । लेकिन चाहे उनका संस्कृतिकरण हुआ हो या नहीं हुआ हो , प्रभावी कृषक जातियाँ अनुकरण के स्थानीय आदर्श प्रस्तुत करती हैं और जैसा कि पॉकाक तथा सिंगर ने अवलोकित किया है कि ऐसी जातियों के माध्यम से ही क्षत्रिय ( तथा अन्य ) आदर्शों को अपनाया गया है । स्थानीय प्रभावी जाति ( प्रभु जाति संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । यदि स्थानीय प्रभावी जाति ब्राह्मण है , तब संस्कृतिकरण का आदर्श ब्राह्मणी प्रकार का होगा और यदि यह राजपूत या वैश्य है , तब आदर्श राजपूती या वैश्यी प्रकार का होगा । प्रो ० श्रीनिवास के अनुसार , यद्यपि एक लम्बी काल अवधि में ब्राह्मणी कर्मकाण्ड और प्रथाएँ नीची जातियों में फैली हैं , लेकिन बीच – बीच में स्थानीय रूप में प्रभुता – सम्पन्न जाति का भी शेष लोगों के द्वारा अनुकरण किया गया और प्रायः स्थानीय रूप से प्रभावी ये जातियाँ ब्राह्मण नहीं होती थीं । यह कहा जा सकता है कि निम्न स्तर वाली अनेक जातियों में ब्राह्मणी प्रथाएँ एक शृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया के रूप में पहुँची अर्थात् प्रत्येक समूह ने अपने से एक स्तर ऊँचे समूह से कुछ ग्रहण किया और अपने से नीचे वाले समूह को कुछ दिया है ।