सामाजिक तथ्य

सामाजिक तथ्य

 ( Social Fact )

 दुर्थीम की पुस्तक ‘ समाजशास्त्रीय पद्धति के नियम ‘ ( The Rules of Sociological Method ) वह महत्त्वपूर्ण पुस्तक है जिसमें दुर्थीम ने सबसे पहले उन नियमों की विवेचना की जिनके द्वारा समाजशास्त्रीय अध्ययनों को वैज्ञानिक बनाया जा सकता है । इसी पुस्तक में दुर्थीम ने सामाजिक तथ्य के सिद्धान्त की विस्तार से चर्चा की । आरम्भ में ही यह समझना आवश्यक है कि दुर्थीम द्वारा प्रस्तुत पद्धति शास्त्र सामाजिक तथ्य की अवधारणा से धनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है । दुर्शीम ने सामाजिक तथ्य को ही समाजशास्त्र के अध्ययन की वास्तविक विषय – वस्तु के रूप में स्वीकार किया है । इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि सामाजिक तथ्य की प्रकृति को समझकर इनके अध्ययन के प्रमुख नियमों तथा सामाजिक तथ्यों के विभिन्न प्रकारों को समझने का प्रयत्न किया जाय । . सामाजिक तथ्य को दुर्शीम ने एक ऐसी ‘ वस्तु ‘ ( thing ) के रूप में स्वीकार किया है जो वैज्ञानिक अध्ययनों का वास्तविक आधार है । केवल उसी विशेषता को हम ‘ वस्तु ‘ कह सकते हैं जिसका वास्तविक रूप से अवलोकन किया जा सकता हो ।

इस दृष्टिकोण से सामाजिक तथ्य को परिभाषित करते हुए दुर्थीम ने लिखा है , ‘ सामाजिक तथ्य व्यवहार करने ( विचार करने , अनुभव करने या क्रिया करने ) का वह पक्ष है जिसका वस्तुनिष्ठ रूप से अवलोकन किया जा सकता है तथा जिसकी प्रकृति उत्पीड़नकारी अथवा बाध्यतामूलक होती है । इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक जीवन में हम विभिन्न प्रकार के विचारों , अनुभवों या क्रियाओं के रूप में जो भी व्यवहार करते हैं उन्हें सामाजिक तथ्य केवल तभी कहा जा सकता है जब उनका वास्तविक रूप से अवलोकन किया जा सकता हो । इसी अर्थ में सामाजिक तथ्यों की प्रकृति ‘ वस्तु ‘ की तरह होती है । दुर्थीम का मत है कि सामाजिक तथ्य वस्तु के समान मूर्त तथा स्पष्ट होते हैं । इस दृष्टिकोण से सामाजिक तथ्यों का अध्ययन उसी प्रकार किया जाना चाहिए जिस तरह प्राकृतिक विज्ञानी विभिन्न प्राकृतिक तथ्यों का अध्ययन वस्तुनिष्ठ रूप से करते हैं । साथ ही , यदि कोई विचार अनुभव या क्रिया पूरी तरह वैयक्तिक है तथा उसमें अन्य व्यक्तियों को बाध्य करने या उन पर दबाव डालने की क्षमता नहीं होती तो उसे भी सामाजिक तथ्य नहीं कहा जा सकता । इसे स्पष्ट करते हुए दुखीम ने पुनः लिखा है कि ” सामाजिक तथ्यों में कार्य करने , विचार करने तथा अनुभव करने के उन सभी तरीकों का समावेश होता है जो व्यक्ति के लिए बाहरी होते हैं और जो अपनी दबाव – शक्ति के द्वारा ध्यक्ति को नियन्त्रित करते हैं । ” इसी से दुर्थीम का यह कथन स्पष्ट हो जाता है कि ” प्रथम तथा सर्वाधिक मौलिक नियम यह है कि सामाजिक तथ्यों पर वस्तुओं के रूप में विचार किया जाय । ” एक वस्तु के रूप में सामाजिक तथ्य की अवधारणा को दुर्थीम ने श्रम विभाजन सम्बन्धी आंकड़ों के आधार पर स्पष्ट किया । इसके बाद दुर्थीम ने जब आत्महत्या सम्बन्धी अध्ययन किया तब भी उन्होंने आत्महत्या को सामाजिक तथ्य के रूप में देखते हुए एक वस्तु के रूप में ही इनका अवलोकन किया । आत्महत्या की घटती और बढती दर के आधार पर दुर्थीम ने पुन : यह स्पष्ट किया कि ” सामाजिक तथ्य निर्धारित अथवा अनिर्धारित रूप में कार्य करने का वह तरीका जिसमें दूसरे व्यक्तियों पर बाहरी रूप से दबाव डालने की क्षमता हो । दुर्थीम ने यह भी स्पष्ट किया कि अध्ययन के आरम्भ में सामाजिक तथ्यों का रूप बहत अधिक स्पष्ट नहीं होता लेकिन सांख्यिकीय गणना की सहायता से विभिन्न सामाजिक तथ्यों को स्पष्ट रूप से देखकर उनके बीच एक स्पष्ट वर्गीकरण किया जा सकता है । सामाजिक तथ्य के बारे में दुीम के विचारों को समझने के लिए आवश्यक है कि सामाजिक तथ्यों की विशेषताओं एवं उनके प्रकारों की विवेचना की जाय ।

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सामाजिक तथ्य की विशेषताएं

( Characteristics of Social Fact )

 दुीम ने सामाजिक तथ्यों की प्रकृति को इनकी दो विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट किया है । इनमें से पहली विशेषता सामाजिक तथ्यों की बाह्यता ( Exteriority ) है जबकि दूसरी विशेषता इनमें बाध्यता का गुण ( Constraint ) होना है । इसका तात्पर्य है कि सामाजिक तथ्य एक व्यक्ति की चेतना और प्रभाव से बाह्य होते हैं । साथ ही यह इतने शक्तिशाली होते हैं कि व्यक्ति इन्हीं के अनुसार एक विशेष ढंग से व्यवहार करने के लिए बाध्य होता है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि सामाजिक तथ्यों का केवल एक बाह्य स्वरूप ही नहीं होता बल्कि यह दूसरे व्यक्तियों पर दबाव भी डालते हैं । दुर्थीम ने इन दोनों विशेषताओं की विवेचना जिस रूप में की है , संक्षेप में उसे निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :

 1 . बाह्यता ( Exteriority ) सामाजिक तथ्य का प्रथम गुण यही है कि यह बाह्य होते हैं । सामाजिक तथ्यों की बाह्यता से दुर्थीम का तात्पर्य उस स्थिति से है जिसमें इनका अस्तित्व व्यक्ति से स्वतन्त्र होता है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि सामाजिक तथ्यों का सम्बन्ध न तो किसी व्यक्ति विशेष से होता है और न ही यह व्यक्तिगत चेतना का परिणाम होते हैं । इनका अस्तित्व अल्पकालिक न होकर दीर्घकालिक होता है । दुर्थीम ने यह स्पष्ट किया कि विभिन्न सामाजिक तथ्यों का निर्माण कुछ व्यक्तियों के द्वारा ही किया जाता है लेकिन एक बार जब कोई विशेषता सामाजिक तथ्य के रूप में विकसित हो जाती है तब उसका अस्तित्व व्यक्ति से स्वतन्त्र हो जाता है । इस बात को स्पष्ट करने के लिए दुीम ने सामाजिक तथ्यों को वैयक्तिक तथ्यों से पृथक करके स्पष्ट किया है । वैयक्तिक तथ्य व्यक्तिगत चेतना का परिणाम होते हैं जबकि सामाजिक तथ्यों का विकास सामूहिक चेतना ( Collective Conscience ) के द्वारा होता है । जिस प्रकार व्यक्तिगत चेतना सामूहिक चेतना से भिन्न होती है । उसी सामाजिक तथ्यों की प्रकृति भी व्यक्तिगत तथ्यों से भिन्न होती है । सामाजिक तथ्यों में बाह्यता की विशेषता को स्पष्ट करने के लिए दुीम ने अनेक उदाहरण दिए हैं । दुर्शीम ने लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति परिवार में अपने बहुत से दायित्वों का निर्वाह करता है । व्यक्ति द्वारा परिवार के दायित्वों का निर्वाह करना उसका व्यक्ति गत गुण नहीं है बल्कि यह एक ऐसा गुण है जो उसे परिवार से प्राप्त होने वाली शिक्षा के आधार पर प्राप्त होता है ।

व्यक्ति को तो यह भी मालूम नहीं होता कि वह अपने दायित्वों का निर्वाह क्यों कर रहा है ? इस प्रकार दायित्व का निर्वाह करना उस सामाजिक तथ्य का परिणाम है जो व्यक्ति से बाह्य है । इसी प्रकार एक व्यक्ति जब गिरजाघर या मन्दिर में जाना आरम्भ करता है तो उन्हीं धार्मिक विश्वासों तथा शिक्षाओं के अनुसार व्यवहार करने लगता है जो पहले से ही निर्धारित होती हैं । ऐसे सभी धार्मिक विश्वास उस व्यक्ति के आचरणों के स्वरूप का निर्धारण करते हैं , यद्यपि यह विश्वास उस समय विकसित हो चुके होते हैं जब उस व्यक्ति का जन्म भी नहीं हुआ था । स्पष्ट है कि सामाजिक तथ्य जिस व्यक्ति को प्रभावित करते हैं अथवा जिस पर दबाव डालते हैं , उस व्यक्ति के बहुत पहले से ही निर्मित हो चुके होते हैं । अपनी पुस्तक के पहले अध्याय में ही दुर्वीम ने अनेक दुसरे उदाहरणों के द्वारा सामाजिक तथ्यों में बाह्यता के गुण को समझाने का प्रयत्न किया । उनके अनुसार बातचीत करने का तरीका , संकेतों की भाषा , धर्म , मुद्रा – व्यवस्था तथा व्यावसायिक सम्बन्ध आदि अनेक ऐसे सामाजिक तथ्य हैं जो व्यक्ति के व्यवहारों को प्रभावित और नियन्त्रित करते हैं । इस आधार पर दुर्योम ने लिखा है कि ‘ सामाजिक तथ्यों में कार्य करने , विचार करने तथा अनुभव करने के वे सभी तरीके सम्मिलित हैं जो व्यक्ति पर बाहरी दबाव डालते हैं अथवा बाह्य दबाव के द्वारा उसके व्यवहारों को नियन्त्रित करते हैं । ” इस कथन से स्पष्ट होता है कि बाह्य रूप से व्यक्ति को प्रभा वित करने वाले अथवा उसके व्यवहार को निर्देशित करने वाले तथ्य सामान्य रूप से समाज में ही विद्यमान रहते हैं तथा व्यक्ति चेतन अथवा अचेतन दशा में इन्हों तथ्यों के अनुरूप आचरण करता है । दुर्शीम ने स्पष्ट किया कि सामाजिक तथ्य निश्चित रूप से व्यक्ति से बाह्य होते हैं लेकिन तो भी इन तथ्यों में व्यक्तिगत चेतना का कुछ – न – कुछ समावेश अवश्य होता है । इसे स्पष्ट करते हुए दुर्थीम ने बताया कि सामूहिक मस्तिष्क का निर्माण भी बहुत से व्यक्तियों के मस्तिष्कों के संयोजन से ही सम्भव होता है । समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपने संवेगों के आधार पर क्रियाएँ करता है , अनुभव करता है अथवा विचार करता है । जब अलग – अलग संवेगों से संचालित होने वाले मस्तिष्कों के सम्मिलन से एक नए सामाजिक मस्तिष्क का निर्माण होता है तब इसी से सामूहिक चतना जन्म लेती है । इस सामूहिक चेतना तथा व्यक्ति  ात चेतना के बीच होने वाले संयोजन अथवा संघर्ष के फलस्वरूप व्यक्ति के मन में कुछ नयी प्रतिमाओं या धारमाओं ( Images ) का जन्म होता है । सामूहिक चेतना से बनने वाली यह नयी प्रतिमाएं अथवा धारणाएँ ही बाद में व्यक्ति के विचारों तथा उसकी क्रियाओं निर्धारण करती हैं ।

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दुर्थीम का स्पष्ट मत है कि सामूहिक चेतना का निर्माण बहुत से व्यक्तियों की चेतना के सम्मिलन से अवश्य होता है लेकिन एक बार जब सामूहिक चेतना विक सित हो जाती है तब व्यक्ति का मस्तिष्क उसके अधीन हो जाता है । इस मानसिक सत्ता के प्रभाव को ही दुर्थीम ने सामाजिक तथ्य की बाह्यता के रूप में स्पष्ट किया है । सामाजिक तथ्यों में बाह्यता की विशेषता को सिद्ध करने के लिए दुर्शीम ने मुख्यतः चार तर्क प्रस्तुत किये हैं :

( 1 ) सर्वप्रथम , व्यक्तिगत मस्तिष्क सामूहिक मस्तिष्क से भिन्न होता है । सामूहिक मस्तिष्क एक स्वतन्त्र मानसिक सत्ता है जो व्यक्तिगत मस्तिष्क की क्रियाओं तथा विचारों को प्रभावित करती है । सामाजिक तथ्य सामूहिक मस्तिष्क से सम्बन्धित होते हैं , इसीलिए वे व्यक्ति से बाह्य हो जाते हैं ।

( 2 ) समूह – मस्तिष्क का निर्माण जिन सामाजिक परिस्थितियों में होता है , एक व्यक्ति विशेष की परिस्थितियाँ उससे भिन्न होती हैं । इसके फलस्वरूप भी समूह मस्तिष्क तथा व्यक्तिगत मस्तिष्क में एक स्पष्ट भिन्नता देखने को मिलती है । व्यक्ति जब समूह – मस्तिष्क के अधीन हो जाता है तब वह व्यक्तिगत इच्छा से नहीं बल्कि सामूहिक परिस्थितियों के अनुसार ही सोचता तथा व्यवहार करता है ।

( 3 ) समाज में व्यक्ति पर बाह्य सामाजिक तत्त्वों का प्रभाव इस बात से भी TS REDAINसम्पूर्ण समाज में घटित होने वाली घटनाओं में एक आश्चर्यजनक समानता देखने को मिलती है । समान परिस्थितियों में आत्महत्या , विवाह – विच्छेद तथा अपराध की दर में पायी जाने वाली एकरूपता से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक तथ्यों बी बाह्य विशेषता के कारण ही समाज में सामान्य व्यवहारों को प्रोत्साहन मिलता है । इस दृष्टिकोण से भी सामाजिक तथ्य वैयक्तिक विचारों तथा क्रियाओं से बाहा होते हैं ।

 ( 4 ) सामाजिक तथ्यों की बाह्यता एक सावयव के समान है जबकि व्यक्ति इस सावयव के एक अंग की तरह होता है । जिस प्रकार सावयव से पृथक रहकर किसी अंग का अस्तित्व नहीं रहता , उसी तरह सामाजिक तथ्यों से पृथक रहकर व्यक्तिगत तथ्यों का कोई अस्तित्व नहीं होता ।

 बाध्यता ( Constraint ) सामाजिक तथ्यों का बाध्यता से दुर्थीम का तात्पर्य इनके उस गुण से है जो व्यक्ति को एक विशेष ढंग से व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि सामाजिक तथ्य अपनी प्रकृति से केवल बाह्य ही नहीं होते बल्कि अपनी दबाव – शक्ति के द्वारा यह व्यक्ति को उन कार्यों के लिए भी बाध्य करते हैं जो उसकी इच्छा के विरुद्ध हों । सामाजिक तथ्य इस दृष्टिकोण से भी बाध्यता – मूलक होते हैं कि व्यक्ति में सामाजिक तथ्यों को बदलने की क्षमता नहीं होती , यद्यपि सामाजिक तथ्य व्यक्तिगत व्यवहार को किसी भी रूप में बदल सकते हैं । इसका कारण स्पष्ट करते हुए दुर्थीम ने बतलाया कि समूह मस्तिक से उत्पन्न होने वाली सामूहिक चेतना व्यक्तिगत चेतना से कहीं अधिक शक्तिशाली होती है , अतः सामाजिक तथ्यों में बाध्यता का गुण आ जाना बहुत स्वाभाविक है । यह सम्भव है कि विभिन्न परिस्थितियों में कुछ सामाजिक तथ्य दूसरे सामाजिक तथ्यों की तुलना में कम या अधिक बाध्यतामूलक हों लेकिन कोई भी सामाजिक तथ्य ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें एक विशेष स्तर की दबावकारी शक्ति न हो । दुर्थीम का कथन है कि किसी विशेष सामाजिक तथ्य में दबाव की गहनता कुछ कम होने के कारण यदि व्यक्ति ऐच्छिक रूप से कार्य करना आरम्भ कर देता है तब प्रतिक्रिया के रूप में उस सामाजिक तथ्य की बाध्यतामूलक शक्ति तुरन्त बढ़ने लगती है । इसका तात्पर्य है कि सामाजिक तथ्यों में एक तरह की प्रतिरोधात्मक शक्ति भी होती है । सामाजिक तथ्यों में वाध्यता की विशेषता को स्पष्ट करने के लिए दुमि ने दो प्रकार के बाध्यतामूलक तथ्यों का उल्लेख किया है । इन्हें दुीम ने अप्रत्यक्ष बाध्यतामूलक तथ्य तथा प्रत्यक्ष बाध्यतामूलक तथ्य कहा है ।

( क ) अप्रत्यक्ष बाध्यतामूलक तथ्य ( Indirect Constraint ) – यह तथ्य हैं से व्यक्ति पर दबाव डालकर उसके व्यवहारों को समाज के Cयोमाफल बनाते हैं । इसका उदाहरण देते हुए दुर्थीस ने बतलाया कि प्रत्येक समाज मे अनेक नैतिक मूल्य पाये जाते हैं । इन नैतिक मूल्यों के उल्लंडन विकट प्रत्येक समाज में एक निश्चित दण्ड की व्यवस्था होती है । यह आवर नहीं है कि नैतिक मूल्य के उल्लंघन पर व्यक्ति को कठोर दण्ड ही दिया जाय लेकिन इतना अवश्य है कि नैतिक मूल्य अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति को एक विशेष ढंग से व्यव . हार करने के लिए बाध्य अवश्य करते रहते हैं । अप्रत्यक्ष बाध्यतामूलक सामाजिक तथ्यों के प्रभाव को स्पष्ट करते हुए दुर्थीम ने लिखा है कि ” यदि मैं अपने समाज की परम्परागत मान्यताओं को स्वीकार नहीं करता हूँ अथवा अपनी वेश – भूषा के लिए अपने समाज या वर्ग के रीति – रिवाजों को नहीं मानता हूँ तो समाज मेरा जिस ढंग से उपहास करेगा , वह मुझे स्वयं प्रतिमानित व्यवहार करने की दिशा में ले जायेगा । ” इस प्रकार परम्पराओं तथा प्रथाओं की यह बाध्यता अप्रत्यक्ष बाध्यतामूलक तथ्यों का उदाहरण है । दूसरा उदाहरण देते हुए दुर्थीम ने लिखा है कि “ यदि मैं एक उद्योग पति हूँ तो मैं अपनी इच्छा से हजारों वर्ष पुरानी तकनीक का उपयोग करके भी उत्पादन करने के लिए स्वतन्त्र हूँ । लेकिन यदि मैं ऐसा करता हूँ तो इसका तात्पर्य है कि मेरे बरबाद होने के दिन पास आ गये हैं । इसका विचार किये बिना भी यदि मैं पुरानी मशीनों का उपयोग करूंगा तो यह बाध्यतामूलक तथ्य कि प्रत्येक उद्योगपति को उन उपकरणों का उपयोग करना चाहिए जो दूसरे उद्योगपतियों के पास हैं , किसी – न – किसी रूप में मेरे व्यवहारों को अवश्य प्रभावित करेगा । ” इस प्रकार दुर्शीम ने यह स्पष्ट किया कि अप्रत्यक्ष बाध्यतामूलक सामाजिक तथ्यों का सम्बन्ध उन सामाजिक प्रचलनों से होता है जो एक विशेष अवधि में सम्पूर्ण समाज में व्याप्त रहते हैं ।

 ( ख ) प्रत्यक्ष बाध्यतामूलक तथ्य ( Direct Constraint ) यह सामाजिक तथ्य वे हैं जो प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति पर दबाव डालकर उसकी इच्छा के विपरीत भी उसे एक विशेष ढंग से व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं । इस तरह के सामाजिक तथ्य समाज के संगठन में ही निहित होते हैं । उदाहरण के लिए , जातिगत संगठन , धार्मिक संगठन तथा कानून आदि प्रत्यक्ष बाध्यतामूलक तथ्यों की प्रकृति को स्पष्ट करते हैं । इन्हें प्रत्यक्ष बाध्यतामूलक तथ्य इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह एक निश्चित दण्ड संहिता के आधार पर व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करते हैं । दुर्थीम का कथन है कि अनेक बार व्यक्ति ऐसा सोचता है कि किसी नये विचार अथवा किसी आन्दोलन को स्वीकार करने का निर्णय उसने स्वयं लिया है किन्तु यह उस व्यक्ति का भ्रम है । इसका कारण यह है कि सामाजिक संगठन में स्वयं ऐसे प्रत्यक्ष बाध्यतामूलक तथ्य निहित हैं जो व्यक्ति को एक विशेष ढंग से विचार करने अथवा क्रिया करने के लिए बाध्य करते हैं । उदाहरण के लिए , यदि परव्यक्तिगमन ( Adultery ) के दोषी व्यक्ति पर क्रोधित होने वाली भीड़ में सम्मिलित होकर यदि हम स्वयं भी उस व्यक्ति को मारने लगें तो हम यह सोच सकते हैं कि उसे मारने का निर्णय स्वयं हमारा है लेकिन वास्तव में हम ऐसा निर्णय नैतिक संहिता के अनुसार  काम करने वाली भीड़ के दबाव के अनुसार ही लेते हैं । इस सकार दुर्थीम ने यह स्पष्ट किया कि प्रत्यक्ष बाध्यतामूलक तथ्यों का प्रभाव अप्रत्यक्ष बाध्यतामूलक तथ्यों की तुलना में कुछ अधिक होता है ।

सामाजिक तथ्यों के प्रकार ( Types of Social Facts )

 दुर्शीम ने जापान के समाज में वंश और प्रजाति का वर्गीकरण करने के लिए जिस आधार का उपयोग किया उसके फलस्वरूप सामाजिक तथ्यों के विभिन्न प्रकारों को स्पष्ट करना सम्भव हो सका । दुर्शीम का कथन है कि जापान के समाज में किसी बुनियादी परिवर्तन के बिना ही विकास की गति बहुत तेज हुई । इसका कारण सम्भवतः वहाँ कुछ विशेष प्रकार के सामाजिक तथ्यों का प्रभावपूर्ण होना था । इसका तात्पर्य है कि सामाजिक तथ्यों के प्रकारों को समझकर विभिन्न घटनाओं के बीच कार्य – कारण के सम्बन्ध को समझना अधिक सरल हो सकता है । इस सम्बन्ध में रेमण्ड एरों ने लिखा है , ” दुर्थीम द्वारा वंश तथा प्रजाति के अध्ययन से दो महत्त्वपूर्ण परिणाम प्राप्त हुए – पहला यह कि सामान्य तया व्याधिकीय तथ्यों – के बीच का अन्तर ज्ञात हो सका तथा दूसरा यह कि इन तथ्यों की व्याख्या के सिद्धान्त ( Theory of Explation ) की खोज हो सकी । ” दुर्थीम ने अपनी पुस्तक समाजशास्त्रीय पद्धति के नियम के तीसरे अध्याय में सामाजिक तथ्यों के प्रकारों तथा उनके अन्तर को ज्ञात करने की पद्धति को स्पष्ट किया है । दुर्थीम के अनुसार सामाजिक तथ्य मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं – सामान्य सामाजिक तथ्य एवं व्याधिकीय सामाजिक तथ्य ।

 ( 1 ) सामान्य सामाजिक तथ्य ( Normal Social Facts ) दुर्वीम का कथन है कि सामान्य सामाजिक तथ्यों का तात्पर्य उन सामाजिक घटनाओं से है जो समाज द्वारा मान्यता प्राप्त सर के अनुरूप होती हैं । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि जो सामाजिक घटनाएँ प्रतिमानित व्यवहारों से अनुरूपता प्रदर्शित करने वाली होती हैं , उन्हीं को सामान्य सामाजिक तथ्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । दुीम ने स्वस्थ शरीर तथा अस्वस्थ अथवा रुग्ण शरीर की चर्चा करते हुए बहुत विस्तार के साथ सामाजिक तथ्यों की प्रकृति को स्पष्ट किया । उनके अनुसार जिन सामाजिक तथ्यों को साधारणतया लोग व्याधिकीय तथ्य मान लेते हैं , उनमें से अनेक तथ्य ऐसे होते हैं जिन्हें सामान्य सामाजिक तथ्य ही कहा जा सकता है । उदाहरण के लिए , दुर्शीम ने बतलाया कि अपराध एक सामान्य सामाजिक तथ्य है । ऐसा क्यों हैं ? इसे स्पष्ट करते हुए रेमण्ड ऐरों ने लिखा है कि अपराध एक सामान्य घटना है क्योंकि अधिकांश समाजों में इसकी दर बहुत – कुछ सामान्य रूप में ही देखने को मिलती है । यदि इस अर्थ में हम अपराध अथवा आत्महत्या जैसी घटना को सामान्य मान सकते हैं तब यह जानना बावश्यक DREDMI NOTE – 8 ‘ शब्द से दुर्थीम का तात्पर्य क्या है ? इसे स्पष्ट करते हुए दुर्थीम  ने लिखा है , ‘ कोई भी वह घटना जो एक समाज के विकास की किसी किस अवस्था में सामान्य रूप से पायी जाती है , उसे हम एक सामान्य घटना कहते हैं । ” स्पष्ट है कि दुर्शीम ने सामान्य सामाजिक तथ्यों की प्रकृति को किसी समाज में एक विशेष काल के परिप्रेक्ष्य में ही स्पष्ट किया है । अधिक सरल रूप में यह कहा जा सकता है कि यदि हमें यह ज्ञात करना हो कि एक समाज विशेष में कौन से तथ्य सामान्य तथ्य हैं , तो इसका निर्धारण करने के लिए हमें उस समाज में एक विशेष काल पर अपना ध्यान केन्द्रित करना पड़ेगा । उदाहरण के लिए , वर्तमान काल में हमारे समाज के अन्तर्गत भ्रष्टाचार , एक सामान्य सामाजिक तथ्य हो सकता है लेकिन यह सम्भव है कि प्राचीनकाल में भ्रष्टाचार को एक सामान्य तथ्य के रूप में न देखा जाता हो ।

दुर्थीम ने बहुत स्पष्ट उदाहरण के द्वारा इस बात को स्पष्ट किया है । उनका कहना है कि यदि वृद्धावस्था को स्वयं में एक व्याधि अथवा बीमारी मान लिया जाय तो हम वृद्ध लोगों को ‘ स्वस्थ वृद्ध ‘ तथा ‘ अस्वस्थ वृद्ध ‘ जैसी दो श्रेणियों में नहीं बाँट सकते । इसका तात्पर्य है कि समाज में यदि कोई तथ्य निश्चित क्रम तथा सामान्य दर से पाया जाता है तो उसे एक सामान्य तथ्य के रूप में स्वीकार कर लेना ही उचित है , इस आधार पर दुर्थीम ने पुन : यह स्पष्ट किया कि जो तथ्य समाज के संगठन तथा एकीकरण के लिए उत्तरदायी होते हैं एवं जो व्यक्ति के व्यवहार का सामान्य अंग होते हैं , उन्हें सामान्य सामाजिक तथ्य कहा जा सकता है । यदि इस दृष्टिकोण से विचार किया जाय तो सामान्य सामाजिक तथ्यों की प्रकृति को अनेक विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है :

 ( 1 ) सामान्यता ( Generality ) – दुर्थीम का मत है कि सामान्य सामाजिक तथ्य वे हैं जो किसी समाज में मक निस्चित अवधि में सामान्य दर से पाये जाते हैं । इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने बतलाया कि प्रत्येक समाज में तथा प्रत्येक काल में अपराध एक एसा सामाजिक तथ्य है जो किसी – न – किसी रूप में अवश्य पाया जाता रहा है । किसी समाज में इसकी दर कुछ कम होती है तो दूसरे समाज में इसकी दर कुछ अधिक हो सकती है । साथ ही किसी अवधि में इसकी दर दूसरी अवधि की तुलना कुछ कम या अधिक पायी जाती रही है । कभी भी किसी अवधि में कोई ऐसा समाज देखने को नहीं मिलता जिसमें अपराध बिलकुल भी न होते हो । यह एक ऐसी सामान्यता है जिसे संसार के सभी समाज स्वीकार करते हैं । इस दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि , ” सामान्य सामाजिक तथ्यों का तात्पय उन सामाजिक घटनाओं से है जो विभिन्न समाजों में सर्वाधिक सामान्य रूप से विद्यमान होती है ।

 ( 2 ) निश्चित दर ( Certain Rate ) – सामान्य सामाजिक तथ्यों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इनके घटित होने की एक लगभग निश्चित दर पाया जाती है । दुर्चीम ने आत्महत्या का उदाहरण देते हुए बतलाया कि आत्महत्या एक सामान्य सामाजिक तथ्य इसलिए है क्योंकि एक विशेष समाज तथा एक विशेष अवधि में इसकी दर बहुत कुछ निश्चित रूप में देखने को मिलती है ।

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( 3 ) संगठनकारी शक्ति ( Organizing Capacity ) – दुर्थीम का विचार है कि सामाजिक संगठन को एक विशेष रूप देने में सामान्य सामाजिक तथ्यों की प्रमुख भूमिका होती है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि किसी समाज में उन तथ्यों को सामान्य सामाजिक तथ्य कहा जा सकता है जिनके सन्दर्भ में समाज को संगठित किया जाता है अथवा जिनमें सामाजिक संगठन को एक विशेष रूप देने की शक्ति होती है ।

( 4 ) विशिष्टता ( Specificity ) – दुर्थीम ने यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक समाज में पाये जाने वाले सामान्य तथ्य उस समाज के लिए विशिष्ट होते हैं । उनके शब्दों में , ” प्रत्येक समुदाय का अपना एक विशेष स्वास्थ्य होता है क्योंकि प्रत्येक समुदाय का अपना एक पृथक औसत स्वरूप है । ” इसका तात्पर्य है कि एक आदिम समुदाय के लिए जो तथ्य सामान्य है , उसका एक सभ्य समुदाय के लिए सामान्य तथ्य होना आवश्यक नहीं होता । उदाहरण के लिए , जनजातियों में ‘ हरण – विवाह ‘ व्यवहार का एक सामान्य तरीका अथवा सामान्य सामाजिक तथ्य है जबकि हमारे जैसे सभ्य समाजों में इसे एक सामान्य तथ्य नहीं कहा जा सकता ।

 ( 5 ) उपयोगिता ( Utility ) – – – दुर्थीम के अनुसार समाज में सामान्य सामाजिक तथ्यों को उपयोगिता के आधार पर भी पहचाना जा सकता है । इसका कारण यह है कि सामान्य रूप से समाज में उन्हीं घटनाओं को स्वीकार किया जाता है जो उस काल में समाज के लिए उपयोगी हो सकती है । दुर्बीम ने बतलाया कि यूरोप में जो अर्थ – व्यवस्था कुछ समय पहले तक प्रचलित थी , वह तब सामान्य थी लेकिन वर्तमान में पायी जाने वाली अर्थव्यवस्था पहले से बिल्कुल भिन्न होने के बाद भी आज इसलिए सामान्य है क्योंकि वह आज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयोगी है । तथा उसे अधिकांश व्यक्ति स्वीकार कर रहे हैं । इस दृष्टिकोण से भी सामान्य सामाजिक तथ्यों का निर्धारण एक समय विशेष की स्वीकृति के आधार पर ही किया जा सकता है । इसी आधार पर दुर्थीम ने लिखा है कि ” वह सब कुछ जो उपयोगी है , सामान्य भी है । इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी में बहुपत्नी विवाह एक सामान्य सामाजिक तथ्य था क्योंकि उस समय प्रथा को था । वर्तमान औद्योगिक समाजों में एक विवाह आज की पयोगी है और इसलिए इसे कानूनी तथा सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है । इस प्रकार वर्तमान समाजों में एक विवाह को ही सामान्य सामाजिक तथा माना जा सकता है , बहुपत्नी विवाह को नही ।

 ध्याधिकीय सामाजिक तथ्य ( Pathological Social Facts ) हीम के शब्दों में संक्षेप में कहा जा सकता है कि ” जो तथ्य समाज के मान्यता प्राप्त स्तर से भिन्न हैं , उन्हीं को व्याधिकीय सामाजिक तथ्य कहा जाता 10 दुसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि जिन घटनाओं को समाज सामान्य दष्टिकोण से नहीं देखता तथा जिनके घटित होने की कोई सामान्य दर नहीं होती , उन्हें व्याधिकीय सामाजिक तथ्य कहा जा सकता है । दुर्शीम ने तुलनात्मक आधार पर व्याधिकीय सामाजिक तथ्यों की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए बतलाया कि सामान्य सामाजिक तथ्यों में जहाँ सामान्यता , सामाजिक स्वास्थ्य , उपयोगिता तथा संगठन के गुण होते हैं वहीं दूसरी ओर व्याधिकीय सामाजिक तथ्य वे हैं जो समाज में किसी पीड़ा से उत्पन्न होते हैं । उदाहरण के लिए , आत्महत्या एक सामान्य सामाजिक तथ्य हो सकती है लेकिन समाज में विसंगति ( Anomie ) की दशा ( जो सामाजिक पीड़ा की एक विशेष दशा है ) उत्पन्न होने पर यदि विसंगत आत्महत्याएँ ( Anomie Suicide ) होने लगें तो इन्हें व्याधिकीय सामाजिक तथ्य माना जायेगा । दुर्थीम का कथन है कि सामाजिक पीड़ा एक अचेतनता की दशा है जो व्याधिकीय होती है । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि समाज को क्षति पहुंचाने वाली घटनाएँ जिन सामाजिक तथ्यों को जन्म देती हैं उन्हीं को दुर्शीम ने व्याधिकीय सामाजिक तथ्य कहा है । वास्तविकता यह है कि व्याधिकीय सामाजिक तथ्यों के बारे में दुर्थीम के विचार अधिक स्पष्ट नहीं हैं । इसका कारण यह है कि एक ओर दुर्थीम ने अपराध तथा आत्महत्या को सामान्य सामाजिक तथ्य के रूप में स्वीकार किया है जबकि दूसरी ओर यह स्वीकार करते हैं कि समाज के मान्यता प्राप्त स्तर से भिन्न एवं समाज को क्षति पहुँचाने वाली घटनाएँ व्याधिकीय सामाजिक तथ्य हैं । इस रूप में अपराध तथा आत्महत्या को भी व्याधिकीय सामाजिक तथ्य ही कहा जाना चाहिए था । इस समस्या का समाधान करते हुए दुर्थीम ने बतलाया कि सामाजिक तथ्यों के अध्ययन में केवल इतना जान लेना ही महत्त्वपूर्ण नहीं है कि कौन – सा सामाजिक तथ्य सामान्य है तथा कौन – सा ब्याधिकीय । अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमें जिन सामाजिक तथ्यों का अध्ययन करना हो , एक ओर उनसे कार्य कारण सम्बन्ध को समझने का प्रयल किया जाये तथा दूसरी ओर समाज पर उनके प्रभावों की विवेचना की जाये । ‘

 अपराध ‘ एक सामान्य तथ्य के रूप में दुर्थीम ने सामान्य तथा व्याधिकीय सामाजिक तथ्यों की प्रकृति को स्पष्ट  करने के लिए अपराध का उदाहरण देते हुए एक सामान्य सामाजिक तथ्य के रूप में स्पष्ट किया । साधारणतया अपराध को एक व्याधिकीय सामाजिक तथ्य मानने पर बल दिया जाता है लेकिन दुीम ने अपनी अवधारणा के आधार पर इसका विरोध करते हुए बतलाया कि अपराध में अनेक ऐसी विशेषताओं का समावेश है जिनके कारण इसे एक सामान्य सामाजिक तथ्य ही कहा जा सकता है । इसका पहला कारण यह है कि अपराध की प्रकृति शाश्वत है । दुनियाँ में कभी भी कोई समाज ऐसा नहीं रहा है जिसमें किसी – न – किसी रूप में अपराध न पाये जाते हों । इसका तात्पर्य है कि अपराध में ‘ सामान्यता ‘ की विशेषता विद्यमान है । दूसरी बात यह है कि एक दृष्टि कोण से अपराध समाज के लिए उपयोगी भी है क्योंकि यह सामाजिक जीवन की बुनियादी परिस्थितियों से जुड़ा रहा है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि समाज के नैतिक तथा कानूनों का उद्विकास अपराधी व्यवहारों के सन्दर्भ में ही हो सका । दुर्वीम का कथन है कि जिस समाज में अपराध होते हैं , उस समाज की सामूहिक भावनाएं काफी लोचपूर्ण होती हैं और इसीलिए वहाँ व्यवहार के नये रूपों को आसानी से ग्रहण कर लिया जाता है । दुर्थीम ते यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि विचलन ( Deviance ) तथा प्रगति के बीच गहरा सम्बन्ध है । इसका तात्पर्य है कि जब कभी भी समाज में विचलनकारी व्यवहार बढ़ते हैं तब उनके समाधान के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों से ही सामाजिक प्रगति सम्भव हो पाती है । दुर्थीम ने लिखा है कि एक स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था के लिए अपराध आवश्यक तथ्य है । इसी रूप में अपराध को एक सामान्य सामाजिक तथ्य ‘ के रूप में देखा जाना चाहिए ।

समालोचना ( Critique ) सामाजिक तथ्यों की विवेचना के द्वारा दुर्शीम ने समाजशास्त्र की अध्ययन पद्धति को एक वैज्ञानिक आधार देने का प्रयत्न अवश्य किया लेकिन अनेक आधारों पर विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक तथ्यों से सम्बन्धित दुर्थीम के विश्लेषण में अनेक असंगतियों को स्पष्ट किया है । सर्वप्रथम , यह कहा जाता है कि सामाजिक तथ्य की अवधारणा में दुर्थीम ने व्यक्ति की अपेक्षा समूह को कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है जबकि वास्तविकता यह है कि व्यक्ति के अध्ययन के बिना समूहों का वैज्ञा निक अध्ययन सम्भव नहीं है । स्वयं दुर्शीम ने भी इस वास्तविकता को स्वीकार करते हुए कहा है कि ” मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि व्यक्ति को समाज से पृथक करके उसे सकता है । ” यह भी आलोचना की जाती है कि दुीम ने बालक की प्रमुख विशेषता के रूप में स्पष्ट किया है लेकिनयह विशेषता इस दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण नहीं है कि एक समाज के सदस्यों में प्रत्येक सामाजिक तथ्य की बाध्यता के बारे में कोई आम सहमति नहीं होती । इस आधार पर सामाजिक तथ्य की अवधारणा संकीर्ण हो जाती है । सामाजिक तथ्य की अव धारणा से सम्बन्धित एक अन्य दोष यह है कि दुर्शीम व्याधिकीय सामाजिक तथ्यों की प्रकृति को पूर्णतया स्पष्ट नहीं कर सके । दुीम ने अपराध तथा आत्महत्या को सामान्य सामाजिक तथ्य कहकर अपनी विवेचना को स्वयं भ्रमपूर्ण बना दिया । वास्तविकता यह है कि किसी भी अवधारणा के विश्लेषण में कुछ दोष अवश्य हो सकते हैं लेकिन दुर्थीम द्वारा प्रस्तुत सामाजिक तथ्य की अवधारणा सामाजिक घटनाओं को समझने में बहुत अधिक सहायक सिद्ध हुई है । सामाजिक तथ्यों का सम्बन्ध सामूहिक चेतना से होने के कारण यदि उन्हें समझ लिया जाय तो समाज की सभी प्रतिनिधि विशेषताओं को समझना सरल हो जाता है । दूसरी बात यह है कि यदि हम सामाजिक तथ्यों को एक ‘ वस्तु ‘ के रूप में मानकर उनका अध्ययन करें तो सामाजिक अध्ययनों में भी वैज्ञानिकता लाना सम्भव हो सकता है । सामाजिक घटनाओं की प्रकृति इतनी जटिल है कि कोई भी व्यक्ति उनका वस्तुनिष्ठ अध्ययन करने में कठिनाई महसूस करता है । दुर्शीम ने बाह्यता तथा बाध्यता के आधार पर सामाजिक तथ्यों की विशेषताओं को स्पष्ट करके उनके वैज्ञानिक अध्ययन के लिए एक ठोस आधार प्रस्तुत किया । समाजशास्त्र के लिए दुर्थीम का यह निश्चय ही एक महत्त्वपूर्ण योगदान है ।

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