सामाजिक उद्विकास

 

सामाजिक उद्विकास

( Social Evolution )

 

 

सामाजिक उद्विकास का विचार सर्वप्रथम उस समय उत्पन्न हुआ जब समाज विज्ञानियों ने यह सोचना प्रारम्भ किया कि समाज का विकास एक अवस्था से दूसरी अवस्था की ओर होता है । प्रारम्भ में आदर्शात्मक आधारों पर उद्विकास को सामाजिक सुधार के प्रयास के रूप में ही स्वीकार किया गया था । इन विचारों में यह विचार भी निहित था कि ” मनुष्य समाज के सुधार के लिए प्रयास कर सकता है और यदि वह प्रयास करता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि उन प्रयासों के परिणाम क्या होंगे । ” 1 मानव के प्रयासों की इन अनिश्चितताओं के उत्तर खोजने का प्रयास उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक काल से हुआ जिसके द्वारा अनेक समाज विज्ञानियों ने ब्रह्माण्ड के प्रारूप में मनुष्य और समाज की स्थिति को समझने का प्रयास किया । इनके परिणामस्वरूप यह स्वीकार किया जाने लगा कि प्राकृतिक नियमों के आधार पर ही सामाजिक प्रगति के नियमों का भी निर्धारण होता है । इस दिशा में पहला प्रयास कॉम्ट द्वारा तब किया गया जब उन्होंने सामाजिक विकास की निश्चित अवस्थाओं की चर्चा की । इसके पश्चात् ही सामाजिक जीवन से सम्बन्धित नियमों को ज्ञात करने की एक वैज्ञानिक परम्परा आरम्भ हो सकी । इसी शृंखला में हरबर्ट स्पेन्सर का सामाजिक उद्विकास का नियम एक प्रथम वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में स्वीकार किया जाता है । हरबर्ट स्पेन्सर ने उद्विकास को ब्रह्माण्ड की एक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया । उनका कथन है कि ” उद्विकास एक ब्रह्माण्ड सम्बन्धी प्रक्रिया है जिसका क्षेत्र सामाजिक तथा सांस्कृतिक है । साथ ही यह प्रक्रिया सावयवी एवं असावयवी जगत में भी चलती रहती है ।

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स्पेन्सर ने उद् विकास की अवधारणा को परिभाषित करते हुए बतलाया कि ” उद्विकास की प्रक्रिया सापेक्षिक रूप से अनिश्चित , असम्बद्ध समानता से सापेक्षिक रूप से निश्चित एवं सम्बद्ध विषमरूपता की ओर होने वाले परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करती है । स्पेन्सर ने उद्विकास की चर्चा अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘ प्रथम सिद्धान्त ‘ ( First * Principles ) में की है । उ विकास की प्रक्रिया को समझाने के लिए स्पेन्सर ने विभिन्न नियमों का प्रतिपादन किया । स्पेन्सर वास्तव में सामाजिक उद्विकास की चर्चा करना चाहते थे । इस कार्य के लिए उन्होंने सामाजिक उद्विकास के सिद्धान्त मे पूर्ण वैज्ञानिकता लाने का प्रयास करते हुए इसे भौतिक विकास और प्राणीशास्त्रीय विकास के नियमों की सहायता से स्पष्ट करने का प्रयास किया । स्पेन्सर के सामाजिक उद्विकास के नियम को समझने के लिए सर्वपथम यह आवश्यक है कि उनके द्वारा प्रतिपादित भौतिक एव प्राणीशास्त्रीय उदविकास की प्रकृति को समझ लिया जाये ।

 

भौतिक उद्विकास का नियम

( Law of Physical Evolution )

 

 भौतिक उद्विकास के नियम को प्रतिपादित करते हुए स्पेन्सर ने तीन मूल नियमों एवं चार गौण मान्यताओं ( Secondary Propositions ) की चर्चा की है । स्पेन्सर द्वारा बतलाये गये ये नियम एवं मान्यताएँ इस प्रकार हैं :

 

 ( 1 ) शक्ति के स्थायित्व का नियम ( Law of Persistence of Force )

 

( 2 ) पदार्थ के अविनाशी होने का नियम ( Law of Indestructibility of Matter )

 

( 3 ) गति की निरंतरता का नियम ( Law of Continuity of Motion )

 

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( 1 ) शक्ति के स्थायित्व का नियम ( Law of Persistence of Force )

 

स्पेन्सर ने इस नियम के आधार पर यह बतलाने का प्रयास किया कि जगत के प्रत्येक तत्त्व में शक्ति शाश्वत रूप से विद्यमान रहती है । इसकी मात्रा में न तो कमी आती है और न ही इसे बढ़ाया जा सकता है । इसी प्रकार शक्ति कभी नष्ट भी नहीं होती । इसकी गहन व्याख्या करते हुए उन्होंने बतलाया कि अन्तिम रूप से शक्ति ही सभी वस्तुओं के परिवर्तन का प्रमुख कारक होती है । यह सच प्रतीत होता है कि शक्ति अनेक वस्तुओं में परिवर्तन पैदा कर सकने में समर्थ है किन्तु किस वस्तु में कितनी शक्ति निहित है , इसे सरलता से ज्ञात नहीं किया जा सकता । इसीलिए स्पेन्सर जगत के सभी तत्त्वों में विद्यमान रहने वाली शक्ति को एक ‘ अज्ञेय शक्ति ‘ ( Unknowable Force ) के रूप में स्वीकार करते हैं ।

 

( 2 ) पदार्थ के अविनाशी होने का नियम ( Law of Indestructibility of Matter ) – – स्पेन्सर द्वारा प्रतिपादित इस नियम को आधुनिक भौतिक विज्ञान ने अस्वीकार कर दिया है । इसके पश्चात् भी स्पेन्सर ने इस नियम के आधार पर यह बतलाने का प्रयास किया कि विश्व में जो भी पदार्थ निर्मित होते हैं या जिन पदार्थों का अस्तित्व है , वे कभी नष्ट नहीं होते ।

 

 ( 3 ) गति की निरंतरता का नियम ( Law of Continuity of Motion ) गति की निरंतरता से स्पेन्सर का तात्पर्य ऊर्जा से है । उनके अनुसार ऊर्जा एक स्वरूप से दूसरे स्वरूप में बदलती रहती है किन्तु यह शाश्वत रूप से पायी जाती है । इस सिद्धान्त को कुछ अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए हम यह कह सकते हैं कि ‘ ऊर्जा के दो रूप होते हैं – एक स्थायी ऊर्जा ( Potential Energy ) तथा दूसरी गतिज ऊर्जा ( Knetic Energy ) । जब हम घड़ी की स्प्रिंग में चाबी भरते हैं तब उस स्प्रिंग में निहित स्थायी ऊर्जा , गतिज ऊर्जा में परिवर्तित होने लगती है । चाबी भरने के बाद गतिज ऊर्जा स्थायी ऊर्जा बन जाती है । घड़ी के चलने पर चाबी भरी हुई स्प्रिंग की स्थायी ऊर्जा , पुनः गतिज ऊर्जा में बदलने लगती है और इस प्रकार स्थायी तथा गतिज ऊर्जा के बीच सदैव एक निरंतरता बनी रहती है ।

 

उक्त तीन मूलभूत नियमों के अतिरिक्त स्पेन्सर ने भौतिक उविकास से जुड़े हुए जिन अन्य चार गौण नियमों अथवा मान्यताओं की चर्चा की है , वे इस प्रकार हैं :

 

( 1 ) शक्ति सम्बन्धों के मध्य स्थायित्व का नियम ( Law of Persistence of the relationship between the Force ) –

( 2 ) शक्ति के रूपान्तरण तथा सन्तुलन का नियम ( Law of Transformation and Equivalence of Forces )

( 3 ) न्यूनतम प्रतिरोध एवं अधिकतम आकर्षण का नियम ( Law of Least _ _ Resistence and Great Attraction ) –

( 4 ) गति की क्रमिक परिवर्तनशीलता का नियम ( Law of Alteration of Motion ) –

 

 

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( 1 ) शक्ति सम्बन्धों के मध्य स्थायित्व का नियम ( Law of Persistence of the relationship between the Force ) –

 

स्पेन्सर का कथन है कि शक्ति सम्बन्धों के बीच स्थायित्व पाया जाता है और यह परस्पर – सम्बद्धता प्रत्येक स्थान पर समान रूप से पाई जाती है । इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए उन्होंने बतलाया कि भौतिक जगत के उपरोक्त तीनों मुख्य नियम समरूपता के आधार पर कार्य करते हैं । इसीलिए उन्होंने इस नियम को ‘ समरूपता का नियम ‘ ( Law of Uniformity ) के नाम से भी सम्बोधित किया है ।

 

( 2 ) शक्ति के रूपान्तरण तथा सन्तुलन का नियम ( Law of Transformation and Equivalence of Forces ) – स्पेन्सर ने शक्ति के दो स्रोतों को स्वीकार किया है । उनके अनुसार शक्ति , पदार्थ और गति में निहित हैं । स्पेन्सर ने बतलाया कि शक्ति के इन स्रोतों में रूपान्तरण की प्रक्रिया चलती रहती है , अर्थात् पदार्थ की शक्ति गति को तथा गति की शक्ति पदार्थ को प्रभावित करती है । इस रूपान्तरण के बाद भी शक्ति के संतुलन में कोई कमी नहीं आती । इस नियम को आसानी से समझने के लिए हम कह सकते हैं कि पानी में जो शक्ति निहित है वह पानी के रूप के बदलने पर अर्थात वाष्प , बर्फ अथवा पूनः पानी बनने पर भी उसी प्रकार से बनी रहती है ।

 

 ( 3 ) न्यूनतम प्रतिरोध एवं अधिकतम आकर्षण का नियम ( Law of Least _ _ Resistence and Great Attraction ) – स्पेन्सर ने बतलाया कि प्रत्येक पदार्थ में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं । पहली यह कि प्रत्येक पदार्थ उस ओर तीव्रता से गतिमान होता है , जहाँ प्रतिरोध कम होता है । प्रतिरोध अथवा घर्षण कम होने पर बढ़ती हुई गति को हम ऐसे समझ सकते हैं कि गोल वस्तु चपटी वस्तु की अपेक्षा समतल धरातल पर तीव्रता से दौड़ती है अथवा यह कि पानी ढलान की ओर ही बहता है । दूसरी प्रवृत्ति यह है कि जहाँ पर कोई पदार्थ पहले से जमा होता है वहाँ शेष पदार्य भी एकत्रित होने लगता है । इस नियम के दूसरे पक्ष की भौतिक विज्ञानियों ने आलोचना करते हुए उदाहरण दिया है कि हवा की गति वहाँ अधिक बढ़ जाती है जहाँ शून्य ( Vaccume ) की स्थिति होती है ।

 

( 4 ) गति की क्रमिक परिवर्तनशीलता का नियम ( Law of Alteration of Motion ) – स्पेन्सर का कथन है कि भौतिक जगत में व्याप्त गति निरन्तर बनी रहती है । गति कभी कम या कभी तीव्र हो सकती है किन्तु गति की निरन्तरता कभी भी नष्ट नहीं होती । इन तीन प्रमुख नियमों तथा चार गौण नियमों के आधार पर स्पेन्सर न उद्विकास को परिभाषित करते हुए कहा कि ” उद्विकास , पदार्थ एवं सहवर्ती विकाणविचारों का एकीकरण है जिसमें पदार्थ एक अनिश्चित तथा असम्बद्ध समानता की स्थिति से गुजर कर निश्चित तथा सम्बद्ध विषमरूपता की स्थिति तक पहुँचता है । ” 4 स्पेन्सर ने बतलाया कि भौतिक जगत में उद विकास की प्रक्रिया उक्त सात नियमों के द्वारा ही संचालित होती है तथा ये सभी नियम एक साथ मिलकर कार्य करते हैं ।

 

प्राणीशास्त्रीय उद्विकास का सिद्धान्त

 ( Law of Biological Evolution )

 

 स्पेन्सर द्वारा प्रतिपादित प्राणीशास्त्रीय सिद्धान्त के विषय में एक विवाद प्रारम्भ से ही चला आ रहा है कि इसके आरम्भिक प्रतिपादक डाविन हैं अथवा स्पेन्सर । वास्तविकता यह है कि डाविन को प्राणीशास्त्रीय उद विकास के सिद्धान्त के जनक के रूप में स्वीकार किया जाता है । इसका मुख्य प्रमाण यह है कि डाविन द्वारा लिखित पुस्तक ” ओरिजिन ऑफ स्पेसीज ” ( Origin of Species ) का प्रकाशन सन् 1859 में हुआ था जबकि स्पेन्सर ने ‘ प्राणीशास्त्र के सिद्धान्त ‘ नामक पुस्तक को सन् 1864 में प्रकाशित किया था । अतः इन पुस्तकों के प्रकाशनकाल के आधार पर यह कहा जा सकता है कि डार्विन ने स्पेन्सर से पहले ही प्राणीशास्त्रीय उद्विकास का उल्लेख किया था । अब्राहम तथा मार्गन ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि समाजशास्त्र में दो चिंतक ऐसे हुए हैं जिन्होंने डार्विन के उद्विकासीय सिद्धान्त को सामाजिक उद् विकास के सिद्धान्त के रूप में प्रयुक्त किया । ये चितक क्रमश : हरबर्ट स्पेन्सर तथा समनर ( Sumrrer ) हैं । – जहाँ तक स्पेन्सर का सम्बन्ध है , उन्होंने प्राणीशास्त्रीय उद्विकास को स्पष्ट करने के लिए जिस नियम को सबसे अधिक महत्त्व दिया , उसे ‘ योग्यतम् का अति जीवन ‘ ( Survival of the Fittest ) के नाम से जाना जाता है । इसे स्पष्ट करते हुए स्पेन्सर ने बतलाया कि जीवन के संघर्ष में प्रकृति उन्हीं प्राणियों को जीवित रहने देती है जो जीवित रहने के लिए सबसे अधिक योग्य होते हैं । दूसरी ओर अयोग्य प्राणियों का प्रकृति द्वारा निरसन ( Elimination ) कर दिया जाता है । डार्विन के विचारों के आधार पर स्पेन्सर ने इस प्रक्रिया को प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया ‘ ( Process of Natural Selection ) का नाम दिया । डार्विन ने प्राकृतिक चयन के सिद्धान्त में अस्तित्व के लिए संघर्ष ( Struggle for Existence ) की चर्चा की थी । उनका मत है कि जो प्राणी प्रकृति से अनुकूलन करने हेतु संघर्ष करते हैं । और अपने संघर्ष में विजयी होते हैं , वे जीवित रहते हैं तथा जो प्राणी संघर्ष नहीं कर पाते , वे नष्ट हो जाते हैं । इस नियम को डाविन ने अनेक प्राणियों तथा उनके अवशेषों के अध्ययन के आधार पर प्रतिपादित किया था । स्पेन्सर ने इसे ‘ योग्यतम प्राणियों की विजय ‘ के रूप में प्रस्तुत करके इसे एक नया रूप देने का प्रयत्न किया ।

 

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