सामाजिक आन्दोलनों के विकास की प्रमुख अवस्थाएँ
सामाजिक आन्दोलन के विकास की अवस्थाएँ कोई निचित नहीं है , यह बताना एक कठिन कार्य है । विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक आन्दोलनों के विकास की विभिन्न अवस्थाओं की चर्चा निम्नलिखित रूप में की है ।
हरबर्ट ब्लूमर ने सामाजिक आन्दोलनों की पांच अवस्थाएँ बताई हैं जो निम्नांकित हैं
- उत्तेजना
- निश्चित भावना का विकास
- मनोबल का विकास
- विचारधारा का निर्माण तथा संचालन युक्तियों का विकास ।
हॉटन तथा हंट ने भी सामाजिक आन्दोलनों के विकास की निम्नांकित पांच अवस्थाएँ बताई हैं :
- असन्तोष की अवस्था
- उत्तेजनापूर्ण अवस्था
- औपचारिकीकरण की अवस्था
- संस्थाकरण की अवस्था तथा
- समापन की अवस्था
डॉसन तथा गेटिस ने सामाजिक आन्दोलनों की निम्नलिखित चार अवस्थाएँ बताई हैं
- सामाजिक असन्तोष
- जन उत्तेजना
- औपचारिकीकरण तथा
- संस्थाकरण
इनसे हमें यह पता चलता है कि सामाजिक आन्दोलनों के विकास के विभिन्न स्तरों के बारे में विद्वानों के विचारों में अधिक अंतर नहीं है ।
यहाँ पर हरबर्ट ब्लूमर के विचारों की संक्षेप में व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है :
- उत्तेजना : सामाजिक आन्दोलन के विकास का प्रथम स्तर समाज में प्रचलित किसी वर्तमान समस्या के प्रति सदस्यों में प्रचलित असन्तोष की भावना है जो सदस्यों में उत्तेजना विकसित कर देती है । यद्यपि आन्दोलनों में हिस्सा लेने वाले कुछ व्यक्ति शान्त एवं शिष्ट स्वभाव के भी हो सकते हैं फिर भी उत्तेजना आन्दोलन को समर्थन देने वाले व्यक्तियों को परस्पर नजदीक ला देती है
- निश्चित भावना का विकास : आन्दोलन के विकास की इस दूसरी अवस्था में आन्दोलन के बारे में निश्चित भावनाओं एवं सिद्धान्तों का गठन किया जाता है । यह संघ भावना अधिकारियों को एक – दूसरे के नजदीक लाने के लिए अनिवार्य है । परन्तु
- मनोबल का विकास : आन्दोलन के विकास की तीसरी अवस्था में आन्दोलनकारियों का मनोबल अधिक दृढ़ और निश्चित हो जाता है । मनोबल का विकास आन्दोलन के लिए अनिवार्य है । यदि समर्थनकर्ताओं में यह भावना विकसित हो जाए कि आन्दोलनों का उद्देश्य पवित्र है तथा इससे अन्याय दूर होगा तो आन्दोलन का सफल होना निश्चित हो जाता है । 4. विचारधारा का निर्माण : आन्दोलन के विकास की इस चौथी अवस्था में आन्दोलन की निरन्तरता के लिए एक निश्चित विचारधारा का निर्माण किया जाता है । यह विचारधारा आन्दोलन का समर्थन करने वाले नेताओं अथवा बुद्धिजीवियों द्वारा विकसित होती है तथा शीघ्र ही इसे पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो जाता है । विचारधारा सामाजिक आन्दोलन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है तथा यदि विचारधारा सामाजिक आन्दोलनकारियों को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखती है तो आन्दोलन कोई भी महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकता है । बिना किसी निश्चित विचारधारा के होने वाले आन्दोलन अधिक देर तक नहीं चल पाते । 5. संचालन युक्तियों का विकास : विचारधारा के विकास के पश्चात् आन्दोलन के संचालन के लिए गुणकारी युक्तियों के बारे में सोच – विचार किया जाता है तथा विभिन्न परिस्थितियों में अपनाई जाने वाली वैकल्पिक युक्तियों पर सहमति प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है । यह जरूरी नहीं है कि एक देश , राज्य या आन्दोलन की युक्तियाँ दूसरे देश , राज्य या आन्दोलन में सहायता देती हैं । संचालन युक्तियों का चयन आन्दोलन की प्रकृति , नेतृत्व के प्रकार तथा आन्दोलन के उद्देश्य को सामने रखकर किया जाता है । इसे हम औपचारिकीकरण तथा संस्थाकरण की स्थिति भी कह सकते हैं ।