सामाजिक आन्दोलन के विभिन्न प्रकार

सामाजिक आन्दोलनों के उत्पन्न  होने कीअवस्था

सामाजिक आन्दोलनों के उत्पन्न तथा विकसित होने की निम्नलिखित अवस्थाओं का उल्लेख किया जा सकता है

  1. सामाजिक असन्तोष या अशान्ति की स्थिति : प्रायः सामाजिक आन्दोलन ऐसे समय उत्पन्न होते हैं जब अनेक व्यक्ति सामाजिक संरचना में किसी दोष के कारण या किन्हीं सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण असन्तुष्ट होते हैं । यही सामाजिक आन्दोलन की प्रथम अवस्था है । इसे ‘ सामाजिक असन्तोष ‘ की स्थिति कहते हैं ।

  1. जन प्रतिक्रिया अथवा उत्तेजनापूर्ण स्थिति : इस स्थिति में जन – उत्तेजना फैल जाती है , असन्तोष बढ़ता है और सभी यह अनुभव करते हैं कि आने वाले संकट या समस्या को सीधी कार्यवाही से दूर किया जाये । मुख्य मामलों पर विवाद होता है और लोगों में काफी उत्साह उत्पन्न हो जाता है । ऐसे ही समय पर लोगों की भावनाओं को भड़काया जाता है ।

  1. औपचारिक संगठन : इस स्थिति में जन उत्तेजना संगठित रूप धारण करने लगती है और आन्दोलन का एक निश्चित संगठन विकसित हो जाता है । इस अवस्था में स्पष्ट नेतृत्व भी विकसित हो जाता है । आन्दोलन के आधार को दूर दूर तक फैलाया जाता है और निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की पूरी पूरी कोशिश की जाती है ।

  1. संस्थाकरण की स्थिति : इसमें अपेक्षित लक्ष्य को समाज के द्वारा स्वीकृति प्राप्त होती है । धीरे – धीरे आन्दोलन औपचारिक रूप से इतना संगठित हो जाता है कि तुरन्त उसका संस्थाकरण हो जाता है । वह एक स्थायी संस्था या कर्मचारी तन्त्र का रूप ले लेता है ।

  1. समापन की स्थिति : कुछ आन्दोलन अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के बाद अपने आप समाप्त हो जाते हैं , कुछ आन्दोलन एक विशेष सम्प्रदाय या मठ के रूप में स्थापित हो जाते हैं , जिसके अनुयायी उसके लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हो जाते हैं , कुछ आन्दोलन संक्रमण काल से गुजरते हैं और मौलिक लक्ष्यों के स्थान पर कुछ नये लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर मुड़ जाते हैं , कुछ आन्दोलन पूर्णतया सफल होते हैं और एक संस्था के रूप में समाज में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं । सामाजिक आन्दोलन के विकास की अवस्थाएँ अथवा स्तर कौन – कौन से हैं , यह बताना भी एक कठिन कार्य है , क्योंकि आन्दोलनों की प्रकृति के आधार पर अवस्थाओं में थोड़ा – बहुत अन्तर प्रस्तुत किए हैं डॉसन तथा गेटिस ने सामाजिक आन्दोलनों की निम्नलिखित चार अवस्थाएँ बताई हैं 1. सामाजिक असन्तोष 2 . उत्तेजना 3. औपचारिकीकरण तथा 4. संस्थाकरण ।

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हरबर्ट ब्लूमर ने सामाजिक आन्दोलनों की पाँच अवस्थाएँ बताई हैं जो कि निम्नांकित हैं :

  1. उत्तेजना

 

  1. निश्चित भावना का विकास 

180 भारत में सामाजिक परिवर्तन दशा एवं दिशा

  1. मनोबल का विकास
  2. विचारधारा का निर्माण तथा
  3. संचालन युक्तियों का विकास ।

हॉर्टन तथा हण्ट ने भी सामाजिक आन्दोलनों के विकास की निम्नांकित पाँच अवस्थाएँ बताई हैं :

  1. असन्तोष की अवस्था
  2. उत्तेजनापूर्ण अवस्था
  3. औपचारिकीकरण की अवस्था
  4. संस्थाकरण की अवस्था तथा
  5. समापन की अवस्था ।

इनसे हमें यह पता चलता है कि सामाजिक आन्दोलनों के विकास के विभिन्न स्तरों के बारे में विद्वानों के विचारों में अधिक अन्तर नहीं है ।

यहाँ पर हरबर्ट ब्लूमर के विचारों की संक्षेप में ब्याख्या प्रस्तुत की जा रही है :

  1. उत्तेजना : सामाजिक आन्दोलन के विकास का प्रथम स्तर समाज में प्रचलित किसी वर्तमान समस्या के प्रति सदस्यों में प्रचलित असन्तोष की भावना है जो सदस्यों में उत्तेजना विकसित कर देती है । यद्यपि आन्दोलनों में हिस्सा लेने वाले कुछ व्यक्तित शान्त एवं शिष्ट स्वभाव के भी हो सकते हैं परन्तु फिर भी उत्तेजना आन्दोलन को समर्थन देने वाले व्यक्तियों को परस्पर नजदीक ला देती है ।

  1. निश्चित भावना का विकास : आन्दोलन के विकास की इस दूसरी अवस्था में आन्दोलन के बारे में निश्चित भावनाओं एवं सिद्धांतों का गठन किया जाता है । यह संघ भावना अधिकारियों को एक दूसरे के नजदीक लाने के लिए अनिवार्य है ।

  1. मनोबल का विकास : आन्दोलन के विकास की तीसरी अवस्था में आन्दोलनकारियों का मनोबल अधिक दृढ़ और निश्चित हो जाता है । मनोबल का विकास आन्दोलन के लिए अनिवार्य है । यदि समर्थनकर्ताओं में यह भावना विकसित हो जाए कि आन्दोलनों का उद्देश्य पवित्र है तथा इससे अन्याय दूर होगा तो आन्दोलन का सफल होना निश्चित हो जाता है ।

  1. विचारधारा का निर्माण : आन्दोलन के विकास की इस चौथी अवस्था में आन्दोलन की निरन्तरता के लिए एक निश्चित विचारधारा का निर्माण किया जाता है । यह विचारधारा आन्दोलन का समर्थन करने वाले नेताओं अथवा बुद्धिजीवियों द्वारा विकसित होती है तथा शीघ्र ही इसे पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो जाता है । विचारधारा सामाजिक आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है तो आन्दोलन कोई भी महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकता है । बिना किसी निश्चित विचारधारा के होने वाले आन्दोलन अधिक देर तक नहीं चल पाते ।

  1. संचालन युक्तियों का विकास : विचारधारा के विकास के पश्चात् आन्दोलन के संचालन के लिए गुणकारी युक्तियों के बारे में सोच – विचार किया जाता है तथा विभिन्न परिस्थितियों में अपनाई जाने वाली वैकल्पिक युक्तियों पर सहमति प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है । यह जरूरी नहीं है कि एक देश , राज्य या आन्दोलन की युक्तियाँ दूसरे देश , राज्य या आन्दोलन में सहायता देती हैं । संचालन युक्तियों का चयन आन्दोलन की प्रकृति , नेतृत्व के प्रकार तथा आन्दोलन के उद्देश्य को सामने रखकर किया जाता है । इसे हम औपचारिकीकरण तथा संस्थाकरण की स्थिति भी कह सकते हैं सामाजिक आन्दोलनों के प्रकार : विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक आन्दोलनों को विभिन्न आधारों पर विभिन्न प्रकार से वर्गीकृत किया है ।

हेरी डब्ल्यू ० लेडलर ( Hary w.Laidler ) ने सामाजिक आन्दोलनों को निम्नलिखित रूप में विभाजित किया है
1 . आदर्शवादी ( Utopian ) आन्दोलन

  1. मार्क्सवादी आन्दोलन
  2. फैबियनवादी ( Fabianism ) आन्दोलन
  3. साम्यवादी ( Communistic ) आन्दोलन
  4. समाजवादी ( Socialistic ) आन्दोलन
  5. उपभोक्ता सहकारी आन्दोलन ( Consumers Co – operative Movement )

 II . रिचर्ड टी ० ला – पीयरे ( Richard T. La – Piere ) के अनुसार सामाजिक आन्दोलनों को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है

  1. जन आन्दोलन ( Mass Movement ) : ( i ) दीर्घकालीन ( Long lived ) , ( ii ) लघुकालीन ( Short lived ) , ( iii ) चमत्कारिक नेता पर केन्द्रित ( Charismatic )
  2. शैक्षिक आन्दोलन ( Educational Movement )
  3. राजनीतिक आन्दोलन ( Political Movement )
  4. धार्मिक आन्दोलन ( Religious Movement ) ।

 III . एन्डर्सन तथा पार्कर : के अनुसार , सामाजिक आन्दोलनों को प्राथमिक मूल्यों तथा आदर्शों के आधार पर सुधारवादी तथा क्रान्तिकारी आन्दोलनों में विभाजित किया जा सकता है । जो आन्दोलन सुधार करना चाहते हैं उन्हें सुधारवादी आन्दोलन कहा जायेगा ; जैसे : इंग्लैंड में प्रजातन्त्र के अन्तर्गत महिलाओं को वोट देने के अधिकार के लिये आन्दोलन चला था । क्षेत्र के आधार पर समग्रवादी ( Totalitarian ) तथा खण्डात्मक ( Segmental ) में विभाजित किया जा सकता है तथा पद्धति के आधार पर सुधारात्मक – खण्डात्मक ( Reformative Segmental ) तथा क्रान्तिकारी – समग्रवादी ( Revolutionary – Totalitarian ) आन्दोलनों में विभाजित किया जा सकता है ।

 IV . रश तथा डेनीशॉफ : ने सामाजिक आन्दोलन को तीन श्रेणियों में बाँटा है

  1. क्रान्तिकारी आन्दोलन : ये समाज में शक्ति के संबंधों की नयी व्यवस्था स्थापित करने का लक्ष्य कहते हैं 2. प्रतिगामी आन्दोलन : ऐसे आन्दोलन शक्ति संबंधों की उस व्यवस्था को पुनर्स्थापित करना चाहते हैं , जो समाज में कभी रह चुकी है ।
  2. सुधारवादी आन्दोलन : ये विद्यमान व्यवस्था में संशोधन करने का प्रयास करते हैं ।

  1. हरबर्ट ब्लूमर : ने सामाजिक आन्दोलन के तीन प्रकार बतलाये हैं

  1. विशिष्ट उद्देश्य आन्दोलन ( Specific Purpose Movement ) ,
  2. सूचक आन्दोलन ( Expressive Movement ) ,
  3. सामान्य आन्दोलन ( General Movement ) |

एम . एस . ए . राव ने अपनी पुस्तक Social Movements in India में आन्दोलन के निम्नलिखित प्रकारों की चर्चा की हैं :

  1. विरोधपूर्ण आन्दोलन ( Protest Movement ) ,
  2. सुधारवादी आन्दोलन ( Reformative Movement ) ,
  3. रूपान्तरकारी आन्दोलन ( Transformative Movements ) ,
  4. क्रान्तिकारी आन्दोलन ( Revolutionary Movements )

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  1. बिरोधपूर्ण आन्दोलन : ये वो आन्दोलन हैं जिनका उद्देश्य वर्तमान व्यवस्था से संबंधित किसी पक्ष में परिवर्तन लाना होता है । ऐसे आन्दोलन सम्पूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने के उद्देश्य से नहीं किये जाते । साधारणतया इन्हें प्रस्थितिमूलक आन्दोलन कहा जा सकता है अर्थात इनका उद्देश्य किसी विशेष समूह की प्ररिस्थति में सुधार करना अथ वा शोषण के विरुद्ध अपना विरोध प्रकट करना होता है । ऐसे आन्दोलन अक्सर अधिक सफल नहीं हो पाते क्योंकि विरोधी समूहों के द्वारा उन्हें दबाने का पूरा प्रयत्न किया जाता है ।

  1. सुधारवादी आन्दोलन : इन आन्दोलनों का उद्देश्य सामाजिक संबंधों की वर्तमान व्यवस्थ तथा सामाजिक मूल्यों में आंशिक परिवर्तन लाना होता है । इनके द्वारा लोगों के विश्वासों , दृष्टिकोण , कर्मकाण्डों और जीवन – विधि में सुधार लाया जाता है । मध्यकाल में होने वाले भक्ति आन्दोलन तथा उन्नीसवीं शताब्दी में आर्य समाज एवं ब्रह्म समाज द्वारा चलाये गये सुधार आन्दोलन इसके उदाहरण हैं ।

  1. रूपान्तकारी आन्दोलन : ये वो आन्दोलन हैं जो परम्परागत रूप में विभिन्न वर्गों को मिलने वाले अधिकारों , सुविधाओं अथवा साधनों से संबंधित व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए किये जाते हैं । इनके द्वारा समाज के उच्च वर्गों अथवा जातियों के एकाधिकार को चुनौती देकर पिछड़े वर्गों की स्थिति में सुधार के प्रयत्न किये जाते हैं । भारत में पिछड़े वर्गों द्वारा धार्मिक , शैक्षणिक , आर्थिक तथा राजनीतिक अधिकार पाने के लिए तथा दक्षिण भारत में ब्राह्मणों के एकाधिकार को चुनौती देने के लिए किये जाने वाले आन्दोलन इसी वर्ग में आते हैं ।

  1. क्रान्तिकारी आन्दोलन : ये आन्दोलन रूपान्तकारी आन्दोलन से इस अर्थ में भिन्न हैं कि इनमें वर्ग संघर्ष की भावना बहुत गहरी होती है । मिल – मालिकों के विरुद्ध श्रमिकों द्वारा चलाए जाने वाले आन्दोलन अथवा वर्ग चेतना के आधार पर किसी भी शोषित समूह द्वारा शोषक समूह के विरुद्ध होने वाले आन्दोलन इसके उदाहरण हैं ।

सामाजिक आन्दोलन के विभिन्न प्रकार :

  1. कृषक आन्दोलन : कृषक समुदाय से आशय समाज के उस वर्ग से है , जिसका मुख्य व्यवसाय कृषि है । इस वर्ग में खेती करने वाले लोग तथा कृषि श्रमिक सम्मिलित हैं । भारतवर्ष में परम्परागत रूप से कृषि योग्य भूमि का स्वामित्व कुछ सीमति व्यक्तियों के हाथ में रहा है । सामान्य रूप से कृषक वर्ग के लोग इन भू – स्वामियों से लगान , पट्टे या बटाई पर जमीन लेकर फसल उगाया करते हैं । इस व्यवस्था के परिणामस्वरूप कृषि व्यवस्था में दो मुख्य वर्ग विकसित हो गए । प्रथम वर्ग भू स्वामियों का वर्ग है तथा द्वितीय वर्ग कृषक वर्ग एवं कृषि श्रमिकों का वर्ग है । इन दोनों वर्गों के हित परस्पर विरोधी होती हैं । कृषक – वर्ग श्रम करता है परन्तु भू – स्वामी वर्ग केवल भू – स्वामित्व के आधार पर अधिक – से – अधिक लाभ प्राप्त करना चाहता है । इस व्यवस्थ ॥ के कारण लम्बे समय से भू – स्वामी वर्ग कृषक एवं श्रमिक वर्ग का शोषण करता है । जमींदार वर्ग , कृषक वर्ग को गुलाम बनाकर रखता था । इस शोषण के परिणामस्वरूप समय – समय पर कृषक वर्ग तथा भू स्वामी वर्ग के बीच संघर्ष भी होते रहे हैं । कोई भी संघर्ष तभी सफल हो सकता है जब वह संगठित हो । संगठित संघर्ष का एक स्वरूप ही आन्दोलन है । कृषकों द्वारा अपने हितों की रक्षा तथा उन पर होने वाले अत्याचारों से मुक्ति प्राप्त किये जाने के लिये किये

सामाजिक आंदोलन 183 आंदोलनों को किसान आंदोलन कहा जाता है।  इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि किसानों और उनके हितों की रक्षा के लिए कृषि प्रणाली से जुड़े श्रमिकों का आंदोलन किसानों का आंदोलन है।

  1. आदिवासी आंदोलन: चूंकि आदिवासी समाज वनाच्छादित क्षेत्रों में निवास करता है, यह सभी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दृष्टिकोण से पिछड़ा हुआ है।  ऐसे में आदिवासी समाज से जुड़ी कई समस्याएं हैं।  सदियों से अपने पिछड़ेपन का लाभ उठाते हुए, ब्रिटिश, भारतीय जमींदारों और बाहुबली वर्ग ने इसका शोषण किया है।  लेकिन सरकारी सुधार कार्यक्रमों और प्रगतिशील समाज के साथ संपर्क के परिणामस्वरूप, आदिवासी लोग भी अपने अधिकारों के बारे में लगातार जागरूकता पैदा कर रहे हैं और वे अपने अधिकारों के बारे में जागरूक हो रहे हैं।  जब ये सभी संगठित प्रयासों के माध्यम से बदल जाते हैं, तो केवल आदिवासी आंदोलन पैदा होता है।

  1. महिला आंदोलन: सामाजिक आंदोलनों में महिलाओं के आंदोलन का भी प्रमुख स्थान है।  यह नवजागरण से उत्पन्न चेतना से संबंधित है जिसने महिलाओं को अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार करने के लिए प्रेरित किया।  यह सच है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में, आर्य समाज और ब्रह्म समाज ने भी अपने सुधार आंदोलनों के माध्यम से महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए व्यापक प्रयास किए।  तब भी, स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान, महात्मा गांधी के नेतृत्व में महिलाओं को पहली बार घर से बाहर धरने, प्रदर्शन और सत्याग्रह में भाग लेने का अवसर मिला।  इसके साथ ही, ब्रिटिश राज्य के दौरान समतावादी मूल्यों की विचारधारा को बढ़ावा देने के कारण भारतीय महिलाओं में सामाजिक चेतना बढ़ने लगी।  इस दौरान कई नेताओं ने महिलाओं को समाज सेवा, कल्याणकारी कार्यों और राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने का पूरा मौका देने की कोशिश की।  परिणामस्वरूप, क्षेत्रीय स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक कई महिला संगठन स्थापित होने लगे।  यहीं से भारत में महिलाओं के आंदोलनों का उदय हुआ।

  1. पिछड़े वर्गों का आंदोलन: भारत में सामाजिक आंदोलन का दूसरा रूप अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़े वर्गों के उन आंदोलनों से संबंधित है जो उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में उत्पन्न हुए थे।  इन आंदोलनों का उद्देश्य पिछड़ी जातियों की स्थिति में सुधार करना और जाति व्यवस्था के नियमों से उत्पन्न सामाजिक विषमताओं के प्रभाव को कम करके सामाजिक संबंधों और सामाजिक मूल्यों में बदलाव लाना था।  इसका तात्पर्य यह है कि पिछड़े वर्गों का आंदोलन धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा और स्थिति सुधार पर आधारित है।  पिछड़े वर्गों द्वारा कई सामाजिक आंदोलनों का आयोजन किया गया।  इनमें से कुछ प्रमुख आंदोलनों को समझकर, उनके स्वभाव, उद्देश्यों और प्रभावों को समझा जा सकता है।  महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले द्वारा पिछड़े वर्गों का आंदोलन शुरू किया गया था।  यह पहला आंदोलन था जिसके द्वारा निचली जातियों ने ब्राह्मणों और ब्राह्मणवादी धार्मिक मान्यताओं के एकाधिकार का विरोध करके अपने अधिकारों के बारे में चेतना पैदा की।  ज्योतिबा फुले खुद को पिछड़ी जाति का मानते थे, इसलिए वे पिछड़ी और निचली जातियों का शोषण कर रहे थे।  1873 में, उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती देकर हरिजनों और पिछड़ी जातियों के लिए शिक्षा, सामाजिक अधिकारों और आर्थिक सुधारों की आवश्यकता पर जोर देने के उद्देश्य से एक सामाजिक आंदोलन शुरू किया।  बाद में यह आंदोलन इतना प्रभावशाली हो गया कि कई पिछड़ी और निम्न जातियां, जैसे रेड्डी, 1

वेलाला तथा कम्मा आदि भी इसमें सम्मिलित हो गयीं । इसी के प्रभाव में बीसवीं शताब्दी के आरंभ में मैसूर में बेड्डार जाति का आन्दोलन आरंभ हुआ । बेड्डार कर्नाटक की एक घुमन्तू जाति है जो खुदाई और पत्थर के काम द्वारा जीविका उपार्जित करती रही है । इनमें से कुछ लोगों ने जब शहरों में रहकर शिक्षा प्राप्त की और अपने परम्परागत व्यवसाय को छोड़ दिया तो धीरे धीरे उन्होंने अपनी जाति के लोगों को संगठित करके एक ऐसा आन्दोलन आरंभ किया जिससे सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में वे अधिक अधिकार प्राप्त कर सके । इस जाति को यद्यपि एक अनुसूचित जाति के रूप में देखा जाता था लेकिन इन्होंने स्वयं को क्षेत्रीय वर्ग का घोषित करके अपनी सामाजिक स्थिति में व्यापक परिवर्तन लाने के प्रयत्न किये । यहीं से अनुसूचित जाति और पिछड़ी जातियों में अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार करने की एक नई चेतना पैदा होने लगी । पिछड़े वर्गों के आन्दोलन के अन्तर्गत होने वोले आन्दोलनों में अधिक महत्त्वपूर्ण हैं : श्रीनारायण धर्म परिपालन आन्दोलन , द्रविड कडघम आन्दोलन , महार आन्दोलन तथा यादव आन्दोलन ।

  1. धार्मिक तथा सम्प्रदायवादी आन्दोलन : जब किसी धर्म या सम्प्रदाय के लोग अपने धार्मिक जीवन की अस्वस्थ्य आवस्थाओं को सुधारने के लिए सामूहिक प्रयत्न करते हैं तो उसे धार्मिक या साम्प्रदायिक आन्दोलन कहा जाता है । उदाहरण के तौर पर स्वामी दयानन्द सरस्वती , स्वामी विवेकानन्द और कबीर , गुरुनानक आदि के नेतृत्व में धार्मिक व साम्प्रदायिक आन्दोलन चलाये गये ताकि धार्मिक आधार पर लोगों का शोषण बंद हो । धार्मिक कट्टरता , अन्धविश्वास आदि से मुक्ति मिल सके एवं धर्म प्रगति एवं जन कल्याण का सूचक बन सके ।

  1. पुनर्निमाणकारी आन्दोलन : एम . एस . ए . राव के अनुसार ऐसे आन्दोलन एक ओर वर्तमान दशाओं के प्रति असंतोष व्यक्त करते हैं तथा दूसरी ओर उन दशाओं को दूर करने के उपायों को प्रस्तुत करते हैं । इनका उद्देश्य समाज की किसी विषम समस्या का विरोध करके एक ऐसी व्यवस्था विकसित करना होता है जो समूह के अस्तित्व के लिए आवश्यक हो । उत्तराखण्ड में सुन्दरलाल बहुगुणा द्वारा आरंभ किया गया “ चिपको आन्दोलन ” जंगलों में पेड़ काटने के विरोध में इसलिए किया गया जिससे पहाड़ की अर्थव्यवस्था और उससे संबंधित जनजीवन को बचाया जा सके ।

  1. सकारात्मक आन्दोलन : ये वे आन्दोलन हैं जिनमें किसी विशेष व्यवस्था का शांतिपूर्ण ढंग से विरोध करने के साथ ही ऐसे कार्यक्रमों अथवा व्यवहारों पर जोर दिया जाता है जिससे लोगों में एक नयी शक्ति का संचार हो सके । महात्मा गाँधी द्वारा चलाया जाने वाला विदेशी वस्तुओं का ‘ बहिष्कार आन्दोलन ‘ , राममोहन राय द्वारा सती प्रथा तथा बाल विवाह के विरुद्ध किया जाने वाला आन्दोलन इसके उदाहरण हैं ।

  1. राष्ट्रवादी आन्दोलन : अनेक विद्वान राष्ट्रवादी आन्दोलन को सामाजिक आन्दोलन न मानकर एक राजनीतिक आन्दोलन मानते हैं लेकिन ए . आर . देसाई ने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन की सामाजिक पृष्ठभूमि को विस्तार से स्पष्ट करके इसे एक सामाजिक आन्दोलन के रूप में स्वीकार किया है । ऐसे आन्दोलन राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होते हैं तथा इनका मुख्य कार्य राष्ट्रवादी भावनाओं के आधार पर समाज के सभी वर्गों में एक नयी सामाजिक और राजनीतिक चेतना उत्पन्न करना है । इस प्रकार राष्ट्रवादी आन्दोलन भी सामाजिक संरचना में परिवर्तन लाकर व्यक्ति यों को अपनी मनोवृत्तियों और व्यवहारों का नये सिरे से मूल्यांकन करने की प्रेरणा देते हैं ।

  1. वैचारिक आन्दोलन : ये वे आन्दोलन हैं जो कुछ विशेष सामाजिक , धार्मिक , सांस्कृतिक अथवा राजनीतिक सिद्धांतों के आधार पर किये जाते हैं । ये सिद्धांत चाहे किसी धर्मगुरु की

शिक्षाओं से संबंधित हों अथवा एक विशेष सामाजिक व राजनीतिक विचारधारा पर आधारित हों , इनका कार्य लोगों के विचारों को बदलकर उन्हें व्यवहार के नये ढंगों को ग्रहण करने की प्रेरणा देना होता है । भारत में “ तेभागा आन्दोलन ” और दूसरे किसान आन्दोलन वैचारिक आन्दोलन की प्रकृति को स्पष्ट करते हैं ।

  1. संगठनात्मक आन्दोलन : इस आन्दोलन का उद्देश्य परस्पर विरोधी समूहों , वर्गों अथवा सम्प्रदायों को एकजुट करके किसी समुदाय को संगठित करना और उसमें समानता की चेतना पैदा करना होता है । भारत में सन् 1975 में लागू होने वाले आपातकाल के प्रभाव से जब सभी राजनीतिक दल अलग – थलग हो गये तो जय प्रकाश नारायण द्वारा चलाया गया ” संपूर्ण क्रांति आन्दोलन ” उन्हें पुनः संगठित करने के उद्देश्य से ही प्रेरित था । आर्य समाज आन्दोलन का उद्देश्य भी विभिन्न मत मतान्तरों में बँटे हुए हिन्दुओं को पुनः वैदिक आदर्शों की ओर ले जाकर उन्हें संगठित करना था ।

  1. स्वदेशी आन्दोलन : अनेक आन्दोलनों का उद्देश्य अपने क्षेत्र अथवा स्वदेश की सांस्कृ तिक विशेषताओं , धार्मिक विश्वासों , भाषा अथवा राजनीतिक अधिकारों को पुनर्स्थापित करने तथा दूसरे क्षेत्र अथवा देश के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकना है । भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन का उद्देश्य विदेशी आधिपत्य का विरोध करना था । आसाम में भी बंग्लादेश से वहाँ प्रवेश करके रहने वाले लोगों के विरुद्ध व्यापक आन्दोलन हुए । दक्षिण में होने वाला हिन्दी विरोधी आन्दोलन तथा उत्तर भारत में अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन ” स्वदेशी अस्तित्व को बनाये रखने से प्रेरित थे । सामाजिक आन्दोलन के महत्त्व व प्रकार्य : डा . एम . एस . ए . राव ने सामाजिक आन्दोलनों के प्रकार्यों को दो मुख्य प्रक्रियाओं सामाजिक सुधार तथा सामाजिक रूपान्तरण के रूप में स्पष्ट किया है । सामाजिक आन्दोलन के महत्त्व को सभी क्षेत्रों में निम्नांकित रूप में समझा जा सकता है :

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  1. 1. समतावादी व्यवस्था की स्थापना
  2. शोषित वर्गों की शक्ति में वृद्धि
  3. क्षेत्रीय असमानताओं में कमी
  4. नये नेतृत्व का विकास
  5. मनोवृत्तियों में परिवर्तन
  6. सांस्कृतिक समन्वय
  7. सामाजिक सुधार ।

  1. समतावादी व्यवस्था की स्थापना : डा . एम . एस . ए . राव का कथन है कि सामाजिक आन्दोलनों का मुख्य प्रकार्य समाज के रूप में इस तरह परिवर्तन लाना है जिससे कि एक समतावादी व्यवस्था को प्रोत्साहन मिल सके । इस दशा को हम सामाजिक रूपान्तरण ( Social Transformation ) कहते हैं । भारत के विभिन्न क्षेत्रों में पिछड़े वर्गों द्वारा जो आन्दोलन किये गये उनके फलस्वरूप पिछड़ी और निम्न जातियों को धार्मिक , आर्थिक तथा राजनीतिक और शिक्षा के क्षेत्रों में व्यापक सुविधाएँ प्राप्त हुई । इन्हीं आन्दोलनों के प्रभाव से हमारे समाज में शक्ति का आन्दोलन के फलस्वरूप पिछड़ी नया सन्तुलन विकसित हुआ । केरल में श्रीनारायण धर्म परिपाल जातियों के लोगों को धर्मगुरुओं के रूप में भी मान्यता मिलने लगी । सामाजिक आन्दोलनों का यह वह प्रकार्य है जो किसी भी दूसरे साधन से संभव नहीं था ।

  1. शोषित व दुर्बल वर्गों की शक्ति में वृद्धि : सामाजिक आन्दोलनों का एक महत्त्वपूर्ण प्रकार्य समाज के दुर्बल और शोषित वर्गों की शक्ति में वृद्धि करना है । विभिन्न आन्दोलनों में उन व्यक्तियों का समभाग सबसे अधिक होता है जिनकी समस्याएँ अधिक गम्भीर प्रकृति की होती हैं । परम्परागत रूप से अनुसूचित जातियों , जनजातियों , पिछड़े वर्गों तथा स्त्रियों को सामाजिक व्यवस्था में कोई व्यावहारिक अधिकार प्राप्त नहीं थे । विभिन्न आन्दोलनों के प्रभाव से जब इन वर्गों को नये अधिकार मिलना आरंभ हुए तो उनकी शक्ति इतनी अधिक बढ़ गयी कि आज प्रत्येक राजनीतिक दल उनका अधिक से अधिक समर्थन प्राप्त करने के लिए उन्हें विभिन्न सुविधाएँ देने के लिए प्रतिबद्ध रहता है । कृषक आन्दोलनों ने सदियों से शोषित किसानों की शक्ति को बढ़ाकर उनकी सामाजिक – आर्थिक दशा में सुधार करने में योगदान किया ।

  1. क्षेत्रीय असमानताओं में कमी : बड़े आकार वाले बहुजन समाजों में सामाजिक आन्दोलनों का एक प्रकार्य क्षेत्रीय असमानताओं को इस तरह कम करना है जिससे राष्ट्रीय साधनों का न्यायपूर्ण वितरण हो सके । ये तथ्य पूर्वोत्तर भारत में होनेवाले उन आन्दोलनों से स्पष्ट हो जाता है जिनके फलस्वरूप इस क्षेत्र के राज्यों को अधिक आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त हो सकीं । वास्तव में , एक समाज अथवा देश के सभी हिस्सों की आर्थिक और भौगोलिक दशाएँ समान नहीं होती । इस स्थिति में जो क्षेत्र अनिवार्य सुविधाओं से वंचित रहते हैं , उनमें इस तरह आन्दोलन होने लगते हैं कि सरकार उनके आर्थिक साधनों को बढ़ाने के लिए बाध्य हो जाती है । अप्रत्यक्ष रूप से यह दशा सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न करती है ।

  1. नये नेतृत्व का विकास : सामाजिक आन्दोलन का एक महत्त्वपूर्ण प्रकार्य है कि नेतृत्व की प्रकृति में परिवर्तन लाकर सामाजिक परिवर्तन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । भारत में कुछ समय पहले तक पिछड़ी जातियों का इस कारण सबसे अधिक शोषण हुआ कि उनमें संगठन तथा नेतृत्व का अभाव था । महात्मा गांधी ने छुआछूत के विरुद्ध जो आन्दोलन चलाया , उसके फलस्वरूप निम्न जातियों में एक नयी चेतना उत्पन्न हुई । इसी चेतना के फलस्वरूप निम्न और पिछड़े वर्गों में स्वस्थ्य नेतृत्व विकसित हुआ तथा उनका स्थिति में तेजी से सुधार होने लगा । सदियों से शोषित जनजातीय समुदायों में भी विभिन्न आन्दोलनों के फलस्वरूप नेतृत्व के नये प्रतिमान विकसित हुए । यह नेतृत्व व्यक्ति की अपनी योग्यता तथा क्षमता पर आधारित है ।

  1. मनोवृत्तियों में परिवर्तन : सामाजिक आन्दोलन सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देकर भी समाज में उपयोगी परिवर्तन लाते हैं । यह सच है कि प्रत्येक आन्दोलन के आरंभिक स्तर पर इसमें विरोध और संघर्ष के तत्वों का समावेश होता है लेकिन धीरे – धीरे विभिन्न आन्दोलनों के प्रभाव से ऐसे विचार और मूल्य विकसित होने लगते हैं जो सांस्कृतिक समन्वय को बढ़ाते हैं । भारत में निम्न जातियों , पिछड़े वर्गों , जनजातियों तथा स्त्रियों के द्वारा जो आन्दोलन किये गये , उनके फलस्वरूप विभिन्न जातियों , धर्मों , भाषाओं और आर्थिक स्थितियों से संबंधित विभिन्न समूहों ने एक – दूसरे के निकट सम्पर्क में आकर समन्वयकारी संस्कृति को विकसित करने में योगदान किया ।

  1. सामाजिक सुधार : सामाजिक आन्दोलनों का एक मुख्य प्रकार्य सामाजिक कुरीतियों और अन्धविश्वासों का विरोध करके सामाजिक सुधार की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देना है । भारत में समय – समय पर होने वाले सामाजिक आन्दोलनों के फलस्वरूप सती प्रथा , बाल विवाह तथा बहुपत्नी विवाह को कानून के द्वारा समाप्त कर दिया गया । विधवा स्त्रियों को पुनर्विवाह के अधिकार मिले , दहेज प्रथा को अपराध घोषित किया गया तथा सम्पत्ति और विवाह के क्षेत्र में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हो सके । स्त्री – शिक्षा में होने वाली वृद्धि छुआछूत की समाप्ति तथा पर्दा प्रथा का विरोध सामाजिक आन्दोलनों के ही परिणाम हैं ।

भारत में सुधार – आंदोलन के कारण : उन्नीसवीं सदी में भारत में जो सुधार आंदोलन चला उसके निम्नलिखित प्रमुख कारण थे

  1. पाश्चात्य जगत से संपर्क : अंग्रेजों के आगमन से भारत में यूरोपीय सभ्यता का भी पदार्पण हुआ । पाश्चात्य जगत के संपर्क में आने से भारतीयों के राष्ट्रीय , सामाजिक तथा धार्मिक जीवन मैं नवचेतना का संचार हुआ । पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार के कारण राष्ट्रीयता का विकास हुआ और हिंदुओं का ध्यान समाजसुधार की ओर आकृष्ट हुआ । उनका अंधविश्वास हटने लगा और सामाजिक क्षेत्र में सती प्रथा , बालहत्या , बहुविवाह , बालविवाह इत्यादि कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठने लगी । –

  1. एशियाटिक सोसाइटी के कार्य : 1784 ई ० में बंगाल में एक एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना हुई थी । इसकी स्थापना से भारतीय पुनर्जागरण को एक सबल सहारा मिला । इस सोसाइटी के तत्वावधान में प्राचीन भारतीय ग्रंथ तथा यूरोपीय साहित्यों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ । तुलनात्मक अध्ययन के फलस्वरूप यूरोपीय ज्ञान विज्ञान से भारतीय परिचित हुए तथा उन्हें अपने प्राचीन गौरव का फिर से पता लगा । कतिपय यूरोपीय विद्वानों ने प्राचीन भारतीय आदर्शों से प्रभावित होकर उसकी प्रशंसा की । इससे भारतीयों को आत्मबल मिला | उनकी आँखें खुलीं । वे समझ गए कि सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों के कारण ही उनका पतन हुआ है और जबतक ये बुराईयाँ दूर नहीं कर दी जाती तबतक उनका कल्याण नहीं होगा ।
  2. ईसाई पादरियों का धर्मप्रचार : अँगरेजों के साथ – साथ ईसाई पादरियों का भी भारत में आगमन हुआ । अँगरेजी राज्य की स्थापना के बाद वे ईसाई धर्म का प्रचार करने लगे । बहुत से भारतीय ईसाई धर्मों में दीक्षित होने लगे । ईसाई पादरी धर्मप्रचार के सिलसिले में भारतीय समाज और धर्म की आलोचना भी करते थे । इससे कट्टर हिंदुओं की आँखें खुलीं । वे यह समझने लगे कि भारतीय समाज एवं धर्म के बाह्याडंबर एवं दोषपूर्ण संगठन का विदेशी धर्मप्रचारक नाजायज लाभ उठा रहे हैं । अतः उन्होंने यह महसूस किया कि अपने धर्म की रक्षा के लिए सुधार लाना आवश्यक है । इस तरह , ईसाई पादरियों के धर्मप्रचार के कार्य से भारतीय सुधार आंदोलन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरणा मिली ।

  1. विचारों के आदान – प्रदान की सुविधा : सामाचारपत्रों के प्रकाशन और यातायात की सुविधा के फलस्वरूप विचारों के आदान प्रदान में सुविधा मिली । मध्यकाल में भी समाज सुधार का प्रयास भारतमेहुआ था । पर , अंगरेजी राज्य की स्थापना से यातायात की सुविधा हुई । रेल , डाक – तार आदि की व्यवस्था हुई । फलतः , कोई व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पहुँचकर या अपने लेखों द्वारा विचार का आदान – प्रदान कर सकता था । प्रमुख समाजिक सुधारक : 1. राजा राममोहन राय : राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का का ‘ अग्रदूत ‘ और आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है । वास्तव में उनके प्रादुर्भाव से भारतीय इतिहास में एक नए युग का प्रारंभ हुआ था । भारतीय सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है । राजा राममोहन राय का जन्म बंगाल के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में 1774 ई ० में हुआ था । उन्होंने पंद्रह वर्ष की अवस्था में ही एक छोटी – सी पुस्तिका लिखी , जिसमें उन्होंने मृर्तिपूजा की कटु आलोचना की । उसी कारण उनके परिवार के लोगों ने उन्हें घर से निकाल दिया था । अतः उन्हें इधर – उधर भटकना पड़ा । पर इस अवधि में उन्होंने अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया और अरबी फारसी तथा संस्कृत भाषा के बहुत बड़े ज्ञाता बन गए । उन्होंने कई यूरोपीय भाषाएँ भी सीखी ।

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