सांस्कृतिक विलम्बन का सिद्धान्त

सांस्कृतिक विलम्बन का सिद्धान्त

हर समाज में परिवर्तन पाया जाता है परन्तु सभ्यता का हर पहलू एक ही मात्रा में तथा एक ही गति से नहीं बदलता । सांस्कृतिक विलम्बन के सिद्धान्त को मानने वालों का यह विश्वास है कि औद्योगिक प्रगति इतनी तीव्र गति से होती है कि उसमें हम अपना समायोजन नहीं कर पाते । दूसरे शब्दों में अभौतिक संस्कृति ( Non – Material Culture ) की प्रगति भौतिक संस्कृति ( Material Culture ) की प्रगति से पीछे रह जाती है । संस्कृति के दोनों पक्षों में से एक के अधिक विकसित हो जाने और दूसरे की वृद्धि उसी अनुपात में न हो सकने की स्थिति को विलियम ऑगबर्न ने ‘ साँस्कृतिक विलम्बन ‘ ( Cultural Lag ) माना है । यह सांस्कृतिक विलम्बन सामाजिक समस्यायें भी उत्पन्न करता है । उदाहरण के लिए , भारत में चुनाव सन् 1947 से होते आ रहे हैं किन्तु चुनावों में हिंसा का प्रचलन अभी बहुत अधिक हो गया । इसमें चुनाव कर्मचारियों को जोखिम होने से उनको बीमा योजना ( दुर्घटना ) का लाभ स्वीकृत किया गया है ।

भारत में औद्योगीकरण का विकास तो उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से शुरू हो गया और कारखानों में दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ती गयी परन्तु श्रमिकों के लिए श्रमिक क्षतिपूर्ति अधिनियम , 1923 में ही पास किया गया । मालिकों और श्रमिकों के सम्बन्धों को नियन्त्रित करने एवं श्रमिकों के शोषणको रोकने व मालिकों और मजदूरों के झगड़ों को निपटाने से सम्बन्धित कानून 1946 में ही पास किया गया तथा श्रमिक संगठनों का निर्माण व विकास 1930 के बाद ही हुआ ।

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इस प्रकार बीच का काल सांस्कृतिक विलम्बन का काल था । इसी तरह देश में बेरोजगारी इतनी पाई जाती है परन्तु अभी तक बेरोजगारी बीमा जैसी सुरक्षा की योजना आरम्भ नहीं की गयी है । इस स्थिति और आवश्यकता के मध्य का तनाव ‘ सांस्कृतिक विलम्बन ‘ ही कहलायेगा । सामाजिक सुरक्षा की योजना के अभाव में बेरोजगार व्यक्ति यदि सामाजिक नियमों से विचलित होंगे तो अपराध की समस्या स्वाभाविक ही है । इससे पता लगता है कि सांस्कृतिक विलम्बन से किस प्रकार सामाजिक समस्याएँ उत्पन होती हैं । ऑगबर्न ने इस सांस्कृतिक विलम्बन के कारणों में व्यक्तियों की रूढ़िवादिता , नये विचारों के प्रति भय , अतीत के प्रति निष्ठा , निहित स्वार्थ तथा नवीन विचारों की परीक्षा में कठिनाई बताया है । सांस्कृतिक विलम्बन का सिद्धान्त कुछ सामाजिक समस्याओं को तो स्पष्ट करता है पर सभी को नहीं । भौतिक युग परिवर्तनशील है , इन परिवर्तनों के अनुसार संस्कृति बदलती है । समाज इन परिवर्तनों के अनुसार उनके अनुरूप संशोधन कर सांस्कृतिक विचलन से बच सकता है । किन्तु वास्तव में इस सिद्धान्त को मानने वाले भी यह दावा नहीं करते कि ‘ सांस्कृतिक विलम्बन ‘ समस्त प्रकार की समस्याओं को विवेचित एवं स्पष्ट करता है ।

” मूल्य – संघर्ष का सिद्धान्त ( Theory of Value – Conflict ) हमारे जीवन के लिए सामाजिक मूल्य इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि यही मूल्य व्यवस्था यह निश्चित करती है कि समाज एवं इसके सदस्यों के लिए क्या महत्त्वपूर्ण है , किस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए तथा किन व्यवहारों को वर्जित मानना चाहिए ? अर्थात् समाज के मूल्य ही उसकी अधिमान्यताएँ और अस्वीकृत आधार होते हैं । इस समाज में बहुत से मूल्य कुछ दूसरे मूल्यों की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण होते हैं , जबकि कुछ समाज के प्रत्येक कार्य में आधारभूत होते हैं । अलग – अलग समूहों के मूल्य अलग – अलग होने के कारण मूल्य – मतभेद भी मिलता है ।

इन्हीं मूल्यों में मतभेद अथवा अर्थों में परिवर्तन के कारण सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं । उदाहरण के लिए , रूढ़िवादी व्यापारी व्यक्तिगत प्रोत्साहन और लाभ – उद्देश्य पर आधारित पुराने पूँजीवाद के पक्ष में होते हैं जबकि उदारवादी व्यापारी उस पर सरकार का कठोर नियन्त्रण चाहते हैं अथवा वे समाजवाद के पक्ष में होते हैं । दोनों प्रणालियों में नीतियों के प्रमुख अन्तर के अतिरिक्त मूल्यों में अधिक अन्तर मिलता है ।

रूढ़िवादी इस कारण पूँजीवाद को व्यक्तियों के लिए अच्छा मानते हैं क्योंकि उनके अनुसार इस ढाँचे से अभिलाषा , उत्साह , अल्पव्ययता तथा कठोर परिश्रम आदि जैसे मूल्यों को प्रोत्साहन मिलता है । दूसरी ओर , उदारवादी ढाँचे ( पूँजीवाद ) में एक औसत व्यक्ति का शोषण और कुछ विशिष्ट व्यक्तियों का लाभ होता है । मूल्यों के इस तरह के संघर्ष से सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं । रिचर्ड फुल्लर का भी कहना है कि “ हमारे आर्थिक स्वार्थ के कारण अपराध बढ़ते हैं , पूँजीवादियों की मुनाफाखोरी के कारण श्रमिकों में बेरोजगारी उत्पन्न होती है तथा एक विवाह ( Monogamy ) की प्रथा पर बल देने के कारण अविवाहिता माताएँ बच्चों की उपेक्षा करती हैं । “

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क्यूबर और हारपर ने अमरीकन समाज में परिवार सम्बन्धी सामाजिक समस्याओं में प्रौढ़ और युवा पीढ़ी के मूल्यों के संघर्ष का उल्लेख किया है । प्रौढ़ पीढ़ी के मूल्य विवाह की पवित्रता , रूढ़ियों की आस्था , परम्परानुसार कर्ता ( मुखिया ) के सर्वाधिकार सम्पन्न व्यक्ति होने में विश्वास करते हैं , जबकि युवा पीढ़ी के मूल्य व्यक्तिवाद , व्यक्तिगत योग्यता , समान अधिकार , तर्कवाद आदि पर आधारित होते हैं ।

वाल्लर ने सामाजिक समस्याओं की उत्पत्ति , संगठन सम्बन्धी मूल्यों और मानवतावादी लोक – रीतियों में संघर्ष के आधार पर बताया है । संगठन सम्बन्धी मूल्यों में वे व्यक्तिवाद , वैयक्तिक सम्पत्ति आदि मूल्य सम्मिलित करते हैं और मानवतावादी लोकाचार में संसार को अच्छा बनाने अथवा लोगों के कष्टों का समाधान करने जैसी इच्छाओं को सम्मिलित करते हैं । सक इनके विश्लेषण में कुछ दोष मिलते हैं । फुल्लर का यह विश्वास कि हमारे वर्तमान लोकाचार धन पर अधिक बल देते हैं और यह धारणा चोरी के अपराध की समस्या को प्रोत्साहन देती है , जो सही नहीं है क्योंकि पूरे अपराध की समस्या को केवल मूल्यों के संघर्ष के आधार पर नहीं समझाया जा सकता । क्यूबर और हारपर की यह मान्यता कि वर्तमान परिवार की कुछ समस्याएँ किसी न किसी भल्य के संघर्ष के कारण होती है . सही है ।

यह मानना कि सभी पारिवारिक समस्याएँ केवल मूल्यों के संघर्ष के आधार पर ही स्पष्ट की जा सकती हैं , गलत होगा क्योंकि ऐसे समुदायों में जहाँ मूल्यों पर पूर्ण सहमति मिलती है , पति – पत्नी अथवा माता – पिता तथा सन्तान के सम्बन्ध पूर्ण रूप से समस्यामुक्त नहीं मिलते हैं क्योंकि युवा पीढ़ी आधुनिक सुख – सुविधाओं जैसे टी . वी . , चलचित्र को पसन्द करते हैं जबकि माता – पिता पुराने विचारों को पसन्द करते हैं यह मूल्य संघर्ष है । यहाँ कहा जा सकता है कि मूल्य – संघर्ष दो तरह से समाज में सामाजिक समस्याएँ पैदा करते हैं – पहला , वे वांछनीय सामाजिक परिस्थितियों की विरोधी परिभाषाएँ देने से समस्याएँ उत्पन्न करते हैं और दूसरा , वे नैतिक दुविधा ( Moral Confusion ) को उत्साहित करते हैं जिससे वैयक्तिक विचलन को प्रोत्साहन मिलता है । इस अध्ययन विधि के प्रयोग में हार्टन और लेस्ले के अनुसार कुछ प्रश्न इस प्रकार पूछे जाते हैं – कौन से मूल्यों में संघर्ष पाया जाता है ? मूल्य – संघर्ष कितना गहरा है ? समस्या के समाधान के लिए दिया हुआ सुझाव कौनसे मूल्यों को समाप्त करना चाहता है , इत्यादि ।

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