समाज की विशेषताएं
( CHARACTRISTICS OF SOCIETY)
( 1 ) अमूर्तता ( Abstract ) : – समाज सामाजिक संबंधों की व्यवस्था है , अतः समाज अमूर्त है । ‘ राइट ‘ ने लिखा है कि , ” समाज को हम उनके बीच स्थापित संबंधों की व्यवस्था के रूप में परिभाषित कर सकते है । “
( 2 ) पारस्परिक जागरूकता ( Mutual Awaraness ) : – ज्ञातव्य है कि समाज सामाजिक संबंधों की व्यवस्था का नाम है । सामाजिक संबंधों का आधार व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक दशाएँ है । सामाजिक संबंधों के लिए पारस्परिक जागरूकता का होना आवश्यक है । जब तक व्यक्ति एक – दूसरे के प्रति जागरूक नहीं होंगे , तब तक उनके बीच संबंध विकसित हो ही नहीं सकते । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । तथा उसके पास चेतना एवं जागरूकता है । इस प्रकार व्यक्ति जब एक दूसरे के अस्तित्व एवं कार्य के प्रति जागरूक होंगे तो उनके संदर्भ में कार्यों को करेंगे तथा सामाजिक संबंधों का निर्माण होगा । मैकाइवर ने लिखा है कि ‘ भौतिक वस्तुओं के बीच चूंकि पारस्परिक जागरूकता चेतनता नही है , इसलिए वे एक – दूसरे पर आधारित होते हुए भी कुछ नहीं हैं । ‘ उदाहरण के लिए मेज के ऊपर पुस्तकें पड़ी हुई है जो चेतन नहीं है बल्कि भौतिक वस्तुएं है , लेकिन व्यक्ति के लिए ऐसी बात नहीं है । व्यक्ति जानता है । कि कौन हमारे लिए क्या कर रहा है । अतः वह उसके प्रति जागरूक होकर उन्हीं के संदर्भ में कार्य व्यवहार करता है जिससे सामाजिक संबंधों का निर्माण होता है । मनुष्य के पास ज्ञान है जिसकी वजह से एक – दूसरे के प्रति जागरूक होता है जो सामाजिक संबंध का आधार है , जिसको संकेत के रूप मे इस तरह लिख सकते है
( 3 ) समानता एवं भिन्नता (likeness and Differenees in Society ) : – सामाजिक संबंध में समानता एवं भिन्नता का समन्वय है । सामाजिक संबंध के लिए एक – दूसरे का ज्ञान व उसके प्रति जागरूकता आवश्यक है , जिसका निर्माण तब – तक नहीं हो सकता जब तक कि व्यक्तियों के बीच समानता ( Likenes ) व विभिन्नता – ( Differences ) न हों । लेकिन ऐसी विभिन्नता जिसमें व्यक्ति एक – दूसरे के प्रति आकृष्ट हों , समानता के संदर्भ में होनी चाहिए । जिस प्रकार दिन का संबंध रात से , अपूर्ण का संबंध पूर्ण से , अधिकाधिक का संबंध कम से है , उसी प्रकार समानता का संबंध विभित्रता से विभिन्नता का समानता से है । यह सामाजिक संबंधों के लिए आवश्यक है , जिनके अनुसार समाज का निर्माण हुआ है । इसीलिए गिडिंग्स ने लिखा है । ‘ समाज का आधार सजातीयता या समानता की भावना ( Consciousness of kind ) है ।
मैकाइवर व पेज के शब्दों मे , ‘ समानता एवं भिन्नता तार्किक दृष्टि से एक – दूसरे के विरोधी है , लेकिन अंततः दोनों एक – दूसरे से संबंधित है । दोनों एक – दूसरे के पूरक है , जिनके द्वारा सामाजिक संबंधों का निर्माण हुआ है । ‘
विभिन्नता – समाज में जहाँ एक ओर समानता देखने को मिलती है वहीं दूसरी ओर विभिन्नता भी पायी जाती है । समाज में विभिन्नता का होना भी अति आवश्यक है । यह विभिन्नता किसी भी क्षेत्र में हो सकती है । समाज के सभी सदस्यों में समान बुद्धि , योग्यता , कार्यक्षमता , तत्परता इत्यादि नहीं पायी जाती । समानता लिंग के आधार पर भी नहीं पायी जाती । अर्थात् व्यक्तिगत व सामाजिक असमानता होना अनिवार्य है । असमानता के कारण ही लोगों को एक – दूसरे की आवश्यकता पड़ती है और उनके बीच क्रिया – प्रतिक्रिया होती रहती है । इसके कारण समाज में आकर्षण बना रहता है । असमानता के कारण ही समाज में श्रम – विभाजन पाया जाता है । जो व्यक्ति जिस प्रकार के कार्य के लिए कुशल होता है या जिस प्रकार के कार्य में अभिरुचि रखता है उसी कार्य को वह करता है । सभी व्यक्तियों की दिमागी और शारीरिक शक्ति एक – जैसी नहीं होती । सभी एक जैसे महत्त्वाकांक्षी या उदासीन नहीं होते । इसके कारण समाज में प्रतिस्पर्द्धा तथा प्रतियोगिता इत्यादि भावनाओं का जन्म होता है । फलस्वरूप समाज में परिवर्तन होते है । समाज प्रगति की ओर अग्रसर होता है । समाज में आविष्कार एवं क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन के लिए भी असमानता जरूरी है । मेकाइवर तथा पेज ने कहा है कि यदि किसी समाज के सभी लोग सभी क्षेत्रों में एक – दूसरे के बिल्कुल समान होते तो उनके सामाजिक सम्बन्ध चीटियों या मधुमक्खियों के समान ही सीमित होते । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि असमानताएँ एक – दूसरे के पूरक हैं । समानता और असमानता दोनों के विषय में जानकारी हासिल होने के बाद यह स्पष्ट होता है कि समान उद्देश्यों ( समानता ) की पूर्ति के लिए विभिन्न व्यक्ति भिन्न – भिन्न कार्यों के द्वारा एक – दूसरे का सहयोग करते हैं । यद्यपि समाज में समानता तथा असमानता का होना अनिवार्य है लेकिन असमानता की तुलना में समानता का ज्यादा महत्त्व होता है । समानताएँ प्राथमिक होती हैं और असमानताएँ गौण । समान आवश्यकताओं के लिए ही लोग असमान कार्यों को मिल – जुलकर करते हैं । जैसे , स्कूल व कॉलेजों का मुख्य उद्देश्य लोगों को शिक्षा प्रदान करना है ।
वहाँ के सारे लोग भिन्न – भिन्न कार्यों के द्वारा इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए कार्य करते हैं । शिक्षक अलग कार्य करते हैं , ऑफिस स्टाफ अलग कार्य करते हैं , विद्यार्थीगण का अलग कार्य हो जाता है इत्यादि । यहाँ हम देख रहे हैं कि सभी लोग अपनी – अपनी भूमिकाओं के आधार पर विभिन्न कार्यों के द्वारा समान उद्देश्य शिक्षा प्रदान करना ) को पूरा कर रहे हैं । अर्थात् इनके बीच आन्तरिक समानता की स्थिति है ।
( 4) अन्योन्याश्रिता ( Interdependence ) मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त हैं । इन सारी आवश्यकताओं की पूर्ति वह अकेला नहीं कर सकता । जैसे – जैसे लोगों की आवश्यकताएँ बढ़ती गईं वैसे – वैसे लोग संगठित होते गये हैं जिससे समाज का निर्माण हुआ । लोगों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक – दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है । यह पारस्परिक निर्भरता लोगों के बीच भाईचारे और समानता की भावना पैदा करती है । इससे लोगों के बीच आपस में सम्बन्ध स्थापित होते हैं और वे समाज के नियमों के अनुसार व्यवहार करते हैं । यह निर्भरता लोगों के बीच जन्म से लेकर मृत्यु तक बनी रहती है । आदिम समाज बहुत ही सरल और छोटा था । उस समय लोगों की आवश्यकताएँ भी कम थी फिर भी लोगों को एक – दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता था । उनके बीच श्रम – विभाजन था । स्त्री और पुरुष के बीच काम का बँटवारा था । स्त्रियाँ बच्चों का लालन – पालन तथा घर की देख – रेख करती थीं और पुरुष शिकार एवं भोजन इकट्ठा करते थे । इस विभाजन का आधार लिंग – भेद था । श्रम – विभाजन के कारण वे लोग परस्पर सम्बन्धित एवं आश्रित थे । आज आधुनिक एवं जटिल समाज में परस्पर निर्भरता और अधिक हो गई है । जीवन के हर क्षेत्र में हर आवश्यकता के लिए व्यक्ति को एक – दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है । सामाजिक जीवन के किसी एक पहल में परिवर्तन होता है तो उससे दूसरे पहलू भी प्रभावित होते हैं और उसमें भी परिवर्तन हो जाता है । कारण यह है कि सभी इकाई आपस में सम्बन्धित तथा एक – दूसरे पर आश्रित हैं । इस प्रकार यह कह सकते हैं कि समाज के निर्माण में पारस्परिक निर्भरता एक आवश्यक तत्त्व है ।
( 5 ) सहयोग एवं संघर्ष ( Co – operation and Conflict ) – समानता और असमानता की तरह सहयोग और संघर्ष भी समाज के लिए अति आवश्यक है । ऊपर से ये दोनो विशेषताएं एक – दूसरे की विरोधी दिखती हैं लेकिन वास्तव में ये एक – दूसरे के परक है । प्रत्येक समाज में सहयोग और संघर्ष की प्रक्रिया आवश्यक रूप से पायी जाती है । समाज सरल हो या जटिल आदिम हो या आधुनिक , प्रामीण हो या नगरीय , सहयोग और संघर्ष दोनों पाये जाते हैं । सहयोग – सहयोग सामाजिक जीवन का मख्य आधार है । अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हर व्यक्ति को एक – दूसरे के सहयोग की आवश्यकता होती है । अकेला कोई भी कार्य नहीं हो सकता । जीवन के हर क्षेत्र में और हर कार्य में सहयोग के बिना काम नहीं चल सकता । यह सहयोग दो प्रकार का होता है
अप्रत्यक्ष सहयोग – जब कछ लोग आमने – सामने के सम्बन्धों के द्वारा अपन लाग आमने – सामने के सम्बन्धों के द्वारा अपने उद्देश्यों की मदद करता है या सहयोग देता है । जैसे खेल के मैदान में विभिन्न खिलाड़िया कबाच सहयोग कहलाता है । समाज में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के सहयोग आवश्यक हैं । इनमें से किसी को ज्यादा आर किसी को कम महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता । इतना जरूर है कि सरल . लघ तथा आदिम समाज में प्रत्यक्ष सहयोग की महत्ता अधिक है , जबकि जटिल , वृहत् तथा आधुनिक समाज में अप्रत्यक्ष सहयोग की । इसका कारण यह है कि सरल , लघु एवं आदिम समाज में प्रत्यक्ष सम्बन्ध व आमने – सामने का सम्बन्ध सम्भव है । लेकिन जटिल , वृहत् एवं आधुनिक समाज में लोगों के बीच द्वितीयक सम्बन्ध ही सम्भव है । सब एक – दूसरे को प्रत्यक्ष रूप से जानें और प्रत्यक्ष रूप से सहयोग दें यह सम्भव नहीं है ।
संघर्ष – संघर्ष की महत्ता पर भी अनेक समाजशास्त्रियों ने अपने – अपने विचार व्यक्त किये हैं । संघर्ष का इतिहास आदिकाल से चला आ रहा है । दुनिया का ऐसा कोई भी समाज नहीं है , जहाँ संघर्ष नहीं रहा हो । समाज में जब भी कोई महान परिवर्तन हुआ है तो उसका मूल कारण संघर्ष ही रहा है । अपने स्वार्थ , उद्देश्य , विचार , धर्म , शारीरिक भिन्नता और सांस्कृतिक भिन्नता के कारण लोगों के बीच संघर्ष होता रहता है । संघर्ष भी दो प्रकार के होते है प्रत्यक्ष संघर्ष और अप्रत्यक्ष संघर्ष – प्रत्यक्ष संघर्ष में लोग आमने – सामने के सम्बन्धों द्वारा एक – दूसरे को शारीरिक अथवा मानसिक क्षति पहुँचाते हैं । मार – पीट , दंगा – फसाद , लूट – पाट , लड़ाई – झगड़ा इत्यादि प्रत्यक्ष संघर्ष के उदाहरण हैं । इस तरह की घटनाओं में यह देखते हैं कि लोग प्रत्यक्ष सम्बन्ध द्वारा एक – दूसरे को हानि पहुँचाते है ।
अप्रत्यक्ष संघर्ष में व्यक्ति अपने स्वार्थों व हितों के लिए दूसरे को हानि पहुँचाता है । अप्रत्यक्ष संघर्ष में लोगों के बीच आमने – सामने का सम्बन्ध नहीं होता । प्रतिस्पर्धा अप्रत्यक्ष संघर्ष का सर्वोत्तम उदाहरण है । इसमें व्यक्ति या समूह अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे के रास्ते में बाधा उत्पन्न करता है और अपना उद्देश्य पूरा करना चाहता है । ‘ शीत युद्ध ‘ भी अच्छा उदाहरण है , जो विभिन्न देशों के बीच होता है । प्रत्यक्ष सहयोग की तरह प्रत्यक्ष संघर्ष सरल , लघु एवं आदिम समाज में अधिक पाया जाता था । जटिल , वृहत् एवं आधुनिक समाज में अप्रत्यक्ष संघर्ष का महत्व हो गया है । लेकिन इस समय प्रत्यक्ष संघर्ष भी समाज में वर्तमान है । दुनिया का ऐसा कोई समाज नहीं है जहाँ संघर्ष नहीं पाया जाता है । जिस प्रकार समानता और असमानता एक – दूसरे के पूरक है उसी प्रकार सहयोग और संघर्ष भी एक – टसरे के परक है । एक ओर सहयोग मिल – जुलकर कार्य करना सिखाता है तो दूसरी ओर संघर्ष , शोषण और अन्याय को समाप्त करता है । सहयोग का जो रूप हमें आज देखने को मिल रहा है वह हजारों संघर्ष का परिणाम है । इसके सम्बन्ध में लिखा है ” समाज संघर्ष मिश्रित सहयोग है । ” ( Society is co – operation crossed huamnflict ) समाज में सहयोग की आवश्यकता है , इससे समाज में प्रगति होती है । किन्त संघर्ष आवश्यक होते हए भी समाज में विघटन का कारण बन सकता है । यह जरूरी नहीं है कि संघर्ष के द्वारा शोषण और अन्याय जो लप्त हो जायेगा । इन सारी बातों से स्पष्ट होता है कि सहयोग समाज में भाईचारा एवं आपसी सदभाव की भावना का विकास करता है जबकि संघर्ष शाषण , अन्याय व कुरीतियों को समाप्त करता है । अतः समाज में सहयोग और संघर्ष दोनों विशेषताएँ आवश्यक है , किन्तु सहयोग ज्यादा महत्त्वपूर्ण है ।
( 6 ) समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है ( Society is not confined toMen only ) समाज सिर्फ मनष्य में ही नहीं पाया जाता । यह अन्य जीवों में भी देखने को मिलता है । मेकावर एवं पेज ने कहा है . जहाँ भी जीवन है , वहाँ समाज है । अथात् सभी जीव – जन्तुओं में समाज पाया जाता है । समाज के लिए । सामाजिक सम्बन्ध , पारस्परिक जागरूकता , समानता – असमानता , श्रम – विभाजन , सहयोग – संघर्ष , परस्पर निर्भरता का होना आवश्यक है । इन सब चीजों की व्यवस्था अन्य जीव – जन्तुओं में भी देखने को मिलती है । उदाहरणस्वरूप माक्खया , चीटियों , दीमकों इत्यादि में भी परस्पर सहयोग , श्रम – विभाजन , संघर्ष इत्यादि पाया जाता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि समाज केवल मानवों तक ही सीमित नहीं है । लेकिन मनुष्यों के समाज में जो संगठन और व्यवस्था पायी जाती है , वह अन्य जीव – जन्तुओं के समाज में नहीं पायी जाती । भाषा के अभाव में जीव – जन्तु अपनी सभ्यता एवं संस्कृति का विकास नहीं कर पाते । मनुष्यों ने अपनी भाषा , अनुभव तथा विचार शक्ति के द्वारा सभ्यता एवं संस्कृति को विकसित किया है । इसी संस्कृति के कारण मानव का समाज अन्य जीवों के समाज स भिन्न एवं अनोखा है । समाजशास्त्र के अन्तर्गत सिर्फ मानव – समाज का ही अध्ययन किया जाता है । इसका कारण यह है कि मानव – समाज पूर्ण एवं व्यवस्थित है । इसकी अपनी एक संस्कृति है , जिससे वह विकास के उच्च शिखर पर है ।
( 7 ) परिवर्तनशीलता ( Changeability ) परिवर्तन प्रकृति का नियम है । समाज प्रकृति का एक अंग है अत : समाज में भी परिवर्तन होता है । दुनिया का ऐसा कोई समाज नहीं है जहाँ परिवर्तन नहीं होता है । समाज आदिम हो या आधुनिक , सरल हो या जटिल , ग्रामीण हो या नगरीय परिवर्तन अवश्यभ्यावी है । भले ही इसके परिवर्तन की दर में कमी या वृद्धि का गुण पाया जाता हो पर परिवर्तन अवश्य होता रहता है । मेकाइवर ने कहा है समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है । अनेक कारणों से सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन होते रहते हैं । फलस्वरूप समाज में भी परिवर्तन हो जाता है । समय और परिस्थिति के अनुसार हमारी आवश्यकताएँ बदलती रहती है । इससे आवश्यकता पूर्ति के सम्बन्ध भी बदल जाते है । जब समाज में नये विचार और नये दृष्टिकोण का विकास होता है तब इसका प्रभाव समाज के आदर्श एवं मूल्यों पर भी पड़ता है । जिस प्रकार का समाज आदिकाल में पाया जाता था वैसा आज का समाज नहीं है । औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण समाज में अत्यधिक परिवर्तन हो गए हैं । इन सारी बातों से स्पष्ट होता है कि विभिन्न कारणों से सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन होते हैं फलत : समाज में परिवर्तन हो जाता है । प्राचीन भारत और नवीन भारतीय समाज में अनेक परिवर्तन देखने को मिलते हैं । जाति – प्रथा का जो रूप पहले था वह अब नहीं रहा । पहले शिक्षक और विद्यार्थी का जो सम्बन्ध था वह नहीं रहा । अन्य क्षेत्रों में भी कई तरह के भेद – भाव थे जो अब नहीं है । इसी प्रकार दुनिया के हर समाज में परिवर्तन होता रहा है । अत : हम कह सकते हैं कि समाज परिवर्तनशील है ।
समाज के प्रकार एवं उदाहरण ( Types and Examples of Society )
समाजशास्त्र समाज का अध्ययन करता है । समाज समजिक सम्बन्धों की परिवर्तनशीलता एवं जटिल व्यवस्था को कहते हैं । समाज को अच्छी तरह समझने के लिए समाज का अर्थ , उसकी परिभाषा , उसके आधार एवं उसकी विशेषताओं को स्पष्ट किया गया । यहाँ समाज के कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं ताकि उसे अधिक सरलता से समझा जा सके विभिन्न समाजशास्त्रियों ने अपने – अपने दृष्टिकोण के आधार पर समाज के प्रकारों की चर्चा की है । उदाहरण के लिए . दुर्खेम के अनुसार , यान्त्रिक एकता तथा सावयविक एकता ( Mechanical Solidarity and Organic Solidarity ) , टॉनीज के अनुसार , गेमेनशाक्ट तथा गेसेलशास्ट ( Gemeinschaft and Gesellschaft ) इत्यादि समाज के सम्बन्ध में जितने भी उदाहरण दिये गये हैं असक्के आधार पर तीन तरह के समाज की चर्चा यहाँ की जाएगी
आदिम समाज – आदिम समाज को आदिवासी समाज व्या जनजाति समाज कहकर भी सम्बोधित किया जाता है । ‘ आदिम समाज से तात्पर्य ऐसे समाज से है जिसकी जनसंख्या कम हो त्या वे कुछ खासक छोटे क्षेत्र में रहते हो । उनका सामाजिक सम्पर्क भी संकुचित होता है । प्रगतिशील एवं प्रौद्योगिक समाज की तुलना में उनकी अर्थ व्यवस्था सरल होती है । उनके बीच क्रम – विभाजन त्या विशेषीकरण भी बहुत ही सरल होता है । उम्र , आयु तथा लिंग के आधार पर कार्य का बँटवारा पाया जाता है । आदिम समाज की संस्कृति पृथक् एवं अपने आप में सम्पूर्ण होती है । उनमें साहित्य व्यवस्थित कला एवं विज्ञान का अभाव पाया जाता है । इनकी राजनीतिक व्यवस्था भी पृथक् होती है । सामान्य तौर पर ऐसे समाज बने जंगलो के बीच पहाडी इलाकों तथा पठारों में पाये जाते हैं । जैसे – संथाल , टोडा , मुंडा तथा उसाँव इत्यादि – अटिम समाज में लोगों के बीच प्राथमिक सम्बन्ध होते हैं । वे पारस्परिक एकता ‘ एवं हम की भावना अधार पर एक – दूसरे से जुड़े होते हैं । अपनी हर आवश्यकता की पूर्ति अपने समाज के अन्तर्गत ही करते हैं । मे टो सम्पर्क रखते हैं और न ही सम्पर्क रखना पसन्द करते हैं ।
इस आधार पर यह समाज हस्तान्तरण मौखिक आधार पर करते हैं । इस प्रकार यह स्म है , जो उनके बीच पृथक सामाजिक सम्बन्ध एवं सामा अन्य समाज से अलग विशेषता रखता है ।
( ii ) सरल व परम्परागत समाज – सरल या परम्परा सम्बोधित किया जाता है । ऐसे समाज शहर से दूर तथा ग्रामा एवं आध्यात्मिकता का विशेष महत्त्व होता है । वे भाग्यवादा तथा कार्य ( status and role ) जाति , जन्म एवं उम से निर्धारित होते हैं । ज – सरल या परम्परागत समाज को ग्रामीण तथा कृषक समाज कहकर भा । आज शहर से दूर तथा ग्रामीण क्षेत्रों में बसे होते है । इनके जीवन में धर्म , परम्परासमाज के प्रकार सरल समाज में लोगों के बीच आमने – सामने का सम्बन्ध होता हा उनम भावनात्मक एकता भी पायी जाती है । आपस में परस्पर सहयोग ( i ) आदिम समाज का भावना होती है । वे एक – दसरे के द : ख एवं सुख से अवगत हात ह । अर्थात् उनके बीच प्राथमिक सम्बन्ध पाया जाता है । धर्म , प्रथा , परम्परा एवं नैतिकता आदि के आधार पर व्यक्तियों के व्यवहार नियन्वित होते ( Simple or Traditional है । आपस में संघर्ष कम पाया जाता है । विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी ( Science Society ) and Technology ) का विकास नहीं हुआ रहता है । श्रम – विभाजन तथा विशेषीकरण का रूप भी काफी सरल होता है । सरल समाज की अर्थव्यवस्था समाज कृषि – प्रधान होती है । लोगों का मख्य पेशा कृषि एवं उससे सरल समाज में सामाजिक गतिशीलता एवं सामाजिक परिवर्तन की दर काफी धीमी होती है । ऐसे समाज में व्यक्तिगत योग्यता , धन , शिक्षा तथा व्यवसाय का विशेष महत्त्व नहीं होता । स्त्रियों की स्थिति भी काफी निम्न होती है । आदिम समाज की तुलना में सरल समाज अपेक्षाकृत बड़ा होता है । इस समाज की विशेषताएँ सरल होती हैं जिसके कारण यह आदिम तथा आधुनिक समाज से निम्न होता है ।
( iii ) जटिल व आधुनिक समाज – जटिल या आधुनिक समाज , आदिम और सरल समाज की अपेक्षा काफी वृहत् और व्यापक होता है । ऐसे समाज में प्रत्येक सहयोग और सम्बन्ध के पीछे कोई – न – कोई स्वार्थ छिपा रहता है । लोगों के बीच द्वितीयक सम्बन्ध पाया जाता है । सब लोग अपने हित और स्वार्थ की बात सोचते हैं । लोगों में ‘ हम की भावना ‘ का अभाव पाया जाता है । विभिन्न लोगों एवं समूहों के बीच संघर्ष एवं प्रतियोगिता की भावना निहित होती है । ऐसे समाज में लोगों के उद्देश्य एवं रुचियों में काफी असमानता पायी जाती है । जटिल समाज में विज्ञान ( Science ) , प्रौद्योगिकी ( Technology ) , अर्थव्यवस्था तथा राजनीतिक संगठन काफी विकसित होते हैं । श्रम – विभाजन तथा विशेषीकरण काफी पाये जाते है । ऐसे समाज में लोगों की जनसंख्या तथा उनके सामाजिक सम्पर्क भी विस्तृत होते है । समाज की संरचना तथा उसके प्रकार्य काफी जटिल होते हैं । ऐसे समाज में धर्म , परम्परा , नैतिकता आदि का विशेष महत्त्व नहीं होता । ऐसी स्थिति में साहित्य , व्यवस्थित कला तथा तर्क का महत्त्व बढ़ जाता है । जटिल समाज में नित नई – नई संस्थाओं , धन्धों एवं मशीनों का निर्माण होता है । इससे सम्बन्धित व्यक्तियों के कार्य बँटे होते हैं तथा अपने आप में सीमित होते हैं । लेकिन इस विभिन्नता में एकता पायी जाती है । ऐसे समाज में लोगों की आवश्यकताएँ इतनी अधिक होती हैं कि उनकी पूर्ति कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं कर सकता । सभी को एक – दूसरे पर निर्भर व आश्रित होना पड़ता है । किन्तु ये सम्बन्ध कार्य के सम्पादन तक ही सीमित रहते हैं । जटिल या आधुनिक समाज शहर प्रधान होता है । यहाँ तरह – तरह के उद्योगों का विकास होता रहता है । इस समाज में लोगों की स्थिति व्यक्तिगत योग्यता , शिक्षा , धन तथा व्यवसाय से निर्धारित होती है । लोग तरह – तरह के व्यवसाय में लगे होते हैं तथा विशेषीकरण भी काफी होता है । इनके बीच औपचारिक सम्बन्ध होते हैं । ऐसे समाज में लोगों के व्यवहार पर कानून , पुलिस तथा न्यायालय के द्वारा नियन्त्रण लगाये जाते हैं । जटिल समाज में सामाजिक गतिशीलता और सामाजिक परिवर्तन की दर काफी तेज होती है
सेंट साइमन , तीन प्रकार के समाज का वर्णन करते हैः
( क ) सैनिक समाज ( Militant Society ) ,
( ख ) कानून समाज ( Legal Society ) , तथा
( ग ) औद्योगिक समाज ( Industrial Society )
ऑगस्ट कॉम्ट तीन प्रकार के समाज का उल्लेख करते हैः
( क ) धार्मिक समाज ( Theological Society ) ,
( ख ) तात्विक समाज ( Metaphysical Society ) , तथा
( ग ) प्रत्यक्षवादी समाज ( Positivistic Society )