समाजीकरण और शिक्ष
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में
INTRODUCTION TO SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2kHe1iFMwct0QNJUR_bRCw
SOCIAL CHANGE: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R32rSjP_FRX8WfdjINfujwJ
समाजीकरण
( Socialization )
मनुष्य जन्म से मृत्युपर्यन्त तक कुछ – न – कुछ सीखता ही रहता है । व्यक्ति जब जन्म लेता है , उस समय वह सिर्फ हाड़ – मांस का एक जीवित पुतला होता है । जन्म के समय उसमें सामाजिक गुण होते हैं और न असामाजिक । उसे अपने शरीर तक का आभास नहीं होता । इसका एकमात्र कारण यह है कि उसमें ‘ स्व ‘ का विकास नहीं हुआ रहता । किन्तु धीरे – धीरे वह समाज और संस्कृति के बीच पलते – पलते एक सामाजिक प्राणी बन जाता है । अर्थात् व्यक्ति समाज की परम्पराओं , रूढ़ियों , विश्वासों , रीति – रिवाजों के अनसार व्यवहार करना सीख जाता है । इस प्रकार जिस प्रक्रिया के द्वारा जैविकीय प्राणी ( biological being ) सामाजिक प्राणी ( social being ) में बदल जाता है , उसे समाजीकरण कहते है । इस प्रक्रिया के द्वारा मनुष्य समाज के मानदण्डों को सीखता है और उनके अनुरूप अपना व्यवहार प्रदर्शित करते हुए समाज का सक्रिय सदस्य बन जाता है । समाजीकरण की प्रक्रिया प्रत्येक समाज में होती है , चाहे वह अमेरिका का सभ्य समाज हो या कोई असभ्य वन्य जाति । इसके द्वारा ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है । विभिन्न समाजशास्त्रियों ने भिन्न – भिन्न प्रकार से समाजीकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट किया है
जॉनसन के अनुसार , – ‘ ‘ समाजीकरण एक सीखने की प्रक्रिया है , जिससे व्यक्ति सामाजिक भूमिकाओं को सम्पादित करता है । ‘ ‘ इस परिभाषा में जॉनसन ने दर्शाया है कि व्यक्ति समाज के मूल्यों , आदर्शों , रीति – रिवाजों को सीखकर अपनी भूमिकाओं को अदा करता है और सामाजिक कार्यों में सहयोग देता है ।
फिक्टर के अनुसार , ” समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक व्यवहार के प्रतिमानी टो – वीकार करता है और उनसे अनुकूलन करना सीखता है । ” जॉनसन की तरह फिक्टर ने भी समाजीकरण को सोखने की प्रक्रिया बताया है ।
कुप्पूस्वामी के अनुसार , ‘ समाजीकरण एक अन्त : क्रियात्मक प्रक्रिया है , जिसके द्वारा बच्चे का व्यवहार रूपानारित होकर उस समूह के सदस्यों की अपेक्षाओं के अनुरूप बनता है जिससे वह सम्बद्ध होता है ।
बोगार्डस के अनुसार , ” समाजीकरण मिलकर काम करने , सामूहिक उतरदायित्व की भावना को विकसित करने और दूसरों की कल्याण – सम्बन्धी आवश्यकता द्वारा निर्देशित होने की प्रक्रिया है । ‘ ‘ – बोगार्डस ने अपनी , परिभाषा में समाजीकरण की प्रक्रिया में अन्तःक्रियात्मक प्रभाव पर जोर दिया है । किन्तु इसमें उसने केवल सकारात्मक पहल पर ही बल दिया है । अर्थात् उसने समाजीकरण के अन्तर्गत सिर्फ सद्गुणों को ही प्रकाशित किया । यह बोगार्डस की परिभाषा की सबसे बड़ी कमजोरी है । वस्तुत : समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति सिर्फ सदगुणों और अच्छी बातों को ही नहीं सीखता , बल्कि कछ इनसे विपरीत चीजों अथवा अवगुणों को भी सीखता है ।
किम्बाल यंग के अनुसार , ” समाजीकरण वह प्रक्रिया है , जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रवेश करता है और समाज के विभिन्न समूहों का सदस्य बनता है तथा जिसके द्वारा उसे समाज के मल्यों और आदर्शों को स्वीकार करने की प्रेरणा मिलती है ।
उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि समाजीकरण एक प्रक्रिया है , जिससे व्यक्ति सामाजिक सम्पराओं और रूढ़ियों के अनुसार व्यवहार करना सीखता है । सामाजिक जीवन की विभिन्न दशाओं के अनुरूप एक व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास समाजीकरण के द्वारा ही होता है । समाजीकरण से व्यक्ति में आत्म – चेतना . आत्म – निर्णय , हम की भावना . सामाजिक आत्मनियन्त्रण और सामाजिक उत्तरदायित्व के गण आते हैं
समाजीकरण की विशेषताएँ ( Characteristics of Socialization )
समाजीकरण के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी परिभाषाओं के आधार पर विशेषताएँ स्पष्ट हो रही है । इनमें से कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
( i ) समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है ।
( ii ) इसके द्वारा सामाजिक रीति – रिवाजों , परम्पराओं एवं आदर्शों को सीखा जाता है ।
( iii ) इस प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति एक जैवकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी में बदल जाता है ।
( iv ) समाजीकरण एक आजन्म प्रक्रिया है अर्थात् यह जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक चलती रहती है ।
( v ) समाजीकरण से व्यक्ति में आत्म – चेतना , आत्म – निर्णय तथा हम की भावना का विकास होता हैं ।
( vi ) इससे व्यक्ति में आत्मनियन्त्रण तथा सामाजिक उत्तरदायित्व के गुण आते हैं ।
( vii ) समाजीकरण की प्रक्रिया विभिन्न स्तरों से गुजरती है । (
VIII ) समाजीकरण की प्रक्रिया विभिन्न साधनों के द्वारा परी होती है ।
( ix ) समाजीकरण की प्रक्रिया सभी समाजों में होती है ।
समाजीकरण के उद्देश्य ( Aims of Socialization )
बम एवं सेजनिक न समाजीकरण के चार प्रमुख उद्देश्यों का उल्लेख किया है
1 . बुनियादी अनुशासन ( Basic Discipline ) – समाजीकरण मानव जीवन को नियमबद्ध बनाये रखन के लिए आवश्यक है । समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति समाज के रीति – रिवाजों , आदर्शों एवं मूल्या का सीखता है । इस प्रकार वह समाज का एक सक्रिय सदस्य बन जाता है । समाजीकरण के फलस्वरूप वह समाज में अन्य लोगों के साथ सामंजस्य स्थापित करता है ।
2.आकांक्षाओं का निर्माण ( To instal aspirations ) – समाजीकरण की प्रक्रिया का उद्देश्य व्यक्ति में आकांक्षाओं का निर्माण करके उनकी पूर्ति में सहायता देना है । कहने का तात्पर्य यह है कि समाजीकरण स हा व्यक्ति के अन्दर इच्छाओं का जन्म होता है । इन्हीं इच्छाओं से आकांक्षाओं का निर्माण होता है और फिर इनकी पूर्ति भी समाजीकरण की प्रक्रिया से ही होती है ।
3 . सामाजिक दायित्वों की पूर्ति का शिक्षण ( To teach theresponsibilityofsocialroles ) समाज में प्रत्येक व्यक्ति की एक स्थिति ( status ) होती है और उस स्थिति से जुड़ी हुई भूमिकाएँ ( roles ) भी होती है । इन भूमिकाओं को अदा करना आवश्यक होता है । समाजीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति को सामाजिक दायित्वों का बोध कराती है । इसके द्वारा ही व्यक्ति सामाजिक रीति – रिवाजों को सीखता है , जिसके फलस्वरूप वह अपनी भूमिकाओं को निभाने में सफल हो पाता है ।
4 . सामाजिक क्षमताओं का विकास ( Development of social skills ) – समाजीकरण का प्रक्रिया व्यक्ति के अन्दर उन क्षमताओं को विकसित करती है जो उसे सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक सामंजस्य स्थापित करने में सहायक हो । समाजीकरण के द्वारा व्यवित में वैसे गण आते हैं , जो समाज के साथ । अनुकूलन में सहायक होते हैं ।
समाजीकरण की प्रक्रिया के स्तर ( Stages of the Process of Socialization )
जॉनसन ( Johnson ) ने समाजीकरण की प्रक्रिया को चार स्तरों में बाँटा है
( i ) मौखिक अवस्था ( Oral Stage )
( ii ) शैशव अवस्था ( Anal Stage ) ( iii )
तादात्मीकरण अवस्था ( Identification Stage )
( iv ) किशोरावस्था ( Adolescence )
1 . मौखिक अवस्था ( Oral Stage ) – यह समाजीकरण की प्रक्रिया का प्रथम चरण है । इस अवस्था में गर्भ में भ्रूण आरामपूर्वक रहता है । यह अवस्था एक से डेढ़ वर्ष की होती है । इस अवस्था में सभी आवयकताएँ सामान्य तौर पर शारीरिक एवं मौखिक होती हैं । इस अवस्था में बच्चा परिवार में अपनी माँ के अलावा किसी को नहीं जानता । वास्तव में वह माँ से अपने को पृथक् अनुभव नहीं करता । पारसन्स ( Parsons ) के अनुसार परिवार के अन्य लोगों के लिए बच्चा एक सम्पदा होता है । इसे मौखिक अवस्था इसलिए कहा जाता है , क्योंकि वह अपनी देखभाल के लिए संकेत देना सीख जाता है । शिशु अपने चेहरे के माध्यम से हाव – भाव प्रकट करने लगता है । इस अवस्था में बच्चों को शारीरिक आनन्द की अनुभूति होती है । इस स्थिति को फ्रायड ने प्राथमिक परिचय ( Primary Identification ) कहा है । इस अवस्था में बच्चों को भूख लगना , ठण्ड अथवा गर्मी महसूस करना तथा प्रत्येक कार्य में असुविधा का अनुभव होता है । इन असुविधाओं से बच्चे को कष्ट होता है और वह रोता तथा चिल्लाता है । समाजकमकोमा काइतीमचलत् ।
2 . शैशव अवस्था ( Anal Stage ) – शैशव की अवस्था डेढ़ वर्ष से शुरू होती है और तीसरे या चौथे वर्ष में समाप्त हो जाती है । इस अवस्था में बच्चे को शौच – सम्बन्धी प्रशिक्षण दिया जाता है । बच्चे को साबुन से हाथ धोना तथा कपड़ा साफ रखने की सीख दी जाती है । इस अवस्था में बच्चा प्रत्येक तरह की प्रतिक्रिया करने लगता है । वह माँ से प्यार की इच्छा ही नहीं , बल्कि स्वयं भी माँ को स्नेह देने लगता है । इस स्तर में बच्चे के कार्यों को सही अथवा गलत ठहराया जाता है ताकि वह सही और गलत में अन्तर समझ सके । सही कार्यों के लिए उसे शाबाशी दी जाती है , तो दूसरी ओर गलत कार्यों के लिए डाँट – फटकार दी जाती है । इस प्रकार वह अपने परिवार एवं संस्कृति के अनुरूप व्यवहार करना आरम्भ कर देता है । इस अवस्था में बच्चा माँ के अतिरिक्त परिवार के अन्य सदस्यों के सम्पर्क में आता है तथा उनसे प्रभावित होता है । अब वह थोड़ा – बहुत बोलने तथा चलने लगता है । ऐसे में बच्चों में अनुकरण की प्रकृति का उद्विकास हो जाता है । परिवार के सदस्यों द्वारा क्रोध , विरोध , प्रेम एवं सहयोग प्रदर्शित करने पर बच्चे भी तनाव एवं प्रेम का भाव प्रदर्शित करने लगते है । इस प्रकार बच्चा दोहरी भूमिकाएँ निभाना शुरू कर देता है ।
3 . तादात्मीकरण अवस्था ( Identification Stage ) सीमान्य तौर पर यह अवस्था तीन – चार वर्ष से लेकर बारह – तेरह वर्ष की उम्र तक रहती है । जॉनसन ने बताया कि इस अवस्था में बच्चा पूरे परिवार से सम्बद्ध हो जाता है तथा सभी सदस्यों को पहचानने लगता है । इस अवस्था की प्रमुख विशेषता यह है कि बच्चा यौनिक व्यवहारों से परिचित नहीं होता , किन्तु उसके शरीर में अनेक यौनिक परिवर्तन होने लगते हैं । इस समय बच्चा अपने लिंग को पहचानने लगता है ( अर्थात वह लड़का है या लड़की ) और विपरीत लिंग में उसकी रुचि बढ़ने लगती है । इस स्तर में बच्चे से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने लिंग के अनुरूप व्यवहार करे । यदि वह अपने लिंग के अनुरूप व्यवहार करता है , तो उसे प्रोत्साहित किया जाता है । इस प्रकार वह धीरे – धीरे लिंग विभेदीकरण सीख जाता हैं । इस अवस्था में बालको में यौन – विकास इस सीमा तक हो जाता है कि वे अपने माता – पिता से ईर्ष्या करने लगते हैं । आरम्भ में बच्चा अपने लिंग एवं परिस्थिति से पूर्ण तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता . क्योंकि उसमें ईष्या एवं उद्वेग अधिक होते हैं । किन्तु वह धीरे – धीरे इनपर नियन्त्रण रखना सीख जाता है । इस अवस्था में बच्चों में जटिल भावनाओं का विकास होता है । लड़के माँ की ओर तथा लड़कियाँ पिता के प्रति अचेतन रूप से आकर्षित होने लगती हैं । लड़कों के माँ के प्रति आकर्षण को ऑडिपस कॉम्प्लेक्स ( Oedipus complex ) तथा लड़कियों के पिता के प्रति आकर्षण को इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स ( Electra complex ) के नाम से सम्बोधित किया जाता है । तादात्मीकरण की अवस्था गम्नावस्था ( Latency stage ) के नाम से भी जानी जाती है ।
4 . किशोरावस्था ( Adolescences इस स्तर में प्राय : यौवनावस्था ( Puberty ) आरम्भ होती है । इस अवस्था में बच्चे अपने माता – पिता से अधिक स्वतन्त्रता की आकांक्षा करते है । यह अवस्था 13 वर्ष से लेकर 18 वर्ष तक ही होती है । यह स्तर बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है , क्योंकि इस अवस्था में बालक – बालिकाएँ गम्भीर तनावों का अनुभव करते हैं । इस तनाव का कारण बालक – बालिकाओं में शारीरिक परिवर्तन होता है । – इस समय बच्चों से यह आशा की जाती है कि वे अपने जीवन से सम्बन्धित आवश्यक निर्णय स्वयं लें । उदाहरणस्वरूप , जीवन – साथी का चुनाव , व्यवसाय का चुनाव इत्यादि । इन निर्णयों को लेते समय बच्चे प्रायः दुविधा में पड़ जाते हैं , किन्तु इन निर्णयों के सम्बन्ध में उनसे आशा की जाती है कि वे अपनी पारिवारिक परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखकर निर्णय लें । परन्तु प्राय : ये किशोरों की भावनाओं के प्रतिकूल होते हैं और मानसिक तनाव के कारण बनते है । इस स्तर पर समाजीकरण की प्रक्रिया समाज के निषेधात्मक नियमों ( incest taboos ) से प्रभावित होती है जो संस्कृति में विशेष महत्त्व रखते हैं । इसी अवस्था में बच्चों को अपने परिवार के अतिरिक्त पड़ोसियों , खेल के साथियों , मित्रों , अध्यापकों एवं नवागन्तुकों के साथ समायोजन करना पड़ता है । ऐसी स्थिति में वे नई परिस्थितियों का सामना करके नये अनुभव प्राप्त करते हैं । इस स्तर में बच्चे परिस्थितियों का सामान्यीकरण करना भी सीखते है । इस अवस्था में उनमें पराहम् ( Super ego ) की भावना का विकास होता है , जिससे उनमे आत्म – नियन्त्रण उत्पन्न होता है । समाजीकरण की प्रक्रिया इन्हीं चार अवस्थाओं में समाप्त नहीं होती । किन्तु ये व्यक्तित्व के निर्माण के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय हैं । इसके बाद की प्रक्रियाएँ सरल हो जाती है , क्योंकि व्यक्ति में भाषा तथा उन क्षमताओं का विकास हो जाता है , जिससे वह किसी परिस्थिति को आसानी से समझ कर आत्मसात कर लेता है ।
किशोरावस्था के बाद भी समाजीकरण की प्रक्रिया तीन प्रमुख स्तरों से होकर गुजरती है
( i ) युवावस्था
( ii ) प्रौढ़ावस्था
( iii ) वृद्धावस्था
( i ) युवावस्था – इस अवस्था में व्यवित अनेक पदों को प्राप्त करता है , जैसे पिता , पति इत्यादि । इन सभी पदों के अनुरूप व्यक्ति कार्य करता है तथा परिवार एवं समाज के महत्त्वपूर्ण दायित्वों को निभाता है । विभिन्न प्रकार के पदों से सम्बन्धित भूमिकाओं को निभाने में उसे भूमिका संघर्ष ( role clash ) की स्थिति का सामना करना पड़ता है
। ) प्रौढावस्था – इस अवस्था में व्यक्ति पर सामाजिक दायित्वों का बोझ बढ़ जाता है । उसे अपने परिवार एवं बच्चों की शिक्षा – दीक्षा , विवाह एवं व्यवसाय आदि का भार भी उठाना पड़ता है । दफ्तर के वरिष्ठ अधिकारी या सेवक के रूप में नये दायित्व सम्भालने होते है । इस प्रकार वह भिन्न – भिन्न परिस्थितियों में नये – नये अनभव प्राप्त करता है ।
वद्धावस्था — इस अवस्था में व्यक्ति पर शारीरिक , मानसिक तथा सामाजिक परिवर्तन स्पष्ट होने लगते है । अब वे दादा , नाना इत्यादि के रूप में अनेक महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं को निभाते हैं । नौकरी करने वाला
व्यक्ति इस अवस्था में सेवा से निवृत्त हो जाता है । सामान्य तौर पर अब उसे दूसरों पर आश्रित होना पड़ता है । इस समय उसे अनेक नयी परिस्थितियों से अनुकूलन करना पड़ता है । स्पष्ट होता है कि समाजीकरण की प्रक्रिया किसी – न – किसी रूप में जीवन भर चलती रहती है । किशोरावस्था के बाद यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत सरल हो जाती है । जॉनसन ने इसके तीन कारणों की चर्चा की है , पहला , वयस्क साधारणतया उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित होता है , जो स्वयं वह देख चुका हो । दूसरा , वह जिस नई भूमिका को अन्तरीकृत करना चाहता है , उसमें तथा उसके द्वारा पहले की गई भूमिकाओं में काफी समानता होती है । तीसरा , वह भाषा के माध्यम से नई प्रत्याशाओं को सरलता से समझ लेता है । इस प्रकार समाजीकरण की प्रक्रिया किशोरावस्था के बाद स्वत : चलती रहती है ।
समाजीकरण के साधन
( Agencies of Socialization )
परिवार ( Family ) – समाजीकरण के साधनों में परिवार का महत्त्वपूर्ण स्थान है । मनुष्य जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त परिवार में ही रहता है । अत : व्यक्तित्व के निर्माण में वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । मानव जब जन्म लेता है , तब वह हाड़ – माँस का जीवित पुतला मात्र होता है । धीरे – धीरे वह परिवार के सदस्यों के सम्पर्क में आता है और जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी में परिवर्तित हो जाता है । परिवार में माता – पिता का सम्बन्ध , माता – पिता तथा बच्चों का सम्बन्ध एवं बच्चों का आपसी सम्बन्ध भी समाजीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करते है । इनके प्रभावों को हम निम्न प्रकार से समझ सकते हैं
( क ) माता – पिता का सम्बन्ध – सभी समाजों के परिवारों में माता – पिता की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है । पिता बच्चों को साधक नेतृत्व ( Instrumenal leadership ) और माता बच्चों को भावात्मक नेतृत्व ( Expressive leadership ) प्रदान करती है । पिता साधक नेता के रूप में खेत एवं व्यवसाय का मालिक होता है और आखेट में वह अगुआ भी होता है , जबकि माता परिवार में मध्यस्थता के रूप में कार्य करती है । समझौता कराने तथा झगड़ा एवं वैमनस्य को दूर करने का काम माँ ही करती है । इसके साथ – साथ वह बच्चों के प्रति स्नेहमय , घनिष्ठ , हितैषी और भावपूर्ण होती है । पुत्र पिता के समान तथा पुत्री माता के समान बनना चाहती है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि माता – पिता का प्रभाव बच्चों पर अत्यधिक पड़ता है । अगर इनके सम्बन्धों के बीच दरार या खाई उत्पन्न हो जाये , तो इसका प्रभाव बच्चों के व्यक्तित्व पर पड़ता है । जिस परिवार में माता – पिता के बीच झगडा एवं कलह रहते हैं , उस परिवार के बच्चों में संतुलन का अभाव पाया जाता है । यदि परिवार में पति – पत्नी प्रेम एवं सहयोग का सम्बन्ध बनाये रखते है , तो बच्चों पर इसका बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ता है और वह संतुलित जीवन जीने में सफल होता है । बच्चों की नैतिकता का विकास भी परिवार में ही होता है । जिन परिवारों में माता – पिता नैतिक विचारों पर बल देते हैं , उन परिवारों में बच्चों में उच्च नैतिकता का ही विकास होता है ।
( ख ) माता – पिता तथा बच्चों का सम्बन्ध – परिवार में सिर्फ माता – पिता का आपसी सम्बन्ध ही नहीं , बल्कि माता – पिता का बच्चों के साथ कैसा सम्बन्ध है , यह भी उनके व्यक्तित्व को प्रभावित करता है । जब माता – पिता बच्चों को पर्याप्त प्यार देते हैं , उनकी जरूरतों एवं आवश्यकताओं पर ध्यान देते हैं तब वे अपने आपको सुरक्षित अनुभव करते हैं । यदि माता – पिता बच्चे को पर्याप्त प्यार नहीं देते , उनकी आवश्यकताओं को पूरा नहीं करते , तो वे अपने आपको असुरक्षित अनुभव करते हैं । माता – पिता यदि बच्चों को तिरस्कार तथा उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं , तो बच्चों में हीनता की भावना का विकास होता है । कभी – कभी वे प्रतिशोधी प्रकृति के भी बन जाते हैं और उनके अन्दर समाज के प्रति बदला लेने की भावना जागृत हो जाती है । इसके विपरीत अत्यधिक लाड़ – प्यार बच्चों को लापरबाह एवं गैर – जिम्मेदार बना देता है । वे दूसरों से अपेक्षा करते हैं , किन्तु अपने स्वार्थी एवं आत्मकेन्द्रित हो जाते हैं । कभी – कभी ऐसा भी देखा जाता है कि माता – पिता अपने सभी बच्चों को समान दृष्टि से नहीं देखते , उनके साथ भेदभाव करते हैं । बच्चों के साथ इस तरह का व्यवहार उनके व्यक्तित्व को प्रभावित करता है । जिसे अधिक प्यार मिलता है , वह बदमाश तथा जिसका पक्ष नहीं लिया जाता , वह निराश्रित एवं संकोची बन जाता है । इसके साथ ही बच्चों के बीच में ईर्ष्या एवं प्रतिद्वन्द्विता की भावना का विकास होता है । किम्बाल यंग ने इसके सन्दर्भ में कहा है , ” बच्चे का मौलिक समाजीकरण परिवार में ही होता है । समस्त आधारभूत विचार हृष्ट – पुष्ट , कौशल तथा मानदण्ड परिवार में ही प्राप्त किये जाते हैं ।
( ग ) बच्चों का आपसी सम्बन्ध – बच्चों का आपसी सम्बन्ध भी महत्त्वपूर्ण होता है । बच्चों के आपसी सम्बन्ध का तात्पर्य भाई – भाई तथा बहन – बहन के बीच का सम्बन्ध होता है । इसके अतिरिक्त बच्चों के जन्म – क्रम ( Birth order ) का प्रभाव भी उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करता है । प्रायः यह देखा जाता है कि परिवार का प्रथम बच्चा अकेले ही सब सुविधाओं को भोगना चाहता है । इसका एकमात्र कारण यह होता है कि काफी दिनों तक उसे अकेला ही सबों का प्यार मिलता रहता है । सभी तरह की सुख – सुविधाओं को भोगता है , जिसके परिणामस्वरूप वह स्वार्थी भी बन जाता है । इसके विपरीत परिवार का सबसे छोटा बच्चा सबका प्यारा होता है । चूँकि उसका प्यार बाँटने वाला अन्य दूसरा बच्चा नहीं होता , इसलिए वैसे बच्चों का बचपना धीरे – धीरे जाता है । बीच के बच्चे ( मॅझले बच्चे ) प्रतियोगी वृत्ति ( Competitive tendency ) के हो जाते हैं । इसका मुख्य कारण यह है कि ये बच्चे कभी तो अपने से बड़े बच्चे तथा कभी छोटे बच्चे के साथ तुलना करते हैं । हर वक्त उन्हें अनुभव होता है कि जितना प्यार उन्हें मिल रहा है वह पर्याप्त नहीं है , वह बड़े तथा छोटे में बँट जाता है । परिवार में यदि कोई बच्चा अपराधी व्यवहार में संलग्न हो जाता है , तो अन्य बच्चों पर भी उसका बुरा प्रभाव पड़ता है । इसके विपरीत कोई बच्चा आगे निकल जाता है , तो अन्य बच्चे भी आगे बढ़ने का प्रयास करते है । परिवार की सामाजिक स्थिति का भी बच्चों के विकास पर प्रभाव पड़ता है । उपर्युक्त विवेचनों से यह स्पष्ट होता है कि परिवार समाजीकरण का आधार है । डेविस ने भी समाजीकरण में परिवार की भूमिका को स्पष्ट करते हुए बताया कि ” समाजीकरण के प्रारम्भिक चरण घर में ही प्रारम्भ होते हैं । ‘ ‘ सैमुअल के अनुसार , ” मुख्य रूप से यह घर ही है जहाँ दिल खुलता है , आदतों का निर्माण होता है , बुद्धि जागृत होती है तथा अच्छा – बुरा चरित्र ढलता है । ” परिवार में बच्चे को वैसी भी शिक्षा मिलती है , जो उनके आदर्श नागरिक बनने में सहायक होती है तथा समाज की विभिन्न परिस्थितियों में भी सहायक होती है और सामंजस्य करना सिखाती है ।
क्रीड़ा – समूह ( Play orPeerGroup ) – परिवार के बाद क्रीड़ा – समूह का स्थान आता है , जो समाजीकरण की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करता है । क्रीड़ा – समूह को खेल या मित्रों का समूह भी कहते है । परिवार से निकलकर बालक अपनी आयु के अन्य बच्चों के साथ खेलता है । इस खेल – समूह में बच्चा खेल के नियमों का पालन करना सीखता है , जो आगे चलकर नियन्त्रण में रहना तथा अनुशासन का पालन करना सिखाता है । इसके फलस्वरूप वह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों तथा परिस्थितियों में संयमित एवं अनुशासित रहता है । यह गुण उसे दूसरों का पथ – प्रदर्शक बनाता है । परिवार में बच्चों को सुरक्षा तथा प्यार मिलता है , किन्तु खेल – समूह में वह विषम परिस्थितियों से अनुकूलन की क्षमता विकसित करता है । इन समूहों में बच्चों की आदतें , रुचियाँ , मनोवृत्तियाँ तथा विचार अलग – अलग होते हैं , क्योंकि ये विभिन्न परिवार से आते है । खेल के माध्यम से बच्चे सब के साथ अनुकूलन स्थापित करते हैं । खेल के दौरान यदि वह हार जाता है , तो वह संयम से काम लेता है । इसके परिणामस्वरूप इसके द्वारा वह जीवन में आनेवाली कठिनाइयों एवं असफलताओं के बाद भी संयम से रहना सीखता है । जब कोई बच्चा खेल के नियमों का उल्लंघन करता है , तो अन्य बच्चे उसका विरोध करते हैं । सभी मिलकर खेल के नियमों के पालन पर बल देते हैं । यही व्यवहार बच्चों के व्यवहारों को नियन्त्रित तथा निर्देशित करता है । अपने खेल के साथियों के साथ खेलते हुए बच्चे में नेतृत्व , उत्तरदायित्व ग्रहण करने की क्षमता , कर्त्तव्यपालन ; अपनी गलती को स्वीकार करने की आदत आदि गुणों का विकास होता है । ये ही सब गुण बच्चे के व्यक्तित्व को आधार प्रदान करते हैं । रिजमन का कहना है कि खेल – समूह वर्तमान समय में समाजीकरण करने वाला एक महत्त्वपूर्ण समूह है , क्योंकि आजकल व्यक्ति मार्ग – निर्देशन एवं दिशा – निर्देशन के लिए हमउम्र लोगों पर ही अधिक निर्भर करता है । यही कारण है कि अपने निर्णयों के लिए ज्यादातर मित्रों की सलाह को अधिक महत्त्व देते हैं । जिन बच्चों को मित्र – समूह नहीं मिलता , वे खेल नहीं पाते , उनका स्वतन्त्र विकास नहीं हो पाता ।
पडोस ( Neighbourhood ) – परिवार और क्रीड़ा – समूह के बाद तीसरा स्थान पडोस का आता है । पड़ोसियों के सम्पर्क में आने से बच्चे बहुत कुछ सीखते हैं । उनके विचारों , आदर्शो , मान्यताओं , क्रियाओं एवं सझावों का बच्चों के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है । पड़ोसी बच्चों से विशेष स्नेह रखते हैं . तो समय – समय 10 पर उनके व्यवहारों की प्रशंसा या आलोचना भी करते हैं । पड़ोसी के हास्य एवं व्यंग्य के माध्यम से बच्चे अपने F समाज की परम्पराओं एवं रीति – रिवाजों के अनुसार व्यवहार करना सीखते है । यही कारण है कि लोग पास – पड़ोस में अच्छे लोगों का होना आवश्यक समझते हैं । बच्चे पास – पड़ोस के लोगों के व्यवहारों का अनुकरण करते है । पड़ोस एक प्रकार से विस्तृत परिवार का रूप धारण कर लेता है ।
नातेदारी समूह ( Kinship Group ) – नातेदारी समूह के अन्तर्गत वे सभी सम्बन्धी आते हैं , जो रक्त ( एवं विवाह के बंधनों द्वारा एक – दूसरे से सम्बद्ध होते हैं । उदाहरणस्वरूप माता – पिता , भाई – बहन , पति – पत्नी , सास – श्वसुर ,देवर – ननद , चाचा – चाची , मामा – मामी इत्यादि । इन सगे – सम्बन्धियों के विचारों , व्यवहारों एवं सुझावा का बच्चों के व्यक्तित्व पर पड़ता है । इनके सम्पर्क में आने पर बच्चे कुछ – न – कुछ सीखते ही रहत ह प्रति भिन्न – भिन्न भूमिकाएं निभाने के दौरान वे सीखते हैं कि किसके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध , किसके साथ हसा – मजाक तथा परिहास या दूरी वरती जाती है । वह इन सम्बन्धों से सीखता है कि किस दर्जे के लोगों को आदर – प्यार तथा स्नेह देना है । विवाहोपरान्त सहयोगात्मक जीवन जीना सीखता है । इस प्रकार उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता है । ये सभी समाजीकरण के प्राथमिक साधन हैं । इनके अलावा द्वितीयक साधनों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान होता है । कुछ महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ जो द्वितीयक साधन के रूप में योगदान देते हैं , निम्नलिखित है
शिक्षण संस्थाएँ ( Educational Institutions ) – शिक्षण संस्थाओं के अन्तर्गत स्कूल , कालेज एवं विश्वविद्यालय आदि आते हैं । शिक्षा का प्रमख माध्यम पस्तक है . जो बच्चों में नवीन ज्ञान तथा बुद्धि का विकास करती है । इस काल में बच्चों की आदतों का निर्माण होता है . जो जीवन के लिए आवश्यक होती है । शिक्षण संस्थाओं के अपने नियम तथा तौर – तरीके होते हैं , जिनका पालन विद्यार्थियों को करना पड़ता है । विद्याथी उनक मानदण्डों के अनुरूप अपने को ढालने का प्रयास करते हैं । वहाँ के पठन – पाठन से बच्चों की मानसिक तथा बौद्धिक क्षमता का विकास होता है । पुस्तकों के द्वारा उन्हें विभिन्न कार्यों तथा विभिन्न संस्कृतियों एवं उनकी उपलब्धियों का ज्ञान होता है । शिक्षण संस्थाओं से व्यक्ति उचित – अनुचित . व्यावहारिक सैद्धान्तिक भेद का ज्ञान प्राप्त कर पाता है । शिक्षण संस्थाओं का महत्त्व आदिकाल से चला आ रहा है । पहले गुरु के घर पर जाकर लोग शिक्षा ग्रहण करते थे , अब लोग पाठशालाओं तथा महाविद्यालयों में जाकर ज्ञान अर्जित करते हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि शिक्षण संस्थाएँ हमेशा से समाजीकरण की प्रक्रिया में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रही हैं ।
. सांस्कृतिक संस्थाएँ ( Cultural Institutions ) – समाजीकरण की प्रक्रिया में सांस्कृतिक संस्थाओं का भी बहत अधिक योगदान है । सांस्कृतिक संस्थाओं का काम व्यक्ति के समाजीकरण एवं उनके व्यक्तित्व के विकार में प्रमख भमिका निभाना तथा समाज की संस्कृति से उनका परिचय कराना है । संस्कृति के अन्तर्गत ज्ञान विश्वान प्रथा , आचार कानन . आदर्श मुल्य आदि व्यक्ति के व्यक्तित्व को एक विशेष दिशा प्रदान करते है । वास्तव समाजीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत मनुष्य जो गुण , विचार एवं व्यवहार सीखता है , वे सब संस्कृति के अन्तर्गत ही आते हैं । संस्कृति मनुष्य के व्यवहार को परिष्कत करती है । संस्कृति की सहायता से व्यक्ति एक जीव के रूप में जन्म लेकर , एक मानव अर्थात् सामाजिक प्राणी बनता है । राबर्ट बीयरस्टीड ने इस सन्दर्भ में कहा है , ” हम जन्म से मानव नहीं है , वरन् अपनी संस्कृति का अर्जन करके ही मानव बनते हैं । ‘ ‘ इस प्रकार व्यक्ति के समाजीकरण में संस्कृति एवं सांस्कृतिक संस्थाओं का बहुत अधिक महत्त्व है ।
, व्यवसाय समूह ( Occupational Group ) व्यक्ति जिस व्यवसाय में लगा होता है , उसके मूल्यों को भी ग्रहण करता है । वह अपने व्यवसाय के दौरान अनेक व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है और उनके गुणों एवं विशेषताओं को जानता है और उन्हें ग्रहण भी करता है । इस प्रकार व्यवसाय से सम्बन्धित सभी व्यक्ति , चाहे वह अधिकारी हो या एजेन्ट , मैनेजर हो या ग्राहक , सभी से कुछ – न – कुछ सीखता है , जिससे उसका व्यवहार परिमार्जित होता है ।
जाति एवं वर्ग ( Caste & Class ) — व्यक्ति के समाजीकरण में जाति एवं वर्ग की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता । प्रत्येक जाति की अपनी प्रथाएँ , परम्पराएँ , मान्यताएँ , विचार , भावनाएँ तथा खान – पान , रहन – सहन आदि से सम्बन्धित व्यवहार प्रतिमान होते हैं । यही कारण है कि विभिन्न जातियों के लोगों के व्यक्तित्व में कुछ – न – कुछ फर्क दिखाई पड़ता है । विभिन्न जातियों के संस्कार भी अलग – अलग होते हैं , जिसके कारण उनका समाजीकरण अलगा ढंग से होता है । इसी प्रकार प्रत्येक वर्ग के रहन – सहन , आचार – व्यवहार , विचार तथा भावनाएँ भिन्न – भिन्न होते हैं , जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि जाति एवं वर्ग समाजीकरण की प्रक्रिया को अपने ढंग से दिशा प्रदान करते हैं ।
राजनीतिक संस्थाएँ ( Political Institutions ) – राजनीतिक संस्थाओं का भी समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । राज्य मानव जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करता है । राजनीतिक संस्थाएँ व्यक्ति को कानून , शासन तथा न्याय – व्यवस्था से परिचय कराती है । व्यक्ति को उसके अधिकार एवं कर्त्तव्य का बोध कराती हैं । आधुनिक जटिल समाजों में जहाँ व्यक्ति में पारस्परिक सम्बन्ध औपचारिक एवं अप्रत्यक्ष होते हैं , वहाँ व्यक्ति के व्यवहारों को निश्चित , नियमित एवं नियन्त्रित करने में राज्य की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है । आधुनिक युग में राज्य के द्वारा परिवार के कई महत्त्वपूर्ण कार्य पूरे हो रहे हैं । फलस्वरूप राज्य का महत्त्व दिनों – दिन बढ़ता जा रहा है । राज्य के साथ उसकी न्यायपालिका भी होती है , जिसके द्वारा जो व्यक्ति राज्य के नियम – कानूनों का उल्लंघन करता है , उसे दण्ड दिया जाता है । इसके कारण लोग अनुशासित ढंग से रहने का प्रयास करते हैं ।
आर्थिक संस्थाएँ ( Economic Institutions ) – समाजीकरण में आर्थिक संस्थाओं की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता । आर्थिक संस्थाएँ व्यक्ति को जीवनयापन के लिए योग्य बनाती हैं । आर्थिक संस्थाओं का सम्बन्ध उत्पादन की प्रणाली , उत्पादक शक्तियों , उत्पादन के स्वरूप , उपभोग की प्रकृति , वितरण व्यवस्था , जीवन – स्तर , व्यापार – चक्र , आर्थिक नीतियों , औद्योगीकरण , श्रम – विभाजन , आर्थिक प्रतिस्पर्धा आदि से होता है । इन सब का प्रभाव व्यक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों , विचारों . मान्यताओं आदि पर पड़ता है । उदाहरण के लिए , कषि अर्थव्यवस्था में आर्थिक प्रतिस्पर्धा नहीं पायी जाती , जबकि औद्योगिक व्यवस्था में कटु आर्थिक प्रतिस्पर्धा पायी जाती है । समाज की आर्थिक दशाओं का प्रभाव विवाह एवं परिवार के प्रकार , आकार एवं कार्य पर पड़ता है । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि आर्थिक संस्थाएँ व्यक्ति की समाजीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करती है ।
मास मीडिया:
प्रिंट तकनीक के शुरुआती रूपों से लेकर इलेक्ट्रॉनिक संचार (रेडियो, टीवी आदि) तक, मीडिया व्यक्तियों के व्यक्तित्व को आकार देने में केंद्रीय भूमिका निभा रहा है। पिछली शताब्दी के बाद से, तकनीकी नवाचार जैसे रेडियो, मोशन पिक्चर्स, रिकॉर्डेड संगीत और टेलीविजन समाजीकरण के महत्वपूर्ण एजेंट बन गए हैं।
टेलीविजन, विशेष रूप से, लगभग पूरी नई दुनिया में बच्चों के समाजीकरण में एक महत्वपूर्ण शक्ति है। अमेरिका में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, औसत युवा (6 से 18 वर्ष की आयु के बीच) स्कूल में पढ़ने की तुलना में ‘ट्यूब‘ (15,000 से 16,000 घंटे) देखने में अधिक समय व्यतीत करता है। सोने के अलावा टीवी देखना युवाओं का सबसे अधिक समय लेने वाला कार्य है।
ऊपर चर्चा किए गए समाजीकरण के अन्य एजेंटों, जैसे कि परिवार, सहकर्मी समूह और स्कूल के संबंध में, टीवी में कुछ विशिष्ट विशेषताएं हैं। यह नकल और भूमिका निभाने की अनुमति देता है लेकिन सीखने के अधिक जटिल रूपों को प्रोत्साहित नहीं करता। टीवी देखना एक निष्क्रिय अनुभव है। मनोवैज्ञानिक यूरी ब्रोंफेनब्रेनर (1970) ने टीवी के ‘कपटी प्रभाव‘ के बारे में बच्चों को निष्क्रिय देखने के लिए मानव संपर्क को छोड़ने के लिए प्रोत्साहित करने में चिंता व्यक्त की है।
धार्मिक संस्थाएँ ( Religious Institutions ) – धार्मिक संस्थाओं का व्यक्ति के जीवन पर बहत ही गहरा प्रभाव पड़ता है । धर्म के अन्तर्गत पाप – पुण्य , कर्म – पुनर्जन्म तथा नरक – स्वर्ग की धारणा आती हैं । धार्मिक संस्थाएँ व्यक्ति को उचित , पुण्य एवं धार्मिक कार्यों को करने तथा अनुचित , पाप , अधार्मिक एवं समाज – विरोधी कार्यों को नहीं करने की प्रेरणा देती हैं । धार्मिक संस्थाएँ व्यक्ति में पवित्रता , शान्ति , न्याय , सच्चरित्रता और म । जैसे गणों का विकास करती हैं । धर्म व्यक्ति को अलौकिक शक्ति का भय दिखाकर सामाजिक नियमों का पालन करवाता है । डेविस का कहना है कि धर्म समाज तथा व्यक्तित्व के समन्वय में सहायता करता है । धर्म समाजीकरण के साधन के रूप में व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है ।
शिक्षकों के पेशेवर समाजीकरण के चरण और चरण
व्यावसायिक समाजीकरण के विभिन्न मॉडल हैं। वे इस प्रकार हैं;
सिम्पसन मॉडल
चरण 1: विशिष्ट कार्य कार्यों में प्रवीणता।
स्टेज 2: काम के माहौल में महत्वपूर्ण अन्य लोगों के साथ लगाव। चरण 3: पेशेवर समूह के मूल्यों का आंतरिककरण और इसके द्वारा निर्धारित व्यवहारों को अपनाना।
हिंशा मॉडल
चरण I: सामाजिक समूह की भूमिका अपेक्षाओं के लिए प्रत्याशित भूमिका अपेक्षाओं का संक्रमण।
चरण II के दो घटक हैं: घटक एक: महत्वपूर्ण अन्य लोगों से लगाव। घटक दो: प्रत्याशित भूमिकाओं और उनके महत्वपूर्ण अन्य लोगों द्वारा प्रस्तुत की गई असंगतियों को नोट करने की क्षमता। इस चरण में उम्मीदों के परस्पर विरोधी सेटों के लिए मजबूत भावनात्मक प्रतिक्रियाएं शामिल हो सकती हैं। संघर्षों का समाधान सफल होता है यदि उनके रोल मॉडल उपयुक्त व्यवहार प्रदर्शित करते हैं और दिखाते हैं कि मानकों और मूल्यों की परस्पर विरोधी प्रणालियों को कैसे एकीकृत किया जा सकता है।
चरण III: भूमिका मूल्यों/व्यवहारों का आंतरिककरण। आंतरिककरण की डिग्री और संघर्षों के समाधान की सीमा परिवर्तनशील है।
पेशेवर समाजीकरण प्रक्रिया को अक्सर तीन चरणों द्वारा परिभाषित किया जाता है: भर्ती।
व्यावसायिक तैयारी
संगठनात्मक समाजीकरण
पहले दो चरणों को व्यावसायिक शिक्षा अवधि से पहले और उसके दौरान होने वाले पूर्व-सेवा या अग्रिम समाजीकरण चरणों के रूप में माना जाता है। संगठनात्मक समाजीकरण को सेवाकालीन अवधि माना जाता है जिसके दौरान व्यक्ति किसी दिए गए कार्य वातावरण में एक योग्य पेशेवर की भूमिका की व्याख्या करता है और मानता है।
(ओलेंसेन और व्हिटेकर 1970)। स्टैटन एंड हंट (1992) ने शिक्षकों के समाजीकरण की प्रक्रिया का कालानुक्रमिक मॉडल तैयार किया। मॉडल में तीन श्रेणियां हैं: जीवनी, सेवा-पूर्व अनुभव और सेवा-कालीन अनुभव। प्रारंभिक भूमिका पहली दो प्रक्रियाओं द्वारा निभाई जाती है: जीवनी और सेवा-पूर्व अनुभव जिसे शिक्षक के समाजीकरण का प्रारंभिक रूप माना जा सकता है। राइट (1959) और राइट एंड टस्का (1967) सहित कई लेखकों का तर्क है कि बचपन में शिक्षकों और आवश्यक लोगों के बीच जिस तरह का संबंध था, वह भविष्य में शिक्षकों के रूप में उनके काम की पसंद को प्रभावित करता है। शिक्षक रूढ़िवादिता पैदा करते हैं जो उनके व्यवहार और शिक्षक के रूप में भूमिका को प्रभावित करते हैं। कुछ के लिए यह रोल मॉडल इस बात का मार्गदर्शक बन जाएगा कि एक शिक्षक को कैसा होना चाहिए।
वीडमैन, ट्वेल और स्टीन (2001) ने उच्च शिक्षा में स्नातक और पेशेवर समाजीकरण की व्यापक समीक्षा की। उन्होंने एक मॉडल तैयार किया जो उच्च शिक्षा व्यवस्था में समाजीकरण की व्याख्या करने के लिए एक उपयोगी आधार प्रदान करता है। मॉडल चित्र 1 में प्रस्तुत किया गया है।
इस प्रकार व्यावसायिक समाजीकरण एक दो चरणों वाली प्रक्रिया है जो औपचारिक और अनौपचारिक है जिसमें प्रशिक्षण में प्राप्त कौशल और मूल्यों को कार्य सेटिंग की मांगों के अनुसार समायोजित किया जाना चाहिए।
सीखने की शैली के सिद्धांत के अनुसार, सीखना एक चार चरणों वाली प्रक्रिया है: “ठोस अनुभव, चिंतनशील अवलोकन, अमूर्त अवधारणा और सक्रिय प्रयोग” (कोल्ब, 1974)। एक उच्च उपलब्धि हासिल करने के लिए, एक छात्र को सीखने के माध्यम से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए,
यानी शिक्षण के माध्यम से, शामिल होने, एकीकृत करने और एक महान प्रयास करने के लिए
शैक्षणिक कार्य। (एस्टिन 1984; कुह 1996; पास्कारेला और टेरेंजिनी 1991)। इस प्रकार, छात्रों को छात्रों की गतिविधियों में भाग लेने, प्रमुख कार्यक्रम में एकीकृत करने और शोध परियोजनाओं में भाग लेने के लिए संकाय सदस्यों द्वारा प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। McKinney, et al (1998) के अनुसार कक्षा के बाहर की गतिविधियाँ छात्रों के समाजीकरण की प्रक्रिया की ओर ले जाती हैं।
“व्यावसायिक समाजीकरण” या अनौपचारिक समाजीकरण जैसे: स्वतंत्र शोध पत्र, स्वयंसेवी सेवा, संकाय सदस्यों और शिक्षकों के साथ अनौपचारिक बातचीत … कुछ लोगों द्वारा महत्वहीन के रूप में देखा जा सकता है लेकिन दूसरों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। McKinney, et al, (1998) ने जोर दिया कि “सीखने के अवसर और अनुभव, साथ ही ज्ञान और कौशल प्रदान करने से छात्रों को कॉलेज जीवन के कामकाज को समझने में मदद मिलती है, एक पूर्ण शैक्षणिक अनुभव का महत्व, समाजशास्त्रीय कल्पना, और नैतिकता और हमारे अनुशासन के मानक।” अन्य लेखकों ने इन गतिविधियों को “अन्य” या “अनौपचारिक” पाठ्यक्रम के रूप में परिभाषित किया है जो पारंपरिक कक्षा के बाहर की गतिविधियाँ हैं। (कुह 1993; कुह, एट अल, 1994)। वीडमैन (1989) के अनुसार औपचारिक और अनौपचारिक समाजीकरण दोनों ही छात्रों के मूल्यों, आकांक्षाओं और करियर विकल्पों को प्रभावित करते हैं।
क्लास रूम गतिविधियों के बाहर पेशेवर समाजीकरण के महत्व पर मैककिनी, एट अल द्वारा चर्चा की गई थी। (1998)। उन्होंने तर्क दिया कि: व्यावसायिक समाजीकरण निष्क्रिय सीखने के बजाय सक्रिय को प्रोत्साहित करता है, एक ऐसी प्रक्रिया जो विविध छात्र आबादी के लिए अनिवार्य रूप से बर्फ को तोड़ती है और घटते नामांकन के उपाय के रूप में कार्य करती है। इसलिए, यह शीर्ष छात्रों को बनाए रखने और उन्हें स्नातक कार्यक्रमों के लिए तैयार करने पर काम करता है। दूसरी ओर, ब्रूक्स (1997) ने व्यावसायिक समाजीकरण को शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया में प्रौद्योगिकी के उपयोग के कारण होने वाली अलगाव की समस्या के समाधान के रूप में माना।
पेशेवर समाजीकरण और छात्र परिणामों के बीच कई सकारात्मक संबंध मौजूद हैं। नीपोलिटन (1992) ने छात्रों के करियर योजनाओं की स्पष्टता पर एक छोटे पैमाने के इंटर्नशिप कार्यक्रम के प्रभाव का अध्ययन किया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जिन छात्रों ने इंटर्नशिप कार्यक्रमों में भाग लिया, वे अपने करियर विकल्पों और प्रमुख विषयों के बारे में अधिक आश्वस्त थे। Pascarella (1980) का सुझाव है कि अनौपचारिक समाजीकरण और कॉलेज के अनुभव के साथ छात्रों की संतुष्टि, अधिक शैक्षिक आकांक्षाओं, बौद्धिक विकास, शैक्षणिक उपलब्धि और कॉलेज में दृढ़ता के बीच एक सकारात्मक संबंध मौजूद है। इसके अलावा, “अधिक छात्र-संकाय संपर्क, संकाय सदस्यों के साथ कक्षा के बाहर बातचीत, या कक्षा के बाहर शोध पर संकाय सदस्यों के साथ काम करना” संस्थान के साथ छात्रों की संतुष्टि (एस्टिन 1993), दृढ़ता (ग्रोसेट) से सकारात्मक रूप से संबंधित पाया गया। 1991), शैक्षिक आकांक्षा (हर्न 1987; पास्केरेला 1985), अकादमिक विकास (टेरेन्ज़िनी और राइट 1987), ज्ञान अर्जन (कुह 1993; स्प्रिंगर एट अल। 1995) और कैरियर रुचि और चयन (एस्टिन 1993)। अन्य शोधकर्ताओं ने “पाठ्येतर गतिविधियों में छात्रों की भागीदारी” के प्रभावों का अध्ययन किया। परिणामों ने छात्रों की दृढ़ता (कैरोल 1988; क्रिस्टी और दिहाम 1991; पास्केरेला और चैपमैन 1983), शैक्षणिक विकास (टेरेन्ज़िनी और राइट 1987), और सीखने में आंतरिक रुचि के स्तर (टेरेन्ज़िनी एट अल। 1995) के साथ एक सकारात्मक सहसंबंध दिखाया।
McKinney, et al (1998) के अनुसार अधिकांश छात्रों ने पेशेवर समाजीकरण को परिभाषित किया “सीखने के संदर्भ में कि उनके दायर या भविष्य के रोजगार में कौन से व्यवहार, मानदंड या भूमिकाएं अपेक्षित हैं। छात्रों ने नौकरी सीखने, अभिनय करने, बोलने, बोलने के बारे में बात की। बातचीत करना, और पेशेवर रूप से कपड़े पहनना।” वही छात्रों ने पेशेवर समाजीकरण में सुधार के लिए कई तरह के उपाय सुझाए। उन्होंने इस बारे में बात की: “इंटर्नशिप कार्यक्रमों में सुधार, कैरियर विकल्पों के बारे में अधिक जानकारी प्रदान करना, सलाह का उपयोग करना और संकाय सदस्यों के साथ अधिक बातचीत करना”। दूसरी ओर, संकाय सदस्यों ने पेशेवर समाजीकरण को “अनुसंधान में छात्रों को शामिल करना, प्रो-सेमिनार, कैपस्टोन पाठ्यक्रम, संकाय सदस्यों के साथ अनौपचारिक संपर्क, छात्रों को पेशेवर सम्मेलनों में ले जाना, संकाय-छात्र सामाजिक कार्यक्रम में भाग लेना, और/या विभाग के रूप में परिभाषित किया। अनुसंधान संगोष्ठी, और/या क्षेत्र यात्रा, और/या कैरियर के दिन, और/या विभागीय समाचार पत्र …”
इस तथ्य के बावजूद कि अधिकांश शोधकर्ता अनौपचारिक समाजीकरण को इसके द्वारा प्रदान किए जाने वाले विभिन्न लाभों के कारण प्रोत्साहित करते हैं, कई बाधाएं अभी भी मौजूद हैं। कई संकाय सदस्य अतिरिक्त कार्य की शिकायत करते हैं जिसमें अतिरिक्त समय और अतिरिक्त प्रयासों की आवश्यकता होती है
l इस तरह के समाजीकरण को बढ़ावा देने वाली संस्था के लिए अतिरिक्त लागत के रूप में। अन्य समस्याएं परिवर्तन के प्रतिरोध से संबंधित हैं जो हो सकता है क्योंकि कुछ संकाय सदस्य और अध्यक्ष सुधार को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं हैं। एक अन्य विरोधी दल माता-पिता और विधायक हो सकते हैं। इस मामले में, छात्र ऐसे माहौल का सामना करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं या अतिरिक्त कार्य करने के लिए प्रेरित नहीं हो सकते हैं, साथ ही संकाय पुरस्कार संरचना प्रत्येक संकाय सदस्य की नौकरी का मूल्यांकन करने में असमर्थ हो सकती है और इस प्रकार तदनुसार क्षतिपूर्ति कर सकती है, जो कि तथ्य एक और डिमोटिवेटर हो सकता है। (मैककिनी, एट अल, 1998)
एक उत्कृष्ट शिक्षक की विशेषताओं को खोजने की अपनी खोज में, कोलिन्सन (1999) ने तीन प्रकार के ज्ञान को परिभाषित किया जो एक उत्कृष्ट शिक्षक के पास होना चाहिए। यह अब पेशेवर ज्ञान या उस डिग्री की बात नहीं है जिस तक शिक्षक का अपने विषय पर नियंत्रण है, बल्कि पारस्परिक और अंतर्वैयक्तिक ज्ञान भी है। पारस्परिक ज्ञान को “लोगों के कौशल” के रूप में परिभाषित किया गया है, “शिक्षक का उसके आसपास के साथ संबंध और बातचीत”। होवे और कॉलिन्सन। (1995) ने पारस्परिक ज्ञान के महत्व का समर्थन किया क्योंकि यह शिक्षकों को विभिन्न दृष्टिकोणों की आलोचना के प्रति अधिक सहिष्णु बनाता है और उन्हें सीखने और सिखाने में नए तरीकों को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता है। स्टर्नबर्ग और हॉर्वर्ड (1995) ने अपने विभिन्न रूपों और पारस्परिक ज्ञान में सफल अनौपचारिक समाजीकरण के बीच की कड़ी पर जोर दिया। दूसरी ओर, इंट्रपर्सनल ज्ञान को “हम कौन हैं” के रूप में परिभाषित किया गया है, यह “देखभाल की नैतिकता, काम की नैतिकता और सीखने के प्रति स्वभाव” से संबंधित है। एक शिक्षक की अपनी नैतिकता और स्वभाव को छात्रों में अनुवाद करने की क्षमता निश्चित रूप से छात्र के प्रदर्शन, प्रतिबद्धता और आत्मविश्वास को प्रभावित करेगी।
संक्षेप में और वीडमैन (1989) के अनुसार औपचारिक और अनौपचारिक समाजीकरण दोनों छात्रों के मूल्यों, आकांक्षाओं और करियर विकल्पों को प्रभावित करते हैं।
शिक्षा और समाजीकरण के बीच अंतर कई तरह से रहा है और इन अवधारणाओं को भी कुछ लोगों ने कमोबेश पर्यायवाची माना है। आम तौर पर भेद समाजीकरण को समाज में एक कुशल सामाजिक एजेंट बनने के लिए एक व्यक्ति को तैयार करने की प्रक्रिया मानते हैं, और शिक्षा इसके अतिरिक्त कुछ है, जिसमें किसी विशेष समाज पर गंभीर रूप से प्रतिबिंबित करने में सक्षम होना शामिल हो सकता है या इसमें कई प्रकार शामिल हो सकते हैं। अधिक या कम परिष्कृत सांस्कृतिक उपलब्धियाँ जिनका मूल्य व्यक्ति के लिए स्पष्ट हो सकता है लेकिन बड़े पैमाने पर समाज के लिए जिनका मूल्य कम स्पष्ट है। अधिकांश भेदों को अंतर्निहित एक अनुमान है, हालांकि इसे शायद इतनी स्पष्ट रूप से नहीं रखा गया है – कि कुछ भी जिसे उचित रूप से सामाजिककरण कहा जा सकता है, उसमें लोगों को और अधिक समान बनाने की इच्छा और प्रवृत्ति निहित है, और शिक्षा में विपरीत आवेग और प्रवृत्ति है लोगों को और अधिक विशिष्ट बनाने के लिए।
- शिक्षा और समाजीकरण के बीच अंतर कई तरह से रहा है और इन अवधारणाओं को भी कुछ लोगों ने कमोबेश पर्यायवाची माना है। आम तौर पर भेद समाजीकरण को समाज में एक कुशल सामाजिक एजेंट बनने के लिए एक व्यक्ति को तैयार करने की प्रक्रिया मानते हैं, और शिक्षा इसके अतिरिक्त कुछ है, जिसमें किसी विशेष समाज पर गंभीर रूप से प्रतिबिंबित करने में सक्षम होना शामिल हो सकता है या इसमें कई प्रकार शामिल हो सकते हैं। अधिक या कम परिष्कृत सांस्कृतिक उपलब्धियाँ जिनका मूल्य व्यक्ति के लिए स्पष्ट हो सकता है लेकिन बड़े पैमाने पर समाज के लिए जिनका मूल्य कम स्पष्ट है।
- जैसा कि दर्खाइम कहते हैं, “मनुष्य वास्तव में केवल इसलिए मनुष्य है, क्योंकि वह समाज में रहता है”। समाजीकृत होना एक जटिल सामाजिक वातावरण में फिट होने की प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया में मानव क्षमताओं की अनिश्चित रूप से बड़ी रेंज से एक निश्चित सीमित सेट विकसित और वास्तविक होता है।
- लेकिन डेवी सामाजिक जीवन में विकास की प्रक्रिया के लिए “शिक्षा” का उपयोग दुर्खीम से कम नहीं है। जो लोग शिक्षा को समाजीकरण से अलग करना चाहते हैं उन्हें दो शर्तों को परिभाषित करने की आवश्यकता है। लेकिन डेवी के लिए “एक सामाजिक प्रक्रिया और कार्य के रूप में शिक्षा की अवधारणा का तब तक कोई निश्चित अर्थ नहीं है जब तक कि हम उस प्रकार के समाज को परिभाषित नहीं करते हैं जो हमारे मन में है”।
- समाजीकरण की एक अलग प्रक्रिया का विचार अमीर और गरीब के बीच विभाजन को बनाए रखने के लिए व्यावसायिक शिक्षा की संकीर्ण रूप से परिकल्पित योजना के खतरे की ओर ले जाता है। इन खतरों पर काबू पाने का साधन औपचारिक निर्देश और व्यावसायिक शिक्षा दोनों को वर्तमान सामाजिक अनुभव की जीवित वास्तविकता से जोड़ना था।
- हर कोई उपयोगितावादी तरीके से सीखने के बीच एक उपकरण का उपयोग करने और सौंदर्य की दृष्टि से संतोषजनक उत्पाद बनाने के लिए उपकरण का उपयोग करने के बीच के अंतर को समझता है। शिक्षा के पारंपरिक रूप के कुछ हिस्सों में जो गलत है वह यह है कि इस भेद को शालीनता से स्वीकार किया गया है और इसे व्यवहार में लाया गया है, जैसे कि इसे बच्चों के लिए पूरी तरह से उचित माना जाता है।
जनता को उपयोगितावादी तरीके से सिखाया जाना चाहिए – यदि वास्तव में एक स्वीकार्य अनुपात को उनकी नौकरी और सामाजिक भूमिका की मांगों के लिए पर्याप्त रूप से उपकरणों का उपयोग करना, पढ़ना, गणना करना आदि सिखाया जा सकता है – और दूसरों को शिक्षित करने के लिए उचित .
- सामान्य तौर पर, यह कहा जा सकता है कि पूरा समाज समाजीकरण के लिए एजेंसी है और यह कि प्रत्येक व्यक्ति जिसके साथ संपर्क में आता है और बातचीत करता है वह किसी न किसी तरह से समाजीकरण का एजेंट है। समाजीकरण सभी अंतःक्रियाओं में पाया जाता है लेकिन सबसे प्रभावशाली अंतःक्रिया विशेष समूहों में होती है जिन्हें समाजीकरण की एजेंसियां कहा जाता है।
यदि समाज के बारे में किसी का विचार इतना व्यापक है कि समाज के सभी सदस्यों के जीवन के सभी पहलुओं और उनके अर्थों को इसमें शामिल किया जाता है, तो शिक्षा को संभवतः एक अधिक सामान्य सामाजिककरण प्रक्रिया के एक भाग के रूप में या समाजीकरण के पर्याय के रूप में देखा जाएगा। यदि समाज के बारे में किसी के विचार में मुख्य रूप से आर्थिक, औद्योगिक, कानूनी, राजनीतिक, वाणिज्यिक लेन-देन और उनके द्वारा निर्धारित संबंधों का एक समूह शामिल है, फिर भी ज्ञान, समझ और प्रशंसा की एक विशिष्ट सांस्कृतिक दुनिया है जो विशेष सुख प्रदान करती है जो रिश्तों को पार करती है और विशेष समय पर विशेष समाजों के लेन-देन, तो संभवतः “समाजीकरण” द्वारा “समाज” में दीक्षा और “शिक्षा” द्वारा सांस्कृतिक क्षेत्र में दीक्षा को अलग करना चाहेंगे। कोई शायद यह कह सकता है कि भेद का महत्व या अन्यथा किसी की उस प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है जिसे कहा जाता है
“अर्थ की संस्कृति-सीमितता की समस्या”।
यह अध्याय इस बात की पड़ताल करता है कि क्यों कुछ लोग भेद करना महत्वपूर्ण मानते हैं और अन्य इसे महत्वहीन क्यों समझते हैं, और क्यों अन्य इसे फिर से महत्वपूर्ण नहीं मानते हैं। यह इस बात पर भी विचार करता है कि क्या ऐसा भेद करना उचित है और यदि ऐसा है तो इसे बनाने का उचित तरीका क्या है।
दुर्खीम, डेवी और समाजीकरण
दुर्खीम के विचार:
दुर्खीम समाजीकरण और शिक्षित करने के बीच कोई अंतर नहीं करता है: वे उसके लिए पर्यायवाची के रूप में काम करते हैं। वह ऐसा कुछ भी स्वीकार नहीं करता है जो मानव मूल्य का है जो समाज के बाहर है, और इसलिए मानव जीवन के किसी भी पहलू में कोई भी दीक्षा समाजीकरण होना चाहिए। मनुष्य के लिए एक समाज के पूर्ण महत्व और युवाओं को विशेष समाजों में शिक्षित करने में शिक्षा की भूमिका पर बल देते हुए, संयोगवश, वह उथलेपन को उजागर करने की कोशिश कर रहा है।
शिक्षा की धारणाएं – जैसे कि जेम्स मिल – जो व्यक्ति की खेती पर ध्यान केंद्रित करती हैं, जैसे कि लोगों के पास स्वतंत्र विकल्प थे कि वे युवाओं में किन विशेषताओं को प्रोत्साहित करेंगे: “यहां तक कि वे गुण जो पहली नज़र में इतने सहज रूप से वांछनीय प्रतीत होते हैं, व्यक्ति केवल तभी खोज करता है जब समाज उसे आमंत्रित करता है, और वह उन्हें उस रूप में खोजता है जो वह उसके लिए निर्धारित करता है”। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि समाज व्यक्ति के विकास में बाधा डालता है; समाज दोनों इसे संभव बनाता है और, मनुष्य की सामाजिक प्रकृति को देखते हुए, यह केवल सामूहिकता के भीतर ही है कि व्यक्ति ठीक से विकसित हो सकता है: जबकि हमने समाज को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार व्यक्तियों को फैशन करते हुए दिखाया, इस तथ्य से ऐसा लग सकता है कि व्यक्ति समर्पण कर रहे थे एक असहनीय अत्याचार। लेकिन वास्तव में वे स्वयं इस अनुपालन में रुचि रखते हैं; नई बात यह है कि सामूहिक प्रभाव, शिक्षा के माध्यम से, इस प्रकार हम में से प्रत्येक में निर्मित होता है, जो हममें सबसे अच्छा है उसका प्रतिनिधित्व करता है। , व्यक्तियों की शिक्षा को नियंत्रित करने में “समाज” के अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में निष्कर्षों की ओर रुख करते हैं जो दूसरों को स्पष्ट रूप से ऊबड़ खाबड़ बना सकते हैं।
इस प्रकार, चूँकि शिक्षा अनिवार्य रूप से एक सामाजिक कार्य है, राज्य इसके प्रति उदासीन नहीं हो सकता। इसके विपरीत, शिक्षा से संबंधित हर चीज को कुछ हद तक इसके प्रभाव के अधीन होना चाहिए। निजी स्कूलों में भी, “उनमें दी जाने वाली शिक्षा (राज्य के) नियंत्रण में रहनी चाहिए।” इस व्यापक राज्य नियंत्रण का विकल्प दर्खाइम के अनुसार, शिक्षा आपदा है: यदि (राज्य) हमेशा यह आश्वासन देने के लिए नहीं होता कि सामाजिक तरीके से शैक्षणिक प्रभाव का प्रयोग किया जाता है, तो बाद वाले को अनिवार्य रूप से निजी विश्वासों की सेवा में लगाया जाएगा, और पूरा देश होगा विभाजित और एक दूसरे के साथ संघर्ष में छोटे टुकड़ों की गड़बड़ी वाली भारी मात्रा में टूट जाएगा।
समाजशास्त्र के योगदानों में से एक यह है कि हम एक समाज में दीक्षित होकर किस हद तक पहचानने योग्य मानव बन जाते हैं। जैसा कि दुर्खीम कहते हैं, “मनुष्य वास्तव में मनुष्य है, केवल इसलिए कि वह एक समाज में रहता है”। समाजीकृत होना एक जटिल सामाजिक वातावरण में फिट होने की प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया में मानव क्षमताओं की अनिश्चित रूप से बड़ी रेंज से एक निश्चित सीमित सेट विकसित और वास्तविक होता है। सीमित सेट वह है जो उस समाज के अन्य सदस्यों द्वारा साझा किया जाता है जिसमें बच्चे को शुरू किया जा रहा है: “समाज तभी जीवित रह सकता है जब उसके सदस्यों के बीच पर्याप्त मात्रा में एकरूपता मौजूद हो; शिक्षा बच्चे में तय करके इस एकरूपता को बनाए रखती है और मजबूत करती है।” , शुरू से ही, आवश्यक समानताएँ जो सामूहिक जीवन की माँग करती हैं”। सामाजिक जीवन का संबंध केवल भौतिक अस्तित्व की मूलभूत आवश्यकताओं और समूह के रीति-रिवाजों को नियंत्रित करने से ही नहीं है, बल्कि इससे भी है जिसे हम अपनी संस्कृति कहते हैं। “एक जानवर अपने व्यक्तिगत अस्तित्व के दौरान जो कुछ भी सीखने में सक्षम हो गया है, उससे लगभग कुछ भी नहीं बच सकता है” लेकिन मनुष्य ज्ञान, कौशल, कई प्रकार के रिकॉर्ड जमा करते हैं, और “यह संचय केवल समाज में और उसके माध्यम से ही संभव है”। न ही यह केवल बुनियादी जानकारी है जिसे सामाजिककरण में पारित किया जाता है, बल्कि यह भी कि ज्ञान और उन कौशलों और समझों की व्याख्या कैसे की जाती है: “समाज को अक्सर यह आवश्यक लगता है कि हमें चीजों को एक निश्चित कोण से देखना चाहिए और उन्हें एक निश्चित तरीके से महसूस करना चाहिए।” “। समाज में वयस्कों द्वारा बच्चों की दीक्षा, इस सामान्य अर्थ में, जिसे दुर्खीम शिक्षा कहते हैं: “शिक्षा में युवा पीढ़ी का एक व्यवस्थित समाजीकरण होता है”।
पश्चिम में पिछली डेढ़ सदी में स्कूली शिक्षा के इतिहास को देखने का एक तरीका स्कूलों के नियंत्रण के लिए चर्च, परिवार, इलाके और वर्ग के हितों के खिलाफ केंद्रीकृत राज्यों द्वारा छेड़े गए आम तौर पर सफल संघर्ष के रूप में है। राज्य के हथियारों में प्रमुख हैं “अवसर की समानता” का नारा और दुर्खीम जैसे तर्क। हालाँकि, हम दुर्खीम के अपने सामान्य, मानदंड से आसान कदम से सावधान हो सकते हैं
विशिष्ट केंद्रीकृत राष्ट्र-राज्यों को उस मानक अवधारणा के तात्कालिकता के रूप में देखने के लिए समाज की सकारात्मक अवधारणा। उस कदम के साथ समस्या को डेवी द्वारा अभिव्यक्त किया गया है (हालांकि विशेष रूप से दुर्खीम का जिक्र नहीं): “सामाजिक
शिक्षा के उद्देश्य और उसके राष्ट्रीय उद्देश्य की पहचान की गई, और परिणाम एक सामाजिक उद्देश्य के अर्थ का स्पष्ट अस्पष्ट होना था”।
डेवी के विचार
कुछ लोग सोच सकते हैं कि अगर दर्खाइम और डेवी शिक्षा और समाजीकरण के बीच अंतर का इस्तेमाल करते हैं तो बहुत सारे भ्रम से बचा जा सकता है। पूर्ववर्ती उद्धरण तब कुछ इस तरह लिखा जा सकता है: “शिक्षा को समाजीकरण के साथ भ्रमित किया गया था और इसका परिणाम शिक्षा के अर्थ का स्पष्ट अस्पष्ट होना था।” लेकिन डेवी सामाजिक जीवन में विकास की प्रक्रिया के लिए “शिक्षा” का उपयोग दुर्खीम से कम नहीं करते हैं। जो लोग शिक्षा को समाजीकरण से अलग करना चाहते हैं उन्हें दो शर्तों को परिभाषित करने की आवश्यकता है। लेकिन डेवी के लिए “एक सामाजिक प्रक्रिया और कार्य के रूप में शिक्षा की अवधारणा का तब तक कोई निश्चित अर्थ नहीं है जब तक कि हम उस प्रकार के समाज को परिभाषित नहीं करते हैं जो हमारे मन में है”। जो व्यक्ति शिक्षा और समाजीकरण के बीच अंतर करना चाहता है, उसके लिए डेवी का दावा समाजीकरण के लिए सही हो सकता है, लेकिन शिक्षा के लिए नहीं। शिक्षा के वे दार्शनिक जो अपनी “शिक्षा की अवधारणा” को स्पष्ट करने के लिए श्रम करते हैं, विशेष सामाजिक संदर्भ के बिना स्थिर संदर्भ के जिसमें इसे एम्बेड किया जाना है, डेवी के विचार में, एक व्यर्थ विद्वतापूर्ण अभ्यास में लगे हुए हैं। लोकतंत्र और शिक्षा में उनका उद्देश्य यह दिखाना था कि शिक्षा उस तरह की प्रक्रिया नहीं है जिसे सामाजिक अनुभव से अलग परिभाषित किया जा सकता है और यह दिखाने के लिए कि अगर इसे उस अनुभव से मुक्त होने की अनुमति दी गई तो व्यक्ति “एक अनुचित विद्वतापूर्ण और औपचारिक धारणा” के साथ रह जाएगा। पढाई के”। इस दृष्टि से, एक समाज जिसमें शिक्षा और सामाजिककरण के बीच आसानी से अंतर किया जा सकता है, वह ऐसा समाज है जिसमें अभिजात वर्ग को शिक्षित किया जाएगा और बाकी का सामाजिककरण किया जाएगा। परिणाम यह है कि हम अपने बारे में हर जगह देखते हैं – ‘सुसंस्कृत‘ लोगों और ‘श्रमिकों‘ में विभाजन। बल्कि, हमें जो करना है वह वास्तव में एक लोकतांत्रिक समाज के गुणों का वर्णन करना है जैसे कि ऐसे समाज के लिए समाजीकरण वह सब कुछ शामिल करेगा जो कोई भी शिक्षा की उचित अवधारणा में शामिल करना चाहता है। न केवल सामाजिक जीवन संचार के समान है, बल्कि सभी संचार शिक्षाप्रद हैं।
लगातार शिक्षित करने वाले सामाजिक अनुभव की ऐसी दृष्टि को देखते हुए, सामाजिककरण को शिक्षित करने से अलग करने की इच्छा सामाजिक दीक्षा के उन पहलुओं को अलग करने की धमकी देती है जिन्हें डेवी एक साथ रखने के लिए सबसे अधिक चिंतित थे। शिक्षा की एक विशिष्ट प्रक्रिया के विचार में “स्थायी खतरा शामिल है कि औपचारिक निर्देश की सामग्री केवल विद्यालयों की विषय वस्तु होगी, जीवन-अनुभव के विषय-वस्तु से अलग”। समाजीकरण की एक विशिष्ट प्रक्रिया का विचार व्यावसायिक शिक्षा की संकीर्ण रूप से परिकल्पित योजना के खतरे की ओर ले जाता है
अमीर और गरीब के बीच विभाजन को कायम रखना। इन खतरों पर काबू पाने का साधन औपचारिक निर्देश और व्यावसायिक शिक्षा दोनों को वर्तमान सामाजिक अनुभव की जीवित वास्तविकता से जोड़ना था। इस प्रकार सभी शिक्षाओं के सामाजिक चरित्र को संरक्षित करने के लिए उन शैक्षणिक सिफारिशों का पालन किया जाता है जो प्रगतिवाद के कार्यक्रम में विकृत हो गए थे या विकृत हो गए थे।
प्रगतिवाद के साहित्य में, शिक्षा और समाजीकरण के बीच पारंपरिक अंतर का कोई रूप नहीं है क्योंकि शिक्षा को अनिवार्य रूप से सामाजिक चरित्र के रूप में देखा जाता है। इसकी भूमिका को लोगों को सामाजिक दुनिया में घर पर रहने के लिए तैयार करने के रूप में देखा जाता है, जो “हर नए सामाजिक और तकनीकी विकास को स्वाभाविक बनाने, मानवीय बनाने” के लिए लगातार अस्तित्व में आ रहा है। उस सामाजिक वास्तविकता पर कोई ध्यान नहीं देना और बच्चों को मृत या मरणासन्न संस्कृति में “शिक्षित” करने का प्रयास करना बहुतों के लिए अज्ञानता और लाचारी के संरक्षण और कुछ के लिए अमानवीय शोषण की प्रतिज्ञा करना है। इसी प्रकार जिस संस्था पर मुख्य रूप से इस दीक्षा के कम या ज्यादा औपचारिक हिस्से का आरोप लगाया जाता है, उसे समाज के अनुभव के साथ घनिष्ठ रूप से एकीकृत करने की आवश्यकता होती है; यह एक अलग स्थान नहीं होना चाहिए जहां छात्र बड़े पैमाने पर समाज में जीवित नहीं रहने वाली संस्कृति के लिए एक कृत्रिम और कठिन दीक्षा से गुजरते हैं। समाज को लगातार स्कूल पर छापा मारना चाहिए ताकि बच्चे सीधे तौर पर उन चीजों को करके उस सामाजिक अनुभव में विकसित हो सकें जो इसकी वास्तविकता का हिस्सा हैं।
शिक्षा समाजीकरण से भिन्न है
ऊपर, फिर, सार्वभौमिक शब्दों में रेखांकित करने का एक प्रयास है कि क्यों कुछ लोग शिक्षित और सामाजिककरण के बीच अंतर नहीं करते हैं। यहाँ यह मददगार हो सकता है कि इसी तरह सामान्य तरीके से स्केच करने की कोशिश की जाए कि कैसे और क्यों दूसरे लोग भेद करते हैं। सामाजिककरण और शिक्षित करने में कई तरह से अंतर किया गया है, कभी-कभी काफी आकस्मिक और अस्पष्ट रूप से। अंतर के प्रमुख आधार को उजागर करने का प्रयास करने के लिए ऊपर सुझाए गए मजबूत भेद के साथ शुरू करना मददगार हो सकता है: सामाजिक गतिविधियाँ वे हैं जिनका उद्देश्य लोगों को अधिक समान बनाना है; शिक्षित करने का उद्देश्य लोगों को और अधिक विशिष्ट बनाना है।
पहले महान समाजसेवक, तो, एक लंगुआ सीख रहे हैं
। जो लोग एक भाषा साझा करते हैं, वे दुनिया के अपने दृष्टिकोण का एक बड़ा हिस्सा साझा करते हैं, जो उस भाषा में दी गई शर्तों, भेदों, व्याकरणिक संरचना में धारणा के स्तर पर प्रोग्राम किया जाता है। लोगों को कार्यात्मक रूप से साक्षर होने के लिए पढ़ाना, भेद के इस रूप में, सामाजिक बनाना है, जिसमें यह परंपराओं को सिखाता है
जो हर किसी के द्वारा साझा किया जाता है जिसका उद्देश्य लेखन द्वारा संवाद करना है। शैली के साथ लिखना, वाक्पटुता के साथ बात करना और आलोचनात्मक जागरूकता के साथ पढ़ना, फिर शिक्षित करना है। ऐसी चीजें बुनियादी अनुरूपताओं से व्यक्तिगत विशिष्टता पर बल देती हैं जो संचार को संभव बनाती हैं; वे वर्तमान क्लिच और अनुरूपतावादी रूपों से विशिष्टता पर बल देते हैं।
अभिव्यक्ति के पारंपरिक रूपों में एकरूपता सामाजिक उपयोगिता को कम कर देती है; इसमें कम जटिलता, कम अस्पष्टता, गलतफहमियों की संभावना कम होती है, और कम समृद्धि और विविधता भी होती है। लालित्य के साथ लिखना और पक्षपात के साथ पढ़ना सामाजिक उपयोगिता का विषय नहीं है। हालाँकि, यह शैक्षिक महत्व का विषय है। (सनक शिक्षा का एक प्रकार का रोग है; यह सामग्री की कीमत पर विशिष्टता की औपचारिक विशेषताओं पर ध्यान केंद्रित करता है जो किसी को “प्रतिष्ठित” बना सकता है)।
स्कूलों में, तब, हम सभी गतिविधियों को सामाजिक और शैक्षिक दोनों पहलुओं के लिए देख सकते हैं – जिसकी डिग्री गतिविधि से गतिविधि में भिन्न होगी। बढ़ईगीरी या धातु के काम में, उदाहरण के लिए, औजारों का उपयोग करना सीखना सामाजिकता का विषय है। व्यक्तिगत शैली के साथ अनुग्रह के साथ उनका उपयोग करना सीखना, और उपयोगिता की आवश्यकता के ऊपर और उससे परे किसी के काम में एक सौंदर्य गुणवत्ता के माध्यम से वहां तलाश करना एक शैक्षिक मामला है। सीखने में, कहते हैं, फ्रेंच में अक्षरों और मूल अभिव्यक्ति के सीखने के स्तर का एक स्तर होता है, जिसमें उस भाषा का समाजीकरण शामिल होता है, लेकिन जीवन और दुनिया के एक अलग दृष्टिकोण को समझने में आसानी और शोधन का उद्देश्य एक शैक्षिक मामला है। आमतौर पर स्कूलों में भेद अधिक आसानी से और स्पष्ट रूप से किया जा सकता है।
वे गतिविधियाँ जो इसलिए लगी हुई हैं ताकि लोग बड़े पैमाने पर समाज में अधिक आसानी से जुड़ सकें — नौकरी प्राप्त कर सकें, नागरिकता, पितृत्व, आदि की बुनियादी जिम्मेदारियों को पूरा कर सकें – मुख्य रूप से समाजीकरण का मामला होगा। वे गतिविधियाँ जो व्यक्तिगत विकास की ओर ले जाती हैं, बड़े पैमाने पर शैक्षिक होने के लिए उत्तरदायी होंगी। हम शैक्षिक और सामाजिक गतिविधियों के बीच इस आधार पर भी अंतर कर सकते हैं कि हम पाठ्यक्रम में उनके स्थान को कैसे उचित ठहराते हैं। सामाजिक गतिविधियों को सामाजिक उपयोगिता के आधार पर उचित ठहराया जाता है; व्यक्तियों की खेती के आधार पर शैक्षिक गतिविधियाँ। दोनों सार्थक हैं: पूर्व सार्थक हैं क्योंकि वे समरूप गतिविधियाँ हैं जो दुर्खीम ने बताया कि समाज को काम करते रहने के लिए आवश्यक थे; उत्तरार्द्ध परिष्कृत सुखों के लिए उपयुक्त हैं जो वे हमें व्यक्तिगत रूप से प्रदान करते हैं।
जो लोग इसे धारण करते हैं, उनकी दृष्टि में यह अंतर धारण करने के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमें यह तय करने में अलग मानदंड का उल्लेख करने में सक्षम होना चाहिए कि पाठ्यक्रम के समय को किसी विशेष सामाजिक या शैक्षिक गतिविधि के लिए अनुमति दी जाए या नहीं। इस प्रकार, अगर हम कुछ ऐसे लोगों के बीच संघर्ष का सामना करते हैं जो ड्राइवर प्रशिक्षण में एक पाठ्यक्रम जोड़ना चाहते हैं और कुछ जो संस्कृत या संगीत प्रशंसा में एक पाठ्यक्रम जोड़ना चाहते हैं, तो हमें स्पष्ट होना चाहिए कि हम निर्णय नहीं लेते हैं किसे शामिल करना है और किसे केवल एक सामाजिक मानदंड के संदर्भ में बाहर करना है।
हम यह नहीं पूछते कि दैनिक वयस्क दुनिया में छात्रों की क्षमता के लिए क्या अधिक प्रासंगिक है। इसके बजाय हमें यह जानने की जरूरत है कि स्कूल सामाजिक और शिक्षित दोनों हैं, और विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में से किसे शामिल किया जाना चाहिए, यह तय करने के लिए उपयुक्त मानदंड लागू करके सीखने और संस्कृत के बीच संघर्ष को समझदारी से नहीं सुलझाया जा सकता है। इस तीखे अंतर को, तब, स्कूलों में शिक्षा के बचाव के रूप में देखा जाता है; बढ़ते समाजीकरण के पक्ष में स्कूलों में शैक्षिक गतिविधियों की कमी के आलोक में एक रक्षा की आवश्यकता है। यह क्षरण विशेष रूप से गंभीर रहा है, इस दृष्टि से, उत्तरी अमेरिका में जहां स्कूल विविध अप्रवासी आबादी के समरूपीकरण में इच्छुक उपकरण थे और जहां बड़े पैमाने पर समाज को उचित रूप से यह मांग करते हुए देखा जाता है कि स्कूल सामाजिक सरोकारों पर अधिक ध्यान दें।
यह परिप्रेक्ष्य माइकल ओकेशोट द्वारा सबसे साहसपूर्वक व्यक्त किया गया है:
‘शिक्षा के लिए ‘समाजीकरण‘ को प्रतिस्थापित करने का डिजाइन इस शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण घटना के रूप में पहचाना जाने के लिए काफी दूर चला गया है, सबसे बड़ी प्रतिकूलता हमारी संस्कृति से आगे निकल गई है, बर्बर समृद्धि के लिए समर्पित एक अंधेरे युग की शुरुआत। यह एक परियोजना से उभरा, जो लगभग तीन शताब्दियों पहले शुरू हुई थी (जो न तो मूर्ख थी और न ही शैक्षिक जुड़ाव के लिए खतरनाक थी) उन लोगों के लिए शिक्षा का विकल्प प्रदान करने के लिए, जो किसी भी कारण से शैक्षिक जुड़ाव से बाहर हो गए थे। उस समय से इस विकल्प को बदलती परिस्थितियों का जवाब देने के लिए समायोजित किया गया है, इसे वयस्क घरेलू, औद्योगिक और व्यावसायिक जीवन के लिए एक शिक्षुता बनाने के लिए सुधार और विस्तारित किया गया है।
स्वयं के विभिन्न संस्करणों को उत्पन्न किया है, और अधिकांश भाग के लिए इसने सरकारों के निर्देश को प्रस्तुत किया है। वास्तव में, यह वह दुनिया बन गई है जिसे बनाने में इसने मदद की है, इसे ‘सेवा उद्योग‘ के रूप में मान्यता मिल सकती है। इसे ‘राष्ट्र‘ की भलाई में योगदान के रूप में डिजाइन किया गया था; इसका स्वागत किया गया है या उस संपन्नता के कारण सहन किया गया है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह प्राप्त करने वाला है, और लागत और लाभों के संदर्भ में इसके उत्पाद की गणना करने का प्रयास किया गया है; और इसका बचाव इस आधार पर किया गया है कि इसे बनाने के लिए क्या बनाया गया है और अधिक संदिग्ध दलील पर
यह कुछ प्रकार के बच्चों के लिए सबसे उपयुक्त शिक्षुता है। हालाँकि, शिक्षा के लिए इस बदलाव को यूरोपीय लोगों के शैक्षिक जुड़ाव को भ्रष्ट करने की अनुमति दी गई थी; और अब इसे इसके वांछनीय उत्तराधिकारी के रूप में घोषित किया गया है। हर जगह सूदखोरी को पैदल ही सेट किया गया है। लेकिन इस उद्यम का शिकार महज एक ऐतिहासिक शैक्षिक जुड़ाव नहीं है (इसकी सभी खामियों और कमियों के साथ); यह मानव समझ की विरासत में दीक्षा के रूप में शिक्षा का विचार भी है जिसके आधार पर एक व्यक्ति ‘जीवन के तथ्य‘ से मुक्त हो सकता है और ‘जीवन की गुणवत्ता‘ के संदर्भ में खुद को पहचान सकता है। उद्यम की आपदा उद्यमियों के बौद्धिक भ्रष्टाचार से मेल खाती है।
ओकेशोट के शब्दों में देखा जा सकता है कि समाजीकरण और शिक्षा के बीच एक स्पष्ट विभाजन के लिए तेजी से पकड़े जाने का कारण यह है कि यह स्पष्ट करने का एकमात्र तरीका है कि मनुष्य एक परिष्कृत संस्कृति को शामिल कर सकता है जो किसी विशेष समाज के रिश्तों और लेन-देन से परे है। . ओकेशॉट की अन्य छवियों का उपयोग करने के लिए, यह संस्कृति एक वार्तालाप की तरह है: यह बहुत पहले आदिम जंगलों में शुरू हुई थी और भूमध्यसागर के आसपास के शहरों और शहर-राज्यों और साम्राज्यों में विस्तारित हुई थी; यह सदियों से बढ़ता और समृद्ध होता रहा है, इसके कुछ हिस्से कविताओं, नाटकों, संगीत, पेंटिंग, मूर्तिकला में हैं, जब तक कि वर्तमान में हमारे पास यह विशाल समृद्ध सांस्कृतिक बातचीत जारी है, जिसमें हम संलग्न हो सकते हैं। शिक्षा इस महान सभ्य और सभ्य बातचीत की भाषा सीख रही है। हम निश्चित रूप से इसे शामिल किए बिना जी सकते हैं और मर सकते हैं, जैसा कि जानवर करते हैं। एक इंसान के लिए इस बातचीत में उलझे बिना जीना और मरना, हालांकि, जीवन की सबसे अच्छी पेशकश को याद करना है।
उत्तरी अमेरिका में स्कूलों को केवल समाजीकरण करने वाली संस्थाओं के रूप में देखने के लिए एक आधिकारिक टकराव रहा है। इस सदी के पूर्वार्द्ध से इस दृष्टिकोण का एक मजबूत कथन चलता है:
‘स्वतंत्रता का मौलिक सिद्धांत जिस पर इस संघ की सभी सरकारें टिकी हैं, राज्य की किसी भी सामान्य शक्ति को अपने बच्चों को केवल सार्वजनिक शिक्षकों से निर्देश स्वीकार करने के लिए मजबूर करके मानकीकृत करने के लिए बाहर करती हैं। बच्चा केवल राज्य का प्राणी नहीं है; जो लोग उसका पालन-पोषण करते हैं और उसकी नियति को निर्देशित करते हैं, उन्हें अधिकार है, साथ ही उच्च कर्तव्य के साथ, उन्हें पहचानने और अतिरिक्त दायित्वों के लिए तैयार करने का।‘
प्रगतिशील प्रतिक्रियाएँ
हर कोई उपयोगितावादी तरीके से सीखने के बीच एक उपकरण का उपयोग करने और सौंदर्यपूर्ण रूप से संतोषजनक उत्पाद बनाने के लिए उपकरण का उपयोग करने के बीच के अंतर को समझता है। शिक्षा के पारंपरिक रूप के कुछ हिस्सों के साथ क्या गलत है कि इस भेद को शालीनता से स्वीकार किया गया है और अभ्यास में बनाया गया है, जैसे कि जनता को उपयोगितावादी तरीके से पढ़ाया जाना पूरी तरह से उचित है – यदि वास्तव में स्वीकार्य है अनुपात को अपनी नौकरी और सामाजिक भूमिका की मांगों के लिए पर्याप्त रूप से उपकरणों का उपयोग करना, पढ़ना, गणना करना आदि सिखाया जा सकता है – और दूसरों को शिक्षित करने के लिए उचित। परंपरावादी अच्छी तरह से कह सकते हैं कि यह निश्चित रूप से वांछनीय होगा यदि हर कोई उपकरणों के अधिक परिष्कृत उपयोग, अधिक परिष्कृत साक्षरता, और इसी तरह सीख सकता है, लेकिन, दुर्भाग्य से, ये उच्च क्षमताएं केवल नागरिकों के एक छोटे से हिस्से तक ही पहुंच पाती हैं। प्रगतिशील दृष्टिकोण से इस सब में जो गलत है वह उपयोगितावादी कौशल और सांस्कृतिक उपलब्धि के बीच विभाजन की स्वीकृति है। प्रगतिशील कार्यक्रम को ठीक से रोकने के लिए डिज़ाइन किया गया है कि पारंपरिक सैद्धांतिक भेद सामाजिक जीवन में महसूस किया जा रहा है। किसी को भी केवल उपयोगितावादी कौशल के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाना चाहिए, जिसमें उनके कार्यों के आंतरिक मूल्य की कोई समझ नहीं है; किसी को भी सामाजिक कार्यों और उपयोगिता की भावना के बिना एक तुच्छ, क्षीण सौंदर्य संवेदनशीलता विकसित करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
पारंपरिक उच्च संस्कृति के बारे में प्रगतिवाद की सोच में एक स्पष्ट अस्पष्टता है, जिसे बाद में खोजा जाएगा। प्रगतिवाद का एक तनाव है जो इस अभिजात्य सुख को सभी की विरासत के रूप में देखता है, और प्रगतिवाद के रूप में पहचाने जाने वाले कार्यक्रमों के जटिल मिश्रण के बीच पद्धतिगत सुधारों का एक समूह है जो उच्च संस्कृति को सभी के लिए उपलब्ध कराएगा। प्रगतिवाद का एक और तनाव उच्च संस्कृति का विरोधी है, इसे गलत शिक्षा और एक धोखे के रूप में देखता है। दोनों भेद करते हैं कि उच्च संस्कृति का एक उत्पाद सामाजिक विभाजन है; पूर्व इसे एक आकस्मिक मामला मानते हैं, एक ऐतिहासिक
एक संयोग है जिसे उचित लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा ठीक किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में, कृत्रिम सौंदर्य जो परंपरावादियों के लिए “वहाँ से बाहर” सांस्कृतिक वस्तुओं का एक पदानुक्रम बनाता है, जिसे अंदर उपयुक्त पदानुक्रमों में आंतरिक बनाना पड़ता है, शुद्ध हो जाएगा; अचिंतनशील दंभ से जुड़ा कृत्रिम क्रूड मिटा दिया जाएगा, और लोकतांत्रिक रूप से शिक्षित नया व्यक्ति इस उच्च संस्कृति की सामग्री को नए सिरे से देखने में सक्षम होगा और शुद्ध सौंदर्य के साथ उचित वास्तविक प्रतिक्रिया देगा।
कंडीशनिंग और निर्धारण
ऐतिहासिक दृष्टि से समाजीकरण और शिक्षा के बीच अंतर की उपयुक्तता या अन्यथा के बारे में परस्पर विरोधी स्थितियों का लेखा-जोखा देना संभव होगा। इस तरह के एक खाते में ज्ञान, संस्कृति और सौंदर्य संबंधी प्रतिक्रियाओं को सामाजिक रूप से अनुकूलित होने के रूप में देखने वालों और उन्हें सामाजिक रूप से निर्धारित होने के रूप में देखने वालों के बीच का अंतर कहानी में हाल ही में किसी भी तीखेपन के साथ आएगा। निश्चित रूप से, डेवी में संघर्ष पूर्वनिर्धारित है, जिसमें वह दोनों पदों को धारण करता है, प्रत्येक अलग-अलग बिंदुओं पर। लेकिन तर्क सभी समकालीन हैं, परंपरावादी दूर नहीं गए हैं और न ही प्रगतिवादियों ने “बैक टू बेसिक्स” के साथ हार मानी है। देर से जो अधिक महत्वपूर्ण है वह ऊपर चित्रित कठिन प्रगतिशील स्थिति है – वह स्थिति जो इसे स्पष्ट रूप से रखती है, यह मानती है कि उच्च संस्कृति एक राजनीतिक प्रतिबद्धता है, और यह कि कोई भी संस्था जो इसे संरक्षित करना चाहती है वह अनिवार्य रूप से प्रतिक्रियावादी और हितों के प्रति शत्रुतापूर्ण है। और श्रमिक वर्ग की उचित शिक्षा। यह एक आवश्यक संबंध है क्योंकि ज्ञान, संस्कृति और सौंदर्य संबंधी प्रतिक्रियाएं सामाजिक रूप से निर्धारित होती हैं।
अन्य, जुड़े हुए, तर्कों को डायक्रॉनिक दृष्टिकोण के बजाय एक सिंक्रोनिक कहा जाता है, इसका पीछा करते हुए, हम इसकी लंबाई के साथ दो स्पष्ट विच्छेदों के साथ एक निरंतरता बना सकते हैं। दाईं ओर शिक्षित करने और सामाजिककरण के बीच तेजी से अंतर करने की इच्छा है, क्योंकि भेद में उच्च संस्कृति, सभ्यता की रक्षा होती है, और जो जीवन को जीने लायक बनाती है। बीच में प्रगतिवाद का एक कमजोर रूप है जो नौकरी कौशल में सांस्कृतिक दीक्षा और उपयोगितावादी प्रशिक्षण के बीच किसी प्रकार के अंतर को पहचानने की प्रवृत्ति रखता है, और जिनके अनुयायी मानते हैं कि उच्च संस्कृति को वर्तमान सामाजिक जीवन में शामिल किया जा सकता है और श्रमिक वर्गों को इसका आनंद प्रदान किया जा सकता है, जब तक स्कूल हमेशा अनुभव पेश करने के लिए इसे बांधने में सावधानी बरतते हैं। हालाँकि, इस सब के बारे में कुछ असुविधा है, और बच्चों को उच्च संस्कृति में आरंभ करने का कोई वादा नहीं है, केवल अस्पष्ट अर्थ है कि श्रमिक वर्ग, और अन्य, बच्चों को इसके लिए “उजागर” किया जाना चाहिए, और यदि यह इतना बेहतर लेता है , और यदि नहीं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाईं ओर, यह विश्वास है कि सामाजिकता और शिक्षा के बीच का अंतर एक असमान, विभाजनकारी और शोषक सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए एक राजनीतिक उपकरण है। इस बाईं स्थिति पर अधिक विस्तार से विचार करना उपयोगी होगा। शायद हम उपयोगी रूप से इस समूह को कट्टरपंथी कह सकते हैं जो प्रगतिशील से अलग है – हालांकि उनकी स्थिति कभी-कभी परंपरागत रूप से प्रगतिवाद कहलाती है।
रैडिकल्स, सबसे मूल रूप से, मानते हैं कि “हर समाज के पास वास्तविकता को परिभाषित करने और समझने का अपना विशिष्ट तरीका है”। वस्तुनिष्ठ वास्तविकता जैसी कोई चीज़ नहीं होती; वस्तुनिष्ठता और वास्तविकता प्रत्येक समाज द्वारा बनाई गई है और वे वही हैं जो प्रत्येक सामाजिक समूह द्वारा माना जाता है। इस
परिप्रेक्ष्य अपने उपयोगकर्ता को यह देखने की अनुमति देता है कि प्रगतिवादी किसी भी गंभीर दृष्टिकोण में, पारंपरिक शिक्षा प्रणाली और वर्ग-आधारित सामाजिक प्रणाली को बदलने में असफल क्यों थे: प्रगतिवादी यह देखने में विफल रहे कि ज्ञान और वस्तुनिष्ठता और वास्तविकता केवल इसके द्वारा वातानुकूलित नहीं थी सामाजिक अनुभव लेकिन वास्तव में इसमें बनाए गए थे और इसके द्वारा निर्धारित किए गए थे। वैज्ञानिक पद्धति के बारे में अपनी मान्यताओं के साथ दुनिया के एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण को स्थापित करने के बारे में पारंपरिक ज्ञानशास्त्र को स्वीकार करने में, तर्कसंगतता के सिद्धांतों के बारे में कुछ “तथ्यों” को कैसे सुरक्षित किया जा सकता है, प्रगतिवादियों ने सुधार के अलावा कुछ भी करने की क्षमता खो दी और इसलिए इसे मजबूत किया। सामाजिक व्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए उन्होंने काम किया। अधिक कट्टरपंथी धारणा है कि सामाजिक जीवन यह निर्धारित करता है कि तथ्य के रूप में क्या मायने रखता है, वस्तुनिष्ठता के रूप में, तर्कसंगतता के रूप में, उन आधारों को खारिज करने के लिए रास्ता खुला छोड़ देता है जिन पर परंपरावादियों ने अब तक अपने सामाजिक दृष्टिकोण के प्रभुत्व को संरक्षित रखा है।
इस प्रकार कोई भी इस स्थिति से देख सकता है, क्यों परंपरावादी शिक्षा पर अपना नियंत्रण जारी रखने और “अवसर की समानता” के नारे के तहत वास्तविकता के अपने दृष्टिकोण का विस्तार करने में सक्षम थे। इसने वर्ग-आधारित समाज को तोड़ने की दिशा में कुछ नहीं किया, बल्कि अपनी संस्कृति में दीक्षा के माध्यम से मजदूर वर्ग के चतुर बच्चों को वास्तविकता के पारंपरिक दृष्टिकोण में शामिल करने का एक साधन बन गया। शैक्षिक अवसर की समानता, जबकि कई समाजवादियों द्वारा उनके किट में एक उपकरण के रूप में देखा गया, सामाजिक यथास्थिति को बनाए रखने का एक अधिक प्रभावी तरीका बन गया। कट्टरपंथी चुनौती सभी को नकारना है
परंपरावादियों और प्रगतिवादियों द्वारा सामान्य रूप से स्वीकार किए गए आधार: “स्वीकृत” (किसके द्वारा और किस उद्देश्य के लिए?) तर्कसंगतता के सिद्धांतों में विश्वास, एक तथ्य के रूप में क्या मायने रखता है और यह कैसे स्थापित होता है, वस्तुनिष्ठता का आदर्श, और इसलिए पर। इसी तरह, कट्टरपंथियों को इस बारे में गंभीर संदेह है कि क्या कोई हमारी सामाजिक वास्तविकता की भावना को बदलने के लिए स्कूलों का उपयोग करने की उम्मीद कर सकता है, क्योंकि पब्लिक स्कूल मध्यवर्गीय संस्थान हैं। वे केवल मध्यवर्ग और उनके हितों के लिए अच्छे रहे हैं; वे हमेशा श्रमिक वर्गों के लिए आशाहीन संस्थान रहे हैं। इस प्रकार कट्टरपंथी डी-स्कूलिंग के एक कार्यक्रम की ओर प्रेरित होते हैं और बच्चों को एक बेहतर सामाजिक वास्तविकता में घर पर लाने के नए तरीके खोजते हैं।
परंपरावादियों के साथ बहस में कट्टरपंथी प्रतिक्रिया देते हैं: “इस बात से सहमत होते हुए कि हमारी शैक्षिक दुविधाएं संस्कृति और अर्थों के बारे में हैं, ये राजनीतिक और आर्थिक संघर्षों से अलग नहीं हैं, जिनमें से ऐसे अर्थ एक अभिव्यक्ति हैं”। इसका मतलब है कि कट्टरपंथी के लिए “पाठ्यक्रम एक सामाजिक निर्माण है”। इस प्रकार शिक्षा के पारंपरिक दार्शनिक जिन्होंने शिक्षा की अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट करने और विस्तृत करने के कार्य को सरलता से आगे बढ़ाया है, वे अपने राजनीतिक उद्देश्यों, अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं, अपने जीवन के तरीके जिसमें पत्नी और बच्चों के साथ उनके संबंधों के बारे में पूरी तरह से अप्रासंगिक प्रतीत होते हैं, में खुद को व्यस्त पाते हैं। , मेहरबान
वे जिस कार को ड्राइव करना पसंद करते हैं, और इतने पर और जोरदार तरीके से, जो उन्होंने सोचा था कि पुराने जमीनी नियमों द्वारा संचालित एक पारंपरिक शैक्षणिक बहस थी, जिसे प्रगतिवादियों ने, उनकी कीमत पर, स्वीकार किया। इस बिंदु पर परंपरावादियों की एक विशिष्ट प्रतिक्रिया हाथ ऊपर करना है। अधिकांश कट्टरपंथियों द्वारा यह ठीक है क्योंकि वे अपना काम परंपरावादियों के साथ बहस करना नहीं देखते हैं – वे उन सभी तर्कों को जानते हैं – लेकिन अपनी नई कथित सामाजिक वास्तविकता को विस्तृत करना और उन संस्थानों को नष्ट करना जो अन्यायपूर्ण और अमानवीय पारंपरिक सामाजिक वास्तविकता को संरक्षित करते हैं।
सामान्य तौर पर, कट्टरपंथियों के प्रति परंपरावादियों की प्रतिक्रिया पूरी तरह से संतोषजनक नहीं है। अपने सापेक्षवादी पेटार्ड द्वारा कट्टरपंथियों को फहराना दिखाना पर्याप्त नहीं है; परंपरावादियों को यह दिखाना होगा कि वे भी इससे विचलित नहीं हैं। सापेक्षतावाद की चुनौती, और जिस हद तक सामाजिक कंडीशनिंग ज्ञान के रूप में मायने रखती है, उसे प्रभावित करती है, मुझे परंपरावादियों द्वारा कम करके आंका गया है, जो उन्नीसवीं सदी के प्रत्यक्षवादी महामारी विज्ञान के अवशेषों को आत्मसंतुष्ट रूप से अपनाने लगते हैं। इस पत्र के लिए अगली चाल प्रगतिवादियों के प्रति परंपरावादी प्रतिक्रिया और फिर उपरोक्त परंपरावादी तर्कों के लिए कट्टरपंथी प्रतिक्रिया की रूपरेखा होगी। पूर्व का तर्क जारी है और इसकी बाधाओं को ऊपर बताया गया है; उपरोक्त बिंदुओं पर कट्टरपंथियों की प्रतिक्रियाएँ यहाँ वर्णित नहीं हैं, हालाँकि स्केचली, क्योंकि मुझे नहीं पता कि वे क्या हैं। कट्टरपंथी साहित्य में इस तरह के तर्कों की प्रतिक्रिया नहीं मिलती है, केवल मूल कथनों की पुनरावृत्ति और उन शर्तों को स्वीकार करने से इनकार करते हैं जिनमें तर्क पारंपरिक रूप से आयोजित किए गए हैं। क्या हमें शिक्षित करने और सामाजिककरण के बीच अंतर करना चाहिए, और यदि हां, तो कैसे? हाँ; सावधानी से। हां, क्योंकि अगर हम सभ्यता को न्याय के लिए बलिदान कर देंगे तो किसी को लाभ नहीं होगा; और ध्यान से, क्योंकि अगर हम संस्कृति के लिए न्याय का त्याग करेंगे तो सभ्यता सड़ जाएगी।
सामाजिक स्तरीकरण
स्तरीकरण ( stratification ) शब्द भूविज्ञान से ग्रहण किया गया है तथा यह समाज में व्यक्तियों के विभिन्न स्तरों में वर्गीकरण की ओर संकेत करता है जिसके सम्बन्ध में माना जाता है कि समाज में स्तर की यह व्यवस्था ठीक उसी तरह लम्बवत् रूप में होती है जैसे धरती की परतें / तहें एक – दूसरे के ऊपर अथवा नीचे लम्बवत् रूप में व्यवस्थित रहती हैं । किन्तु इस भू – वैज्ञानिक रूपक की अपनी सीमाएँ भी हैं । जैसा कि आन्द्रे बीते ( 1985 ) कहते हैं , “ समाज में व्यक्तियों की व्यवस्था धरती पर परतों / तहों की व्यवस्था से कहीं अधिक जटिल है तथा सामाजिक परतों को नंगी आँखों से उस प्रकार नहीं देखा जा सकता जैसे कि हम भूमि की परतों को देख सकते हैं । ” जब हम सामाजिक स्तरीकरण की बात करते हैं तो एक प्रकार से समाज में व्याप्त असमानताओं पर ध्यान केन्द्रित कर रहे होते हैं । विस्तृत अर्थों में सामाजिक स्तरीकरण समाज के विभिन्न स्तरों में वर्गीकरण की बात करता है । ये स्तरव्यवस्था पदानुक्रम के आधार पर व्यवस्थित वर्गों की ओर संकेत करती है । इन वर्गों में अनेक ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विविधतायें व विषमताएँ पाई जाती हैं जिनमें जातियाँ , सत्ता वर्ग ( estate ) एवं वर्ग सबसे महत्त्वपूर्ण हैं । सन् 1960 ई . के बाद से नृजातीय ( ethnic ) एवं लैंगिक ( gender ) स्तरीकरण की ओर भी ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है ।कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं
जिसबर्ट ( Gisbert ) के शब्दों में , ‘ ‘ सामाजिक स्तरीकरण समाज का उन स्थायी समूहों अथवा श्रेणियों में विभाजन है जो कि आपस में श्रेष्ठता एवं अधीनता के सम्बन्धों द्वारा सम्बद्ध होते हैं । ” इस कथन से स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण एक व्यवस्था है । इस व्यवसथा द्वारा समाज विभिन्न स्थायी समहों या श्रेणियों में विभक्त होता है । साथ ही , ये विभिन्न समूह उच्चता और अधीनता के सम्बन्धों द्वारा एक – दूसरे से बंधे रहते हैं ।
सदरलैण्ड एवं वडवर्ड ( Sutherland and Woodward ) के अनुसार , ” स्तरीकरण साधारणतया अन्त : क्रिया अथवा विभेदीकरण की एक प्रक्रिया है , जिसके द्वारा कुछ व्यक्तियों को दूसरों की तुलना में उच्च स्थिति प्राप्त हो जाती है ।इस परिभाषा से पता चलता है कि सामाजिक स्तरीकरण एक प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया द्वारा समाज विभिन्न भागों में विभाजित होता है । इस विभाजन में कुछ को उच्च स्थिति व अन्य को निम्न स्थिति प्राप्त होती है ।
पारसन्स ( T . Parsons ) ने लिखा है , ” सामाजिक स्तरीकरण से अभिप्राय किसी सामाजिक व्यवस्था में व्यक्तियों का ऊचे और नीचे के पदानुक्रम में विभाजन है । ” इस कथन से स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण समाज को ऊँच व निम्न वर्ग में विभाजन की एक व्यवस्था है ।
सोरोकिन ( Sorokin ) ने लिखा है , ‘ सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एक जनसंख्या – विशेष का ऊँच – नीच के संस्तरणात्मक अध्यारोपित वर्गों में विभेदीकरण है । ” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि सामाजिक स्तरीकरण द्वारा समाज विभिन्न वर्गों में बँट जाता है । ये वर्ग एक – दूसरे के नीचे व ऊपर होते हैं । यानि इन वर्गों के बीच संस्तरण पाया जाता है ।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण एक ऐसी व्यवस्था है जिसके माध्यम से समाज अनेक समहो व वर्गों में बँट जाता है । प्रत्येक वर्ग की एक निश्चित स्थिति होती है जो एक – दूसरे की तुलना में उच्च या निम्न होता है । परन्तु , ये वर्ग व समूह एक – दूसरे से जुड़े होते हैं ।
सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएँ ( Characteristics of Social Stratification )
सार्वभौमिकता ( Universality ) : सामाजिक स्तरीकरण एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है । यह प्रत्येक समाज में किसी – न – किसी रूप में अवश्य पाया जाता रहा है । चाहे वह पिछड़ा समाज हो या सभ्य , प्राचीन समाज हो या आधुनिक सरल समाज हो या जटिल , सामाजिक स्तरीकरण का रूप देखने को मिलता ही है । यहाँ तक कि वर्गविहीन समाज होने का दावा करने वाले साम्यवादी समाजों में भी यह प्रक्रिया पायी जाती है ।
चेतन प्रक्रिया ( Conscious Process ) : सामाजिक स्तरीकरण एक चेतन प्रक्रिया है । इसका निर्माण जागरूक दशा में योजनाबद्ध रूप से किया जाता है । साधारणतया यह कार्य समाज के अभिजन वर्ग ( Elite Class ) द्वारा होता है ।
समाज का विभाजन ( Division of Society ) : सामाजिक स्तरीकरण समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित करने की व्यवस्था है । इसके द्वारा समाज अनेक उच्च से निम्न वर्गों में बँट जाता है तथा प्रत्येक वर्ग की एक निश्चित स्थिति होती है । साथ ही इस स्थिति से सम्बन्धित कार्य व सुविधाएँ भी प्राप्त होती हैं ।
क्षैतिज विभाजन ( Horizontal Division ) : सामाजिक स्तरीकरण के द्वारा समाज का क्षैतिज विभाजन होता है । क्षैतिज विभाजन का अभिप्राय उस विभाजन से है जहाँ समाज विभिन्न वर्गों में बंट जाता है तथा प्रत्येक वर्ग के लोगों की स्थिति में समानता पाई जाती है । जैसे – जातिगत स्तरीकरण के अन्तर्गत एक जाति के लोगों की स्थिति में समानता पाई जाती है ।
श्रेष्ठता एवं अधीनता के सम्बन्ध ( Relationshipof Superiorityand Subordination ) : सामाजिक स्तरीकरण समाज को उच्च एवं निम्न अनेक वर्गों में बाँटती है । लेकिन ये वर्ग एक – दूसरे से अलग नहीं होते , बल्कि सम्बन्धित होते हैं । एक के अभाव में दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती । उदाहरणस्वरूप , सामाजिक स्तरीकरण का एक रूप वर्गगत स्तरीकरण के अन्तर्गत पेशा के आधार पर उच्च एवं निम्न अनेक वर्ग हैं , परन्तु वे सामाजिक सम्बन्ध से जुड़े होते हैं । इसी तरह अर्थ के आधार पर पूंजीपति वर्ग एवं श्रमिक वर्ग हैं और वे श्रेष्ठता एवं अधीनता के सम्बन्ध से जुड़े होते हैं ।
वैयक्तिक प्रक्रिया ( Individual Process ) : ओल्सन ( Olsen ) ने इस विशेषता का उल्लेख किया है । उनका कहना है कि स्तरीकरण एक वैयक्तिक प्रक्रिया है । इस व्यवस्था के अन्तर्गत एक स्तर के व्यक्ति दूसरे स्तर के व्यक्तियों से प्रतियोगिता करने का प्रयत्न करता है एवं कभी – कभी विरोध भी । वर्ग – संघर्ष व जातीय – संघर्ष इसी व्यवस्था की देन है ।
मनोवृत्ति का निर्धारण ( Determine of Attitude ) : सामाजिक स्तरीकरण की एक विशेषता यह है कि इसके द्वारा व्यक्ति के मनोवृत्ति का निर्धारण सम्भव हो पाता है । व्यक्ति जिस जाति , वर्ग व प्रस्थिति समूह का सदस्य होता है , उसके विचार एवं मनोवृत्ति भी उसी के अनुकूल बन जाता है । यही कारण है कि दो भिन्न वर्ग के लोगों की मनोवृत्ति में भिन्नता पाई जाती है ।
अनेक आधार ( Many Bases ) : सामाजिक स्तरीकरण के अनेक आधार हैं । इनमें प्रमुख लिंग , आयु , सम्पत्ति , धर्म , शारीरिक और बौद्धिक कुशलता , प्रजाति , जाति आदि हैं । यह समाज व सामाजिक व्यवस्था पर निर्भर है कि वह स्तरीकरण में किसे मान्यता दे और किसे नहीं ।.
जाति और वर्ग में अन्तर ( Distinction between Caste and Class )
‘ ( 1 ) जाति – प्रणाली एक बन्द वर्ग है जबकि वर्ग – प्रेरणाली एक खुला या मुक्त वर्ग है । जाति में सामाजिक स्तर का निर्धारण जन्म से होता है और किसी दूसरी जाति में सम्मिलित होने का अवसर नहीं मिलता । इसके विपरीत वर्ग – व्यवस्था में मनुष्य की असमानतामों को मान्यता मिलती है । इसमें व्यक्ति को उन्नति के लिए समान अवसर दिए जाते हैं । अपनी योग्यता के बेल पर व्यक्ति एक वर्ग से दूसरे वर्ग में प्रवेश कर सकता है ।
2 जाति में व्यक्तिगत क्षमता और योग्यता की उपेक्षा की जाती है । वर्ग में स्थिति इससे बिल्कुल विपरीत होती है । अपनी योग्यता के बल पर व्यक्ति समाज के उच्च वर्ग में पहुंच सकता है ।
3.जाति को स्तरीकरण की बन्द व्यवस्था और वर्ग को खली व्यवस्था के रूप में देखा जाता है । सामान्यतः वर्गों की प्रकृति खुली हुई समझ ली जाती है परंतु वास्तव में प्रत्येक वर्ग अपने से निम्नवर्ग के सदस्य को अपने वर्ग में आने से रोकता है और साधारणतया अपने वर्ग के सदस्यों से ही संबंधों की स्थापना करता है । व्यावहारिक रूप से विभिन्न वर्गों के बीच भी वर्ग – अंतर्विवाह की नीति अपनाई जाती है । यही कारण है कि जैसे कुछ विद्वानों ने जाति और वर्ग में कोई मौलिक भेद स्वीकार नहीं किया है । फिर भी यह निश्चित है कि अपनी प्रकृति , कार्यों और निषेधों में जाति और वर्ग की एक – दूसरे से भिन्न धारणाएं हैं जिन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है
4.जाति सामाजिक स्तरीकरण का एक बंद स्वरूप है जबकि वर्ग में खुलापन है । कोई भी व्यक्ति एक जाति को छोड़कर दूसरी जाति की सदस्यता ग्रहण नहीं कर सकता । प्रत्येक जाति के नियम भी दूसरी जातियों से भिन्न होते हैं । इसके विपरीत वर्ग की सदस्यता का द्वार सभी के लिए खुला है । एक व्यक्ति अपनी संपति , योग्यता , कुशलता के अनुसार किसी भी वर्ग का सदस्य बन सकता है ।
5.जाति की सदस्यता का आधार जन्म है । व्यक्ति एक बार जिस जाति में जन्म लेता है , आजीवन उसी जाति का सदस्य बना रहता है । लेकिन वर्ग की सदस्यता व्यक्ति के कार्यों और प्रयत्नों पर आधारित होती है और वह अपनी योग्यता द्वारा अपने वर्ग में परिवर्तन कर सकता है ।
6.व्यक्ति को जाति की सदस्यता प्राप्त करने का प्रयत्न करना नहीं पड़ता बल्कि यह समाज की ओर से प्रदत्त होती है । यही कारण है कि जाति में स्थिरता होती है । दसरी ओर वर्ग की सदस्यता पूर्णत : व्यक्ति के निजी प्रयत्नों का फल है और इन प्रयत्नों में परिवर्तन होने से वर्ग की सदस्यता में भी परिवर्तन हो जाता है ।
. 7.प्रत्येक जाति का एक निश्चित व्यवसाय होता है और उसी के द्वारा आजीविका उपार्जित करना उस जाति के सदस्यों का नैतिक कर्त्तव्य है । लेकिन वर्ग – व्यवस्था में कोई सदस्य अपनी रूचि और साधनों के अनुसार किसी भी व्यवसाय का चुनाव कर सकता है ।
. 8.प्रत्येक जाति आवश्यक रूप से अपने सदस्यों को अपनी ही जाति के अन्तर्गत विवाह – सम्बन्ध स्थापित करने पर बाध्य करती है । इसके विपरीत वर्ग में इस प्रकार का कोई निश्चित नियम नहीं होता । इसके बावजूद एक वर्ग के सदस्य अपने वर्ग में ही विवाह सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं । 6 . वर्ग में उच्चता का आधार आर्थिक है जबकि जाति का स्तर समाज द्वारा निर्धारित होता है । जातियों के निर्माण का आधार अनेक धार्मिक तथा सांस्कृतिक विश्वास हैं । इस दृष्टिकोण से जाति पवित्रता तथा अपवित्रता सम्बन्धी बहुत से नियमों की एक व्यवस्था है । वर्ग – व्यवस्था में पवित्रता अथवा अपवित्रता सम्बन्धी किसी प्रकार के विश्वासों का समावेश नहीं होता ।
- जाति – व्यवस्था में व्यवसाय का निश्चय बहुत कुछ जन्म से हो जाता है । वर्ग – व्यवस्था में स्वेच्छानुसार व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता रहती है । ।
10.जाति की सदस्यता जन्मजात होती है । यह समाज की ओर से उसे अपने – आप प्राप्त हो जाती है । इसके विपरीत वर्ग की सदस्यता अजित की जाती है । एक वर्ग से दुसरे वर्ग में व्यक्ति अपने प्रयासों से ही प्रवेश कर पाता
सामाजिक स्तरीकरण के आधार ( Bases of Social Stratification )
जाति ( Caste ) : सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख प्राणिशास्त्रीय आधार ‘ जाति ‘ है । भारत इसका ज्वलन्त उदाहरण है । इस जातिगत स्तरीकरण में सबसे ऊंचा ‘ ब्राह्मण ‘ को एवं निम्नतर स्थान ‘ शूद्र ‘ को प्राप्त है । इन दोनों छोरों के बीच क्रमश : अनेक जातियाँ हैं । यह स्तरीकरण बहुत कुछ स्थिर एवं दृढ़ है ।
सम्पत्ति ( Wealth ) : प्राचीन काल से ही सम्पत्ति सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख आधार रहा है । समाज में जिन लोगों को जितनी अधिक सम्पत्ति होती है , उनकी स्थिति उतनी ऊँची मानी जाती है । वे जीवन की अनेक सुविधाओं को जुटाने में सफल होते हैं । ठीक इसके विपरीत जिन लोगों को जितनी कम सम्पत्ति होती है , उनकी स्थिति उतनी निम्न होती है । यही कारण है कि गरीबी स्थितिहीन होती है ।
व्यवसाय ( Occupation ) : व्यवसाय भी सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख आधार है । समाज में व्यवसाय की उच्चता एवं निम्नता के आधार पर उससे जुड़े लोगों की स्थिति तय होती है । जैसे – समाज में कुछ व्यवसाय को ऊँचा एवं प्रतिष्ठित माना जाता है । प्रशासक , डॉक्टर , प्राध्यापक आदि इसी में आते हैं । फिर दूसरी तरफ कुछ व्यवसाय को निम्न माना जाता है , जैसे – हजामत का काम , जूता बनाने का काम आदि । इस प्रकार जो लोग प्रशासन , चिकित्सा व शिक्षण से जुड़े हैं उनकी स्थिति ऊँची होती है । फिर जूता बनाने के काम से जुड़े लोगों की स्थिति निम्न होती है ।
लिंग ( Sex ) : सामाजिक स्तरीकरण का सबसे प्राचीन आधार लिंग – भेद है । अधिकांश समाजों में परुषों की स्थिति सियों की तलना में ऊंची मानी जाती है । जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जितनी अधिक सुविधाएं एवं स्वतंत्रता पुरुषों को प्राप्त है , उतनी स्त्रियों को नहीं ।
आय ( Age ) : सामाजिक स्तरीकरण का दूसरा प्राणिशास्त्रीय आधार आयु माना जाता रहा है । आयु प्रायः व्यक्ति की मानसिक परिपक्वता एवं अनुभव को प्रकट करती +-है । इसीलिए अधिकांश समाजों में अधिक आयु के व्यक्तियों को अधिक सम्मान , आदर – भाव एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की जाती हैं ।
प्रजाति ( Race ) : प्रजातीय भिन्नता के आधार पर समाज में ऊंच – नीच का स्तरीकरण देखा जाता है । ऐसी मान्यता है कि प्रजातियों में श्रेष्ठ श्वेत प्रजाति ( काकेशियन ) है क्योंकि इसका रंग सफेद , रक्त उच्च स्तर का , उच्च मानसिक योग्यता एवं सभ्यता के प्रसारक हैं । इसके बाद क्रमश : योग्यता के अनुसार पीत प्रजाति ( मंगोलॉयड ) एवं सबसे नीचे श्याम प्रजाति ( नीग्रोयॉड ) हैं ।
धर्म ( Religion ) : धर्म – प्रधान समाजों में स्तरीकरण का आधार धर्म रहा है । जो व्यक्ति धर्म , धार्मिक ज्ञान , धार्मिक कर्मकाण्ड व विश्वास से अधिक जुड़े होते हैं , उनकी स्थिति आमलोगों से ऊँची होती है । भारत में धार्मिक गुरुओं . पुजारियों व धर्म – ज्ञानियों आदि की स्थिति ऊँची होने का मूल कारण उनका धर्म से जुड़ा होना है ।
राजनीति ( Politics ) : सामाजिक स्तरीकरण का एक महत्त्वपूर्ण आधार राजनीति कहा जाता है । जिसके हाथ में शासन की बागडोर होती है । उनकी स्थिति ऊँची होती है । साथ ही शासन – व्यवस्था के अन्तर्गत राजकीय सत्ता के आधार पर ऊंच – नीच का स्तरीकरण देखने को मिलता है । उदाहरणस्वरूप – भारत में शासन – व्यवस्था के अन्तर्गत सबसे ऊँचा स्थान राष्ट्रपति को प्राप्त है । फिर उसके बाद क्रमश : उप – राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री , उप – प्रधानमंत्री , कैबिनेट स्तर के मंत्री व राज्य – मंत्री आदि आते हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि सामाजिक स्तरीकरण के अनेक आधार हैं ।
सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप ( Forms of social Stratification )
बन्द स्तरीकरण ( Closed Stratification ) : बन्द स्तरीकरण वह स्तरीकरण है जिसमें व्यक्ति की स्थिति निर्धारण जन्म के आधार पर होता है । साथ ही इसमें किसी प्रकार की गतिशीलता नहीं पाई जाती है । इस व्यवस्था अनसार जन्म से व्यक्ति के कार्य , हैसियत एवं सुविधा व असुविधा का निर्धारण हो जाता है । इस प्रकार के स्तर का सर्वोत्तम उदाहरण भारतीय जाति – व्यवस्था है । व्यक्ति की जाति का निर्धारण जन्म से होता है । लेकिन एक जाति हैसियत एवं स्थिति दसरी जाति की तलना में ऊंची या नीची होती है । जैसे — ब्राह्मण की स्थिति सबसे ऊपर की सबसे नीचे है । इन दो छोरों के बीच अनेक जातियाँ एवं उपजातियाँ हैं । फिर इनके स्थिति में परिवर्तन सा है । इसीलिए जाति को बन्द वर्ग के रूप में स्पष्ट किया जाता है । बन्द स्तरीकरण को जातिगत स्तरीकरण के नाम जाना जाता है । _
( 2 ) खुला स्तरीकरण ( Open Stratification ) : खला स्तरीकरण वह स्तरीकरण है जिसमें व्यक्ति की स्थिति निर्धारण उनकी योग्यता , क्षमता एवं कार्य – कशलता के आधार पर होता है । गतिशीलता ऐसे स्तरीकरण का एक प्रसव विशेषता है । इस व्यवस्था के अनुसार व्यक्ति अपने प्रयत्न के द्वारा उच्च या निम्न स्थिति प्राप्त कर सकता है । साथ ही एक बार जो स्थिति प्राप्त होगी , आवश्यक नहीं कि वह स्थिति बनी ही रहे । उसमें परिवर्तन संभव है । ऐसे स्तरीकरण का सर्वोत्तम उदाहरण वर्ग – व्यवस्था है । वर्ग का आधार कर्म होता है , कर्म से व्यक्ति एक उद्योगपति , मजदूर , प्राध्यापक एवं छात्र हो सकता है । इसी के अनुसार व्यक्ति का वर्ग निर्धारित होता है । साथ ही वर्ग खुला समूह है । व्यक्ति अपने वर्ग की सदस्यता बदल सकता है । जन्म के साथ व्यक्ति को अपने परिवार की वर्ग – स्थिति प्राप्त होती है । लेकिन अपनी योग्यता व क्षमता के आधार पर अपनी हैसियत में वृद्धि कर सकता है । इस प्रकार वर्ग – व्यवस्था के अन्तर्गत उच्च समह से निम्न समूह , निम्न से उच्च समूह तक पहुँचना संभव है । इसीलिए कुछ लोग खुला स्तरीकरण को वर्गगत स्तरीकरण भी कहते हैं ।
सामाजिक स्तरीकरण का महत्त्व या प्रकार्य
` ( Importance or Functions of Social Stratification )
कार्य को सरल बनाना ( Simplify the Work ) : सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति की योग्यता का निर्धारण हो जाता है । जैसे – जाति व्यवस्था के द्वारा एक खास जाति को खास योग्यता व कार्य प्राप्त होता है जिसे उसे पूरा करना होता है । उसी तरह वर्ग व्यवस्था के अन्तर्गत एक खास वर्ग की खास योग्यता व कार्य – शैली होती है जिसे उसे पूरा करना होता है । इस तरह सामाजिक स्तरीकरण के माध्यम से व्यक्ति को जानकारी मिल जाती है कि कौन – सा कार्य करना है और कैसे करना है । इससे कार्यों में सरलता होती है ।
मनोवत्तियों का निर्धारण ( Determine the Attitudes ) : सामाजिक स्तरीकरण का एक खास महत्त्व मानवाय मनोवृत्तियों का निर्धारण करना है । व्यक्ति जिस जाति , वर्ग या प्रस्थिति – समूह का सदस्य होता है , उसी के अनुसार उसका मनोवृत्तियों का विकास व निर्धारण होता है । इस दृष्टिकोण से सामाजिक स्तरीकरण व्यक्ति को अपनी मनोवृत्तियों के बारे में जागरूक बनाकर उन्हें अपना विकास स्वयं करने की प्रेरणा देता है ।
सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में सहायक ( Helpful in Maintaining SocialOrder ) : सामाजिक सारीकरण का एक महत्त्व यह है कि वह समाज में व्यवस्था बनाए रखने में सहायक होता है । इसके द्वारा जन्म व योग्यता के आधार पर समाज को विभिन्न वर्गों में बांट दिया जाता है तथा प्रत्येक वर्ग के व्यक्तियों के व्यवहार व ढंग निश्चित हो ।
साथ ही ऐसी व्यवस्था कर दी जाती है कि व्यक्ति अपने निश्चित कार्य – शैली को अपनाएं । इससे सामाजिक व्यवस्था बनी रहती है ।
सामाजिक एकीकरण में सहायक ( Helpful in Social Integration ) : सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था यो तथा समहों को विभिन्न वर्गों में बांट देती है । प्रत्येक वर्ग के व्यक्तियों के कार्य निश्चित होते हैं । एक व्यक्ति अपने कार्यों को परा कर अन्य कार्यों के सन्दर्भ में दूसरे पर निर्भर होता है । क्योंकि एक व्यक्ति की आवश्यकताएं केवल के दारा परी नहीं हो सकतीं । इससे व्यक्तियों व समूहों में आपस में पारस्परिक निर्भरता बनी रहती है । यह निर्भरता सामाजिक एकीकरण में सहायक होता है ।
सामाजिक प्रगति में सहायक ( Helpful in Social Progress ) : सामाजिक स्तरीकरण प्रगति में सहायक होता है । व्यवस्था का आधार चाहे जन्म हो ( जाति व्यवस्था ) या योग्यता ( वर्ग व्यवस्था ) दोनों ही व्यक्ति में अपने – अपने ढंग से सामाजिक मान्यता के अनुसार कार्य करने की प्रेरणा देता है । जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत जाति – धर्म की बात कही जाती है । इस सिद्धांत के अनुसार , व्यक्ति के पिछले जन्म के कार्यों के आधार पर इस जन्म के कर्म निर्धारित हुए हैं , अत : उनका पालन अनिवार्य है । फलस्वरूप व्यक्ति स्वेच्छा से अपने कर्म को निभाता है । फिर वर्ग व्यवस्था में अधिक – से – अधिक योग्यता बढ़ाने का व्यक्ति प्रयास करता है ताकि वह उच्च स्थिति को प्राप्त कर सके । ये दोनों ही स्थितियाँ सामाजिक प्रगति में सहायक होती है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक स्तरीकरण व्यक्ति व समूह दोनों ही स्तर पर अपने महत्त्व को दर्शाता है ।
आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक ( Helpful in Fulfilment ofNeeds ) : व्यक्तियों की अनेक आवश्यकताएँ होती हैं । कोई भी व्यक्ति अपनी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं नहीं कर सकता । सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था के द्वारा व्यक्तियों के कार्यों का विभाजन हो जाता है । प्रत्येक व्यक्ति अपने निश्चित कार्य को कुशलता से करके लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होता है ।
प्रस्थिति का निर्धारण ( Determination of Status ) : सामाजिक स्तरीकरण का एक खास महत्त्व यह है कि इसके द्वारा व्यक्तियों को समाज में उचित स्थान मिलता है जिसे उसकी प्रस्थिति कही जाती है । समाज में हर एक व्यक्ति की योग्यता , क्षमता एवं कार्य – कुशलता एक समान नहीं होती । एक स्वस्थ समाज के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति की योग्यता के अनुसार प्रस्थिति प्राप्त हो । इस आवश्यकता की पूर्ति सामाजिक स्तरीकरण द्वारा हो जाता है ।
वर्ग( Class )
ऐसे व्यक्तियों का समूह है जिनकी समान सामाजिक प्रस्थिति होती है । प्रत्येक समाज में अनेक प्रस्थितियाँ पाई जाती है । फलस्वरूप उनके अनुसार अनेक वर्ग भी पाए जाते हैं । जब जन्म के अतिरिक्त अन्य किसी आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में विभाजित किया जाता है तो प्रत्येक समूह को वर्ग कहा जाता है । कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं
मैक्ईवर एवं पेज ( Maclver and Page ) ने वर्ग को परिभाषित करते हुए लिखा है , ‘ सामाजिक वर्ग समुदाय का वह भाग है जो सामाजिक प्रस्थिति के आधार पर शेष भाग से पृथक होता है । ” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि वर्ग का आधार सामाजिक प्रस्थिति है । यानि एक समान प्रस्थिति के लोग एक वर्ग का निर्माण करते जो अन्य वर्गों से भिन्न होते हैं ।
गिन्सबर्ग ( Ginsberg ) के शब्दों में , ” वर्ग व्यक्तियों के ऐसे समूह को कहा जा सकता है जो व्यवसाय , धन , शिक्षा , जीवन – शैली , विचार , भाव , मनोवृत्ति और व्यवहार के आधार पर समान हो या इनमें से एक – दो ही आधारों पर उनमें समानता की चेतना हो जो उन्हें अपने एक समूह या वर्ग का बोध कराती हो । ” इस परिभाषा से तीन बातें स्पष्ट होती हैं वर्ग व्यक्तियों का एक समूह है , ( ii ) वर्ग – निर्माण के अनेक आधार हैं – व्यवसाय , धन , शिक्षा , जीवन – शैली व मनोवृत्ति आदि और ( iii ) वर्ग के लिए चेतना का होना , जिसे वर्ग चेतना कहा जाता है ।
मावर्स एवं एंगेल्स ( Marxand Engels ) ने लिखा है , ‘ विभिन्न व्यक्तियों के एक साथ मिलने से वर्ग तभी बनता है , जब वे एक वर्ग के रूप में दूसरे वर्ग के विरुद्ध संघर्ष करते हैं , अन्यथा वे परस्पर प्रतियोगी होने के नाते एक दत्तरे के विरोधी या दश्मन ही रहते हैं । ” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि वर्ग का आधार संघर्ष है । यानि बिना संघर्ष के टपणे की कल्पना नहीं की जा सकती । यह संघर्ष आर्थिक हितों के आधार पर होता है । उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर ऐसा कह सकते हैं – वर्ग व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो सामाजिक व तत्त्वों पर आधारित है और जिनमें वर्ग – चेतना के गुण होते हैं ।
वर्ग की विशेषताएँ ( Characteristics of Class )
निश्चित संस्तरण ( Definite Hierarchy ) – सामाजिक वर्ग कुछ श्रेणियों में विभक्त होते हैं । इनमें से कुछ श्रेणियों का स्थान ऊँचा और कुछ का नीचा होता है । जो उच्च वर्ग के सदस्य होते हैं उनके सदस्यों की संख्या तो सबसे कम होती है लेकिन प्रतिष्ठा सबसे अधिक होती है । इसके विपरीत जो निम्न वर्ग के सदस्य होते हैं उनके सदस्यों की संख्या तो अधिक होती है , लेकिन उनका महत्त्व और सम्मान सबसे कम होता है । इस प्रकार की स्थिति का यह स्वाभाविक परिणाम होता है कि उच्च वर्ग के सदस्य प्रायः निम्न वर्ग के सदस्यों से दर रहने में अपना गौरव समझते हैं । दूसरे शब्दों में , सामाजिक दूरी को नोति को प्रोत्साहन – मिलता है ।
अर्जित व्यवस्था ( Achieved System ) : वर्ग का आधार कर्म है । एक व्यक्ति अपने कर्म के बल पर धनी या गरीब , उद्योगपति या श्रमिक , विशेषज्ञ , प्राध्यापक , डॉक्टर , इंजीनियर या किसान हो सकता है । उसी के अनुसार उसका वर्ग बनता है । इस प्रकार वर्ग अर्जित की जाती है । इसे व्यक्ति अपने प्रयत्न से प्राप्त करता है ।
वर्ग – संघर्ष ( Class Conflict ) : इस विशेषता का उल्लेख मार्क्स ने किया है । मार्क्स का कहना है कि वर्गों के बीच संघर्ष ही वह तत्व है , जो समाज में वर्गों के अस्तित्व का बोध कराता है । संघर्ष के बिना वर्ग की कल्पना नहीं की जा सकती है और यह संघर्ष आर्थिक हितों के आधार पर होता है । इस प्रकार वर्ग की अवधारणा एवं विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट है कि वर्ग सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रचलित आधार है ।
संस्तरण ( Hierarchy ) : वर्ग की एक प्रमुख विशेषता ‘ संस्तरण ‘ कही जाती है । इसका अर्थ यह है कि समाज में वर्गों की एक श्रेणी होती है जिसमें उच्चतम से निम्नतम अनेक वर्ग होते हैं । इन वर्गों में स्पष्टत : उच्च एवं निम्न का संस्तरण देखा जाता है । इस संस्तरण के अनुसार ही पद , प्रतिष्ठा एवं सुविधाओं में भिन्नता देखी जाती है ।
ऊँच – नीच की भावना ( Feeling of Superiority – Inferiority ) : वर्गों में ऊँच – नीच की भावना देखी जाती है । एक वर्ग के सदस्य दसरे वर्गों के सदस्यों के प्रति उच्चता या निम्नता की भावना रखते हैं । उदाहरणस्वरूप धनी वर्ग एवं निर्धन वर्ग के बीच एक – दूसरे के प्रति यह भावना स्पष्ट रूप से देखी जाती है ।
सामान्य जीवन ( Common Life ) – समाज के विभिन्न वर्गों के सदस्य अपने – अपने विशेष ढंग से जीवन – यापन करते हैं । धनी वर्ग के जीवन – यापन का तरीका मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग से भिन्न होता है । धनी वर्ग अधिक से अधिक अपव्यय करने में अपनी शान समझता है । मध्यम वर्ग प्रायः रूढ़ियों और प्रथानों में जकड़ा रहता है तथा निम्न वर्ग का तरीका इन दोनों ही से बिलकुल भिन्न होता है ।
आर्थिक आधार की महत्ता ( Importance of Economic Basis ) माथिक स्थिति वर्ग – निर्माण का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है । आधुनिक समाज पूंजीवादी या प्रौद्योगिक है । इन समाजों में लिंग , प्रायु आदि वर्ग की सदस्यता से विशेष सम्बन्ध नहीं है । आर्थिक दृष्टि से समृद्धि या हीनता लोगों को उच्च वर्ग , मध्य और निम्न वर्ग में विभाजित करती रहती है ।
खुलापन और उतार चढ़ाव ( Openness and Shifting ) – वर्गों की प्रकृति खुली हुई होती है । इसका अभिप्राय : यह है कि यदि कोई व्यक्ति विशेष योग्य अथवा कार्यकुशल है तो वह किसी भी वर्ग की सदस्यता ग्रहण कर सकता है अथवा अलग – अलग प्राधारों पर एक साथ अनेक वर्गों का सदस्य हो सकता है । इसी स्थिति को दर्शाते हुए बोटोमोरे ने लिखा है कि ” सामाजिक वर्ग अपेक्षाकृत उन्मुक्त होते हैं अथवा नहीं , उनका प्राधार निर्विवाद रूप से आर्थिक है , लेकिन वे आर्थिक समूहों से अधिक हैं । ” सामाजिक वर्गों में उतार – चढ़ाव होते रहना भी सामान्य बात है । कोई भी गरीब व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बनकर धनी वर्ग में सम्मिलित हो सकता है । इसी प्रकार यदि किसी धनी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति एकदम गिर जाती है तो वह उस वर्ग से फिसल कर मध्यम अथवा निम्न वर्ग में जा सकता है । वर्गगत स्थिति में यह परिवर्तन आर्थिक स्थिति के अनुरूप अपने – अाप हो जाता है ।
अजित सदस्यता ( Achieved Membership ) सामाजिक वर्ग की उपरोक्त चौथी और पांचवी विशेषता से यह एक स्पष्ट है कि वर्ग की सदस्यता जन्म पर ही नहीं बल्कि को ग्यता , कुशलता और आर्थिक सम्पन्नता पर निर्भर करती है । वर्ग की सदस्यता के लिए व्यक्ति को प्रयत्नशील होना पड़ता है । यदि कोई व्यक्ति निम्न वर्ग का है तो उच्च वर्ग में प्रवेश के लिए उसे अपनी योग्यता सिद्ध करनी होगी । स्थायी रूप से व्यक्ति उसी वर्ग में रह पाता है जिसके अनुरूप उसमें योग्यता होती है ।
वर्गों की अनिवार्यता ( Essentiality of Classes ) – – – वर्गों की समाज में उपस्थिति अनिवार्य है । सभी व्यक्ति योग्यता , कार्यक्षमता , रुचि , बुद्धि प्रादि की दष्टि से समान नहीं होते । अत : यह स्वाभाविक है कि व्यक्तियों को उनकी । योग्यतानुसार पद और सम्मान मिले । ऐसा होने पर ही सामाजिक व्यवस्था स्थायी रूप से बनी रह सकती है । मार्क्सवाद में वर्गहीन समाज की कल्पना की गई है । लेकिन यह सुनिश्चित है कि इस प्रकार का समाज कभी स्थापित नहीं हो सकता । ।
कम स्थिरता ( Less Stability ) – धन , शिक्षा , व्यवसाय प्रांति र अस्थायी प्रकृति के होते हैं , अतः उन पर आधारित वर्ग – व्यवस्था भी एक स्थिर धारणा है । जो आज धनी है वह कल निर्धन हो सकता है ।
उप – वर्ग ( Sub – classes ) – सामाजिक वर्ग में प्रत्येक वर्ग के अन्तर्गत उप – वर्ग होते हैं । उदाहरणार्थ , धनी वर्ग में धन पर अधिकार के आधार पर पोटति – वर्ग . लखपति – वर्ग अनेक उप – वर्ग आदि विभिन्न उप – वर्ग पाए जाते हैं ।
जीवन अवसर ( Life Chances ) – मैक्स वेबर ने वर्ग की एक विशेषता ‘ जीवन अवसर ‘ ( Life Chance ) की ओर संकेत किया है । तद्नुसार , ” हम एक समूह को तब वर्ग कह सकते हैं जब उसके सदस्यों को जीवन के कुछ विशिष्ट अवसर समान रूप से प्राप्त हों । ”
वर्ग – परिस्थिति ( Class Situation ) – इस विशेषता की ओर भी , जो जीवन अवसर से सम्बन्धित है , मैक्स वेवर ने ही ध्यान आकर्षित किया है । किसी वर्ग के अधिकार में सम्पत्ति के होने अथवा न होने से एक विशिष्ट परिस्थिति का जन्म होता है जिसमें वर्ग निवास करता है । यदि वर्ग के सदस्यों के पास सम्पत्ति होती है तो स्वभावत : उसे अधिक धनोपार्जन , अधिक क्रय और उच्च जीवन – स्तर बनाए रखने प्रादि के अवसर प्राप्त होंगे । संयुक्त रूप में इन अवसरों से एक ऐसी विशिष्ट परिस्थिति का निर्माण होगा जिसमें उस वर्ग के सदस्यों को निवास करना होगा । यही वर्ग : परिस्थिति ( Class Situation ) है ।
समान जीवन – शैली ( Common Life Style ) : एक वर्ग के सदस्यों की जीवन – शैली में समानता देखी जाती है जो दूसरी तरफ अन्य वर्गों से भिन्न भी होता है । एक वर्ग के लोगों के कपड़े , खान – पान , मकान का स्वरूप , रहन – सहन एवं तौर – तरीकों में अधिकतर समानता होती है । साथ ही एक वर्ग के सदस्यों का पारिवारिक ब वैवाहिक सम्बन्ध भी अपने वर्ग – समूहों तक सीमित होते हैं ।
वर्ग – चेतना ( Class Conciousness ) : वर्ग – चेतना वर्ग की आधारभूत विशेषता है । इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वर्ग के सदस्यों में इसका बोध होता है कि उसका सामाजिक – आर्थिक – राजनीतिक पद व प्रतिष्ठा दूसरे वर्गों की तुलना में कैसी है । यही वह भावना जो एक वर्ग के सदस्यों को आपस में बांधे रखता है ।
सीमित सामाजिक सम्बन्ध ( Restricted Social Relations ) : एक वर्ग के सदस्यों का सामाजिक सम्बन्ध प्राय : अपने वर्ग तक ही सीमित होता है । इनका खाना – पीना , उठना – बैठना एवं अन्य अन्त : क्रियात्मक सम्बन्ध अपने वर्ग के लोगों के साथ होता है । साथ ही , ये अन्य वर्गों से एक निश्चित सामाजिक दुरी बनाए रखते हैं । यही सामाजिक सम्बन्धों की सीमितता है , जो वर्ग की एक खास विशेषता है ।
गतिशीलता ( Mobility ) : वर्ग की एक खास विशेषता गतिशीलता है । यह जन्म पर आधारित नहीं है , बल्कि यह योग्यता , क्षमता यानि कर्मशीलता पर आधारित है । फलस्वरूप एक निम्न वर्ग का सदस्य अपनी योग्यता व क्षमता के बल पर उच्च वर्ग में सम्मिलित हो सकता है । उसी तरह एक व्यक्ति असफलता के माध्यम से नीचे के वर्ग की ओर जा सकता है । इस प्रकार वर्गों की प्रकृति में खलापन है । (
जाति (Caste )
जाति शब्द अंग्रेजी शब्द ‘ कास्ट ‘ ( Caste ) का हिन्दी रूपान्तर है । इसका पहला उपयोग 1563 ई ० में ग्रेसिया डी ओर्टा ( Gracia de Orta ) ने किया था । उनके शब्दों में , “ लोग अपने पैतृक व्यवसाय को परिवर्तित नहीं करते हैं । इस प्रकार जूते बनाने वाले लोग एक ही प्रकार ( जाति ) के हैं । ” इसी अर्थ में अब्बे डुबायस ( Abbe Dubois ) ने इसे प्रयुक्त किया है । उनका मत है कि ‘ कास्ट ‘ शब्द यूरोप में किसी कबीले और वर्ग को व्यक्त करने के लिए उपयोग में लिया जाता रहा है । ए ० आर ० वाडिया ( A.R.Wadia ) का मत है कि ‘ कास्ट ‘ शब्द लैटिन भाषा के ‘ कास्टस ‘ ( castus ) से मिलता – जुलता शब्द है जिसका अर्थ विशुद्ध प्रजाति या नस्ल होता है । कुछ लोग इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘ कास्टा ‘ ( casta ) से मानते हैं जिसका अर्थ प्रजातीय तत्त्व , नस्ल , अथवा पैतृक गुणों से सम्पूर्ण है । हिन्दी का ‘ जाति ‘ शब्द संस्कृत भाषा की ‘ जन ‘ धातु से बना है जिसका अर्थ ‘ उत्पन्न होना ‘ व ‘ उत्पन्न करना है । इस दृष्टिकोण से जाति का अभिप्राय जन्म से समान गुण वाली वस्तुओं से है । परन्तु समाजशास्त्र में जाति ‘ शब्द का प्रयोग विशिष्ट अर्थों में किया जाता है । प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई जाति की परिभाषाएँ इस प्रकार हैं ( 1 ) रिजले ( Risley ) के अनुसार– ” यह परिवार या कई परिवारों का संकलन है जिसको एक सामान्य नाम दिया गया है , जो किसी काल्पनिक पुरुष या देवता से अपनी उत्पत्ति मानता है
जाति की अवधारणा या परिभाषा के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि मुख्यत : यह लोगों का एक ऐसा सबक है जिसकी सदस्यता आनुवंशिकता पर आधारित होती है । इसे जाति – संस्तरण में एक निश्चित स्थान प्राप्त होता है एक जाति स्वयं कोई समुदाय या समाज नहीं होती , बल्कि समुदाय या समाज का एक समूह होती है जिसका समाज एक पूर्व निर्धारित स्थान होता है तथा यह एक निश्चित व्यवसाय से सम्बन्धित होती है । कुछ महत्त्वपर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार है
हरबर्ट रिजले ( Herbert Risley ) ने जाति की परिभाषा देते हुए लिखा है , ” जाति परिवारों या परिवार के समहों संकलन है जिसका एक ही नाम होता है , जो एक काल्पनिक पूर्वज , जो मानव या देवता हो सकता है , से अपनी श – परम्परा की उत्पत्ति का दावा करता है , जो समान जन्मजात ( पुश्तैनी ) व्यवसाय को चलाता है और जिसे उन लोगों द्वारा एक सजातीय समुदाय माना जाता है जो इस तरह के निर्णय या मत देने के अधिकारी हैं । इस परिभाषा से 5 बातें स्पष्ट होती हैं – (i)जाति अनेक परिवारों का एक सामूहिक संगठन है , ( ii ) इसका एक नाम होता है , ( iii ) प्रत्येक जाति की एक काल्पनिक पूर्वज है , ( iv ) इसका एक निश्चित व्यवसाय होता है और ( v ) यह एक सजातीय समुदाय के रूप में जाना जाता है ।
मजुमदार एवं मदन ( D . N . Majumdar and T . N . Madan ) के अनुसार , ” जाति एक बन्द वर्ग है । इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि जाति जन्म पर आधारित है । अत : व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसी में अन्त तक रहना पड़ता है । किसी भी स्थिति में जाति की सदस्यता बदली नहीं जा सकती है । इसी माने में जाति बन्द वर्ग है ।
दत्ता ( N . K . Dutta ) ने जाति की अधिकतम विशेषताओं को समेटते हुए जाति को परिभाषित करते हुए लिखा है , ” जाति एक प्रकार का सामाजिक समूह है , जिसके सदस्य अपने जाति से बाहर विवाह नहीं करते , खान – पान पर प्रतिबन्ध , पेशे निश्चित होते हैं , संस्तरणात्मक विभाजन का पाया जाना , एक जाति से दूसरी जाति में परिवर्तन सम्भव नहीं है । इस परिभाषा से जाति का 6 विशेषताओं का पता चलता है – ( i ) जाति एक सामाजिक समूह है , ( ii ) जाति अन्तर्विवाही समूह है , ( iii ) जाति में खान – पान पर प्रतिबन्ध होते हैं , ( iv ) जाति का पेशा निश्चित होता है , ( v ) जातियों में ऊँच – नीच का स्तरीकरण पाया जाता है और ( vi ) जाति की सदस्यता में परिवर्तन सम्भव नहीं । इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति स्तरीकरण की अगतिशील एक ऐसी व्यवस्था है जो जन्म पर आधारित है एवं खान – पान विवाह , पेशा आदि पर प्रतिबन्ध लगाती है ।
जाति की विशेषताएँ
( Characteristics of Caste )
_ जी . एस . घुरिए ( G . S . Ghurye ) ने जाति की 6 विशेषताओं की चर्चा की है , जिसके आधार पर जाति को समझना अधिक उपयोगी बतलाया गया है । ये विशेषताएं निम्नलिखित हैं
समाज का खण्डनात्मक विभाजन ( Segmental Division of Society ) : जाति व्यवस्था समाज को कुछ निश्चित खण्डों में विभाजित करती है । प्रत्येक खण्ड के सदस्यों की स्थिति , पद और कार्य जन्म से निर्धारित होता है । तथा उनमें एक सामुदायिक भावना होती है । जातीय नियम का पालन नैतिक कर्तव्य होता है ।
संस्तरण ( Hierarchy ) : जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक जाति की स्थिति एक – टसरे की तलाश नाचा हाती है । इस संस्तरण में सबसे ऊपर ब्राह्मण है और सबसनाचे अस्पृश्य जातियां हैं । इन दो लोग बीन जातिया है । इतना ही नहीं . एक जाति के अन्दर अनेक उपजातिया है तथा उनमें भी ऊंच – नीच का
व्यवसाय की आनुवंशिक प्रकृति ( Hereditary Nature of Occupation ) : व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धार जाति – व्यवसाय के आधार पर होता है । अतः एक व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसे उसी जाति का व्यक अपनाना होता है । इसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की गुंजाइश नहीं होती । इस प्रकार कहा जा सकता है कि जाति प्रमुख विशेषता परम्परागत व्यवसाय है ।
अन्तर्विवाही ( Endogamous ) : जाति – व्यवस्था के अनुसार जाति के सदस्य अपनी ही जाति या उपजाति , विवाह – सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं । इस नियम का उल्लंघन करने का साहस प्राय : कोई नहीं करता । वेस्टरमार्क ने विशेषता को ‘ जाति – व्यवस्था का सारतत्व ‘ माना है । अन्तर्विवाही नियम आज भी जातियों में पाई जाती है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज में जाति – व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण का एक स्पष्ट एवं महत्त्वपूर्ण आधार रहा है ।
भोजन तथा सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध ( Restrictions on Fooding and Social IntereCHISE ) : जाति – व्यवस्था में खान – पान मेल – जोल एवं सामाजिक सम्पर्क सम्बन्धी प्रतिबन्ध है । प्रायः एक जाति के व्यकित निम्न जातियों के हाथ का भोजन नहीं स्वीकार करते । साथ ही कच्चा व पक्का भाजन सम्बन्धी अनेक प्रतिबन्ध देखे जाते है । इसी तरह सामाजिक सम्पर्क एवं मेल – जोल के सन्दर्भ में छुआछूत की भावना पाई जाती है ।
सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यताएँ ( Social and Religious Disabilities ) : जाति – व्यवस्था में चिनारों मार सावधाओं में विशेष अन्तर देखा जाता है । एक ओर उच्च जाति को जितनी सुविधाएं एवं अधिकार जीवन के क्षत्रों में प्राप्त हैं उतनी निम्न जातियों को नहीं । सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में ब्राह्मण अनेक अधिकारों से पूर्ण है । वहीं अस्पृश्य जातियों को सार्वजनिक सुविधाओं व अधिकारों तक से वंचित रखा जाता है । कर भी ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी झलक देखी जाती है ।
प्रजाति ( Race)
प्रजाति एक जैविकीय धारणा है । प्रत्येक प्रजाति के सदस्यों की अपनी शारीरिक लक्षण होते हैं । ये लक्षण मूल रूप से वंशानुगत होते हैं । इन्हीं लक्षणों के आधार पर एक प्रजाति को दूसरी प्रजातियों से अलग कर सकते हैं । कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्न हैं
ए . एल . क्रोबर ( A . L . Kroeber ) ने प्रजाति को परिभाषित करते हुए लिखा है , ” प्रजाति एक प्रमाणित , प्राणिशास्त्रीय प्रत्यय है । यह एक समूह है जो आनुवंशिकता , वंश या प्रजातीय गुण या उपजाति के द्वारा सम्बन्धित है । “इस परिभाषा से स्पष्ट है – ( 1 ) प्रजाति प्राणिशास्त्रीय अर्थों में प्रयोग किया जाता है । ( 2 ) यह जन्म से उत्पन्न शारीरिक लक्षणों व विशेषताओं से सम्बन्धित होता है ।
जे . बीसंज एवं एम . बीसज ( J . Biesanz and M . Biesanz ) ने लिखा है , ” प्रजाति उन व्यक्तियों का एक बड़ा समूह होता है जो जन्मजात शारीरिक लक्षणों द्वारा पहचाने जाते हैं । “इस कथन से स्पष्ट हैं – ( 1 ) प्रत्येक प्रजाति के कुछ विशिष्ट शारीरिक लक्षण होते हैं । ( 2 ) ये विशिष्ट शारीरिक लक्षण एक बड़े समूह में पाये जाने पर उस समूह को प्रजाति कहेंगे ।
ई . ए . हॉबल ( E . A . Hoebel ) के शब्दों में , ” प्रजाति एक स्वाभाविक प्राणिशास्त्रीय समूह है जो विशिष्ट शारीरिक लक्षणों का स्वामी होता है । ये लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में शुद्ध रूप से मिलते रहते हैं । ” इससे स्पष्ट होता है – ( 1 ) प्रजाति एक प्राणिशास्त्रीय समूह है । ( 2 ) एक प्रजातीय समूह विशिष्ट शारीरिक लक्षणों के मालिक होते हैं । ( 3 ) ये लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को मिलते रहते है । । उपरोक्त वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रजाति एक ऐसा वहत मानव समह है जिसके सदस्यों में कुछ समान शारीरिक विशेषताएं पाई जाती हैं । ये विशेषताएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संचरित होती रहती हैं और इसका आधार पर एक प्रजातीय समूह को दूसरों से पृथक किया जा सकता है ।
प्रजाति की विशेषताएँ ( Characteristics of Race )
एक विशिष्ट शारीरिक प्रारूप ( A Particular Physical Type ) : एक प्रजाति के कुछ विशिष्ट शारीरिक लक्षण या विशेषताएं सामान्य होती हैं । इसका तात्पर्य यह नहीं कि एक प्रजाति के सदस्यों की सभी शारीरिक विशेषताएं एक – दूसरे बिल्कल समान होती है । सामान्य शारीरिक लक्षणों का अर्थ केवल अपनी प्रजाति के ‘ शारीरिक प्रारूप से मिलत – जुलत होता है । शारीरिक प्रारूप के आधार पर एक प्रजाति को दूसरे से अलग किया जा सकता है ।
आनुवंशिक लक्षणों का संचरण ( Transmission of Inherited Traits ) : एक प्रजाति के शारीरिक लक्षण या विशेषताएं वंशानुक्रम की प्रक्रिया के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होते रहते हैं । प्रजाति के लक्षणों को हस्तान्तरित करने में वाहकाणु ( Genes ) का बड़ा महत्त्व होता है । जिनके वाहकणुओं में साम्य है वे एक प्रजाति के होंगे ।
समूह का बड़ा आकार ( Large Size of Group ) : प्रजाति एक वृहत मानव समूह है । इसके सदस्य किसी एक छोटे से क्षेत्र में न रहकर एक विस्तृत भू – भाग में फैले हुए होते हैं । इस प्रकार सामान्य शारीरिक लक्षण या विशेषताएं एक विशाल जन – समूह में पाए जाने पर ही उस समूह को प्रजाति कहेंगे । इसके सदस्यों की संख्या करोड़ों तक हो सकती है ।
प्रजाति अन्तर्विवाह ( Race Endogamy ) : प्रत्येक प्रजाति अपनी ही प्रजाति के सदस्यों से विवाह करने की नीति को अपनाती है । इस कारण उनकी संतानों में वही शारीरिक लक्षण पाए जाते हैं , जो उस समूह के होते हैं । अन्तर्विवाह के द्वारा प्रत्येक समूह अपनी प्रगति की बाह्य प्रभावों से रक्षा भी करता है तथा इसी नीति के द्वारा अन्य प्रजातियों से रक्त का मिश्रण होने की सम्भावना को कम करने का प्रयत्न किया जाता है ।
स्तरीकरण ( Stratification ) : प्रजातीय भिन्नता के आधार पर समाज में ऊँच नीच का स्तरीकरण देखा जाता है । ऐसी मान्यता है कि प्रजातियों में श्रेष्ठ श्वेत प्रजाति ( कालेशियन ) है क्योंकि इसका रंग सफेद , रक्त उच्च स्तर का , उच्च मानसिक योग्यता एवं सभ्यता के प्रसारक हैं । इसके बाद पीत प्रजाति ( मंगोलॉयड ) एवं सबसे नीचे श्याम प्रजाति ( नीग्रोयॉड ) है ।
जैविकीय धारणा ( Biological Concept ) प्रजाति एक जैविकीय धारणा है । इसे आनुवंशिकता से घनिष्ठ रूप । से सम्बद्ध माना गया है । मेरिल ( Merrill ) ने लिखा है , ” प्रजाति एक जैविकीय शब्द है जो एक वृहत मानव समूह की । शारीरिक समानताओं की ओर संकेत करता है जो आनुवंशिकता के द्वारा संचरित होती रहती है ।
लिंग एवं स्तरीकरण ( Gender and Stratification )
सामाजिक स्तरीकरण का सबसे प्राचीन आधार लिंग – भेद ( Gender Discrimination ) है । स्त्री और पुरुष मानव समाज की आधारशिला है । किसी एक के अभाव में समाज की कल्पना नहीं की जा सकती । इसके बावजूद अधिकांश समाजों में पुरुषों की स्थिति स्त्रियों की तुलना में ऊँची मानी जाती है । जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जितनी अधिक सुविधाएँ एवं स्वतंत्रता पुरुषों को प्राप्त है , उतनी स्त्रियों को नहीं । स्त्रियों का मूल कार्य प्रजनन , घर की देखभाल और पुरुषों के अधीन रहना माना गया ।
जब किसी समाज में लिंग ( Sex ) के आधार पर ऊँच – नीच की स्थिति प्रदान की जाती है , तब इस दशा को लैंगिक असामनता के नाम से जाना जाता है । भारतीय समाज में प्रारंभ से ही समूह के रूप में स्त्रियों पर पुरुषों ने प्रभुत्व जमाया है तथा परिवार व समाज में उनकी स्थिति निम्न रखी है । लैंगिक असमानता की समस्या मूल रूप से स्त्रियों से सम्बन्धित समस्या है । सैद्धांतिक दृष्टि से भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया है , परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से उनके साथ भेदभावपर्ण रवैया तथा उनका तिरस्कार . अपमान व प्रताड़ना आज भी जारी है । अब भी उनका मत जानने के लिए गम्भीरता नहीं दर्शाई जाती , उन्हें पुरुषों के समान नहीं समझा जाता तथा उनको उचित सम्मान नहीं दिया जाता । यही लैंगिक असमानता है । स्त्री – पुरुषों के सम्बन्धों में , सबल व्यक्तित्व वाला व्यक्ति ही प्रभावशाली स्थिति प्राप्त करता है । सामान्य रूप से , पुरुष स्त्री पर आज्ञा देने का अधिकार समझता है , यद्यपि कछ मामलों में स्त्री भी पुरुष के ऊपर नियंत्रण रखने की स्थिति म रहती है । भारत में प्रारंभ से ही स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के समान नहीं रही , बल्कि निम्न रही । पारिवारिक व सामाजिक निर्णयों में उनकी सहभागिता कम पाई जाती है ।
बैज्ञानिकों ने लैंगिक असमानता की व्याख्या विभिन्न उपागमों के माध्यम से किया है । जैसे – जीवशास्त्रियों का मानना है कि जैविकीय दृष्टि से तुलनात्मक रूप में स्त्रियों में बुद्धि व शक्ति की कमी होती है । इसीलिए स्त्रिया पुरुषों के अधीन होती हैं तथा वे पुरुषों के समान स्थिति प्राप्त नहीं कर पातीं । मानवशास्त्रियों का मानना है कि सामाजिक उद्विकास का प्रारंभिक रूप पितृसत्तात्मक था । परिवार में पुरुषों का आधिपत्य रहा । स्त्रियों पुरुषों के अधीन रही यहीं लैंगिक असमानता आज भी है । मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से स्त्रियों पुरुषों से कमजोर होती हैं । फलस्वरूप परिवार व समाज में उनकी स्थिति पुरुषों की तुलना में निम्न होती है तथा उनका पुरुषों के अधीन रहना स्वाभाविक होता है । समाजशास्त्रियों का मानना है कि स्त्रियों की स्थिति पुरुषों की तुलना में कम होना समाज व संस्कृति की देन है । हमारी सोच व व्यवहार सामाजिक मूल्यों व प्रतिमानों से निर्धारित होता है । सामाजिक मूल्य प्रतिमान पुरुषों को विशेष महत्ता प्रदान करते हैं । यही कारण है कि स्त्रियों की स्थिति पुरुषों से निम्न होती है । फलस्वरूप लैंगिक असमानता जैसी समस्या विकसित हुई । इस प्रकार कहा जा सकता है कि जब लिंग के आधार पर स्त्रियों को पुरुषों के अधीन मानकर उनकी स्थिति का निर्धारण होता है , तब इसे लैंगिक असमानता के नाम से जाना जाता है ।
लैंगिक असमानता की समस्याएँ ( Problems of gender Inequality )
आर्थिक निर्भरता ( Economic Dependency ) : लैंगिक असमानता की एक प्रमुख समस्या स्त्रियों का पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता है । पुरुष अपनी आय को अपनी इच्छा से खर्च कर सकता है । स्त्रियाँ एक ओर आर्थिक रूप में पुरुषों पर निर्भर होती हैं । फलस्वरूप अपनी इच्छा से वह अपने पति की आय को खर्च नहीं कर सकतीं । दूसरी ओर जो स्त्रिया , आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं , वे भी विवाह – पूर्व माता – पिता व विवाह – पश्चात पति की इच्छानुसार ही खर्च करती हैं ।
भूमिका संघर्ष ( Role Conflict ) : लैंगिक असमानता की एक प्रमुख समस्या स्त्रियों से जुड़ी भूमिका संघर्ष की है । आज की कामकाजी स्त्रियाँ 8 – 10 घंटे दफ्तर या अन्य स्थानों में कार्यशील रहती हैं , जिससे उन्हें असंख्य समस्या का सामना करना पड़ता है । घर के जीवन का समायोजन दफ्तर की दिनचर्या से करना होता है , फिर घर के कामकाज व परम्परागत दिनचर्या से भिन्न बिन्दुओं पर व्यवस्थित करना होता है । इससे भूमिका संघर्ष की समस्या पैदा हो जाती है ।
सम्पत्ति अधिकार की समस्या ( Problem Regarding Property Right ) : लैंगिक असमानता की एक प्रमुख समस्या स्त्रिया से जुड़ी सम्पत्ति अधिकार की है । वैधानिक रूप में माता – पिता की सम्पत्ति में पुत्री का , पति की सम्पत्ति में पत्नी का व पुत्र की सम्पत्ति में माँ का अधिकार होता है . लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं है । आज भी माता – पिता की सम्पत्ति उनके पुत्रों में बँटती है । मानसिक तौर पर पत्री भी अपना अधिकार नहीं मानती । ग्रामीण क्षेत्रों में तो इन अधिकारों की जानकारी भी कम ही स्त्रियों को होती है ।
राजनीतिक असमानता ( PoliticalInequalitv ) : लैंगिक असमानता की एक प्रमुख समस्या स्त्रियों की राजनीतिक सहभागिता में देखा जाता है । अधिकांश स्त्रियाँ अपने पति या परिवार के अन्य पुरुषों के इच्छानुसार ही इच्छित व्यक्ति को वोट डालती हैं । स्त्रियों की सहभागिता राजनीतिक क्षेत्र में कम है । पंचायती राज व्यवस्था के अनुसार आरक्षित स्थान पर जो स्त्रियाँ निर्वाचित हुई हैं , उनके द्वारा लिए गए निर्णयों पर उनके पति या अन्य पुरुष सदस्यों का प्रभाव देखा जाता है ।
वैवाहिक असमानता ( Marital Inequality ) : स्त्री व पुरुष विवाह प्रक्रिया के माध्यम से पारिवारिक जीवन में प्रवेश करता है । लेकिन विवाह प्रक्रिया में दोनों के बीच स्पष्ट असमानता है । परम्परा से चली आ रही आज भी जीवन – साथी के चुनाव में जितनी स्वतंत्रता लड़कों को है , उतनी लड़कियों को प्राप्त नहीं है । आज भी लड़की की ओर से लड़कों को दहेज देने की प्रथा है ।
परिवार में असमानता ( Inequality in Family ) : परिवार में स्त्री – पुरुष के बीच असमानता के रूप स्पष्ट रूप से देखे जा सकते है । परिवार के अन्दर – खाना – पीना , साफ – सुथरा , अतिथि सत्कार आदि – के दायित्वों को पूरा करने की जिम्मेदारी सिर्फ स्त्रियों की मानी जाती है । घरेलू हिंसा – दहेज सम्बन्धी मृत्यु , पत्नी को पीटना , लैंगिक दुर्व्यवहार , विधवाओं व वृद्धों के साथ दुर्व्यवहार , आदि – असमानता का ही परिणाम है ।
शैक्षणिक असमानता ( Educational Inequality ) : यद्यपि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्त्रियों की शिक्षा में काफी बढ़ोत्तरी देखी जाती है , लेकिन जितनी जागरूकता लड़कों की शिक्षा के सन्दर्भ में देखी जाती है , उतनी लड़कियों के सन्दर्भ में नहीं । जहां लड़कों को सभी तरह की शिक्षा के लिए छूट है , वहीं लड़कियों के सन्दर्भ में एक खास तरह की शिक्षा दिए जाने की बात की जाती है । आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों के सन्दर्भ में एक खास तरह की शिक्षा देने की बात की जाती है । आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा का प्रतिशत निम्न है ।
सामाजिक हिंसा ( Social – Violence ) : स्त्रियों के साथ जो शोषण व हिंसा हो रही है , यह मूलत : असमानता का द्योतक है । आज समाज में पत्नी , पुत्री , पुत्रवधू को मादा भ्रूण ( FemaleFoeticide ) की हत्या के लिए बाध्य करना , महिलाओं से छेड़छाड़ , सम्पत्ति में महिलाओं को हिस्सा देने में इंकार करना , पुत्र – वधू को दहेज लाने के लिए सताना , वरिष्ठ अफसरों द्वारा कनिष्ठ कामकाजी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार आदि घटनाएं आम हैं
सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप ( Forms of Stratification )
स्तरीकरण असमानता का वह स्वरूप है जिसमें समाज के सदस्य ऊँचे – नीचे पदों या स्थितियों में विभाजित रहते हैं । स्थिति की यह ऊँचाई – नीचाई जिन आधारों से निर्धारित होती है ये ही स्तरीकरण के स्वरूप या प्रकार को भी निश्चित करते हैं । स्तरीकरण के दो मौलिक स्वरूपों का उल्लेख प्रारम्भिक समाज वैज्ञानिकों ने किया है । स्तरीकरण का एक स्वरूप प्रादर्शात्मक ( Normative ) होता है और दूसरा यथार्थवादी ( Realistic ) या वास्तविक । प्रादर्शात्मक स्तरीकरण का सम्बन्ध स्तरों की प्रकृति से है , जैसे मुक्त स्तरीकरण और प्रतिबन्धित स्तरीकरण अथवा प्रदत्त स्थिति और अजित स्थिति के आदर्श अथवा स्तरीकरण की संस्थागत मात्रा और स्वरूप । वास्तविक स्तरीकरण उन कारकों के साथ सम्बन्धित हैं जिनके आधार पर समाज के सदस्यों में स्तरीकरण होता है , जैसे आर्थिक स्तरीकरण , स्थिति सोपान कम या शक्ति स्तरीकरण । स्तरीकरण के स्वरूपों की द्विविध व्याख्या अत्यन्त प्राचीन है जिनके द्वारा समाज के सदस्यों को दो ऊँचे – नीचे समूहों में बाँटा जाता है जैसे विशिष्ट और सामान्य , श्रेष्ठजन ( Elite ) और सामान्य जन ( Masses ) , स्वाधीन और पराधीन , अमीर और गरीब , शासक और शासित तथा उत्पादक और अनुत्पादक समूह । आधुनिक युग में स्तरीकरण का त्रिवर्गीय स्वरूप प्रचलित है जिसमें उच्च वर्ग , मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग होते हैं । समाजशास्त्रियों ने मुख्य रूप से स्तरीकरण के निम्नलिखित पाँच स्वरूपों का उल्लेख किया है
1 . दासता ( Slavery ) – दासता स्तरीकरण का वह स्वरूप है जिस में समाज दो वर्गों में विभाजित होता है जिन्हें स्वामी तथा दास कहा जाता है । किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के द्वारा प्रथा या प्रचलन के रूप में अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों को दास के रूप में रखना स्तरीकरण के दासता – स्वरूप को व्यक्त करता है । दास स्वामी की सम्पत्ति होते हैं । स्वामियों में भी दास रखने की क्षमता और दासों की संख्या के आधार पर स्तरीकरण होता था । दास भी कार्य की प्रकृति के आधार पर ऊँची – नीची स्थितियों को प्राप्त करते थे । घरेलू दास और क्षेत्र दास ( Field Slaves ) में स्थिति की भिन्नता होती थी । दासता के दो प्रमुख उदाहरण मानव इतिहास में मिलते हैं । प्राचीन दासता जो यूनान और रोम के समाजों में प्रचलित थी , दासता का बहुचर्चित स्वरूप था । दासता का दूसरा स्वरूप संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिण भाग में विगत दी । शताब्दियों में प्रचलित रहा है । चीन में भी दासता घरेल दास व्यवस्था के रूप में प्रचलित रही है , किन्तु यहाँ दास को उस सीमा तक निजी सम्पत्ति के रूप में नहीं समझा जाता था जिस सीमा तक उसे रोम में समझा जाता था ।
2 . एस्टेट ( Estate ) – एस्टेट सामाजिक स्तरीकरण का वह स्वरूप है जो दासता के पश्चात् सामन्तवादी युग में विकसित हुआ । एस्टेट एक राजनीतिक अवधारणा भी है और एक सामाजिक स्थिति का प्रतीक शब्द भी है । राजनीतिक क्षेत्र में विशिष्ट अधिकारों से युक्त समूह को एस्टेट या जागीरदारी कहा जाता है । दूसरी ओर जागीर या एस्टेट जनसंख्या का वह भाग है जिसे स्तरीकरण में उच्च स्थान प्राप्त है और विशेष सामाजिक अधिकार और सुविधाएँ प्राप्त होती हैं । इन अधिकारों और सुविधाओं को कानूनी अभिमति प्राप्त होती है । एस्टेट व्यवस्था के अन्तर्गत सामन्तवादी समाज तीन ऊंचे – नीचे समूहों में विभाजित था । सामाजिक स्तरीकरण में प्रथम स्थान पुजारियों का था जो पूजा – पाठ करते थे । दूसरे स्थान पर भद्र पुरुष या कुलीन व्यक्ति थे जो युद्ध इत्यादि के समय सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाते थे , और तीसरे स्थान पर श्रम करने वाले सामान्य लोग थे । एस्टेट के आधार जन्म और सम्पत्ति थे । स्तरीकरण का एस्टेट स्वरूप ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त में प्रारम्भ हुआ जब अनेक दास स्वतन्त्र हो रहे थे । इन्हें कुलीन लोग अपने समूह में शामिल करने को तैयार नहीं थे । इस कुलीन की परिभाषा धन , सत्ता और सामाजिक आदतों से सम्बन्धित हो गई । कुलीन वर्ग एक प्रकार से स्वामी वर्ग बन गया और श्रम करने वाले उसके अधीन हो गए । सैनिक वृति ने उसके स्वभाव को भी आदेशात्मकता से परिपूर्ण बना दिया । विशिष्ट जीवन शैली उसकी पहचान बन गई । वह सामान्य जनता से अलग ग्रामीण क्षेत्र में रहता था पर खेती नहीं करता था । कुलीन समूह के वंशज विशेष सुविधाओं के पात्र हो गए । भारत में वह एस्टेट प्रथा के साथ जुड़ गई । यहाँ विलासी और श्रमिक समूहों का निर्माण नहीं हुआ बल्कि ग्रामीण कृषि पर आधारित स्तरीकरण का यह स्वरूप आर्थिक और सैनिक प्रकृति का था । यहाँ यूरोप का सामन्तवादी स्वरूप नहीं था , और न उसकी शोषणवादी व्यवस्था थी । एस्टेट प्रथा भी कानून पर आधारित थी । संक्षेप में एस्टेट एक प्रतिबन्धित स्तरीकरण का रूप था । स्तरीकरण के नियमों की प्रथा तथा परम्परा का समर्थन प्राप्त था और औपचारिक कानून भी इन नियमों और प्रादर्शों में सहायक थे ।
3 . जाति ( Caste ) – हिन्दुस्तान में सामाजिक जीवन और चिन्तन की दिशा जाति – प्रथा से निश्चित होती रही है । भारतीय सामाजिक संरचना के विशिष्ट लक्षणों से युक्त जाति – प्रथा स्तरीकरण का एक कठोर स्वरूप है जिसका उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता । यह प्रतिबन्धित स्तरीकरण का वह स्वरूप है जिसमें जन्म के साथ व्यक्ति की स्थिति निर्धारित हो जाती है और वह जीवनपर्यन्त उसी स्थिति में रहता है । धन का अनन्त कोष , अथवा प्रतिभा की प्रखरता उसकी स्थिति को नहीं बदल सकते । जाति के साथ धार्मिक अभिमति जुड़ गई है । जाति की व्याख्या एक कठोर वर्ग के रूप में भी की गई है और एक स्थिति समूह के रूप में भी । यद्यपि जाति प्रथा एक अपरिवर्तनीय स्थायी व्यवस्था प्रतीत होती है , फिर भी यह गतिशील तथ्य है । स्तरीकरण का यह भारतीय स्वरूप परिस्थितियों के साथ अनुकूलन है । प्रजातान्त्रिक प्रणाली के विकास ने अनेक परिवर्तन किए हैं । इसके सांस्कतिक स्वरूप में परिवर्तन हो रहा है और पद – सोपान – क्रम में भी परिवर्तन हो रहे हैं । जाति जन्मजात समूह है जिसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता । यह अन्तविवाही समूह भी है । जातियों के व्यवसाय पूर्व – निश्चित होते हैं और उन्हें नहीं जा सकता । खान – पान के प्रतिबन्धित और सामाजिक सम्पर्क या परिसीमन जाति प्रथा को अत्यन्त प्रतिबन्धित स्तरीकरण का स्वरूप बना देते हैं । न प्रतिबन्धों के कारण मध्यकाल तक पाते – पाते निम्न जातियों की निर्योग्यतामों का विकास हो गया और वे उच्च जातियों के शोषण का शिकार हो गई । उन्हें पशुओं से भी बदतर समझा जाने लगा । स्वतन्त्र भारत में प्रौद्योगीकरण , नगरी करण , लौकिकीकरण , संस्कृतिकरण , प्रजातन्त्रीकरण और पश्चिमीकरण आदि की प्रक्रियाओं ने जाति प्रथा में अनेक परिवर्तन किए हैं , किन्तु इन परिवर्तनों से जातीय स्तरीकरण का मौलिक स्वरूप नहीं बदला है । विभिन्न जातियों की स्थितियों में परिवर्तन हना है किन्तु स्थिति सोपान की निरन्तरता और जाति – सदस्यता के आधारों में परिवर्तन नहीं हुआ है । अनेकों धार्मिक और राजनीतिक विरोधों के सामने जातीय स्तरीकरण विद्यमान है ।
4 . वर्ग ( Class ) – सामाजिक वर्ग स्तरीकरण का वह प्रकार है जो अाधुनिक युग में अधिक प्रचलित है । वर्ग ऊँची – नीची स्थिति वाले आर्थिक समूहों के रूप में समझे जा सकते हैं जिन्हें कोई धार्मिक या कानूनी अभिमति प्राप्त नहीं होती । वर्ग स्तरीकर ण का मुक्त स्वरूप है । वर्ग के सदस्य अपनी स्थिति के अनुसार अन्य समूहों को ऊंचा या नीचा समझ कर व्यवहार करते हैं । वर्ग चेतना वर्ग का विशेष लक्षण है । मार्क्स ने सामाजिक स्तरीकरण में दो वर्गों को मान्यता दी है । बुर्जुवा वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है । वह शासक भी होता है और शोषक भी । यह उच्च वर्ग होता है । सर्वहारा वर्ग श्रम करता है , शोषित और निर्धन है । मार्स वैबर ने भी सम्पत्तिवान और सम्पत्तिहीन , दो वर्गों में समाज का विभाजन किया है । वर्ग आधुनिक समाज में स्तरीकरण का विशिष्ट स्वरूप है । आर्थिक स्थिति वर्ग – निर्धारण का मुख्य प्राधार है । अतः सम्पत्ति , प्राय और व्यवसाय वर्ग की अवधारणा के साथ विशेष रूप से जुड़ गए हैं । अमरीका आदि कुछ क्षेत्रों में प्रजाति वर्ग निर्धारण में सहायक तत्त्व हो गया है । एक वर्ग के सदस्य समान जीवन शैली रखते हैं और जीवन में उन्नति के अवसर भी उनके लिए समान ही होते हैं । योग्यता , परिश्रम और आकांक्षा वर्ग – परिवर्तन के अवसर प्रदान करते हैं । अाधुनिक वर्ग स्तरीकरण में उच्च , मध्यम और निम्न , ये तीन सवे प्रचलित वर्ग हैं । प्रजातान्त्रिक देशों में वर्ग महत्त्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका अदा करते हैं । सर्वसत्तावादी संरचनामों में राजनीतिक वर्गों का विकास हो गया है ।
5 , स्थिति समूह ( Status Groups ) – आधुनिक समाजों में उपभाग स्तरीकरण का मुख्य प्राधार बन गया है । मैक्स वेबर ने उपभोग की मात्रा को प्राधार मानकर ऊंचे – नीचे सामाजिक स्तर का निर्धारण करने का प्रयत्न किया है । अधिक खर्च करने वाले लोग उच्च स्थिति में होते हैं । संक्षेप में सामाजिक स्तरीकरण के निम्नलिखित स्वरूपों की व्याख्या की
आर्थिक स्तरीकरण ( Economic Stratification ) – धार्मिक स्तरीकरण का प्राधार धन – सम्पत्ति और आमदनी है । व्यक्ति की नाथिक स्थिति सदैव एक – सी नहीं रहती । इसमें उतार – चढ़ाव , पाने रहते हैं 12 उतार – चढ़ाव सम्पूर्ण समूह की प्रार्थिक स्थिति को भी परिवर्तित कर सकता है अगर समूह के अन्तर्गत विभिन्न वर्गों की आर्थिक स्थितियों को भी बदल सकता है । प्रत्येक समूह की औसत सम्पत्ति और प्राय अलग – अलग होती है जो समय – समय पर घटती बढ़ती है । आर्थिक स्थिति अर्थात् सम्पत्ति और आमदनी के नाधार पर समाज के विभिन्न सदस्यों और समूहों को ऊँचा – नीचा मानना आर्थिक स्तरीकरण है ।
राजनीतिक स्तरीकरण ( Political Stratification ) जनसंख्या के विस्तार और सभ्यता के विकास के कारण समाज अत्यन्त जटिल हो गए हैं । प्राचीन समाज छोटे और सरल समाज थे । अतः उस में राजनीतिक आधार पर लोग ऊंचे या नीचे न थे । राजा , मुखिया या सरदार ही सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति था और शेष सब उसके अधीन थे । आधुनिक युग में विभिन्न प्रकार की राजनीतिक संरचनाओं का विकास हो गया है जिसके अन्तर्गत राजनीतिक स्थितियों का विभाजन होने लगा है । प्रजातन्त्र में राष्ट्रपति , प्रधान मन्त्री , आदि अनेक स्थितियों का सोपान क्रम बन गया है । राजनीतिक परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं जिसके फलस्वरूप राजनीतिक स्तरीकरण भी बदल जाता है । किसी राजनीतिक संगठन के आकार के चढ़ने – घटने से स्तरीकरण भी बदल जाता है । यदि उसके सदस्यों में भिन्नता बढ़ जाती है तो स्तरीकरण में विस्तार हो जाता है और भिन्नता घट जाती है तो स्तरीकरण संकुचित हो जाता है । युद्ध , क्रान्ति अथवा विद्रोह की अवस्था में भी उलट – फेर हो जाता है । विरोधी राजनीतिक शक्तियाँ भी सामाजिक स्तरीकरण को प्रभावित करती हैं ।
व्यावसायिक स्तरीकरण ( Occupational Stratification ) सारोकिन ने दो प्रकार का व्यावसायिक स्तरीकरण बताया है । अन्त : व्यावसायिक स्तरीकरण वह होता है जिसमें एक ही व्यवसाय में लगे व्यक्तियों की स्थितियों में असमानता होती है । सबसे ऊँची स्थिति में वे लोग होते हैं जो व्यवसायों के मालिक , व्यवस्थापक प्रादि होते हैं और कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखते हैं । दूसरी स्थिति प्रवन्धकों या अन्य उच्चाधिकारियों की होती है , जो स्वयं मालिक न होते हुए भी महत्त्वपूर्ण अधिकार सम्पन्न व्यक्ति होते हैं । अन्तिम स्तर पर वेतन भोगी साधारण कर्मचारी और श्रमिक होते हैं । सामान्यतः प्रायिक , व्यावसाधिक और राजनीतिक स्तराकरण परस्पर एक – दूसरे को प्रभावित करते हैं । जो व्यक्ति एक क्षेत्र में ऊचा स्थिति पर होता है , वह अन्य क्षेत्रों में भी ऊँची स्थिति प्राप्त कर लेता है ।
4 . अन्य प्रकार ( Other Types ) – प्राधुनिक युग में शिक्षा , कला आदि के प्राधार पर समाज के
सदस्यों की स्थितियों में असमानता पा जाती है । प्रजाति भी स्तरीकरण का मुख्य स्वरूप रहा है । स्तरीकरण में जातीय स्वरूप और al स्वरूप विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इस प्रकार सामाजिक स्तरीकरण अनेक स्वरूपों में प्रकट होता है । समाजशास्त्रियों के अनुसार मानवीय इतिहास के विभिन्न युगों में सामाजिक स्तरीकरण के विशिष्ट स्वरूपों का विकास हुआ है । प्राचीन काल में दास प्रथा स्तरीकरण का स्वरूप थी तो सामन्त युग में एस्टेट प्रथा का विकास हुना । भारतीय समाज में स्तरीकरण का प्रमुख स्वरूप जाति रही है और प्राधुनिक जगत में स्तरीकरण के प्रमुख स्वरूप के रूप में वर्ग प्रथा को मान्यता प्राप्त हुई है । भारत में सामाजिक स्तरीकरण के उपयुक्त स्वरूपों में से दो स्वरूप अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं अतः हम यहाँ उनकी विस्तार से विवेचना करेंगे – – 1 . जाति – प्रथा ( Caste System ) 2 . वर्ग – व्यवस्था ( Class System )
जाति प्रथा
( Caste System )
‘ जाति ‘ शब्द के निर्माण के बारे में अनेक मत प्रचलित हैं । जाति का शास्त्रीय देश भारत है । सन्दर्भ में देखा जाए तो हिन्दी का ‘ जाति ‘ शब्द संस्कृत भाषा के ‘ जन ‘ धातु से बना है , जिसका अर्थ है ‘ उत्पन्न होना ‘ या ‘ उत्पन्न करना ‘ । इस प्रकार जन्म से समान गुण – धर्म वाली वस्तुओं को एक जाति कहा जाता है । इस दृष्टि से जाति मनुष्यों में ही नहीं , पौधों और जड़ पदार्थों में भी होती है । एक अन्य धारणा के अनुसार यूरोपवासियों में सबसे पहले पुर्तगालियों ने Caste ‘ कास्ट ‘ शब्द का प्रयोग किया जो पूर्तगाली शब्द Castra ‘ कास्ट्रा ‘ से बना है जिसका अर्थ है ‘ वंश ‘ या ‘ नस्ल ‘ । ‘ कास्ट ‘ शब्द का लैटिन शब्द Castus ‘ कास्टस ‘ से भी घनिष्ट सम्बन्ध है जिसका तात्पर्य है ‘ परिशुद्ध ‘ या ‘ अमिश्रित ‘ । इस प्रकार शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से जाति एक ऐसे वर्ग को व्यक्त करता है जिसका प्राधार वंश या नस्ल परिशुद्धता या अमिश्रितता है जो पूर्णतया प्रानुवंशिकता पर आधारित होता है । स्पष्ट है कि एक समाज इस ( जाति ) प्रणाली से प्रभावित है , यदि यह समाज परस्पर विरोधी अनेक समूहों में बँटा हा है जो आनुवांशिक तरीके से विशेषीकृत है और संस्तरीकृत तरीके से श्रेणीबद्ध है – यदि , सिद्धान्ततः यह ( प्रणाली ) न नए व्यक्तियों को स्वीकार करती है और न रक्त – मिश्रण तथा न पेशों के बदलने को स्वीकार करती है । अनेक विद्वानों ने जाति या वर्ण को एक – दूसरे का पर्याय माना है , परन्तु वस्तुतः यह उपयुक्त नहीं है । यद्यपि वर्ण – व्यवस्था के द्वारा जाति की उत्पत्ति हुई , इस बात के पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं ।
जाति : प्रकार्य अथवा लाभ ( Caste : Functions or Merits )
जाति – प्रथा ने भारतीय समाज के संरक्षण और संवर्द्धन में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथापि हजारों वर्षों के विकास की प्रक्रिया में आज यह प्रथा दोषों का ऐसा पिटारा बन चुकी है जिसे फैक देना ही वर्तमान युग की मांग है । इस दिशा में केवल वैधानिक और प्रशासकीय प्रयास ही काफी नहीं होंगे । जब तक शैक्षणिक विकास तथा अन्य उपायों से हिन्दू जनता में जाति – प्रथा के विरुद्ध घृणा का भाव नहीं पनपेगा तब तक यह दूषित प्रथा हमारे समाज और राष्ट्र को संगठित नहीं होन देगी । जब हम ज ति – प्रथा के लाभों की चर्चा करते हैं तो अधिकांशतः हमारा मन्तव्य उसके आदर्श स्वभाव और स्वरूप के लिए होता है । जिन उल्लेखनीय कार्यों से जाति – प्रथा प्रशंसा का पात्र बनी है वे मुख्यतः निम्नलिखित हैं
व्यक्तिगत अनुशासन तथा सम्मान की रक्षा – जाति के नियम व्यक्ति को अनुशासन में रखते हैं और उसे अवांछनीय तथा असामाजिक कार्यों को करने से रोकते हैं । अवांछनीय व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है । इस प्रकार जाति सामाजिक नियन्त्रण का कार्य करती है ।
सदस्यों की मानसिक सुरक्षा – जाति व्यवस्था अपने सदस्यों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करती है । प्रत्येक जाति में सामूहिक भावना अत्यन्त प्रभाव शाली होती है । कठिन परिस्थितियों में जाति मनुष्य की सहायता करती है । जाति की सामूहिक शक्ति के अाधार पर व्यक्ति को मानसिक सुरक्षा का अनुभव होता है । जाति प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक स्थिति प्रदान करती है । व्यक्ति को कोई भी मानसिक कष्ट नहीं उठाना पड़ता है क्योंकि उसके लिए सब कुछ पूर्व – निश्चित रहता है । उसे मार्ग निश्चित करने के लिए मनोवैज्ञानिक झंझट में नहीं पड़ना पड़ता , निश्चित मार्ग पर चलते रहने से ही परम धर्म होता है ।
समूह में सहयोग – जाति – बन्धन ने एक समूह विशेष को एकता के सूत्र में बांध रखा है । एक विशेष जाति समूह में व्यक्ति स्वयं को सुरक्षित समझता है और एक – दूसरे के प्रति सहायक होना अपना कर्त्तव्य मानता है । जातीय एकता ने व्यक्तियों की अनेक संकटों से रक्षा की है और अनेक हितार्थ कार्यों जैसे बाल कल्याण , जातीय वजीफों का प्रबन्ध , जातीय धर्मशालाओं आदि की अोर ध्यान दिया है ।
व्यावसायिक विशेषताओं को गुप्त रखना – प्राचीनकाल में जाति किसी निश्चित व्यवसाय को ही अपनाती थी तथा उसमें विशेषज्ञ समझी जाती थी । कोई भी जाति अन्य जाति के समक्ष अपने व्यावसायिक रहस्यों का उद्घाटन नहीं करती थी । जाति के सदस्यों को व्यावसायिक रहस्य अनिवार्य रूप से गुप्त रखने पड़ते थे । जाति अपनी विशिष्ट कुशलता का हस्तान्तरण अन्य जाति में नहीं हान हम चाहती है । उसके साथ ही जाति अपने विशेष व्यवसाय की प्रशिक्षा अपनी असानों को स्वाभाविक पर्यावरण के प्राधार पर नि : शुल्क प्रदान करती रही ।
सामाजिक स्थिति निर्धारित करना – जाति – प्रथा के अन्तर्गत समदाय विशेष के लिए एक निश्चित सामाजिक स्थिति निर्धारित की जाती है जिसके प्रसार तीय संस्तरण में प्रत्येक की स्थिति सुनिश्चित होती है । जाति के इन सभी कार्यों से स्पष्ट है कि अपने प्रादर्श के रूप में जाति – प्रथा देय नहीं है । दुर्भाग्यवश जाति – प्रथा के ये सभी लाभ आज अतीत की कहानी बन । सद् – उद्देश्यों से बनाई गई जाति – व्यवस्था आज बहुत ही कुत्सित रूप में हमारे सामने है । जाति – प्रथा में प्राज इतने दोष घर कर गए हैं कि हम इसका उन्मलन चाहते हैं । डॉ . राधाकृष्णन् के शब्दों में , ” दुर्भाग्यवश वही जाति – प्रथा जिसे सामाजिक संगठन को विनष्ट होने से बचाने के साधन के रूप में विकसित किया था , आज उसी की उन्नति में बाधक बन रही है । “
समाज , सभ्यता और संस्कृति की रक्षा – जाति – प्रथा ने हिन्दू – समाज और हिन्दू – संस्कृति की रक्षा की है । नाना राजनीतिक उथल – पुथल , युद्धों एवं क्रान्तियों के बाद भी जाति – प्रथा के कारण ही हिन्दू – समाज सुरक्षित रहा और हिन्दू जाति के चार प्रमुख अंगों – ब्राह्मण क्षत्रीय , वैश्य और शूद्र – में विशिष्ट साँस्कृतिक तत्त्व बने रहे । इस प्रथा ने धर्म – परिवर्तन का सदा विरोध किया और इस प्रकार खान – पान , रहन – सहन , वेश – भूषा , विवाह – प्रणाली एवं अन्य संस्कारों का विधि – विधान जातियों में सुरक्षित रहा । जाति – व्यवस्था ने सामाजिक परम्परा को जीवित रखा । विदेशी अाक्रमणकारियों ने भारत का तन जीता परन्तु वे उसका मन नहीं जीत पाए । जाति – प्रथा ने हिन्दू – समाज के विविध समुदायों को एक सूत्र में बांधे रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया । फरनीवाल ( Farniwal ) के शब्दों में , ” भारत में जाति – प्रथा ने समाज को एक ऐसी अवस्था प्रदान की है जिसमें कोई भी समुदाय ,चाहे वह प्रजातीय हो या सामाजिक या व्यावसायिक अथवा धामिक , अपनी विशिष्ट प्रकृति और पृथक सत्ता को बनाए रखते हुए अपने को सम्पूर्ण समाज के एक सहयोगी अंग के रूप में उपयुक्त बना सकता है । ” जोड ( Joad ) के अनुसार मी जाति – प्रथा अपने सर्वोत्तम रूप में इस विशाल देश के विभिन्न विचारों , विभिन्न वर्गों को एक सत्र में पिरोने का सफलतम प्रयास था ।
जाति – प्रथा ने राजनीतिक व्यवस्था की एक शाखा के रूप में काम किया – प्राचीन काल में जब प्राज की भाँति राज्यों का अभाव था , तब जाति – प्रथा के कारण समाज के सभी लोग अपने – अपने कर्तव्यों का पालन करते थे और अनुशासित रहते थे । इस प्रकार उस समय में जातियाँ राजनीतिक व्यवस्था की शाखाओं के रूप में ही थीं जिन्होंने समाज में प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली में विश्वास को जन्म दिया ।
समाज में सरल श्रम – विभाजन की व्यवस्था – हट्टन ने लिखा है कि जाति – प्रथा के फलस्वरूप ही भारतीय समाज के सब कार्य , चाहे वे निजी क्षेत्र के हों या सरकारी क्षेत्र के , सुचारू रूप से चलते हैं और लोग अपने कार्यों को धार्मिक विश्वास अथवा ‘ कर्म की धारणा ‘ के आधार पर करते हैं । जाति के सदस्य यह मानकर चलते हैं और लोग अपने कार्यों को धार्मिक विश्वास अथवा ‘ कर्म की धारणा ‘ के आधार पर करते हैं । जाति के सदस्य यह मानकर चलते हैं कि अपने पूर्व – जन्म के कर्मों के प्रतिफलस्वरूप उन्हें इस जन्म में परिवार – विशेष में जन्म लेना पड़ा है और कार्य विशेष करना पड़ा है । अपने इस विश्वास के कारण वे गन्दे कार्य को भी निःसंकोच करते रहते हैं और समाज में अपनी स्थिति के विरुद्ध विद्रोह करने की प्रायः नहीं सोचते । फलस्वरूप न केवल व्यक्ति को मानसिक द्वन्द्व और निराशा से छुटकारा मिल पाता है वरन् सामाजिक एकता और शान्ति भी बनी रहती है । जाति – प्रथा में श्रम – विभाजन का सिद्धान्त लागू होने के कारण प्रत्येक जाति अपने विशेष कार्य में कुशलता प्राप्त कर लेती है । आज चाहे इस कार्य की महत्ता कम हो गई हो , किन्तु अतीत में काम के बँटवारे के कारण ही काम और व्यवसाय की कुशलता में जातिगत रूप से वृद्धि हो सकी थी । जाति – प्रथा के आधार पर ही बड़े – बड़े संघ बने थे जिनकी सहायता से अच्छा उत्पादन होता था । वे संघ बाहरी प्रतियोगिता से अपने भाइयों की रक्षा करते थे ।
काम की होशियारी , ज्ञान और प्रगति को कायम रखना – जाति – प्रथा के कारण व्यावसायिक होशियारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सरलता से पहुँच जाती थी । एक पीढ़ी की तरक्की बेकार होने से पहले वह तरक्की पाने वाली पीढ़ी को मिल जाती थी । एक बढ़ई का पुत्र कुशल बढ़ई और एक जुलाहे का पुत्र कुशल जूलाहा बन जाता था । इस प्रकार जब बढ़ते हए ज्ञान को सुरक्षित रखने का अन्य कोई साधन नहीं था , तब जाति – प्रथा ने इस ज्ञान और तरक्की को सम्भाल । कर रखा ।
सुप्रजनन की शुद्धता को बनाए रखना – सिजबिक के अनुसार जातिप्रथा में पाई जाने वाली अन्त विवाह पद्धति के फलस्वरूप सुप्रजनन की शुद्धता नही रहती है । पर इस मत से सहमत होना कठिन है क्योंकि विभिन्न जातियों विवाह होने से वंशानुसंक्रमण सम्बन्धी दोष उत्पन्न होते हैं । डॉ . मजूमदार और मदान द्वारा जाति – प्रथा के एक मौन कार्य ( Silent Function ) का उल्लेख किया गया है । अन्त विवाह के फलस्वरूप प्रायः लड़कियों की अपेक्षा लड़कों का जा अधिक होता है । इस प्रकार जाति – प्रथा के कारण लोगों को मानसिक शान्ति प्राप्त होती है । लड़के परिवार की निरन्तरता बनाए रखने और तर्पण , पिण्डदान आदि धार्मिक क्रियाओं को पूर्ण करने का दायित्व निभाते हैं ।
उच्च कोटि के नागरिक गुणों को जन्म – जाति – प्रथा ने भाईचारे और सौहार्द्र की भावना को जन्म दिया । एक जाति के मनुष्य रोटी , बेटी और हुक्का – पानी में सम्मिलित होते हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर एक – दूसरे की सहायता करते हैं । वे जाति की बुराई को अपनी बुराई समझते हैं । इस प्रकार जाति – प्रथा से प्रेम , सेवा , त्याग एवं लोकतन्त्र के उदात्त विचारों को बल मिला ।
जाति – प्रथा से हानियाँ ( Demerits of Caste System )
जाति – प्रथा के कारण अधिकार , उपक्रम और महत्त्वपूर्ण कार्यों को प्रोत्साहन नहीं मिलता – जाति – प्रथा में अधिकांश व्यक्तियों में यह धारणा घर कर जाती है कि उनका सामाजिक स्तर जन्म द्वारा ही निश्चित हो चुका है और वे कितना भी परिश्रम क्यों न करें उनमें प्रगति होना कठिन है । जाति – प्रथा के कारण ही हिन्दु पों ने नाना खोजों एवं महत्त्वपूर्ण अधिकारों पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि उनके विचार में ऐसा करना जाति – धर्म और नियमों के विपरीत था ।
( हिन्दू – समाज को क्षीण बनाना – जाति – प्रथा ने अस्पृश्यता , भेदभाव और कठोर प्रतिबन्धों का ऐसा जाल फैलाया है कि भारी संख्या में हिन्दू लोग मुसलमान और ईसाई बन गए । अपने समाज में समानता के द्वार बन्द पाकर , वे दुसरे धर्मों की ओर आकर्षित हुए । जाति – च्युत लोगों के लिए हिन्दू धर्म का परित्याग करने के अलावा कोई चारा न रहा । कठोर जाति – प्रथा ने भारत के लगभग 30 – 35 प्रतिशत हिन्दुनों को विधर्मी बना दिया ।
अनेक सामाजिक समस्याओं का कारण – जाति – प्रथा के कारण बाल – विवाह , विधवा – विवाह , कुलीन – विवाह , वरमूल्य – प्रथा आदि अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं । – अन्त में हम यही कहना चाहेंगे कि जाति – प्रथा के फलस्वरूप देश में समय समय पर अनेक विघटनकारी तत्त्व सक्रिय रहे हैं और इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण देश को अनेक बार कटु अनुभव हुए हैं । जातिगत फूट के कारण ही हम अपनी स्वतन्त्रता की भी रक्षा नहीं कर सके । अब हमारा एक राष्ट्र है । काश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा असम से गुजरात तक भारत एक राष्ट्र है । एक राष्ट्र व एक राष्ट्रीयता की भावना ही हमें आगे बढ़ा सकती है , तभी हम अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं , तभी हम अपने शत्रुनों को करारा जवाब दे सकते हैं , तभी हम देश की स्वतन्त्रता सुरक्षित रख सकते हैं और तभी हम इतने सबल और सक्षम हो सकते हैं कि दुनिया में न्याय के लिए लड़ सकें और अन्याय का प्रतिकार कर सकें । हमारी अमूल्य राष्ट्रीयता को जातिवाद से बहुत खतरा है । जाति – पाति प्राचीनकाल में चाहे कितनी ही उपयोगी रही हो पर अाज किसी भी भावना के अधीन होकर हमें इसके साथ मोह नहीं करना चाहिए । जाति – प्रथा इतनी दषित हो चुकी है कि इसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है लेकिन केवल इस प्रथा का परित्याग ही हमारी समस्याओं , हानियों की रामबाण प्रौषधि नहीं है । यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि जाति – प्रथा का त्याग मात्र हमारी सामाजिक संरचना में मिले हुए दोषों को मिटा देगा । इसके लिए तो हमें व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहल पर पुनचिन्तन करना होगा , हर क्षेत्र में सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा और सम्पूर्ण सामाजिक संरचना का पुनर्मूल्यांकन करना होगा ।
राष्ट्रीय एकता का ह्रास – जाति – व्यवस्था समाज एवं राष्ट्र के लिए दुखदायी और विनाशकारी सिद्ध हुई है । इसके कारण हमारे देश में राष्ट्राभिमान उत्पन्न होने को अपेक्षा जातीय अभिमान उत्पन्न हुप्रा । जाति – भेद के कारण ही विरोधी आक्रान्ताओं का डटकर मुकाबला नहीं किया जा सका । इसकी सामाजिक सुदृढ़ता एवं एकता को भी समाज के अनेक छोटे – छोटे वर्गों में विभक्त हो जाने के कारण ही सिक्ख अपना अलग सिक्खिस्तान मांगते हैं तो महाराष्ट्र वालों ने महाराष्ट्र और गुजरातियों ने गुजरात की अलग मांग की ।
समाज की प्राथिक व बौद्धिक प्रगति में रुकावट – जाति – प्रथा के कारण आर्थिक व बौद्धिक उन्नति के अवसर उच्चवंशीय लोगों को ही मिल पाए और शूद्र प्रादि उससे वंचित रह गए । यही कारण है कि समाज के पिछड़े और निम्न – जातीय वर्गों की सन्तानों को अध्ययन की सुविधा कभी नहीं मिली और उनके प्रतिभाशाली तथा योग्य बालक प्रकाश में नहीं पा पाए । इस प्रकार इस प्रथा ने समाज की नींव और उसके स्तर पर प्राघात किया ।
ऊँच – नीच , राग – द्वेष , साम्प्रदायिकता एवं अप्रजातन्त्रीय भावनाओं का विकास – – जाति – व्यवस्था मूलतः अप्रजातन्त्रीय है । समानता के स्थान पर यह असमानता को प्रोत्साहित करती है । इसके कारण समाज ऊँच – नीच में विभक्त हो गया है और इस ऊँच – नीच का आधार कर्म या योग्यता न होकर जन्म है । इसी ऊँच – नीच के कारण समाज का एक बड़ा भाग कभी शैक्षणिक , आथिक या सामाजिक उन्नति नहीं कर पाया । जाति – प्रथा ने ही साम्प्रदायिकता एवं अस्पृश्यता को जन्म दिया । इसी साम्प्रदायिकता के कारण पहले भारत विदेशी आक्रान्ताओं के चंगुल में रहा और अन्त में दो टुकड़ों में विभक्त हमा । जाति – प्रथा की अस्पृश्यता से ही हरिजन समस्या को ला खड़ा किया और इसी जाति – प्रथा ने सर्वत्र पस असहयोग एवं द्वेष की भयंकर ज्वाला सुलगाई ।
राजनीति पर कुप्रभाव – जाति – प्रथा ने परतन्त्र और स्वतन्त्र भारत के राजनीतिक भविष्य को अधिकांशतः गन्दा और धूमिल बनाने का कार्य किया । स्वतन्त्र भारत का इतिहास साक्षी है कि भारतीय मतदाता राजनीतिक समस्यायों पर बहुत कुछ जातीय दृष्टिकोण से सोचते हैं । सरकार – निर्माण के समय भी जातीयता को गौण नहीं समझा जाता क्योंकि बहुमत दल में जातीयता के घुन लगे होते हैं । अनेक बार प्रशासकीय निर्णय जातीय आधार पर लिए जाते हैं । ‘ जनता का राज्य जनता द्वारा तथा जनता के लिए ‘ के स्थान पर अनेक दृष्टियों से ‘ जाति का राज्य , जाति द्वारा तथा जाति के लिए ‘ हो गया है । लोकप्रिय सरकार जाति प्रतियोगिता का एक नया माध्यम बन गई है । प्रतिद्वन्द्वी जातियों ने अलग – अलग राजनीतिक दलों की सदस्यता ग्रहण की है और दलों में अथवा अलग – अलग गुट बना रखे हैं । राजनीति में जातीयता का विष – वृक्ष देश के लोकतान्त्रिक भविष्य के लिए निश्चित रूप से बड़ा घातक है ।
सैनिक शक्ति का हास – जाति – प्रथा के कारण देश की सैनिक शक्ति को बड़ा धक्का लगा क्योंकि एक ही वंश से सम्बद्ध जातियों का काम देश की रक्षा करना समझा गया जिससे दूसरी जातियाँ इधर से विमुख हो गयीं ।
अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादिता में वृद्धि – जातिगत नियमों , उप नियमों एवं नाना धार्मिक कर्मकाण्डों तथा रीति – रिवाजों ने समाज में अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादिता को बड़ा प्रोत्साहित किया । इसके कारण व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्रता कुण्ठित हो गई और उसे जातिगत बन्धनों व नियमों के अनुसार ही जीवन बिताना पड़ा ।
जाति – प्रथा से समाज के सभी प्राथिक साधनों का पूरा लाभ नहीं उठाया जा सकता – जाति – प्रथा के कारण प्रत्येक जाति का पेशा निश्चित है । किसी व्यक्ति द्वारा जाति के बाहर का पेशा अपनाना ठीक नहीं समझा जाता । जाति का व्यक्ति न अपनी जाति का उद्योग ही छोड़ सकता है और न अपनी ग्राजीविका कमाने के साधनों को ही बदल सकता है । अतः जाति – प्रथा के कारण देश के सभी प्राथिक साधनों का पूरा लाभ नहीं उठाया जा सकता ।
जाति प्रथा स्त्री – अधिकार की शत्र – जाति – व्यवस्था स्त्रियों के अधिकारों की शत्रु है । हमारे समाज में स्त्रियों की दुर्गति बहुत सीमा तक इसी व्यवस्था का परिणाम है । विवाह के मामलों में यह प्रथा स्त्रियों को कोई स्वतन्त्रता नहीं देती और अन्य क्षेत्रों में भी उन्हें पुरुषों के समकक्ष नहीं मानती ।
निर्धन और निम्न जाति के लोगों का शोषण – इस प्रथा से निर्धन और निम्न – जाति के लोगों का शोषण होने से असन्तोष फैलता है । इस प्रथा से उन लोगों के अधिकार छीन लिए जाते हैं और उनकी इच्छाओं का दमन कर दिया जाता है ।
झूठा अभिमान पैदा होता है – जाति – प्रथा में ऊंची जाति के लोगों में भठे सम्मान और अभिमान की भावना पैदा होती है और इस प्रथा में परिश्रम का समान प्रादर नहीं किया जाता ।
जाति (Caste )
जाति की अवधारणा या परिभाषा के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि मुख्यत : यह लोगों का एक ऐसा सबक है जिसकी सदस्यता आनुवंशिकता पर आधारित होती है । इसे जाति – संस्तरण में एक निश्चित स्थान प्राप्त होता है एक जाति स्वयं कोई समुदाय या समाज नहीं होती , बल्कि समुदाय या समाज का एक समूह होती है जिसका समाज एक पूर्व निर्धारित स्थान होता है तथा यह एक निश्चित व्यवसाय से सम्बन्धित होती है । कुछ महत्त्वपर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार है
हरबर्ट रिजले ( Herbert Risley ) ने जाति की परिभाषा देते हुए लिखा है , ” जाति परिवारों या परिवार के समहों संकलन है जिसका एक ही नाम होता है , जो एक काल्पनिक पूर्वज , जो मानव या देवता हो सकता है , से अपनी श – परम्परा की उत्पत्ति का दावा करता है , जो समान जन्मजात ( पुश्तैनी ) व्यवसाय को चलाता है और जिसे उन लोगों द्वारा एक सजातीय समुदाय माना जाता है जो इस तरह के निर्णय या मत देने के अधिकारी हैं । इस परिभाषा से 5 बातें स्पष्ट होती हैं – (i)जाति अनेक परिवारों का एक सामूहिक संगठन है , ( ii ) इसका एक नाम होता है , ( iii ) प्रत्येक जाति की एक काल्पनिक पूर्वज है , ( iv ) इसका एक निश्चित व्यवसाय होता है और ( v ) यह एक सजातीय समुदाय के रूप में जाना जाता है ।
मजुमदार एवं मदन ( D . N . Majumdar and T . N . Madan ) के अनुसार , ” जाति एक बन्द वर्ग है । इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि जाति जन्म पर आधारित है । अत : व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसी में अन्त तक रहना पड़ता है । किसी भी स्थिति में जाति की सदस्यता बदली नहीं जा सकती है । इसी माने में जाति बन्द वर्ग है ।
दत्ता ( N . K . Dutta ) ने जाति की अधिकतम विशेषताओं को समेटते हुए जाति को परिभाषित करते हुए लिखा है , ” जाति एक प्रकार का सामाजिक समूह है , जिसके सदस्य अपने जाति से बाहर विवाह नहीं करते , खान – पान पर प्रतिबन्ध , पेशे निश्चित होते हैं , संस्तरणात्मक विभाजन का पाया जाना , एक जाति से दूसरी जाति में परिवर्तन सम्भव नहीं है । इस परिभाषा से जाति का 6 विशेषताओं का पता चलता है – ( i ) जाति एक सामाजिक समूह है , ( ii ) जाति अन्तर्विवाही समूह है , ( iii ) जाति में खान – पान पर प्रतिबन्ध होते हैं , ( iv ) जाति का पेशा निश्चित होता है , ( v ) जातियों में ऊँच – नीच का स्तरीकरण पाया जाता है और ( vi ) जाति की सदस्यता में परिवर्तन सम्भव नहीं । इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति स्तरीकरण की अगतिशील एक ऐसी व्यवस्था है जो जन्म पर आधारित है एवं खान – पान विवाह , पेशा आदि पर प्रतिबन्ध लगाती है ।
जाति की विशेषताएँ
( Characteristics of Caste )
_ जी . एस . घुरिए ( G . S . Ghurye ) ने जाति की 6 विशेषताओं की चर्चा की है , जिसके आधार पर जाति को समझना अधिक उपयोगी बतलाया गया है । ये विशेषताएं निम्नलिखित हैं
समाज का खण्डनात्मक विभाजन ( Segmental Division of Society ) : जाति व्यवस्था समाज को कुछ निश्चित खण्डों में विभाजित करती है । प्रत्येक खण्ड के सदस्यों की स्थिति , पद और कार्य जन्म से निर्धारित होता है । तथा उनमें एक सामुदायिक भावना होती है । जातीय नियम का पालन नैतिक कर्तव्य होता है ।
संस्तरण ( Hierarchy ) : जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक जाति की स्थिति एक – टसरे की तलाश नाचा हाती है । इस संस्तरण में सबसे ऊपर ब्राह्मण है और सबसनाचे अस्पृश्य जातियां हैं । इन दो लोग बीन जातिया है । इतना ही नहीं . एक जाति के अन्दर अनेक उपजातिया है तथा उनमें भी ऊंच – नीच का
व्यवसाय की आनुवंशिक प्रकृति ( Hereditary Nature of Occupation ) : व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धार जाति – व्यवसाय के आधार पर होता है । अतः एक व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसे उसी जाति का व्यक अपनाना होता है । इसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की गुंजाइश नहीं होती । इस प्रकार कहा जा सकता है कि जाति प्रमुख विशेषता परम्परागत व्यवसाय है ।
अन्तर्विवाही ( Endogamous ) : जाति – व्यवस्था के अनुसार जाति के सदस्य अपनी ही जाति या उपजाति , विवाह – सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं । इस नियम का उल्लंघन करने का साहस प्राय : कोई नहीं करता । वेस्टरमार्क ने विशेषता को ‘ जाति – व्यवस्था का सारतत्व ‘ माना है । अन्तर्विवाही नियम आज भी जातियों में पाई जाती है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज में जाति – व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण का एक स्पष्ट एवं महत्त्वपूर्ण आधार रहा है ।
भोजन तथा सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध ( Restrictions on Fooding and Social IntereCHISE ) : जाति – व्यवस्था में खान – पान मेल – जोल एवं सामाजिक सम्पर्क सम्बन्धी प्रतिबन्ध है । प्रायः एक जाति के व्यकित निम्न जातियों के हाथ का भोजन नहीं स्वीकार करते । साथ ही कच्चा व पक्का भाजन सम्बन्धी अनेक प्रतिबन्ध देखे जाते है । इसी तरह सामाजिक सम्पर्क एवं मेल – जोल के सन्दर्भ में छुआछूत की भावना पाई जाती है ।
सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यताएँ ( Social and Religious Disabilities ) : जाति – व्यवस्था में चिनारों मार सावधाओं में विशेष अन्तर देखा जाता है । एक ओर उच्च जाति को जितनी सुविधाएं एवं अधिकार जीवन के क्षत्रों में प्राप्त हैं उतनी निम्न जातियों को नहीं । सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में ब्राह्मण अनेक अधिकारों से पूर्ण है । वहीं अस्पृश्य जातियों को सार्वजनिक सुविधाओं व अधिकारों तक से वंचित रखा जाता है । कर भी ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी झलक देखी जाती है ।
वर्ग( Class )
ऐसे व्यक्तियों का समूह है जिनकी समान सामाजिक प्रस्थिति होती है । प्रत्येक समाज में अनेक प्रस्थितियाँ पाई जाती है । फलस्वरूप उनके अनुसार अनेक वर्ग भी पाए जाते हैं । जब जन्म के अतिरिक्त अन्य किसी आधार पर समाज को विभिन्न समूहों में विभाजित किया जाता है तो प्रत्येक समूह को वर्ग कहा जाता है । कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं
मैक्ईवर एवं पेज ( Maclver and Page ) ने वर्ग को परिभाषित करते हुए लिखा है , ‘ सामाजिक वर्ग समुदाय का वह भाग है जो सामाजिक प्रस्थिति के आधार पर शेष भाग से पृथक होता है । ” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि वर्ग का आधार सामाजिक प्रस्थिति है । यानि एक समान प्रस्थिति के लोग एक वर्ग का निर्माण करते जो अन्य वर्गों से भिन्न होते हैं ।
गिन्सबर्ग ( Ginsberg ) के शब्दों में , ” वर्ग व्यक्तियों के ऐसे समूह को कहा जा सकता है जो व्यवसाय , धन , शिक्षा , जीवन – शैली , विचार , भाव , मनोवृत्ति और व्यवहार के आधार पर समान हो या इनमें से एक – दो ही आधारों पर उनमें समानता की चेतना हो जो उन्हें अपने एक समूह या वर्ग का बोध कराती हो । ” इस परिभाषा से तीन बातें स्पष्ट होती हैं वर्ग व्यक्तियों का एक समूह है , ( ii ) वर्ग – निर्माण के अनेक आधार हैं – व्यवसाय , धन , शिक्षा , जीवन – शैली व मनोवृत्ति आदि और ( iii ) वर्ग के लिए चेतना का होना , जिसे वर्ग चेतना कहा जाता है ।
मावर्स एवं एंगेल्स ( Marxand Engels ) ने लिखा है , ‘ विभिन्न व्यक्तियों के एक साथ मिलने से वर्ग तभी बनता है , जब वे एक वर्ग के रूप में दूसरे वर्ग के विरुद्ध संघर्ष करते हैं , अन्यथा वे परस्पर प्रतियोगी होने के नाते एक दत्तरे के विरोधी या दश्मन ही रहते हैं । ” इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि वर्ग का आधार संघर्ष है । यानि बिना संघर्ष के टपणे की कल्पना नहीं की जा सकती । यह संघर्ष आर्थिक हितों के आधार पर होता है । उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर ऐसा कह सकते हैं – वर्ग व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो सामाजिक व तत्त्वों पर आधारित है और जिनमें वर्ग – चेतना के गुण होते हैं ।
वर्ग की विशेषताएँ ( Characteristics of Class )
निश्चित संस्तरण ( Definite Hierarchy ) – सामाजिक वर्ग कुछ श्रेणियों में विभक्त होते हैं । इनमें से कुछ श्रेणियों का स्थान ऊँचा और कुछ का नीचा होता है । जो उच्च वर्ग के सदस्य होते हैं उनके सदस्यों की संख्या तो सबसे कम होती है लेकिन प्रतिष्ठा सबसे अधिक होती है । इसके विपरीत जो निम्न वर्ग के सदस्य होते हैं उनके सदस्यों की संख्या तो अधिक होती है , लेकिन उनका महत्त्व और सम्मान सबसे कम होता है । इस प्रकार की स्थिति का यह स्वाभाविक परिणाम होता है कि उच्च वर्ग के सदस्य प्रायः निम्न वर्ग के सदस्यों से दर रहने में अपना गौरव समझते हैं । दूसरे शब्दों में , सामाजिक दूरी को नोति को प्रोत्साहन – मिलता है ।
अर्जित व्यवस्था ( Achieved System ) : वर्ग का आधार कर्म है । एक व्यक्ति अपने कर्म के बल पर धनी या गरीब , उद्योगपति या श्रमिक , विशेषज्ञ , प्राध्यापक , डॉक्टर , इंजीनियर या किसान हो सकता है । उसी के अनुसार उसका वर्ग बनता है । इस प्रकार वर्ग अर्जित की जाती है । इसे व्यक्ति अपने प्रयत्न से प्राप्त करता है ।
वर्ग – संघर्ष ( Class Conflict ) : इस विशेषता का उल्लेख मार्क्स ने किया है । मार्क्स का कहना है कि वर्गों के बीच संघर्ष ही वह तत्व है , जो समाज में वर्गों के अस्तित्व का बोध कराता है । संघर्ष के बिना वर्ग की कल्पना नहीं की जा सकती है और यह संघर्ष आर्थिक हितों के आधार पर होता है । इस प्रकार वर्ग की अवधारणा एवं विशेषताओं के आधार पर स्पष्ट है कि वर्ग सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रचलित आधार है ।
संस्तरण ( Hierarchy ) : वर्ग की एक प्रमुख विशेषता ‘ संस्तरण ‘ कही जाती है । इसका अर्थ यह है कि समाज में वर्गों की एक श्रेणी होती है जिसमें उच्चतम से निम्नतम अनेक वर्ग होते हैं । इन वर्गों में स्पष्टत : उच्च एवं निम्न का संस्तरण देखा जाता है । इस संस्तरण के अनुसार ही पद , प्रतिष्ठा एवं सुविधाओं में भिन्नता देखी जाती है ।
ऊँच – नीच की भावना ( Feeling of Superiority – Inferiority ) : वर्गों में ऊँच – नीच की भावना देखी जाती है । एक वर्ग के सदस्य दसरे वर्गों के सदस्यों के प्रति उच्चता या निम्नता की भावना रखते हैं । उदाहरणस्वरूप धनी वर्ग एवं निर्धन वर्ग के बीच एक – दूसरे के प्रति यह भावना स्पष्ट रूप से देखी जाती है ।
सामान्य जीवन ( Common Life ) – समाज के विभिन्न वर्गों के सदस्य अपने – अपने विशेष ढंग से जीवन – यापन करते हैं । धनी वर्ग के जीवन – यापन का तरीका मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग से भिन्न होता है । धनी वर्ग अधिक से अधिक अपव्यय करने में अपनी शान समझता है । मध्यम वर्ग प्रायः रूढ़ियों और प्रथानों में जकड़ा रहता है तथा निम्न वर्ग का तरीका इन दोनों ही से बिलकुल भिन्न होता है ।
आर्थिक आधार की महत्ता ( Importance of Economic Basis ) माथिक स्थिति वर्ग – निर्माण का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है । आधुनिक समाज पूंजीवादी या प्रौद्योगिक है । इन समाजों में लिंग , प्रायु आदि वर्ग की सदस्यता से विशेष सम्बन्ध नहीं है । आर्थिक दृष्टि से समृद्धि या हीनता लोगों को उच्च वर्ग , मध्य और निम्न वर्ग में विभाजित करती रहती है ।
खुलापन और उतार चढ़ाव ( Openness and Shifting ) – वर्गों की प्रकृति खुली हुई होती है । इसका अभिप्राय : यह है कि यदि कोई व्यक्ति विशेष योग्य अथवा कार्यकुशल है तो वह किसी भी वर्ग की सदस्यता ग्रहण कर सकता है अथवा अलग – अलग प्राधारों पर एक साथ अनेक वर्गों का सदस्य हो सकता है । इसी स्थिति को दर्शाते हुए बोटोमोरे ने लिखा है कि ” सामाजिक वर्ग अपेक्षाकृत उन्मुक्त होते हैं अथवा नहीं , उनका प्राधार निर्विवाद रूप से आर्थिक है , लेकिन वे आर्थिक समूहों से अधिक हैं । ” सामाजिक वर्गों में उतार – चढ़ाव होते रहना भी सामान्य बात है । कोई भी गरीब व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बनकर धनी वर्ग में सम्मिलित हो सकता है । इसी प्रकार यदि किसी धनी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति एकदम गिर जाती है तो वह उस वर्ग से फिसल कर मध्यम अथवा निम्न वर्ग में जा सकता है । वर्गगत स्थिति में यह परिवर्तन आर्थिक स्थिति के अनुरूप अपने – अाप हो जाता है ।
अजित सदस्यता ( Achieved Membership ) सामाजिक वर्ग की उपरोक्त चौथी और पांचवी विशेषता से यह एक स्पष्ट है कि वर्ग की सदस्यता जन्म पर ही नहीं बल्कि को ग्यता , कुशलता और आर्थिक सम्पन्नता पर निर्भर करती है । वर्ग की सदस्यता के लिए व्यक्ति को प्रयत्नशील होना पड़ता है । यदि कोई व्यक्ति निम्न वर्ग का है तो उच्च वर्ग में प्रवेश के लिए उसे अपनी योग्यता सिद्ध करनी होगी । स्थायी रूप से व्यक्ति उसी वर्ग में रह पाता है जिसके अनुरूप उसमें योग्यता होती है ।
वर्गों की अनिवार्यता ( Essentiality of Classes ) – – – वर्गों की समाज में उपस्थिति अनिवार्य है । सभी व्यक्ति योग्यता , कार्यक्षमता , रुचि , बुद्धि प्रादि की दष्टि से समान नहीं होते । अत : यह स्वाभाविक है कि व्यक्तियों को उनकी । योग्यतानुसार पद और सम्मान मिले । ऐसा होने पर ही सामाजिक व्यवस्था स्थायी रूप से बनी रह सकती है । मार्क्सवाद में वर्गहीन समाज की कल्पना की गई है । लेकिन यह सुनिश्चित है कि इस प्रकार का समाज कभी स्थापित नहीं हो सकता । ।
कम स्थिरता ( Less Stability ) – धन , शिक्षा , व्यवसाय प्रांति र अस्थायी प्रकृति के होते हैं , अतः उन पर आधारित वर्ग – व्यवस्था भी एक स्थिर धारणा है । जो आज धनी है वह कल निर्धन हो सकता है ।
उप – वर्ग ( Sub – classes ) – सामाजिक वर्ग में प्रत्येक वर्ग के अन्तर्गत उप – वर्ग होते हैं । उदाहरणार्थ , धनी वर्ग में धन पर अधिकार के आधार पर पोटति – वर्ग . लखपति – वर्ग अनेक उप – वर्ग आदि विभिन्न उप – वर्ग पाए जाते हैं ।
जीवन अवसर ( Life Chances ) – मैक्स वेबर ने वर्ग की एक विशेषता ‘ जीवन अवसर ‘ ( Life Chance ) की ओर संकेत किया है । तद्नुसार , ” हम एक समूह को तब वर्ग कह सकते हैं जब उसके सदस्यों को जीवन के कुछ विशिष्ट अवसर समान रूप से प्राप्त हों । ”
वर्ग – परिस्थिति ( Class Situation ) – इस विशेषता की ओर भी , जो जीवन अवसर से सम्बन्धित है , मैक्स वेवर ने ही ध्यान आकर्षित किया है । किसी वर्ग के अधिकार में सम्पत्ति के होने अथवा न होने से एक विशिष्ट परिस्थिति का जन्म होता है जिसमें वर्ग निवास करता है । यदि वर्ग के सदस्यों के पास सम्पत्ति होती है तो स्वभावत : उसे अधिक धनोपार्जन , अधिक क्रय और उच्च जीवन – स्तर बनाए रखने प्रादि के अवसर प्राप्त होंगे । संयुक्त रूप में इन अवसरों से एक ऐसी विशिष्ट परिस्थिति का निर्माण होगा जिसमें उस वर्ग के सदस्यों को निवास करना होगा । यही वर्ग : परिस्थिति ( Class Situation ) है ।
समान जीवन – शैली ( Common Life Style ) : एक वर्ग के सदस्यों की जीवन – शैली में समानता देखी जाती है जो दूसरी तरफ अन्य वर्गों से भिन्न भी होता है । एक वर्ग के लोगों के कपड़े , खान – पान , मकान का स्वरूप , रहन – सहन एवं तौर – तरीकों में अधिकतर समानता होती है । साथ ही एक वर्ग के सदस्यों का पारिवारिक ब वैवाहिक सम्बन्ध भी अपने वर्ग – समूहों तक सीमित होते हैं ।
वर्ग – चेतना ( Class Conciousness ) : वर्ग – चेतना वर्ग की आधारभूत विशेषता है । इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वर्ग के सदस्यों में इसका बोध होता है कि उसका सामाजिक – आर्थिक – राजनीतिक पद व प्रतिष्ठा दूसरे वर्गों की तुलना में कैसी है । यही वह भावना जो एक वर्ग के सदस्यों को आपस में बांधे रखता है ।
सीमित सामाजिक सम्बन्ध ( Restricted Social Relations ) : एक वर्ग के सदस्यों का सामाजिक सम्बन्ध प्राय : अपने वर्ग तक ही सीमित होता है । इनका खाना – पीना , उठना – बैठना एवं अन्य अन्त : क्रियात्मक सम्बन्ध अपने वर्ग के लोगों के साथ होता है । साथ ही , ये अन्य वर्गों से एक निश्चित सामाजिक दुरी बनाए रखते हैं । यही सामाजिक सम्बन्धों की सीमितता है , जो वर्ग की एक खास विशेषता है ।
गतिशीलता ( Mobility ) : वर्ग की एक खास विशेषता गतिशीलता है । यह जन्म पर आधारित नहीं है , बल्कि यह योग्यता , क्षमता यानि कर्मशीलता पर आधारित है । फलस्वरूप एक निम्न वर्ग का सदस्य अपनी योग्यता व क्षमता के बल पर उच्च वर्ग में सम्मिलित हो सकता है । उसी तरह एक व्यक्ति असफलता के माध्यम से नीचे के वर्ग की ओर जा सकता है । इस प्रकार वर्गों की प्रकृति में खलापन है । (
जाति और वर्ग में अन्तर ( Distinction between Caste and Class )
‘ ( 1 ) जाति – प्रणाली एक बन्द वर्ग है जबकि वर्ग – प्रेरणाली एक खुला या मुक्त वर्ग है । जाति में सामाजिक स्तर का निर्धारण जन्म से होता है और किसी दूसरी जाति में सम्मिलित होने का अवसर नहीं मिलता । इसके विपरीत वर्ग – व्यवस्था में मनुष्य की असमानतामों को मान्यता मिलती है । इसमें व्यक्ति को उन्नति के लिए समान अवसर दिए जाते हैं । अपनी योग्यता के बेल पर व्यक्ति एक वर्ग से दूसरे वर्ग में प्रवेश कर सकता है ।
2 जाति में व्यक्तिगत क्षमता और योग्यता की उपेक्षा की जाती है । वर्ग में स्थिति इससे बिल्कुल विपरीत होती है । अपनी योग्यता के बल पर व्यक्ति समाज के उच्च वर्ग में पहुंच सकता है ।
3.जाति को स्तरीकरण की बन्द व्यवस्था और वर्ग को खली व्यवस्था के रूप में देखा जाता है । सामान्यतः वर्गों की प्रकृति खुली हुई समझ ली जाती है परंतु वास्तव में प्रत्येक वर्ग अपने से निम्नवर्ग के सदस्य को अपने वर्ग में आने से रोकता है और साधारणतया अपने वर्ग के सदस्यों से ही संबंधों की स्थापना करता है । व्यावहारिक रूप से विभिन्न वर्गों के बीच भी वर्ग – अंतर्विवाह की नीति अपनाई जाती है । यही कारण है कि जैसे कुछ विद्वानों ने जाति और वर्ग में कोई मौलिक भेद स्वीकार नहीं किया है । फिर भी यह निश्चित है कि अपनी प्रकृति , कार्यों और निषेधों में जाति और वर्ग की एक – दूसरे से भिन्न धारणाएं हैं जिन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है
4.जाति सामाजिक स्तरीकरण का एक बंद स्वरूप है जबकि वर्ग में खुलापन है । कोई भी व्यक्ति एक जाति को छोड़कर दूसरी जाति की सदस्यता ग्रहण नहीं कर सकता । प्रत्येक जाति के नियम भी दूसरी जातियों से भिन्न होते हैं । इसके विपरीत वर्ग की सदस्यता का द्वार सभी के लिए खुला है । एक व्यक्ति अपनी संपति , योग्यता , कुशलता के अनुसार किसी भी वर्ग का सदस्य बन सकता है ।
5.जाति की सदस्यता का आधार जन्म है । व्यक्ति एक बार जिस जाति में जन्म लेता है , आजीवन उसी जाति का सदस्य बना रहता है । लेकिन वर्ग की सदस्यता व्यक्ति के कार्यों और प्रयत्नों पर आधारित होती है और वह अपनी योग्यता द्वारा अपने वर्ग में परिवर्तन कर सकता है ।
6.व्यक्ति को जाति की सदस्यता प्राप्त करने का प्रयत्न करना नहीं पड़ता बल्कि यह समाज की ओर से प्रदत्त होती है । यही कारण है कि जाति में स्थिरता होती है । दसरी ओर वर्ग की सदस्यता पूर्णत : व्यक्ति के निजी प्रयत्नों का फल है और इन प्रयत्नों में परिवर्तन होने से वर्ग की सदस्यता में भी परिवर्तन हो जाता है ।
. 7.प्रत्येक जाति का एक निश्चित व्यवसाय होता है और उसी के द्वारा आजीविका उपार्जित करना उस जाति के सदस्यों का नैतिक कर्त्तव्य है । लेकिन वर्ग – व्यवस्था में कोई सदस्य अपनी रूचि और साधनों के अनुसार किसी भी व्यवसाय का चुनाव कर सकता है ।
. 8.प्रत्येक जाति आवश्यक रूप से अपने सदस्यों को अपनी ही जाति के अन्तर्गत विवाह – सम्बन्ध स्थापित करने पर बाध्य करती है । इसके विपरीत वर्ग में इस प्रकार का कोई निश्चित नियम नहीं होता । इसके बावजूद एक वर्ग के सदस्य अपने वर्ग में ही विवाह सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं । 6 . वर्ग में उच्चता का आधार आर्थिक है जबकि जाति का स्तर समाज द्वारा निर्धारित होता है । जातियों के निर्माण का आधार अनेक धार्मिक तथा सांस्कृतिक विश्वास हैं । इस दृष्टिकोण से जाति पवित्रता तथा अपवित्रता सम्बन्धी बहुत से नियमों की एक व्यवस्था है । वर्ग – व्यवस्था में पवित्रता अथवा अपवित्रता सम्बन्धी किसी प्रकार के विश्वासों का समावेश नहीं होता ।
- जाति – व्यवस्था में व्यवसाय का निश्चय बहुत कुछ जन्म से हो जाता है । वर्ग – व्यवस्था में स्वेच्छानुसार व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता रहती है । ।
10.जाति की सदस्यता जन्मजात होती है । यह समाज की ओर से उसे अपने – आप प्राप्त हो जाती है । इसके विपरीत वर्ग की सदस्यता अजित की जाती है । एक वर्ग से दुसरे वर्ग में व्यक्ति अपने प्रयासों से ही प्रवेश कर पाता है ।
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में
INTRODUCTION TO SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2kHe1iFMwct0QNJUR_bRCw
SOCIAL CHANGE: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R32rSjP_FRX8WfdjINfujwJ
SOCIAL PROBLEMS: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R0LaTcYAYtPZO4F8ZEh79Fl
INDIAN SOCIETY: https://www.youtube.com/playlist?
सामाजिक नियन्त्रण में जाति की भूमिका ( Role of Caste in Social Control )
जाति व्यवस्था भारतीय समाज की एक अनुपम व्यवस्था है । वास्तव में , सारा समाज जातियों – उपजातियों के क्रम – सोपान में बँधा है । प्रत्येक जाति का जीवन के प्रति अपना विचारदर्शन और संस्कारों का उपक्रम है । इस लक्षण ने प्रत्येक जाति को अपने में एक पूर्ण विश्व बना दिया है । जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति जाति के व्यवहार – प्रतिमानों और संस्कारों के सन्दर्भ में अपना जीवन व्यतीत करता है । वह जाति – विशेष में जन्म लेता है , पलता है , विवाहित होता है , अधिकांशतः जाति के व्यवसाय का अनुसरण करता है और अन्त में जाति – बिरादरी के लोगों के द्वारा ही मृत्यु के पश्चात् उसका अन्तिम संस्कार कर दिया जाता है । परन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि प्रत्येक जाति अपने में स्वतन्त्र है और उसका अन्य जातियों से कोई सम्बन्ध नहीं है । वास्तविकता यह है कि जातियाँ प्रकार्यात्मक रूप से एक – दूसरे से बँधी हैं , एक – दूसरे पर निर्भर हैं और पारस्परिक रूप से प्रथाओं द्वारा आदान – प्रदान के सम्बन्धों का पालन करती हैं । जजमानी व्यवस्था इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है । इस भाँति , बहुत बड़ी सीमा तक , भारतीय समाज की संरचना जातियों के परस्पर सम्बन्धों का ही एक प्रतिबिम्ब है । एम ० एन ० श्रीनिवास ने भारतीय सामाजिक संरचना का विवेचन करते हुए स्पष्ट लिखा है कि , “ जाति , समुदाय की स्वायत्तता की गारण्टी प्रदान करती है और साथ ही वह उस समुदाय को अन्य अनगिनत समुदायों के साथ सम्बन्धित करती है । इस भाँति , सामाजिक क्रम – सोपान की इस स्थापित होती है । भारत जैसे विशाल देश में जाति जैसी संस्था का महत्त्व सुस्पष्ट है । यहाँ भूतकाल में बहुत – सी विभिन्न संस्कृतियों का संगम होता रहा और यहाँ सदैव ही क्षेत्रीय विविधता बनी रही है । जाति व्यवस्था ने एक ओर , जाति – उपजाति की स्वायत्तता बनाए रखी तो इस स्वायत्तता की विद्यमानता तभी बनी रह सकती थी जब उसके सदस्य जाति – व्यवहार के प्रतिमानों व मूल्यों का पालन करते । समाजीकरण के द्वारा जाति के आदर्शों और मूल्यों का नवीन पीढ़ी में इस प्रकार आन्तरीकरण ( Internalization ) कर दिया जाता है कि वे मनुष्य के चिन्तन का भाग बन जाते हैं और वह स्वाभाविक ढंग से उनका पालन करता चला जाता है । जाति व्यवस्था सामाजिक नियन्त्रण के उपकरण के रूप में अपनी भूमिका निम्नलिखित तरीकों से दूसरी ओर , सामान्य रूप से स्वीकृत मूल्यों के अन्तर्गत उनमें परस्पर सम्बन्ध भी बनाए रखा ” निभाती है
( 1 ) सिद्धान्त – शिक्षण द्वारा नियन्त्रण ( Control through indoctrination ) सिद्धान्त – शिक्षण से तात्पर्य विचार के ढंगों और विश्वास के प्रतिमानों का मनुष्यों के मन में प्रवेश करने से है । मैकाइवर तथा पेज ने लिखा है कि , ” सभी स्थितियों के अन्तर्गत सभी नियामक प्रभावों में यह प्रक्रिया सबसे शक्तिशाली होती है । ” जाति व्यवस्था सिद्धान्त – शिक्षण का सबसे अधिक सहारा लेती है । बच्चे के जीवन में शुरू से ही जाति के विश्वास और व्यवहार प्रतिमान इस तरह से कूट – कूट कर भर दिए जाते हैं कि वह उन्हें निज के व्यवहार समझता है और स्वचालित ढंग से उनका पालन करता चला जाता है । सिद्धान्त – शिक्षण ही के कारण अस्पृश्यता जैसी प्रथा बनी रही और अस्पृश्य कही जाने वाली जातियों ने भी लम्बे असें तक उसके विरोध में आवाज नहीं उठाई । जाति द्वारा सामाजिक नियन्त्रण का यह अप्रत्यक्ष और अनौपचारिक तरीका
( 2 ) संस्कारों एवं प्रथाओं द्वारा नियन्त्रण ( Control through rituals and customs ) – प्रत्येक जाति के जीवन – क्रम सम्बन्धी संस्कार नियत होते हैं । इसी प्रकार उसके तीज – त्योहार , प्रमुख देवी – देवता और विवाह आदि की प्रथाएँ भी अलग – अलग होती हैं । संस्कारों और प्रथाओं के पालन करने से एक विशिष्ट रूप से व्यवहार करने की मनुष्य की आदत बन जाती है । आदत मनुष्य का दूसरा स्वभाव कही गई है । इसके अतिरिक्त , प्रथाओं के पीछे जनमत का समर्थन भी होता है । उनके साथ पूर्वजों का नाम जुड़ा होने से वे प्रतिष्ठित मानी जाती हैं । इन संस्कारों और प्रथाओं के द्वारा प्रत्येक जाति अपने सदस्यों के व्यवहार पर नियन्त्रण रखती है । इनका उल्लंघन या विरोध दुष्कर हो जाता है । सबसे अधिक प्रबलता जाति अन्तर्विवाह नियम की रही है । अपनी जाति में विवाह करने का बन्धन इतना मजबूत रहा है कि आज भी लोग इसे तोड़ने का साहस सरलता से नहीं कर सकते । इसी भाँति , खान – पान के नियम भी नियन्त्रण के साधन रहे हैं ।
( 3 ) जाति से सम्बन्धित धार्मिक विश्वासों द्वारा नियन्त्रण ( Control through religious beliefs related to caste ) – हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था का आधार धार्मिक रहा है । इरावती कर्वे ने जाति की प्रकृति का विवेचन करते हुए लिखा है कि हिन्दू धर्म के दो मौलिक सिद्धान्त जाति व्यवस्था के पोषक रहे हैं – कर्म का सिद्धान्त एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त । इन सिद्धान्तों ने जाति को एक दैवीय उपज बना दिया । प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म के अनुसार किसी जाति – विशेष में जन्म लेता है । अपनी जाति के अनुसार ही इस जन्म में कर्म करने से वह उच्च जाति में पुनर्जन्म या मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है । हिन्दू धर्म के ये विश्वास जाति व्यवस्था के नियन्त्रण को मजबूत बना देते हैं । कोई व्यक्ति सरलता से उस नियन्त्रण को चुनौती देने का साहस नहीं करता । वह जानता है कि जाति तो उसके अपने पिछले कर्मों का प्रतिफल है ।
( 4 ) पुरोहित वर्ग द्वारा नियन्त्रण ( Control through priestly class ) – मैक्स वेबर ने हिन्दू समाज व्यवस्था का विवेचन करते हुए स्पष्ट किया है कि जाति व्यवस्था को बनाए रखने में पुरोहित वर्ग का बड़ा हाथ रहा है । ब्राह्मणों का एक ऐसा वर्ग स्पष्ट रूप से बना रहा जो जातियों के लिए प्रहरी भी था और उनका जज भी । वह न केवल प्रथाओं और संस्कारों का निर्देशक था , बल्कि वह उल्लंघनकर्ताओं के लिए दण्ड एवं प्रायश्चित की व्यवस्था भी करता था । इसलिए यह पुरोहित वर्ग जाति के सदस्यों के लिए अप्रत्यक्ष नियन्त्रक भी था ।
( 5 ) जाति पंचायत द्वारा नियन्त्रण ( Control through caste panchayats ) – प्रत्येक जाति की परम्परागत जाति पंचायत रही है । जाति द्वारा नियन्त्रण की यह सबसे अधिक शक्तिशाली एजेन्सी थी । विवाह – शादी , उत्तराधिकार एवं परस्पर दायित्वों के निर्धारण के मामले जाति पंचायत ही निपटाती थी । जाति के चौधरी अथवा मुखिया का पद प्राय : वंशानुगत था । आज भी जाति पंचायतें सक्रिय हैं । इन पंचायतों के पास सदस्यों के नियन्त्रण के लिए पर्याप्त अभिमतियाँ ( Adequate sanctions ) थीं । वे न केवल जुर्माना कर सकती थीं , बल्कि सबसे बड़ा हथियार जाति – बहिष्कार का दण्ड भी दे सकती थीं । जो व्यक्ति जाति के बाहर कर दिया जाता था , उसके साथ रोटी – बेटी का व्यवहार बन्द हो जाता था । यही नहीं , उसके साथ दैनिक सामाजिक व्यवहार भी बन्द हो जाता था । इस स्थिति को ‘ हुक्का – पानी बन्द कर देना ‘ कहा जाता है । इस प्रकार , जाति पंचायत नियन्त्रण का एक स्पष्ट अभिकरण रही है ।
( 6 ) जाति संघों द्वारा नियन्त्रण ( Control through caste associations ) – आधुनिक युग में जाति के सुधार एवं उत्थान के लिए जाति संघों का भी उदय हुआ । यह जातियों के औपचारिक संगठन हैं जो अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करते हैं । यह भी देखा गया है कि अनेक उपजातियाँ मिलकर अब एक महासंघ का भी निर्माण कर रही हैं । जाति संघ सदस्यों के द्वारा दिए जाने वाले चन्दे और दान के माध्यम से अपना एक कोष स्थापित करते हैं जिनके द्वारा जाति सुधार और उत्पादन के लिए प्रचार किया जाता है । संगठित राजनीति के द्वारा जाति के हितों को आगे बढ़ाया जाता है । ये जाति संघ अपने सदस्यों के व्यवहार को नियन्त्रित करते हैं । सदस्य इनके आदेशों का पालन इसलिए करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि ऐसा करने में ही उनका हित है । जाति संघ जाति द्वारा नियन्त्रण के औपचारिक और आधुनिक माध्यम हैं ।
( 7 ) जन संचार के माध्यमों द्वारा नियन्त्रण ( Control through mass media ) – जातियों ने भी अपने सदस्यों को संगठित करने और उनके मध्य परस्पर सहयोग पैदा करने के लिए जन संचार के आधुनिक माध्यमों का उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया है । प्राय : इन माध्यमों का प्रयोग जाति संघों द्वारा किया जाता है । जाति के इतिहास की गौरवमयी परम्परा प्रकाशित की जाती है । निम्न जातियों में प्राय : यह देखा गया है कि वे अति प्राचीन काल में अपना उद्गम किसी उच्च वर्ग या महापुरुष से जोड़ती हैं , अपने पतन के कारणों का विश्लेषण करती हैं और पुनः पुरानी प्रतिष्ठा या उच्चता प्राप्त करने का दावा करती हैं । जाति सम्बन्धी मासिक अथवा पाक्षिक पत्र – पत्रिकाएँ भी निकाली जाती हैं जिनमें वैवाहिक विज्ञापन भी प्रकाशित किए जाते हैं । इस भाँति , जन संचार के माध्यमों के द्वारा जाति के सदस्यों के व्यवहार को प्रेरित किया जाता है । जाति द्वारा सामाजिक नियन्त्रण के ऐसे माध्यम अप्रत्यक्ष साधन है ।
जाति व्यवस्था के परिवर्तनशील प्रतिमान ( ( Changing Patterns of Caste System )
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना के बाद नई सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों ने जन्म लिया । अंग्रेजी शासनकाल में उद्योगों का विकास हुआ और सामान्तशाही व्यवस्था खत्म हो गई । औद्योगिक और मौद्रिक अर्थव्यवस्था का उत्तरोत्तर विकास होता गया । यातायात और संचार के साधनों के विकास के कारण जहाँ आन्तरिक तथा सांस्कृतिक एकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई वहीं पर जाति व्यवस्था का भी राजनीतिक एकीकरण में समायोजन हो गया । ईसाई मत के समतावादी विचारों के प्रभाव के कारण उच्च व निम्न जाति का अन्तर केवल कोरा और बेकार का आदर्श बन गया । ईसाई समाज के सम्पर्क और बहुमुखी विकास का एक परिणाम यह हुआ कि जाति व्यवस्था को आधार प्रदान करने वाले आर्थिक , सामाजिक और आदर्शात्मक विचार भी बदलने लगे , जिसके फलस्वरूप जाति के बहुमुखी आधार भी धीरे – धीरे परिवर्तित होने लगे । भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद जाति व्यवस्था के निषेधों , आदर्शों और मूलभूत आधारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं । भारतीय संविधान में जाति व्यवस्था के उन्मूलन का विशेष ध्यान रखा गया है तथा हर दृष्टि से जातिगत भेदों को दूर करने का प्रयास किया गया है । संविधान के अनुच्छेद 18 में उल्लेख किया गया है कि , ” राज्य प्रभावशाली तरीके से एक ऐसी समाज व्यवस्था की स्थापना और संरक्षण द्वारा लोक कल्याण में वृद्धि करेगा जिसमें राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं द्वारा व्यक्तियों को सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिल सके । ” जाति व्यवस्था पर सबसे बड़ा कुठाराघात 1955 ई ० के ‘ अस्पृश्यता निवारण अधिनियम ‘ द्वारा हुआ है । इस प्रकार , जाति व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं और होते जा रहे हैं । उसका परम्परागत रूप पूरी तरह बदल रहा है । वैसे तो जाति व्यवस्था हर समय और युग में कुछ – न – कुछ मात्रा में परिवर्तित होती रही है पर वर्तमान का यह परिवर्तन उसकी संरचना , निषेधों और मनोवृत्तियों को पूर्णरूपेण बदल रहा है । इन परिवर्तनों को हम निम्नलिखित आधारों पर समझ सकते हैं
जातीय संरचना में परिवर्तन ( Changes in Caste Structure )
आधुनिक युग में जाति व्यवस्था का स्वरूप और मौलिक आधार बदल रहा है । जाति व्यवस्था के संरचनात्मक परिवर्तनों को निम्नलिखित आधारों पर समझा जा सकता है
( 1 ) समाज के खण्डात्मक विभाजन में परिवर्तन – भारतीय जाति व्यवस्था समाज का खण्डात्मक विभाजन प्रस्तुत करती रही है । इसी के आधार पर यह देश अनेक समूहों और उपसमूहों में ऊँच – नीच के आधार पर बँटा रहा है । परन्तु आज जाति व्यवस्था की यह विशेषता पूर्णत : परिवर्तित हो गई है । आज व्यक्ति की भावनाएँ केवल जाति तक सीमित नहीं रह गई हैं । उसका पद , व्यवसाय और कर्त्तव्य का निर्धारण अब जाति पर नहीं , व्यक्तिगत योग्यता पर आधारित हो गया है ।
( 2 ) ब्राह्मणों की सर्वोच्च स्थिति में परिवर्तन सम्पूर्ण जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक अध्ययन यह बतलाता है कि जातीय संरचना में ब्राह्मणों का प्रभुत्व रहा है । इनकी शक्ति सर्वोपरि रही है जिसके फलस्वरूप इनका समाज के राजनीतिक , आर्थिक , धार्मिक और सामाजिक क्षेत्रों में सदा ही एकाधिकार रहा है । परन्तु आज हम देखते हैं कि यह रूप परिवर्तित होता जा रहा है क्योंकि जीवन की उच्चता और निम्नता अब जाति पर आधारित नहीं रह गई है ।
( 3 ) जातीय संस्तरण में परिवर्तन — जाति व्यवस्था समाज को असमान खण्डों में बाँटती है । परन्तु हम आज पाते हैं कि स्तरीकरण की धारणा में भी परिवर्तन हुआ है । आज अनेक जातियाँ और उपजातियाँ अपने – अपने समूहों को ऊँचा बताने और उठाने के लिए प्रयत्नशील हैं । हिन्दू समाज में जातीय उत्थान की इस प्रक्रिया को एम ० एन ० श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया माना है ।
( 4 ) अस्पृश्य जातियों की स्थिति में परिवर्तन – जातीय संरचना में सबसे निम्न स्थिति अछूत जातियों को दी गई थी । इन्हें अन्त्यज समझा जाता था तथा उन पर अनेक प्रकार की निर्योग्यताएँ लगा दी गई थीं । परन्तु अब उनकी सामाजिक स्थिति में भी परिवर्तन हुआ है । अब वे समान अधिकार प्राप्त समूह हैं तथा सामाजिक , आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में उनके अधिकार सवण के अधिकारों जैसे ही है । ये आधुनिक विचार भी जातीय संरचना के विपरीत हैं । इस दृष्टि से भी जातीय संरचना में परिवर्तन हुआ है । आज सभी जातियाँ हर दृष्टि से समान अधिकारों की मांग करने लगी हैं । इस प्रकार , आज जातीय संस्तरण की जो व्यवस्था पहले थी उसमें आमूल परिवर्तन हो गया है । इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन अछूतों की स्थिति में हुआ है तथा इसका प्रभाव सभी जातियों और उपजातियों पर पड़ा है ।
जातीय निषेधों में परिवर्तन ( Changes in Caste Restrictions )
आधुनिक युग में जातीय संरचना के अतिरिक्त जातीय निषेधों ( जो जाति व्यवस्था की उपज हैं ) के क्षेत्र में भी अत्यधिक परिवर्तन देखने को मिलते हैं । प्रमुख निषेधात्मक परिवर्तनों को निम्नवर्णित प्रकार से समझा जा सकता है
( 1 ) वैवाहिक प्रतिबन्धों में परिवर्तन – अन्तर्विवाही ( Endogamous ) व्यवस्था होने के कारण जाति अपने सदस्यों पर विवाह के सम्बन्ध में भी अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाती है । प्रमुख रूप से , प्रत्येक जाति अपने सदस्यों को अपनी जाति एवं उपजाति में ही विवाह करने का निर्देश देती है । इसके अतिरिक्त , इसमें कुलीन विवाह , विधवा पुनर्विवाह , सप्रवर , सगोत्र और सपिण्ड विवाह के भी निषेध रहे हैं । पर आज के युग में वैवाहिक मान्यताएँ पूरी तरह से बदल गई हैं और जाति के उपर्युक्त निषेध अधिक प्रभावशाली नहीं रहे हैं ।
( 2 ) सामाजिक सहवास के प्रतिबन्धों में परिवर्तन – परम्परागत जाति व्यवस्था अपने जातीय समूह के सदस्यों पर भोजन एवं सामाजिक सहवास पर भी निषेध लगाती है । परन्तु आज के युग में यह निषेध पूर्णत : समाप्त हो गए हैं । व्यक्ति विशाल नगरों में रहता है और उसके सामाजिक सम्बन्ध आज जाति की अपेक्षा उसके कार्यों द्वारा अधिक निर्देशित होते हैं ।
( 3 ) व्यवसाय सम्बन्धी निषेधों में परिवर्तन – जातिगत निषेधों में एक निषेध व्यवसाय के चुनाव के सम्बन्ध में भी रहा है । परम्परागत रूप से व्यक्ति को अपने जातीय व्यवसाय से बाहर व्यवसाय के चुनाव की स्वतन्त्रता नहीं थी । आज के युग में जातीय निषेध का यह आधार भी पूर्णत : समाप्त होता जा रहा है । नगरीय समाज में सभी लोग जाति का ख्याल न करते हुए अपनी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर व्यवसाय का चुनाव करने लगे हैं ।
( 4 ) सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यता सम्बन्धी निषेधों में परिवर्तन – जाति व्यवस्था के निषेधों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निषेध निम्न जातियों से सम्बन्धित धार्मिक और सामाजिक नियोग्यताएँ रही है । आज के युग में जो निषेधात्मक परिवर्तन हुए हैं उनमें इनकी समाप्ति उल्लेखनीय है । भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में महात्मा गांधी के प्रयासों से यह नियोग्यताएँ करीब – करीब समाप्त हो गई थीं और आज निम्न वर्गों को भी सामाजिक उत्थान का समान अवसर मिला है । अब सभी जातियों के लोगों को धार्मिक , आर्थिक , सामाजिक क्षेत्रों में समान रूप से प्रवेश और उपयोग का अधिकार मिल गया है । नगरीय समाजों में निरन्तर ऐसी शक्तियाँ क्रियाशील हैं जो इन निषेधों को कमजोर बना रही हैं ।
सो जातिगत मनोवृत्तियों में परिवर्तन ( Changes in Caste Attitudes )
संरचना और निषेधों में परिवर्तन के साथ – साथ जाति व्यवस्था की जो मनोवृत्ति इस समाज में गई थी अब वह भी धीरे – धीरे बदलती जा रही है । इस परिवर्तन को हम निम्नवर्णित आधारों पर
1 ) पेशे की ऊँच – नीच सम्बन्धी मनोवृत्ति में परिवर्तन – जाति की परम्पराओं में कुछ दशे ऊँचे निर्धारित हैं और कुछ निम्न स्तर के हैं तथा जातीय दृष्टिकोण से ही पेशों का चयन भी व्यक्ति करता रहा है । पेशों का यह वर्गीकरण धर्म की पवित्रता और अपवित्रता की धारणा से सम्बन्धित रहा है । निम्न जातियों के लोग निम्न पेशों का तथा उच्च जातियों के लोग ऊँचे पेशों का अयन करते रहे हैं । परन्तु आज के युग में व्यवसाय के सम्बन्ध में पवित्रता और अपवित्रता की धारणा पूरी तरह से समाप्त हो गई है और पेशे से सम्बन्धित व्यक्ति की मनोवृत्तियाँ भी बदल देख सकते हैं
( 2 ) जन्म की धारणा सम्बन्धी मनोवृत्ति में परिवर्तन – जाति व्यवस्था में जन्म का महत्व है । आज के समय में जन्म की यह धारणा बदल गई है । आज का जागरूक , विवेकशील और स्वतन्त्र व्यक्ति जन्म के आधार पर प्रतिष्ठा के निर्धारण को अन्धविश्वास और रूढ़िवादी विचार मानता है । आज के युग में कार्य और कुशलता का ज्यादा महत्त्व है , न कि जन्म का । इस प्रकार , जाति का मौलिक आधार जन्म और उससे सम्बन्धित मनोवृत्ति पूरी तरह से समाप्त हो गई है ।
( 3 ) जाति के अस्तित्व की मनोवृत्ति में परिवर्तन – जाति व्यवस्था भारतीय समाज को सदियों तक प्रभावित एवं नियमित करती रही है तथा व्यक्ति स्वाभाविक रूप से इसे स्वीकार करता रहा है । यद्यपि आज भी समाज की व्यवस्था कुछ सीमा तक इससे प्रभावित है पर आज के युग में जातीय अस्तित्व को व्यक्ति केवल अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए ही स्वीकार करता है तथा अपनी आत्मा से वह उसे स्वीकार नहीं कर पाता , अर्थात् जाति के अस्तित्व को स्वीकृति अब साधन या माध्यम – मात्र रह गई है । नगरों में शिक्षित और प्रगतिशील वर्ग इस बात को स्वीकार नहीं करता है कि जाति ईश्वरीय देन है और उसी के अनुसार व्यक्ति को चलना चाहिए ।
( द ) जाति व्यवस्था के सांस्कृतिक पक्ष में परिवर्तन ( Changes in the Cultural Aspect of Caste System ) भारतीय जाति व्यवस्था के सांस्कृतिक पक्ष की ओर यदि हम देखें तो हम पाते हैं कि इसका आधार धार्मिक है । जाति के भीतर जो व्यवसाय की ऊँच – नीच , खान – पान का प्रतिबन्ध , वैवाहिक प्रतिबन्ध या निम्न जातियों की जो निर्योग्यताएँ हैं उन सभी का आधार पवित्रता का विचार है और इस धारणा के आधार पर जाति की बहुत कुछ व्याख्या सम्भव है । पर आज के युग में हम देखते हैं कि अब यह पवित्रता की धारणा बदलती जा रही है । उसका आधार अब धर्म नहीं रह गया है , अपितु व्यक्तिगत कोशिश , धन , सत्ता आदि पर उसकी महत्ता निर्धारित हो गई है । कहने का तात्पर्य यह है आज के युग में जाति व्यवस्था का सांस्कृतिक पक्ष भी पूर्णत : बदलता जा रहा है । जाति व्यवस्था के विभिन्न पक्षों में हो रहे परिवर्तनों से यह स्पष्ट पता चलता है कि आज जाति व्यवस्था अपना परम्परागत रूप खो बैठी है और धीरे – धीरे इसका संरचनात्मक एवं संस्थागत रूप परिवर्तित होता जा रहा है । साथ ही , जाति व्यवस्था की आर्थिक महत्ता भी समाप्त होती जा रही है कुछ विद्वानों का कहना है कि जाति का स्थान वर्ग व्यवस्था लेती जा रही है ।
जाति व्यवस्था का भविष्य ( ( Future of Caste System )
जाति का भविष्य क्या है ? अथवा क्या भारत में जातिविहीन समाज की कोई सम्भावना है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर देना सरल नहीं है । जाति व्यवस्था में जो परिवर्तन हो रहे हैं उनके आधार पर कुछ विद्वानों ने यह मत प्रकट किया है कि जाति व्यवस्था अपना वास्तविक रूप खो बैठी है और धीरे – धीरे इसका संरचनात्मक एवं सांस्कृतिक पक्ष शिथिल होता जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप जाति व्यवस्था अपनी सभी मौलिक विशेषताएँ खोती जा रही है । आज आर्थिक व राजनीतिक आधार जाति से कहीं अधिक संस्तरण के सशक्त आधार बनते जा रहे हैं तथा कुछ विद्वान् जाति के स्थान पर भारत में वर्ग व्यवस्था के आ जाने की बात भी करने लगे हैं । परन्तु यह तर्क सरलता से स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इतनी पुरानी संस्था इतनी सरलता से परिवर्तित हो जाएगी यह सोचना भी एक भ्रम है । इतना ही नहीं , अनेक विद्वान् तो जाति को प्रजातन्त्र , राष्ट्रीय विकास व आधुनिकीकरण में सहायक मानते हैं तथा इस बात पर बल देते हैं कि जाति पहले की अपेक्षा भारतीय समाज में अधिक सुदृढ़ हो रही है । एम ० एन ० श्रीनिवास ( M.N. Srinivas ) ने लिखा है कि , “ यह तर्क का अच्छा विषय है कि आधुनिक भारत में जातीय चेतना व संगठन में वृद्धि हुई है । उदाहरण के लिए भारतीय नगरों में जातीय बैंकों , छात्रावासों , सहकारी समितियों , धर्मशालाओं , विवाह – भवनों , सम्मेलनों व पत्रिकाओं को देखिए । इन सब में वृद्धि इस बात का प्रतीक है कि जाति समाप्त होने के बजाय अधिक मजबूत होती जा रही है । ” के ० एम ० कपाडिया ( K. M. Kapadia ) ने भी इस बात पर बल दिया है कि भारत में बावन प्रतिशत अध्यापकों ( शिक्षित वर्ग ) में पर्याप्त व गहन जाति भावना पाई जाती है । औद्योगीकरण ने निश्चित ही इसका रूप बदलने में सहायता दी है परन्तु यह समाप्त नहीं हो रही है । टी ० बी ० बॉटोमोर ( T. B. Bottomore ) के अनुसार , ” ……. औद्योगीकरण के प्रभावों के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है और पश्चिमी देशों के साथ तुलना भ्रामक हो सकती है . … क्योंकि वहाँ संयुक्त परिवार और जाति प्रणाली नहीं है । ” वास्तव में , भारतीय समाज में जाति एक अत्यन्त प्राचीन संस्था है जिसकी जड़ें बहुत ही गहरी हैं । इसका प्रमाण जाति का हजारों वर्षों तक अस्तित्व में बने रहना है । धर्म द्वारा इसकी पुष्टि , अशिक्षा तथा कर्म व पुनर्जन्म के विचार इसे आज भी एक मजबूत संस्था बनाए हुए हैं । अत : इतनी प्राचीन व गहरी जड़ों वाली संस्था को पूर्णतः समाप्त कर जातिविहीन समाज का निर्माण अभी सम्भव नहीं लगता है । वास्तव में , जाति व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन समयानुकूल किसी भी संस्था में होने वाले परिवर्तनों जैसे हैं तथा इनके आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि जाति व्यवस्था समाप्त हो जाएगी । इस सन्दर्भ में एम ० एन ० श्रीनिवास ने ठीक ही लिखा है कि , “ मैं आपको स्पष्ट शब्दों में कह देना चाहता हूँ कि , यदि आप यह सोच रहे हैं कि हम जाति से सरलता से मुक्ति पा सकते हैं तो आप गम्भीर त्रुटि कर रहे हैं । जाति एक बहुत ही शक्तिशाली संस्था है और यह समाप्त होने से पूर्व बहुत ही खूनखराबा करेगी । “
क्या भारत में जाति व्यवस्था वर्ग व्यवस्था में परिवर्तित हो रही है । ( Is Caste System Changing into Class System in India ? )
भारत में जाति व्यवस्था की प्रारम्भ से ही प्रधानता रही है । अंग्रेजी शासनकाल में होने वाले परिवर्तनों के परिणामस्वरूप तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद उठाए गए अनेक कदमों से जाति व्यवस्था के स्वरूप में परिवर्तन हुआ । परन्तु , क्या भारत में जाति व्यवस्था पश्चिमी समाजों में पाई जाने वाली वर्ग व्यवस्था में परिवर्तित हो रही है ? इस प्रश्न का सम्बन्ध जाति एवं वर्ग की सीमाओं से है । जाति व्यवस्था समाज की ऐसी खण्डात्मक व्यवस्था है जिसके विभिन्न स्तरों ( जातियों ) में प्रकार्यात्मक रूप से सहयोग पाया जाता है । वर्ग व्यवस्था भी एक खण्डात्मक व्यवस्था है जिसके विभिन्न स्तरों ( वर्गों ) में प्रतियोगिता पाई जाती है । इन दोनों की सीमाओं से सम्बन्धित एक अन्य अन्तर ( जैसा कि एडमण्ड लीच ने बताया है ) यह है कि वर्ग समाजों में विशिष्ट जनसमूह अल्पसंख्यक समूह हैं तथा बहुसंख्यक निम्न वर्गों के लोग विशिष्टजनों का समर्थन पाने के लिए आपस में प्रतियोगिता में लगे हुए हैं । जाति व्यवस्था में इनके विपरीत बात पाई जाती है , क्योंकि प्रभु जातियों में निम्न जातियों के व्यक्तियों का समर्थन प्राप्त करने के लिए होड़ पाई जाती है । क्या यह स्तरीकरण की दो विभिन्न व्यवस्थाएँ हमारे समाज में एक साथ पाई जाती हैं अथवा केवल एक ही पाई जाती है ? इसके बारे में भी विद्वानों में अधिक सहमति नहीं है । बहुत – से विद्वानों ने यह मत प्रकट किया है कि वर्ग व्यवस्था ( मार्क्स के शब्दों में अगर वर्ग व्यवस्था को वर्ग चेतना की दृष्टि से देखा जाए ) भारतीय समाज के सन्दर्भ में पाई ही नहीं जाती क्योंकि यहाँ प्रारम्भ से ही जाति व्यवस्था की प्रधानता रही है , जबकि आन्द्रे बेतेई ( Andre Beteille ) जैसे विद्वानों ने यह विचार प्रकट किया है कि वर्ग व्यवस्था भारतीय समाज में पाई जाती है । वास्तव में इनका विचार है कि समाजशास्त्री एवं सामाजिक मानवशास्त्री भारत में वर्ग व्यवस्था के अध्ययन में अधिक शर्मीले रहे हैं । योगेन्द्र सिंह ( Yogendra Singh ) ने भारत में जाति एवं वर्ग के परस्पर सम्बन्धों की चर्चा करते हुए इस बात पर बल दिया है कि जाति तथा वर्ग एक ही बिन्दु पर मिलते ( Coincide ) हैं । इसका अर्थ यह है कि जाति और वर्ग आपस में पूर्ण रूप से जुड़े हुए हैं । अगर हम परम्परागत रूप से जाति व्यवस्था को देखें तो यह पाते हैं कि उच्च जाति के लोग सामान्यत : आर्थिक दृष्टि से भी उच्च थे ( अर्थात् उच्च वर्ग के थे ) । क्योंकि जाति व्यवस्था भारतीय समाज में एक सुदृढ़ व्यवस्था रही है , अत : इसने वर्ग व्यवस्था को अपने नीचे दबाए रखा है और उसे उभरने नहीं दिया है । लोगों की जागरूकता तथा वफादारी जाति के प्रति रही है , न कि वर्ग के प्रति ।
क्या भारतीय समाज में जाति वर्ग में परिवर्तित हो रही है ?
जाति व्यवस्था में आज नगरीकरण , औद्योगीकरण , पश्चिमीकरण , संस्कृतिकरण , आधुनिकीकरण तथा शिक्षा , आवागमन एवं संचार के साधनों में विकास के कारण महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे हैं । इसकी कठोर निषेधात्मक प्रवृत्ति ढीली होती जा रही है । इसका परिणाम यह हुआ है कि वर्ग व्यवस्था , जिसे पहले जाति व्यवस्था अपने अन्दर समाए हुए थी , अब उससे पृथक् होने लगी है । साथ ही , आज जातियों में सहयोग ( जोकि इस व्यवस्था की सबसे प्रमुख विशेषता रही है ) समाप्त होता जा रहा है और इसका स्थान प्रतियोगिता ( वर्ग व्यवस्था की विशेषता ) लेती जा रही है । विभिन्न विद्वानों ने भारतीय समाज में पाए जाने वाले विभिन्न वर्गों ( जैसे भू – स्वामी वर्ग , पूँजीपति वर्ग , श्रमिक वर्ग , काश्तकार वर्ग इत्यादि ) का उल्लेख किया है । परन्तु क्या इस परिवर्तन के आधार पर ही हम यह कह सकते हैं कि जाति व्यवस्था आज हमारे समाज में समाप्त होती जा रही है और उसका स्थान वर्ग व्यवस्था लेती जा रही है ? शायद नहीं , क्योंकि वर्ग व्यवस्था हमारे समाज में उभर रही है , इसके बारे में कोई सन्देह नहीं है , परन्तु यह जाति व्यवस्था की समाप्ति का सूचक है , इसे स्वीकार करने में कठिनाइयाँ हैं । जाति व्यवस्था में यद्यपि अनेक संरचनात्मक एवं संस्थागत परिवर्तन हो रहे हैं , फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह व्यवस्था हमारे समाज में समाप्त होती जा रही है । अगर जाति व्यवस्था से सम्बन्धित सभी निषेध पूर्णतः समाप्त हो जाएँ और इसमें वर्ग व्यवस्था की तरह खुलापन आ जाए , तो हमें इस तर्क को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होगी , परन्तु अभी ऐसा नहीं है , अत : अभी यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि भारत में जाति वर्ग में परिवर्तित हो रही है
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में
INTRODUCTION TO SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2kHe1iFMwct0QNJUR_bRCw
SOCIAL CHANGE: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R32rSjP_FRX8WfdjINfujwJ
SOCIAL PROBLEMS: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R0LaTcYAYtPZO4F8ZEh79Fl
INDIAN SOCIETY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R1cT4sEGOdNGRLB7u4Ly05x
SOCIAL THOUGHT: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2OD8O3BixFBOF13rVr75zW
RURAL SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R0XA5flVouraVF5f_rEMKm_
INDIAN SOCIOLOGICAL THOUGHT: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R1UnrT9Z6yi6D16tt6ZCF9H
SOCIOLOGICAL THEORIES: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R39-po-I8ohtrHsXuKE_3Xr
SOCIAL DEMOGRAPHY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R3GyP1kUrxlcXTjIQoOWi8C
TECHNIQUES OF SOCIAL RESEARCH: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R1CmYVtxuXRKzHkNWV7QIZZ
*Sociology MCQ 1*
*SOCIOLOGY MCQ 3*
**SOCIAL THOUGHT MCQ*
*SOCIAL RESEARCH MCQ 1*
*SOCIAL RESEARCH MCQ 2*
*SOCIAL CHANGE MCQ 1*
*RURAL SOCIOLOGY MCQ*
*SOCIAL CHANGE MCQ 2*
*Social problems*
*SOCIAL DEMOGRAPHY MCQ 1*
*SOCIAL DEMOGRAPHY MCQ 2*
*SOCIOLOGICAL THEORIES MCQ*
*SOCOLOGICAL PRACTICE 1*
*SOCOLOGICAL PRACTICE 2*
*SOCOLOGICAL PRACTICE 3*
*SOCOLOGICAL PRACTICE 4*
*SOCOLOGICAL PRACTICE 5*
*SOCOLOGICAL PRACTICE 6*
*NET SOCIOLOGY QUESTIONS 1*
**NET SOCIOLOGY QUESTIONS 2*
*SOCIAL CHANGE MCQ*
*SOCIAL RESEARCH MCQ*
*SOCIAL THOUGHT MCQ*
Attachments area
Preview YouTube video SOCIOLOGY MCQ PRACTICE SET -1
Preview YouTube video SOCIOLOGY MCQ PRACTICE SET -1
This course is very important for Basics GS for IAS /PCS and competitive exams
*Complete General Studies Practice in Two weeks*
https://www.udemy.com/course/gk-and-gs-important-practice-set/?couponCode=CA7C4945E755CA1194E5
**General science* *and* *Computer*
*Must enrol in this free* *online course*
**English Beginners* *Course for 10 days*
https://www.udemy.com/course/english-beginners-course-for-10-days/?couponCode=D671C1939F6325A61D67
https://www.udemy.com/course/social-thought-in-english/?couponCode=1B6B3E02486AB72E35CF
https://www.udemy.com/course/social-thought-in-english/?couponCode=1B6B3E02486AB72E35CF
ARABIC BASIC LEARNING COURSE IN 2 WEEKS
Beginners Urdu Learning Course in 2Weeks
https://www.udemy.com/course/learn-hindi-to-urdu-in-2-weeks/?couponCode=6F9F80805702BD5B548F
Hindi Beginners Learning in One week
https://www.udemy.com/course/english-to-hindi-learning-in-2-weeks/?couponCode=3E4531F5A755961E373A
Free Sanskrit Language Tutorial
Follow this link to join my WhatsApp group: https://chat.whatsapp.com/Dbju35ttCgAGMxCyHC1P5Q
https://t.me/+ujm7q1eMbMMwMmZl
Join What app group for IAS PCS
https://chat.whatsapp.com/GHlOVaf9czx4QSn8NfK3Bz
https://www.facebook.com/masoom.eqbal.7
https://www.instagram.com/p/Cdga9ixvAp-/?igshid=YmMyMTA2M2Y=