समाजशास्त्र की विषय – वस्तु
(SUBJRCT MATTER OF SOCIOLOGY)
साधारणतया लोग क्षेत्र (क्षेत्र) और विषय – वस्तु (विषय – पदार्थ) को एक ही अर्थ में समझते हैं। ऐसा समझना गलत है। अध्ययन – क्षेत्र और विषय – वस्तु में अन्तर होता है। क्षेत्र का अर्थ उस सीमा से है जिसके दायरे में रहकर कोई भी विज्ञान अध्ययन करता है। विषय – वस्तु का अर्थ उन निश्चित विषयों से है जिनका अध्ययन कोई भी विज्ञान करता है। जिस सीमा तक समाजशास्त्र का अध्ययन होता है वह उसका अध्ययन – क्षेत्र है और जिन निश्चित विषयों का अध्ययन समाजशास्त्र के अन्तर्गत होता है वह उसका विषय है – वस्तु है। समाजशास्त्र के अध्ययन – क्षेत्र की तरह इसके विषय – वस्तु के सम्बन्ध में भी विद्वानों के विचारों में भिन्नता है। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने अपने – अपने विचारों को अपने दृष्टिकोण के आधार पर प्रस्तुत किया है। यहाँ कुछ प्रमुख विद्वानों के विचारों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
दुर्खेम ( Durkheim ) के विचार –
दुर्खेम ने ‘ सामाजिक तथ्यो ‘ ( Social facts ) को समाजशास्त्र की विषय – वस्तु माना है । उसने बताया कि सामाजिक तथ्य कार्य करने का अथवा व्यवहार करने का एक ढग . जिसमें व्यक्ति पर बाह्य रूप से दबाव डालने की क्षमता होती है । दुर्खेम ने समाजशास्त्र की विषय – वस्तु का तान प्रमुख भागों में व्यक्त किया है
सामाजिक स्वरूपशाख( Social Morphology ) में मानव – जीवन पर भौगोलिक पर्यावरण का प्रभाव तथा सामाजिक संगठन के साथ उसके दुर्खेम के विचार सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है । उदाहरण के लिए जनसंख्या का घनत्व व उनका विभिन्न स्थानों में वितरण इत्यादि । ।
( ii ) सामाजिक शरीरशास्त्र ( Social Physiology ) दुखेम सामाजिक शरीरशास्त्र ने समाज की तुलना शरीर से करते हुए बताया कि समाजरूपी शरीर ( Social Physiology ) का निर्माता धर्म , नीति , भाषा , कानून , परिवार आदि से होता है । इसका
( iii ) सामान्य समाजशास्त्र अध्ययन शास्त्रीय दृष्टिकोण से किया जाता है । इसका अध्ययन समाज ( General Sociology ) रूपी शरीर को समझने में आवश्यक होता है । ये सभी समाजशास्त्र के विभिन्न शाखाओं के रूप में विकसित हुए है । ( iii ) सामान्य समाजशास्त्र ( General Sociology ) – इसके अन्तर्गत सामाजिक तथ्यों को ज्ञात किया जाता है । ऐसे सामान्य नियमों की खोज की जाती है . जो अन्य सामाजिक विज्ञानों के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं । ये सामाजिक जीवन की स्थिरता एवं निरन्तरता के लिए भी आवश्यक होते हैं ।
जिन्सबर्ग ( Ginsberg ) के विचार –
जिन्सबर्ग ने समाजशास की विषय – वस्तु को चार भागों में बाँटकर प्रस्तुत किया है
( i ) सामाजिक स्वरूपशाख ( Social Morphology ) – इसके अन्तर्गत उन विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है जो समाज के आकार व स्वरूप को निश्चित करती है । अर्थात् इसमें समाज के आकार व स्वरूप के निर्माण करने वाली विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है । उदाहरणस्वरूप जनसंख्या का आकार । इसके अलावा सामाजिक संरचना के निर्माण करने वाले समूहों एवं संस्थाओं जिन्सबर्ग के विचार का भी अध्ययन इसके अन्तर्गत किया जाता है । ( i ) सामाजिक स्वरूपशाख
( ii ) सामाजिक प्रक्रियाएँ ( SocialProcesses ) – इसके अन्तर्गत ( Social Morphology ) उन सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है जो व्यक्तियों व ( ii ) सामाजिक प्रक्रियाएँ समूहों के बीच पायी जाती है । सामाजिक सम्बन्ध ही सामाजिक प्रक्रिया ( Social Processes ) के रूप में विभिन्न व्यक्तियों व समूहों के बीच व्यक्त होते है । उदाहरणस्वरूप संघर्ष , सहयोग , प्रतिस्पर्धा , प्रभुत्व इत्यादि । ये सब सामाजिक प्रक्रियाएँ ( iii ) सामाजिक नियन्त्रण हैं जो सामाजिक सम्बन्धों को व्यक्त करती हैं । इन सबका अध्ययन समाजशास्त्र ( Social Control ) में किया जाता है । ( iv ) सामाजिक व्याधिकी
( iii ) सामाजिक नियन्त्रण ( Social Control ) – इसके अन्तर्गत ( Social Pathology ) उन सब विषयों का अध्ययन किया जाता है , जिन्हें समाज लोगों के व्यवहारों को नियमित करने के लिए प्रयोग में लाता है । हर समाज के अपने नियम – कानून एवं तौर – तरीके होते हैं . जिन्हें व्यक्ति को पालन करना पड़ता है । व्यक्ति मनमाना ढंग से कार्य न करे इसके लिए समाज में नियन्त्रण की आवश्यकता होती है । समाज जिनके द्वारा व्यक्तियों के व्यवहारों को नियन्त्रित करता है उनका अध्ययन समाजशास्त्र करता है । उदाहरणस्वरूप परिवार , धर्म , कानून , राज्य , प्रथा इत्यादि ।
( iv ) सामाजिक व्याधिकी ( Social Pathology ) – समाज में सामाजिक समस्या उत्पन्न करने वाली तथा सामाजिक विघटन करने वाली परिस्थितियों का अध्ययन इसके अन्तर्गत किया जाता है । अर्थात जो बाते समाज में समस्या या विघटन की स्थिति उत्पन्न करती हैं उनका भी अध्ययन समाजशास्त्र में किया जाता है । उदाहरणस्वरूप वेश्यावत्ति , गरीबी , अपराध , बाल – अपराध , बेकारी , इत्यादि । ये सब समाज में समस्या उत्पन्न करते है ।
केयर्स के विचार – केयर्स ने समाजशास्त्र की विषय – वस्तु को छ : भागों में प्रस्तुत किया है –
( i ) मानव का क्रियाएँ ( Human Actions ) – इसके अन्तर्गत केयर्स ने मानव की शारीरिक एवं मानासक दोनों क्रियाओं को सम्मिलित किया है । इन दोनों प्रकार की क्रियाओं का अध्ययन समाजशास्त्र करता है ।
( ii) सामाजिक संगठन ( SocialOrganization ) समाज में सामाजिक संगठन बनाये रखने वाले तत्त्वों का अध्ययन समाजशास्त्र करता है । सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने वाले तत्त्व जैसे परिवार , जाति , समूह आदि का अध्ययन समाजशास्त्र के अन्तर्गत होता है ।
( iii ) सामाजिक नियन्त्रण ( Social Control ) केयर्स ने भी सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने वाले साधना का समाजशास्त्र की विषय – वस्तु माना है । उन्होंने कहा कि जिन – जिन साधनों के द्वारा समाज व्याक्तया क व्यवहारों को नियन्त्रित करता है उनका अध्ययन समाजशास्त्र करता है । केयर्स के विचार
( iv ) सामाजिक परिवर्तन ( Social Change ) – केयर्स के अनुसार समाजशास्त्र समाज में परिवर्तन लाने वाले कारकों का भी अध्ययन ( i ) मानव की क्रियाएँ की करता है । कोई भी समाज चाहे वह आधुनिक हो या परम्परागत , उनमें ( Human Actions ) कुछ – न – कुछ परिवर्तन होते रहते हैं । समाज में परिवर्तन होने के विभिन्न ( ii ) सामाजिक संगठन सन कारक है । इन्हीं कारकों का अध्ययन समाजशास्त्र करता है । जैसे आर्थिक , ( Social Organization ) सांस्कृतिक , सामाजिक तथा जैवकीय कारक इत्यादि । ( iii ) सामाजिक नियन्त्रण स
( v ) सामाजिक संस्थाएँ ( Social Institutions ) समाज में विभिन्न प्रकार की सामाजिक संस्थाएँ पायी जाती है । ये संस्थाएँ व्यक्तियों
( vi ) सामाजिक संहिताएँ ( Social Codes ) – केयर्स के अनुसार आधुनिक जटिल समाज में व्यक्तियों के व्यवहारों को सामाजिक संहिताएँ संहिताओं ( Political Codes ) द्वारा नियन्त्रित किया जाता है । अर्थात् ( Social Codes ) ये संहिताएँ सामाजिक नियन्त्रण का कार्य करती है । अतः समाजशास्त्र इन सामाजिक संहिताओं का भी अध्ययन करता है । इन तीनों विद्वानों के अलावा कार्ल मैनहीम , जॉर्ज सिमेल , यूटर व हार्ट ने भी समाजशास्त्र की विषय – वस्तु पर प्रकाश डाला है । समाजशास्त्र की विषय – वस्तु के सम्बन्ध में जितने भी विचार दिये गये हैं उन सबका प्रमुख आधार समाज ही है । अर्थात् समाजशास्त्र समग्र रूप से समाज का अध्ययन करता है । मेकाइवर तथा पेज ने कहा है कि समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि समाजशास्त्र की वास्तविक विषय – वस्तु सामाजिक सम्बन्ध ही है । समाजशास्त्र की विषय – वस्तु के सम्बन्ध में समाजशास्त्रियों के मन में हमेशा से यह प्रश्न उठता आ रहा है कि समाजशास्त्र की विषय – वस्तु क्या है ? इस दिशा में मुख्य बात यह है कि समाज की प्रकृति परिवर्तनशील है । समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है इसका अध्ययन हमलोगों ने पहले ही कर लिया है । इसलिए समाजशास की अध्ययन – वस्तु में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक बात है । अमेरिका में समाजशास्त्र की विषय – वस्त के सम्बन्ध में समाजशास्त्रियों की एक बैठक हुई , जिसमें विभिन्न विषयों को सम्मिलित किया गया ।
प्रो० इंकल्स ( Inkles) ने उसकी रूप – रेखा को निम्नलिखित रूप से प्रस्तुत किया है ।
1 . समाजशास्त्रीय विश्लेषण ( i ) मानव संस्कृति एवं समाज ( ii ) समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण ( iii ) सामाजिक विज्ञानों में वैज्ञानिक पद्धति
2 . सामाजिक जीवन की प्राथमिक इकाइयाँ
( i ) सामाजिक क्रिया तथा सामाजिक सम्बन्ध
(II) मानव का व्यक्तित्व
( iii ) समूह – प्रजाति तथा वर्ग भी सम्मिलित है
iv ) समुदाय – नगरीय एवं ग्रामीण
( v ) समितियाँ एवं संगठन
( vi ) जनसंख्या
( vii ) समाज