समाजशास्त्र का ऐतिहासिक प्रारम्भ
( उद्भव एवं विकास )
यूरोप में होने वाले अमूलचूल परिवर्तनों एवं इनके परिणामस्वरूप उत्पन्न समस्याओं को समझने के प्रयास से इस विषय का विकास हुआ है । आज समाजशास्त्र सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण विषय माना जाता है । विश्व के सभी देशों में यह विज्ञान अन्य सामाजिक विज्ञानों की तुलना में अग्रणी स्थान प्राप्त करता जा रहा है व्यक्ति अपने स्वभाव के कारण एक जिज्ञासु प्राणी है और इसी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण उसने प्रारम्भ से ही अपने समय में प्रचलित विविध प्रकार की सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को समझने का प्रयास किया है । भारत के प्राचीन ग्रन्थों में समाज के विभिन्न पहलुओं का उल्लेख विविध प्रकार से किया गया है । उदाहरणार्थ , वैदिक साहित्य एवं हिन्दू शास्त्रों ( जैसे उपनिषदों , महाभारत एवं गीता आदि ग्रन्थों ) में वर्ण एवं जाति व्यवस्था , संयुक्त परिवार प्रणाली , आश्रम व्यवस्था , विभिन्न संस्कारों तथा ऋण व्यवस्था जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण सामाजिक पहलुओं का विधिवत् विवरण मिलता है जो कि आज के समाजशास्त्रीय विश्लेषणों के किसी भी मापदण्ड से कम नहीं है । अरस्तू की पुस्तक ‘ पॉलिटिक्स ‘ , प्लेटो की ‘ रिपब्लिक ‘ तथा कौटिल्य का ‘ अर्थशास्त्र आदि ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें समाज के विभिन्न पहलुओं की चर्चा की गई है ।
यद्यपि सामाजिक पहलुओं के अध्ययन की एक लम्बी परम्परा रही है , फिर भी समाजशास्त्र विषय का एक संस्थागत विषय के रूप में उद्भव एवं विकास 19 वीं शताब्दी में हुआ जबकि ऑगस्त कॉम्ट ने सर्वप्रथम 1838 ई ० में ‘ समाजशास्त्र ‘ शब्द का प्रयोग किया । उनका विचार था कि कोई भी विषय ऐसा नहीं है जो कि समाज के विभिन्न पहलुओं का समग्र रूप में अध्ययन कर सकता हो । इस कमी को दूर करने के लिए उन्होंने इस नवीन विषय का निर्माण किया । उन्नीसवीं शताब्दी के समाजशास्त्र को यद्यपि निश्चयात्मक ( Positive ) विज्ञान माना गया है जिसका प्रभाव प्राकृतिक विज्ञानों के समान था , फिर भी यह इतिहास के दर्शन एवं जैविक सिद्धान्तों के प्रभाव के कारण उद्विकासवादी था । साथ ही इसमें मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन एवं सम्पूर्ण इतिहास से सम्बन्धित अध्ययन किए जाते थे अर्थात् इसकी प्रकृति विश्वकोशीय थी । समाजशास्त्र जैसे नवीन विज्ञान को समझने हेतु इसके उद्गम एवं विकास का अध्ययन करना अनिवार्य है ।
समाजशास्त्र का उद्गम एवं विकास पश्चिमी यूरोप की सामाजिक परिस्थितियों की देन है । औद्योगिक क्रान्ति , फ्रांस की क्रान्ति तथा ज्ञानोदय की इसके विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । इनके परिणामस्वरूप न केवल पश्चिमी समाजों में एक नवीन आर्थिक क्रियाकलाप की पद्धति ( जिसे पूँजीवाद कहा जाता है ) विकसित हुई अपितु इनसे इन देशों की सामाजिक संरचना पर भी गहरा प्रभाव पड़ा ।
गाँव से शहरों की ओर प्रवर्जन , सामाजिक गतिशीलता , शिक्षा एवं रोजगार में वृद्धि , लौकिक दृष्टिकोण के विकास के साथ – साथ अनेक सामाजिक समस्याएँ भी विकसित होने लगीं । औद्योगिक मजदूरों एवं खेतिहर मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई तथा उत्पादन कार्यों में इनका शोषण होने लगा । पूँजीवाद की सेवा हेतु सत्रहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी में बड़ी संख्या में अफ्रीकियों को दास बनाया गया । यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दास प्रथा कम होने लगी , तथापि अनेक उपनिवेशवादी देशों में यह बँधुआ मजदूरों के रूप में आज भी प्रचलित है । इन सभी परिवर्तनों एवं समस्याओं के बारे में विद्वानों द्वारा चिन्तन के परिणामस्वरूप समाजशास्त्र का विकास हुआ है ।
19 वीं शताब्दी में समाजशास्त्र के विकास में अनेक बौद्धिक एवं भौतिक परिस्थितियों ने सहायता प्रदान की , जिनमें से चार बौद्धिक परिस्थितियों को टी ० बी ० बॉटोमोर ( T. B. Bottomore ) ने महत्त्वपूर्ण माना है ।
ये परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं
( 1 ) राजनीति का दर्शन ( Political Philosophy ) ,
( 2 ) इतिहास का दर्शन ( The philosophy of history ) ,
( 3 ) उदविकास के जैविक सिद्धान्त ( Biological theories of evolution ) तथा
( 4 ) सामाजिक एवं राजनीतिक सुधारात्मक आन्दोलन ( The movement for social and political reform ) | इनमें से दो , इतिहास के दर्शन तथा सामाजिक सर्वेक्षण ( जो कि आन्दोलनों के परिणामस्वरूप शुरू हुए ) , ने प्रारम्भ में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है ।
एक विशिष्ट शाखा के रूप में इतिहास का दर्शन अठारहवीं शताब्दी की देन है जिसे अबे डे सेण्ट – पियरे ( Abbe de Saint – Pieare ) तथा ग्यिम्बाटिसटा विको ( Giambattista Vieo ) ने शुरू किया । प्रगति के जिस सामान्य विचार को निर्मित करने का उन्होंने प्रयत्न किया उसने मानव की इतिहास सम्बन्धी धारणा को गम्भीर रूप से प्रभावित किया । फ्रांस में मॉण्टेस्क्यू ( Montesquieu ) और वॉल्टेयर ( Voltaire ) , जर्मनी में हर्डर ( Herder ) तथा स्कॉटिश इतिहासज्ञों एवं दार्शनिकों जैसे फर्ग्युसन ( Ferguson ) , मिलर ( Millar ) , रोबर्टसन ( Robertson ) इत्यादि की रचनाओं में इतिहास के दर्शन का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ।
19 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हीगल ( Hegel ) तथा सेण्ट साइमन ( Saint Simon ) के लेखों के परिणामस्वरूप इतिहास का दर्शन एक प्रमुख बौद्धिक प्रभाव बन गया । इन्हीं दोनों विचारकों से कार्ल मार्क्स ( Karl Marx ) तथा ऑगस्त कॉम्ट ( Auguste Comte ) की रचनाएँ विकसित हुई । समाज की नवीन धारणा , जो कि राज्य की धारणा से भिन्न है , दार्शनिक इतिहासकारों की ही देन है । आधुनिक समाजशास्त्र के विकास में सहायक दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व सामाजिक सर्वेक्षण कहा जा सकता है जिसके दो प्रमुख स्रोत थे – प्रथम , यह विश्वास कि प्राकृतिक विज्ञान की पद्धतियों को सामाजिक घटनाओं एवं मानव क्रियाकलापों के अध्ययन में प्रयुक्त किया जा सकता है और दूसरा , यह विश्वास कि गरीबी प्रकृति या दैवी प्रकोप नहीं है अपितु मानव प्रयास द्वारा इसे दूर किया जा सकता है । इन दोनों विश्वासों के परिणामस्वरूप समाज – सुधार के लिए किए गए इन आन्दोलनों का 18 वीं तथा 19 वीं शताब्दी के पश्चिमी यूरोप की सामाजिक परिस्थितियों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध था । सामाजिक परिवर्तन में रुचि के कारण ऐतिहासिक तथा सामाजिक आन्दोलनों की ओर ध्यान दिया जाने लगा । समाजशास्त्र के विकास से जुड़े सभी प्रारम्भिक विचारक 19 वीं सदी में पश्चिमी यूरोप में विद्यमान सामाजिक , आर्थिक एवं राजनीतिक दशाओं या शक्तियों से प्रभावित थे । यही वह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है जिससे समाजशास्त्र का उदय हुआ ।
अनेक विद्वानों ; जैसे बाल्डरिज ( Baldridge ) ने उन तत्कालीन सामाजिक , आर्थिक तथा राजनीतिक दशाओं का वर्णन किया है जिन्होंने समाजशास्त्र के विकास को प्रेरित किया है । ये दशाएँ निम्नलिखित हैं
( 1 ) तीव्र एवं क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन – बाल्डरिज ने उचित ही लिखा है , ” 19 वीं शताब्दी में जितनी अधिक तीव्रता से परिवर्तन घटित हो रहा था उतना इतिहास में अन्य किसी काल में घटित नहीं हुआ । इस शताब्दी में इन तीव्र सामाजिक परिवर्तनों के तीन प्रमुख कारण थे
( i ) औद्योगिक क्रान्ति -1750 ई ० को इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति का प्रारम्भ वर्ष माना जाता है । यह क्रान्ति लगभग सौ वर्ष अर्थात 1850 ई ० में पूर्ण हुई । इस क्रान्ति ने वस्तुओं के उत्पादन की प्रक्रिया में बृहत् मशीनों के प्रयोग का प्रचलन किया । ये मशीनें शक्ति के जड़ साधन ; जैसे – भाप से चालित होती थीं । उत्पादन में मशीनों के प्रयोग पर आधारित तकनीकी ने आधुनिक उद्योगों का प्रारम्भ किया । भूमि के स्थान पर धन का प्रमुख स्रोत उद्योग बन गए । पुराने कुटीर उद्योग – धन्धे ढह गए । फैक्ट्रियों व कारखानों में काम करने के लिए से मजदूर आकर एकत्रित होने लगे । हाथ के कारीगर बेरोजगार हो गए थे और वे कारखानों में काम करने के लिए मजबूर थे । बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए बड़ी मात्रा में कच्चे माल की खपत होने लगी । निर्मित माल के विक्रय के लिए बाजार का भी विस्तार आवश्यक हो गया । पश्चिमी यूरोप के देशों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय बाजार तलाशना स्वाभाविक बन गया । औद्योगीकरण ने भूमि से आय पर आधारित सामन्तशाही को धराशाही कर दिया ।
उद्योगपतियों की आपसी होड़ और अधिक – से – अधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप कारखानों में मजदूरों की दशा दयनीय हो गई । 12 14 घण्टे काम लिया जाना स्वाभाविक था , स्त्रियाँ और बच्चे भी खानों में काम पर लगाए जाने लगे क्योंकि वे पुरुषों की अपेक्षा सस्ते मजदूर थे । हवा थ प्रकाश की व्यवस्था नहीं थी । व्यवसाय में मजदूर के रोगग्रस्त हो जाने या दुर्घटना में अंग – भंग हो जाने या मर जाने पर भी क्षतिपूर्ति के कोई नियम नहीं थे । औद्योगिक नगर समृद्धि के चारों और दर्दनाक गरीबी के साक्षी बन गए थे । पुराने सामाजिक मूल्य और परम्पराएँ आम जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक नहीं रह गए थे । नए मूल्यों और परम्पराओं का पूरी तरह विकास नहीं हो पाया था ।
( 11 ) नगरीय क्रान्ति – स्पष्ट है कि उद्योगों की शुरुआत नगरों में हुई । इस प्रकार , तीव्र गति से नगरीकरण हुआ । गाँव से शहरों की ओर प्रवास ने नगरीय जीवन के आदर्शों और मूल्यों को कस्बों और ग्रामों की जनता में फैलने में सहायता प्रदान की । औपचारिकता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के विकास को बल मिला । इस नगरीकरण में उत्तरोत्तर जटिल होते हुए श्रम – विभाजन और विशिष्टीकरण ने भी योगदान प्रदान किया । भाप के रेल के इंजन के आविष्कार ने यातायात के क्षेत्र में नई क्रान्ति ला दी । प्रत्येक राष्ट्र में रेलों का जाल बिछाया जाने लगा । इससे न केवल यातायात का वरन् संवाद वहन ( संचार ) का भी कल्पनातीत विस्तार हुआ । नगरीकरण ने छोटे – छोटे कृषि समुदायों का हास कर दिया ।
( iii ) राजनीतिक उतार – चढ़ाव यद्यपि सत्रहवीं शताब्दी में ही इंग्लैण्ड में क्रोमवैल ( Cromwell ) के नेतृत्व में संसदीय शक्तियाँ अपने चरम पर पहुँच गई थीं जब वहाँ के राजा चार्ल्स प्रथम को 30 जनवरी 1649 को मृत्यु का दण्ड दिया गया , तथापि फ्रांस की राजनीतिक क्रान्ति ( 1789-1799 ) ने प्रजातन्त्र के विकास पर अन्तिम मोहर लगाई । इससे पूर्व अमेरिका में घटित क्रान्ति ( 1783-1789 ) प्रजातन्त्र , राजनीति में समानता , भ्रातृत्व व स्वतन्त्रता के आधार पर जन सहभागिता वाली व्यवस्था के विकास की एक आवश्यक कडी सिद्ध हुई । 19 वीं शताब्दी शनै : शनै : गणतन्त्रीय प्रणाली के विकास की शताब्दी बन गई है । इन क्रान्तियों ने विश्व – स्तर पर मानव समाज को प्रभावित किया । बाल्डरिज ने उचित ही लिखा है कि ” राजनीतिक उतार – चढ़ावों – जिनका प्रारम्भ 18 वीं सदी के अन्तिम वर्षों में फ्रांसीसी व अमेरिकी क्रान्तियों ने किया ने समाज को हिला दिया । राजतन्त्र व सामन्तशाही के विनाश की प्रक्रिया का बिगुल इन्हीं क्रान्तियों ने बजाया था ।
( 2 ) विभिन्न संस्कृतियों से सामना – यूरोप के देशों – स्पेन , फ्रांस , इंग्लैण्ड , पुर्तगाल , डेनमार्क – का अमेरिका , अफ्रीका व एशिया में उपनिवेश स्थापित करने की प्रक्रिया 16 वीं शताब्दी में ही प्रारम्भ हो गई थी । 19 वीं शताब्दी में तो इन शक्तियों द्वारा विभिन्न देशों में स्थापित साम्राज्य अपने चरम पर थे । परिणामत : यूरोप के लोग ऐसे समाजों के सम्पर्क में आए जो उनसे सर्वथा भिन्न थे । उन्होंने देखा कि संसार में विवाह , परिवार , धर्म , आदर्श की बड़ी विभिन्नताएँ है । मानव समाजों में विभिन्न आदर्शों व मूल्यों के आधार पर सामाजिक जीवन को सफलतापूर्वक संगठित एवं संरचित किया गया है । इन सांस्कृतिक सम्पर्को के दो स्वाभाविक परिणाम हुए – प्रथम , मानव समाजों के बारे में बृहत तथ्य एकत्रित हो गए जिनके आधार पर मानव – समाज की संरचना एवं गत्यात्मकता के सम्बन्ध में सामान्य निष्कर्षों पर पहुँचने में सुगमता हुई । द्वितीय , विभिन्न संस्कृतियों के साथ होने वाले अनुभवों ने यूरोप के निवासियों को अपने समाज पर भी आलोचनात्मक दृष्टि डालने के लिए प्रेरित किया । इस प्रकार , सामाजिक आलोचना को वैधता प्राप्त हुई ।
( 3 ) वैज्ञानिक क्रान्ति -19 वीं शताब्दी में भौतिक विज्ञानों ने अभूतपूर्व उपलब्धियों हासिल की । यूँ तो इस वैज्ञानिक क्रान्ति का सूत्रपात 17 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हो गया था । इतिहासकार एडविन डनबॉफ ( Adwin Dunbaugh ) के शब्दों में , ” यह शब्द ( वैज्ञानिक क्रान्ति ) उस मनोवृत्ति में परिवर्तन को प्रकट करता है जो 1600 वर्षों में प्राकृतिक विश्व के अध्ययन करने के तरीकों से हुआ था । 1600 ई ० में एक व्यक्ति को इसलिए जिन्दा जला दिया गया था कि उसने ब्रह्माण्ड को असीमित बताने की हिमाकत की थी । 1700 ई ० आते – आते सर आइजक न्यूटन ( Sir Isaac Newton ) , जो असीम ब्रह्माण्ड के संचालित होने के नियमों को खोजने का प्रयास कर रहे थे , को यूरोप का सबसे सम्मानित व्यक्ति माना गया । संसार के अध्ययन की पद्धतियों में प्रयोग व आनुभविक अनुसन्धानों के सम्मिलित हो जाने से विज्ञान के क्षेत्र में एक ऐसा दौर शुरू हुआ जिसने समाज के रूप को , सामाजिक जीवन को ऊपर से नीचे तक बदल कर रख दिया । यह स्वाभाविक था कि इन वैज्ञानिक पद्धतियों का सामाजिक अध्ययनों में प्रयोग किया जाता । 19 वीं शताब्दी में इस पर जोर दिया गया कि सामाजिक संरचना और समस्याओं को समझने में वैज्ञानिक दृ ष्टिकोण व पद्धति का प्रयोग किया जाए ।
( 4 ) लौकिकवाद का चरमोत्कर्ष -19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही लौकिकीकरण अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया । इस प्रक्रिया का सूत्रपात तो इटली में हुए पुनर्जागरण में हो गया था जो 1350 से 1550 तक चलता रहा । इस प्रक्रिया को बल यूरोप में 1715 से 1789 ई ० तक घटित होने वाली राजनीतिक साहित्यिक घटनाऊों से भी मिला । वास्तव में , यूरोप में इन 75 वर्षों को तर्क का युग ‘ ( Age of reason ) कहा जाता है । सदियों तक यूरोप धर्म ( संगठित चर्च ) से प्रभावित या शासित होता चला आया था । मानद के जीवन का हर क्षेत्र धर्म से प्रभावित था । धार्मिक ग्रन्थों के या पुरोहितों के विरुद्ध कुछ भी कहना
अन्धविश्वास का प्रचार माना जाता था जिसका दण्ड एक खम्भे से बाँधकर जिन्दा जला दिया जाना था । राजा भी देवपुत्र माना जाता था जिसको शासक के दैवी अधिकार प्राप्त थे । इन परिस्थितियों में इस लोक में जनसाधारण के लिए उत्पीड़न के सिवाय कुछ नहीं था , वे तो वहाँ अपने पापों का प्रायश्चित करने को जन्मे थे . इसलिए मरणोपरान्त दूसरी दुनिया में ही वे कुछ सुख पाने की कल्पना कर सकते थे । इटली में प्रारम्भ हुई पुनर्जागरण की प्रक्रिया , प्रोटेस्टैण्ट विद्रोह तथा वैज्ञानिक उपलब्धियों ने मानव को धर्म की बेड़ियों से मुक्त कराया । इन सभी शक्तियों ने जनसाधारण के मन में लौकिकवाद के प्रति आस्था पैदा की । लौकिकवाद का अर्थ धर्म का विरोध ‘ अथवा ‘ धर्म के प्रति तटस्थता ‘ या ‘ धर्मनिरपेक्षता नहीं है ।
इसका आशय तो यह है कि संसार सत्य है । मानव का जीवन बड़ा पुण्यमय है । वह अपने परिश्रम द्वारा अपनी भौतिक स्थिति में सुधार कर सकता है । धर्म पूजा – पाठ व ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन की एक पद्धति है और उसे वहीं तक सीमित रहना चाहिए । मनुष्य अपने व्यवसाय में उन्नति करे यह उसका कर्तव्य है । उसके द्वारा धनोपार्जन द्वारा वह इसी संसार में ऐश्वर्य व सुख से रह सकता है । यह उसका अटल अधिकार है । वह विवेकपूर्वक अपनी सामाजिक , राजनीतिक व आर्थिक व्यवस्था में परिवर्धन , संशोधन व परिवर्तन कर सकता है । इस लौकिक जीवन को उन्नत करने में न केवल वह सक्षम है वरन् ऐसा करना उसका नैतिक कर्त्तव्य है ।
धर्म को इन मामलों से परे ही रखा जाना चाहिए । सामाजिक , आर्थिक व राजनीतिक क्रियाएँ लौकिक क्रियाएँ हैं , धार्मिक क्रियाएँ नहीं । इस लौकिकवाद ने शासनतन्त्र के लिए समरूपता , कार्यक्षमता व व्यवस्था के आदर्शों पर बल दिया । सामाजिक संरचना के लिए मानववाद , समानता , व्यक्ति के मौलिक अधिकार व मुक्त सामाजिक गतिशीलता जैसे आदर्शों की स्थापना की । इस प्रकार , अनेक ऐसी धार्मिक निषेधाज्ञाएँ जो समाज के अध्ययन के विरुद्ध लगी हुई थीं 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक तिरोहित हो गई । इससे समाज के वैज्ञानिक अध्ययन का मार्ग प्रशस्त हुआ । ( 5 ) सामाजिक समस्याएँ और उनका वैज्ञानिक अध्ययन – औद्योगीकरण ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया । हम पुन : बाल्डरिज को ही उद्धृत करना चाहेंगे क्योंकि उन्होंने 19 वीं शताब्दी के यूरोपीय समाज की समस्याओं पर बड़ी सटीक टिप्पणी करते हुए लिखा है , ”
19 वीं शताब्दी में सामाजिक दशाएँ विशेषतया कठिन हो गई थीं क्योंकि औद्योगिक क्रान्ति तथा तीव्र नगरीकरण ने बहुत दु : खदायी परिस्थितियों को जन्म दिया । बाल श्रम , कष्टकारी दुकानदारी , अम विवाद , भयावह आवास दशाएँ , सदियों से चलते आ रहे युद्ध के विनाशकारी परिणाम सभी सामाजिक परिदृश्य के अंग बन चुके थे । ” स्वाभाविक था कि विचारशील बुद्धिजीवियों का ध्यान इस ओर जाता । उन्होंने इन समस्याओं पर वैज्ञानिक दृष्टि से चिन्तन प्रारम्भ किया । इनका वैज्ञानिक स्पष्टीकरण और निदान उनकी जिज्ञासा के केन्द्र विषय बन गए । इससे समाज की पुनर्रचना के विचार को प्रोत्साहन मिला । उदाहरण के लिए मार्क्स ने इन समस्याओं की जड़ में सम्पत्तिशाली वर्ग द्वारा सर्वहारा वर्ग के शोषण को बताया और सर्वहारा क्रान्ति में ही इसके निदान का सुझाव दिया । दुर्थीम ने व्यावसायिक आचरण संहिताओं के विकास और व्यावसायिक संघों के गठन में इन समस्याओं से मुक्ति का मार्ग सुझाया । इन समस्याओं के अध्ययनों ने सामाजिक सर्वेक्षण के महत्त्व को भी सिद्ध किया । ( 6 ) अनेक समाज सुधार आन्दोलन – ऐसे समय में अनेक समाज सुधार आन्दोलन उभर कर सामने आए । सामाजिक सन्देश तथा ‘ मुक्ति वाहिनी ऐसे धार्मिक आन्दोलन थे जो समाज सुधार के लिए कार्य कर रहे थे । प्रमुख श्रम संघों का उदय हुआ जो अमिकों के हितों की रक्षा और कार्य की दशाओं में सुधार के लिए कटिबद्ध थे । नए राजनीतिक दलों का उदय हुआ जो नव – चेतना पर आधारित विचार – दर्शन के आधार पर गठित हुए थे । फ्रास के समाजवादी विचारक सेण्ट साइमन ( Saint Simon ) का सुझाव था कि उद्योग और सरकार का प्रशासन पर्यायवाची होना चाहिए जिसका उद्देश्य सभी के अधिकतम हितों की
पूर्ति हो । चार्ल्स फ्यूरियर ( Charles Fourier ) ने आन्दोलन चलाया कि राज्य का उन्मूलन कर दिया जाए , उसकी जगह समाज को छोटी – छोटी आदर्श बस्तियों ( Phalanges ) में गठित किया जाए तथा प्रत्येक व्यक्ति को उस कार्य को करने का अधिकार मिले जिसके लिए वह सबसे अधिक उपयुक्त है ।
इंग्लैण्ड में रोबर्ट ओवन ( Robert Owen : 1771-1858 ) ने एक आदर्श फैक्टरी की स्थापना की जिसका प्रशासन स्वयं श्रमिकों को करना था । ओवन का विश्वास था कि सुखी और स्वस्थ अमिक अधिक उत्पादन करेंगे । परन्तु अन्य उद्योगपतियों ने ओवन का अनुकरण नहीं किया । वैसे भी , उसका उपर्युक्त प्रयोग असफल हो गया । फिर भी , इन आन्दोलनों ने सामाजिक परिवर्तन की दिशाओं की ओर सशक्त इशारा किया । ( 7 ) सामाजिक विधानों द्वारा सुधार – इंग्लैण्ड उपर्युक्त समस्याओं का सबसे अधिक शिकार था । अत : उसी को यह श्रेय है कि उसने सामाजिक विधानों द्वारा स्थिति को नियन्त्रित करने की दिशा में भी पहल की । संसद फैक्टरी – नियन्त्रण और सामाजिक सुधार का मंच बन गई । 1802 ई ० में पहला फैक्टरी एक्ट पारित हुआ जिसके द्वारा कुछ सरकारी उद्योगों ने नौ वर्ष से कम की आयु के बालकों से 12 घण्टे प्रतिदिन से अधिक कार्य लेने को निषिद्ध कर दिया गया । बाद में 1832 , 1842 , 1847 एवं 1855 ई ० में फैक्टरी एक्ट पारित कर श्रमिकों की कार्य दशाओं को उन्नत करने के प्रयास किए गए । ये विधान अन्य देशों के लिए भी आदर्श बन गए ।
( 8 ) भरपूर बौद्धिक सृजन -19 वीं शताब्दी में बौद्धिक विकास भी भरपूर हुआ । समाज के सभी क्षेत्रों में नए विचार दर्शन उत्पन्न हुए । ऐसा प्रतीत होता था कि मानो 19 वीं शताब्दी में विभिन्न वैचारिकियों के शिविर अपने – अपने दावे प्रस्तुत कर रहे हों कि उन्हीं के अनुसार मानव और समाज का कल्याण हो सकता है । राजनीति के क्षेत्र में रूढ़िवाद , उदारवाद , राष्ट्रवाद , समाजवाद और मार्क्सवाद सुदृढ़ विचार दर्शनों के रूप में विकसित हुए । समाजशास्त्र के क्षेत्र में भी अनेक विचार सम्प्रदायों का उदय हुआय जैसे – विकासवाद प्रगतिवाद , यथार्थवाद , प्रौद्योगिकीय निर्णयवाद , आर्थिक निर्णयवाद , सावयवीवाद , समाजशास्त्रीयवाद आदि । कला और साहित्य के क्षेत्र में शास्त्रीयवाद के साथ – साथ रोमांसवाद , यथार्थवाद , प्रयोजनवाद , प्रभाववाद विकसित हुए । इस शताब्दी में इस प्रकार की बौद्धिक सृजनता का विकसित होना स्वाभाविक भी था क्योंकि विज्ञान , तकनीकी , यातायात व संवाद वहन के साधनों ने विश्व को एक इकाई में बाँध दिया था , मानो सारा विश्व ही पश्चिमी यूरोप के उद्योगों के लिए एक बृहत् बाजार बन गया हो । राष्ट्रवाद विकसित हो गया था और उसका राजनीति की अन्य धाराओं पर प्रभुत्व बढ़ गया था । 1848 ई ० यूरोपीय समाज में एक नए मोड़ का वर्ष है । इस वर्ष अनेक यूरोप के देशों में राज्य क्रान्तियाँ हुई जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि कोरा उदारवाद समस्याओं को हल नहीं कर सकता । एक मजबूत केन्द्रीय शासन और क्रान्तिकारी विचारधारा ही समस्याओं का समाधान कर सकती है ।
19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उद्योग के क्षेत्र में अन्य महत्त्वपूर्ण परिवर्तन भी हुए । औद्योगीकरण पर अब इंग्लैण्ड का एकाधिकार ही नहीं था वरन् वह अब पूरे यूरोप व अमेरिका में फैल चुका था । संयुक्त राज्य अमेरिका द्रुत गति से एक विश्व शक्ति के रूप में विकसित हो गया था । बड़े उद्योग और एकाधिकारी संगठनों के सामने छोटे उद्योगपति या व्यापारी लुप्त होने लगे थे । विज्ञान की निरन्तर उपलब्धियों ने ज्ञानोदय के इस स्वप्न को कि अन्ततोगत्वा मानव समाज पूर्णता प्राप्त कर लेगा , करीब – करीब सम्भव बना दिया था ।
डनबॉफ ( Dunbaugh ) ने उचित ही लिखा है , ” जैसे पुनर्जागरण में अतीत की पूजा थी , 18 वीं सदी में तर्क की पूजा थी , इसी भाँति 19 वीं शताब्दी के बाद के वर्षों में विज्ञान की पूजा थी । ” इनबॉफ के ही शब्दों में हम 19 वीं शताब्दी की सामाजिक और आर्थिक दशाओं के विश्लेषण का समापन कर सकते हैं । उन्होंने लिखा है कि ” 19 वीं शताब्दी यूरोप का स्वर्णिम युग था । जैसे ग्रीस में 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व और इटली में पुनर्जागरण , इसी भाँति पूँजीपति समाज अपनी प्रौढ़ता पर पहुँच चुका था जो सांस्कृतिक फसल उत्पन्न भी कर रहा था और काट भी रहा था । ” समाजशास्त्र के विकास का बौद्धिक सन्दर्भ ( ज्ञानोदय ) तथा सामाजिक , आर्थिक एवं राजनीतिक शक्तियों ( प्रमुख रूप से फ्रांस की क्रान्ति एवं औद्योगिक क्रान्ति ) के परिणामस्वरूप लौकिकवाद , मानववाद , व्यक्तिवाद , उदारवाद , राष्ट्रवाद , समाजवाद , मार्क्सवाद जैसी विचारधाराएँ विकसित हुई जिन्होंने मानव के सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया ।
इनसे एक नवीन सामाजिक दर्शन का भी विकास हुआ जिसका लक्ष्य मानव में अन्तर्निहित सभी शक्तियों के विकास को सम्भव बनाना और इस धरा पर उसके जीवन को आनन्दमय बनाना था । यही वह दर्शन है जिसने समाजशास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा इसीलिए इस सामाजिक दर्शन को समाजशास्त्र के विकास का आधारस्तम्भ कहा गया है । उपर्युक्त समसामयिक दशाओं ने फ्रांस के सेण्ट साइमन , जर्मनी के कार्ल मार्क्स जैसे विचारकों को जन्म दिया , जिन्होंने एक नए सामाजिक विज्ञान की रूपरेखा प्रस्तुत की । ऑगस्त कॉम्ट ने इस नए विज्ञान का नामकरण किया , जबकि स्पेन्सर और दुर्थीम ने उसे प्रतिष्ठित किया । बॉटोमोर का कहना है कि इस प्रकार समाजशास्त्र का पूर्व इतिहास सौ वर्षों की उस अवधि से सम्बन्धित है जो लगभग 1740 ई ० से 1850 ई ० तक की है ।
उन्होंने 19 वीं शताब्दी में विकसित समाजशास्त्र की निम्नलिखित तीन विशेषताओं का भी उल्लेख किया है
( 1 ) यह विश्वकोशीय ( Encyclopaedic ) था , ( 2 ) यह उद्विकासवादी ( Evolutionary ) था तथा ( 3 ) यह निश्चयात्मक ( Positive ) था । समाजशास्त्र के विकास में प्रारम्भिक विद्वानों की समाज – सुधार में रुचि ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है । 1880 ई ० से 1920 ई ० के काल में तीव्र औद्योगीकरण के कारण सामाजिक परिवर्तन के अध्ययनों में रुचि विकसित हुई तथा 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इसे विज्ञान की स्थिति प्राप्त हो गई । समाज – सुधार तथा सामाजिक अनुसन्धान के घनिष्ठ सम्बन्ध के परिणामस्वरूप आनुभविक अनुसन्धान को प्रोत्साहन मिला तथा नीति – निर्माण करने वालों ने समस्याओं के समाधान के लिए समाजशास्त्रियों की ओर देखना शुरू कर दिया जिससे व्यावहारिक अनुसन्धान प्रारम्भ हुए ।
हेरी एम ० जॉनसन का मत है कि आज समाजशास्त्र निश्चित रूप से एक विज्ञान है , यद्यपि यह अन्य विज्ञानों से थोड़ा पिछड़ा हुआ है । इसमें विज्ञान की निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं
( 1 ) समाजशास्त्र आनुभविक ( Empirical ) है , क्योंकि यह तार्किक चिन्तन पर आधारित है ।
( 2 ) यह सैद्धान्तिक ( Theoretical ) है , क्योंकि इसमें घटनाओं के कार्य – कारण सम्बन्धों के आधार पर नियम बनाए जाते हैं ।
( 3 ) यह संचयी ( Cumulative ) है अर्थात् समाजशास्त्रीय सिद्धान्त एक के आधार पर दूसरे बनते है ।
( 4 ) यह नैतिकता – मुक्त ( Non – ethical ) है अर्थात् समाजशास्त्री का कार्य तथ्यों की व्याख्या करना है , उन्हें अच्छा या बुरा बताना नहीं । फ्रांस के पश्चात अमेरिका में समाजशास्त्र का अध्ययन – कार्य सर्वप्रथम 1876 ई ० में येल विश्वविद्यालय से प्रारम्भ हुआ और इस विषय का सर्वाधिक विकास अमेरिका में ही हुआ है । अमेरिकी समाजशास्त्रियों में समनर , रॉस , सोरोकिन , ऑगवर्न एवं निमकॉफ , मैकाइवर एवं पेज , यंग , लुण्डबर्ग , जिमरमैन , पारसन्स , मर्टन , किंग्सले डेविस आदि प्रमुख हैं । आज यद्यपि फ्रांस , अमेरिका , इंग्लैण्ड तथा जर्मनी में समाजशास्त्र एक सर्वाधिक लोकप्रिय विषय है , फिर भी संसार में शायद ही कोई ऐसा देश हो जिसमें समाजशास्त्र का अध्ययन न हो रहा हो । भारत में समाजशास्त्र का एक अलग व संस्थागत विषय के रूप में विकास 1919 ई ० में हुआ जबकि ‘ बम्बई विश्वविद्यालय ‘ में पैट्रिक गडिस की अध्यक्षता में समाजशास्त्र विभाग का गठन किया गया
यूरोप में होने वाले अमूलचूल परिवर्तनों एवं इनके परिणामस्वरूप उत्पन्न समस्याओं को समझने के प्रयास से इस विषय का विकास हुआ है । आज समाजशास्त्र सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण विषय माना जाता है । विश्व के सभी देशों में यह विज्ञान अन्य सामाजिक विज्ञानों की तुलना में अग्रणी स्थान प्राप्त करता जा रहा है व्यक्ति अपने स्वभाव के कारण एक जिज्ञासु प्राणी है और इसी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण उसने प्रारम्भ से ही अपने समय में प्रचलित विविध प्रकार की सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को समझने का प्रयास किया है । भारत के प्राचीन ग्रन्थों में समाज के विभिन्न पहलुओं का उल्लेख विविध प्रकार से किया गया है । उदाहरणार्थ , वैदिक साहित्य एवं हिन्दू शास्त्रों ( जैसे उपनिषदों , महाभारत एवं गीता आदि ग्रन्थों ) में वर्ण एवं जाति व्यवस्था , संयुक्त परिवार प्रणाली , आश्रम व्यवस्था , विभिन्न संस्कारों तथा ऋण व्यवस्था जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण सामाजिक पहलुओं का विधिवत् विवरण मिलता है जो कि आज के समाजशास्त्रीय विश्लेषणों के किसी भी मापदण्ड से कम नहीं है । अरस्तू की पुस्तक ‘ पॉलिटिक्स ‘ , प्लेटो की ‘ रिपब्लिक ‘ तथा कौटिल्य का ‘ अर्थशास्त्र आदि ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें समाज के विभिन्न पहलुओं की चर्चा की गई है ।
यद्यपि सामाजिक पहलुओं के अध्ययन की एक लम्बी परम्परा रही है , फिर भी समाजशास्त्र विषय का एक संस्थागत विषय के रूप में उद्भव एवं विकास 19 वीं शताब्दी में हुआ जबकि ऑगस्त कॉम्ट ने सर्वप्रथम 1838 ई ० में ‘ समाजशास्त्र ‘ शब्द का प्रयोग किया । उनका विचार था कि कोई भी विषय ऐसा नहीं है जो कि समाज के विभिन्न पहलुओं का समग्र रूप में अध्ययन कर सकता हो । इस कमी को दूर करने के लिए उन्होंने इस नवीन विषय का निर्माण किया । उन्नीसवीं शताब्दी के समाजशास्त्र को यद्यपि निश्चयात्मक ( Positive ) विज्ञान माना गया है जिसका प्रभाव प्राकृतिक विज्ञानों के समान था , फिर भी यह इतिहास के दर्शन एवं जैविक सिद्धान्तों के प्रभाव के कारण उद्विकासवादी था । साथ ही इसमें मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन एवं सम्पूर्ण इतिहास से सम्बन्धित अध्ययन किए जाते थे अर्थात् इसकी प्रकृति विश्वकोशीय थी । समाजशास्त्र जैसे नवीन विज्ञान को समझने हेतु इसके उद्गम एवं विकास का अध्ययन करना अनिवार्य है ।
समाजशास्त्र का उद्गम एवं विकास पश्चिमी यूरोप की सामाजिक परिस्थितियों की देन है । औद्योगिक क्रान्ति , फ्रांस की क्रान्ति तथा ज्ञानोदय की इसके विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । इनके परिणामस्वरूप न केवल पश्चिमी समाजों में एक नवीन आर्थिक क्रियाकलाप की पद्धति ( जिसे पूँजीवाद कहा जाता है ) विकसित हुई अपितु इनसे इन देशों की सामाजिक संरचना पर भी गहरा प्रभाव पड़ा । गाँव से शहरों की ओर प्रवर्जन , सामाजिक गतिशीलता , शिक्षा एवं रोजगार में वृद्धि , लौकिक दृष्टिकोण के विकास के साथ – साथ अनेक सामाजिक समस्याएँ भी विकसित होने लगीं । औद्योगिक मजदूरों एवं खेतिहर मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई तथा उत्पादन कार्यों में इनका शोषण होने लगा । पूँजीवाद की सेवा हेतु सत्रहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी में बड़ी संख्या में अफ्रीकियों को दास बनाया गया । यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दास प्रथा कम होने लगी , तथापि अनेक उपनिवेशवादी देशों में यह बँधुआ मजदूरों के रूप में आज भी प्रचलित है । इन सभी परिवर्तनों एवं समस्याओं के बारे में विद्वानों द्वारा चिन्तन के परिणामस्वरूप समाजशास्त्र का विकास हुआ है ।
19 वीं शताब्दी में समाजशास्त्र के विकास में अनेक बौद्धिक एवं भौतिक परिस्थितियों ने सहायता प्रदान की , जिनमें से चार बौद्धिक परिस्थितियों को टी ० बी ० बॉटोमोर ( T. B. Bottomore ) ने महत्त्वपूर्ण माना है ।
ये परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं
( 1 ) राजनीति का दर्शन ( Political Philosophy ) ,
( 2 ) इतिहास का दर्शन ( The philosophy of history ) ,
( 3 ) उदविकास के जैविक सिद्धान्त ( Biological theories of evolution ) तथा
( 4 ) सामाजिक एवं राजनीतिक सुधारात्मक आन्दोलन ( The movement for social and political reform ) | इनमें से दो , इतिहास के दर्शन तथा सामाजिक सर्वेक्षण ( जो कि आन्दोलनों के परिणामस्वरूप शुरू हुए ) , ने प्रारम्भ में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है ।
एक विशिष्ट शाखा के रूप में इतिहास का दर्शन अठारहवीं शताब्दी की देन है जिसे अबे डे सेण्ट – पियरे ( Abbe de Saint – Pieare ) तथा ग्यिम्बाटिसटा विको ( Giambattista Vieo ) ने शुरू किया । प्रगति के जिस सामान्य विचार को निर्मित करने का उन्होंने प्रयत्न किया उसने मानव की इतिहास सम्बन्धी धारणा को गम्भीर रूप से प्रभावित किया । फ्रांस में मॉण्टेस्क्यू ( Montesquieu ) और वॉल्टेयर ( Voltaire ) , जर्मनी में हर्डर ( Herder ) तथा स्कॉटिश इतिहासज्ञों एवं दार्शनिकों जैसे फर्ग्युसन ( Ferguson ) , मिलर ( Millar ) , रोबर्टसन ( Robertson ) इत्यादि की रचनाओं में इतिहास के दर्शन का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ।
19 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हीगल ( Hegel ) तथा सेण्ट साइमन ( Saint Simon ) के लेखों के परिणामस्वरूप इतिहास का दर्शन एक प्रमुख बौद्धिक प्रभाव बन गया । इन्हीं दोनों विचारकों से कार्ल मार्क्स ( Karl Marx ) तथा ऑगस्त कॉम्ट ( Auguste Comte ) की रचनाएँ विकसित हुई । समाज की नवीन धारणा , जो कि राज्य की धारणा से भिन्न है , दार्शनिक इतिहासकारों की ही देन है । आधुनिक समाजशास्त्र के विकास में सहायक दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व सामाजिक सर्वेक्षण कहा जा सकता है जिसके दो प्रमुख स्रोत थे – प्रथम , यह विश्वास कि प्राकृतिक विज्ञान की पद्धतियों को सामाजिक घटनाओं एवं मानव क्रियाकलापों के अध्ययन में प्रयुक्त किया जा सकता है और दूसरा , यह विश्वास कि गरीबी प्रकृति या दैवी प्रकोप नहीं है अपितु मानव प्रयास द्वारा इसे दूर किया जा सकता है । इन दोनों विश्वासों के परिणामस्वरूप समाज – सुधार के लिए किए गए इन आन्दोलनों का 18 वीं तथा 19 वीं शताब्दी के पश्चिमी यूरोप की सामाजिक परिस्थितियों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध था । सामाजिक परिवर्तन में रुचि के कारण ऐतिहासिक तथा सामाजिक आन्दोलनों की ओर ध्यान दिया जाने लगा । समाजशास्त्र के विकास से जुड़े सभी प्रारम्भिक विचारक 19 वीं सदी में पश्चिमी यूरोप में विद्यमान सामाजिक , आर्थिक एवं राजनीतिक दशाओं या शक्तियों से प्रभावित थे । यही वह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है जिससे समाजशास्त्र का उदय हुआ ।
अनेक विद्वानों ; जैसे बाल्डरिज ( Baldridge ) ने उन तत्कालीन सामाजिक , आर्थिक तथा राजनीतिक दशाओं का वर्णन किया है जिन्होंने समाजशास्त्र के विकास को प्रेरित किया है । ये दशाएँ निम्नलिखित हैं
( 1 ) तीव्र एवं क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन – बाल्डरिज ने उचित ही लिखा है , ” 19 वीं शताब्दी में जितनी अधिक तीव्रता से परिवर्तन घटित हो रहा था उतना इतिहास में अन्य किसी काल में घटित नहीं हुआ । इस शताब्दी में इन तीव्र सामाजिक परिवर्तनों के तीन प्रमुख कारण थे
( i ) औद्योगिक क्रान्ति -1750 ई ० को इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति का प्रारम्भ वर्ष माना जाता है । यह क्रान्ति लगभग सौ वर्ष अर्थात 1850 ई ० में पूर्ण हुई । इस क्रान्ति ने वस्तुओं के उत्पादन की प्रक्रिया में बृहत् मशीनों के प्रयोग का प्रचलन किया । ये मशीनें शक्ति के जड़ साधन ; जैसे – भाप से चालित होती थीं । उत्पादन में मशीनों के प्रयोग पर आधारित तकनीकी ने आधुनिक उद्योगों का प्रारम्भ किया । भूमि के स्थान पर धन का प्रमुख स्रोत उद्योग बन गए । पुराने कुटीर उद्योग – धन्धे ढह गए । फैक्ट्रियों व कारखानों में काम करने के लिए से मजदूर आकर एकत्रित होने लगे । हाथ के कारीगर बेरोजगार हो गए थे और वे कारखानों में काम करने के लिए मजबूर थे । बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए बड़ी मात्रा में कच्चे माल की खपत होने लगी । निर्मित माल के विक्रय के लिए बाजार का भी विस्तार आवश्यक हो गया । पश्चिमी यूरोप के देशों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय बाजार तलाशना स्वाभाविक बन गया । औद्योगीकरण ने भूमि से आय पर आधारित सामन्तशाही को धराशाही कर दिया । उद्योगपतियों की आपसी होड़ और अधिक – से – अधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप कारखानों में मजदूरों की दशा दयनीय हो गई । 12 14 घण्टे काम लिया जाना स्वाभाविक था , स्त्रियाँ और बच्चे भी खानों में काम पर लगाए जाने लगे क्योंकि वे पुरुषों की अपेक्षा सस्ते मजदूर थे । हवा थ प्रकाश की व्यवस्था नहीं थी । व्यवसाय में मजदूर के रोगग्रस्त हो जाने या दुर्घटना में अंग – भंग हो जाने या मर जाने पर भी क्षतिपूर्ति के कोई नियम नहीं थे । औद्योगिक नगर समृद्धि के चारों और दर्दनाक गरीबी के साक्षी बन गए थे । पुराने सामाजिक मूल्य और परम्पराएँ आम जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक नहीं रह गए थे । नए मूल्यों और परम्पराओं का पूरी तरह विकास नहीं हो पाया था ।
( 11 ) नगरीय क्रान्ति – स्पष्ट है कि उद्योगों की शुरुआत नगरों में हुई । इस प्रकार , तीव्र गति से नगरीकरण हुआ । गाँव से शहरों की ओर प्रवास ने नगरीय जीवन के आदर्शों और मूल्यों को कस्बों और ग्रामों की जनता में फैलने में सहायता प्रदान की । औपचारिकता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के विकास को बल मिला । इस नगरीकरण में उत्तरोत्तर जटिल होते हुए श्रम – विभाजन और विशिष्टीकरण ने भी योगदान प्रदान किया । भाप के रेल के इंजन के आविष्कार ने यातायात के क्षेत्र में नई क्रान्ति ला दी । प्रत्येक राष्ट्र में रेलों का जाल बिछाया जाने लगा । इससे न केवल यातायात का वरन् संवाद वहन ( संचार ) का भी कल्पनातीत विस्तार हुआ । नगरीकरण ने छोटे – छोटे कृषि समुदायों का हास कर दिया ।
( iii ) राजनीतिक उतार – चढ़ाव यद्यपि सत्रहवीं शताब्दी में ही इंग्लैण्ड में क्रोमवैल ( Cromwell ) के नेतृत्व में संसदीय शक्तियाँ अपने चरम पर पहुँच गई थीं जब वहाँ के राजा चार्ल्स प्रथम को 30 जनवरी 1649 को मृत्यु का दण्ड दिया गया , तथापि फ्रांस की राजनीतिक क्रान्ति ( 1789-1799 ) ने प्रजातन्त्र के विकास पर अन्तिम मोहर लगाई । इससे पूर्व अमेरिका में घटित क्रान्ति ( 1783-1789 ) प्रजातन्त्र , राजनीति में समानता , भ्रातृत्व व स्वतन्त्रता के आधार पर जन सहभागिता वाली व्यवस्था के विकास की एक आवश्यक कडी सिद्ध हुई । 19 वीं शताब्दी शनै : शनै : गणतन्त्रीय प्रणाली के विकास की शताब्दी बन गई है । इन क्रान्तियों ने विश्व – स्तर पर मानव समाज को प्रभावित किया । बाल्डरिज ने उचित ही लिखा है कि ” राजनीतिक उतार – चढ़ावों – जिनका प्रारम्भ 18 वीं सदी के अन्तिम वर्षों में फ्रांसीसी व अमेरिकी क्रान्तियों ने किया ने समाज को हिला दिया । राजतन्त्र व सामन्तशाही के विनाश की प्रक्रिया का बिगुल इन्हीं क्रान्तियों ने बजाया था ।
( 2 ) विभिन्न संस्कृतियों से सामना – यूरोप के देशों – स्पेन , फ्रांस , इंग्लैण्ड , पुर्तगाल , डेनमार्क – का अमेरिका , अफ्रीका व एशिया में उपनिवेश स्थापित करने की प्रक्रिया 16 वीं शताब्दी में ही प्रारम्भ हो गई थी । 19 वीं शताब्दी में तो इन शक्तियों द्वारा विभिन्न देशों में स्थापित साम्राज्य अपने चरम पर थे । परिणामत : यूरोप के लोग ऐसे समाजों के सम्पर्क में आए जो उनसे सर्वथा भिन्न थे । उन्होंने देखा कि संसार में विवाह , परिवार , धर्म , आदर्श की बड़ी विभिन्नताएँ है । मानव समाजों में विभिन्न आदर्शों व मूल्यों के आधार पर सामाजिक जीवन को सफलतापूर्वक संगठित एवं संरचित किया गया है । इन सांस्कृतिक सम्पर्को के दो स्वाभाविक परिणाम हुए – प्रथम , मानव समाजों के बारे में बृहत तथ्य एकत्रित हो गए जिनके आधार पर मानव – समाज की संरचना एवं गत्यात्मकता के सम्बन्ध में सामान्य निष्कर्षों पर पहुँचने में सुगमता हुई । द्वितीय , विभिन्न संस्कृतियों के साथ होने वाले अनुभवों ने यूरोप के निवासियों को अपने समाज पर भी आलोचनात्मक दृष्टि डालने के लिए प्रेरित किया । इस प्रकार , सामाजिक आलोचना को वैधता प्राप्त हुई ।
( 3 ) वैज्ञानिक क्रान्ति -19 वीं शताब्दी में भौतिक विज्ञानों ने अभूतपूर्व उपलब्धियों हासिल की । यूँ तो इस वैज्ञानिक क्रान्ति का सूत्रपात 17 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हो गया था । इतिहासकार एडविन डनबॉफ ( Adwin Dunbaugh ) के शब्दों में , ” यह शब्द ( वैज्ञानिक क्रान्ति ) उस मनोवृत्ति में परिवर्तन को प्रकट करता है जो 1600 वर्षों में प्राकृतिक विश्व के अध्ययन करने के तरीकों से हुआ था । 1600 ई ० में एक व्यक्ति को इसलिए जिन्दा जला दिया गया था कि उसने ब्रह्माण्ड को असीमित बताने की हिमाकत की थी । 1700 ई ० आते – आते सर आइजक न्यूटन ( Sir Isaac Newton ) , जो असीम ब्रह्माण्ड के संचालित होने के नियमों को खोजने का प्रयास कर रहे थे , को यूरोप का सबसे सम्मानित व्यक्ति माना गया । संसार के अध्ययन की पद्धतियों में प्रयोग व आनुभविक अनुसन्धानों के सम्मिलित हो जाने से विज्ञान के क्षेत्र में एक ऐसा दौर शुरू हुआ जिसने समाज के रूप को , सामाजिक जीवन को ऊपर से नीचे तक बदल कर रख दिया । यह स्वाभाविक था कि इन वैज्ञानिक पद्धतियों का सामाजिक अध्ययनों में प्रयोग किया जाता । 19 वीं शताब्दी में इस पर जोर दिया गया कि सामाजिक संरचना और समस्याओं को समझने में वैज्ञानिक दृ ष्टिकोण व पद्धति का प्रयोग किया जाए ।
( 4 ) लौकिकवाद का चरमोत्कर्ष -19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही लौकिकीकरण अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया । इस प्रक्रिया का सूत्रपात तो इटली में हुए पुनर्जागरण में हो गया था जो 1350 से 1550 तक चलता रहा । इस प्रक्रिया को बल यूरोप में 1715 से 1789 ई ० तक घटित होने वाली राजनीतिक साहित्यिक घटनाऊों से भी मिला । वास्तव में , यूरोप में इन 75 वर्षों को तर्क का युग ‘ ( Age of reason ) कहा जाता है । सदियों तक यूरोप धर्म ( संगठित चर्च ) से प्रभावित या शासित होता चला आया था । मानद के जीवन का हर क्षेत्र धर्म से प्रभावित था । धार्मिक ग्रन्थों के या पुरोहितों के विरुद्ध कुछ भी कहना
अन्धविश्वास का प्रचार माना जाता था जिसका दण्ड एक खम्भे से बाँधकर जिन्दा जला दिया जाना था । राजा भी देवपुत्र माना जाता था जिसको शासक के दैवी अधिकार प्राप्त थे । इन परिस्थितियों में इस लोक में जनसाधारण के लिए उत्पीड़न के सिवाय कुछ नहीं था , वे तो वहाँ अपने पापों का प्रायश्चित करने को जन्मे थे . इसलिए मरणोपरान्त दूसरी दुनिया में ही वे कुछ सुख पाने की कल्पना कर सकते थे । इटली में प्रारम्भ हुई पुनर्जागरण की प्रक्रिया , प्रोटेस्टैण्ट विद्रोह तथा वैज्ञानिक उपलब्धियों ने मानव को धर्म की बेड़ियों से मुक्त कराया । इन सभी शक्तियों ने जनसाधारण के मन में लौकिकवाद के प्रति आस्था पैदा की । लौकिकवाद का अर्थ धर्म का विरोध ‘ अथवा ‘ धर्म के प्रति तटस्थता ‘ या ‘ धर्मनिरपेक्षता नहीं है ।
इसका आशय तो यह है कि संसार सत्य है । मानव का जीवन बड़ा पुण्यमय है । वह अपने परिश्रम द्वारा अपनी भौतिक स्थिति में सुधार कर सकता है । धर्म पूजा – पाठ व ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन की एक पद्धति है और उसे वहीं तक सीमित रहना चाहिए । मनुष्य अपने व्यवसाय में उन्नति करे यह उसका कर्तव्य है । उसके द्वारा धनोपार्जन द्वारा वह इसी संसार में ऐश्वर्य व सुख से रह सकता है । यह उसका अटल अधिकार है । वह विवेकपूर्वक अपनी सामाजिक , राजनीतिक व आर्थिक व्यवस्था में परिवर्धन , संशोधन व परिवर्तन कर सकता है । इस लौकिक जीवन को उन्नत करने में न केवल वह सक्षम है वरन् ऐसा करना उसका नैतिक कर्त्तव्य है । धर्म को इन मामलों से परे ही रखा जाना चाहिए । सामाजिक , आर्थिक व राजनीतिक क्रियाएँ लौकिक क्रियाएँ हैं , धार्मिक क्रियाएँ नहीं । इस लौकिकवाद ने शासनतन्त्र के लिए समरूपता , कार्यक्षमता व व्यवस्था के आदर्शों पर बल दिया । सामाजिक संरचना के लिए मानववाद , समानता , व्यक्ति के मौलिक अधिकार व मुक्त सामाजिक गतिशीलता जैसे आदर्शों की स्थापना की । इस प्रकार , अनेक ऐसी धार्मिक निषेधाज्ञाएँ जो समाज के अध्ययन के विरुद्ध लगी हुई थीं 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक तिरोहित हो गई । इससे समाज के वैज्ञानिक अध्ययन का मार्ग प्रशस्त हुआ ।
( 5 ) सामाजिक समस्याएँ और उनका वैज्ञानिक अध्ययन – औद्योगीकरण ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया । हम पुन : बाल्डरिज को ही उद्धृत करना चाहेंगे क्योंकि उन्होंने 19 वीं शताब्दी के यूरोपीय समाज की समस्याओं पर बड़ी सटीक टिप्पणी करते हुए लिखा है , ” 19 वीं शताब्दी में सामाजिक दशाएँ विशेषतया कठिन हो गई थीं क्योंकि औद्योगिक क्रान्ति तथा तीव्र नगरीकरण ने बहुत दु : खदायी परिस्थितियों को जन्म दिया । बाल श्रम , कष्टकारी दुकानदारी , अम विवाद , भयावह आवास दशाएँ , सदियों से चलते आ रहे युद्ध के विनाशकारी परिणाम सभी सामाजिक परिदृश्य के अंग बन चुके थे । ” स्वाभाविक था कि विचारशील बुद्धिजीवियों का ध्यान इस ओर जाता । उन्होंने इन समस्याओं पर वैज्ञानिक दृष्टि से चिन्तन प्रारम्भ किया । इनका वैज्ञानिक स्पष्टीकरण और निदान उनकी जिज्ञासा के केन्द्र विषय बन गए । इससे समाज की पुनर्रचना के विचार को प्रोत्साहन मिला । उदाहरण के लिए मार्क्स ने इन समस्याओं की जड़ में सम्पत्तिशाली वर्ग द्वारा सर्वहारा वर्ग के शोषण को बताया और सर्वहारा क्रान्ति में ही इसके निदान का सुझाव दिया । दुर्थीम ने व्यावसायिक आचरण संहिताओं के विकास और व्यावसायिक संघों के गठन में इन समस्याओं से मुक्ति का मार्ग सुझाया । इन समस्याओं के अध्ययनों ने सामाजिक सर्वेक्षण के महत्त्व को भी सिद्ध किया । ( 6 ) अनेक समाज सुधार आन्दोलन – ऐसे समय में अनेक समाज सुधार आन्दोलन उभर कर सामने आए । सामाजिक सन्देश तथा ‘ मुक्ति वाहिनी ऐसे धार्मिक आन्दोलन थे जो समाज सुधार के लिए कार्य कर रहे थे । प्रमुख श्रम संघों का उदय हुआ जो अमिकों के हितों की रक्षा और कार्य की दशाओं में सुधार के लिए कटिबद्ध थे । नए राजनीतिक दलों का उदय हुआ जो नव – चेतना पर आधारित विचार – दर्शन के आधार पर गठित हुए थे । फ्रास के समाजवादी विचारक सेण्ट साइमन ( Saint Simon ) का सुझाव था कि उद्योग और सरकार का प्रशासन पर्यायवाची होना चाहिए जिसका उद्देश्य सभी के अधिकतम हितों की
पूर्ति हो । चार्ल्स फ्यूरियर ( Charles Fourier ) ने आन्दोलन चलाया कि राज्य का उन्मूलन कर दिया जाए , उसकी जगह समाज को छोटी – छोटी आदर्श बस्तियों ( Phalanges ) में गठित किया जाए तथा प्रत्येक व्यक्ति को उस कार्य को करने का अधिकार मिले जिसके लिए वह सबसे अधिक उपयुक्त है ।
इंग्लैण्ड में रोबर्ट ओवन ( Robert Owen : 1771-1858 ) ने एक आदर्श फैक्टरी की स्थापना की जिसका प्रशासन स्वयं श्रमिकों को करना था । ओवन का विश्वास था कि सुखी और स्वस्थ अमिक अधिक उत्पादन करेंगे । परन्तु अन्य उद्योगपतियों ने ओवन का अनुकरण नहीं किया । वैसे भी , उसका उपर्युक्त प्रयोग असफल हो गया । फिर भी , इन आन्दोलनों ने सामाजिक परिवर्तन की दिशाओं की ओर सशक्त इशारा किया । ( 7 ) सामाजिक विधानों द्वारा सुधार – इंग्लैण्ड उपर्युक्त समस्याओं का सबसे अधिक शिकार था । अत : उसी को यह श्रेय है कि उसने सामाजिक विधानों द्वारा स्थिति को नियन्त्रित करने की दिशा में भी पहल की । संसद फैक्टरी – नियन्त्रण और सामाजिक सुधार का मंच बन गई । 1802 ई ० में पहला फैक्टरी एक्ट पारित हुआ जिसके द्वारा कुछ सरकारी उद्योगों ने नौ वर्ष से कम की आयु के बालकों से 12 घण्टे प्रतिदिन से अधिक कार्य लेने को निषिद्ध कर दिया गया । बाद में 1832 , 1842 , 1847 एवं 1855 ई ० में फैक्टरी एक्ट पारित कर श्रमिकों की कार्य दशाओं को उन्नत करने के प्रयास किए गए । ये विधान अन्य देशों के लिए भी आदर्श बन गए । ( 8 ) भरपूर बौद्धिक सृजन -19 वीं शताब्दी में बौद्धिक विकास भी भरपूर हुआ । समाज के सभी क्षेत्रों में नए विचार दर्शन उत्पन्न हुए । ऐसा प्रतीत होता था कि मानो 19 वीं शताब्दी में विभिन्न वैचारिकियों के शिविर अपने – अपने दावे प्रस्तुत कर रहे हों कि उन्हीं के अनुसार मानव और समाज का कल्याण हो सकता है । राजनीति के क्षेत्र में रूढ़िवाद , उदारवाद , राष्ट्रवाद , समाजवाद और मार्क्सवाद सुदृढ़ विचार दर्शनों के रूप में विकसित हुए ।
समाजशास्त्र के क्षेत्र में भी अनेक विचार सम्प्रदायों का उदय हुआय जैसे – विकासवाद प्रगतिवाद , यथार्थवाद , प्रौद्योगिकीय निर्णयवाद , आर्थिक निर्णयवाद , सावयवीवाद , समाजशास्त्रीयवाद आदि । कला और साहित्य के क्षेत्र में शास्त्रीयवाद के साथ – साथ रोमांसवाद , यथार्थवाद , प्रयोजनवाद , प्रभाववाद विकसित हुए । इस शताब्दी में इस प्रकार की बौद्धिक सृजनता का विकसित होना स्वाभाविक भी था क्योंकि विज्ञान , तकनीकी , यातायात व संवाद वहन के साधनों ने विश्व को एक इकाई में बाँध दिया था , मानो सारा विश्व ही पश्चिमी यूरोप के उद्योगों के लिए एक बृहत् बाजार बन गया हो । राष्ट्रवाद विकसित हो गया था और उसका राजनीति की अन्य धाराओं पर प्रभुत्व बढ़ गया था । 1848 ई ० यूरोपीय समाज में एक नए मोड़ का वर्ष है । इस वर्ष अनेक यूरोप के देशों में राज्य क्रान्तियाँ हुई जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि कोरा उदारवाद समस्याओं को हल नहीं कर सकता । एक मजबूत केन्द्रीय शासन और क्रान्तिकारी विचारधारा ही समस्याओं का समाधान कर सकती है ।
19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उद्योग के क्षेत्र में अन्य महत्त्वपूर्ण परिवर्तन भी हुए । औद्योगीकरण पर अब इंग्लैण्ड का एकाधिकार ही नहीं था वरन् वह अब पूरे यूरोप व अमेरिका में फैल चुका था । संयुक्त राज्य अमेरिका द्रुत गति से एक विश्व शक्ति के रूप में विकसित हो गया था । बड़े उद्योग और एकाधिकारी संगठनों के सामने छोटे उद्योगपति या व्यापारी लुप्त होने लगे थे । विज्ञान की निरन्तर उपलब्धियों ने ज्ञानोदय के इस स्वप्न को कि अन्ततोगत्वा मानव समाज पूर्णता प्राप्त कर लेगा , करीब – करीब सम्भव बना दिया था ।
डनबॉफ ( Dunbaugh ) ने उचित ही लिखा है , ” जैसे पुनर्जागरण में अतीत की पूजा थी , 18 वीं सदी में तर्क की पूजा थी , इसी भाँति 19 वीं शताब्दी के बाद के वर्षों में विज्ञान की पूजा थी । ” इनबॉफ के ही शब्दों में हम 19 वीं शताब्दी की सामाजिक और आर्थिक दशाओं के विश्लेषण का समापन कर सकते हैं । उन्होंने लिखा है कि ” 19 वीं शताब्दी यूरोप का स्वर्णिम युग था । जैसे ग्रीस में 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व और इटली में पुनर्जागरण , इसी भाँति पूँजीपति समाज अपनी प्रौढ़ता पर पहुँच चुका था जो सांस्कृतिक फसल उत्पन्न भी कर रहा था और काट भी रहा था । ” समाजशास्त्र के विकास का बौद्धिक सन्दर्भ ( ज्ञानोदय ) तथा सामाजिक , आर्थिक एवं राजनीतिक शक्तियों ( प्रमुख रूप से फ्रांस की क्रान्ति एवं औद्योगिक क्रान्ति ) के परिणामस्वरूप लौकिकवाद , मानववाद , व्यक्तिवाद , उदारवाद , राष्ट्रवाद , समाजवाद , मार्क्सवाद जैसी विचारधाराएँ विकसित हुई जिन्होंने मानव के सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया । इनसे एक नवीन सामाजिक दर्शन का भी विकास हुआ जिसका लक्ष्य मानव में अन्तर्निहित सभी शक्तियों के विकास को सम्भव बनाना और इस धरा पर उसके जीवन को आनन्दमय बनाना था । यही वह दर्शन है जिसने समाजशास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा इसीलिए इस सामाजिक दर्शन को समाजशास्त्र के विकास का आधारस्तम्भ कहा गया है । उपर्युक्त समसामयिक दशाओं ने फ्रांस के सेण्ट साइमन , जर्मनी के कार्ल मार्क्स जैसे विचारकों को जन्म दिया , जिन्होंने एक नए सामाजिक विज्ञान की रूपरेखा प्रस्तुत की । ऑगस्त कॉम्ट ने इस नए विज्ञान का नामकरण किया , जबकि स्पेन्सर और दुर्थीम ने उसे प्रतिष्ठित किया । बॉटोमोर का कहना है कि इस प्रकार समाजशास्त्र का पूर्व इतिहास सौ वर्षों की उस अवधि से सम्बन्धित है जो लगभग 1740 ई ० से 1850 ई ० तक की है ।
उन्होंने 19 वीं शताब्दी में विकसित समाजशास्त्र की निम्नलिखित तीन विशेषताओं का भी उल्लेख किया है
( 1 ) यह विश्वकोशीय ( Encyclopaedic ) था , ( 2 ) यह उद्विकासवादी ( Evolutionary ) था तथा ( 3 ) यह निश्चयात्मक ( Positive ) था । समाजशास्त्र के विकास में प्रारम्भिक विद्वानों की समाज – सुधार में रुचि ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है । 1880 ई ० से 1920 ई ० के काल में तीव्र औद्योगीकरण के कारण सामाजिक परिवर्तन के अध्ययनों में रुचि विकसित हुई तथा 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इसे विज्ञान की स्थिति प्राप्त हो गई । समाज – सुधार तथा सामाजिक अनुसन्धान के घनिष्ठ सम्बन्ध के परिणामस्वरूप आनुभविक अनुसन्धान को प्रोत्साहन मिला तथा नीति – निर्माण करने वालों ने समस्याओं के समाधान के लिए समाजशास्त्रियों की ओर देखना शुरू कर दिया जिससे व्यावहारिक अनुसन्धान प्रारम्भ हुए ।
हेरी एम ० जॉनसन का मत है कि आज समाजशास्त्र निश्चित रूप से एक विज्ञान है , यद्यपि यह अन्य विज्ञानों से थोड़ा पिछड़ा हुआ है । इसमें विज्ञान की निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं
( 1 ) समाजशास्त्र आनुभविक ( Empirical ) है , क्योंकि यह तार्किक चिन्तन पर आधारित है ।
( 2 ) यह सैद्धान्तिक ( Theoretical ) है , क्योंकि इसमें घटनाओं के कार्य – कारण सम्बन्धों के आधार पर नियम बनाए जाते हैं ।
( 3 ) यह संचयी ( Cumulative ) है अर्थात् समाजशास्त्रीय सिद्धान्त एक के आधार पर दूसरे बनते है ।
( 4 ) यह नैतिकता – मुक्त ( Non – ethical ) है अर्थात् समाजशास्त्री का कार्य तथ्यों की व्याख्या करना है , उन्हें अच्छा या बुरा बताना नहीं । फ्रांस के पश्चात अमेरिका में समाजशास्त्र का अध्ययन – कार्य सर्वप्रथम 1876 ई ० में येल विश्वविद्यालय से प्रारम्भ हुआ और इस विषय का सर्वाधिक विकास अमेरिका में ही हुआ है । अमेरिकी समाजशास्त्रियों में समनर , रॉस , सोरोकिन , ऑगवर्न एवं निमकॉफ , मैकाइवर एवं पेज , यंग , लुण्डबर्ग , जिमरमैन , पारसन्स , मर्टन , किंग्सले डेविस आदि प्रमुख हैं । आज यद्यपि फ्रांस , अमेरिका , इंग्लैण्ड तथा जर्मनी में समाजशास्त्र एक सर्वाधिक लोकप्रिय विषय है , फिर भी संसार में शायद ही कोई ऐसा देश हो जिसमें समाजशास्त्र का अध्ययन न हो रहा हो । भारत में समाजशास्त्र का एक अलग व संस्थागत विषय के रूप में विकास 1919 ई ० में हुआ जबकि ‘ बम्बई विश्वविद्यालय ‘ में पैट्रिक गडिस की अध्यक्षता में समाजशास्त्र विभाग का गठन किया गया