Recent Trends in Sociological Theories

समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों में आधुनिक प्रवृत्तियाँ:

समाजशास्त्र एक विज्ञान है । अतः समाजशास्त्रीय सिद्धान्त वैज्ञानिक सिद्धान्त की श्रेणी में ही आते हैं । हम यह जानते हैं कि वैज्ञानिक सिद्धान्त मूलतः आनुभाविक या प्रयोगसिद्ध एवं कारणात्मक ( empirical and causal ) होते हैं । इसी समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के क्षेत्र में आधुनिक प्रवृत्ति यह है कि इसके सिद्धान्तकार आज पहले जमाने की भाँति तात्विक या दार्शनिक आधारों पर नहीं अपितु निरीक्षण – परीक्षण , प्रयोग व वर्गीकरण की अध्ययन – पद्धति को अपनाते हुए वास्तविक , पर्याप्त व निर्भरयोग्य तथ्यों के आधार पर आनुभाविक या प्रयोगसिद्ध सामान्यीकरण ( empirical generalization ) के द्वारा ऐसे सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने में रुचि रहे हैं जो घटनाओं के कार्य – कारण सम्बन्ध को तर्कसंगत रूप में स्पष्ट कर सकें ।

प्रो . डॉन मार्टिनण्डेल ने इस क्षेत्र में एक अन्य आधुनिक प्रवृत्ति का भी उल्लेख किया है और वह है कि विभिन्न सिद्धान्तों का समन्वय ( Integration ) । ” शब्दों , अवधारणाओं तथा आनुभविक सामान्यीकरण के एक सामान्य भण्डार ( common stock ) को सभी सम्प्रदायों के सदस्य अधिकाधिक व्यवहार में ला रहे हैं । वास्तव में , एक क्षेत्र के प्रतिस्थापित तथ्यों की व्याख्या करने की योग्यता एक सिद्धान्त को स्वीकार योग्य बनाने की दिशा में पहला कदम है । ” उदाहरण के लिए , व्यक्तित्व की समस्या को संघर्ष – सिद्धान्तकारों ने उभारा , स्वरूपात्मक सम्प्रदाय ने और अधिक गम्भीरता से परखा एवं सामाजिक व्यवहारवाद की प्रतीकात्मक – अन्तःक्रियाओं एवं सामाजिक – क्रियावादी सिद्धान्तकारों द्वारा उसका पूर्ण अध्ययन किया गया और प्रकार्यवादियों ने इसी समस्या का जाँच – कार्य फिर से प्रारम्भ कर दिया है । इसी प्रकार पारसन्स के क्रिया – सिद्धान्त में दुर्थीम , परेटो , मैक्स वेबर के क्रिया – सिद्धान्तों का एक अपूर्व समन्वय देखने को मिलता है । समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के क्षेत्र में आधुनिक प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले सिद्धान्तकारों में मर्टन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।

उनकी प्रख्यात कृति ‘ Social Theory and Social Structure ‘ का अध्ययन करने पर कुछ अन्य आधुनिक प्रवृत्तियों का भी पता चलता है । उनमें से यह है कि आज सामाजिक व्यवस्थाओं से सम्बन्धित सामान्य सिद्धान्तों की अपेक्षा आधुनिक सिद्धान्तकारों की रुचि ‘ मध्य – अभिसीमा के समाजशास्त्रीय सिद्धान्त ‘ को प्रतिपादित करने की दिशा में बढ़ती जा रही है । गाउल्डनर , ब्लाड , क्रोजियर आदि द्वारा नौकरशाही से सम्बन्धित , रेमण्ड मैक द्वारा व्यावसायिक उप – व्यवस्था ( occupational sub – system ) से सम्बन्धित पेल्लीग्रिन द्वारा गतिशीलता से सम्बन्धित मध्य – अभिसीमा के सिद्धान्तों का प्रतिपादन इस ओर अनेक आधुनिक सिद्धान्तकारों के झुकाव के अच्छे प्रमाण हैं । मर्टन ने लिखा है कि “ अगर आज हम मध्य अभिसीमा के सिद्धान्तों के बजाए सामाजिक व्यवस्थाओं से सम्बन्धित केवल

सामान्य सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने में ही अपना सम्पूर्ण ध्यान लगा दें तो यह डर है कि बीसवीं सदी में भी हम भूतकाल की भाँति केवल ऐसी बृहत दार्शनिक व्यवधाओं ( या सिद्धान्तों ) को ही विकसित कर सकेंगे जिनमें विविध झुकावशीलता , शिल्पकला सम्बन्धी चमक – दमक एवं वैज्ञानिक बांझपन होगा । ” मर्टन एक अन्य आधुनिक प्रवृत्ति की ओर भी संकेत करते हैं और वह है समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का संकेतन । आपके ही शब्दों में , ” संकेतन अनुसन्धान के फलदायक तरीकों एवं मौलिक जाँच – परिणामों की क्रमबद्ध तथा सुसंहत व्यवस्था है । इस प्रक्रिया द्वारा भूतकाल के अनुसन्धान में जो कुछ निर्विवाद है उसका समीकरण एवं संगठन सम्भव होता है , न कि शोध के नए दाँव – पेंचों की खोज । ” आज इसीलिए समाजशास्त्रीय सिद्धान्तकार अपने सिद्धान्तों में बड़ी – बड़ी वर्णनात्मक मान्यताओं , मौलिक तर्क – वाक्यों और जाँच परिणामों को कुछ व्यवस्थित व सुसंहत प्रतीकों या संकेतों द्वारा व्यक्त करते हैं ताकि शब्दों के मायाजाल में फँसकर वास्तविक निष्कर्ष कहीं अस्पष्ट न हो जाए । आधुनिक समय में समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को पहले से अधिक तकनीकी स्तर पर लाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है । अतः स्पष्ट है कि आधुनिक समय में अधिक वैज्ञानिक , प्रयोगसिद्ध , व्यवस्थित , सुसंगत एवं समन्वित मध्य अभिसीमा वाले समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने की प्रवृत्ति उत्तरोतर बढ़ती जा रही है । फिर भी इस दिशा में अब भी बहुत आगे बढ़ना शेष है । सम्भवतः भविष्य में समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की इस प्रगति का पथ प्रशस्त हो । प्रो . डॉन मार्टिनण्डेल ने ठीक ही कहा है कि ” समाजशास्त्र अब भी एक न्यूटन या एक मैक्सवेल को जन्म दे सकता है जो संयोग से उत्पन्न सामग्री को ग्रहण करेगा , धैर्यपूर्ण परिश्रम से कार्य करेगा , उन्हें स्फटिक की भाँति अपने तर्क से स्पष्ट करेगा एवं अपने प्यार की आग में उन्हें पिघलाकर एकीभूत करेगा । “

सिद्धान्तीकरण के स्तर ( ( Level of Theorization )

 एक सिद्धान्त अनेक कथनों एवं अवधारणाओं का यथार्थ , वैज्ञानिक एवं तार्किक संग्रह होता है । सिद्धान्त किसी भी बात की पुष्टता को प्रकट करता है । किन्तु अक्सर एक प्रश्न उठाया जाता है कि सिद्धान्त का निर्माण किस प्रकार होता है । अनेक विद्वान इस प्रश्न का उत्तर देते हैं । इन विद्वानों का मानना है कि सिद्धान्त कोई देखने की वस्तु नहीं है अपितु एक प्रक्रिया है । जॉन विल्सन स्पष्ट रूप से कहते हैं कि सिद्धान्त निर्माण एक प्रक्रिया है ।

जोनाथन टर्नर ने भी सिद्धान्त को एक प्रक्रिया माना है । उन्होंने सिद्धान्त के चार तत्त्वों का उल्लेख किया है – अवधारणा ( Concepts ) , परिवर्त्य अथवा चर ( Variable ) , कथन ( Statements ) एवं बाह्य स्वरूप ( Format ) । टर्नर का मानना है कि ये चारों तत्त्व मिलकर एक प्रक्रिया के रूप में समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का निर्माण करते हैं ।

 सिद्धान्त निर्माण के सम्बन्ध में पिछले कुछ दशकों में कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं । इनमें सिद्धान्त निर्माण की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला गया है । सिद्धान्त निर्माण के सम्बन्ध में शेपेर ( D. Shapere , Scientific Theories ) का मानना है कि सिद्धान्त धीरे – धीरे विकसित होता है । सिद्धान्त प्रारम्भ में एक अस्पष्ट विचार के रूप में होता है किन्तु धीरे – धीरे वह एक स्पष्ट कथन के रूप में उभरता है और अन्त में वह एक सिद्धान्त बनता है ।

 सिद्धान्तीकरण की प्रक्रिया ( Process of Theorization )

सिद्धान्तीकरण या सिद्धान्त निर्माण की प्रक्रिया के तत्त्वों को सरल शब्दों में निम्न प्रकार समझा जा सकता है

( 1 ) सर्वप्रथम किसी सामाजिक प्रघटना के सम्बन्ध में क्षेत्र कार्य ( Field Work ) के माध्यम से तथा एकत्रित किए जाते हैं तथा उनका वर्गीकरण किया जाता है ।

 ( 2 ) तत्पश्चात् इन तथ्यों का विश्लेषण किया जाता है अर्थात् इन तथ्यों से छोटे – छोटे कथनों का निर्माण किया जाता है ।

 ( 3 ) इन कथनों के परस्पर अन्तर्सम्बन्धों का निर्धारण किया जाता है ।

 ( 4 ) इन कथनों के परस्पर अन्तर्सम्बन्धों से तार्किक आधार पर सामान्यीकरण की व्याख्या की जाती है ।

 ( 5 ) इन तार्किक कथनों के माध्यम से अन्य क्षेत्रों के सामान्यीकरण के माध्यम से निर्मित कथनों की व्याख्या की जाती है ।

 ( 6 ) इस प्रकार निर्मित सिद्धान्त द्वारा किसी भी सामाजिक घटना को समझने की क्षमता होती है । रॉबर्ट मर्टन ने समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के ऊपर पर्याप्त एवं श्रेष्ठ लिखा है । मर्टन ने ‘ Social Theory and Social Structure ‘ में सिद्धान्त निर्माण का उल्लेख किया है ।

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 सिद्धान्तीकरण के स्तर ( Level of Theorization )

मर्टन ने समाजशास्त्रीय सिद्धान्त निर्माण के निम्नलिखित स्तर बतलाए हैं

 ( 1 ) पद्धति ( Methodology ) –

 शोध में सर्वप्रथम यह निर्धारित किया जाता है कि किन पद्धतियों के माध्यम से तथ्यों का संग्रह किया जाए । पद्धतियों का चयन चुनाव समस्या या उप – कल्पना की प्रकृति पर आधारित होता है । समस्या के लिए का संग्रह करना आवश्यक होता है । तथ्यों का संग्रह जिस पद्धति से आसानी से हो जाता है उसी पद्धति का चयन किया जाता है ।

 ( 2 ) सामान्य समाजशास्त्रीय उन्मेष ( General Sociological Orientation )

अध्ययन के पूर्व सामान्य समाजशास्त्रीय व स्वयंसिद्ध ( Axioms ) का प्रयोग किया जाता है तथा समस्या का उसके सन्दर्भ में विवेचन किया जाता है ।

 ( 3 ) प्रत्ययों का विश्लेषण ( Analysis of Concepts ) –

 किसी भी अनुसन्धान में कुछ – न – कुछ प्रत्ययों या अवधारणाओं का प्रयोग किया जाता है । इन प्रत्ययों का क्या अर्थ और सन्दर्भ है उसका समुचित विश्लेषण एवं स्पष्टीकरण होना चाहिए जिससे किसी प्रकार का भ्रम न हो । अनेक शब्द ऐसे होते हैं जिनका बोलचाल की भाषा में एक प्रकार का अर्थ होता है और विज्ञान में दूसरा अर्थ होता है । एक ही शब्द का अर्थ अलग विज्ञानों में अलग हो सकता है । प्रत्ययों का विश्लेषण से किसी भी प्रकार का भ्रम नहीं रहता है ।

 ( 4 ) विषय – सामग्री की व्याख्या ( Interpretation of Data ) –

 समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की प्रतिस्थापना के लिए आवश्यक है कि एकत्रित आँकड़ों या विषय – सामग्री की व्याख्या की जाए । यह विषय – सामग्री ही समस्या के लिए प्रमाण ( evidence ) है ।

 ( 5 ) सामान्यीकरण ( Generalization ) –

प्राप्त तथ्यों के आधार पर विश्लेषण द्वारा निष्कर्ष या सामान्य नियम स्पष्ट होते हैं , उन्हें निरुपित किया जाता है । यह प्रक्रिया सामान्यीकरण कहलाती है । सामान्यीकरण प्रायः सार्वभौमिक होते हैं । मर्टन ने मध्य – सीमा सामान्यीकरण ( Middle Range Generalization ) का विचार प्रस्तुत किया है ।

( 6 ) सिद्धान्तीकरण ( Theorisation ) –

सामान्यीकरण को तर्क की कसौटी पर परखते हैं । यदि यह सामान्यीकरण तर्क संगत होते हैं तथा उनमें तर्क साम्य ( Logical consistence ) पाया जाता है तो वह सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया जाता है । सिद्धान्त निर्माण की प्रक्रिया को सिद्धान्तीकरण कहते हैं ।

समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की उपयोगिता ( Utility of Sociological Theories )

यह तो स्पष्ट हुआ कि सिद्धान्त निर्माण एक प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया अनेक चरणों से होकर गुजरती है । दूसरे शब्दों में , कहीं तो समाजशास्त्र में सिद्धान्त निर्माण एक भगीरथ कार्य है क्योंकि इनका निर्माण एक जटिल एवं परिवर्तनशील सामाजिक घटना के अध्ययन के आधार पर होता है । निर्माण के बाद ये सिद्धान्त केवल देखने अथवा पढ़ने की वस्तु नहीं रहते अपितु अनेकों प्रकार से समाजशास्त्र एवं समाज में अपनी उपयोगिता सिद्ध करते हैं । समाजशास्त्रीय सिद्धान्त लम्बे समय तक हमें सामाजिक घटना का परिचय प्रदान करता है । इन सिद्धान्तों के आधार पर ही किसी भी सामाजिक समस्या को सुलझाने के सम्बन्ध में पहल की जाती है । समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के उपयोगों का संक्षिप्त उल्लेख किया जाना नितान्त आवश्यक है

( 1 ) सिद्धान्त शोघ का मार्गदर्शन करता है –

एक समाजशास्त्रीय सिद्धान्त , शोधार्थियों द्वारा किए जाने वाले शोध कार्यों का र्गदर्शन करता है । एक शोधार्थी को अपने विषय का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं होता है । वह किसी साड़ी को चलाने वाले नए चालक की भांति होता है । अपने विषय के सम्बन्ध में वह साहित्य सर्वेक्षण ( Survey ) के माध्यम से पूर्व में सृजित किए गए सिद्धान्तों का अध्ययन करता है और उन्हीं के आधार पर अध्ययन क्षेत्र में आगे बढ़ता है ।

 ( 5 ) सिद्धान्त आनुभाविकता को समझने में सहायक है –

 समाजशास्त्रीय सिद्धान्त का निर्माण आनुभाविकता के आधार पर होता है । इसी आनुभाविकता के आधार पर ही किसी भी सामाजिक घटना के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकाले जाते हैं । इस प्रकार सिद्धान्त के माध्यम से हमें किसी भी समाज आनुभाविक जीवन का पता लगाते हैं ।

( 4 ) सिद्धान्त अवधारणाओं का विश्लेषण करते हैं –

एक सिद्धान्त का निर्माण अनेक अवधारणाओं के आधार पर होता है अर्थात् एक सिद्धान्त का सम्बन्ध अनेक अवधारणाओं से होता है । जब हम सिद्धान्त का प्रयोग करते हैं तो इन अवधारणाओं का स्पष्टीकरण भी हो जाता है । उदाहरणार्थ , एक सिद्धान्त को लें- “ कार्यरत महिलाओं को भूमिका संघर्ष का सामना करना पड़ता है । ” इस सिद्धान्त के आधार पर अनेक अवधारणाओं का परिचय सामने आएगा यथा – कार्यरत महिलाएँ , भूमिका संघर्ष , कार्यालय परिवार इत्यादि ।

( 5 ) सिद्धान्त पैराडिम निर्माण का आधार है –

 पैराडिम ( Paradigm ) को हम मॉडल ( Model ) भी कह सकते हैं । मॉडल अर्थात् पैराडिम तथा सिद्धान्त में एक सूक्ष्म अन्तर है । सिद्धान्त यथार्थता पर आधारित होते हैं किन्तु पैराडिम यथार्थता के निकट अथवा समान होता है । सिद्धान्त का सम्बन्ध एक व्यापक क्षेत्र से होता है । हम इस क्षेत्र के किसी अंश के तत्त्वों को लेकर एक पैराडिम का निर्माण कर सकते हैं ।

 ( 6 ) सिद्धान्त तथ्य संकलन को उपयोगी बनाते हैं –

 किसी भी सामाजिक घटना का अध्ययन क्षेत्र कार्य ( Field Work ) के अभाव में अपूर्ण है । क्षेत्र कार्य के माध्यम से बहुत से तथ्य एकत्रित किए जाते हैं । प्रारम्भ में यह तथ्य अनुपयोगी होते हैं । परन्तु किसी समय पर तथ्य किसी उपकल्पना निर्माण का आधार बनते हैं । आने वाले समय में ये उपकल्पना किसी समाजशास्त्रीय सिद्धान्त को जन्म दे सकती है । इस रूप में सिद्धान्त तथ्यों को उपयोगी बनाने का कार्य करते हैं । इसके अतिरिक्त समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के कुछ सूक्ष्म उपयोग भी हैं

 ( 7 ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त समाज वैज्ञानिकों के विस्तृत अनुभव को संक्षेप में प्रस्तुत करने का महत्त्वपूर्ण साधन है ।

( 8 ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त न केवल आनुभविक अध्ययनों को निर्देशित करते हैं अपितु समाजशास्त्र के सैद्धान्तिक विकास में अपना योगदान देते हैं ।

( 9 ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के माध्यम से किसी भी समाज के भविष्य का पता लगाने में पर्याप्त सहायता मिलती है ।

( 10 ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त सामाजिक समस्याओं को इंगित करते हैं । इससे इन समस्याओं के सम्बन्ध में नवीन शोध कार्य किए जा सकते हैं । संक्षेप में , कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र के दोनों ही पक्ष उपयोगी एवं सार्थक हैं । जहाँ व्यवहारिक समाजशास्त्र वर्तमान समाज को समझने एवं उसमें व्याप्त समस्याओं को सामने लाने का कार्य करता है , वहीं सैद्धान्तिक समाजशास्त्र इस प्रकार के अध्ययनों अर्थात् व्यवहारिक समाजशास्त्र को एक दिशा , अन्तर्दृष्टि एवं मार्गदर्शन देता है ।

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