समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की अवधारणा

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की अवधारणा:

 

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त सामाजिक तथ्यों पर आधारित सामान्यीकरण होते हैं । समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की प्रकृति वैज्ञानिक होती है । प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों ने अनेक सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने का प्रयास किया है । यद्यपि अनेक विद्वान समाजशास्त्र में सार्वभौम सिद्धान्तों का निर्माण करना एक कठिन कार्य मानते हैं , तथापि इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज समाजशास्त्र में अनेक सिद्धान्त विद्यमान है जिनके आधार पर सामाजिक घटनाओं , सामाजिक व्यवहार एवं सामाजिक सम्बन्धों की सटीक व्याख्या की जा सकती है । फेयरचाइल्ड ( Fairchild ) ने ‘ डिक्शनरी ऑफ सोशियोलोजी ‘ ( Dictionary of Sociology ) में समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की परिभाषा इन शब्दों में दी है- ” सामाजिक घटना के बारे में ऐसा सामान्यीकरण जो पर्याप्त रूप में वैज्ञानिकतापूर्वक स्थापित हो चुका है तथा समाजशास्त्रीय व्यवस्था के लिए आधार बन सकता है ।

सिद्धान्त से अभिप्राय अनुभाविक शोध द्वारा प्रमाणित प्रस्तावनाओं के क्रमबद्ध रूप के लिए किया जाता है । यह दो या अधिक चरों ( Variables ) के बीच पाए जाने वाले सम्बन्धों से बनता है जिसकी प्रामाणिकता की जाँच की जा सकती है । इसे हम अन्तर्सम्बन्धित तथ्यों का एक ढाँचा भी कह सकते हैं । यह एक ऐसा सामान्यीकरण है जिसे तथ्यों के बृहत् समूह के प्रामाणीकरण के बाद प्राप्त किया जाता है । सामान्यतः यह भी माना जाता है कि सिद्धान्त किसी घटना के सम्बन्ध में क्यों ‘ तथा ‘ कैसे ‘ सरीखे प्रश्नों का उत्तर देने का एक तरीका है । यदि सिद्धान्त समाज , सामाजिक जीवन , सामाजिक घटनाओं अथवा समाज के किसी अन्य पहलू के विषय में होते हैं , तो इन्हें समाजशास्त्रीय सिद्धान्त कहा जाता है ।

यदि कोई कहता है कि उसने पत्ते को गिरते देखा है तो यह एक तथ्य ( Fact ) कहा जायेगा । यदि कोई कहता है कि उसने कभी – कभी पत्तों को गिरते देखा है तो वह केवल किसी घटना विशेष के सम्बन्ध में वृहद किन्तु अनेक अवर्गीकृत कथनों को एक में जोड़ रहा है , जो एक जटिल तथ्य का निर्माण करते हैं । किन्तु यदि कोई कहता है कि सभी पत्तियों को निश्चित रूप से गिरना है , तो यह तथ्य नहीं बल्कि एक THERY है , क्योंकि व्यक्ति का सभी पत्तों के सम्बन्ध में जो कथन है वह उसके !द्वारा किए अवलोकन पर प्राधारित नहीं है क्योंकि असंख्य पत्ते गिरने वाले हैं जिनका अवलोकन एक व्यक्ति द्वारा नहीं किया जा सकता । “

 इस प्रकार वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुडे एवं हट्ट ने तथ्यों को परिभाषित करते हुए लिखा है कि ” तथ्य से अभिप्राय एक ऐसे प्रानुभाविक अवलोकन से है जिसका सत्यापन सम्भव हो । ”  उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तथ्य में दो मूल विशिष्टताएं पाई जाती हैं

 ( क ) तथ्य इन्द्रीय अनुभूति पर आधारित होता है ( Fact is based on Sense Preception ) एवं

 ( ख ) तथ्य का सत्यापन सम्भव है ( Fact is Verifiable ) | सिद्धान्त को परिभाषित करते हुए , उपरोक्त लेखकों का कथन है कि ” यह ( सिद्धान्त ) तथ्यों में निहित अन्तःसम्वन्धों का द्योतक होता है , अथवा इससे अभिप्राय तथ्यों के किसी अर्थपूर्ण क्रम में प्रस्तुत किए जाने से है । “

विद्वानों ने समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के अनेक प्रकारों का उल्लेख किया है । अधिकांशतः इन्हें बृहत् सिद्धान्त ( बड़े पैमाने पर किए गए अध्ययनों पर आधारित ) , सूक्ष्म सिद्धान्त ( लघु पैमाने पर किए गए अध्ययनों पर आधारित ) तथा मध्य – सीमा सिद्धान्त ( बृहत एवं सूक्ष्म सिद्धान्तों का मिश्रित रूप ) में विभाजित करते हैं ।

मध्य – सीमा सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने का श्रेय सुप्रसिद्ध अमेरिकी समाजशास्त्री रोबर्ट के ० मर्टन को दिया जाता है । समाजशास्त्रीय सिद्धान्त आनुभविक शोध को निर्देशित करने में तथा सामाजिक यथार्थता के बारे में विद्यमान ज्ञान में पाई जाने वाली त्रुटियों का पता लगाने में सहायता प्रदान करते हैं ।

 

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त समाज , सामाजिक सम्बन्धों तथा सामाजिक व्यवहार से सम्बन्धित तथ्यों की अन्तर्सम्बन्धित व्यवस्था है । समाजशास्त्रीय शोधों में तथ्यों को आनुभविक रूप से एकत्रित किया जाता है तथा फिर एक ही पहलू ( या विषय ) से सम्बन्धित अनेक तथ्यों को मिलाकर ( अर्थात् परस्पर सम्बन्धित कर ) सिद्धान्तों का निर्माण किया जाता है ।

 समाजशास्त्र का एक भाग श्रेणियों में क्रमबद्ध ढाँचे के इसी वर्णन से मिलकर बना है . जिसमें केवल साधारण सिद्धान्त – निरूपण ही महत्त्वपूर्ण होता है । सिद्धान्त वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित एक ऐसा मान्य सामान्यीकरण होता है जो सामाजिक यथार्थता की व्याख्या करने में सक्षम होता है ।

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प्रमुख विद्वानों ने इसकी परिभाषाएँ निम्न प्रकार से दी हैं

प्रसिद्ध समाजशास्त्री सोरोकिन ( Sorokin ) का कहना है कि समाजशास्त्र में सिद्धान्तों का प्रभाव नहीं है वरन् ये इस प्रकार बढ़ रहे हैं जैसे वर्षा के बाद घास – फूस बढ़ता है । अपनी पुस्तक में उन्होंने बताया है कि ” अर्वाचीन सामान्य सिद्धान्तों का कुल क्षेत्र इतना अधिसंख्य , इतना जटिल तथा इतना भ्रमपूर्ण है कि इसे समग्र रूप में किसी एक पुस्तक में शामिल करना सम्भव नहीं है । ” परेटो ( Pareto ) ने इस शब्द का वड़ा व्यापक प्रयोग किया है । उसने भावनाप्नों के बौद्धिकीकरण को सिद्धान्त कहा है । जॉर्ज होमन्स ने सिद्धान्तों की प्रकृति का जो स्वरूप स्वीकार किया है उसके आधार पर उनका निष्कर्ष है कि ” समाजशास्त्र में कुछ ही सिद्धान्त हैं तथा सम्भवतः तथाकथित सामान्य सिद्धान्त तो कोई नहीं है । ” यही मत अर्नेस्ट नागेल का है । उनका विचार है कि जिस  प्रकार प्राकृतिक विज्ञानों में स्पष्टीकरण करने वाले तया भविष्यवाणी करने की क्षमता वाले सिद्धान्त हैं वैसे किसी भी सामाजिक विज्ञान में नहीं हैं । समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के प्रभाव तथा प्रसार के विषय में इन विरोधी विचारों का कारण यह है कि सिद्धान्त का प्रथं अलग – अलग लगाया जाता है ।

समाजशास्त्रीय साहित्य में सिद्धान्त का ढीला – ढाला अर्थ लगाया जाता है । परिकल्पना , मान्यता , विचारशील अनुमान आदि को अनेक बार सिद्धान्त कह दिया जाता है । सैद्धान्तीकरण की प्रक्रिया भी कभी – कभी सिद्धान्त मान ली जाती है । दूसरी ओर होमन्स तथा नागेल प्रादि विचारक हैं जिनके लिए सिद्धान्त का आधार तर्कशास्त्रियों द्वारा भौतिक विज्ञानों के सर्वाधिक उन्नत सिद्धान्तों का विश्लेषण करके बनाया गया प्रारूप है ।

एबल ( Abel ) के अनुसार -….. सिद्धान्त नियमों की व्याख्या करने के लिए निर्मित अवधारणात्मक योजनाएँ हैं । सभी सिद्धान्तों का सामान्य कार्य अवलोकित नियमितताओं की व्याख्या करना है ।

कैम्पबैल ( Campbell ) के अनुसार- ” एक उपयोगी सिद्धान्त में दो गुण होते हैं । यह ऐसा होना चाहिए कि इससे नियमों का पूर्वानुमान लगाया जा सके तथा यह इन नियमों की व्याख्या कुछ ऐसी उपमाओं द्वारा कर सके जो ऐसे नियमों पर आधारित हैं जो व्याख्या किए जा रहे नियमों से अधिक सामान्य हैं ।

 

 

फेयरचाइल्ड ( Fairchild ) ने ‘ डिक्शनरी ऑफ सोशियोलोजी ‘ ( Dictionary of Sociology ) में समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की परिभाषा इन शब्दों में दी है- ” सामाजिक घटना के बारे में ऐसा सामान्यीकरण जो पर्याप्त रूप में वैज्ञानिकतापूर्वक स्थापित हो चुका है तथा समाजशास्त्रीय व्यवस्था के लिए आधार बन सकता है ।

 टिमाशेफ ने सिद्धान्त के लिए निम्नांकित विशेषताओं का होना अनिवार्य बताया है1

( 1 ) अवलोकन , जो किसी भी वस्तुपरक विज्ञान का प्राधार होता है , अवलोकन पर आधारित तथ्यों का संकलन तथा वर्गीकरण ।

( 2 ) सामान्यीकरण जो अवलोकित तथ्यों के वर्गीकरण तथा सांख्यिकीय विन्यास पर आधारित होगा जिसे प्रकृति का नियम कहा जा सकता है कि जब भी विशेष दशाएं उत्पन्न होंगी , एक निश्चित परिणाम उत्पन्न होंगे ।

टिमाशेफ के अनुसार , ” सिद्धान्त प्रस्थापनाओं का युग्म होता है जिसमें निम्नांकित दशानों का प्रादर्श रूप से अनुपालन अावश्यक होता है- ( 1 ) प्रस्थापनानों को सही – मही परिभाषित अवधारणाओं से व्यक्त किया जाना चाहिए , ( 2 ) उन्हें एक – दूसरे के साथ तारतम्य रखना चाहिए , ( 3 ) उन्हें इस प्रकार का होना चाहिए जिससे उनसे निगमनात्मक विधि से विद्यमान सामान्यीकरणों को व्युत्पादित किया जा सके , ( 4 ) उन्हें परिणामदायक होना चाहिए , अवलोकन तथा सामान्यीकरणों के लिए पथ – प्रदर्शक होना चाहिए , जिससे ज्ञान वृद्धि हो सके ।

 

 

” मर्टन ( Merton ) के अनुसार- ” आज जिसे समाजशास्त्रीय सिद्धान्त कहा जाता है , उसके अन्तर्गत आंकड़ों के प्रति सामान्य उन्मेष सम्मिलित है जिन पर किसी – न – किसी प्रकार से सोच – विचार करने की आवश्यकता पड़ती है । इसके अन्तर्गत स्पष्ट तथा विशिष्ट चरों के बीच प्रमाण – योग्य प्रस्तावनाओं की गणना नहीं की जाती । उनका कहना है कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्त का प्रयोग व्यापक रूप से व्यावसायिक समाजशास्त्रियों के समूह के सदस्यों की विभिन्न प्रकार की क्रियाओं की व्याख्या के लिए भी किया जाता है

उन्होंने समाजशास्त्रीय सिद्धान्त में व्याख्यात्मक अवधारणाओं , नियमों तथा समाज के सभी पक्षों में सामान्य रूप से उपयोगी सिद्धान्तों से सम्बन्धित समाजशास्त्रीय ज्ञान को सम्मिलित किया है । उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्त सामाजिक तथ्यों पर आधारित सामान्यीकरण ही है । यह समाज , सामाजिक जीवन व व्यवहार और सामाजिक घटनाओं से सम्बन्धित तथ्यों की वह बौद्धिक व्यवस्था है जिनसे इनकी यथार्थता का ज्ञान होता है ।

समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की प्रकृति:

 

संक्षेप में समाजशास्त्रीय सिद्धान्त को निम्नलिखित विशेषताएं होती हैं

1 . सिद्धान्त एक सुपरिभाषित व्यवस्थित प्रतीकात्मक शब्द विन्यास है तथा तथ्य की अनिवार्यता से मुक्त होता है , सिद्धान्त निर्माण एक सर्जनात्मक उपलब्धि है तथा इसमें प्रमाणों की सीमा से बाहर छलांग निहित होती है । 2 . सिद्धान्त सुपरिभाषित अवधारणाओं तथा ताकिक दृष्टि से अन्तर्सम्बद्ध प्रस्थापनामों के पदों से व्यक्त होते हैं । 3 . सिद्धान्त की प्रकृति व्यवस्थायी या अन्तःकालीन होती है , यह सदैव नई अन्तईष्टि तथा प्रमाण के आधार पर संशोधन के लिए खुला होता है । किसी समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के लिए अन्तिम सूत्रीकरण होना न तो आवश्यक है न ही अपेक्षित । 4 . यह प्रारम्भिक रूप में सत्यापन योग्य होता है , अर्थात् इसका ज्ञात तथ्यों के निकाय एवं उपलब्ध प्रमाणों से तारतम्य होता है । 5 . यह व्यवस्थित सूत्रीकरण होता है जिसका उद्देश्य मानवतावादी परम्पराओं की आवश्यकताओं तथा वैज्ञानिक परम्परा की मांगों के बीच सामंजस्य स्थापित करना होता है । 6 . सिद्धान्त मानव आचरण से उद्भूत होते हैं अर्थात् सामाजिक सिद्धान्त देशकाल सापेक्ष होते हैं ।

 

समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की विभिन्न परिभाषाओं से इसकी प्रकृति का भी स्पष्ट रूप से पता चल जाता है । इसकी प्रकृति को स्पष्ट करने वाली कतिपय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

( 1 ) वैज्ञानिक आधार – अन्य सिद्धान्तों की तरह समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के निर्माणक तत्त्व भी सामाजिक तथ्य होते हैं । इसीलिए इनका वैज्ञानिक आधार होता है । ये वैज्ञानिक पद्धति द्वारा प्राप्त तथ्यों पर ही आधारित होते हैं । वैज्ञानिक आधार के कारण ही समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों द्वारा आनुभविक समानताओं को ज्ञात किया जा सकता है ।

( 2 ) तार्किक समाजशास्त्रीय सिद्धान्त आनुभविक तथ्यों की एक तार्किक या बौद्धिक व्यवस्था है । जब एक ही विषय से विभिन्न तथ्य संकलित कर लिए जाते हैं तो उनको तार्किक रूप में परस्पर सम्बन्धित करके सिद्धान्त का निर्माण किया जाता है ।

( 3 ) अमूर्त अन्य सिद्धान्तों की तरह समाजशास्त्रीय सिद्धान्त भी अमूर्त होते हैं । इनमें प्रयुक्त अवधारणाएँ सुस्पष्ट होती हैं तथा प्रस्तावनाएँ परस्पर सम्बन्धित होती हैं ।

( 4 ) अनुभवसिद्ध – समाजशास्त्रीय सिद्धान्त सामाजिक शोध का आधार हैं जिससे उपकल्पनाओं का परीक्षण एवं निरीक्षण किया जाता है ।

( 5 ) यथार्थता की व्याख्या के साधन – समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का उद्देश्य समाज , सामाजिक जीवन एवं सामाजिक घटनाओं को समझकर इनकी व्याख्या करना है । अतः ये साधन हैं , साध्य नहीं ।

 ( 6 ) सामान्य प्रकृति – समाजशास्त्रीय सिद्धान्त समाज , सामाजिक जीवन व व्यवहार तथा सामाजिक घटनाओं के बारे में सामान्यीकरण होते हैं जो सामाजिक तथ्यों द्वारा निर्मित होते हैं । इसीलिए ये सामान्य प्रकृति के होते हैं ।

( 7 ) सार्वभौमिक – समाजशास्त्रीय सिद्धान्त सार्वभौमिक प्रकृति के होते हैं अर्थात् उन पर स्थान एवं काल का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है । उदाहरणार्थ – कार्ल मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त एक सार्वभौमिक सिद्धान्त कहा जाता है ।

( 8 ) मूल्यों की दृष्टि से तटस्थ – समाजशास्त्रीय सिद्धान्त मूल्यों से मुक्त होते हैं क्योंकि ये अच्छे या बुरे का वर्णन नहीं करते । इनका उद्देश्य तो मात्र सामाजिक यथार्थता को समझना एवं इसकी व्याख्या करना है । टी ० बी ० बॉटोमोर तथा रोबर्ट के ० मर्टन के विचारानुसार समाजशास्त्र में सिद्धान्तों का काफी अभाव है तथा यह विषय अधिकांशतः आनुभविक सामान्यीकरण से आगे नहीं बढ़ पाया है । इन्हीं सामान्यीकरणों का अधिक व्यापक रूप से परीक्षण करके सिद्धान्तों का निर्माण किया जा सकता है ।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्त अभी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में हैं तथा इनमें सार्वभौमिकता का अभाव पाया जाता है । जिन्सबर्ग द्वारा बताए गए दूसरे चौथे तथा पाँचवें प्रकार के सामान्यीकरण वास्तव में सैद्धान्तिक सामान्यीकरण नहीं हैं । अतः टी ० बी ० बॉटोमोर ने उचित ही कहा है कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को स्थापित आनुभविक सहसम्बन्धों से विस्तृत सामान्यीकरणों के निर्माण की ओर उन्मुख होना चाहिए । इस प्रकार के प्रयासों द्वारा समाजशास्त्र संचयी सैद्धान्तिक निर्माण के अधिक नजदीक आ जाएगा जो अन्य विज्ञानों की विशेषता है

किसी भी सिद्धान्त निर्माण के लिए हमें उसका एक प्रारूप तैयार करना पड़ता है । यह प्रारूप ही मॉडल कहलाता है । इस मॉडल को मर्टन ने पैराडिम ( Paradigm ) की संज्ञा दी है । पैराडिम किसी भी सिद्धान्त का अन्तर्निहित आधार होता है । प्रत्येक पैराडिम में कुछ अवधारणाएँ सम्मिलित होती हैं । पैराडिम का परीक्षण केवल अप्रत्यक्ष रूप में ही किया जा सकता है । पैराडिम को उपयोगी व्याख्या मैक्स वेबर का आदर्श प्रारूप ( Ideal Design ) एवं टॉलकट पारसन्स का ‘ प्रतिमान चर ‘ ( Pattern Variable ) भी पैराडिम अथवा मॉडल का एक उदाहरण है । किन्तु इस क्षेत्र में अमेरिकन समाजशास्त्री तथा पारसन्स के शिष्य एवं सहयोगी रॉबर्ट के . मर्टन का नाम उल्लेखनीय है । यद्यपि मर्टन ने अनेक महत्त्वपूर्ण समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है तथापि प्रकार्यवादी अवधारणा राबर्ट मर्टन का महत्त्वपूर्ण योगदान है । मर्टन ने प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए एक मॉडल तैयार किया है । मर्टन का मानना है कि विश्व के किसी भी समाज का प्रकार्यवादी अध्ययन उनके इस पैराडिम के आधार पर किया जा सकता है ।

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( 1 ) जोनाथन टर्नर का मानना है कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों में अमूर्तीकरण की भावना पायी जाती है अर्थात् एक क्षेत्र विशेष का अध्ययन करके उससे प्राप्त निष्कर्षों को सम्बन्धित सम्पूर्ण समाज पर लागू किया जाता है ।

 ( 2 ) टर्नर के ही अनुसार समाजशास्त्रीय सिद्धान्त आनुभविक स्तर पर गलत सिद्ध किए जा सकते हैं , तभी वे समाजशास्त्रीय सिद्धान्त हैं । कुछ सिद्धान्तकारों का मानना है कि जब कोई सिद्धान्त आनुभविक परीक्षण में सही नहीं पाया जाता है तब हम अपने शोध को एक नई दिशा देते हैं जिससे कि एक सही सिद्धान्त का निर्माण हो सके ।

( 3 ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त का निर्माण अवधारणाओं के आधार पर किया जाता है । अवधारणाएँ अमूर्त एवं स्पष्ट होती हैं ।

 ( 4 ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त सम्बन्धित सामाजिक घटना का पूर्ण परिचय प्रदान करने में सक्षम होते हैं ।

( 5 ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त कार्य – कारण के सम्बन्ध की व्याख्या करते हैं । उदाहरण के लिए , ” संतोषजनक आवासीय स्थिति श्रमिकों की कार्यकुशलता में वृद्धि करती है । ” – एक समाजशास्त्रीय सिद्धान्त है क्योंकि इसका निर्माण एक सामाजिक घटना के  अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर किया है । यहाँ कार्यकुशलता एक कार्य के रूप में है जबकि इस कार्य का कारण है – आवासीय स्थिति का संतोषजनक होना । इस प्रकार सिद्धान्त कार्य कारण सम्बन्ध की व्याख्या करता है ।

( 6 ) अल्प अवधि होना समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की प्रमुख विशेषता है अर्थात् देश , काल एवं परिस्थिति में परिवर्तन के साथ ही सिद्धान्त भी अर्थहीन हो जाता है ।

 ( 7 ) प्राप्त तथ्यों एवं उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का परीक्षण सम्भव है ।

 ( 8 ) यद्यपि सिद्धान्त का निर्माण प्राप्त तथ्यों के आधार पर होता है तथा तथ्य संख्यात्मक ( Quantitive ) होते हैं । किन्तु संख्याओं का कार्य बोलना नहीं है । इन संख्याओं के आधार पर एक शाब्दिक निष्कर्ष तैयार किया जाता है जो तथ्यों के गुणों को प्रस्तुत करता है । इस अर्थ में समाजशास्त्रीय सिद्धान्त गुणात्मक ( Qualitative ) होते हैं ।

( 9 ) यद्यपि समाजशास्त्रीय सिद्धान्त वैज्ञानिक , अमूर्त एवं यथार्थ होते हैं , तथापि इनमें कहीं न कहीं अव्यवहारिकता भी पायी जाती है । समाजशास्त्र प्राकृतिक विज्ञान नहीं है । प्राकृतिक विज्ञानों के सिद्धान्त अनिवार्य रूप से व्यवहारिक होते हैं । समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का सम्बन्ध मानव से होता है । मनुष्य में आवेग , संवेदना , उत्तेजना एवं भावनाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है । ये सभी तत्त्व तार्किक नहीं हैं इसलिए यह माना जाना चाहिए कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्त अतार्किक अथवा अव्यवहारिक भी हो सकते हैं ।

 ( 10 ) यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक समाजशास्त्रीय सिद्धान्त व्यवहारिक दृष्टि से उपयोगी होगा । कुछ सिद्धान्तों का निर्माण विषय – विस्तार के लिए भी किया जाता है ।

 ( 11 ) सिद्धान्तों के माध्यम से भविष्यवाणी करना सम्भव है । उदाहरण के लिए , ‘ मशीनीकरण ने मानव शक्ति के उपयोग को अत्यन्त कम कर दिया है । सिद्धान्त के आधार पर यह भविष्यवाणी की जा सकती है कि आने वाले समय में औद्योगिक श्रमिकों की संख्या नगण्य रह जाएगी ।

 ( 12 ) सभी समाजशास्त्रीय सिद्धान्त सार्वभौमिक ( Universal ) नहीं होते हैं । अतः प्रत्येक सिद्धान्त को प्रत्येक समाज पर लागू नहीं किया जा सकता । उदाहरणार्थ , पाश्चात्य संस्कृति से सम्बन्धित समाजशास्त्रीय सिद्धान्त को भारतीय समाज पर लागू नहीं किया जा सकता ।

 ( 13 ) सामाजिक शोध ( Social Research ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त निर्माण का महत्त्वपूर्ण आधार होता है । शोध से प्राप्त तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं । यही निष्कर्ष सिद्धान्त का आधार बनते हैं । विभिन्न विद्वानों ने भी सिद्धान्त एवं शोध के परस्पर अन्तर्सम्बन्ध को स्वीकार किया है ।

 ( 14 ) कभी – कभी तथ्यों के अभाव में भी सिद्धान्त निर्माण सम्भव है ।

 ( 15 ) एक सिद्धान्त का निर्माण अनेक अवधारणाओं के द्वारा होता है । ये अवधारणाएँ तार्किक रूप से ( Logically ) एक दूसरे से जुड़ी होती हैं ।

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समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का निर्माण:

समाजशास्त्र में सिद्धान्तों के निर्माण के प्रयास कब प्रारम्भ हुए यह एक वाद – विवाद का विषय है । समाजशास्त्रीय चिन्तन ( सामाजिक पहलुओं के बारे में सोच – विचार ) के रूप में समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि स्वयं उसकी सभ्यता का ।

 कोजर एवं रोजनबर्ग ( Coser and Rosenberg ) का कहना है कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्त उतने ही प्राचीन हैं जितनी कि स्वयं मानव सभ्यता , क्योंकि अत्यन्त प्राचीनकाल में भी दार्शनिकों ने सभ्यता एवं साहित्य का विकास करने के लिए विधिवत रूप से विचारों को प्रस्तुत किया ।

 प्लेटो , अरस्तू , रूसो . लोक इत्यादि विद्वानों के विचारों का उल्लेख सिद्धान्तों के सन्दर्भ में ही किया जाता है । परन्तु यदि हम समाजशास्त्र विषय के एक संस्थागत विषय के रूप में इतिहास पर दृष्टि डालें तो उपर्युक्त विचारधारा उचित प्रतीत नहीं होती है । इस सन्दर्भ में बॉटोमोर के विचार ही उचित प्रतीत होते हैं कि जय आज तक सार्वभौमिक सिद्धान्तों का निर्माण नहीं हो पाया है , तो प्रारम्भिक दार्शनिकों के विचार सिद्धान्त हैं , यह कहना उचित नहीं होगा । इन विचारों में सिद्धान्तों का कोई गुण नहीं पाया जाता । परन्तु इन विचारों से बाद में सिद्धान्त निर्माण के प्रयासों की एक सुदृढ आधारशिला जरूर विकसित हुई ।

थियोडोर एबल ( Theodore Abel ) के अनुसार समाजशास्त्रीय सिद्धान्त की आधारशिला 1895 ई ० से 1920 ई ० की अवधि में रखी गई जबकि दुर्थीम ( Durkheim ) , सिमेल ( Simmel ) , कूले ( Cooley )

तथा वेबर ( weber ) जैसे विद्वानों ने सामाजिक घटनाओं के अध्ययन के लिए एक नवीन दृष्टिकोण विकसित किया ।

मोरिस जिन्सबर्ग ( Morris Ginsberg ) के अनुसार समाजशास्त्र में छह प्रकार के सामान्यीकरण मुख्यतः पाए जाते हैं ।

 ये हैं

 ( 1 ) मूर्त सामाजिक घटनाओं के मध्य आनुभविक सहसम्बन्ध ( उदाहरणार्थ नगरीय जीवन एवं तलाक की दर ) ,

( 2 ) जिन दशाओं में सामाजिक संस्थाओं का विकास होता है , उनका निरूपण करने वाले सामान्यीकरण ( यथा पूँजीवाद की उत्पत्ति के विभिन्न कारण ) ,

 ( 3 ) वे सामान्यीकरण , जिसका यह दृढ़ कथन है कि निर्दिष्ट संस्थाओं में परिवर्तनों का दूसरी संस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों से नियमित सम्बन्ध हैं ( यथा मार्क्स के सिद्धान्तों में वर्ग संरचना में परिवर्तन तथा अन्य सामाजिक परिवर्तनों के मध्य सम्बन्ध ) ,

( 4 ) विभिन्न प्रकार के तालबद्ध पुनः आवर्तनों अथवा अवस्था क्रमों को महत्त्व देने वाले सामान्यीकरण ( यथा आर्थिक विकास की अवस्थाओं को भिन्न करने के प्रयास ) .

 ( 5 ) सम्पूर्ण मानवता के विकास में मुख्य प्रवृत्तियों का वर्णन करने वाले सामान्यीकरण ( यथा विभिन्न विद्वानों के सामाजिक विकास के सिद्धान्त ) तथा

 ( 6 ) मानव व्यवहार सम्बन्धी मान्यताओं में निहितार्थों का कथन करने वाले नियम ( यथा आर्थिक सिद्धान्त में कुछ नियम ) ।

 प्रारम्भ से ही समाजशास्त्रियों द्वारा अध्ययन निम्न दो प्रमुख बिन्दुओं पर केन्द्रित रहे हैं

 ( 1 ) समग्र के रूप में समाजों के अध्ययन में रुचि ( समन्वयात्मक दृष्टिकोण ) तथा

( 2 ) अस्तित्व के लिए संघर्षरत समाज के अध्ययन में रुचि ( निदानात्मक दृष्टिकोण ) । प्रथम दृष्टिकोण द्वारा समाज को समग्र के रूप में , जिसमें वहाँ रहने वाले व्यक्तियों का सम्पूर्ण जीवन सम्मिलित है , समझने के प्रयास शुरू हुए . तथा संगठन एवं संस्थाओं के परस्पर सम्बन्धों के सामान्य लक्षणों की खोज शुरू हुई । इससे समाजों में तुलनात्मक एवं उद्विकासवादी अध्ययन भी शुरू हुए ।

 इसी रुचि के कारण ऑगस्त कॉम्ट ( Auguste Comte ) द्वारा समाजशास्त्र की परिभाषा ‘ सामाजिक व्यवस्था एवं सामाजिक प्रगति ‘ ( Social order and Progress ) के रूप में तथा फ्रेंज ओपनहीमर ( Franz Oppenheimer ) द्वारा ” सामाजिक क्रियाओं ” के अध्ययन के रूप में दी गई । अतः समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के निर्माण का प्रथम प्रयास सामाजिक जीवन को समझना व बौद्धिक व्यवस्था ( Rational order ) की खोज करना रहा है तथा समाज की उत्पत्ति , इसकी निरन्तरता तथा मानवीय समाज की मंजिल से सम्बन्धित सामान्य नियमों का निर्माण करना रहा है । उन्नीसवीं शताब्दी में , द्वितीय दृष्टिकोण द्वारा अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे समाज को समझने का प्रयास किया गया तथा इसके लिए सामूहिक व्यवहार को प्रभावित करने वाली समस्याओं को निदानात्मक ( Clinical ) दृष्टिकोण द्वारा समझने का प्रयास किया गया ।

इसमें अन्वेषणों के केन्द्रबिन्दु सामाजिक कल्याण को प्रभावित करने वाले पर्यावरण के पक्षों तक ही सीमित थे तथा व्यक्तियों के कल्याण में वृद्धि के लिए उपाय खोजना इन अन्वेषणों एवं अध्ययनों का मुख्य उद्देश्य था । इसी दृष्टिकोण के विकास के कारण समाजशास्त्र के अनेक उपक्षेत्रों ( यथा परिवार , अपराध , बाल अपराध , नगरीय जीवन आदि ) के विधिवत् अध्ययन प्रारम्भ हुए । समाजशास्त्र के जन्मदाताओं ने समाजशास्त्र को एक शास्त्रीय विषय ( Academic subject ) के रूप में विकसित किया तथा कॉम्ट ( Comte ) , वार्ड ( Ward ) स्पेन्सर ( Spencer ) एवं स्माल ( Small ) जैसे प्रारम्भिक विद्वानों का यह मत था कि उनके समाजशास्त्रीय अध्ययन समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के प्रति योगदान ही हैं । परन्तु आने वाली पीढ़ियों ने इन अध्ययनों को चुनौती देनी शुरू कर दी तथा इनके सामान्यीकरण एवं वैज्ञानिक प्रमाणीकरण को सन्देह की दृष्टि से देखने लगे । बाद में , इन विद्वानों का यह मत था कि नवीन विषय का निर्माण करने के लिए केवल समन्वयात्मक एवं निदानात्मक अध्ययन ही पर्याप्त नहीं हैं यद्यपि इनसे नवीन अन्तर्दृष्टि एवं ज्ञान प्राप्त होता है , फिर भी यह अध्ययन सिद्धान्त के व्यवस्थित ढाँचे का निर्माण करने में सहायक नहीं हैं । अतः एक नवीन उपागम को विकसित किया गया जिसे ‘ विश्लेषणात्मक उपागम ‘ कहा जाता है तथा जो सिद्धान्त के निर्माण के अन्य दोनों दृष्टिकोणों से कहीं अधिक उपयोगी है ।

 उपर्युक्त विदेचना से स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के निर्माण में तीन उपागमों का विकास एक प्रमुख घटना मानी जा सकती है । ये उपागम निम्न प्रकार हैं

( 1 ) समन्वयात्मक उपागम ( Synthetic ) ,

( 2 ) निदानात्मक उपागम ( Clinical ) तथा

( 3 ) विश्लेषणात्मक उपागम ( Analytical approach ) | दुर्थीम ( Durkheim ) , रैडक्लिफ – बाउन ( Radcliffe – Brown ) तथा अनेक अन्य समाजशास्त्रियों का यह कथन है कि सहज रूप से ही यह स्वीकार कर लिया गया है कि सामाजिक विज्ञान सामान्यीकरण करने वाले विज्ञान हैं , जिनका उद्देश्य प्राकृतिक विज्ञानों की तरह सैद्धान्तिक व्यवस्था की स्थापना करना है ;

यद्यपि वे अभी भी विकास की निम्न अवस्था में हैं । परन्तु डिल्थे ( Dilthey ) तथा अनेक अन्य विद्वान प्रथम विचारधारा के विपरीत , यह तर्क देते हैं कि सामाजिक विज्ञानों की प्रकृति ही ऐसी है कि इनमें प्राकृतिक विज्ञानों की तरह नियम नहीं बनाए जा सकते । सामाजिक विज्ञानों के वैज्ञानिक स्वभाव के प्रति एक सबल तर्क यह दिया जाता है कि उन्होंने प्राकृतिक विज्ञानों से मिलती जुलती कोई चीज पैदा नहीं की है । सामाजिक विज्ञानों की प्रकृति के कारण ही समाजशास्त्रीय सिद्धान्त आज भी अपने उच्चतर स्तर तक नहीं पहुँच पाए हैं तथा अभी तक अपने आनुभविक सामान्यीकरण के स्तर पर ही हैं । इनके निर्माण में अनेक प्रकार की बाधाएँ हैं जिनमें सामाजिक घटनाओं की प्रकृति सबसे प्रमुख बाधा है ।

इसके निर्माण में आने वाली प्रमुख बाधाएँ निम्नवर्णित हैं

 ( 1 ) वर्णनात्मक प्रकृति अभी तक अनेक समाजशास्त्रीय अन्वेषणों एवं अध्ययनों की प्रकृति वर्णनात्मक है अर्थात इनका उद्देश्य किसी नियम की खोज न करके केवल घटना का वर्णन मात्र करना है । इन वर्णनात्मक अध्ययनों के आधार पर समाजशास्त्रीय सिद्धान्त का निर्माण नहीं किया जा सकता है ।

( 2 ) उत्पत्ति एवं विकास सम्बन्धी अध्ययनों में अप्रमाणित तथ्यों का प्रयोग – समाजशास्त्र एक ऐतिहासिक विषय है क्योंकि इसमें सामाजिक घटनाओं एवं संस्थाओं की उत्पत्ति एवं विकास का अध्ययन किया जाता है । इन उत्पत्ति व विकास सम्बन्धी अध्ययनों के लिए समाजशास्त्रियों को भूतकालीन तथ्यों पर आधारित होना पड़ता है । भूतकालीन या ऐतिहासिक तथ्यों की प्रामाणिकता की जाँच करना कठिन है तथा यदि उपयुक्त प्रमाण व सूत्र नहीं मिल पाते हैं तो ऐतिहासिक पुर्निनर्माण ( Historical reconstruction ) अर्थात् काल्पनिक तथ्यों का सहारा लिया जाता है । इस प्रकार के तथ्यों पर आधारित अध्ययन कभी भी समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के निर्माण में सहायक नहीं हो सकते हैं ।

 ( 3 ) सार्वभौमिक सिद्धान्तों का अमाव – समाजशास्त्रीय वर्गीकरण के क्षेत्र में भी अभी तक कोई सर्वमान्य एवं व्यापक सिद्धान्त नहीं बनाए जा सके हैं क्योंकि अवधारणाओं का प्रयोग स्पष्ट शब्दों में नहीं किया गया है और न ही अवधारणा के वर्णन व व्याख्याएँ एक – दूसरे से सुदृढ़ता से सम्बद्ध की गई हैं ।

 ( 4 ) व्याख्यात्मक सिद्धान्तों का निर्माण कठिन समाजशास्त्रीय घटनाओं , व्यवहार व धारणाओं की जटिलता के कारण , इनके बारे में कार्य – कारण सम्बन्धों की खोज करना तथा व्याख्यात्मक सिद्धान्त बनाना एक कठिन कार्य है ।

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