सभ्यता

 

सभ्यता

 ( Civilization )

 

सामान्यतः ” सभ्यता शब्द का प्रयोग लोग संस्कृति के अर्थ में करते हैं अर्थात आम – बोल – चाल में इन दोनों को । एक ही अर्थ में समझते हैं । सभ्यता के अन्तर्गत हम उन भौतिक वस्तुओं को सम्मिलित करते हैं , जिनके माध्यम से हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । उदाहरण के लिए मकान , मेज , कलम जिसे देख सकते हैं तथा छू सकते हैं । इसे भौतिक संस्कृति भी कहा जाता है । हड़प्पा सभ्याता को सभ्यता क्यों कहते है ?

 

सभ्यता के अंग्रेजी शब्द Civilization ” की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Civitas और Civis ‘ से हई है , जिसका अर्थ शहरी एवं नगरी समूह होता है । ऐसे समूह शिक्षित , व्यवहार – कुशल एवं सम्यता के सूचक होते हैं । सभ्य समाज के लोगों का व्यवहार जटिल होता है , उनकी भाषा विकसित होती है तथा अनके कार्यों में विभेदीकरण एवं विशेषीकरण पाया जाता है । अनेक विद्वानों ने सभ्यता की परिभाषा दी है । कुछ समाजाशास्त्रियों द्वारा दी गई परिभाषाओं का उल्लेख किया जा रहा है ।

 

ऑगबर्न एवं निमकॉफ ने सभ्यता की परिभाषा देते हुए कहा कि सभ्यता को अधि – सावयवी संस्कृति के बाद की अवस्था कहा ।

 

 ग्रीन के अनुसार ” संस्कृति तब सभ्यता बनती है , जब उसके पास लिखित भाषा , विज्ञान , दर्शन , अत्यधिक विशेषीकरण वाला श्रम विभाजन , जटिल प्रविधि तथा राजनैतिक व्यवस्था हो ।

‘ मैकाइवर एवं पेज ने सभ्यता को अलग ढग से परिभाषित किया है । सभ्यता से हमारा तात्पर्य उस सम्पूर्ण प्रविधि और संगठन से है जिसे मानव ने अपने जीवन की दशाओं को नियन्त्रण करने के प्रयास में बनाया है । ‘ मैकाइवर ने अपनी परिभाषा में सामाजिक संगठन के साथल – साथ भौतिक उपकरणों को भी शामिल किया है जो मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । उदाहरणस्वरूप टाइपराइटर , टेलीफोन , प्रेस , मोटर आदि हैं , जो मानव के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए साधन के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं ।

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 सम्यता की विशेषताएं

 

 संस्कृति की तरह सभ्यता की भी कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं ,

1भातिक स्वरूप – सभ्यता के अन्तर्गत भौतिक वस्तुओं का समावेश होता है । भौतिक पक्ष के दृष्टिकोण से सभ्यता मूर्त होती है । अर्थात हमस म्यता को देख एवं छ सकते हैं । इन भौतिक वस्तुओं का निर्माण भी मानव द्वारा ही होता है । जैसे – टेबन , कुर्सी आदि । .

 

2 उपयोगिता सभ्यता के अन्तर्गत सभी भौतिक वस्तओं को सम्मिलित नहीं किया जाता । इसमें वे सारी चीज साम्मलित होती हैं जो उपयोगिता के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होती हैं । तिन वस्तुओं की उपयोगिता समाप्त हो जाती है , उन्हें लोग त्याग देते हैं । अर्थात सभ्यता मानव को आनन्द और सन्तुष्टि प्रदान करती है ।

 

  1. सभ्यता साधन है . . . सभ्यता उस अ साधनयोकि इसके अन्तर्गत उन वस्तओं का सम्मिलित किया जाता ह . जिनकद्वारा मनुष्य अपने उददेश्यों की पर्ति करता है । यह वैसी उपयोगह वस्तु होती है जिसके द्वारा मनुष्य अपने उद्देश्यों की पूर्ति करता है । जैसे गाड़ी से हम एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से गमन करत है ।

 

4 पारवतनशीलता – सभ्यता में परिवर्तन बहत ही तीव्र गति से होता है , मनुष्य की आवश्यकताओं एवं रूचियों में पारवलन के साथ – साथ उनके पति के साधन भी बदल जाते हैं । यही कारण है कि सभ्यता में हमेशा परिवर्तन होता रहता है ।

 

5 निश्चित दिशा – सभ्यता का विकास एक निश्चित दिशा की ओर होता है । इसका विकास हमेशा ऊपर की ओर होता है । सभ्यता के विकास की गति कभी भी पीछे की ओर नहीं मुडती । सभ्यता में निरन्तर प्रगति होती रहती है ।

 

 6 . मापन सम्भव – सभ्यता के अन्तर्गत आने वाली वस्तुओं की माप करना सम्भव होता है ।

  1. ग्रहणशीलता – सभ्यता में ग्रहणशीलता का गुण पाया जाता है । अर्थात् कोई भी व्यक्ति सभ्यता को ग्रहण कर सकता है और उससे लाभ उठा सकता है । एक वस्तु का निर्माण या आविष्कार चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हो , लेकिन उसे हर क्षेत्र में लोग आसानी से ग्रहण कर सकते हैं तथा उससे लाभ उठा सकते हैं ।

 

  1. वैकल्पिकता – सभ्यता के अन्तर्गत जितनी वस्तुएं आती हैं उन्हें अपनाना अनिवार्य नहीं होता । यह व्यक्ति की इच्छा एवं रूचि पर निर्भर करता है कि वह उस वस्तु को अपनायेगा अथवा नहीं । उदाहरण के लिए , कोई व्यक्ति यात्रा मोटरगाडी , रेलगाड़ी , बस अथवा पैदल भी कर सकता है । यह व्यक्ति विशेष की इच्छा पर निर्भर है । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि सभ्यता बाध्यतामूलक न होकर वैकल्पिक होती है ।

 

सभ्यता और संस्कृति में अन्तर

 

 

 सभ्यता और संस्कृति शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में प्रायः लोग करते हैं , किन्तु सभ्यता और संस्कृति में अन्तर है । सभ्यता साधन है जबकि संस्कृति साध्य । सभ्यता और संस्कृति में कुछ सामान्य बातें भी पाई जाती हैं । सभ्यता और संस्कृति में सम्बन्ध पाया जाता हैं । सभ्यता संस्कृति के लिए प्यावरण तैयार करता है और संस्कृति का प्रचार भी सभ्यता के द्वारा ही होता है । संस्कृति सभ्यता को दिशा प्रदान करती है । सभ्यता के द्वारा ही संस्कृति एक समाज से दूसरे समाज में तथा एक पीढी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती रहती है । सभ्यता और संस्कृति दोनों एक – दूसरे से प्रभावित होती हैं तथा एक – दूसरे को प्रभावित करती भी हैं । मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दोनों का निर्माण तथा विकास हुआ । इनमें इतना अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध हाता है कि इन्हें एक – दूसरे से पृथक करना कठिन कार्य है । इसके बावजूद सभ्यता और संस्कृति में अन्तर होता है । मैकाइवर एवं पेज ने सभ्यता और संस्कृति में अन्तर किया है । इनके द्वारा दिये गये अन्तर इस प्रकार हैं

 

1 . सभ्यता की माप सम्भव है , लेकिन संस्कृति की नहीं – सभ्यता को मापा जा सकता है । चूंकि इसका सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं की उपयोगिता से होता है इसलिए उपयोगिता के आधार पर इसे अच्छा – बुरा , ऊँचा – नीचा , उपयोगी अनुपयोगी बलाया जा सकता है । संस्कृति के साथ ऐसी बाता नहीं है । संस्कृति की माप सम्भव नहीं है । इसे तुलनात्मक रूप से अच्छा – बुरा , ऊँचा – नीचा , उपयोगी अनुपयोगी नहीं बताया जा सकता है । हर समूह के लोग अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताते हैं । हर संस्कृति समाज के काल एवं परिस्थितियों की उपज होती है । इसलिए इसके मूल्यांकन का प्रश्न नहीं उठता । उदाहरण स्वरूप हम नई प्रविधियों को देखे । आज जो वर्तमान है और वह परानी चीजों से उत्तम है तथा आने वाले समय में उससे भी उन्नत प्रविधि हमारे सामने मौजूद होगी । इस प्रकार की तुजना हम संस्कृति के साथ नहीं कर सकते । दो स्थानों और दो युगों की संस्कृति को एक – दूसरे से श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता । बताते हैं । हर संस्कृति , उपयोगी अनुपयोगी नहीं बताहीं है । संस्कृति की माप सम्बया

 

 2 . सम्यता सदैव आगे बढ़ती है , लेकिन संस्कृति नहीं – सम्यता में निरन्तर प्रगति होती रहती है । यह कभी भी पीछे की ओर नहीं जाती । मैकाइवर ने बताया कि सभ्यता सिर्फ आगे की ओर नहीं बढ़ती बल्कि इसकी प्रगति एक ही दिशा में होती है । आज हर समय नयी नयी खोज एवं आविष्कार होते रहते हैं जिसके कारण हमें पुरानी चीजों की तुजना में उन्नत चीजें उपलब्ध होती रहती हैं । फलस्वरूप सभ्यता में प्रगती होती रहती है । सभ्यता में प्रगति होती रहती है । सभ्यता का हर पहला कदम , हर नया आविष्कार , हर नयी खोज , हर नयी वस्तु पिछले कदम , पिछले आविष्कार , पिछजी खोज , पिछली वस्तु की अपेक्षा अच्छी होती है । किन्तु यह संस्कृति के साथ सम्भव नहीं है । यह कभी भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि पहले के कवि , उपन्यासकार , नाटककार , इत्यादि की अपेक्षा आज बाल ज्य जा परिवर्तन होता है । उसकी दिशा भी निश्चित नहीं होती । उपन्यासकार , नाटककार , इत्यादि की अपेक्षा आज वाल ज्यादा बेहतर हैं । संस्कृति में

 

3 . सभ्यता बिना प्रयास के आगे बढ़ती है , संस्कति नहीं – सभ्यता के विकास एवं प्रगति के लिए विशष प्रयल का सानहाहाता , यह बहुत ही सरलता एवं सजगता से आगे बढ़ती जाती है । जब किसी भी नई वस्तु का हाता तब उस वस्तु का प्रयोग सभी लोग करते हैं । यह जरूरी नहीं है कि हमउसक सम्बन्ध में पूरी पान रखया उसक आविष्कार में पूरा योगदान दें । अर्थात इसके बिना भी इनका उपभोग किया जा सकता है । मानक वसतुआ का उपयोग बिना मनोवृत्ति , रूचियों और विचारों में परिवर्तन के किया जाता है , किन्तु संस्कृति के साथ एता बारा नहा हा सस्कृति के प्रसार के लिए मानसिकता में भी परिवर्तन की आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिए , वाक्त धम परिवर्तन करना चाहता है , तो उसके लिए उसे मानसिक रूप से तैयार होना पड़ता है , नेकिन परतफ उपयाग के लिए विशेष सोचने की आवश्यकता नहीं होती । सभ्यता को उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त किया जा सकता है , किन्तु संस्कृति को नहीं । इस प्रकर यह स्पष्ट होता है कि सभ्यता का स्थानान्तारण सस्कृति का । तुलना में सरल है ।

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4 . सभ्यता बिना किसी परिवर्तन या हानि के ग्रहण की जा सकती है , किन्तु संस्कृति को नहीं – सभ्यता के तत्वों या वस्तुओं को ज्यों – का – त्यों अपनाया जा सकता है । उसमें किसी तरह की परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ती । इस एक वस्तु का जब आविष्कार होता है , तो उसे विभिन्न स्थानों के लोग ग्रहण करते हैं । भौतिक वस्तु में बिना किसी परिवर्तन लाये ही एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाया जा सकता है । उदाहरण के लिए , तब ट्रैक्टर का आविष्कार हुआ तो हर गाँव में उस ले जाया गया । इसके लिए उसमें किसी तरह के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ी । किन्तु संस्कृति के साथ ऐसी बात नहीं है । संस्कृति के तत्वों को जब एक स्थान से दूसरे स्थान में ग्रहण किया जाता है तो उसमें थोड़ा बहुत परिवर्तन हो जाता है । उसके कुछ गुण गौण हो जाते हैं , तो कुछ गुण जुड़ जाते हैं । यही कारण है कि धर्म परिवर्तन करने के बाद भी लोग उपने पुराने विश्वासों , विचारों एवं मनोवृत्तियों में विल्कुल परिवर्तन नहीं ला पाते । पहले वाले धर्म का कुछ – न – कुछ प्रभाव रह जाता है । करने के बाद भी है । उसके कुछ गुण गाव एक स्थान से दूसरे स्था

 

5 . सभ्यता बाह्य है , जबकि संस्कृति आन्तरिक – सभ्यता के अन्तर्गत भौतिक वस्तुऐं आती हैं । भौतिक वस्तुओं का सम्बन्ध बाह्य जीवन से , बाहरी सुख – सुविधाओं से होता है । उदाहरण के लिए , बिजली – पंखा , टेलीविजन , मोटरगाडी , इत्यादि । इन सारी चीजों से लोगों को बाहरी सुख – सुविधा प्राप्त होती है । किन्तु संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति के आनतरिक जीवन से होता है । जैसे – ज्ञान , विश्वास , धर्म , कला इत्यादि । इन सारी चीजों से व्यकित को मानसिक रूप से सन्तुष्टि प्राप्त होती है , इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सभ्यता बाह्य है , लेकिन संस्कृति आन्तरिक जीवन से सम्बन्धित होती है । अर्थात सभ्यता से सिर्फ दैहिक सुख मिलता है , जबकि संस्कृति से मानसिक ।

 

 6 . सम्यता मूर्त होती है , जबकि संस्कृति अमूर्त – सभ्यता का सम्बन्ध भौतिक चीजों से होता है । भौतिक वस्तुएँ मूर्त होती हैं । इन्हें देखा व स्पर्श किया जा सकता है । इससे प्रायः सभी व्यक्ति समान रूप से लाभ उठा सकते हैं , किन्तु संस्कृति का सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं से न होकर अभौतिक चीजो से होता है । इन्हें अनुभव किया जा सकता है , किन्तु इन्हें देखा एवं स्पर्श नहीं किया जा सकता । इस अर्थ में संस्कृति अमूर्त होती है । सभ्यता का तात्पर्य संस्कृति के भौतिक पक्ष से है । इस अर्थ में सभ्यता मूर्त है । जैसे – – कुर्सी , मकान , पंखा , इत्यादि । संस्कृति का अमूर्त पक्ष अभौतिक संस्कृति कहलाता है । जैसे – ज्ञान , विश्वास , कला इत्यादि ।

 

7 . सभ्यता साधन है जबकि संस्कृति साध्य – सभ्यता एक साधन है जिसके द्वारा हम अपने लक्ष्यों व उद्देश्यों तक पहुंचते हैं । संस्कृति अपने आप में एक साध्य है । धर्म , कला , साहित्य नैतिकता इत्यादि संस्कृति के तत्व हैं । इन्हें प्राप्त करने के लिए भौतिक वस्तुएं जैसे – धार्मिक पुस्तकें , चित्रकला , संगीत , नृत्य – बाद्य इत्यादि की आवश्यकता पड़ती है । इस प्रकार सभ्यता साधन है और संस्कृति साध्य ।

 

संस्कृति एवं व्यक्तित्व

 

 संस्कृति एवं व्यक्तित्व में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । संस्कति व्यक्तित्व को एक निश्चित व निर्माध में जिन कारकों का योगदान माना जाता है । उनमें संस्कृति का स्थान प्रमुख सम्बन्ध हाता है । संस्कृति व्यक्तित्व को एक निश्चित दिशा प्रदान करती है । व्यक्तित्व के पागवान माना जाता है । उनमें संस्कृति का स्थान प्रमुख है । व्यक्तित्व के विकास में संस्कृति बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । इन दोनों के सम्बन्धी को जानने के लिए यह अदा करता है । इन दोनों के सम्बन्धों को जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि सस्कृति एवं व्यक्तित्व क्या है ? संस्कृति क्या है , इसकी चर्चा पहले की जा चुकी है । अतः यहाउस क्या है , इसकी चर्चा पहले की जा चुकी है । अतः यहाँ उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है । व्यक्तित्व क्या है इसकी चर्चा नीचे की जा रही है

 

 

व्यक्तित्व

 

 

साधारण बोल – चाल की भाषा में लोग व्यक्तित्व का मतलब बाहरी रंग – रूप तथा वेश – भूषा रागझतहकर सहाव्याक्तत्व मनुष्य का सिर्फ बाहरी गण नहीं जो उसकी शारीरिक रचना से स्पष्ट होता है । पहले व्यक्तित्व अध्ययनासफ मनोविज्ञान में होता था , किन्तु अब मानव शास्त्र में भी यह चर्चा का विषय बन गया है । मानव शास्त्र कक्षत्रम अनक महत्वपूर्ण अध्ययन हुए हैं , जो वयक्तित्व के निर्माण में संस्कृति की भूमिका को महत्वपूर्ण दशति है । व्याक्तत्व शब्द अंग्रेजी के ‘ Personality ‘ का हिन्दी रूपान्तरण है , जो लैटिन के ‘ Persona ‘ शब्द से बना है । इसका अर्थ आकृति तथा नकाब होता है । नाटक आदि में लोग नकाब पहनकर विशेष भूमिका अदा करते है । भूमिका बदलन पर नकाब भी बदल लेते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि भिन्न – भिन्न भूमिकाओं के लिए भिन्न – भिन्न प्रकार के नकाब होते हैं । जिस प्रकार की भूमिका अदा करनी होती है , उसी प्रकार के नकाब पहने जाते हैं । यहाँ यह स्पश्ट करना आवश्यक है कि व्यक्तित्व का अर्थ सिर्फ चेहरा , रंग , कद तथा पोशाक नहीं है । इसके अनतर्गत शारीरिक , मनोवैज्ञानिक , सामाजिक तथा सांस्कृतिक पहलओं का समावेश होता है । विभिन्न विद्वानों ने व्यक्तित्व की परिभाषा अपने – अपने ढंग से दी है , आलपोर्ट के अनुसार – ‘ व्यक्तित्व , व्यक्ति के मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है जो उसका पर्यावरण के साथ अनोखा सामंजस्य निर्धारित करता है । उन्होंने अपनी परिभाषा के द्वारा यह स्पष्ट करना चाहा है कि व्यक्तित्व किसी व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक गुणों का परिवर्तनशील योग है , जो र्यावरण के साथ उसके अनुकूलन को निर्धारित करता है । इसी के कारण व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में अलग – अलग ढंग से व्यवहार करता है । पार्क एवं बर्गेस के अनुसार , – ” व्यक्तित्व एक व्यक्ति के व्यवहारों के उन पक्षों का योग है जो समुह में व्यक्ति की भूमिका निर्धारित करता है आलपोर्ट की तरह ही पार्क एवं बर्गेस ने भी व्यक्तिव्य को विभिन्न गुणों का योग बताया है । इन्हीं गुणों के द्वारा समूह में व्यक्तित्व के व्यवहार और भूमिका निर्धारित होते हैं । एडवर्ड सापिर ने लिखा है – * व्यक्तित्व एक व्यक्ति के व्यसहारों के उन पक्षों का योग है जो समाज में उसे अर्थ प्रदान करते हैं तथा समुदाय में अन्य सदस्यों से पृथक करते हैं । मैरिल एवं एल्डूिज के अनुसार – ” व्यक्तित्व प्रत्येक वयक्ति से सम्बिन्धित जन्मजात और अर्जित गुणों का समूह है । इन्होंने व्यक्तित्व को जन्मजात एवं अर्जित गणों का योग बताया है । उपर्युक्त विद्वानों के विचारों से स्पष्ट होता है कि वयक्तित्व के निर्माण में शारीरिक , मनोवैज्ञानिक , सामाजिक , सांस्कृतिक पक्षों का योगदान होता है । यही कारण है कि व्यक्ति एक समान संस्कृति का योगदान होता है । यही कारण है कि व्यक्ति एक समान संस्कृति का सदस्य होते हुए भी दूसरों से अलग व्यक्तित्व का विकास करता है ।

 

 

व्यक्तित्व के आधार

 

व्यक्तित्व के निर्माण के तीन प्रमुख आधार होते हैं ,

 1 . शारीरिक पक्ष

 2 . समाज

 3 . संस्कृति

 

व्यक्तित्व के विकास में इन तीनों का हाथ होता है , अर्थात् इन्हीं की अन्तः क्रिया के फलस्वरूप व्यक्तित्व का विकास होता है । शारीरिक आधार – इसके अन्तर्गत व्यक्ति की शारीरिक बनावट , आकार , रंग – रूप , कद , वजन आदि आते हैं । साधारण तौर पर व्यक्ति इन्हीं के आधार पर व्यक्तित्व की व्याख्या करता है । अर्थात शारीरिक रंग – रूप को देखकर व्यक्ति को आकर्षण अथवा बड़े व्यक्तित्व का बताया जाता है । वंशानुक्रमणवादी व्यक्तित्व के निर्माण में इसी आधार को महत्वपूर्ण बताते हैं । इनके अनुसार व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानक्रमण शरीर रचना बन्दि एवं प्रतिभा स्नायमण्डल तथा अन्तः स्त्रावी ग्रान्थया का योगदान होता है ।

 

सामाजिक आधार – इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण सामाजिक पर्यावरण आता है । समाज के अभाव मध्य नहीं है । यदि किसी व्यक्ति की प्राणिशास्त्रीय रचना बहत ही अच्छी है , किन्तु वह सामाजिक ण सामाजिक पर्यावरण आता है । समाज के अभाव में व्यक्तित्व का विकास सम्भव ऐसी स्थिति में उसके वयकितत्व का विकास नहीं हो सकता । कहने का तात्पर्य सामाजिक आय रचना बहुत ही अच्छी है , किन्तु वह सामाजिक सम्पर्क से वंचित रहा है , वब सम्पर्क से ही संस्कृति का प्रभाव भी सम्भव होता है । बच्चा जब इस पृथ्वी पर आता स नहीं हो सकता । कहने का तात्पर्य सामाजिक सम्पर्क आवश्यक है । सामाजिक समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा समाज व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करता मा सम्भव होता है । बच्चा जब इस पृथ्वी पर आता है , तब वह सिर्फ जैवकीय प्राणी होता है । आकया कद्वारा समाज व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करता है और तबवह जैवकीय प्रसणी से सामाजिक पपल जाता हा विभिन्न सामातिक संस्थाओं परिस्थितियों एवं भमिकाओं का प्रभाव व्यक्तित्व पर पड़ता है । इन्हा की सारा प्याक्तत्व का आदता , व्यवहारों , मनोवत्तियों मल्यों एवं आदर्शों का निर्माण होता है , जिससे व्यक्तित्व का विकास होता ।

 

सास्कृतिक आधार – मानवशास्त्रियों ने व्यक्तित्व के निर्माण में सांस्कतिक आधार को महत्वपूर्ण बताया है । उनके अनुसार । बहुत सी जैवकीय क्षमताओं का निर्धारण संस्कृति से होता है । मानवशास्त्रियों ने संस्कृतियों की भिन्नता के आधार पर विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व के गठन की चर्चा की है । इन विद्वानों में मीड , लिटन , कार्डिनर , डूबाइस आदि के नाम प्रमुख हैं । य । विद्वान Culture Personality School के नाम से जाने जाते हैं । संस्कृति और व्यक्तित्व के पारस्परिक सम्बन्ध का उल्लेख करते हुए जॉन गिलिन ने बताया कि जन्म के बाद मनुष्य एक मानव निर्मित यावरण में प्रवेश करता है , जिसका प्रभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व पर पड़ता है । संस्कृति मनुष्य की आवश्यककताओं की पूर्ति के लिए कुछ नियमों तथा तरीकों का निर्धारण करती है । इन्हें समाज के अधिकांश लोग मानते हैं । संस्कृति के अन्तर्गत जिन प्रथाओं , परम्पराओं , जनरीतियों , रूढियों , धर्म , भाषा , कला आदि का समावेश होता है , वे सामाजिक एवं सामूहिक जीवन विधि को व्यक्त करते हैं । उचित व अनुचित व्यवहार के लिए संस्कृति पुरस्कार तथा दण्ड का भी प्रयोग करती है । रूथ बेनेडिक्ट ने अपना विचार प्रकट करते हुए कहा कि , बच्चा जिन प्रथाओं के बीच पैदा होता है , आरम्भ से ही उसके अनुरूप उसके अनुभव एवं व्यवहार होने लगते हैं । आगे उसने यह भी बताया कि संस्कृति व्यक्ति को कच्चा माल प्रदान करता है , जिससे वह अपने जीवन का निर्माण करता है । यदि कच्चा माल ही अपर्याप्त हो , तो व्यक्ति का विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पाता है । यदि कच्चा माल पर्याप्त होता है तो व्यक्ति को उसका सदुपयोग करने का अवसर मिल जाता है । फेरिस ने व्यक्तित्व को संस्कृति का वैषविक पक्ष कहा है । प्रत्येक समाज की अपनी विशिष्ट प्रकार की संस्कृति होती है , जो दूसरे से भिन्न होती है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है । यही कारण है कि सांस्कृतिक भिन्नता से व्यक्तियों में भी भिन्नता पायी जाती है । क्लूखौन और मूरे के अनुसार , प्रत्येक व्यक्ति कुछ अंशों में 1 . दूसरे सब लोगों की तरह होता है । 2 . दूसरे कुछ लोगों की तरह होता है और दूसरे किसी भी मनुष्य की तरह नहीं होता । पहला – प्राणिशास्त्रीय दृष्टिकोण से सभी मानव की शारीरिक विशेषताएँ समान होती हैं जैसे आँख , नाक , कान , हाथ , पैर इत्यादि । अतः प्रत्येक मनुष्य कुछ – न – कुछ अंशों में दूसरे सभी लोगों के समान होता है । दसरा – प्रत्येक समाज में कुछ सामान्य व्यवहार प्रतिमान होते हैं । जिन्हें व्यक्ति अपनी पसन्द से अपनाता है । इस प्रकार प्रत्येक दूसरे कुछ लोगों की तरह होता है । अर्थात् समान व्यवहार व कार्य के आधार पर कुछ लोगों में समानता पायी जाती तीसरा – प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशिष्ट गुण होते हैं , जो किसी दूसरे मनुष्य की तरह नहीं होते । यही कारण है कि मानव व्यक्तित्व में भिन्नता पाई जाती है । सांस्कृति पर्यावरण में भिन्नता के कारण दो विभिन्न संस्कृतियों के व्यक्तियों के सामान्य गुण में समानता नहीं पाई जाती ।

 

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