सत्ता को अवधारणा

सत्ता को अवधारणा

( Concept of Authority )

 धर्म के समाजशास्त्र की विवेचना करने के लिए वेबर ने जब विभिन्न धर्म संघों , धार्मिक नेताओं की शक्ति तथा पुरोहित वर्ग के विभिन्न प्रस्थिति समूहों ( Stratum ) का अध्ययन किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि समाज में जहाँ विभिन्न वर्गों की प्रकृति एक – दूसरे से भिन्न है वहीं विभिन्न वर्गों की शक्ति भी एक – दूसरे से बहुत भिन्न होती है । इसके अतिरिक्त , परम्परागत समाजों में जिस ढंग से शासन कार्य चलाया जाता है , उसकी प्रकृति आर्थिक रूप से विकसित समाजों के शासनतन्त्र से भिन्न होती है । इसका तात्पर्य है कि सामाजिक व्यवस्था को समझने के लिए इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है कि मनुष्य एकता में किस प्रकार बंधता है तथा वह ऐसे कार्यों को क्यों स्वीकार कर लेता है जो उसे किसी व्यक्ति के अधीन और किसी से श्रेष्ठ बना देते हैं ? दूसरे शब्दों में , जो व्यवस्था व्यक्ति को अधिकार न देकर उसे कुछ दूसरे लोगों की प्रभुता के अन्तर्गत रहकर कार्य करने को बाध्य करती है , उसके अस्तित्व में विश्वास करके हम उसे कैसे सहन कर लेते हैं ? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देने के लिए वेवर ने ऐसी अवधारणाओं पर विचार किया जिन्हें उनके ‘ राजनैतिक समाजशास्त्र ‘ का आधार माना जाता है । इन अवधारणाओं में सामाजिक वर्ग , प्रस्थिति , शक्ति , अधिकारीतन्त्र तथा सत्ता आदि प्रमुख अवधारणाएँ हैं । वेबर ने राजनैतिक समाजशास्त्र से सम्बन्धित अपने विचारों को दो खण्डों में प्रस्तुत किया ।

पहले खण्ड में उन्होंने सत्ता की अवधारणा तथा इसके प्रकारों की विवेचना की जबकि दूसरे भाग में वेबर ने सत्ता के ऐतिहासिक विकास पर प्रकाश डाला । इस दृष्टिकोण से आवश्यक है कि प्रस्तुत विवेचन में हम वेबर द्वारा प्रस्तुत सत्ता की अवधारणा तथा उसके प्रकारों की संक्षिप्त विवेचना करें । वेबर ने स्पष्ट किया कि प्रत्येक समाज में विभिन्न समूहों तथा उनके सदस्यों के बीच जो सम्बन्ध स्थापित होते हैं , उनका एक मुख्य आधार सत्ता की प्रकृति है । आरम्भ में ही यह समझ लेना आवश्यक है कि वेवर के अनुसार सामाजिक स्तरीकरण , सामाजिक संगठन तथा राजनीति के तीन महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं जो सभी मानवीय व्यवहारों को प्रभावित करते हैं । वेबर ने इन तीनों पक्षों के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए वर्ग , प्रस्थिति तथा शक्ति की अवधारणाओं को स्पष्ट किया एवं इन्हीं के सन्दर्भ में सत्ता या प्रभता की प्रकृति की विवेचना की । इस दृष्टिकोण से वेबर द्वारा प्रस्तुत सत्ता की अवधारणा को समझने से पहले वर्ग , प्रस्थिति तथा शक्ति के अर्थ को समझना आवश्यक हो जाता है ।

 वर्ग ( Class ) की प्रकृति को स्पष्ट करते हए वेबर ने बतलाया कि विभिन्न लोगों के जीवन जीने के तरीके एक – दूसरे से भिन्न होते हैं । यह तरीके एक बड़ा सीमा तक सम्पत्ति अधिकारों की प्रकृति तथा अनेक दूसरी आर्थिक दशाओं से प्रभावित होते हैं । इस प्रकार आर्थिक आधार पर समान ढंग से जीवन व्यतीत करने वाल लोग एक वर्ग का निर्माण करते हैं । इसका तात्पर्य है कि वर्ग – निर्माण का मुख्य आधार आर्थिक है लेकिन यह पूरी तरह उस ढंग का नहीं होता जिसकी व्याख्या मार्क्स द्वारा की गयी है ।

 प्रस्थिति ( Status ) का सम्बन्ध समाज में व्यक्ति को मिलने वाले एक ऐसे पद से है जिसके साथ एक विशेष ‘ सम्मान ‘ जुड़ा होता है । इस आधार पर वेबर ने स्पष्ट किया कि सम्मान सकारात्मक होने पर व्यक्ति की प्रस्थिति उच्च होती है तथा नकारात्मक सम्मान व्यक्ति की प्रस्थिति को निम्न बना देता है । सम्मान का सम्बन्ध व्यक्ति के वर्ग से नहीं होता । इसका अर्थ है कि उच्च वर्ग के व्यक्ति का सम्मान कम होने से उसकी प्रस्थिति निम्न हो सकती है जबकि किसी निम्न वर्ग के व्यक्ति को अधिक सम्मान मिलने पर उसकी प्रस्थिति उच्च बन सकती है । समाज में जिन लोगों की . प्रस्थिति एक – दूसरे के लगभग समान होती है उनसे एक – एक प्रस्थिति समूह ( Stratum ) का निर्माण होता है ।

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 शक्ति ( Power ) को परिभाषित करते हुए वेबर ने लिखा , ” अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों पर अपनी इच्छा को आरोपित करने की सम्भावना को ही शक्ति कहा जाता है । ” 36 इस अर्थ में हमारे अधिकांश सामाजिक सम्बन्धों का आधार शक्ति की यही अवधारणा है । व्यक्ति बाजार में , भाषण के मंच पर , खेलों में , कार्यालयों में , यहाँ तक कि प्रीति – भोज आदि के अवसरों पर भी शक्ति का प्रयोग करने अपने प्रभाव को स्थापित और प्रदशित करना चाहता है । इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सभी स्थानों और अवसरों पर व्यक्ति के द्वारा उपयोग में लायी जाने वाली शक्ति समान प्रकृति की नहीं होती । शक्ति को इसके दो रूपों की सहायता से समझा जा सकता है – ( 1 ) शक्ति का पहला रूप वह है जिसे कुछ विशेष वस्तुओं पर अधिकार होने के कारण हम स्वयं प्राप्त कर लेते हैं और पारस्परिक हितों के कारण कुछ दूसरे लोग भी उसे स्वीकार कर लेते हैं । ( 2 ) दूसरी तरह की शक्ति वह होती है जिसे व्यक्ति किसी स्थापित संस्था से प्राप्त करता है तथा जो उसे कुछ विशेष आदेश देने के अधिकार सौंपती है । वेबर ने शक्ति के इस दूसरे रूप को ही ‘ सत्ता ‘ के नाम से सम्बोधित किया है । इसका तात्पर्य है कि सत्ता का तात्पर्य एक संस्थात्मक शक्ति ( Intsitutional Power ) से है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि सत्ता एक ऐसी शक्ति है जो एक प्रभुतासम्पन्न व्यक्ति अथवा संस्था द्वारा किसी व्यक्ति को प्रदान की जाती है तथा इसके द्वारा उस व्यक्ति को कुछ आदेश देने के अधिकार प्रदान किये जाते हैं । एक उदाहरण के द्वारा शक्ति तथा सत्ता को भिन्नता को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है ।

वेबर का कथन है कि एक बड़ा केन्द्रीय बैंक अपनी आर्थिक स्थिति और साख के कारण अपने ग्राहकों को ऋण देने अथवा उनसे व्यापारिक सम्बन्ध रखने के लिए उन पर कोई भी शर्ते थोप सकता है तथा ग्राहक भी बाजार पर उस बैंक के एकाधिकार को देखते हुए उन शर्तों को मान लेते हैं । यह ग्राहकों पर बैंक द्वारा उपयोग में लायी जाने वाली ‘ शक्ति ‘ है । ऐसा बैंक ऋण देने के बारे में किसी तरह की सत्ता का उपयोग नहीं करता लेकिन स्वयं अपने हितों के कारण ग्राहक उसकी शक्ति को स्वयं ही स्वीकार कर लेते हैं । दूसरी ओर , एक शासक जब कुछ लोगों के व्यवहारों को प्रभावित करने के लिए एक आदेश देता है तब इसे मानना या न मानना लोगों की इच्छा का विषय नहीं होता क्योंकि शासन के आदेश के पीछे कानून अथवा किसी दूसरी तरह की प्रभुता – सम्पन्न संस्था की मान्यता होती है । इन उदाहरणों के द्वारा वेबर ने यह स्पष्ट किया कि सत्ता एक ऐसी दशा है जिसमें कुछ विशेष तत्त्वों का समावेश होता है । यह तत्त्व हैं – ( 1 ) शासक या शासकों का एक समूह होना , ( 2 ) कुछ लोगों का शासितों या सामान्य लोगों के समूह के रूप में होना , ( 3 ) शासक में सामान्य लोगों के व्यवहारों को प्रभावित करने की इच्छा के रूप में कुछ आदेश देना , तथा ( 4 ) प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी ऐसे कानून अथवा परम्परा का होना जिससे जनसाधारण यह समझने लगे कि वह उस आदेश का पालन करने के लिए बाध्य है 17 इस प्रकार वेबर का विचार है कि सत्ता एक ऐसी दशा है जिसमें शासक और शासितों के बीच आदेश देने और उनका पालन करने के वैधानिक सम्बन्धों का समावेश होता है । शासक और शासित का तात्पर्य केवल सरकार और जनता से ही नहीं होता बल्कि किसी भी संगठन अथवा प्रतिष्ठान में आदेश देने वाले और आदेशों का पालन करने वाले लोगों से होता है ।

वेबर ने इस प्रश्न पर भी विचार किया कि विभिन्न सामाजिक संगठनों में सत्ता को स्थायी बनाये रखने वाली दशाएं कौन – सी हैं ? दुसरे शब्दों में , वे कौन – से कारण हैं जो लोगों को एक विशेष सत्ता को मान्यता देने को प्रेरणा प्रदान करते हैं । इस स्थिति को वेबर ने अनेक दशाओं के आधार पर स्पष्ट किया । 38 सर्वप्रथम , जिन लोगों के पास सत्ता होती है , वे संख्या में कम होने के कारण अधिक संगठित रहते हैं । साथ ही अपनी नीतियों और निर्णयों की गोपनीयता को बनाये रखने के कारण ही वे अपनी सत्ता को बनाये रखने में सफल हो जाते हैं । दूसरे , प्रभुतासम्पन्न लोगों का सदैव यह प्रयत्न रहता है कि वे किसी न किसी तरह अपनी सत्ता को बनाये रखें क्योंकि ऐसा करके ही वे अपने हितों को पूरा कर सकते हैं । तीसरे , सत्ता को स्वीकार करने वाले लोगों में भी अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके हित सत्ता से सम्बन्धित आदेशों का पालन करने से ही सुरक्षित रहते हैं । ऐसे लोग दूसरे व्यक्तियों को भी यह समझाते रहते हैं कि सत्ता में विश्वास करना और उसके आदेशो का पालन करना उन्हीं के हित में है । अन्त में , सत्ता के स्थायित्व का एक कारण यह भी है कि शासक अथवा सत्ता प्राप्त सभी लोग एक ओर अपनी श्रेष्ठता को किसी न किसी आधार पर प्रमाणित करते रहते हैं तथा दूसरी ओर सामान्य लोगों की अधीनता को उनकी अकुशलता अथवा भाग्य से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं । इन्हीं – दशाओं में सामान्य लोग सत्ता को मान्यता प्रदान करना अपने नैतिक कर्तव्य के रूप में देखने लगते हैं । विभिन्न समाजों तथा विभिन्न दशाओं में वेबर ने सत्ता की वैधता को तीन रूपों में स्पष्ट किया । इनका तात्पर्य है कि एक विशेष सत्ता द्वारा अपनी आदेश देने की शक्ति को तीन विभिन्न आधारों पर न्यायपूर्ण सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है । इसलिए इन्हें हम अक्सर ‘ सत्ता के विभिन्न प्रकार ‘ भी कह देते हैं । वेबर ने इन तीन प्रकारों को वैधानिक सत्ता , परम्परागत सत्ता तथा चमत्कारी सत्ता के नाम से सम्बोधित किया है ।

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( 1 ) वैधानिक सत्ता ( Legal Authority )

 वेबर के अनुसार वैधानिक सत्ता वह है जिसके अन्तर्गत कुछ विशेष नियमों के द्वारा कुछ लोगों को शक्ति का उपयोग करने के अधिकार दिए जाते हैं । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि जिन लोगों को कानून के द्वारा कुछ विशेष बादेश देने के अधिकार दिए जाते हैं उनकी सत्ता को हम वैधानिक सत्ता के नाम से सम्बोधित करते हैं । वेबर के विचारों को स्पष्ट करते हुए इस सम्बन्ध में अब्राहम तथा मॉर्गन ने लिखा है कि इतिहास के प्रत्येक युग में वैधानिक सत्ता का रूप सदैव विद्यमान रहा है किन्तु आधुनिक समाजों में अधिकारीतन्त्र को हम वैधानिक सत्ता की सबसे प्रमुख कड़ी के रूप में स्वीकार कर सकते हैं । इस दृष्टिकोण से वैधानिक

 सत्ता से वेबर का तात्पर्य मुख्य रूप से प्रशासनिक संरचना से है । ऐसी सत्ता एक विवेकशील सत्ता ( Rational Authority ) होती है जिसमें सामाजिक उद्देश्यों तथा सामाजिक मूल्यों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया जाता है । किसी समाज में जिन लोगों को वैधानिक सत्ता प्राप्त होती है , उनका चनाव मनमाने ढंग से न होकर उनकी नियुक्ति एक विशेष कानूनी प्रक्रिया के द्वारा की जाती है । ऐसे लोगों की सत्ता उनकी निजी प्रतिष्ठा से सम्बन्धित नहीं होती बल्कि कानून के अन्तर्गत एक विशेष पद पर नियुक्त होने के कारण उन्हें जो अधिकार दिए जाते हैं . उनकी सत्ता वहीं तक सीमित रहती है । इसका तात्पर्य है कि वैधानिक सत्ता का एक विशेष कार्यक्षेत्र होता है जिसके बाहर जाकर इससे सम्बन्धित व्यक्ति अपनी सत्ता का उपयोग नहीं कर सकते । वैधानिक सत्ता यह स्पष्ट करती है कि एक व्यक्ति पदाधिकारी और वैयक्तिक रूप में एक – दूसरे से अलग हैं । इसका यह भी तात्पर्य हुआ कि वैधानिक सत्ता किसी व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए सत्ता का उपयोग करने की अनुमति प्रदान नहीं करती । इस सत्ता की वैधता को बनाये रखने के लिए इसके अअिकारी से यह आशा की जाती है कि वह अपने अधिकारों के उपयोग से सम्बन्धित सम्पूर्ण कार्यवाही को लिखित रूप से पूरा करेगा । दूसरी ओर , जो व्यक्ति वैधानिक सत्ता के अधीन होते हैं वे विभिन्न आदेशों का पालन इस दृष्टिकोण से करते हैं कि उनके द्वारा विधान अथवा कानूनों का पालन किया जा रहा है , इस दृष्टिकोण से नहीं कि उनका कर्तव्य किसी व्यक्ति विशेष के आदेशों का पालन करना है । तात्पर्य यह है कि वैधानिक सत्ता का स्रोत स्वयं संविधान अथवा कानून होते हैं ।

इन कानूनों के द्वारा एक निश्चित प्रक्रिया के अन्तर्गत कुछ लोगों को आदेश देने के अधिकार प्रदान किये जाते हैं जबकि अन्य लोगों से उन आदेशों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है । वेबर के अनुसार प्रत्येक युग में वैधानिक सत्ता किसी न किसी रूप में अवश्य विद्यमान रही है । उदाहरण के लिए प्राचीन काल में भी राजा द्वारा कुछ व्यक्तियों को पुरोहित , मन्त्री , सेनापति तथा न्यायाधीश जैसे पदों पर नियुक्त किया जाता था । ऐसे सभी व्यक्तियों के कुछ निश्चित अधिकार होते थे तथा यह लोग अपने अधिकारों की सीमा के अन्दर रहते हुए ही अपनी वैधानिक सत्ता का उपयोग करते थे । इसके बाद भी , वैधानिक सत्ता का स्पष्ट रूप आधुनिक राज्यों के प्रशासनिक ढाँचे से सम्बन्धित है जिसमें एक विकसित कर्मचारीतन्त्र के अन्तर्गत विभिन्न लोगों को एक – दूसरे से भिन्न मात्रा में वैधानिक सत्ता प्रदान की जाती है तथा ऐसे सभी व्यक्तियों के अधिकारों में एक निश्चित संस्तरण देखने को मिलता है । इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वैधानिक सत्ता केवल राजनैतिक संस्थाओं से ही सम्बन्धित नहीं है बल्कि धार्मिक , आर्थिक तथा शैक्षणिक संस्थाओं में भी वैधानिक सत्ता को देखा जा सकता है । उदाहरण के लिए , कुछ समय पहले पंजाब के मुख्य मन्त्री सुरजीत सिंह बरनाला द्वारा अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में पुलिस कार्यवाही का आदेश देना उनकी वैधानिक सत्ता को स्पष्ट करता है । इस कार्यवाही के कुछ दिन बाद अकाल तख्त के पांच प्रमुख ग्रन्थियों के आदेश से बरनाला को दण्ड दिया गया जिसे बरनाला ने भी स्वीकार किया । इसका तात्पर्य है कि धार्मिक संस्थाओं के काननों के अन्तर्गत उनकी भी एक वैधानिक सत्ता होती है जिसे उस धर्म क अनुयायियों द्वारा स्वीकार किया जाता है । इसके बाद भी किसी धार्मिक अथवा आर्थिक संगठन की वैधानिक सत्ता में उतना स्थायित्व नहीं होता जितना कि राज्य की वैधानिक सत्ता में पाया जाता है । उदाहरण के लिए , अकाल तख्त के ग्रन्थियों द्वारा जब बरनाला को पुनः दण्डित किया गया तो इस बार बरनाला ने उस दण्ड को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि वैधानिक सत्ता तभी तक प्रभावपूर्ण रहती है जब तक उससे सम्बन्धित लोग ( जनता अथवा अनुयायी ) उसे स्वीकार करते रहें ।

( 2 ) परम्परागत सत्ता ( Traditional Authority )

. परम्परागत सत्ता एक व्यक्ति को किसी परम्परा के द्वारा स्वीकृत पद पर आसीन होने के कारण प्राप्त होती है , यह वैधानिक नियमों के अन्तर्गत किसी पद पर आसीन होने से सम्बन्धित नहीं होती । वेबर के अनुसार सत्ता के इस रूप को स्पष्ट करते हुए रेमण्ड ऐरों ने लिखा है कि ” परम्परागत सत्ता वह सत्ता है जो विशिष्ट गुणों की परम्परा के विश्वास पर आधारित होती है तथा जिसे एक लम्बे समय से लोगों द्वारा स्वीकार किया जाता रहा है । ” ऐसी सत्ता जिन लोगों को प्राप्त होती है वे अपनी पैतृक अथवा आनुवंशिक प्रस्थिति के कारण इसका उपयोग करते हैं । परम्परागत सत्ता की प्रमुख विशेषता यह है कि यह किसी व्यक्ति को अपने आदेशों का पालन करवाने के लिए कहीं अधिक निरंकुश और विशेष अधिकार प्रदान करती है । जो व्यक्ति परम्परागत सत्ता के आदेशों के अनुसार कार्य करते हैं , वह उसकी ‘ प्रजा ‘ होते हैं । साधारणतया इन लोगों में परम्परागत सत्ता के लिए एक श्रद्धा की भावना होती है । उनका यह विश्वास होता है कि परम्परागत सत्ता पर अधिकार रखने वाले व्यक्ति में कुछ दैविक गुणों का समावेश होता है , अतः किसी भी दशा में उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । उदाहरण के लिए , कुछ समय पहले तक भारत के गाँवों में पाई जाने वाली जाति पंचायतें सत्ता के इस रूप को स्पष्ट करती हैं । जाति पंचायतों के पास यद्यपि कोई वैधानिक अधिकार नहीं होते थे लेकिन इसके फैसलों को पंच – परमेश्वर के द्वारा दिए गये फैससे के रूप में स्वीकार किया जाता था । वेबर ने परम्परागत सत्ता की प्रकृति को इसके तीन प्रमुख रूपों की सहायता | से स्पष्ट किया है । इन्हीं को परम्परागत सत्ता के मुख्य उदाहरणों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है

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 ( क ) परम्परागत सत्ता का पहला रूप कूल – पिता की परम्परा में देखने को मिलता है । जिन समाजों में संयुक्त परिवार या इसी से मिलते – जुलते परिवार होते हैं , वहाँ परिवार की सम्पूर्ण शक्ति कुल पिता ( कर्ता ) के हाथों में निहित होती है । उसके द्वारा परिवार के विभिन्न सदस्यों को एक विशेष ढंग से कार्य करने और व्यवहार करने के जो आदेश दिए जाते हैं , उनके पीछे किसी कानून की शक्ति नहीं होती बल्कि परम्परा के द्वारा ही इस शक्ति का निर्धारण होता है ।

 ( ख ) पैतृक शासन , वेबर के अनुसार परम्परागत सत्ता का दूसरा उदाहरण है । कुछ समय पहले तक अधिकांश धर्मप्रधान समाजों में पैतृक शासन का एक स्पष्ट रूप देखने को मिलता था । इसके अन्तर्गत राज्य की सम्पूर्ण सत्ता एक व्यक्ति के हाथों में ही केन्द्रित रहती है तथा उसकी मृत्यु के बाद यह सत्ता स्वयं ही उसके ज्येष्ठ पुत्र अथवा उत्तराधिकारी को प्राप्त हो जाती है । यह सत्ता निरंकुश प्रकृति की होती है । एक पैतृक शासक साधारणतया उन्हीं नियमों का पालन करता है जो उसकी स्वच्छन्दता का समर्थन करने वाले होते हैं । वह अपने पदाधिकारियों का चुनाव स्वयं करता है तथा विभिन्न वर्गों के लोगों में सत्ता का वितरण इस दृष्टिकोण से करता है कि वे शासक के प्रति कितने अधिक विश्वसनीय तथा स्वामीभक्त हैं । इसका तात्पर्य है कि जो व्यक्ति शासक के सम्बन्धी अथवा कृपापात्र होते हैं , उन्हीं के द्वारा इस सत्ता को कार्यान्वित किया जाता है ।

( ग ) वेबर के अनुसार सत्ता का तीसरा रूप एक सामन्तवादी सरकार के रूप में देखने को मिलता है जो पैतृक शासन का ही संशोधित रूप है । इसके अन्तर्गत एक संविदा ( Contract ) के अधीन पैतृक शासक की सत्ता विभिन्न क्षेत्रों पर अधिकार रखने वाले अपने सामन्तों में विभाजित हो जाती है । प्रत्येक सामन्त को अपने – अपने क्षेत्र में आदेशों को उसी तरह क्रियान्वित करने का अधिकार मिल जाता है जिस तरह एक पैतृक शासक अपनी सम्पूर्ण प्रजा को आदेशों का पालन करने के सिए बाध्य कर सकता है । यह सामन्त शासक के विशेष कृपा – पात्र होते हैं तथा एक निश्चित परम्परा के अन्तर्गत वे शासक को कर तथा उपहार देते रहते हैं । स्पष्ट है कि परम्परागत सत्ता का यह रूप सुपरिभाषित नहीं होता और न ही ऐसी सत्ता के अधिकार – क्षेत्र पर कोई अंकुश रखा जा सकता है ।

( 3 ) चमत्कारी सत्ता ( Charismatic Authority )

वेवर के अनुसार चमत्कारी सत्ता का सम्बन्ध उस व्यक्ति की सत्ता से है जिसमें अपने विशिष्ट गुणों के द्वारा दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता होती है । स्पष्ट है कि ऐसी सत्ता का निर्धारण न तो वैधानिक नियमों के द्वारा होता है और न ही परम्परा के द्वारा । इसका आधार कुछ ऐसी चमत्कारिक क्रियाएं हैं जिन्हें प्रदर्शित करके कोई भी व्यक्ति सत्ता पर अपना अधिकार कर सकता है । दूसरे शब्दों में , कोई भी वह पैगम्बर , नायक , तान्त्रिक अथवा जनप्रिय नेता जो अपने चमत्कारों की सहायता से सामान्य लोगों को आदेश देने की वैधानिक शक्ति प्राप्त कर लेता है , उसे चमत्कारी सत्ता कहा जाता है । ऐसा व्यक्ति चमत्कारी सत्ता का उपयोग तभी कर सकता है जब वह यह सिद्ध कर दे अथवा कम से कम लोग यह विश्वास करने लगे कि उसके पास किसी तान्त्रिक शक्ति , देवी शक्ति या किसी अभूतपूर्व गुण के कारण एक विशेष चमत्कार दिखाने की क्षमता है । जो व्यक्ति किसी चमत्कारी सत्ता की आज्ञाओं का पालन करते हैं वे उसके ‘ शिष्य ‘ अथवा ‘ अनुयायी ‘ होते हैं । यह अनु यायी किसी कानून से निर्धारित नियमों अथवा एक विशेष परम्परा के कारण उस नेता की सत्ता में विश्वास नहीं करते बल्कि उसके वैयक्तिक गुणों के कारण उसके आदेशों का पालन करते रहते हैं ।

चमत्कारी सत्ता के अन्तर्गत विभि र पदाधिकारियों का चुनाव उनकी योग्यता या कुशलता के आधार पर नहीं किया जाता बल्कि सत्तावान व्यक्ति के प्रति उनकी निष्ठा और भक्ति के आधार पर होता है । वेवर ने ऐसे पदाधिकारियों को ‘ शिष्य पदाधिकारी ‘ ( Disciple Officials ) कहा है । ऐसे पदाधिकारियों की क्रियाओं का निर्धारण और उनकी आदेश देने की शक्ति चमत्कारी नेता की इच्छा से ही निर्धारित होती है । विशेष बात यह है कि ऐसे नेता के अन्तर्गत कार्य करने वाले अधिकारी न किन्हीं नियमों से बंधे होते हैं और न ही कानूनों से , बल्कि नेता की इच्छा ही उनके आचरणों को प्रभावित करती है । चमत्कारी सत्ता चाहे किसी भी रूप में हो वह अपने विश्वास करने वाले लोगों को समय – समय पर यह महसूस कराती रहती है कि उसके बिना कोई सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती । वेबर का कथन है कि एक चमत्कारी नेता जब कभी भी अपने शिष्यों की निगाह में अपने चमत्कार को सिद्ध नहीं कर पाता तो वह अपनी सत्ता को खोने लगता हे । देवर द्वारा चमत्कारी सत्ता की विशेषताओं के सन्दर्भ में रेमण्ड ऐरों ने रूस में लेनिन के नेतृत्व को चमत्कारी सत्ता के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है । आपका कथन है कि रूस की क्रान्ति के समय लेनिन ने वहाँ जिस सत्ता का उपयोग किया वह न तो कानूनों की विवेक शीलता पर आधारित थी और न ही वर्षों पुरानी रूसी परम्पराओं पर । उन्होंने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा विशिष्ट गुणों के आधार पर ही अपनी चमत्कारी सत्ता स्थापित की । – इस प्रकार स्पष्ट होता है कि चमत्कारी सत्ता पूर्णतया व्यक्तिगत होती है । समकारी सत्ता में व्यक्ति के विशेष गुणों , देवी शक्तियों अथवा असामान्य क्षमताओं होने का विश्वास किया जाता है । इस सत्ता की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी अवधि अधिक लम्बी नहीं होती । यदि ऐसी सत्ता परम्परागत सत्ता अथवा वैधानिक सत्ता में परिवर्तित न हो जाय तो कुछ समय बाद ही इसके समाप्त हो जाने की सम्भावना की जा सकती है ।

सत्ता की उपर्युक्त अवधारणा के द्वारा वेबर ने इस तथ्य को भी स्पष्ट किया कि मानव इतिहास में सत्ता के यह विभिन्न प्रारूप ( Types ) एक – दूसरे से पूरी तरह पृथक नहीं है बल्कि विभिन्न समाजों में इनका रूप एक – दूसरे से बहुत कुछ मिला जुला रहा है । इसका उदाहरण देते हुए वेबर ने बतलाया कि साधारणतया इंग्लैण्ड की महारानी की सत्ता को एक परम्परागत सत्ता के रूप में देखा जाता है जबकि वास्तविकता यह है कि इसमें वैधानिक सत्ता के तत्त्वों का भी समावेश है । इसका कारण यह है कि इंग्लैण्ड की महारानी का पद एक पैतृक परम्परा से सम्बन्धित है लेकिन तो भी वहाँ जन – प्रतिनिधियों के द्वारा बनाये जाने वाले कानून महारानी के नाम से ही लागू होते हैं । यदि भारत के सन्दर्भ में देखा जाय तो यहाँ की राजनीति में भी वैधानिक सत्ता तथा परम्परागत सत्ता के तत्त्वों का एक मिश्रण देखने को मिलता है ।

स्वतन्त्रता के बाद भारतीय राजनीति के 44 वर्षों में से यदि हम उन छ : वर्षों को अपवाद के रूप में निकाल दें जिनमें लालबहादुर शास्त्री तथा गैर कांग्रेसी प्रधानमन्त्री सत्ता में रहे तो शेष 38 वर्षों तक यहाँ की वैधानिक सत्ता नेहरू परिवार तक ही सीमित रही है । इसी के फलस्वरूप भारत की वर्तमान राजनीति में अनेक विशेषताएं पैतृक शासन की विशेषताओं से मिलती – जुलती देखने को मिलती हैं । वेबर के अनुसार दूसरी बात यह है कि सत्ता की प्रणाली जिन वैध नियमों पर आधारित होती है उनसे सम्बन्धित व्यवहारों में परिवर्तन होने के साथ ही सत्ता के रूप में परिवर्तन होने की सम्भावना रहती है । इसका तात्पर्य है कि सत्ता के विभिन्न प्रकार ऐसे प्ररूप नहीं है जो कभी न बदलते हों । उदाहरण के लिए , एक चमत्कारी नेता यह कभी नहीं चाहता कि वह परम्परागत नियमों अथवा किसी कानून से बंधकर कार्य करे । इसके बाद भी उसके अनुयायी अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रयत्न करते रहते हैं कि नेता की अभूतपूर्व क्षमताओं के बाद भी वे अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को किसी न किसी तरह अवश्य बनाये रखें । फलस्वरूप अनुयायियों को जैसे ही अवसर मिलता है , वे अपने नेता के चमत्कार को भ्रमपूर्ण सिद्ध करके अनेक परम्पराओं और नियमों को महत्त्व देने लगते हैं । इसके फलस्वरूप सत्ता की एक विशेष प्रणाली दूसरी प्रणाली के रूप में बदलने लगती है । 40 | इसके बाद भी वेबर ने यह स्वीकार किया है कि विभिन्न परिस्थितियों में सत्ता का एक प्ररूप दूसरे में बदल जाना सदैव आवश्यक नहीं होता । इसका कारण यह है कि सत्ता की प्रत्येक प्रणाली में कुछ आन्तरिक रक्षा – कवच होते हैं जो इसके प्रभाव को बनाये रखने का काम करते हैं । परिवर्तन केवल तब होता है जब एक विशेष प्रणाली से सम्बन्धित शासक उन मानदण्डों की अवहेलना करने लगते हैं जिनके आधार पर उन्हें सत्ता मिली होती है । उदाहरण के लिए , वैधानिक सत्ता के अन्तर्गत यदि कानून का पोषण करने वाले लोग कानूनों का उपयोग स्वयं अपने हित में करने लगें तो ऐसी सत्ता अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकती । इसी तरह परम्परागत सत्ता के अन्तर्गत यदि शासक परम्पराओं की अवहेलना करके निरकुश ढंग से व्यवहार करने लगें तो उसमें से लोगों का विश्वास समाप्त हो जायेगा । वेबर का कथन है कि इतिहास के विभिन्न युगों में सत्ता के विभिन्न प्ररूपों अथवा प्रणालियों में केवल इसलिए परिवर्तन होता आया है कि शासक अपनी शक्ति की सीमाओं का उल्लंघन करके व्यक्तिगत हितों को पूरा करने का प्रयत्न करते रहे हैं । इस प्रकार जहाँ एक ओर सत्ता के स्रोत को ध्यान में रखना सदैव आवश्यक है , वहा यह ध्यान रखना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि सत्ता एक तुलनात्मक और परिवर्तन शील प्ररूप है ।

समालोचना ( Critique ) – यह सच है कि वेबर ने सत्ता की अवधारणा को वैज्ञानिक आधार पर प्रस्तुत करके यह स्पष्ट कर दिया कि कुछ व्यक्ति सामाजिक संगठन में कोई अधिकार न मिलने के बाद भी सत्ताधारी व्यक्ति की श्रेष्ठता को क्यों स्वीकार कर लेते हैं । लेकिन सत्ता की व्याख्या में वेबर ने अनेक परस्पर विरोधी तथ्यों का उल्लेख करके अपनी विवेचना की ताकिकता स्वयं कम कर ली । यही कारण है कि अनेक विद्वानों ने वेबर की इस अवधारणा के सभी पक्षों को स्वीकार नहीं किया है । आलोचकों का मत है कि वेबर ने जिस तरह सामाजिक क्रिया के चार प्रकारों का उल्लेख किया है उसके अनुरूप उन्होने सत्ता के प्रकारों में समुचित संयोजन स्थापित नहीं किया । साधारणतया सामाजिक क्रिया के सन्दर्भ में सत्ता के भी चार स्वरूप होने चाहिए थे । दूसरी बात यह है कि वेबर ने सत्ता के जिन प्रकारों का उल्लेख किया है उन्हें वेबर ने केवल एक आदर्श अथवा मॉडल के रूप में मानते हुए यह निष्कर्ष दिया है कि किसी भी समाज में सत्ता के एक से अधिक प्रकार एक साथ विद्यमान हो सकते हैं । इसके विपरीत , वास्तविकता यह है कि एक विशेष अवधि में किसी समाज के अन्तर्गत सत्ता का एक विशेष स्वरूप ही अधिक प्रभावपणं होता है जिस पर वेबर ने कोई प्रकाश नहीं डाला । अन्त में , यह भी कहा जा सकता है कि वेबर ने आधुनिक समाजों के प्रशासन को वैधानिक सत्ता से सम्बन्धित माना है जबकि व्यावहारिक रूप से वैधानिक सत्ता के आधुनिक रूप में भी चमत्कारी तथा परम्परागत सत्ता के कुछ न कुछ तत्त्व अवश्य पाये जाते हैं । इन आलोचनाओं के बाद भी यह स्वीकार करना आवश्यक है कि सत्ता की विवेचना में वेबर का दष्टि कोण दूसरे विद्वानों की अपेक्षा कहीं अधिक तर्कपूर्ण तथा व्यावहारिक है ।

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