संविधान के मूल ढांचे पर बहस: ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द रहेंगे या हटेंगे?
चर्चा में क्यों? (Why in News?): हाल ही में, भारत के संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवाद’ (Socialism) और ‘धर्मनिरपेक्ष’ (Secularism) शब्दों को हटाने की संभावना को लेकर राज्यसभा में सरकार का एक लिखित जवाब आया। सरकार ने स्पष्ट किया कि फिलहाल ऐसे किसी भी प्रस्ताव पर विचार नहीं किया जा रहा है और न ही कोई योजना है। इस जवाब ने फिर से संविधान के मूल ढांचे (Basic Structure Doctrine) और इन महत्वपूर्ण शब्दों के महत्व पर एक व्यापक बहस छेड़ दी है, जो UPSC परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
यह ब्लॉग पोस्ट इस विषय की गहराई में जाकर, इन शब्दों के ऐतिहासिक संदर्भ, संवैधानिक महत्व, संबंधित अदालती फैसलों और भविष्य में इसके निहितार्थों पर विस्तृत प्रकाश डालेगा।
संविधान की प्रस्तावना: एक झलक
भारतीय संविधान की प्रस्तावना, जिसे अक्सर संविधान की आत्मा कहा जाता है, हमारे गणतंत्र के आदर्शों और आकांक्षाओं का सार प्रस्तुत करती है। यह न केवल संविधान के उद्देश्यों को बताती है, बल्कि उन सिद्धांतों को भी रेखांकित करती है जिन पर भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित हुआ है।
मूल प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द शामिल नहीं थे। ये शब्द 42वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा जोड़े गए थे। यह संशोधन उस समय की तत्कालीन सरकार द्वारा किया गया था और इसे ‘मिनी-कॉन्स्टिट्यूशन’ भी कहा जाता है।
‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’: अर्थ और महत्व
ये दोनों शब्द हमारे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ताने-बाने के लिए मौलिक हैं:
- समाजवाद (Socialism):
- सरल शब्दों में: समाजवाद का अर्थ है कि समाज के सभी वर्गों, विशेषकर वंचित और जरूरतमंद लोगों के कल्याण को सुनिश्चित करना। इसका उद्देश्य धन और संसाधनों का समान वितरण करना, गरीबी को कम करना और सामाजिक न्याय स्थापित करना है।
- भारतीय संदर्भ में: भारत में समाजवाद का अर्थ मार्क्सवादी साम्यवाद नहीं है, बल्कि यह मिश्रित अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक क्षेत्र के महत्व और सामाजिक सुरक्षा जाल (social safety nets) जैसे कल्याणकारी उपायों पर जोर देता है। इसका लक्ष्य अमीरी-गरीबी की खाई को पाटना और सभी नागरिकों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करना है।
- उद्देश्य: सामाजिक और आर्थिक समानता, कल्याणकारी राज्य (welfare state), गरीबी उन्मूलन, और संसाधनों का न्यायसंगत वितरण।
- धर्मनिरपेक्षता (Secularism):
- सरल शब्दों में: धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य का कोई विशेष धर्म नहीं होगा। राज्य सभी धर्मों को समान सम्मान देगा और किसी भी धर्म के साथ भेदभाव नहीं करेगा। नागरिकों को अपनी पसंद के अनुसार किसी भी धर्म का पालन करने, उसका प्रचार करने या न करने की स्वतंत्रता होगी।
- भारतीय संदर्भ में: भारतीय धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी मॉडल से थोड़ी भिन्न है। पश्चिम में, धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अक्सर राज्य और धर्म का पूर्ण अलगाव (separation) होता है। भारत में, यह ‘सर्वधर्म समभाव’ (equal respect for all religions) के सिद्धांत पर आधारित है, जहाँ राज्य सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है और जहाँ आवश्यक हो, धार्मिक संस्थानों की सहायता भी कर सकता है।
- उद्देश्य: धार्मिक स्वतंत्रता, धार्मिक सहिष्णुता, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा, और सभी नागरिकों के लिए समान नागरिकता।
42वां संवैधानिक संशोधन, 1976: एक ऐतिहासिक मोड़
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को 1976 में 42वें संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में जोड़ा गया था। उस समय की सरकार का मानना था कि इन शब्दों को शामिल करने से संविधान के आदर्शों को स्पष्टता मिलेगी और देश के सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को मजबूती मिलेगी।
संशोधन के पीछे के तर्क:
- ‘समाजवाद’ शब्द को जोड़कर देश में आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता को सुदृढ़ करना।
- ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को जोड़कर भारत की बहु-धार्मिक प्रकृति को स्वीकार करना और सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करना।
संविधान का मूल ढांचा (Basic Structure Doctrine)
यह मुद्दा संविधान के ‘मूल ढांचे’ के सिद्धांत से गहराई से जुड़ा हुआ है। इस सिद्धांत का जन्म संसद की संविधान संशोधन शक्ति की सीमाओं को स्थापित करने के लिए हुआ था।
प्रमुख मामले:
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): यह ऐतिहासिक फैसला भारतीय संवैधानिक कानून का एक मील का पत्थर है। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि संसद के पास संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने की शक्ति है, लेकिन वह ‘संविधान के मूल ढांचे’ को नहीं बदल सकती। यदि कोई संशोधन संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करता है, तो उसे अमान्य करार दिया जा सकता है।
मूल ढांचे के कुछ तत्व (सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय-समय पर व्याख्यायित):
- संविधान की सर्वोच्चता
- लोकतांत्रिक गणराज्य का स्वरूप
- धर्मनिरपेक्ष चरित्र
- शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers)
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता
- संविधान की एकात्मक प्रकृति (Federalism)
- एकल नागरिकता
- गणतंत्र की संप्रभुता और एकता
- कुछ बुनियादी अधिकार
- संसदीय प्रणाली
- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का संतुलन
‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ का मूल ढांचे से संबंध:
यह बहस का एक महत्वपूर्ण बिंदु रहा है कि क्या ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ प्रस्तावना के मूल ढांचे का हिस्सा हैं। यदि वे मूल ढांचे का हिस्सा हैं, तो उन्हें किसी भी संशोधन द्वारा हटाया नहीं जा सकता। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कभी भी इन दोनों शब्दों को ‘मूल ढांचे’ के तत्व के रूप में सूचीबद्ध नहीं किया है, लेकिन उनके द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने वाले सिद्धांत – जैसे सामाजिक न्याय (समाजवाद से जुड़ा) और धर्मनिरपेक्षता – को निश्चित रूप से मूल ढांचे के अभिन्न अंग के रूप में देखा गया है।
हालिया घटनाओं का संदर्भ और सरकार का जवाब
राज्यसभा में दिए गए सरकार के लिखित जवाब ने स्पष्ट कर दिया है कि फिलहाल इन शब्दों को हटाने का कोई इरादा नहीं है। यह जवाब कई वर्षों से चली आ रही एक बहस को संबोधित करता है, जिसमें विभिन्न समूहों और व्यक्तियों ने इन शब्दों को संविधान से हटाने की मांग की है।
हटाने की मांग के पीछे के तर्क (पक्ष):
- ‘समाजवाद’ के संबंध में:
- कुछ लोगों का तर्क है कि 1976 के बाद से भारत की आर्थिक नीतियों में काफी बदलाव आया है, जिसमें उदारीकरण और वैश्वीकरण (liberalization and globalization) पर अधिक जोर दिया गया है। उनका मानना है कि ‘समाजवाद’ शब्द वर्तमान आर्थिक व्यवस्था के साथ मेल नहीं खाता।
- यह भी तर्क दिया जाता है कि यह शब्द ‘साम्यवाद’ (communism) की ओर इशारा कर सकता है, जिससे गलत संदेश जा सकता है।
- ‘धर्मनिरपेक्ष’ के संबंध में:
- कुछ धार्मिक समूहों का मानना है कि यह शब्द भारतीय परंपरा के विरुद्ध है, जहाँ धर्म जीवन का एक अभिन्न अंग है।
- अल्पसंख्यक तुष्टीकरण (minority appeasement) के आरोपों के संदर्भ में भी इस शब्द की आलोचना की गई है।
- कुछ लोगों का तर्क है कि यह शब्द राज्य को धर्म से दूर ले जाता है, जबकि भारतीय संस्कृति में धर्म और समाज का गहरा संबंध रहा है।
‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ को बनाए रखने के पक्ष में तर्क (विपक्ष):
- ऐतिहासिक निरंतरता: ये शब्द 1976 से संविधान का हिस्सा रहे हैं और देश के संवैधानिक पथ का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- आदर्शों का प्रतिनिधित्व: ये शब्द भारत के उन मौलिक आदर्शों को दर्शाते हैं जिन्हें संविधान की प्रस्तावना में स्थापित किया गया था – सामाजिक न्याय, समानता और सभी नागरिकों के लिए धार्मिक स्वतंत्रता।
- सामाजिक न्याय: ‘समाजवाद’ शब्द आज भी सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को दूर करने तथा कमजोर वर्गों के उत्थान के प्रयासों के लिए प्रासंगिक है।
- धार्मिक सहिष्णुता: ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है, जो विभिन्न धार्मिक समुदायों के सह-अस्तित्व पर आधारित है। यह अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा भी सुनिश्चित करता है।
- न्यायिक व्याख्या: सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णयों में धर्मनिरपेक्षता को संविधान की ‘मूल संरचना’ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना है।
सरकारी जवाब का महत्व
राज्यसभा में सरकार का यह लिखित जवाब कई मायनों में महत्वपूर्ण है:
- स्पष्टता: इसने अटकलों पर विराम लगाया है और स्पष्ट किया है कि वर्तमान सरकार का इन शब्दों को हटाने का कोई इरादा नहीं है।
- स्थिरता: यह संवैधानिक स्थिरता की भावना को दर्शाता है, खासकर ऐसे समय में जब देश विभिन्न सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है।
- राष्ट्रीय सहमति: यह दर्शाता है कि इन शब्दों के माध्यम से व्यक्त किए गए मूल्य – सामाजिक न्याय और धार्मिक सद्भाव – अभी भी राष्ट्रीय सहमति के आधार हैं।
UPSC परीक्षा के लिए प्रासंगिकता
यह विषय UPSC सिविल सेवा परीक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से निम्नलिखित पहलुओं के लिए:
- प्रशासनिक सामान्य ज्ञान (General Awareness): समसामयिक घटनाक्रमों को समझना।
- भारतीय राजव्यवस्था और शासन (Indian Polity and Governance): प्रस्तावना, संविधान संशोधन, मूल ढांचा सिद्धांत, मौलिक अधिकार, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy)।
- सामाजिक न्याय (Social Justice): समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता से जुड़े सामाजिक और आर्थिक मुद्दे।
- इतिहास (History): 42वें संशोधन का ऐतिहासिक संदर्भ।
विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण: क्यों महत्वपूर्ण है यह बहस?
यह बहस केवल शब्दों को हटाने या रखने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह इस बात का प्रतीक है कि हम भारत के रूप में किस प्रकार के समाज का निर्माण करना चाहते हैं।
- एकजुटता बनाम विभाजन: धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक समूहों को एक साथ लाता है।
- कल्याणकारी राज्य की अवधारणा: समाजवाद का आदर्श भारत को एक कल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापित करता है, जिसका उद्देश्य अपने नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार करना और उन्हें सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है।
- संवैधानिक व्याख्या का विकास: यह मुद्दा दिखाता है कि कैसे संविधान एक जीवंत दस्तावेज है जिसकी व्याख्या समय के साथ, सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों के अनुरूप होती रहती है।
- लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता: समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता, दोनों ही लोकतंत्र के मजबूत स्तंभ हैं जो नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं।
आगे की राह
सरकार के जवाब से फिलहाल इस मुद्दे पर विराम लग गया है, लेकिन यह भविष्य में फिर से उठ सकता है। महत्वपूर्ण यह है कि इन शब्दों के पीछे के सिद्धांतों को समझा जाए और देश के विकास के पथ पर उन्हें कैसे बनाए रखा जाए।
- सतत संवाद: संविधान के आदर्शों और मूल्यों पर निरंतर सार्वजनिक और विधायी संवाद आवश्यक है।
- नीतियों का क्रियान्वयन: ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ के सिद्धांतों को केवल शब्दों तक सीमित न रखकर, उन्हें प्रभावी नीतियों और कार्यक्रमों के माध्यम से लागू करना महत्वपूर्ण है।
- संवैधानिक अखंडता: मूल ढांचे के सिद्धांत का सम्मान करते हुए, किसी भी ऐसे संशोधन से बचना चाहिए जो संविधान की मौलिक प्रकृति को विकृत करे।
निष्कर्षतः, राज्यसभा में सरकार के लिखित जवाब ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द भारतीय संविधान की प्रस्तावना का हिस्सा बने रहेंगे। यह निर्णय देश के समावेशी और न्यायसंगत समाज के निर्माण के प्रति प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। UPSC उम्मीदवारों के लिए, इन शब्दों के संवैधानिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-राजनीतिक महत्व को समझना अत्यंत आवश्यक है, ताकि वे परीक्षा में पूछे जाने वाले बहुआयामी प्रश्नों का सफलतापूर्वक उत्तर दे सकें।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
- प्रश्न 1: भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द किस संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़े गए?
a) 44वां संशोधन अधिनियम, 1978
b) 42वां संशोधन अधिनियम, 1976
c) 52वां संशोधन अधिनियम, 1985
d) 74वां संशोधन अधिनियम, 1992
उत्तर: b) 42वां संशोधन अधिनियम, 1976
व्याख्या: ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द 42वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा प्रस्तावना में जोड़े गए थे। - प्रश्न 2: ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ (1973) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने किस महत्वपूर्ण सिद्धांत को प्रतिपादित किया?
a) संसद की पूर्ण संप्रभुता
b) धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत
c) संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत
d) प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है
उत्तर: c) संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत
व्याख्या: इस ऐतिहासिक मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि संसद संविधान के मूल ढांचे को नहीं बदल सकती। - प्रश्न 3: भारतीय धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन सा कथन सही है?
1. राज्य का कोई राजकीय धर्म नहीं होगा।
2. राज्य सभी धर्मों को समान सम्मान देगा।
3. राज्य धर्म से पूरी तरह अलग होगा।
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
a) 1 और 2 केवल
b) 2 और 3 केवल
c) 1 और 3 केवल
d) 1, 2 और 3
उत्तर: a) 1 और 2 केवल
व्याख्या: भारतीय धर्मनिरपेक्षता ‘सर्वधर्म समभाव’ पर आधारित है, न कि पूर्ण अलगाव पर। - प्रश्न 4: निम्नलिखित में से कौन सा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित ‘संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’ के आदर्शों से संबंधित है?
a) सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता
b) राजनीतिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
c) राष्ट्रीय एकता और अखंडता
d) उपरोक्त सभी
उत्तर: d) उपरोक्त सभी
व्याख्या: प्रस्तावना के ये आदर्श देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताने-बाने को दर्शाते हैं। - प्रश्न 5: भारत में ‘समाजवाद’ का तात्पर्य निम्नलिखित में से किससे है?
a) राज्य द्वारा सभी आर्थिक गतिविधियों पर पूर्ण नियंत्रण
b) मिश्रित अर्थव्यवस्था और कल्याणकारी राज्य
c) केवल निजी क्षेत्र का विकास
d) मार्क्सवादी साम्यवाद का पूर्ण अनुकरण
उत्तर: b) मिश्रित अर्थव्यवस्था और कल्याणकारी राज्य
व्याख्या: भारतीय समाजवाद मार्क्सवादी साम्यवाद से भिन्न है और यह कल्याणकारी उपायों पर जोर देता है। - प्रश्न 6: निम्नलिखित में से कौन से तत्व संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माने जाते हैं (सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या के अनुसार)?
1. संविधान की सर्वोच्चता
2. न्यायपालिका की स्वतंत्रता
3. एकल नागरिकता
4. बंधुत्व (Fraternity)
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
a) 1, 2 और 3
b) 1, 3 और 4
c) 2, 3 और 4
d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: a) 1, 2 और 3
व्याख्या: बंधुत्व प्रस्तावना में उल्लिखित एक आदर्श है, लेकिन इसे सीधे तौर पर मूल ढांचे के तत्व के रूप में सूचीबद्ध नहीं किया गया है, हालांकि यह उसके निहितार्थों में शामिल हो सकता है। - प्रश्न 7: किस संवैधानिक संशोधन ने प्रस्तावना में ‘अखंडता’ (Integrity) शब्द जोड़ा?
a) 42वां संशोधन अधिनियम, 1976
b) 44वां संशोधन अधिनियम, 1978
c) 76वां संशोधन अधिनियम, 1995
d) कोई नहीं
उत्तर: a) 42वां संशोधन अधिनियम, 1976
व्याख्या: 42वें संशोधन ने ‘संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य’ को ‘संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य’ और ‘राष्ट्र की एकता’ को ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता’ में बदला। - प्रश्न 8: निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
1. प्रस्तावना संविधान का एक हिस्सा है, लेकिन यह न तो न्यायालय में प्रवर्तनीय है और न ही किसी अनुच्छेद के तहत कार्रवाई का आधार बन सकती है।
2. प्रस्तावना संविधान के कुछ उपबंधों की व्याख्या करने में सहायक होती है।
उपरोक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?
a) केवल 1
b) केवल 2
c) 1 और 2 दोनों
d) न तो 1 और न ही 2
उत्तर: c) 1 और 2 दोनों
व्याख्या: केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है और यह उपबंधों की व्याख्या में सहायक है। - प्रश्न 9: ‘राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत’ (DPSP) किस प्रकार ‘समाजवाद’ के आदर्श से जुड़े हुए हैं?
a) वे नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करते हैं।
b) वे सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना का प्रयास करते हैं।
c) वे अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करते हैं।
d) वे धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं।
उत्तर: b) वे सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना का प्रयास करते हैं।
व्याख्या: DPSP का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक समानता लाना है, जो समाजवाद का मूल तत्व है। - प्रश्न 10: ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द भारतीय संविधान के संदर्भ में क्या दर्शाता है?
a) केवल नास्तिकता का प्रसार
b) सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार और आदर
c) केवल प्रमुख धर्म का समर्थन
d) धार्मिक प्रथाओं पर पूर्ण प्रतिबंध
उत्तर: b) सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार और आदर
व्याख्या: भारतीय धर्मनिरपेक्षता का अर्थ ‘सर्वधर्म समभाव’ है।
मुख्य परीक्षा (Mains)
- प्रश्न 1: भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों के समावेश के ऐतिहासिक संदर्भ की विवेचना कीजिए। केशवानंद भारती मामले के आलोक में, इन शब्दों को हटाने या बनाए रखने के तर्कों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए। (250 शब्द, 15 अंक)
- प्रश्न 2: ‘संविधान के मूल ढांचे’ के सिद्धांत से आप क्या समझते हैं? यह सिद्धांत भारतीय लोकतंत्र में शक्तियों के संतुलन को बनाए रखने में कैसे सहायक है? ‘धर्मनिरपेक्षता’ को मूल ढांचे का हिस्सा मानने के न्यायिक निर्णयों का उल्लेख करें। (250 शब्द, 15 अंक)
- प्रश्न 3: भारत में धर्मनिरपेक्षता के विभिन्न मॉडल क्या हैं? भारतीय मॉडल की पश्चिमी मॉडल से तुलना करते हुए, इसके महत्व और चुनौतियों पर प्रकाश डालिए। (150 शब्द, 10 अंक)
- प्रश्न 4: सरकार द्वारा हाल ही में राज्यसभा में दिए गए जवाब के संदर्भ में, ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ जैसे शब्दों का भारतीय संविधान में वर्तमान प्रासंगिकता क्या है? इन शब्दों के भविष्य पर एक विश्लेषणात्मक टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए। (150 शब्द, 10 अंक)
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