संरचनात्मक – प्रकार्यवाद

संरचनात्मक – प्रकार्यवाद

 Structural – Functionalism 

 किसी भी समाज या संस्कृति की स्थिरता व निरन्तरता उसके विभिन्न तत्वों या इकाइयों के संगठन व व्यवस्था पर निर्भर करती है । यह संगठन व व्यवस्था तभी सम्भव है जब ये विभिन्न तत्व या इकाइयाँ अपना – अपना योगदान इस संगठन या व्यवस्था को बनाए रखने में दें । यह योगदान ये इकाइयाँ अपनी – अपनी ‘ निर्धारित ‘ या ‘ पूर्व – निश्चित ‘ भूमिका को करते हुए ही करती हैं या कर सकती हैं । यहाँ ‘ निर्धारित ‘ या ‘ पूर्व – निश्चित ‘ शब्द का प्रयोग इस अर्थ में किया गया है कि समाज कोई आकस्मिक घटना नहीं है जो उसी समय एकाएक अपनी निर्माणक इकाइयों को एक विशेष प्रकार का कार्य करने का निर्देश देता है या यह आशा करता है कि वे उन कार्यों को करेंगे । कोई भी समाज , चाहे वह आदिम समाज ही क्यों न हो , कई पीढ़ियों की निरन्तर अन्तःक्रियाओं का परिणाम होता है । इस दौरान यह निश्चित या निर्धारित हो जाता है कि समाज की विभिन्न निर्माणक इकाइयों की सम्पूर्ण सामाजिक संरचना ( चाहे वह कितनी ही सरल व सादा क्यों न हो ) में कौन – कौन सा स्थान होगा और उन्हें सामाजिक संगठन व व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अर्थात् अन्तिम रूप में समाज की स्थिरता व निरन्तरता के लिए किस प्रकार की भूमिका अदा करनी होगी । यही उन तत्वों या इकाइयों का प्रकार्य ( function ) है । और भी स्पष्ट रूप में , समाज के विभिन्न निर्माणक तत्व या इकाइयाँ समाज – व्यवस्था या संगठन को बनाए रखने के लिए जो निर्धारित भूमिका अदा करते हैं या अपना – अपना योगदान देते हैं उसे प्रकार्य कहा जाता है । अतः यह स्पष्ट है कि समाज एक अखण्ड व्यवस्था नहीं है । इसके अन्तर्गत अनेक इकाइयाँ , भाग , अंग या तत्व होते हैं और इनसे यह ‘ आशा ‘ की जाती है कि वे समाज संरचनात्मक – प्रकार्यवाद क्या है ?

सामाजिक घटनाओं को समाज की संरचना तथा इसके भागों के प्रकार्यात्मक सम्बन्धों के सन्दर्भ में विश्लेषण हेतु प्रयोग किए जाने वाले एक सैद्धान्तिक तथा पद्धतिमूलक उपागम को सामान्यतः संरचनात्मक – प्रकार्यात्मक विश्लेषण की संज्ञा दी जाती है । संरचनात्मक – प्रकार्यात्मक विश्लेषण इस अनुमान पर आधारित है कि सामाजिक ईकाइयाँ ( समूह , संस्थाएँ आदि ) जिनमें अन्तःक्रियाएँ होती है , वे पारस्परिक रूप में एक – दूसरे को प्रभावित करती हैं तथा एक – दूसरे के साथ समायोजन करती रहती हैं ।

 इस प्रकार जैसे – जैसे उद्विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ती है वैसे – वैसे प्रकार्यों का सामंजस्य ( consensus of function ) अधिक घनिष्ठ होता जाता है । कम विकसित वैयक्तिक और सामाजिक सावयवों में अंगों के प्रकार्य एक – दूसरे पर कम निर्भर होते हैं , जबकि दोनों ही प्रकार के विकसित सावयवों में प्रकार्यों वह सम्मिलन , जो सम्पूर्ण के जीवन को जीवन देता है , पृथक् – पृथक् प्रकार्यों , जो विभिन्न अंगों के जीवन का आधार होते हैं , को भी सम्भव बनाते हैं ।

 जब अंगों में कम विभिन्नता ( differentiation ) होती है , तो वे सरलता से एक – दूसरे के प्रकार्यों को कर सकते हैं । परन्तु जहाँ यह विभिन्नता अधिक है वहाँ एक अंग दूसरे अंग का प्रकार्य या तो बहुत अकुशलतापूर्वक कर सकता है या बिल्कुल ही नहीं कर सकता । उदाहरणार्थ , आज के अत्यधिक विभिन्नतापूर्ण जटिल समाज में परिवार से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह राज्य या श्रमिक संघ या कम – से – कम कॉलेज का ही काम कर सकेगा ।

 सामाजिक व्यवस्था या संगठन की स्थिरता व निरन्तरता इस बात पर निर्भर है कि प्रत्येक अंग अपने – अपने निर्धारित कार्य को ठीक – ठीक करता रहे ।

 प्रकार्यों में परिवर्तन हुए बिना संरचनाओं में परिवर्तन घटित नहीं हो सकता । इस प्रकार स्पेन्सर ने सामाजिक प्रकार्य को सावयवी प्रकार्य के सन्दर्भ में या उसके समान मानकर समझाने का प्रयत्न किया है । मैलिनोवस्की का प्रकार्यवाद ( Functionalism of Malinowski ) मानवशास्त्रियों में जिन विद्वानों ने प्रकार्यवादी दृष्टिकोण से सांस्कृतिक व्यवस्था को समझाने का प्रयत्न किया है उनमें मैलिनोवस्की तथा रैडक्लिफ – ब्राउन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।

सर्वप्रथम हम मैलिनोवस्की के विचारों का उल्लेख करेंगे । आपके मतानुसार संस्कृति वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने शारीरिक तथा मानसिक और अन्तिम रूप में बौद्धिक अस्तित्व को बनाए रखने में सफल होता है । मानव केवल एक प्राणीशास्त्रीय प्राणी ही नहीं अपितु एक सामाजिक प्राणी भी है और इन दोनों ही रूपों में उसकी अनेक शारीरिक – मानसिक आवश्यकताएँ होती हैं । इन आवश्यकताओं की पूर्ति किए बिना सामाजिक प्राणी के रूप में मानव का अस्तित्व कदापि बना नहीं रह सकता । इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव संस्कृति का निर्माण करता है और उसके द्वारा अपने शारीरिक तथा मानसिक या बौद्धिक अस्तित्व को बनाए रखता है । 

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दूसरे शब्दों में , संस्कृति के विभिन्न अंगों का एक विशिष्ट स्वरूप ( form ) ही नहीं होता बल्कि एक विशिष्ट प्रकार्य ( function ) भी होता है । संस्कृति का कोई भी तत्व irait ) या इकाई बेकार नहीं होती है , उससे मानव का कोई – न – कोई काम अवश्य निकलता है । किसी भी सांस्कृतिक तत्व का अस्तित्व इसी बात पर निर्भर करता है कि वह मानव के किसी काम में आ रहा है या नहीं । संक्षेप में , यही मैलिनोवस्की का प्रकार्यवाद है । मानव की आवश्यकताएँ अनेक हैं , जैसे आर्थिक आवश्यकताएँ , सामाजिक आवश्यकताएँ तथा मानसिक आवश्यकताएँ ।

इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव धर्म , भाषा , कला , प्रविधि , साहित्य तथा अन्य अनेक भौतिक एवं अभौतिक वस्तुओं का , जिनके सम्पूर्ण योग या समग्रता को हम संस्कृति कहते हैं , सहारा लेता है । अगर हम ध्यानपूर्वक यह जानने का प्रयत्न करें कि इन सब चीजों का अर्थात् संस्कृति की विभिन्न इकाइयों का उद्भव क्योंकर हुआ तो हमें स्पष्टतः ज्ञात होगा कि इनमें से प्रत्येक इकाई की जड़ मानव की कोई – न – कोई आवश्यकता ही है । मानव अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही धनुष – बाण से लेकर बड़ी – बड़ी मशीनों का प्रयोग करता है , सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक संस्थाओं को काम में लगाता है , मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भाषा , धर्म , कला आदि की सहायता लेता है । अतः स्पष्ट है कि संस्कृति की इकाई का किसी – न – किसी रूप में कोई – न – कोई प्रकार्य अवश्य ही होता है । अगर एक मोमबत्ती भी है तो उसका भी सांस्कृतिक ढांचे में या मानव की सम्पूर्ण जीवन – विधि में कोई – न – कोई प्रकार्य होगा ही । यह मोमबत्ती रोशनी देने का काम करती है , यही मोमबत्ती धर्म का प्रतीक हो सकती है या किसी कम्पनी का व्यापार – चिह्न भी हो सकती है ।

किसी भी संस्कृति में इस मोमबत्ती के समस्त प्रकार्यों को समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम इस मोमबत्ती की संस्कृति का अन्य सभी इकाइयों या पक्षों से जो प्रकार्यात्मक प्रबन्ध हैं , उन्हें ढूंढ़ निकालें । इसी तरह जब हम संस्कृति की प्रत्येक इकाई का अन्य इकाइयों से प्रकार्यात्मक सम्बन्ध मालूम कर लेंगे , तब कहीं हमें यह निश्चित रूप से पता चलेगा कि उस समूह के सदस्यों की सम्पूर्ण जीवन – विधि को बनाए रखने में वे इकाइयाँ किस प्रकार मिलकर प्रकार्य करती हैं । अतः स्पष्ट है कि एक संस्कृति की विभिन्न इकाइयों का पृथक् – पृथक् अस्तित्व न तो होता है और न ही होना सम्भव है । इनमें से प्रत्येक का प्रत्येक के साथ एक प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होता है ।

परन्तु यह सम्बन्ध क्यों होता है ? इसका सरल उत्तर यह है कि मानव की आवश्यकताएँ भी अलग – अलग नहीं हैं , वे सब एक – दूसरे के साथ सम्बन्धित हैं क्योंकि इन सबका उद्भव – स्थान एक ही है और वह उद्भव – स्थान है मानव स्वयं । क्योंकि मनुष्य स्वयं इन सब आवश्यकताओं का स्रोत है , इसलिए ये सब आवश्यकताएँ एक – दूसरे से जुड़ी हुई हैं और इसीलिए इन आवश्यकताओं को पूरा करने के साधन के रूप में काम में आने वाली संस्कृति की विभिन्न इकाइयाँ या पक्ष भी अन्तःसम्बन्ध से बंधे हुए हैं । इस अन्तःसम्बन्ध का आधार मानव की प्राणीशास्त्रीय प्रेरणाएँ तथा आवश्यकताएँ हैं । किसी भी संस्कृति के संगठन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य मानव की उपर्युक्त प्राणीशास्त्रीय प्रेरणाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए साधन उपलब्ध कराना है । इस प्रकार मैलिनोवस्की का विश्वास है कि संस्कृति का कोई भी तत्व , अंग या इकाई ऐसी नहीं हो सकती जो कुछ भी काम नहीं देती , अर्थात् जो प्रकार्यहीन है ।

आपका कथन है कि संस्कृति का प्रत्येक तत्व किसी – न – किसी कार्य को करने के लिए हुआ करता है और उसका अस्तित्व उसी समय तक बना रहता है जब तक वह सम्पूर्ण जीवन – व्यवस्था में कोई – न – कोई कार्य करता रहता है । किसी भी संस्कृति के संगठन का , जैसा हम ऊपर बता चुके हैं , एक आधारभूत उद्देश्य , मानव – जीवन की विविध आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कार्य करना है । यदि यह सच है तो यह कैसे सम्भव हो सकता है कि किसी भी सांस्कृतिक तत्व का प्रकार्यविहीन अस्तित्व हो । चूंकि सम्पूर्ण जीवन – विधि या व्यवस्था को बनाए रखने में प्रत्येक सांस्कृतिक तत्व का कुछ – न – कुछ योगदान अर्थात् कोई – न – कोई प्रकार्य होता है , इसलिए संस्कृति के प्रत्येक तत्व का हर दूसरे तत्वों के साथ एक आन्तरिक व प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होता है जिसके फलस्वरूप ये असंख्य सांस्कृतिक तत्व एक – दूसरे से पृथक् नहीं , बल्कि एक – दूसरे से जकड़े हुए या सम्बन्धित होते हैं और सब मिलकर संस्कृति को एक समग्रता प्रदान करते हैं । इस प्रकार मैलिनोवस्की के मतानुसार , सांस्कृतिक संगठन ( cultural integration ) का आधारभूत कारण उस संस्कृति की प्रत्येक इकाई द्वारा किया जाने वाला प्रकार्य है ।

सांस्कृतिक संगठन के सम्बन्ध में यही मैलिनोवस्की . का प्रकार्यवादी सिद्धान्त या दृष्टिकोण है । निम्न विवेचना से यह और भी स्पष्ट हो जाएगा मैलिनोवस्की के मतानुसार संस्कृति मानव की प्राणीशास्त्रीय आवश्यकताओं द्वारा जनित मानव का आविष्कार है । मानव का शारीरिक – मानसिक अस्तित्व ( bio – psychic survival ) जिन साधनों से बना रहता है , उन साधनों की समग्रता को ही संस्कृति कहते हैं । मैलिनोवस्की ने मनुष्य की सात आधारभूत प्राणीशास्त्रीय आवश्यकताओं ( biological needs ) का उल्लेख किया है । वे हैं – शरीर – पोषक , उत्पादक , शारीरिक आराम , सुरक्षा , गति , वृद्धि तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताएँ । इनमें से प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति मानव – निर्मित विभिन्न सांस्कृतिक तत्वों द्वारा होती है । दूसरे शब्दों में , इन सात आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति विविध सांस्कृतिक तत्व एक साथ मिलकर या संयुक्त रूप में कार्य करते हुए करते हैं ।

 यह सच है कि ये सांस्कृतिक तत्व या उपर्युक्त आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन प्रत्येक समाज में एक – से नहीं होते ; प्रत्येक समाज में इन सांस्कृतिक तत्वों के प्रकार तथा स्वरूप भिन्न – भिन्न हुआ करते हैं , इसीलिए प्रत्येक समाज की संस्कृति का गठन या ढांचा या रूप भी अलग – अलग होता है । रूप या समरूप कुछ भी हो , पर मानव की उपर्युक्त महत्वपूर्ण शारीरिक – मानसिक आवश्यकताओं की नियमित पूर्ति की योजना प्रत्येक संस्कृति में पाई जाती है । योजना की सफलता उनकी विभिन्न इकाइयों के संगठन पर निर्भर है । अगर विभिन्न इकाइयाँ बिखरी हुई हैं , वे एक – दूसरे से असम्बद्ध या पृथक्तो कोई भी योजना कदापि सफल नहीं हो सकती । उसी संस्कृति की विभिन्न इकाइयाँ भी एक – दूसरे से सम्बद्ध रहती हैं , उनमें एक प्रकार का संगठन होता है क्योंकि संगठित रूप में मानव की महत्वपूर्ण शारीरिक – मानसिक आवश्यकताओं की नियमित पूर्ति करना ही इन तत्वों का प्रमुख कार्य और इनके अस्तित्व का आधार है । अपने – अपने कार्य में लगे हुए इन सब सांस्कृतिक तत्वों के समग्र रूप को ही , मैलिनोवस्की के अनुसार , संस्कृति कहते हैं । इनके कार्यों से पृथक् करके इन सांस्कृतिक तत्वों के या समग्र संस्कृति के अस्तित्व की कल्पना करना भी मूर्खता है । चूंकि मैलिनोवस्की सांस्कृतिक तत्वों के प्रकार्यवाद ( functionalism ) पर अत्यधिक बल देते हैं , इस कारण उनके दृष्टिकोण को ‘ प्रकार्यवाद ‘ ( functionalism ) कहते हैं । मैलिनोवस्की के प्रकार्यवाद की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि आपने मनुष्य को आवश्यकताओं और इच्छाओं का एक बण्डल मात्र मान लिया है । इस दृष्टिकोण को स्वीकार करना मानव की उच्चतर भावनाओं और आदर्शों की अवहेलना करना है ।

रैडक्लिफ – ब्राउन का प्रकार्यवाद

( Functionalism of Radcliffe – Brown )

 प्रकार्यवाद के दूसरे प्रमुख प्रवर्तक रैडक्लिफ ब्राउन हैं । रैडक्लिफ ब्राउन प्रमुख प्रकार्यवादी विचारक हैं । ब्राउन का मत है कि सामाजिक व्यवहार के विभिन्न पक्षों का कार्य व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति करना नहीं बल्कि समाज की सामाजिक संरचना को बनाए रखना है । ब्राउन के विचारों पर दुर्थीम का काफी प्रभाव पड़ा है । दुर्थीम की तरह ब्राउन ने भी समाज की संरचना और विभिन्न संस्थाओं के प्रकार्यों की महत्ता पर जोर दिया है । अध्ययन के लिए ब्राउन ने तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य को अपनाया है । ब्राउन की प्रमुख पुस्तक “ आदिवासी समाज में संरचना और प्रकार्य ” है । ब्राउन के मतानुसार संरचना और प्रकार्य की अवधारणा का प्रयोग तभी हो सकता है जब समाज तथा जीवित सावयव को स्वीकार कर लिया जाए । इस समानता को और भी विकसित रूप में प्रस्तुत करते हुए तथा प्रकार्य के अर्थ को अधिक स्पष्ट करते हुए रैडक्लिफ – ब्राउन ने लिखा है कि सावयव का जीवन उसकी संरचना के प्रकार्य के रूप में देखा जा सकता है ।

प्रकार्य की निरन्तरता के माध्यम से ही संरचना की निरन्तरता बनी रहती है । यदि हम किसी एक भाग या अंग की विवेचना करें तो उसका प्रकार्य वह भूमिका है जो वह अदा करता है या वह योगदान है जो वह समग्र रूप में सावयव के जीवन को देता है । रैडक्लिफ – ब्राउन का विश्वास है कि सावयवी व्यवस्थाओं द्वारा तीन समस्याओं को खड़ा किया गया है – रचनाशास्त्र अर्थात् संरचना का अध्ययन , शरीरशास्त्र अर्थात् प्रकार्य का अध्ययन तथा उद्विकास । ये तीनों प्रश्न या विषय सामाजिक जीवनस्तर पर भी लागू होते हैं । हम एक सामाजिक संरचना के अस्तित्व को देख सकते हैं ; व्यक्ति , आवश्यक इकाइयों के रूप में , एक सम्बद्ध समग्रता ( an integrated whole ) के अन्तर्गत कुछ तो कोई भी योजना कदापि सफल नहीं हो सकती । उसी संस्कृति की विभिन्न इकाइयाँ भी एक – दूसरे से सम्बद्ध रहती हैं , उनमें एक प्रकार का संगठन होता है क्योंकि संगठित रूप में मानव की महत्वपूर्ण शारीरिक – मानसिक आवश्यकताओं की नियमित पूर्ति करना ही इन तत्वों का प्रमुख कार्य और इनके अस्तित्व का आधार है । अपने – अपने कार्य में लगे हुए इन सब सांस्कृतिक तत्वों के समग्र रूप को ही , मैलिनोवस्की के अनुसार , संस्कृति कहते हैं । इनके कार्यों से पृथक् करके इन सांस्कृतिक तत्वों के या समग्र संस्कृति के अस्तित्व की कल्पना करना भी मूर्खता है । चूंकि मैलिनोवस्की सांस्कृतिक तत्वों के प्रकार्यवाद ( functionalism ) पर अत्यधिक बल देते हैं , इस कारण उनके दृष्टिकोण को ‘ प्रकार्यवाद ‘ ( functionalism ) कहते हैं । मैलिनोवस्की के प्रकार्यवाद की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि आपने मनुष्य को आवश्यकताओं और इच्छाओं का एक बण्डल मात्र मान लिया है । इस दृष्टिकोण को स्वीकार करना मानव की उच्चतर भावनाओं और आदर्शों की अवहेलना करना है

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