संघर्षवादी सिद्धांत

संघर्षवादी सिद्धांत

   इस सिद्धांत की मान्यता है कि समाज में परिवर्तन का कारक द्वन्द्व है । इस सिद्धांत के समर्थक कार्ल मार्क्स , राल्फ डहरेन्डार्फ , जार्ज – सिम्मेल तथा लेविस कोजर आदि हैं ।

                   संघर्षवादी सिद्धांत के सबसे बड़े समर्थक कार्ल मार्क्स हैं । मार्क्स के अनुसार आरम्भ में समाज में आर्थिक साम्यवाद की स्थिति थी यानि इस काल में निजी सम्पत्ति की धारणा नहीं थी और न ही वर्ग की अवधारणा थी । अतः समाज में शोषण का नामोनिशान नहीं था । पर जैसे – जैसे जनसंख्या में वृद्धि हुई लोगों में बचत की अवधारण विकसित हुई । इसके फलस्वरूप समाज में दो वर्ग उत्पन्न हुए । प्रथम बुर्जुआ ( Haves ) व द्वितीय सर्वहारा ( Haves not ) | 

                 मार्क्स के अनुसार किसी भी समाज की अर्थव्यवस्था उसकी मूल संरचना होती है जो उत्पादन के तरीके तथा उत्पादन के संबंधों से निर्मित होती है । इसी मूल संरचना पर समाज के अन्य सारे व्यवस्थाएँ , धर्म , दर्शन , विचार , विज्ञान , नैतिकता आदि , जिसे मार्क्स ने ‘ अधि संरचना ‘ कहा है निर्भर करती है । स्पष्टतः मार्क्स के अनुसार अर्थव्यवस्था में परिवर्तन से समाज में परिवर्तन होता है । 

               मार्क्स के अनुसार इस परिवर्तन को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर , ऐतिहासिक भौतिकवाद के स्तरों से समझा जा सकता है । 

इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या

 

 कार्ल मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर इतिहास की भौतिवादी व्याख्या की है । मार्क्स के अनुसार आज तक जो भी इतिहास में लिखा गया है उसमें केवल राजाओं एवं महाराजाओं की गाथा है या कुछ विशेष तिथियों का उल्लेख है , जबकि वास्तविकता यह है कि जब तक हम जनसामान्य के इतिहास को नहीं समझ लेते हैं तब तक सामाजिक विकास की प्रक्रिया को समझना नामुमकिन है । स्पष्टताः , मार्क्स ने दलितों पिछड़ी एवं सर्वहारा वर्ग की वकालत की है । प्रसिद्ध पुस्तक ‘ Communist Manifesto ‘ में उन्होंने इस बात का उल्लेख किया है कि अब तक का मानव इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास चूंकि , मार्क्स के समय उविकासीय विचारधारा प्रवल यी अतः ये उद्विकासवाद से अप्रभावित नहीं रह सके । यही कारण है कि इतिहास के भौतिकवादी व्याख्या में मार्क्स ने समाज के संपर्ण इतिहास को उद्विकासीय क्रम में पाँच अवस्थाओं में बाँटकर दिखाया है । यद्यपि एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने का मूल कारण संघर्ष है। 

                    मार्क्स के अनुसार मानव समाज की आरंभिक अवस्था आदिम – सामूहिक – आर्थिक व्यवस्था थी । इस काल में मनुष्य जंगल में जानवरों की तरह रहता था । उनके पास जीवन यापन के लिए कोई हथियार या उपकरण नहीं थे । वह जंगलों में फल फूल चुनकर अपने उदर की पूर्ति किया करते थे । इस तरह उनका जीवन पूरी तरह प्रकृति पर आश्रित था । अतः समाज में वर्ग या शोषण का नामोनिशान नहीं था । परंतु जैसे – जैसे जनसंख्या बढ़ी लोगों की आवश्यकताएं बढ़ती गयी । धीरे – धीरे इन हथियारों के द्वारा शक्तिशाली लोगों ने निर्मल लोगों का शोषण करना शरू किया । इस संदर्भ में मार्क्स का कहना है कि शोषण के क्षेत्र में हथियार मानव की पहली पूँजी है । बढ़ती हुई जनसंख्या एवं बढ़ती हुई आवश्यकताओं ने बचत की अवधारणा का जन्म दिया और इस अवस्था में हथियारों के रूप में कुछ लोगों के पास उत्पादन के साधनों की शक्ति का केन्द्रीकरण हो गया । आगे चलकर समाज में इसका प्रतिवाद होने लगा जिसके फलस्वरूप समाज दूसरी अवस्था में प्रवेश किया । 

                गुलाम की अवस्था को मावर्स ने अपने ऐतिहासिक विश्लेषण में दूसरी अवस्था के रूप । स्वीकार किया है । इस अवस्था में दो वर्ग उत्पन्न हुए – मालिक और गुलाम । मार्क्स का कहना है कि आदिम साम्यवादी युग में जब मनुष्य ने पशुओं को मारने की जगह पशुपालन करना शुरू किया तभी से समाज में निजी संपत्ति की अवधारणा का विकास हुआ । कृषि एवं पशुपालन के । लिए धीरे – धीरे मनुष्य ने अपने घुमन्तू जीवन को छोड़कर स्थायी निवास करना शुरू किया और । इस तरह उत्पादन के साधनों में होनेवाले परिवर्तन के आधार पर दास युग का आरम्भ हुआ । इस युग में पशुपालन एवं भोजन संकलन के लिए शक्तिशाली लोगों ने दूसरे निर्बल लोगों को । दास बनाना शुरू किया । अतः समाज में एक वर्ग वे थे जिनके पास उत्पादन के साधन के रूप में दास थे और दूसरा वर्ग दासों का था , जो अपने मालिक की सम्पत्ति थे । मार्क्स के अनुसार । इस अवस्था में लकड़ी एवं पत्थर के औजार की जगह लोहे के औजार बनने लगे । कृषि के लिए सिंचाई की व्यवस्था की जाने लगी । समाज में श्रम – विभाजन आने लगा । कपड़ा बुनना , मिट्टी के बर्तन बनाना आदि धंधे शुरू हुए , पर इस पूरी प्रक्रिया में मालिक का अपने गुलामों पर पूर्ण नियंत्रण था । गुलाम जो कि उत्पादन के साधन थे उन्हें उतना ही दिया जाता था जिससे कि वे शारीरिक रूप से जिन्दा रह सकें । गुलामों की संख्या मालिकों की सामाजिक हैसियत का सूचक थी तथा मालिक अपनी इच्छा से गुलाम को खरीद . बेच या नष्ट कर सकता था ।

स्पष्टतः . . . गुलामों पर पूर्ण नियंत्रण के लिए मालिकों ने ऐसे नियम बनाए जो निजी संपत्ति और शोषण का पोषण करता था । लेकिन , जैसे – जैसे जनसंख्या में वृद्धि हुई अधिक उत्पादन की जरूरत होने लगी । मालिकों ने गुलामों पर अधिक उत्पादन के लिए जोर डालना शुरू किया पर दूसरी तरफ गुलामों में उत्पादन के प्रति कोई रुचि नहीं थी , क्योंकि उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन होने वाला नहीं था । परिणामतः मालिक और गुलाम के बीच असंतोष बढ़ता गया । मालिकों के अत्याचार एवं शोषण जैसे – जैसे बढ़ते गए वैसे – वैसे संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार होती गयी । अतंतः गलामों ने विद्रोह कर दिया पर इस संघर्ष में जीत मालिकों की हुई । समाज ने एक दूसरी अवस्था में प्रवेश किया । इस अवस्था में भी वर्ग तो दो ही रहे पर वर्गीय चरित्र बदल गया । मार्क्स का यह भी कहना है कि दास-युग का आरंभ दुनिया में लगभग  एक साथ शुरू हुआ और कृषि के विस्तार रलाह के वनने लगे जिससे कृषि के क्षेत्र में होने के साथ ही सामंतवाद (सामंतवाद) का प्रादुर्भाव होने लगा।  

                                मार्क्स के अनुसार तीसरी अवस्था सामंतवादी सामाजिक आर्थिक रही है।  इस अवधि म अंक के अनुसार तृतीय अवस्था सामंतवादी सामाजिक आर्थिक होने आर समाज में दो वर्ग थे – भू – सामंत और अर्द – किसान।  समाज पूरी तरह कृषि पर आधारित था और समाज में दो वर्ग थे – भू – सामत एव इस काल में मनुष्य के सभी हथियारों और औजार लोहे के बनने लगे जिससे कृषि तेजी से विकास हुआ।  समाज में आग – किसानों की भी स्थिति में परिवर्तन हुआ जिस तरह खरीदे और वेचे तो जाते थे पर जान से उनकी स्थिति दासों जैसी नहीं।  दास जिस तरह से खरीदे और बेचे तो जात थर मारने की प्रथा इस अवधि में समाप्त हो गए।  साथ ही, गुलाम अपने मालिक का अपना कुछ नहीं था जबकि फाइ – किसानों के पास जमीन के बारे में – माट दुपा थे जिनपर वह मालिकों के खेतों में काम करने के बाद अपने लिए काम करते थे।  इस काले भु – सामंतों (फ्यूडोल होर्ड्स) ने सामंतवादी राज्यों की स्थापना की और इसकी सुरक्षा के लिए सेना की व्यवस्था की।  इस अवधि में विश्व में कई साहसी नाविकों और अन्वेषकों का पता लगाया गया जिससे न केवल जलमार्ग का विस्तार हआ बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार भी बनने लगा।  इन अन्तर्राष्ट्रीय द्वीपों की माँगों की पूर्ति हस्तकारघाट उद्योग से संभव नहीं हो सकी जिसके परिणामस्वरूप बड़े – बड़े उद्योगों की स्थापना की जाने लगी जिसमें हजारों मज़दूर आकर एक साथ काम करने लगे।  इस तरह पूँजीवाद के लिए उद्योगों की स्थापना ने मार्ग प्रशस्त किया, लेकिन उत्पादन में उत्पादन के लिए स्वतंत्र श्रमिकों की जरूरत थी जबकि सामंतवादी व्यवस्थाबंदी – किसानों को जमीन से बाँधे हुए थी।  कार्य में निश्चित कार्य पद्धति, नकद भुगतान, आवास की सुविधा और शहरों की चकाचौंध ने कई किसानों को अपनी ओर आकर्षित किया।  फलस्वरूप वे खेत से खेतों की ओर प्रवासित होने लगे।  नतीजा यह हुआ कि फसल किसानों पर भू सामंतों का अत्याचार और शोषण बढ़ने लगा।  दोनों के बीच संघर्ष हुआ लेकिन जीत जमीन – सामंतो की हुई।  समाज एक दूसरा अवस्था में प्रवेश किया जहाँ फिर से वर्ग तो दो ही रहे पर उनकी वर्गीय चरित्र बदल गई।  वे दो वर्ग क्रमशः बुजुआ और सर्वहारा के रूप में जाने जाते हैं।

                          मार्क्सवादी व्याख्या में चौथी अवस्था पूँजीवादी अवस्था है।  इस अवस्था में उत्पादन बड़े पैमाने पर बड़े – बड़े कल – उत्पादन द्वारा होने लगा।  साथ ही वितरण और उपभोग की भी निश्चित व्यवस्था मेयी गयी।  लेकिन सम्पत्ति पर पूरा स्वामित्व पूँजीपतियों यानि वुजुआ वर्ग का था।  श्रमिकों या सर्वहारा वर्ग के पास अपने श्रम के अलावा और कोई पूँजी नहीं थी।  लेकिन अंकों का कहना है कि मानव इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में श्रमिक एक साथ एकत्रित हुए हैं जिनके फलस्वरूप उन्हें वर्गगत चेतना जाग्रत होगी और वे संगठित होंगे।  अब जो संघर्ष होगा उसमें मानव इतिहास में पहली बार जीत सर्वहारा वर्ग की होगी और परजय बुजुआ वर्ग की होगी।  इसका कारण यह है कि गुलाम और वित्तीय किसान वर्ग तो थे पर उनमें वर्गगत चेतना के अभाव में संगठन नहीं था।  गुलाम और वित्तीय किसान को उसने “अपने आप में वर्ग” की संज्ञा दी है।  अंकों के अनुसार इस संघर्ष में सर्वहरा अपनी गुलामी की जंजीर के अलावा कुछ भी नहीं खोयेगा जबकि बुजुआ वर्ग अपना सब कुछ खो देगा।  संघर्ष के कारणों की चर्चा करते हए मार्क्स का कहना है की पूँजीवादी समाज में पूँजीपतियों ने अपने हाथ में पूँजी का केंद्रीकरण करना शुरू कर दिया है जिसके कारण समाज में दरिद्रीकरण, ध्रुवीकरण और अलगाववाद आदि पैदा हो रहे हैं।  फलस्वरूप बजआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच बढ़ते असंतोष के कारण संघर्ष होगा।

                           मार्क्स ने अपने विश्लेषण के क्रम में बतलाया है कि इस संघर्ष के बाद समाज में थोडी देर के लिए समाजवाद होगा।  यानि संपत्ति पर राज्य का नियंत्रण होगा और सबको उनकी जरूरत के अनुसार धन मिलेगा । लेकिन यह अवस्था अल्पकालीन होगी क्योंकि धीरे – धीरे समाज म सभी लोग एकसमान हो जायेंगे । अतः राज्य का नामोनिशान अपने आप मिट जायेगा और समाज साम्यवादी अवस्था में पहुँच जाएगा । मार्क्स के अनुसार साम्यवादी युग की स्थापना के लिए श्रमिक – वर्ग पूँजीपति वर्ग को उसी हथियार से खत्म कर देगा जिस हथियार से पूंजीपतियों ने सामंतवाद को नष्ट किया था । अतः मार्क्स ने एक साम्यवादी समाज की कल्पना की है जिसमें न वर्ग होगा , न अन्तःविरोध होगा . न राज्य होगा और न ही शोषण होगा बल्कि सभी लोग एक समान होंगे । 

                यद्यपि मार्क्स ने अपने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत के आधार पर इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या सुसंगत तरीके से की है तथापि उनका यह सिद्धांत आलोचनाओं से मुक्त नहीं है । मार्क्स ने जहाँ समाज की व्याख्या पाँच अवस्थाओं में बाँटकर दिखाया है , वहीं इना अवस्थाओं के संबंध में विद्वानों का कहना है कि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है । आगस्त कॉस्ट ने तीन , दर्शीम ने दो तथा मार्गन ने तीन अवस्थाओं का उल्लेख किया है । द्वितीय द्वन्द्वात्मक और भौतिकवाद की विवेचना में मार्क्स द्वारा दिया गया सामाजिक विकास का क्रम सार्वभौमिक नहीं है । मार्क्स ने जिस औद्योगिक क्रान्ति के आधार पर पूँजीवादी समाज की चर्चा की उनके अनुसार श्रमिकों द्वारा की जानेवाली सबसे पहली क्रान्ति इंग्लैण्ड में होनी चाहिए थी और वहीं सर्वहारा वर्ग की सत्ता के आधार पर साम्यवाद की स्थापना होनी चाहिए । अतः ऐतिहासिक तथ्य यह बतलाते हैं कि सामंतवाद के बाद पूँजीवाद का आना कोई आवश्यक नहीं है । 

              मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत में अनेक अन्तःविरोध हैं । यदि हर वाद क प्रतिवाद होता है तो यह कैसे मान लिया जाए कि साम्यवाद का कोई प्रतिवाद नहीं होगा । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि या तो मार्क्स ने इन तथ्यों का गहन अध्ययन नहीं किया कि किन दशा में किसी भी वाद का प्रतिवाद उत्पन्न होता है या उनका यह कहना गलत है कि साम्यवाद क कोई प्रतिवाद नहीं होगा । जहाँ तक वर्ग – संघर्ष की बात है तो मार्क्स ने समाज में केवल दो ही वर्गों के अस्तित्व के चर्चा की है जबकि सोरोकिन का कहना है कि समाज का सबसे बड़ा भाग मध्यम वर्ग का है । सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या में मध्यम वर्ग की भूमिका को नकारना मार्क्सवादी सिद्धांत की सबसे बड़ी खामी है । 

          राल्फ डेहरन्डार्फ ( Ralf Dahrendorf ) ने मार्क्स के सिद्धात की आलोचना करते हुए कहा है कि परम्परागत समाजों के लिए मार्क्स का सिद्धांत चाहे जितना सही हो पर आधुनिक औद्योगिक समाज में पूरी तरह निष्फल हो जाता है । इनका कहना है कि आधुनिक औद्योगिक समाज में पूँजीपति वर्ग एवं श्रमिक वर्ग के बीच कभी भी प्रत्यक्ष संघर्ष की स्थिति नहीं आए । क्योंकि दोनों के बीच कड़ी के रूप में प्रबन्धक वर्ग हैं । अतः बुजुआ और सर्वहारा के बी प्रबन्धक वर्ग सुरक्षा – कपाट ( Safety Valve ) का काम करता है । दूसरी बात डेटरन्डार्फ ने य कही है कि श्रमिक वर्ग कई स्तरों में विभाजित होता है जिनके वेतन एवं सुविधाएँ अलग – अल होती है । अतः श्रमिकों के एकजुट होने की संभावना ही नहीं बनती है ।

           इन सारी आलोचनाओं के बावजूद यह सत्य है कि मार्क्सवाद आज के युग की एक प्रव विचारधारा है । इससे हमें इतिहास और समाज को देखने का एक नया नजरिया मिलता है । र सही है कि मार्क्सवादी विचारधारा के आधार पर दुनियाँ का कोई समाज आज तक नहीं बद है पर सैद्धान्तिक विश्लेषण की दृष्टि से यह एक सवल विचारधारा जरूर है ।

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एल० ए० कोजर:

 

  अमेरिकन समाजशास्त्री लेविस ए० कोजर , जर्मन समाजशास्त्री जार्ज सिम्मेल के विचारों से प्रभावित थे । कोजर ने अपनी पस्तक ” फंक्शन ऑफ सोशल कंफ्लिक्ट 1955 में संघर्ष से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर कछ प्रस्ताव रखे । वस्तुतः इन प्रस्तावों की प्रकृति प्राकल्पनात्मक है । उन्होंने अपने प्रस्तावों को संघर्ष के पाँच पहलूओं पर केन्द्रित किया हैI

1 . संघर्ष के कारणों से संबंधित प्रस्ताव

2 . संघर्ष की अवधि से संबंधित प्रस्ताव

3 . हिंसात्मक संघर्ष से संबंधित प्रस्ताव

4 . समूह के लिए संघर्ष की उपादेयता

5 . सम्पूर्ण समाज पर पड़ने वाले संघर्ष के प्रकार्य

 

संघर्ष के कारणों से संबंधित प्रस्ताव : आखिर संघर्ष क्यों होता है इसके उत्तर में कोजर ने मुख्य रूप से दो प्रस्ताव रखे हैं

1.पहला , जब गैर – बरावरी के प्रश्न पर अधिक संख्या में अधीनस्थ सदस्य विरोध करते हैं और गैर बराबरी को वैधता नहीं देने तो संघर्ष प्रारंभ हो जाता है । 

2.दूसरा ,जव अधीनस्थ लोगों के सीमित अभाव अभियोग सामान्य अधीनस्थों के अभाव अभियोग बन जाते हैं तो संघर्ष व्यापक हो जाता है । मतलब हुआ कि जब कुछ लोगों की गरीबी व त्रासदी सामान्य जन – जीवन की त्रासदी बन जाती है तो संघर्ष सापेक्षिक हो जाता है । 

             संघर्ष की परिभाषा देते हुए कोजर ने लिखा है ” जब समाज में किसी प्रकार की सत्ता , सिद्धांत , साधन है और इस विरोध के लिए एक – दूसरे पर हिंसात्मक प्रहार करते हैं या दोनों एक निष्कर्ष पर पहुँचते हैं । ” स्पष्टतः संघर्ष एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति या समूह अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए विरोधी को हिंसा की धमकी देता है या वास्ततिक हिंसात्मक कार्यवाही करता है ।

 संघर्ष के प्रकार्य : कोजर के संघर्ष के प्रकार्यों अथवा परिवर्तन की चर्चा निम्न है 

1.यदि समूह संघर्ष की स्थिति में हों तो प्रत्येक समूह के सदस्यों के आपसी संबंध बढ़ जाते हैं तथा सामूहिक चेतना का विकास होता है । इस चेतना के फलस्वरूप समूह की आंतरिक एकता बढ़ती है तथा संगठन मजबूत होता है ।

2.यदि दो अर्द्ध – समूह संघर्ष की स्थिति में हों तो , दोनों के बीच का सीमा स्पष्ट हो जाता है । 

3.यदि समूह में नेता का अभाव हो या नेतृत्व कमजोर हो तो दूसरे समूह से संघर्ष की स्थिति में , अपने समूह को मजबूत करने के लिए नेतृत्व परिवर्तन किया जाता है तथा नेतृत्व को शक्तिशाली बनाया जाता है । 

4.दोनों के आदर्श प्रतिमान तथा मूल्यों में परिवर्तन होता है जिसके कारण नए आदर्श प्रतिमान आते हैं जो समूह के लिए फायदेमन्द होता है । 

5.दो समूह में संघर्ष के कारण अपने समूह के अन्दर होने वाले द्वन्द्व समाप्त होते हैं जो कि प्रायात्मक वितरण को बदलना पड़ता है और नए ढंग से कार्यों को वितरित किया जाता है । अतः संघर्ष के फलस्वरूप एक नई संरचना का उदय होता है , जिससे सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा मिलता है ।

आलोचना : एल चॉनस्की एवं ऑसिपोव ने कोजर की आलोचना करते हुए कहा है कि संघर्ष हमेशा ही व्यवस्था के विनाशकारी साबित होता है ।

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जार्ज सिम्मेल:

           19वीं शताब्दी के प्रमुख संघर्ष सिद्धांतकारों में जार्ज सिम्मेल तथा कार्ल मार्क्स प्रमुख हैं । मगर इन दोनों के विचारों में अन्तर है । जहाँ सिम्मेल के अनुसार संघर्ष समाज व्यवस्था के लिए । विघटनकारी ही नहीं बल्कि समाज व्यवस्था के लिए फायदेमन्द तथा व्यवस्था को सुदृढ़ करता है । कार्ल मार्क्स के अनुसार संघर्ष से समाज में परिवर्तन होता है तो सिम्मेल कहते हैं कि प्रत्येक संघर्ष समाज को परिवर्तित नहीं करता है                        

       सिम्मेल के अनुसार संघर्ष के दो कारण हैं 

1.व्यक्ति की संघर्षशील मूल प्रवृत्ति एवं 

2.सामाजिक संबंधों के प्रकार ।

ये दोनों तत्व संघर्ष को आवश्यक घटना बनाते हैं । 

संघर्ष के परिवर्त्य :

               1.समाज में नियमन की मात्रा

                2.सीधे संघर्ष की मात्रा एवं 

                3.संघर्षरत पक्षों में तीव्रता की मात्रा

 जब समाज में नियमन की मात्रा अधिक होगी तो संघर्ष प्रतिस्पर्धा बनकर रह जाएगा तथा संगठन मजबूत होगा । अगर समाज में हिंसा अधिक होगी तो संगठन घटेगा । 

संघर्ष के सैद्धान्तिक सूत्र – सिम्मेल के संघर्ष के सैद्धान्तिक सूत्र निम्नलिखित हैं- 

1.संघर्षरत दलों का संघर्ष में जितना अधिक संवेगीय लगाव होगा संघर्ष उतना ही अधिक तीव्र होगा ।

2 . संघर्षरत दल , संघर्ष के दौरान जितने अधिक संगठित होंगे , संघर्षात्मक मुकाबले में उतना ही अधिक भावावेश में आकर व्यवहार करेंगे । 

 3.संघर्षरत दल के सदस्य जितनी अधिक मात्रा में अपने निजी हितों का त्याग करेंगे संघर्ष में उतने ही भावावेश में व्यवहार करेंगे । 

4.यदि संघर्ष का उपयोग , किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधन के रूप में किया जायेगा तो संघर्ष कम तीव्र होगा ।               सिम्मेल द्वारा सैद्धांतिक व्याख्या में कहा गया है कि संघर्ष का लक्ष्य स्पष्ट हो जाने से संघर्षरत दल यह देखते हैं कि कम – से – कम कीमत पर लक्ष्य की प्राप्ति कैसे होगी । कम – से – कम कीमत का अर्थ है संघर्ष के द्वारा हिंसा और तीव्रता के विकल्प को नहीं चूना जायेगा । 

संघर्ष के परिणाम या प्रकार्य – सिम्मेल के अनुसार संघर्ष के परिणाम संघर्षरत दल तथा पूरे समाज पर पड़ता है । संघर्ष के परिणामों को सूत्र रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है । 

1.संघर्ष के परिणामस्वरूप संघर्षरत दलों की एकता बढ़ती जाती है । 

2.संगठित होकर संघर्षरत दल जब प्रयास करते हैं तो तीव्र संघर्ष की मात्रा घटती है । ऐसा इसलिए होता है कि संगठित दल की मात्र धमकी से ही लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती और तीव्र । संघर्ष या हिंसा की नौबत नहीं आती है जिसके कारण सामाजिक एकीकरण बढ़ता है । मार्क्स का अभिव्यक्ति अधिक होती है । मत इसके विपरीत है कि दलों के संगठित होने से संघर्ष का ध्रुवीकरण होता है और हिंसात्मक अभिव्यक्ति अधिक होगी I

3.संघर्षरत दलों का संघर्ष जितना तीव्र होगा उन दलों का संगठन और आंतरिक व्यवस्था , उतनी ही अधिक संगठित होगी । 

4.संघर्षरत दल जितने ही कम संगठित होंगे , और अगर संघर्ष की मात्रा तीव्र होगी तो दलों में तानाशाही की प्रवृत्ति बढ़ेगी ।

5.यदि संघर्ष तीव्र होगा . और संघर्षरत लोटे या अल्पसंख्यक होंगे तो उनमें आंतरिक एकता बढ़ेगी । 

6.संघर्षरत दल जब आत्मरक्षा के लिए संघर्ष करेगा तो उसका संगठन तथा एकता होगी । सिम्मल के विचारों की तलना मार्क्स के विचारों से करने स्पष्ट है कि मार्क्स सामाजिक संघर्ष का आनवार्य घटना मानते हैं , जबकि सिम्मेल सहयोगात्मक और असहयोगात्मक दोनों प्रवृत्तिया को महत्त्व देता है । मार्क्स के अनुसार संघर्ष से समाज परिवर्तित होता है जबकि सिम्मेल कहते हैं कि प्रत्येक संघर्ष परिवर्तन नहीं लाता है । 

संघर्ष से परिवर्तन : 

 

 1.एकता

2 . संगठित होकर संघर्ष 

          3.तीव्र संघर्ष एवं

4 . तानाशी की प्रवृत्ति 

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राल्फ डेहरेन्डार्फ:

         1929 में जन्मे जर्मन समाजशास्त्री राल्फ डेहरेन्डार्फ , मार्क्स के स्वदेशी हैं । मार्क्स की तरह वह भी द्वन्द्वादी योजना के आधार संघर्ष सिद्धांत की व्याख्या करते हैं किन्तु संघर्ष के अन्य मुद्दों पर इन दोनों के विचारों में गहरे मतभेद दिखाई पड़ते हैं । संघर्ष सिद्धांत की व्याख्या इन्होंने अपनी पुस्तक ” क्लास एण्ड क्लास कंफ्लिक्ट इन इण्डस्ट्रियल सोसायटी “(Class and Class Conflict in Industrial Society) 1959 में तथा ” टोडिस के जेनरल थ्योरी ऑफ सोशियोलॉजी में की है । उन्होंने अपने सिद्धांत को यूरोप और अमेरिका के आधुनिक औद्योगिक समाज के संदर्भ में प्रस्तुत किया है । डेहरेन्डार्फ ने कहा है कि किसी भी समाज व्यवस्था के दो पहलू होते हैं- 

                                       1.सर्वसम्मति एवं            

 2.संघर्ष । 

पारसन्स सहित अन्य प्रकार्यवादियों ने सहमति वाले पक्ष पर काफी प्रकाश डाला है , जबकि समाज के दूसरे पहलू संघर्ष की उपेक्षा की है । 

        अपने सिद्धांत में डेहरेन्डार्फ मार्क्स से द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया तथा वेबर से सत्ता और शक्ति की अवधारणा को सम्मिलित किया है । टर्नर ने डेहरेन्डार्फ के सिद्धांत के द्वन्द्वात्मक संघर्ष सिद्धान्त नाम दिया है । द्वन्द्वात्मक इसलिए कि किसी भी समाज में संघर्ष दो वर्गों के बीच निरन्तर चलता रहता है ।

        डेहराडार्फ के अनुसार वर्ग निर्माण का आधार शक्ति एवं सत्ता है । शक्ति एवं सत्ता के असमान विभाजन से ही समाज में दो वर्ग होते हैं-

              1.दमनकारी या शक्तिशाली वर्ग एवं 

              2.दमित या शक्तिहीन वर्ग । 

दमनकारी वर्ग , वह है जो सत्ता पर काबिज होते हैं तथा यथास्थितिवाद चाहते हैं । दमित वर्ग वह है जिसके पास शक्ति एवं सत्ता का अभाव होता है तथा जो शासित होते है । ये हमेशा प्रयलशील रहते हैं कि शक्ति का पुनर्वितरण हो ।                   

        डेहरेन्डार्फ के अनुसार किसी भी छोटे समूह औपचारिक संगठन या समुदाय अथवा पूरे समाज को “आदेश सूचक समन्वित समाज” की संज्ञा दे सकते हैं । इनका कहना है कि किसी भी आदेश – सूचक समन्वित समाज में शक्ति एवं सत्ता का न केवल असमान वितरण होता है बल्कि उस पर चलता रहता है । इस संघर्ष के फलस्वरूप शक्तिहीन वर्ग शक्तिशाली वर्ग को पराजित कर सता प्राप्त कर लेता है । इस तरह सामाजिक परिवर्तन होता है । 

      अपनी पुस्तक ” क्लास एण्ड क्लास कंफ्लिक्ट ” में उन्होंने संघर्ष के बारे में निम्नलिखित प्रस्ताव दिये हैं-

1.किसी भी आदेश – सूचक समन्वयित समाज के लोगों में वास्तविक समाज के बारे में जितना अधिक चेतना होगी उतनी ही अधिक उनकी संघर्ष करने की संभावना होगी।

2.अधिक तकनीकी, राजनैतिक और सामाजिक दशाओं की आवश्यकताओं की।  पूर्ति संगठन में होगा, उसी तरह संघर्ष अधिक तीव्र होगा।

3.दमनकारी और दमित समूहों में जितना कम गतिशीलता होगी उतना ही अधिक होगा।

4.संघर्ष जितना अधिक गहरा, सघन और हिंसात्मक होगा, उतना ही अधिक सामाजिक परिवर्तन होगा।

  

आलोचना: आर० के० मर्टन एंड अमिटाई इटज्योनी का कहना है कि उसने समाज में संघर्ष की प्रक्रिया को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है और सहयोग की भूमिका को अनदेखा कर दिया गया है।

        कोजर का मानना ​​है कि उन्होंने संघर्ष के ऐसे योगदानों की चर्चा नहीं की है जो सामाजिक स्थिति को मजबूत करता है। 

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