श्रम – विभाजन

श्रम – विभाजन

 ( Division of Labour )

दुर्थीम द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों में श्रम – विभाजन के सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है । दुर्थीम से पहले एडम स्मिथ ( Adam Smith ) , स्पेन्सर ( Spencer ) . तथा जॉन स्टुअर्ट मिल ( John Stuart Mill ) जैसे अनेक विद्वानों ने आर्थिक आधार पर श्रम – विभाजन की विवेचना की थी लेकिन दुर्थीम वह प्रथम समाजशास्त्री हैं जिन्होंने सामाजिक आधार पर श्रम – विभाजन का समाजशास्त्रीय सिद्धान्त प्रस्तुत किया दुर्थीम से पूर्व कुछ उपयोगितावादी विचारकों ने यह स्पष्ट किया था कि मनुष्य ने अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों को प्राप्त करने तथा अपनी सुविधा के लिए श्रम विभाजन की व्यवस्था विकसित की । इसके अतिरिक्त अर्थशास्त्रियों का मत था कि ” श्रम – विभाजन मनुष्य द्वारा निर्मित एक ऐसा विवेकपूर्ण साधन है जिसके द्वारा समूह की उत्पादकता को बढ़ाने का प्रयत्न किया गया । ” 

स्पेन्सर ने श्रम – विभाजन की चर्चा सामाजिक उद्विकास के एक विशेष स्तर तथा कारण के रूप में की । ऐसे सभी विचारों से असहमत होते हुए दुर्शीम ने यह स्पष्ट किया कि श्रम – विभाजन एक ऐसा चर ( Variabale ) है जिसे सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारक के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । इसके साथ – ही – साथ दुर्थीम यह भी स्पष्ट करना चाहते थे कि श्रम – विभाजन उन प्रमुख आधारों में से एक है जो समाज में एकता उत्पन्न करता है तथा लोगों को एक – दूसरे के निकट लाता है । इस प्रकार अपनी पुस्तक ‘ समाज में श्रम – विभाजन ‘ ( The Divison of Labour in Society ) के दूसरे भाग में दुर्थीम ने एक ओर श्रम – विभाजन के प्रारम्भिक तथा आधुनिक स्वरूप को स्पष्ट किया तो दूसरी ओर उन्होंने श्रम – विभाजन के सामाजिक परिणामों पर प्रकाश डालकर इनसे सम्बन्धित प्रवृत्तियों का उल्लेख किया । इस दृष्टिकोण से प्रस्तुत विवेचन में श्रम – विभाजन के सामाजिक कारकों , श्रम – विभाजन की प्रक्रिया तथा इसके प्रभावों के सन्दर्भ में दुर्थीम के विचारों को समझना आवश्यक है ।

 श्रम – विभाजन के सामाजिक कारक ( Social Factors of Division of Labour ) दुखीम के अनुसार श्रम – विभाजन मुख्यतः एक सामाजिक घटना है जो प्रत्येक युग में सभी समाजों की आवश्यक विशेषता रहीं है । प्राचीन समाजों में भी श्रम – – विभाजन का आधार आर्थिक न होकर पूर्णतया सामाजिक ही था । उस समय उत्पादन केवल व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया जाता था , अतः समाज में किसी तरह की आर्थिक असमानताएँ नहीं थीं । उस समय केवल आयु और लिग के आधार पर ही श्रम – विभाजन की व्यवस्था विद्यमान थी । इस श्रम – विभाजन – में पुरुषों का काम शिकार करने तथा खाने योग्य पदार्थों का संग्रह करने के लिए दर – दूर के स्थानों पर जाना था जबकि स्त्रियों का कार्य बच्चों का पालन – पोषण करना तथा पारिवारिक दायित्वों को पूरा करना था । सामाजिक विकास की प्रक्रिया में बाद में असक ऐसी दशाएं उत्पन्न हो गयीं जिन्हें श्रम – विभाजन के प्रमुख कारकों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । यह कारक मुख्यतः तीन हैं :

( 1 ) जनसंख्या का आकार ( Size of Population ) – – दुर्शीम का मत है कि समाज में जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि होती रहती है । जनसंख्या – वृद्धि के कारण ही समाज के आकार में वृद्धि होती है जब कभी भी समाज का आकार बढ़ता है तब व्यक्तियों की आवश्यकताएँ भी बढ़ने लगती हैं । यही दशा श्रम – विभाजन को प्रोत्साहन देने वाला प्रमुख कारक बन जाता है ।

 ( 2 ) भौतिक घनत्व ( Material Density ) – भौतिक घनत्व से दुर्थीम का तात्पर्य जनसंख्या के उस घनत्व से है जो किसी विशेष क्षेत्र में पाया जाता है किसी समाज में जब जनसंख्या में वृद्धि होती है तब वहाँ जनसंख्या का घनत्व अथवा भौतिक घनत्व भी बढ़ने लगता है । इसी के साथ व्यक्तियों की आवश्यकताओं में और अधिक बृद्धि होती है । आवश्यकताएँ बढ़ने के साथ बड़ी मात्रा में उत्पादन की आवश्यकता अनुभव की जाने लगती है जिसके फलस्वरूप श्रम – विभाजन में वृद्धि होने लगती है । इसी स्तर पर श्रम – विभाजन का सामाजिक पक्ष उसके आर्थिक पक्ष से मिलने लगता है ।

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( 3 ) नैतिक घनत्व ( Moral Density ) – इस शब्द का प्रयोग दुर्थीम ने व्यक्तियों की एक ऐसी नैतिकता को स्पष्ट करने के लिए किया जिसके फलस्वरूप सामाजिक सम्बन्धों की प्रकृति में परिवर्तन होने लगता है । उनका विचार है कि जब ( संचार के साधनों में वृद्धि होने से व्यक्तियों तथा समूहों के सम्बन्धों में घनिष्ठता उत्पन्न होने लगती है तब इसे नैतिक धनत्व में होने वाली वृद्धि मानना चाहिए । प्राचीन समाजों में व्यक्तियों के सम्बन्ध अपने परिवार अथवा एक छोटे से समूह तक ही सीमित थे । इस समय उनके सम्बन्धों का आधार केवल सामाजिक था , आर्थिक अथवा वैधानिक नहीं । इसके पश्चात जैसे – जैसे विभिन्न समूहों में जनसंख्या की वृद्धि हुई तथा उनकी आवश्यकताएं बढ़ने लगीं , इन बढ़ी हुई आवश्यकताओं को पूरा करने एवं व्यक्तियों के व्यवहारों पर प्रभावपूर्ण ढंग से नियन्त्रण स्थापित करने के लिए परिवहन और संचार के साधनों का विकास होने लगा । संचार से उत्पत्र होने वाले नये सम्बन्धों को नियन्त्रित करने के लिए उनके बीच वैधानिक सम्बन्धों ( Legal Relationships ) की आवश्यकता महसूस की जाने लगी । यही कारण है कि आरम्भ लो पूर्णतया सामाजिक था उसमें आर्थिक तथा वैधानिक विशेषताओं है कि व्यक्तियों के अन्तर्सम्बन्धों की प्रकृति में होने वाले परिवर्तन को ही दुर्सीम ने समाज में उत्पन्न होने वाली नयी नैतिकता के रूप

में स्वीकार किया तथा इसे श्रम – विभाजन को प्रोत्साहन देने वाले एक प्रमुख सामा . जिक कारक के रूप में प्रस्तुत किया । श्रम – विभाजन की वृद्धि के लिए दुीम ने उपयुक्त जिन कारकों को महत्त्व पूर्ण माना है , उनके प्रभाव को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है : जनसख्या में सरल जनसख्या के समाज घनत्व में वृद्धि विभाजन संचार साधनों में वृद्धि इस चित्र से स्पष्ट होता है कि किसी सरल समाज में जब जनसंख्या में वृद्धि होती है , जनसंख्या का घनत्व बढ़ता है तथा संचार के साधनों में विस्तार होने लगता है तब वहाँ श्रम – विभाजन में भी वृद्धि होने लगती है । किसी समाज में जैसे जैसे श्रम – विभाजन में वृद्धि होती है , वह समाज एक जटिल समाज का रूप लेने लगता है । श्रम – विभाजन द्वारा किस प्रकार सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को प्रभावपूर्ण बनाया जाता है , इसे समझने के लिए आवश्यक है कि निम्नांकित विवेचन में श्रम – विभाजन की प्रक्रिया तथा इसके प्रभावों को समझा जाय ।

 श्रम – विभाजन की प्रक्रिया तथा प्रभाव ( Process and Effect of Division of – Labour ) श्रम – विभाजन की प्रक्रिया की चर्चा करते हुए दुर्थीम ने बतलाया कि ” श्रम विभाजन समाजों के आकार तथा घनत्व के प्रत्यक्ष अनुपात में बढ़ता है एवं सामाजिक विकास की दशा में यदि इसमें निरन्तर वृद्धि होती रहती है तो इसका तात्पर्य भी यही है कि उन समाजों के आकार तथा घनत्व में नियमित रूप से वृद्धि हो रही है । ”  इस कथन से स्पष्ट होता है कि जैसे – जैसे समाज का आकार और जनसंख्या का घनत्व बढ़ता है , वैसे – ही – वैसे व्यक्तियों के बीच अधिक सम्पर्क स्थापित होने लगता है । जब अधिक व्यक्ति एक – दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तब इससे न केवल उनके बीच प्रतियोगिता बढ़ती है बल्कि अस्तित्व के लिए संघर्ष की दशा भी उत्पन्न हो जाती है । दुर्वीम ने सामाजिक नैतिकता को महत्त्व देते हुए स्पष्ट किया कि व्यक्ति संघर्ष से बचना चाहता है जिसके लिए वह एक शान्तिपूर्ण रास्ता खोजन इस शातिष्ठण खोज अथवा समाधान को ही दुर्शीम ने सामाजिक धाकरण) के नाम से सम्बोधित किया ।सामाजिक विभेदीकरण एक ऐसा तरीका है जिसके अन्तर्गत सभी व्यक्ति कमरे से भिन्न कार्यों के आधार पर अनेक समूहों में विभाजित हो जायें । जब जिक विभेदीकरण में वृद्धि होती है तब एक व्यक्ति की प्रतियोगिता समाज के भी व्यक्तियों से नहीं होती बल्कि वह केवल उन्हीं लोगों से प्रतियोगिता करता है को उसी के समान व्यवसाय में लगे हुए हों । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि सामाजिक विभेदीकरण विकसित हो जाने पर एक राजनीतिज्ञ की प्रतियोगिता बल दसरे राजनीतिज्ञों से , डॉक्टर की प्रतियोगिता अन्य डॉक्टरों से तथा व्यापारियों की प्रतियोगिता केवल व्यापार करने वाले व्यक्तियों से ही होगी । इस दशा में किसी लोहार की प्रतियोगिता डॉक्टर से अथवा डॉक्टर की प्रतियोगिता किसी जुलाहे से नहीं हो सकती । इस प्रकार दुखीम ने यह स्वीकार किया कि श्रम – विभाजन अस्तित्व के लिए होने वाले संघर्ष का परिणाम ( Result of the Struggle for Existence ) है । दुर्थीम ने जिन चरणों के द्वारा श्रम – विभाजन की प्रक्रिया को स्पष्ट किया है , सरल रूप से उन्हें निम्नांकित चित्र के द्वारा समझा जा सकता है : जनश्याम प्रतियोगिता मिनरल्या समाज सामाजिक टलाद संघर्ष सचार साधनोमेति दुर्थीम ने स्पष्ट किया कि श्रम – विभाजन की प्रक्रिया के आधार पर ही समाज में विभिन्न परिवर्तन होते हैं । इन्हीं परिवर्तनों के कारण सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन उत्पन्न हो जाते हैं । श्रम – विभाजन की दशा समाज में जो परिवर्तन उत्पन्न करती है अथवा यह जिस रूप में समाज को प्रभावित करती है , तुर्कीम के चिन्तन के आधार पर उसे निम्नांकित्त क्षेत्रों में स्पष्ट किया जा सकता है ।

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 ( I ) विशेषीकरण ( Specialization ) – दुखीम का कथन है कि समाज में जैसे – जैसे श्रम – विभाजन बढ़ता है , व्यक्तियों में विशेषीकरण बढ़ने लगता है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि श्रम – विभाजन तथा विशेषीकरण समानुपातिक हैं तथा इनके बीच एक सकारात्मक सम्बन्ध है । श्रम – विभाजन के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष कार्य के द्वारा ही आजीविका उपाजित करता है । लम्बी अवधि तक एक विशेष कार्य करते रहने के कारण उस कार्य में व्यक्ति विशेष कुशलता अजित कर लता हैREलान में सम्पूर्ण समाज कुछ ऐसे समूहों में विभाजित हो जाता है जो ही अधिक दक्ष होते हैं । श्रम – विभाजन के इस प्रभाव का उल्लेख करते हए रसेल तथा हीरालाल ने अपनी पुस्तक ‘ कास्ट एण्ड ट्राइब्स ओक सेन्ट्रल प्रॉविन्स ‘ ( Caste and Tribes of Central Province ) में यह स्पष्ट किया है कि भारत में विभिन्न जातियों को एक विशेष कार्य को करने में इसीलिए विशेष कुशलता प्राप्त हो सकी कि यहाँ व्यावसायिक आधार पर जातियों का निर्माण एवं पुनः विभाजन श्रम – विभाजन के सामाजिक स्वरूप का ही परिणाम था ।

 ( 2 ) प्रतियोगिता ( Competition ) – दुर्थीम ने बतलाया कि समाज में | श्रम – विभाजन के कारण जब प्रत्येक व्यक्ति अपने – अपने कार्य में विशेष कुशलता प्राप्त कर लेता है तब समान व्यवसाय में लगे हुए व्यक्तियों के बीच प्रतियोगिता होने लगती है । दुर्थीम का मत है कि श्रम – विभाजन के कारण प्रत्येक व्यक्ति की सभी | दूसरे व्यक्तियों से प्रतियोगिता नहीं होती बल्कि यह प्रतियोगिता केवल उन्हीं व्यक्तियों तक सीमित रहती है जो समान व्यवसाय के द्वारा आजीविका उपार्जित करते हैं । एक ही व्यावसायिक वर्ग से सम्बन्धित लोगों के बीच प्रतियोगिता होने से प्रत्येक व्यक्ति न केवल अपने कार्य के महत्त्व को समझने लगता है बल्कि वह अपने व्यवसाय की प्रगति के लिए भी विशेष योगदान देने लगता है । इसका तात्पर्य – है कि प्रतियोगिता श्रम – विभाजन का एक ऐसा परिणाम है जो व्यावसायिक प्रगति के | लिए आवश्यक है ।

( 3 ) कार्य का महत्त्व ( Importance of Work ) – प्रतियोगिता में वृद्धि । होने से प्रत्येक व्यक्ति की अपने कार्य में रुचि बढ़ती है । इस आधार पर दुर्शीम ने | बतलाया कि श्रम – विभाजन वह प्रक्रिया है जो समाज में कार्य के महत्त्व को बढ़ाती है । समाज में एक वर्ग – विशेष के लोगों द्वारा जो कार्य किया जाता है , उस कार्य को दूसरे लोग नहीं कर सकते । इससे समाज में न केवल प्रत्येक वर्ग द्वारा किया जाने वाला कार्य महत्त्वपूर्ण हो जाता है बल्कि श्रम के प्रति व्यक्ति की निष्ठा भी बढ़ने लगती है ।

 ( 4 ) पारस्परिक निर्भरता ( Interdependence ) – श्रम – विभाजन के परि णामस्वरूप समाज में अनेक व्यावसायिक वर्गों अथवा खण्डों का निर्माण होता है । श्रम – विभाजन से पहले एक व्यक्ति अपनी आवश्यकता से सम्बन्धित सभी कार्यों को स्वयं करता था लेकिन श्रम – विभाजन होने से प्रत्येक व्यक्ति दूसरे लोगों के कार्यों पर अधिक – से – अधिक निर्भर होने लगता है । उदाहरण के लिए , कुछ समय पहले तक एक किसान अपनी आवश्यकता की सभी वस्तुओं का निर्माण स्वयं कर लेता था लेकिन समाज में श्रम – विभाजन बढ़ने के पश्चात् आज एक किसान अपने हल के लिए बढ़ई पर , वस्त्रों के लिए जुलाहों पर तथा अन्य वस्तुओं के लिए दूसरे व्यवसायों में लगे लोगों पर निर्भर रहने लगा है । दुर्थीम का विचार है कि समाज में जैसे – जैसे श्रम विभा बढ़ता है , वैसे – ही – वैसे लोगों की पारस्परिक निर्भरता भी बढ़ती

 ( 5 ) सहयोग ( Cooperation ) – दुर्थीम सहयोग को श्रम – विभाजन के एक आवश्यक परिणाम के रूप में देखते हैं । समाज में जब प्रत्येक व्यक्ति दूसरे लोगों रा उत्पादित वस्तुओं पर निर्भर होने लगता है तब वह एक – दूसरे को सहयोग देने गता है । इसका तात्पर्य है कि श्रम – विभाजन की दशा में यदि सहयोग की भावना मा विकास नहीं होगा तो समाज में किसी भी व्यक्ति का अस्तित्व सुरक्षित नहीं रह गा । इसका तात्पर्य है कि श्रम – विभाजन की स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा दूसरों को सहयोग देना और उनसे सहयोग प्राप्त करना व्यक्तियों की आवश्यकता बन जाती है । इसके साथ ही यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि श्रम – विभाजन के अन्तर्गत जिस सहयोग में वृद्धि होती है वह हित – प्रधान तथा ताकिक सम्बन्धों पर आधारित होता है । तार्किक सम्बन्धों पर आधारित सहयोग ही समाज को सावयवी एकता की ओर ले जाता है ।

( 6 ) व्यक्तिवाद ( Individualism ) – समाज में श्रम – विभाजन से विशेषी करण में वृद्धि होती है तथा विशेषीकरण के प्रभाव से व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन मिलता है । इस व्यक्तिवाद का सम्बन्ध वैयक्तिक कार्य के महत्त्व से है । इसका तात्पर्य है कि श्रम – विभाजन के कारण व्यक्ति जब एक विशेष कार्य में अधिक निपुण हो जाता है तो एक विशेष कार्य को करने वाला व्यक्ति अपन कार्य के महत्व को समझने लगता है । यही बोध उसमें व्यक्तिवादी भावनाएँ विकसित करता है । उदाहरण के लिए , भारतीय समाज में अनेक निम्न जातियाँ परम्परागत रूप से कुछ व्यवसाय करती रही हैं । लेकिन वर्तमान भारतीय समाज में श्रम – विभाजन बढ़ने से मृत पशुओं को उठाने का काम करने वाली जातियाँ भी अपने कार्य के महत्व को समझने लगीं । इसी महत्व को समझने के कारण यह जातियाँ अधिक संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने लगी हैं क्योंकि वे जानती हैं कि साधारणतया इस कार्य को उनके अतिरिक्त अन्य वर्गों के लोग नहीं कर सकते । यही कार्य से उत्पन्न होने वाला व्यक्तिवाद ‘ है । दुर्थीम ने यह स्पष्ट किया कि श्रम – विभाजन व्यक्तिवाद को अवश्य बढ़ाता है लेकिन यह व्यक्तिवाद पूरी तरह अहंवादी ( Egoistic ) अथवा सुखवादी ( Hedonistic ) नहीं होता । ऐसा व्यक्तिबाद सामाजिक स्वास्थ्य अथवा सामाजिक एकता में वृद्धि करके सामाजिक जीवन को संगठित बनाने में योगदान करता है ।

 ( 7 ) वर्ग – संघर्ष ( Class – Conflict ) – दुर्थीम ने श्रम – विभाजन से उत्पन्न होने वाले परिणामों में इसके कुछ दुष्प्रभावों की भी चर्चा की है । इनमें वर्ग – संघर्ष तथा सामाजिक विघटन श्रम – विभाजन के प्रमुख दुष्प्रभाव हैं । श्रम – विभाजन से न कवल व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन मिलता है बल्कि प्रत्येक वर्ग के लोग अपने कार्य के महत्व को समझने के कारण अन्य वर्गों के प्रति अनुदार होने लगते हैं । यह दशा समाज को अनेक ऐसे वर्गों में विभाजित कर देती है जो स्वयं को एक – दूसरे से पृथक C ला अक्सर विभिन्न वर्गों के बीच सहयोग के स्थान पर संघर्ष आरम्भ हो जाता है । अक्सर इसकी परिणति सामाजिक विघटन रूप में देखने को मिलती है । यह सच है कि बर्ग – संघर्ष से समाज अधिक गतिशील बन जाता है लेकिस ऐसी गतिशीलता सदैव रचनात्मक नहीं होती । श्रम विभाजन के उपयुक्त सामाजिक सिद्धान्त के द्वारा दुर्थीम ने यह निष्कर्ष दिया कि श्रम – विभाजन एक स्थिर दशा नहीं है बलि अपनी प्रकृति से परिवर्तनशील होने के कारण यह सामाजिक विकास के विभिन्न स्तरों को स्पष्ट करती है । यह सच है कि श्रम – विभाजन के कारण अस्तित्व के लिए होने वाला संघर्ष कुछ कठिन जरूर हो जाता है लेकिन श्रम – विभाजन में होने वाली प्रत्येक वृद्धि लोगों की पारस्परिक निर्भरता को बढ़ाकर सामाजिक एकता में वृद्धि करती है । इस दृष्टिकोण से श्रम – विभाजन के सामाजिक महत्व को नकारा नहीं जा सकता ।

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समालोचना ( Critique ) दुखीम द्वारा प्रस्तुत सामाजिक एकता एवं श्रम – विभाजन से सम्बन्धित सिद्धान्त निश्चित रूप से एक नवीन दृष्टिकोण पर आधारित हैं । दुर्थीम से पहले विभिन्न समाजशास्त्रियों ने श्रम – विभाजन की अवधारणा को केवल आर्थिक आधार पर प्रस्तुत किया था । इनमें से किसी भी विद्वान ने श्रम – विभाजन तथा सामाजिक एकता के बीच कोई सम्बन्ध स्पष्ट नहीं किया । दुर्थीम वह पहले समाजशास्त्री हैं जिन्होंने श्रम – विभाजन के सामाजिक पक्ष को स्पष्ट करते हुए इसके माध्यम से सामाजिक विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट किया । इसके पश्चात् भी अनेक विद्वानों ने दुर्थीम के विचारों के कुछ पक्षों को स्वीकार नहीं किया है । सर्वप्रथम यह कहा जाता है कि यदि हम दुर्थीम द्वारा प्रस्तुत सामाजिक एकता तथा श्रम – विभाजन की अवधारणाओं का मूल्यांकन करें तो स्पष्ट होता है कि – इन अवधारणाओं में एक ओर सामूहिक चेतना पर आवश्यकता से अधिक बल दे दिया गया है जबकि दूसरी ओर दुीम ने यह मान लिया है कि श्रम – विभाजन अनिवार्य रूप से जनसंख्या वृद्धि का ही परिणाम होता है । इस सम्बन्ध में बार्स ने लिखा है , ” ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्थीम के श्रम – विभाजन के सिद्धान्त में समाज शास्त्रीय आधार की अपेक्षा जैविकीय आधार को अधिक महत्वपूर्ण मान लिया गया है । ” इससे दुर्थीम के विश्लेषण की वैज्ञानिकता कम हो जाती है । दुर्थीम का यह निष्कर्ष भी सन्देहपूर्ण है कि श्रम – विभाजन का एक आवश्यक प्रकार्य सामाजिक एकता में वृद्धि करना है । अनेक दशाओं में श्रम – विभाजन बढ़ने के साथ सामाजिक एकता में कमी भी दिखलाई देने लगती है । इसका तात्पर्य है कि दुर्थीम ने अनेक ऐसे सामाजिक कारकों की अवहेलना की है जो सामाजिक एकता को अनुकूल तथा प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं । यह भी आरोप लगाया गया है कि दुखीम ने जिस रूप में यान्त्रिक तथा सावयवी एकता की विवेचना की है , उसमें स्पेन्सर द्वारा प्रस्तुत मानदण्डों का ही प्रयोग किया गया है । इस आधार पर यान्त्रिक एव एकता के विश्लेषण को दुर्थीम के मौलिक चिन्तन से सम्बन्धित नहीं कहा जा सकता ।

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