शोध अभिकल्प 

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शोध अभिकल्प 

( Research Design )

  

अन्वेषण ( Inquiry ) प्रारम्भ करने से पूर्व हम प्रत्येक अनुसन्धान समस्या के विषय में उचित रूप से सोच – विचार करने के पश्चात् यह निर्णय ले लें कि हम किन ढंगों एवं कार्यविधियों ( Proecdures ) का प्रयोग करते हुए कार्य करना है तो नियन्त्रण को लागू करने की प्राशा बढ़ जाती है । अनुसन्धान व प्ररचना निर्णय की वह प्रक्रिया है जो उन परिस्थितियों के पूर्व किए जाते हैं जिनमें ये निर्णय कार्य रूप में लाए जाते हैं । अनेक सामाजिक वैज्ञानिकों ने अनुसन्धान प्ररचना को परिभाषित किया है । यहाँ कुछ परिभाषाओं को हम देख सकते हैं । सेलिज , जहोदा , ड्यूश एवं कुक ने अपनी पुस्तक ‘ रिसर्च मेथड्स इन सोशल रिलेशन्स ‘ में अनुसन्धान प्ररचना को परिभाषित करते हुए लिखा है कि ” एव अनुसन्धान प्ररचना प्रांकड़ों के एकत्रीकरण एवं विश्लेषगा के लिए उन दणामों का प्रबन्ध करती है जो अनुसन्धान के उद्देश्यों की संगतता को कायरीतियों में पाथिक नियन्त्रण के साथ सम्मिलित करने का उद्देश्य रखती है ।

 ” प्रार . एल . ऐकॉफ ने अपनी पुस्तक का नाम ही ‘ दि डिजाइन ऑफ सोशल रिसर्च ‘ रखा है । आपके अनुसार , ” प्ररचित करना नियोजित करना है , अर्थात प्ररचना ( Design ) उस परिस्थिति के उत्पन्न होने से पूर्व निर्णय लेने की प्रक्रिया जिसमें निर्णय को लाग किया जाना है । यह एक सम्भावित स्थिति को नियन्त्रण में लाने की दिशा में एक पूर्व प्राशा ( Anticipation ) की प्रक्रिया है ।

अभिकल्प या प्ररचना ( Design ) शब्द का अभिप्राय पूर्व निर्धारित रूपरेखा है । एकोफ ने प्ररचना शब्द की व्याख्या या उपमा ( Analogy ) द्वारा की है । एक भवन निर्माणकर्ता भवन का अभिकल्प या प्ररचना पहले से ही बना लेता है कि यह  कितना बड़ा होगा , इसमें कितने कमरे होंगे , कौन – सी सामग्री का प्रयोग इसमें किया जाएगा इत्यादि । ये सब निर्णय वह भवन – निर्माण से पहले ले लेता है ताकि भवन के बारे में एक ‘ नक्शा ‘ बना ले तथा यदि इसमें किसी प्रकार का संशोधन करना है तो निर्माण शुरू होने से पहले ही किया जा सके । शोध अभिकल्प या प्ररचना की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं एकोफ – “ अभिकल्प या प्ररचना का अर्थ योजना बनाना है , अर्थात् प्ररचना पूर्व निर्णय लेने की प्रक्रिया है ताकि परिस्थिति पैदा होने पर इसका प्रयोग किया जा सके । यह सूझ – बूझ एवं पूर्वानुमान की प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य अपेक्षित परिस्थिति पर नियन्त्रण रखना है ।

सामाजिक शोध में समस्या के चुनाव व निरूपण तथा प्राक्कल्पनाओं का निर्माण कर लेने के पश्चात् शोध अभिकल्प या प्ररचना बनाई जाती है । इसका कार्य शोध को एक निश्चित दिशा प्रदान करना है । किसी भी सामाजिक शोध की प्रक्रिया को समुचित रूप में पूरा करने के लिए प्रारम्भ में ही निर्धारित की गई योजना की रूपरेखा को सामाजिक शोध की प्ररचना कहा जाता है । एक अच्छी शोध प्ररचना , सामग्री के संकलन की त्रुटियों को कम करके मानवीय श्रम की बचत भी करती है तथा बाद में आने वाली त्रुटियों तथा कठिनाइयों की सम्भावना प्रायः पहले ही समाप्त कर देती है ।शोध अभिकल्प या प्ररचना शब्द का अर्थ समझने के लिए पहले ‘ शोध ‘ तथा ‘ अभिकल्प ‘ या ‘ प्ररचना ‘ शब्दों का अर्थ समझ लेना जरूरी है ।

सेनफोर्ड लेबोबिज एवं रॉबर्ट हैगडान ने भी ‘ इन्ट्रोडक्शन टू सोशल रिसर्च ‘ में इसे परिभाषित करते हुए लिखा है कि ” एक अनुसन्धान प्ररचना उस ताकिक ढंग को प्रस्तुत करती है , जिसमें व्यक्तियों एवं अन्य इकाइयों की तुलना एवं विश्लेषण किया जाता है । यह आंकड़ों के लिए विवेचन का आधार है । प्ररचना का उद्देश्य ऐसी तुलना का आश्वासन दिलाना है , जो विकल्पीय विवेचनों से प्रभावित न हो । “

सैल्टिज , जहोदा तथा अन्य के अनुसार , “ सामाजिक अनुसन्धान का अर्थ सामाजिक घटनाओं तथा तथ्यों के बारे में नवीन जानकारी प्राप्त करना है अथवा पूर्व अर्जित ज्ञान में संशोधन , सत्यापन एवं संवर्द्धन करना है । “

‘ सैल्टिज , जहोदा तथा अन्य – “ शोध प्ररचना आँकड़ों के संकलन तथा विश्लेषण की दशाओं की उस व्यवस्था को कहते हैं जिसका लक्ष्य शोध के उद्देश्य की प्रासंगिकता तथा कार्यविधि की मितव्ययिता का समन्वय करना एकोफ , सैल्टिज , जहोदा तथा अन्य विद्वानों के विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि शोध अभिकल्प या प्ररचना पूर्व निर्णय की एक प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य मितव्ययिता के आधार पर समस्या से सम्बन्धित आँकड़े एकत्रित करना और आने वाली परिस्थितियों को नियन्त्रित करना है । साथ ही , शोध के लक्ष्य के आधार पर भिन्न प्रकार की प्ररचनाएँ बनाई जा सकती हैं । यह बात ध्यान देने योग्य है कि शोध प्ररचना का सम्बन्ध शोध के दो प्रमुख चरणों – सामग्री के संकलन तथा सामग्री के विश्लेषण – से है । अतः अनुसंधान प्ररचना इनसे सम्बन्धित सर्वाधिक उपयुक्त एवं सुविधाजनक योजना या रूपरेखा है जिसका उद्देश्य शोधकर्ता को दिशा प्रदान करना तथा मानव – श्रम की बचत करना है ।

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एक अच्छी शोध अभिकल्प ( प्ररचना ) की विशेषताएँ

( Characteristics of a Good Research Design )

 शोध की सम्पूर्ण प्रक्रिया इसकी ठीक प्रकार से बनाई गई प्ररचना पर निर्भर करती है । अतः एक अच्छी शोध प्ररचना में समस्या की प्रकृति के अनुरूप अगले चरणों हेतु सही पूर्व निर्णय लेना अनिवार्य होता है । एक अच्छी शोध अभिकल्प या प्ररचना में निम्नलिखित विशेषताओं का होना अनिवार्य है

( 1 ) यह लचीली ( Flexible ) होनी चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर किसी भी चरण में थोड़ा – बहुत परिवर्तन किया जा सके ।

 ( 2 ) यह उपयुक्त ( Appropriate ) होनी चाहिए ताकि विश्वसनीय सामग्री का संकलन किया जा सके ।

 ( 3 ) यह कार्यकुशल ( Efficient ) होनी चाहिए ताकि शोध के उद्देश्यों को सफलतापूर्वक प्राप्त किया जा सके ।

 ( 4 ) यह मितव्ययी ( Economical ) होनी चाहिए ताकि उपलब्ध साधनों की  सीमाओं के अन्तर्गत ही सम्पूर्ण शोध को पूरा किया जा सके । ? वास्तव में , अच्छी शोध प्ररचना उसी को कहा जाता है जो पक्षपात की सम्भावना तो कम करती है , जबकि संकलित की जाने वाली सामग्री को विश्वसनीय रूप से संकलित करने में सहायता प्रदान करती है । प्रयोगात्मक प्ररचनाओं में वे प्ररचनाएँ अच्छी मानी जाती हैं जिनमें कम – से – कम त्रुटियाँ होती हैं । इसी प्रकार , वह शोध प्ररचना भी अच्छी मानी जाती है जो समस्या के विभिन्न पहलुओं के बारे में अधिकतम सामग्री संकलित करने में सहायक होती हैं । इसीलिए शोध प्ररचना समस्या की प्रकृति पर निर्भर करती है ।

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शोध अभिकल्प ( प्ररचना ) के उद्देश्य

( Objectives of Research Design )

 सैल्टिज , जहोदा तथा अन्य के अनुसार शोध के उद्देश्यों के आधार पर विभिन्न प्रकार की शोध प्ररचनाएँ हो सकती हैं । प्रत्येक अध्ययन का अपना एक विशिष्ट उद्देश्य होता है । शोध के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं

( 1 ) किसी घटना के बारे में जानकारी प्राप्त करना अथवा इसके बारे में नवीन ज्ञान प्राप्त करना ताकि अधिक यथार्थ ( Precise ) शोध समस्या अथवा प्राक्कल्पनाओं का निर्माण किया जा सके ।

( 2 ) किसी व्यक्ति , परिस्थति अथवा समूह की विशेषताओं का सही चित्रण करना ( इन विशेषताओं की प्रकृति से सम्बन्धित प्रारम्भिक प्राक्कल्पनाओं सहित अथवा रहित ) ।

( 3 ) किसी वस्तु के घटित होने की आवृत्ति ( Frequency ) निर्धारित करना अथवा इसका किसी अन्य वस्तु के साथ सम्बन्ध निर्धारित करना सामान्यतः परन्तु अनिवार्य रूप से नहीं , किसी प्राक्कल्पना की सहायता से ।

 ( 4 ) विभिन्न चरों में कार्य – कारण सम्बन्धों वाली प्राक्कल्पनाओं का परीक्षण करना 

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अनुसन्धान अभिकरूप की विषयवस्तु

 ( Subject – Matter of Research Design )

एक सामान्य अनुसन्धान – अभिकल्प में निम्नलिखित विषयों का उल्लेख किया जाता है ।

 ( 1 ) शोध का विषय ( Topic of Research ) – ऐसा करने से अध्ययन के विषय का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है तथा उसके क्षेत्र एवं सीमाओं का पता चल पाता है । उसके स्वरूप निर्धारण , खोज अादि के विषय में उपलब्ध साहित्य , पत्र पत्रिकाओं आदि का अध्ययन करना पड़ता है । अध्ययन के स्रोत सरकारी , गैर सरकारी , व्यक्तिगत , पुस्तकालयों या परिवेश सम्बन्धी हो सकते हैं ।

 ( 2 ) अध्ययन को प्रकृति ( Nature of Study ) – इसमें शोध का प्रकार एवं स्वरूप निर्धारित करना पड़ता है । वह सांख्यिकीय , व्यक्तिगत , तुलनात्मक , प्रायोगिक , विश्लेषणात्मक , अन्वेषणात्मक या मिश्रित प्रकार का हो सकता है ।

 ( 3 ) प्रस्तावना एवं पृष्ठभूमि ( Introduction & Background ) – इसमें उस विषय को चुनने की पृष्ठभूमि बतानी पड़ती है तथा उसकी शुरूआत करनी पड़ती है । इससे पता चल जाता है कि शोधक की उक्त विषय में रुचि किस प्रकार उत्पन्न हई तथा समस्या का स्वरूप एवं स्थिति क्या थी । अब तक उस समस्या का किस – किस ने तथा किन परिणामों को प्राप्त एवं अध्ययन किया ? उनमें क्या कमियाँ एवं त्रुटियाँ रहीं ? उनको अब दूर किया जाना किस प्रकार सम्भव एवं वांछनीय है ? आदि ।

( 4 ) उद्देश्य ( Objectives ) – इसमें अनुसन्धानकर्ता या गवेषक अपना उद्देश्य बताता है । इसमें वह उप – उद्देश्य या लक्ष्य भी प्रकट करता है , अर्थात प्रमखउद्देश्यों का उल्लेख करता है । ये प्रायः चार या पांच वाक्षों में स्पष्ट किए जाते हैं ।

 ( 5 ) अध्ययन का सामाजिक , सांस्कृतिक , राजनीतिक एवं भौगोलिक सन्दर्भ ( Social , Cultural , Political & Geographical Context of Study ) – – इसमें शोधक स्पष्ट करता है कि वह किस प्रकार के समाज एवं संस्कृति के पर्यावरण में रह रहा है तथा उसके प्रमुख मूल्य , परम्परा , मान्यताएँ आदि क्या हैं ? इसमें स्थानीय मानक रीति – रिवाज . परिपाटियाँ आदि भी पा जाती . इसके सन्दर्भ में राजनीतिक व्यवस्था , व्यवहार एवं मल्यों का उल्लेख कर दिया जाता है । भौगोलिक सन्दर्भ में मानव – व्यवहार को प्रभावित करने वाले तथ्य , स्थिति . जलवाय . प्राकृतिक बनाबट प्रकृति उत्पादन आदि पाते हैं । यदि सम्भव हो तो आर्थिक परिवेश का भी परिचय दे दिया जाना चाहिए । राजनीतिक शोध को सामाजिक , साँस्कृतिक , आर्थिक एवं औद्योगिक प्रआयामों में सामायोजित करना चाहिए ।

 ( 6 ) अवधारणा , चर एवं प्रकल्पना ( Concept , Variable & Hypothesis ) – इस क्षेत्र में सबसे पहले यदि कोई सिद्धान्त या अवधारणात्मक रूपरेखा को आधार बनाया गया है , तो उसका उल्लेख किया जाना आवश्यक है । उसके सन्दर्भ में प्रमुख अवधारणाओं को स्पष्ट किया जाना चाहिए । उनको सुनिश्चित बनाने के लिए उनकी कार्यकारी परिभाषाएँ दी जानी चाहिए । जैसे यदि ‘ भ्रष्टाचार ‘ की अवधारणा को प्रयुक्त किया गया है तो यह बताया जाना चाहिए कि उसे किन अर्थों में प्रयोग किया गया है । इसी तरह यह बताया जा सकता है कि किन – किन चरों को केन्द्रीय विषय बनाया जा रहा है तथा उनसे सम्बन्धित कौन – कौन सी प्रकल्पनायों का निर्माण किया गया हैं । जैसा कि पीछे बताया जा चका है कि प्रकल्पना यों का निर्माण गवेषणा को सुनिश्चित बना देता है तथा उनसे _ _ोध की दिशा , सीमा , क्षेत्र प्रादि निर्धारित हो जाते हैं । ना कोहन एवं नगेल ने बताया है कि हम समस्या को प्रस्तावित व्याख्यानों या समाधान के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते । ये समस्या से सम्बद्ध विषय – सामग्री तथा शोधक के पूर्वज्ञान द्वारा सुझाए जाते हैं । जब इन सुझावों या व्याख्यानों को प्रस्तावनाओं की तरह रखा जाता है , वे प्रकल्पना कहलाती हैं । ये प्रकल्पनाएँ तथ्यों में सुव्यवस्था लाकर शोध को निर्देशित कर देती हैं ।

( 7 ) काल – निर्देश ( Period – Indication ) – इसमें यह बताया जाता है हिशोध किस समय , काल या रिवेश से सम्बन्धित है । समय राजनीतिक अनुसन्धान में एक अतिशय महत्त्वपूर्ण कारक होता है ।

( 8 ) तथ्य – सामग्री के चयन के आधार एवं संकलन प्रविधियाँ ( Basis of Selection of Datas and Techniques of Collection ) – इसमें तथ्य सामग्री के चयन के माघार बताए एवं निश्चित किए जाते हैं । यहाँ उनका औचित्यभी स्पष्ट किया जाना चाहिए । ये आधार प्रले वीय , भौतिक अथवा वैचारिक प्रेक्षणीय आदि हो सकते हैं । तथ्य – संकलन की प्रविधियाँ मानवीय या मशीनी हो सकती हैं । अवलोकन , प्रश्नावली , साक्षात्कार , प्रेक्षपण आदि युक्तियों के द्वारा तथ्य एकत्र किए जा सकते हैं । इनकी उपयुक्तता पर ध्यान दिया जाना प्रावश्यक होता है ।

 ( 9 ) विश्लेषण एवं निर्वचन ( Analysis and Interpretation ) सामग्री के एकत्रित होने के बाद उसके सारणीयन , वर्गीकरण एवं विश्लेषण प्रणालियों का संकेत दिया जा सकता है । उसके निर्वचन में कौन सी पद्धतियों का सहारा लिया जाएगा ? अथवा उसकी सामान्यता या प्रामाणिकता की मात्रा क्या होगी ? आदि बातों का उल्लेख न्यूनाधिक मात्रा में किया जा सकता है ।

( 10 ) सर्वक्षरण – काल , समय एवं धन ( Survey – Period , Time and Money ) – इसमें यह भी संकेत दिया जाना चाहिए कि सर्वेक्षण कितने समय के भीतर सम्पन्न हो जाएगा । उसे लगातार एक ही बार , या कई बार किया जाएगा ? इसी प्रकार शोध में लगने वाले समय एवं धन का अनुमान भी बताया जाना चाहिए ।

संक्षेप में , अनुसन्धान प्ररचना के महत्वपूर्ण चरणों को क्रमश : इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है

 1 . अनुसन्धान प्ररचना में सर्वप्रथम अध्ययन समस्या ( Study Problem ) का प्रतिपादन किया जाना चाहिए ।

2 . वर्तमान में जो अनुसन्धान कार्य किया जा रहा है उसको अनुसन्धान समस्या से स्पष्ट रूप से सम्बन्धित करना अनुसन्धान प्ररचना का दूसरा मुख्य

3 . वर्तमान में हमें जो अनुसन्धान कार्य करना है उसकी सीमाओं ( Boundries ) को स्पष्ट रूप से निर्धारित करना ।

4 . अनुसन्धान प्ररचना का चौथा चरण अनुसन्धान के विभिन्न क्षेत्रों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करने का है ।

 5 . अनुसन्धान प्ररचना के इस चरण में हम अनुसन्धान परिणामों के प्रयोग के विषय में निर्णय लेते हैं । _ _ _

 6 . इसके पश्चात् हमें अवलोकन , विवरण तथा परिमापन के लिए उपयुक्त चरों का चयन करना चाहिए तथा इन्हें स्पष्ट रूप से परिभाषित करना चाहिए ।

7 . तदुपरान्त अध्ययन क्षेत्र ( Study Area ) एवं समग्र ( Universe ) का उचित चयन एवं इनकी परिभाषा प्रस्तुत करनी चाहिए ।

 8 . इसके बाद अध्ययन के प्रकार एवं विषय – क्षेत्र के विषय में विस्तृत निर्णय लेने चाहिए ।

 9 . अनुसन्धान प्ररचना के आगामी चरण में हमें अपने अनुसन्धान के लिए उपयुक्त विधियों ( Hethods ) एवं प्रविधियों ( Techniques ) का चयन करना चाहिए ।

10 . इसके बाद अध्ययन में निहित मान्यताओं ( Assumptions ) एवं उपकल्पनाओं ( Mypothesis ) का स्पष्ट उल्लेख करना चाहिए ।

11 . बाद में उपकल्पनाओं की परिचालनात्मक परिभाषा ( Operational Definition ) करते हए उसे इस रूप में प्रस्तुत करना चाहिए कि वह परीक्षण के योग्य हो ।

12 . अनुसन्धान प्ररचना के आगामी चरण के रूप से हमें अनुसन्धान के दौरान प्रयुक्त किए जाने वाले प्रलेखों ( Documents ) , रिपोर्टो ( Reports ) एवं अन्य प्रपत्रों का सिंहावलोकन करना चाहिए ।

13 . तदपरान्त अध्ययन के प्रभावपूर्ण उपकरणों का चयन एवं इनका निर्माण करना तथा इनका व्यवस्थित पूर्व – परीक्षण ( Pre – Testing ) करना ।

 14 . आंकड़ों के एकत्रीकरण का सम्पादन ( Editing ) किस प्रकार किया जाएगा इसको विस्तृत व्यवस्था का उल्लेख करना ।

15 . आँकड़ों के सम्पादन की व्यवस्था के उल्लेख के बाद उनके वर्गीकरण ( Classification ) हेतु उचित श्रेणियों ( Categories ) का चयन किया जाना एवं उनकी परािभाषा करना ।

16 . आंकड़ों के सकेतीकरण ( Codification ) के लिए समुचित व्यवस्था का विवरण तैयार करना ।

17 . आँकड़ों को प्रयोग योग्य बनाने हेतु सम्पूर्ण प्रक्रिया की समुचित व्यवस्था का विकास करना ।

18 . आँकड़ों के गुणात्मक ( Qualitative ) एवं संख्यात्मक ( Quantita tive ) विश्लेषण के लिए विस्तृत रूपरेखा तैयार करना ।

 19 . इसके पश्चात् अन्य उपलब्ध परिणामों की पृष्ठभूमि में समुचित विवेचन की कार्यविधियों का उल्लेख करना ।

 20 . अनुसन्धान प्ररचना के इस चरण में हम अनुसन्धान प्रतिवेदन ( Research Report ) के प्रस्तुतीकरण के बारे में निर्णय लेते हैं ।

 21 . अनुसन्धान प्ररचना का यह चरण सम्पूर्ण अनुसन्धान प्रक्रिया में लगने वाला समय , धन एवं मानवीय श्रम का अनुमान लगाने का है । इसी दौरान हम प्रशासकीय व्यवस्था की स्थापना एवं विकास का अनुमान भी लगाते हैं ।

22 . यदि आवश्यक हो तो पूर्व – परीक्षणों ( Pre – Tests ) एवं पर्वगामी अध्ययनों ( Pilot – Studies ) का प्रावधान करना ।

23 . अनुसन्धान प्ररचना के इस चरण में हम कार्यविधियों ( Procedures ) से सम्बन्धित सम्पूर्ण प्रक्रिया , नियमों , उपनियमों को विस्तारपूर्वक तैयार करते हैं ।

24 . अनुसन्धान के इस चरण में हम कर्मचारियों , अध्ययनकत्तात्रों के प्रशिक्षण के ढंग एवं कार्य विधियों का उल्लेख करते हैं ।

 25 . अनुसन्धान प्ररचना के इस अन्तिम चरण में हम यह प्रावधान करते हैं कि समस्त कर्मचारी एवं अध्ययन अनुसन्धानकर्ता एक सामंजस्य की स्थिति वो बनाए रखते हुए कार्य के नियमों , कार्यविधियों की पालना करते हुए किस प्रकार सन्तोषप्रद ढंग से कार्य को पूर्ण करेंगे ।

 

 

 

 

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