शैक्षणिक संस्थानों में असुरक्षा: क्या हम अपनी बेटियों को बचा पा रहे हैं?
चर्चा में क्यों? (Why in News?):**
ओडिशा के प्रतिष्ठित एम्स (AIIMS) अस्पताल में भर्ती एक छात्रा की दर्दनाक मौत ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। तीन दिन पहले आत्मदाह का प्रयास करने वाली यह छात्रा कॉलेज में कथित यौन उत्पीड़न से परेशान थी। यह घटना न केवल एक व्यक्ति की त्रासदी है, बल्कि हमारे समाज और शैक्षणिक संस्थानों में व्याप्त एक गंभीर और गहरी समस्या की ओर इशारा करती है: यौन उत्पीड़न और इसके विरुद्ध अपर्याप्त सुरक्षा तंत्र। यह दुःखद वाकया हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम वास्तव में अपने युवाओं, विशेषकर अपनी बेटियों के लिए ऐसे सुरक्षित और समावेशी वातावरण का निर्माण कर पाए हैं, जहाँ वे बिना किसी भय के अपनी शिक्षा पूरी कर सकें और अपने सपनों को साकार कर सकें?
घटना का संदर्भ और व्यापक प्रभाव (Context of the Incident & Broader Impact)
हालिया घटना ओडिशा के एक कॉलेज से संबंधित है, जहाँ एक छात्रा ने यौन उत्पीड़न से तंग आकर आत्मदाह का कदम उठाया। गंभीर रूप से झुलसी अवस्था में उसे एम्स में भर्ती कराया गया, जहाँ तीन दिनों के संघर्ष के बाद उसने दम तोड़ दिया। यह मामला सिर्फ एक आपराधिक घटना नहीं, बल्कि एक संस्थागत विफलता और सामाजिक उदासीनता का भी प्रतीक है। यह हमें कई मूलभूत सवालों से रूबरू कराता है:
- क्या हमारे शैक्षणिक संस्थान छात्राओं के लिए पर्याप्त रूप से सुरक्षित हैं?
- यौन उत्पीड़न के मामलों में शिकायत निवारण तंत्र कितने प्रभावी हैं?
- पीड़ितों को न्याय दिलाने और उन्हें मानसिक संबल प्रदान करने में हम कहाँ चूक रहे हैं?
- क्या समाज में अभी भी “विक्टिम-ब्लेमिंग” की मानसिकता हावी है, जो पीड़ितों को अपनी बात कहने से रोकती है?
यह घटना हमें याद दिलाती है कि कार्यस्थलों और शिक्षण संस्थानों में यौन उत्पीड़न की समस्या अभी भी एक कड़वी सच्चाई है, और इसे प्रभावी ढंग से रोकने तथा पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए हमें बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। यह केवल कानून बनाने तक सीमित नहीं है, बल्कि कानूनों के प्रभावी क्रियान्वयन, जागरूकता बढ़ाने और एक ऐसी संस्कृति विकसित करने की चुनौती है, जहाँ सम्मान और सुरक्षा सर्वोपरि हो।
यौन उत्पीड़न की समस्या: एक गंभीर सामाजिक अभिशाप (The Problem of Sexual Harassment: A Serious Social Scourge)
यौन उत्पीड़न एक ऐसा जघन्य अपराध है जो किसी भी व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। यह केवल शारीरिक स्पर्श तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें अनुचित टिप्पणी, अवांछित हावभाव, यौन संबंध बनाने के लिए दबाव, यौन प्रकृति के संदेश या तस्वीरें भेजना और किसी भी प्रकार का ऐसा व्यवहार शामिल है जो किसी व्यक्ति को असहज या असुरक्षित महसूस कराता हो।
परिभाषा और प्रकार:
यौन उत्पीड़न को व्यापक रूप से परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
- शारीरिक संपर्क और अग्रिम: अवांछित शारीरिक स्पर्श, गले लगाना, चूमना या यौन क्रिया के लिए मजबूर करना।
- यौन संबंधी टिप्पणियाँ: अवांछित टिप्पणी, चुटकुले, इशारे, या यौन प्रकृति की बातें करना।
- अनुचित प्रदर्शन: अश्लील सामग्री दिखाना, या ऐसे व्यवहार करना जिससे यौन उत्पीड़न का आभास हो।
- क्विड प्रो क्वो (Quid Pro Quo): किसी व्यक्ति के करियर, शिक्षा या स्थिति को लाभ या हानि से जोड़कर यौन अनुग्रह की मांग करना।
- प्रतिकूल कार्य वातावरण का निर्माण: ऐसा माहौल बनाना जहाँ व्यक्ति यौन प्रकृति के व्यवहार के कारण डरा हुआ, अपमानित या असहज महसूस करे।
यह शैक्षणिक संस्थानों, कार्यस्थलों और सार्वजनिक स्थानों, तीनों में व्याप्त हो सकता है।
आंकड़े और वास्तविकता:
भारत में यौन उत्पीड़न के आंकड़े अक्सर वास्तविक स्थिति से कहीं कम होते हैं, क्योंकि कई मामले शर्म, भय या न्याय न मिलने की आशंका से रिपोर्ट ही नहीं किए जाते। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े केवल आपराधिक मामलों को दर्शाते हैं, जबकि यौन उत्पीड़न के कई रूप सीधे IPC के तहत नहीं आते जब तक कि वे किसी गंभीर अपराध में न बदल जाएं। हालांकि, विभिन्न सर्वेक्षण और अध्ययन बताते हैं कि बड़ी संख्या में महिलाएँ (और पुरुष भी) अपने जीवन में यौन उत्पीड़न का सामना करती हैं।
उदाहरण के लिए, कुछ अध्ययनों से पता चला है कि कॉलेज परिसरों में 70% से अधिक छात्राओं ने किसी न किसी प्रकार के उत्पीड़न का अनुभव किया है। कार्यस्थलों पर भी स्थिति चिंताजनक है, जहाँ अनेक महिलाएँ यौन उत्पीड़न के कारण अपनी नौकरी छोड़ने पर मजबूर होती हैं।
पीड़ित पर मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक प्रभाव:
- मनोवैज्ञानिक प्रभाव: सदमा, चिंता, अवसाद, पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD), नींद न आना, खाने की आदतों में बदलाव, आत्मघाती विचार। पीड़ित अक्सर आत्म-दोष और शर्म की भावना से ग्रस्त रहते हैं।
- सामाजिक प्रभाव: सामाजिक अलगाव, रिश्तों में दिक्कत, समाज से कटाव, सार्वजनिक स्थानों पर जाने से डरना, बदनामी का डर।
- आर्थिक प्रभाव: नौकरी छोड़ना, शैक्षणिक प्रदर्शन में गिरावट, करियर में बाधा, आर्थिक स्वतंत्रता का नुकसान।
यौन उत्पीड़न एक चक्र की तरह होता है, जहाँ उत्पीड़न से उत्पन्न मानसिक और सामाजिक दबाव पीड़ित को और अधिक कमजोर बना देता है, जिससे उन्हें अपनी बात रखने में और भी कठिनाई होती है।
भारत में यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए कानूनी और संस्थागत ढाँचा (Legal and Institutional Frameworks to Combat Sexual Harassment in India)
भारत में यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए एक मजबूत कानूनी और संस्थागत ढाँचा मौजूद है, हालाँकि इसके क्रियान्वयन में अभी भी कई चुनौतियाँ हैं।
विशाखा दिशानिर्देश (Vishakha Guidelines, 1997):
यौन उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई में मील का पत्थर साबित हुए ये दिशानिर्देश सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशाखा बनाम राजस्थान राज्य मामले (1997) में जारी किए गए थे। चूंकि उस समय कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए कोई विशिष्ट कानून नहीं था, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत महिलाओं के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए ये दिशानिर्देश जारी किए।
विशाखा दिशानिर्देशों के मुख्य बिंदु:
- प्रत्येक कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायतों के निवारण के लिए एक आंतरिक शिकायत समिति (ICC) का गठन अनिवार्य किया गया।
- नियोक्ता पर ऐसे कृत्यों को रोकने और दंडित करने की जिम्मेदारी डाली गई।
- कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करने के लिए दिशानिर्देश दिए गए।
ये दिशानिर्देश तब तक कानून के रूप में कार्य करते रहे जब तक कि एक विशिष्ट कानून नहीं बन गया।
यौन उत्पीड़न से महिलाओं का कार्यस्थल पर संरक्षण (रोकथाम, प्रतिषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (POSH Act, 2013):
विशाखा दिशानिर्देशों के आधार पर, संसद ने यौन उत्पीड़न से महिलाओं का कार्यस्थल पर संरक्षण (रोकथाम, प्रतिषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 पारित किया। यह अधिनियम भारत में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए एक व्यापक कानूनी ढाँचा प्रदान करता है।
- उद्देश्य: कार्यस्थल पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न से बचाना, इसकी रोकथाम और शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करना।
- कार्यस्थल की परिभाषा: यह अधिनियम ‘कार्यस्थल’ की बहुत व्यापक परिभाषा प्रदान करता है, जिसमें न केवल पारंपरिक कार्यालय शामिल हैं, बल्कि शैक्षणिक संस्थान (स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय), अस्पताल, खेल परिसर, आवासीय स्थान, यहाँ तक कि यात्रा के दौरान उपयोग किए जाने वाले वाहन भी शामिल हैं। इसका अर्थ है कि एक कॉलेज या विश्वविद्यालय भी POSH अधिनियम के तहत ‘कार्यस्थल’ माना जाता है।
- आंतरिक शिकायत समिति (ICC): प्रत्येक ऐसे कार्यस्थल पर जहाँ 10 या अधिक कर्मचारी हों, एक ICC का गठन अनिवार्य है। इसकी अध्यक्षता एक महिला करती है, और इसके कम से कम आधे सदस्य महिलाएँ होनी चाहिए। एक सदस्य बाहरी गैर-सरकारी संगठन से होना चाहिए जो यौन उत्पीड़न के मामलों से संबंधित हो।
- स्थानीय शिकायत समिति (LCC): जहाँ ICC नहीं है (जैसे 10 से कम कर्मचारी वाले कार्यस्थल) या जहाँ शिकायत नियोक्ता के विरुद्ध हो, वहाँ जिला अधिकारी द्वारा LCC का गठन किया जाता है।
- शिकायत प्रक्रिया: पीड़ित घटना के 3 महीने के भीतर शिकायत दर्ज करा सकता है। ICC/LCC को 90 दिनों के भीतर जाँच पूरी करनी होती है। जाँच के दौरान सुलह का प्रावधान है, बशर्ते पीड़ित सहमत हो।
- नियोक्ता/संस्थान के कर्तव्य:
- कार्यस्थल को यौन उत्पीड़न से मुक्त बनाना।
- शिकायत समिति का गठन करना और उसके सदस्यों को प्रशिक्षित करना।
- कानून और शिकायत प्रक्रिया के बारे में जागरूकता फैलाना।
- शिकायतों की समय पर और निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित करना।
- पीड़ित को आवश्यक सहायता (जैसे छुट्टी, स्थानान्तरण, परामर्श) प्रदान करना।
भारतीय दंड संहिता (IPC) के प्रासंगिक प्रावधान:
POSH अधिनियम के अतिरिक्त, भारतीय दंड संहिता (IPC) में भी यौन उत्पीड़न से संबंधित कई धाराएँ हैं:
- धारा 354: स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग। (सजा: 2 साल तक कैद या जुर्माना या दोनों)
- धारा 354A: यौन उत्पीड़न और उसकी सजा। इसमें शारीरिक संपर्क, यौन अनुग्रह की मांग, अश्लील टिप्पणी, यौन प्रकृति की सामग्री दिखाना शामिल है। (सजा: 1-3 साल कैद या जुर्माना)
- धारा 354B: स्त्री को निर्वस्त्र करने के आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग। (सजा: 3-7 साल कैद और जुर्माना)
- धारा 354C: ‘वॉयरिज्म’ (किसी स्त्री को उसकी निजी गतिविधियों में गुप्त रूप से देखना या उसकी तस्वीर लेना)। (सजा: 1-3 साल कैद और जुर्माना, दूसरी बार अपराध पर 3-7 साल)
- धारा 354D: ‘स्टॉकिंग’ (किसी स्त्री का पीछा करना या उससे संपर्क स्थापित करने की बार-बार कोशिश करना)। (सजा: 1-3 साल कैद और जुर्माना, दूसरी बार अपराध पर 3-5 साल)
- धारा 509: किसी स्त्री की लज्जा का अनादर करने के आशय से शब्द, हावभाव या कार्य करना। (सजा: 1 साल कैद या जुर्माना या दोनों)
राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) और अन्य निकाय:
राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा और उनके सशक्तिकरण के लिए कार्य करता है। यह यौन उत्पीड़न सहित महिलाओं के विरुद्ध अपराधों पर स्वतः संज्ञान ले सकता है, जाँच कर सकता है और सरकार को सिफारिशें दे सकता है। इसी तरह, राज्य महिला आयोग भी अपने-अपने राज्यों में यही भूमिका निभाते हैं।
शिक्षा संस्थानों में विशिष्ट नियम:
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE) जैसे नियामक निकायों ने भी शैक्षणिक संस्थानों में यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए विस्तृत दिशानिर्देश और नियम जारी किए हैं। इनमें ICC का गठन, शिकायत निवारण प्रक्रिया, छात्रों और कर्मचारियों के लिए जागरूकता कार्यक्रम और दंडात्मक कार्रवाई के प्रावधान शामिल हैं।
चुनौतियाँ और कार्यान्वयन में बाधाएँ (Challenges and Hurdles in Implementation)
कानूनी ढाँचा मजबूत होने के बावजूद, यौन उत्पीड़न से प्रभावी ढंग से निपटने में कई गंभीर चुनौतियाँ हैं:
- रिपोर्टिंग में झिझक, भय, सामाजिक दबाव और लांछन (Stigma):
- पीड़ित अक्सर बदनामी के डर से, समाज द्वारा लांछित किए जाने के डर से, या परिवार और दोस्तों के दबाव के कारण शिकायत दर्ज कराने से कतराते हैं।
- नौकरी खोने का डर या शैक्षणिक भविष्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने का डर भी रिपोर्टिंग में बाधा डालता है।
- उत्पीड़क के शक्तिशाली होने या प्रतिशोध की आशंका भी एक बड़ा कारण है।
- जागरूकता की कमी:
- कई लोगों को यौन उत्पीड़न क्या है, इसके कानूनी प्रावधान क्या हैं, या शिकायत कहाँ और कैसे दर्ज की जाती है, इसकी जानकारी नहीं होती।
- विशेषकर छात्रों और कार्यस्थल के निचले स्तर के कर्मचारियों में जागरूकता का अभाव होता है।
- ICC की अक्षमता/असंवेदनशीलता/पक्षपात:
- ICC सदस्यों को पर्याप्त प्रशिक्षण न मिलना, जिससे वे मामलों को संवेदनशीलता और निष्पक्षता से नहीं संभाल पाते।
- कई मामलों में ICC उत्पीड़क के प्रति सहानुभूति दिखाती है या पीड़ित पर ही दोष मढ़ने का प्रयास करती है।
- ICC की स्वतंत्रता पर सवाल उठते हैं, खासकर जब आरोपी संस्थान का कोई वरिष्ठ व्यक्ति हो।
- प्रक्रियात्मक देरी और जाँच में खामियाँ:
- जाँच प्रक्रिया में अनावश्यक देरी हो सकती है, जिससे पीड़ित निराश हो जाता है।
- सबूत इकट्ठा करने में कठिनाई, खासकर डिजिटल सबूतों की।
- जाँच में पारदर्शिता की कमी भी विश्वास भंग करती है।
- न्याय मिलने में बाधाएँ:
- अदालतों में मुकदमों का लंबा खिंचना और सबूतों की कमी के कारण आरोपियों का बरी हो जाना।
- पीड़ित को बार-बार अपनी आपबीती दोहराने के लिए मजबूर किया जाना, जिससे उसे मानसिक आघात होता है।
- पीड़ितों के लिए पर्याप्त सहायता प्रणाली का अभाव:
- कानूनी सहायता, मनोवैज्ञानिक परामर्श और भावनात्मक समर्थन की कमी।
- शिकायत दर्ज कराने के बाद भी पीड़ित को सुरक्षित महसूस कराने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं होते।
- पुरुषों में संवेदनशीलता का अभाव:
- समाज में पुरुषों के बीच यौन उत्पीड़न के प्रति संवेदनशीलता और जागरूकता की कमी।
- लैंगिक रूढ़िवादिता और पितृसत्तात्मक सोच अभी भी हावी है, जो ऐसे अपराधों को सामान्य मानने लगती है।
ओडिशा की घटना इस बात का एक दुखद उदाहरण है कि जब ये चुनौतियाँ एक साथ आ जाती हैं, तो परिणाम कितने विनाशकारी हो सकते हैं। यदि छात्रा को समय पर न्याय और पर्याप्त सहायता मिली होती, तो शायद यह त्रासद अंत टाला जा सकता था।
मानसिक स्वास्थ्य आयाम (Mental Health Dimension)
यौन उत्पीड़न का शिकार होने वाले व्यक्तियों पर गंभीर और दीर्घकालिक मानसिक स्वास्थ्य प्रभाव पड़ते हैं। यह सिर्फ शारीरिक नुकसान नहीं है, बल्कि एक गहरा मनोवैज्ञानिक घाव है जो जीवन भर साथ रह सकता है।
- सदमा और PTSD: यौन उत्पीड़न एक दर्दनाक अनुभव होता है जिससे सदमा लग सकता है। कुछ पीड़ितों में पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) विकसित हो सकता है, जिसके लक्षणों में बार-बार घटना के बारे में सोचना, डरावने सपने, अत्यधिक सतर्कता, चिंता और भावनात्मक सुन्नता शामिल हैं।
- चिंता और अवसाद: उत्पीड़न के कारण अत्यधिक चिंता, घबराहट के दौरे और अवसाद आम हैं। व्यक्ति जीवन में रुचि खो सकता है, उदास और निराश महसूस कर सकता है।
- आत्मघाती विचार: जैसा कि ओडिशा की घटना में देखा गया, कुछ मामलों में उत्पीड़न से उत्पन्न अत्यधिक तनाव, निराशा और लाचारी की भावना आत्मघाती विचारों को जन्म दे सकती है। यह तब और बढ़ जाता है जब पीड़ित को लगता है कि उसे न्याय नहीं मिलेगा या कोई उसकी बात नहीं सुनेगा।
- आत्म-सम्मान में कमी: उत्पीड़न से पीड़ित अक्सर खुद को ही दोषी ठहराने लगते हैं, जिससे उनके आत्म-सम्मान और आत्म-मूल्य में भारी गिरावट आती है।
- सामाजिक अलगाव: पीड़ित सामाजिक गतिविधियों से पीछे हट सकते हैं, दूसरों पर भरोसा करने में कठिनाई महसूस कर सकते हैं, और अकेले रहना पसंद कर सकते हैं।
यह आवश्यक है कि यौन उत्पीड़न के मामलों में केवल कानूनी कार्यवाही पर ध्यान केंद्रित न किया जाए, बल्कि पीड़ित को तत्काल और निरंतर मनोवैज्ञानिक परामर्श और सहायता प्रदान की जाए। शिक्षण संस्थानों और कार्यस्थलों को मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रणालियों को मजबूत करना चाहिए ताकि पीड़ित को मानसिक रूप से उबरने में मदद मिल सके।
नैतिक और सामाजिक मुद्दे (Ethical and Social Issues)
यौन उत्पीड़न केवल कानूनी समस्या नहीं, बल्कि समाज के गहरे नैतिक और सामाजिक मुद्दों का प्रतिबिंब है:
- लैंगिक समानता और पितृसत्तात्मक मानसिकता: यौन उत्पीड़न अक्सर शक्ति के असंतुलन और पितृसत्तात्मक सोच से उत्पन्न होता है, जहाँ महिलाओं को अधीनस्थ माना जाता है। लैंगिक समानता के अभाव में, पुरुषों को अक्सर यह महसूस होता है कि उन्हें महिलाओं पर नियंत्रण रखने का अधिकार है।
- विक्टिम-ब्लेमिंग का चलन: समाज में अभी भी ‘विक्टिम-ब्लेमिंग’ (पीड़ित को दोषी ठहराना) का चलन व्याप्त है। अक्सर पीड़ित से ही सवाल पूछे जाते हैं कि उसने क्या पहना था, वह कहाँ गई थी, या उसने विरोध क्यों नहीं किया। यह मानसिकता पीड़ित को और अधिक आघात पहुँचाती है और उसे न्याय मांगने से रोकती है।
- संस्थागत संस्कृति में बदलाव की आवश्यकता: कई संस्थानों में एक ऐसी संस्कृति होती है जहाँ वरिष्ठों के दुर्व्यवहार को नजरअंदाज किया जाता है या दबा दिया जाता है। पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी से यह समस्या और बढ़ जाती है। संस्थाओं को एक ऐसी संस्कृति विकसित करनी होगी जहाँ सम्मान, सुरक्षा और खुले संवाद को प्राथमिकता दी जाए।
- समाज का ‘स्वीकृति’ वाला रवैया: कुछ समाजों में यौन उत्पीड़न को ‘सामान्य’ मान लिया जाता है या इसे ‘पुरुषों का स्वभाव’ कहकर नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस तरह की स्वीकृति पीड़ितों के लिए न्याय की राह को और कठिन बना देती है।
आगे की राह (Way Forward)
एक सुरक्षित और न्यायपूर्ण समाज बनाने के लिए, विशेषकर हमारे शैक्षणिक संस्थानों और कार्यस्थलों में, हमें बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है:
- कानूनों का सख्त और त्वरित प्रवर्तन:
- POSH अधिनियम और IPC के प्रासंगिक प्रावधानों का बिना किसी देरी या पक्षपात के कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाए।
- जाँच प्रक्रियाओं को गति दी जाए और फास्ट-ट्रैक अदालतों का उपयोग करके मामलों का त्वरित निपटान किया जाए।
- जागरूकता और संवेदनशीलता कार्यक्रम:
- स्कूलों, कॉलेजों और कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के बारे में नियमित और अनिवार्य जागरूकता सत्र आयोजित किए जाएं। इनमें न केवल महिलाओं बल्कि पुरुषों को भी शामिल किया जाए ताकि उन्हें ‘स्वीकार्य’ और ‘अस्वीकार्य’ व्यवहार के बारे में शिक्षित किया जा सके।
- छात्रों और कर्मचारियों को अपने अधिकारों, शिकायत प्रक्रिया और उपलब्ध सहायता प्रणालियों के बारे में जागरूक किया जाए।
- ICC को मजबूत, प्रशिक्षित और स्वतंत्र बनाना:
- ICC के सदस्यों को यौन उत्पीड़न के मामलों को संभालने के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाए, जिसमें संवेदनशीलता, कानूनी प्रक्रिया और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को शामिल किया जाए।
- ICC की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित की जाए, ताकि वे बिना किसी बाहरी दबाव के काम कर सकें।
- ICC के गठन और कार्यप्रणाली की जानकारी सार्वजनिक की जाए।
- पीड़ितों के लिए व्यापक सहायता प्रणाली:
- पीड़ितों को कानूनी सहायता, मनोवैज्ञानिक परामर्श और भावनात्मक समर्थन तक आसान पहुँच प्रदान की जाए।
- शिकायत दर्ज कराने के बाद पीड़ित की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए, ताकि प्रतिशोध का भय न हो।
- टेलीफोन हेल्पलाइन और ऑनलाइन शिकायत पोर्टल्स को मजबूत किया जाए।
- संस्थाओं में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाना:
- संस्थानों को यौन उत्पीड़न के मामलों से निपटने में अधिक पारदर्शी और जवाबदेह होना चाहिए।
- मामलों की आंतरिक रिपोर्टिंग और प्रबंधन में नियमित ऑडिट और समीक्षा की जानी चाहिए।
- प्रिंसिपल, कुलपति या अन्य वरिष्ठ अधिकारियों की सीधे जवाबदेही तय की जाए।
- डिजिटल सुरक्षा और साइबर उत्पीड़न से निपटना:
- साइबर उत्पीड़न के बढ़ते मामलों से निपटने के लिए मजबूत तंत्र विकसित किए जाएं और व्यक्तियों को ऑनलाइन सुरक्षित रहने के तरीकों के बारे में शिक्षित किया जाए।
- पाठ्यक्रम में लैंगिक समानता और सम्मान को शामिल करना:
- बच्चों को कम उम्र से ही लैंगिक समानता, आपसी सम्मान और सहमति के महत्व के बारे में सिखाया जाना चाहिए।
- यह शिक्षा हमारे पाठ्यक्रम का एक अभिन्न अंग होनी चाहिए।
- पुलिस और न्यायपालिका का संवेदीकरण:
- पुलिस कर्मियों और न्यायिक अधिकारियों को यौन उत्पीड़न के मामलों से संवेदनशीलता और त्वरितता से निपटने के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाए।
इस घटना से हमें यह सीखने की जरूरत है कि केवल कानून बना देना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उन कानूनों को जमीन पर प्रभावी ढंग से लागू करना और समाज की मानसिकता में परिवर्तन लाना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
निष्कर्ष (Conclusion)
ओडिशा की इस दर्दनाक घटना ने एक बार फिर हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि एक समाज के रूप में हम महिलाओं और कमजोर वर्गों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में कहाँ खड़े हैं। यौन उत्पीड़न एक गंभीर अभिशाप है जो न केवल व्यक्तिगत जीवन को तबाह करता है, बल्कि संस्थानों की साख और समाज के नैतिक ताने-बाने को भी कमजोर करता है। यह घटना सिर्फ एक अकेली छात्रा की आत्महत्या नहीं, बल्कि उस संस्थागत और सामाजिक उदासीनता का परिणाम है, जिसने उसे न्याय और सुरक्षा से वंचित रखा।
भारत में मजबूत कानूनी ढाँचा मौजूद है, लेकिन असली चुनौती इनके प्रभावी क्रियान्वयन, जागरूकता के प्रसार और समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता में बदलाव लाने की है। हमें शिक्षण संस्थानों में एक ऐसी संस्कृति को बढ़ावा देना होगा जहाँ शिकायतें बिना किसी भय के दर्ज की जा सकें, जहाँ त्वरित और निष्पक्ष जाँच हो, और जहाँ पीड़ितों को हर स्तर पर समर्थन और संबल मिले।
यह हर नागरिक, हर संस्थान और सरकार की सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम एक ऐसा वातावरण बनाएं जहाँ कोई भी व्यक्ति यौन उत्पीड़न के कारण अपनी जान देने को मजबूर न हो। हमें अपनी बेटियों को यह विश्वास दिलाना होगा कि वे सुरक्षित हैं, उनकी आवाज सुनी जाएगी, और उन्हें न्याय मिलेगा। तभी हम वास्तव में एक सभ्य और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण कर पाएंगे।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
(यहाँ 10 MCQs, उनके उत्तर और व्याख्या प्रदान करें)
- प्रश्न 1: भारत में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न से संबंधित कानून के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
- यौन उत्पीड़न से महिलाओं का कार्यस्थल पर संरक्षण (रोकथाम, प्रतिषेध और निवारण) अधिनियम, 2013, विशाखा दिशानिर्देशों से पहले अस्तित्व में आया था।
- इस अधिनियम के तहत, 10 या अधिक कर्मचारियों वाले प्रत्येक कार्यस्थल पर एक आंतरिक शिकायत समिति (ICC) का गठन अनिवार्य है।
- शैक्षणिक संस्थान इस अधिनियम के तहत ‘कार्यस्थल’ की परिभाषा में शामिल नहीं हैं।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(A) केवल 1
(B) केवल 2
(C) केवल 1 और 3
(D) केवल 2 और 3
उत्तर: (B)
व्याख्या:
कथन 1 गलत है। POSH अधिनियम, 2013, विशाखा दिशानिर्देशों (1997) के बाद आया था, जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी किए गए थे क्योंकि तब कोई विशिष्ट कानून नहीं था।
कथन 2 सही है। अधिनियम के अनुसार, 10 या अधिक कर्मचारियों वाले प्रत्येक कार्यस्थल पर ICC का गठन अनिवार्य है।
कथन 3 गलत है। POSH अधिनियम में ‘कार्यस्थल’ की परिभाषा बहुत व्यापक है, जिसमें शैक्षणिक संस्थान भी शामिल हैं। - प्रश्न 2: भारतीय दंड संहिता (IPC) की निम्नलिखित में से कौन सी धारा ‘स्टॉकिंग’ (किसी स्त्री का पीछा करना) से संबंधित है?
(A) धारा 354A
(B) धारा 354B
(C) धारा 354C
(D) धारा 354D
उत्तर: (D)
व्याख्या:
IPC की धारा 354D ‘स्टॉकिंग’ (किसी स्त्री का पीछा करना या उससे संपर्क स्थापित करने की बार-बार कोशिश करना) से संबंधित है।
धारा 354A यौन उत्पीड़न और उसकी सजा।
धारा 354B स्त्री को निर्वस्त्र करने के आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग।
धारा 354C ‘वॉयरिज्म’ (किसी स्त्री को उसकी निजी गतिविधियों में गुप्त रूप से देखना या उसकी तस्वीर लेना)। - प्रश्न 3: विशाखा दिशानिर्देशों के संबंध में, निम्नलिखित में से कौन सा कथन सही है?
(A) ये दिशानिर्देश भारत की संसद द्वारा एक अधिनियम के माध्यम से जारी किए गए थे।
(B) ये कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए पहला वैधानिक कानून थे।
(C) ये दिशानिर्देश सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘विशाखा बनाम राजस्थान राज्य’ मामले में जारी किए गए थे।
(D) इन दिशानिर्देशों का प्राथमिक उद्देश्य केवल सार्वजनिक क्षेत्र के कार्यस्थलों में यौन उत्पीड़न को संबोधित करना था।
उत्तर: (C)
व्याख्या:
कथन A और B गलत हैं, क्योंकि विशाखा दिशानिर्देश सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी किए गए न्यायिक दिशानिर्देश थे, न कि संसद का अधिनियम। ये उस समय के कानून के अभाव में एक अंतरिम उपाय थे।
कथन C सही है।
कथन D गलत है, ये दिशानिर्देश सार्वजनिक और निजी, दोनों क्षेत्रों के कार्यस्थलों पर लागू होते थे। - प्रश्न 4: यौन उत्पीड़न से महिलाओं का कार्यस्थल पर संरक्षण (रोकथाम, प्रतिषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 के तहत, आंतरिक शिकायत समिति (ICC) के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
- ICC की अध्यक्षता अनिवार्य रूप से एक पुरुष सदस्य द्वारा की जानी चाहिए।
- ICC के सदस्यों में कम से कम आधे सदस्य महिलाएँ होनी चाहिए।
- ICC में एक सदस्य गैर-सरकारी संगठन से होना चाहिए जो यौन उत्पीड़न के मामलों से संबंधित हो।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(A) केवल 1 और 2
(B) केवल 2 और 3
(C) केवल 1 और 3
(D) 1, 2 और 3
उत्तर: (B)
व्याख्या:
कथन 1 गलत है। ICC की अध्यक्षता अनिवार्य रूप से एक महिला द्वारा की जानी चाहिए।
कथन 2 सही है।
कथन 3 सही है। बाहरी सदस्य की उपस्थिति निष्पक्षता सुनिश्चित करती है। - प्रश्न 5: राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
- यह एक सांविधिक निकाय है।
- यह केवल सरकारी कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के मामलों की जाँच कर सकता है।
- यह महिलाओं के अधिकारों के उल्लंघन से संबंधित मामलों पर स्वतः संज्ञान ले सकता है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(A) केवल 1
(B) केवल 1 और 3
(C) केवल 2 और 3
(D) 1, 2 और 3
उत्तर: (B)
व्याख्या:
कथन 1 सही है। NCW का गठन राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1990 के तहत किया गया था, जो इसे एक सांविधिक निकाय बनाता है।
कथन 2 गलत है। NCW के पास निजी और सार्वजनिक, दोनों क्षेत्रों में महिलाओं से संबंधित किसी भी मामले की जाँच करने की शक्ति है।
कथन 3 सही है। NCW के पास महिलाओं के विरुद्ध अपराधों पर स्वतः संज्ञान लेने की शक्ति है। - प्रश्न 6: भारतीय संविधान का कौन सा अनुच्छेद भारत में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न के विरुद्ध कानूनी ढाँचे का आधार बनता है, क्योंकि यह जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है?
(A) अनुच्छेद 14
(B) अनुच्छेद 19
(C) अनुच्छेद 21
(D) अनुच्छेद 32
उत्तर: (C)
व्याख्या:
अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है, जिसमें एक सुरक्षित और गरिमापूर्ण कार्य वातावरण का अधिकार भी शामिल है। सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा दिशानिर्देशों और बाद में POSH अधिनियम को अनुच्छेद 21 के तहत मान्यता दी है। अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और 19 (स्वतंत्रता का अधिकार) भी प्रासंगिक हैं, लेकिन अनुच्छेद 21 सबसे व्यापक आधार प्रदान करता है। - प्रश्न 7: यौन उत्पीड़न के मामलों में आंतरिक शिकायत समिति (ICC) को शिकायत प्राप्त होने के कितने दिनों के भीतर जाँच पूरी करनी होती है?
(A) 30 दिन
(B) 60 दिन
(C) 90 दिन
(D) 120 दिन
उत्तर: (C)
व्याख्या:
यौन उत्पीड़न से महिलाओं का कार्यस्थल पर संरक्षण (रोकथाम, प्रतिषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 के अनुसार, ICC को शिकायत प्राप्त होने के 90 दिनों के भीतर जाँच पूरी करनी होती है। - प्रश्न 8: निम्नलिखित में से कौन सा कथन ‘विक्टिम-ब्लेमिंग’ (Victim-Blaming) की अवधारणा को सर्वोत्तम रूप से समझाता है?
(A) किसी अपराध के लिए दोषी व्यक्ति की पहचान करना।
(B) किसी अपराध के पीड़ित को अपराध के लिए आंशिक या पूर्ण रूप से जिम्मेदार ठहराना।
(C) आपराधिक मामलों में पीड़ित के बयानों की सत्यता की जाँच करना।
(D) पीड़ित को कानूनी सहायता और मनोवैज्ञानिक परामर्श प्रदान करना।
उत्तर: (B)
व्याख्या:
‘विक्टिम-ब्लेमिंग’ वह प्रक्रिया है जिसमें किसी अपराध या दुर्घटना के पीड़ित को उस घटना के लिए आंशिक या पूर्ण रूप से दोषी ठहराया जाता है, बजाय इसके कि अपराधी या घटना के मूल कारणों पर ध्यान केंद्रित किया जाए। - प्रश्न 9: यदि किसी कार्यस्थल पर 10 से कम कर्मचारी हैं और यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करानी हो, तो किस समिति में शिकायत दर्ज की जाएगी?
(A) आंतरिक शिकायत समिति (ICC)
(B) स्थानीय शिकायत समिति (LCC)
(C) राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW)
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर: (B)
व्याख्या:
POSH अधिनियम के अनुसार, यदि कार्यस्थल पर 10 से कम कर्मचारी हैं या शिकायत नियोक्ता के विरुद्ध हो, तो जिला अधिकारी द्वारा गठित स्थानीय शिकायत समिति (LCC) में शिकायत दर्ज की जाएगी। ICC केवल उन कार्यस्थलों पर होती है जहाँ 10 या अधिक कर्मचारी हों। - प्रश्न 10: ‘यौन उत्पीड़न’ की परिभाषा में सामान्यतः क्या शामिल होता है?
- अवांछित शारीरिक संपर्क या अग्रिम।
- यौन अनुग्रह की मांग या अनुरोध।
- यौन संबंधी रंगीन टिप्पणी या अवांछित शारीरिक हावभाव।
- यौन प्रकृति की तस्वीरें या अश्लील सामग्री दिखाना।
उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?
(A) केवल 1 और 2
(B) केवल 2, 3 और 4
(C) केवल 1, 3 और 4
(D) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (D)
व्याख्या:
यौन उत्पीड़न की व्यापक परिभाषा में ये सभी तत्व शामिल होते हैं। POSH अधिनियम की धारा 2(n) में यौन उत्पीड़न को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है जिसमें ये सभी व्यवहार शामिल हैं।
मुख्य परीक्षा (Mains)
(यहाँ 3-4 मेन्स के प्रश्न प्रदान करें)
- “ओडिशा की हालिया घटना हमारे समाज और शैक्षणिक संस्थानों में यौन उत्पीड़न के प्रति व्याप्त उदासीनता और अपर्याप्त जवाबदेही को उजागर करती है।” इस कथन के आलोक में, भारत में यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए मौजूदा कानूनी और संस्थागत ढाँचे का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए और इसके प्रभावी क्रियान्वयन में आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालिए।
- कार्यस्थल और शैक्षणिक संस्थानों में यौन उत्पीड़न न केवल व्यक्तिगत त्रासदी है, बल्कि यह मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डालता है। यौन उत्पीड़न के मनोवैज्ञानिक परिणामों की विवेचना कीजिए और पीड़ितों के लिए एक मजबूत मनोवैज्ञानिक सहायता प्रणाली की आवश्यकता पर चर्चा कीजिए।
- “कानून बनाना एक बात है, और उन्हें प्रभावी ढंग से लागू करना दूसरी।” इस टिप्पणी के संदर्भ में, शैक्षणिक संस्थानों में यौन उत्पीड़न की रोकथाम और निवारण के लिए किन सुधारात्मक उपायों को अपनाया जा सकता है? एक सुरक्षित और समावेशी वातावरण सुनिश्चित करने के लिए संस्थागत और सामाजिक स्तर पर आवश्यक कदमों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
- यौन उत्पीड़न की घटनाओं में अक्सर ‘विक्टिम-ब्लेमिंग’ की मानसिकता और समाज में पितृसत्तात्मक सोच का बोलबाला देखा जाता है। लैंगिक समानता को बढ़ावा देकर और संवेदनशीलता बढ़ाकर इस सामाजिक अभिशाप को कैसे दूर किया जा सकता है? चर्चा कीजिए कि एक जिम्मेदार समाज के रूप में हमारी क्या भूमिका होनी चाहिए।