शक्ति  एवं   सत्ता  दबाव समूह और हित समूह

 

शक्ति  एवं   सत्ता  दबाव समूह और हित समूह

2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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    1. शक्ति का समाजशास्त्रीय अर्थ समझ सकें।
    2. समाज में शक्ति वितरण को समझ सकें।
    3. समाज में शक्ति के वितरण के सामाजिक परिणामों के बारे जान सकें।
    4. समाज में शक्ति वितरण के प्रमुख सिद्धान्तों को समझ सकें।
    5. दबाव समूह और हित समूह की प्रकृति और आधार में भेद कर सकें।
    6. नौकरशाही का आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में महत्व समझ सकें।

 

 

‘शक्ति’   एवं   ‘सत्ता’   की   अवधारणा

 

  समाजशास्त्र,   राजनीतिक   समाजशास्त्र   और राजनीति-शास्त्र की मूल अवधारणा है। मानव के सार्वजनिक और राजनीतिक व्यवहार को समझने में इस अवधारणा का अतुलनीय महत्व है। यद्यपि इन दोनों का प्रयोग पर्यायवाची की तरह किया जाता  है  पर  राजनीतिक  समाजशास्त्र  में  इनका  विशिष्ट  अर्थ  है।  प्रत्येक  राजनीतिक  व्यवस्था  में शक्ति केवल कुछ लोगों अथवा अल्पसंख्यक समूह में ही केन्द्रित होती है। यह किस प्रकार होता है? राजनीतिक समाजशास्त्र में इन  प्रश्न  का  उत्तर  ढूँढने  के  प्रयासों  के  परिणाम-स्वरूप  ही  अभिजन (संभ्रांतजन  या  श्रेष्ठजन)  सम्बन्धी  सिद्धान्तों  का  विकास  हुआ  है।

 

अभिजन  सिद्धान्त  इस  तथ्य  पर आधारित  हैं  कि  प्रत्येक  समाज  में  मोटे  तौर  पर  दो  भिन्न  वर्ग  पाये  जाते  हैं :  एक,  थोड़े  या अल्पसंख्यक लोगों का वर्ग जो अपनी क्षमता के आधार पर समाज को सर्वोच नेतृत्व प्रदान करता है तथा शासन करता है, तथा दो, जन-समूह या असंख्य साधारणजनों का वर्ग, जिसके भाग्य में शासित  होना  लिखा  है।  प्रथम  वर्ग  को  अभिजन  वर्ग  और  दूसरे  को  जनसमूह  कहा  जाता  है। अभिजन की अवधारणा को पहले केवल राजनीतिक दृष्टि से ही देखा जाता था तथा केवल शासक वर्ग  एवं  शक्तिशाली  अभिजनों  की  ओर  ध्यान  दिया  जाता  था,  परन्तु  आज  ऐसा  नही  हैं।  आज अभिजनों में शक्तिशाली अभिजन वर्ग, पूँजीपति वर्ग, सैनिक अभिजन, शासक-वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग,

नौकरशाहों तथा प्रबन्धकों को भी सम्मिलित किया जाता है। शक्ति के असमान वितरण के अतिरिक्त सामाजिक स्तरीकरण के अध्ययनों ने भी अभिजन सिद्धान्तों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।  आज अभिजन का संप्रत्यय राजनीति  शास्त्र, समाजशास्त्र एवं राजनीतिक समाजशास्त्र में एक मौलिक संप्रत्यय माना जाता है। यह संप्रत्यय सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ को समझने में काफी महत्वपूर्ण  है

क्योंकि  प्रत्येक  समाज  में  किसी  न  किसी  प्रकार  का  सामाजिक,  राजनीतिक,  आर्थिक संस्तरण पाया जाता है।

सत्ता को अवधारणा

( Concept of Authority )

 धर्म के समाजशास्त्र की विवेचना करने के लिए वेबर ने जब विभिन्न धर्म संघों , धार्मिक नेताओं की शक्ति तथा पुरोहित वर्ग के विभिन्न प्रस्थिति समूहों ( Stratum ) का अध्ययन किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि समाज में जहाँ विभिन्न वर्गों की प्रकृति एक – दूसरे से भिन्न है वहीं विभिन्न वर्गों की शक्ति भी एक – दूसरे से बहुत भिन्न होती है । इसके अतिरिक्त , परम्परागत समाजों में जिस ढंग से शासन कार्य चलाया जाता है , उसकी प्रकृति आर्थिक रूप से विकसित समाजों के शासनतन्त्र से भिन्न होती है । इसका तात्पर्य है कि सामाजिक व्यवस्था को समझने के लिए इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है कि मनुष्य एकता में किस प्रकार बंधता है तथा वह ऐसे कार्यों को क्यों स्वीकार कर लेता है जो उसे किसी व्यक्ति के अधीन और किसी से श्रेष्ठ बना देते हैं ? दूसरे शब्दों में , जो व्यवस्था व्यक्ति को अधिकार न देकर उसे कुछ दूसरे लोगों की प्रभुता के अन्तर्गत रहकर कार्य करने को बाध्य करती है , उसके अस्तित्व में विश्वास करके हम उसे कैसे सहन कर लेते हैं ? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देने के लिए वेवर ने ऐसी अवधारणाओं पर विचार किया जिन्हें उनके ‘ राजनैतिक समाजशास्त्र ‘ का आधार माना जाता है । इन अवधारणाओं में सामाजिक वर्ग , प्रस्थिति , शक्ति , अधिकारीतन्त्र तथा सत्ता आदि प्रमुख अवधारणाएँ हैं । वेबर ने राजनैतिक समाजशास्त्र से सम्बन्धित अपने विचारों को दो खण्डों में प्रस्तुत किया । पहले खण्ड में उन्होंने सत्ता की अवधारणा तथा इसके प्रकारों की विवेचना की जबकि दूसरे भाग में वेबर ने सत्ता के ऐतिहासिक विकास पर प्रकाश डाला । इस दृष्टिकोण से आवश्यक है कि प्रस्तुत विवेचन में हम वेबर द्वारा प्रस्तुत सत्ता की अवधारणा तथा उसके प्रकारों की संक्षिप्त विवेचना करें । वेबर ने स्पष्ट किया कि प्रत्येक समाज में विभिन्न समूहों तथा उनके सदस्यों के बीच जो सम्बन्ध स्थापित होते हैं , उनका एक मुख्य आधार सत्ता की प्रकृति है । आरम्भ में ही यह समझ लेना आवश्यक है कि वेवर के अनुसार सामाजिक स्तरीकरण , सामाजिक संगठन तथा राजनीति के तीन महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं जो सभी मानवीय व्यवहारों को प्रभावित करते हैं । वेबर ने इन तीनों पक्षों के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए वर्ग , प्रस्थिति तथा शक्ति की अवधारणाओं को स्पष्ट किया एवं इन्हीं के सन्दर्भ में सत्ता या प्रभता की प्रकृति की विवेचना की । इस दृष्टिकोण से वेबर द्वारा प्रस्तुत सत्ता की अवधारणा को समझने से पहले वर्ग , प्रस्थिति तथा शक्ति के अर्थ को समझना आवश्यक हो जाता है ।

 

 वर्ग ( Class ) की प्रकृति को स्पष्ट करते हए वेबर ने बतलाया कि विभिन्न लोगों के जीवन जीने के तरीके एक – दूसरे से भिन्न होते हैं । यह तरीके एक बड़ा सीमा तक सम्पत्ति अधिकारों की प्रकृति तथा अनेक दूसरी आर्थिक दशाओं से प्रभावित होते हैं । इस प्रकार आर्थिक आधार पर समान ढंग से जीवन व्यतीत करने वाल लोग एक वर्ग का निर्माण करते हैं । इसका तात्पर्य है कि वर्ग – निर्माण का मुख्य आधार आर्थिक है लेकिन यह पूरी तरह उस ढंग का नहीं होता जिसकी व्याख्या मार्क्स द्वारा की गयी है ।

 

 प्रस्थिति ( Status ) का सम्बन्ध समाज में व्यक्ति को मिलने वाले एक ऐसे पद से है जिसके साथ एक विशेष ‘ सम्मान ‘ जुड़ा होता है । इस आधार पर वेबर ने स्पष्ट किया कि सम्मान सकारात्मक होने पर व्यक्ति की प्रस्थिति उच्च होती है तथा नकारात्मक सम्मान व्यक्ति की प्रस्थिति को निम्न बना देता है । सम्मान का सम्बन्ध व्यक्ति के वर्ग से नहीं होता । इसका अर्थ है कि उच्च वर्ग के व्यक्ति का सम्मान कम होने से उसकी प्रस्थिति निम्न हो सकती है जबकि किसी निम्न वर्ग के व्यक्ति को अधिक सम्मान मिलने पर उसकी प्रस्थिति उच्च बन सकती है । समाज में जिन लोगों की . प्रस्थिति एक – दूसरे के लगभग समान होती है उनसे एक – एक प्रस्थिति समूह ( Stratum ) का निर्माण होता है ।

 

 शक्ति ( Power ) को परिभाषित करते हुए वेबर ने लिखा , ” अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों पर अपनी इच्छा को आरोपित करने की सम्भावना को ही शक्ति कहा जाता है । ” 36 इस अर्थ में हमारे अधिकांश सामाजिक सम्बन्धों का आधार शक्ति की यही अवधारणा है । व्यक्ति बाजार में , भाषण के मंच पर , खेलों में , कार्यालयों में , यहाँ तक कि प्रीति – भोज आदि के अवसरों पर भी शक्ति का प्रयोग करने अपने प्रभाव को स्थापित और प्रदशित करना चाहता है । इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सभी स्थानों और अवसरों पर व्यक्ति के द्वारा उपयोग में लायी जाने वाली शक्ति समान प्रकृति की नहीं होती । शक्ति को इसके दो रूपों की सहायता से समझा जा सकता है – ( 1 ) शक्ति का पहला रूप वह है जिसे कुछ विशेष वस्तुओं पर अधिकार होने के कारण हम स्वयं प्राप्त कर लेते हैं और पारस्परिक हितों के कारण कुछ दूसरे लोग भी उसे स्वीकार कर लेते हैं । ( 2 ) दूसरी तरह की शक्ति वह होती है जिसे व्यक्ति किसी स्थापित संस्था से प्राप्त करता है तथा जो उसे कुछ विशेष आदेश देने के अधिकार सौंपती है । वेबर ने शक्ति के इस दूसरे रूप को ही ‘ सत्ता ‘ के नाम से सम्बोधित किया है । इसका तात्पर्य है कि सत्ता का तात्पर्य एक संस्थात्मक शक्ति ( Intsitutional Power ) से है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि सत्ता एक ऐसी शक्ति है जो एक प्रभुतासम्पन्न व्यक्ति अथवा संस्था द्वारा किसी व्यक्ति को प्रदान की जाती है तथा इसके द्वारा उस व्यक्ति को कुछ आदेश देने के अधिकार प्रदान किये जाते हैं । एक उदाहरण के द्वारा शक्ति तथा सत्ता को भिन्नता को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है । वेबर का कथन है कि एक बड़ा केन्द्रीय बैंक अपनी आर्थिक स्थिति और साख के कारण अपने ग्राहकों को ऋण देने अथवा उनसे व्यापारिक सम्बन्ध रखने के लिए उन पर कोई भी शर्ते थोप सकता है तथा ग्राहक भी बाजार पर उस बैंक के एकाधिकार को देखते हुए उन शर्तों को मान लेते हैं । यह ग्राहकों पर बैंक द्वारा उपयोग में लायी जाने वाली ‘ शक्ति ‘ है । ऐसा बैंक ऋण देने के बारे में किसी तरह की सत्ता का उपयोग नहीं करता लेकिन स्वयं अपने हितों के कारण ग्राहक उसकी शक्ति को स्वयं ही स्वीकार कर लेते हैं । दूसरी ओर , एक शासक जब कुछ लोगों के व्यवहारों को प्रभावित करने के लिए एक आदेश देता है तब इसे मानना या न मानना लोगों की इच्छा का विषय नहीं होता क्योंकि शासन के आदेश के पीछे कानून अथवा किसी दूसरी तरह की प्रभुता – सम्पन्न संस्था की मान्यता होती है । इन उदाहरणों के द्वारा वेबर ने यह स्पष्ट किया कि सत्ता एक ऐसी दशा है जिसमें कुछ विशेष तत्त्वों का समावेश होता है । यह तत्त्व हैं – ( 1 ) शासक या शासकों का एक समूह होना , ( 2 ) कुछ लोगों का शासितों या सामान्य लोगों के समूह के रूप में होना , ( 3 ) शासक में सामान्य लोगों के व्यवहारों को प्रभावित करने की इच्छा के रूप में कुछ आदेश देना , तथा ( 4 ) प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी ऐसे कानून अथवा परम्परा का होना जिससे जनसाधारण यह समझने लगे कि वह उस आदेश का पालन करने के लिए बाध्य है 17 इस प्रकार वेबर का विचार है कि सत्ता एक ऐसी दशा है जिसमें शासक और शासितों के बीच आदेश देने और उनका पालन करने के वैधानिक सम्बन्धों का समावेश होता है । शासक और शासित का तात्पर्य केवल सरकार और जनता से ही नहीं होता बल्कि किसी भी संगठन अथवा प्रतिष्ठान में आदेश देने वाले और आदेशों का पालन करने वाले लोगों से होता है ।

 

वेबर ने इस प्रश्न पर भी विचार किया कि विभिन्न सामाजिक संगठनों में सत्ता को स्थायी बनाये रखने वाली दशाएं कौन – सी हैं ? दुसरे शब्दों में , वे कौन – से कारण हैं जो लोगों को एक विशेष सत्ता को मान्यता देने को प्रेरणा प्रदान करते हैं । इस स्थिति को वेबर ने अनेक दशाओं के आधार पर स्पष्ट किया । 38 सर्वप्रथम , जिन लोगों के पास सत्ता होती है , वे संख्या में कम होने के कारण अधिक संगठित रहते हैं । साथ ही अपनी नीतियों और निर्णयों की गोपनीयता को बनाये रखने के कारण ही वे अपनी सत्ता को बनाये रखने में सफल हो जाते हैं । दूसरे , प्रभुतासम्पन्न लोगों का सदैव यह प्रयत्न रहता है कि वे किसी न किसी तरह अपनी सत्ता को बनाये रखें क्योंकि ऐसा करके ही वे अपने हितों को पूरा कर सकते हैं । तीसरे , सत्ता को स्वीकार करने वाले लोगों में भी अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके हित सत्ता से सम्बन्धित आदेशों का पालन करने से ही सुरक्षित रहते हैं । ऐसे लोग दूसरे व्यक्तियों को भी यह समझाते रहते हैं कि सत्ता में विश्वास करना और उसके आदेशो का पालन करना उन्हीं के हित में है । अन्त में , सत्ता के स्थायित्व का एक कारण यह भी है कि शासक अथवा सत्ता प्राप्त सभी लोग एक ओर अपनी श्रेष्ठता को किसी न किसी आधार पर प्रमाणित करते रहते हैं तथा दूसरी ओर सामान्य लोगों की अधीनता को उनकी अकुशलता अथवा भाग्य से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं । इन्हीं – दशाओं में सामान्य लोग सत्ता को मान्यता प्रदान करना अपने नैतिक कर्तव्य के रूप में देखने लगते हैं । विभिन्न समाजों तथा विभिन्न दशाओं में वेबर ने सत्ता की वैधता को तीन रूपों में स्पष्ट किया । इनका तात्पर्य है कि एक विशेष सत्ता द्वारा अपनी आदेश देने की शक्ति को तीन विभिन्न आधारों पर न्यायपूर्ण सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है । इसलिए इन्हें हम अक्सर ‘ सत्ता के विभिन्न प्रकार ‘ भी कह देते हैं । वेबर ने इन तीन प्रकारों को वैधानिक सत्ता , परम्परागत सत्ता तथा चमत्कारी सत्ता के नाम से सम्बोधित किया है ।

 

 

( 1 ) वैधानिक सत्ता ( Legal Authority )

 

 वेबर के अनुसार वैधानिक सत्ता वह है जिसके अन्तर्गत कुछ विशेष नियमों के द्वारा कुछ लोगों को शक्ति का उपयोग करने के अधिकार दिए जाते हैं । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि जिन लोगों को कानून के द्वारा कुछ विशेष बादेश देने के अधिकार दिए जाते हैं उनकी सत्ता को हम वैधानिक सत्ता के नाम से सम्बोधित करते हैं । वेबर के विचारों को स्पष्ट करते हुए इस सम्बन्ध में अब्राहम तथा मॉर्गन ने लिखा है कि इतिहास के प्रत्येक युग में वैधानिक सत्ता का रूप सदैव विद्यमान रहा है किन्तु आधुनिक समाजों में अधिकारीतन्त्र को हम वैधानिक सत्ता की सबसे प्रमुख कड़ी के रूप में स्वीकार कर सकते हैं । इस दृष्टिकोण से वैधानिक

 

 

 सत्ता से वेबर का तात्पर्य मुख्य रूप से प्रशासनिक संरचना से है । ऐसी सत्ता एक विवेकशील सत्ता ( Rational Authority ) होती है जिसमें सामाजिक उद्देश्यों तथा सामाजिक मूल्यों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया जाता है । किसी समाज में जिन लोगों को वैधानिक सत्ता प्राप्त होती है , उनका चनाव मनमाने ढंग से न होकर उनकी नियुक्ति एक विशेष कानूनी प्रक्रिया के द्वारा की जाती है । ऐसे लोगों की सत्ता उनकी निजी प्रतिष्ठा से सम्बन्धित नहीं होती बल्कि कानून के अन्तर्गत एक विशेष पद पर नियुक्त होने के कारण उन्हें जो अधिकार दिए जाते हैं . उनकी सत्ता वहीं तक सीमित रहती है । इसका तात्पर्य है कि वैधानिक सत्ता का एक विशेष कार्यक्षेत्र होता है जिसके बाहर जाकर इससे सम्बन्धित व्यक्ति अपनी सत्ता का उपयोग नहीं कर सकते । वैधानिक सत्ता यह स्पष्ट करती है कि एक व्यक्ति पदाधिकारी और वैयक्तिक रूप में एक – दूसरे से अलग हैं । इसका यह भी तात्पर्य हुआ कि वैधानिक सत्ता किसी व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए सत्ता का उपयोग करने की अनुमति प्रदान नहीं करती । इस सत्ता की वैधता को बनाये रखने के लिए इसके अअिकारी से यह आशा की जाती है कि वह अपने अधिकारों के उपयोग से सम्बन्धित सम्पूर्ण कार्यवाही को लिखित रूप से पूरा करेगा । दूसरी ओर , जो व्यक्ति वैधानिक सत्ता के अधीन होते हैं वे विभिन्न आदेशों का पालन इस दृष्टिकोण से करते हैं कि उनके द्वारा विधान अथवा कानूनों का पालन किया जा रहा है , इस दृष्टिकोण से नहीं कि उनका कर्तव्य किसी व्यक्ति विशेष के आदेशों का पालन करना है । तात्पर्य यह है कि वैधानिक सत्ता का स्रोत स्वयं संविधान अथवा कानून होते हैं । इन कानूनों के द्वारा एक निश्चित प्रक्रिया के अन्तर्गत कुछ लोगों को आदेश देने के अधिकार प्रदान किये जाते हैं जबकि अन्य लोगों से उन आदेशों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है । वेबर के अनुसार प्रत्येक युग में वैधानिक सत्ता किसी न किसी रूप में अवश्य विद्यमान रही है । उदाहरण के लिए प्राचीन काल में भी राजा द्वारा कुछ व्यक्तियों को पुरोहित , मन्त्री , सेनापति तथा न्यायाधीश जैसे पदों पर नियुक्त किया जाता था । ऐसे सभी व्यक्तियों के कुछ निश्चित अधिकार होते थे तथा यह लोग अपने अधिकारों की सीमा के अन्दर रहते हुए ही अपनी वैधानिक सत्ता का उपयोग करते थे । इसके बाद भी , वैधानिक सत्ता का स्पष्ट रूप आधुनिक राज्यों के प्रशासनिक ढाँचे से सम्बन्धित है जिसमें एक विकसित कर्मचारीतन्त्र के अन्तर्गत विभिन्न लोगों को एक – दूसरे से भिन्न मात्रा में वैधानिक सत्ता प्रदान की जाती है तथा ऐसे सभी व्यक्तियों के अधिकारों में एक निश्चित संस्तरण देखने को मिलता है । इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वैधानिक सत्ता केवल राजनैतिक संस्थाओं से ही सम्बन्धित नहीं है बल्कि धार्मिक , आर्थिक तथा शैक्षणिक संस्थाओं में भी वैधानिक सत्ता को देखा जा सकता है । उदाहरण के लिए , कुछ समय पहले पंजाब के मुख्य

 

 मन्त्री सुरजीत सिंह बरनाला द्वारा अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में पुलिस कार्यवाही का आदेश देना उनकी वैधानिक सत्ता को स्पष्ट करता है । इस कार्यवाही के कुछ दिन बाद अकाल तख्त के पांच प्रमुख ग्रन्थियों के आदेश से बरनाला को दण्ड दिया गया जिसे बरनाला ने भी स्वीकार किया । इसका तात्पर्य है कि धार्मिक संस्थाओं के काननों के अन्तर्गत उनकी भी एक वैधानिक सत्ता होती है जिसे उस धर्म क अनुयायियों द्वारा स्वीकार किया जाता है । इसके बाद भी किसी धार्मिक अथवा आर्थिक संगठन की वैधानिक सत्ता में उतना स्थायित्व नहीं होता जितना कि राज्य की वैधानिक सत्ता में पाया जाता है । उदाहरण के लिए , अकाल तख्त के ग्रन्थियों द्वारा जब बरनाला को पुनः दण्डित किया गया तो इस बार बरनाला ने उस दण्ड को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि वैधानिक सत्ता तभी तक प्रभावपूर्ण रहती है जब तक उससे सम्बन्धित लोग ( जनता अथवा अनुयायी ) उसे स्वीकार करते रहें ।

 

 

 

 

( 2 ) परम्परागत सत्ता ( Traditional Authority )

 

. परम्परागत सत्ता एक व्यक्ति को किसी परम्परा के द्वारा स्वीकृत पद पर आसीन होने के कारण प्राप्त होती है , यह वैधानिक नियमों के अन्तर्गत किसी पद पर आसीन होने से सम्बन्धित नहीं होती । वेबर के अनुसार सत्ता के इस रूप को स्पष्ट करते हुए रेमण्ड ऐरों ने लिखा है कि ” परम्परागत सत्ता वह सत्ता है जो विशिष्ट गुणों की परम्परा के विश्वास पर आधारित होती है तथा जिसे एक लम्बे समय से लोगों द्वारा स्वीकार किया जाता रहा है । ” ऐसी सत्ता जिन लोगों को प्राप्त होती है वे अपनी पैतृक अथवा आनुवंशिक प्रस्थिति के कारण इसका उपयोग करते हैं । परम्परागत सत्ता की प्रमुख विशेषता यह है कि यह किसी व्यक्ति को अपने आदेशों का पालन करवाने के लिए कहीं अधिक निरंकुश और विशेष अधिकार प्रदान करती है । जो व्यक्ति परम्परागत सत्ता के आदेशों के अनुसार कार्य करते हैं , वह उसकी ‘ प्रजा ‘ होते हैं । साधारणतया इन लोगों में परम्परागत सत्ता के लिए एक श्रद्धा की भावना होती है । उनका यह विश्वास होता है कि परम्परागत सत्ता पर अधिकार रखने वाले व्यक्ति में कुछ दैविक गुणों का समावेश होता है , अतः किसी भी दशा में उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । उदाहरण के लिए , कुछ समय पहले तक भारत के गाँवों में पाई जाने वाली जाति पंचायतें सत्ता के इस रूप को स्पष्ट करती हैं । जाति पंचायतों के पास यद्यपि कोई वैधानिक अधिकार नहीं होते थे लेकिन इसके फैसलों को पंच – परमेश्वर के द्वारा दिए गये फैससे के रूप में स्वीकार किया जाता था । वेबर ने परम्परागत सत्ता की प्रकृति को इसके तीन प्रमुख रूपों की सहायता | से स्पष्ट किया है । इन्हीं को परम्परागत सत्ता के मुख्य उदाहरणों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है

 

 

 ( क ) परम्परागत सत्ता का पहला रूप कूल – पिता की परम्परा में देखने को मिलता है । जिन समाजों में संयुक्त परिवार या इसी से मिलते – जुलते परिवार होते हैं , वहाँ परिवार की सम्पूर्ण शक्ति कुल पिता ( कर्ता ) के हाथों में निहित होती है । उसके द्वारा परिवार के विभिन्न सदस्यों को एक विशेष ढंग से कार्य करने और व्यवहार करने के जो आदेश दिए जाते हैं , उनके पीछे किसी कानून की शक्ति नहीं होती बल्कि परम्परा के द्वारा ही इस शक्ति का निर्धारण होता है ।

 ( ख ) पैतृक शासन , वेबर के अनुसार परम्परागत सत्ता का दूसरा उदाहरण है । कुछ समय पहले तक अधिकांश धर्मप्रधान समाजों में पैतृक शासन का एक स्पष्ट रूप देखने को मिलता था । इसके अन्तर्गत राज्य की सम्पूर्ण सत्ता एक व्यक्ति के हाथों में ही केन्द्रित रहती है तथा उसकी मृत्यु के बाद यह सत्ता स्वयं ही उसके ज्येष्ठ पुत्र अथवा उत्तराधिकारी को प्राप्त हो जाती है । यह सत्ता निरंकुश प्रकृति की होती है । एक पैतृक शासक साधारणतया उन्हीं नियमों का पालन करता है जो उसकी स्वच्छन्दता का समर्थन करने वाले होते हैं । वह अपने पदाधिकारियों का चुनाव स्वयं करता है तथा विभिन्न वर्गों के लोगों में सत्ता का वितरण इस दृष्टिकोण से करता है कि वे शासक के प्रति कितने अधिक विश्वसनीय तथा स्वामीभक्त हैं । इसका तात्पर्य है कि जो व्यक्ति शासक के सम्बन्धी अथवा कृपापात्र होते हैं , उन्हीं के द्वारा इस सत्ता को कार्यान्वित किया जाता है ।

( ग ) वेबर के अनुसार सत्ता का तीसरा रूप एक सामन्तवादी सरकार के रूप में देखने को मिलता है जो पैतृक शासन का ही संशोधित रूप है । इसके अन्तर्गत एक संविदा ( Contract ) के अधीन पैतृक शासक की सत्ता विभिन्न क्षेत्रों पर अधिकार रखने वाले अपने सामन्तों में विभाजित हो जाती है । प्रत्येक सामन्त को अपने – अपने क्षेत्र में आदेशों को उसी तरह क्रियान्वित करने का अधिकार मिल जाता है जिस तरह एक पैतृक शासक अपनी सम्पूर्ण प्रजा को आदेशों का पालन करने के सिए बाध्य कर सकता है । यह सामन्त शासक के विशेष कृपा – पात्र होते हैं तथा एक निश्चित परम्परा के अन्तर्गत वे शासक को कर तथा उपहार देते रहते हैं । स्पष्ट है कि परम्परागत सत्ता का यह रूप सुपरिभाषित नहीं होता और न ही ऐसी सत्ता के अधिकार – क्षेत्र पर कोई अंकुश रखा जा सकता है ।

 

 

 

 

 

( 3 ) चमत्कारी सत्ता ( Charismatic Authority )

 

वेवर के अनुसार चमत्कारी सत्ता का सम्बन्ध उस व्यक्ति की सत्ता से है जिसमें अपने विशिष्ट गुणों के द्वारा दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता होती है । स्पष्ट है कि ऐसी सत्ता का निर्धारण न तो वैधानिक नियमों के द्वारा होता है और न ही परम्परा के द्वारा । इसका आधार कुछ ऐसी चमत्कारिक क्रियाएं हैं जिन्हें प्रदर्शित करके कोई भी व्यक्ति सत्ता पर अपना अधिकार कर सकता है । दूसरे शब्दों में , कोई भी वह पैगम्बर , नायक , तान्त्रिक अथवा जनप्रिय नेता जो अपने चमत्कारों की सहायता से सामान्य लोगों को आदेश देने की वैधानिक शक्ति प्राप्त कर लेता है , उसे चमत्कारी सत्ता कहा जाता है । ऐसा व्यक्ति चमत्कारी सत्ता का उपयोग तभी कर सकता है जब वह यह सिद्ध कर दे अथवा कम से कम लोग यह विश्वास करने लगे कि उसके पास किसी तान्त्रिक शक्ति , देवी शक्ति या किसी अभूतपूर्व गुण के कारण एक विशेष चमत्कार दिखाने की क्षमता है । जो व्यक्ति किसी चमत्कारी सत्ता की आज्ञाओं का पालन करते हैं वे उसके ‘ शिष्य ‘ अथवा ‘ अनुयायी ‘ होते हैं । यह अनु यायी किसी कानून से निर्धारित नियमों अथवा एक विशेष परम्परा के कारण उस नेता की सत्ता में विश्वास नहीं करते बल्कि उसके वैयक्तिक गुणों के कारण उसके आदेशों का पालन करते रहते हैं । चमत्कारी सत्ता के अन्तर्गत विभि र पदाधिकारियों का चुनाव उनकी योग्यता या कुशलता के आधार पर नहीं किया जाता बल्कि सत्तावान व्यक्ति के प्रति उनकी निष्ठा और भक्ति के आधार पर होता है । वेवर ने ऐसे पदाधिकारियों को ‘ शिष्य पदाधिकारी ‘ ( Disciple Officials ) कहा है । ऐसे पदाधिकारियों की क्रियाओं का निर्धारण और उनकी आदेश देने की शक्ति चमत्कारी नेता की इच्छा से ही निर्धारित होती है । विशेष बात यह है कि ऐसे नेता के अन्तर्गत कार्य करने वाले अधिकारी न किन्हीं नियमों से बंधे होते हैं और न ही कानूनों से , बल्कि नेता की इच्छा ही उनके आचरणों को प्रभावित करती है । चमत्कारी सत्ता चाहे किसी भी रूप में हो वह अपने विश्वास करने वाले लोगों को समय – समय पर यह महसूस कराती रहती है कि उसके बिना कोई सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती । वेबर का कथन है कि एक चमत्कारी नेता जब कभी भी अपने शिष्यों की निगाह में अपने चमत्कार को सिद्ध नहीं कर पाता तो वह अपनी सत्ता को खोने लगता हे । देवर द्वारा चमत्कारी सत्ता की विशेषताओं के सन्दर्भ में रेमण्ड ऐरों ने रूस में लेनिन के नेतृत्व को चमत्कारी सत्ता के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है । आपका कथन है कि रूस की क्रान्ति के समय लेनिन ने वहाँ जिस सत्ता का उपयोग किया वह न तो कानूनों की विवेक शीलता पर आधारित थी और न ही वर्षों पुरानी रूसी परम्पराओं पर । उन्होंने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा विशिष्ट गुणों के आधार पर ही अपनी चमत्कारी सत्ता स्थापित की । – इस प्रकार स्पष्ट होता है कि चमत्कारी सत्ता पूर्णतया व्यक्तिगत होती है । समकारी सत्ता में व्यक्ति के विशेष गुणों , देवी शक्तियों अथवा असामान्य क्षमताओं होने का विश्वास किया जाता है । इस सत्ता की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी अवधि अधिक लम्बी नहीं होती । यदि ऐसी सत्ता परम्परागत सत्ता अथवा वैधानिक सत्ता में परिवर्तित न हो जाय तो कुछ समय बाद ही इसके समाप्त हो जाने की सम्भावना की जा सकती है ।

 

सत्ता की उपर्युक्त अवधारणा के द्वारा वेबर ने इस तथ्य को भी स्पष्ट किया कि मानव इतिहास में सत्ता के यह विभिन्न प्रारूप ( Types ) एक – दूसरे से पूरी तरह पृथक नहीं है बल्कि विभिन्न समाजों में इनका रूप एक – दूसरे से बहुत कुछ मिला जुला रहा है । इसका उदाहरण देते हुए वेबर ने बतलाया कि साधारणतया इंग्लैण्ड की महारानी की सत्ता को एक परम्परागत सत्ता के रूप में देखा जाता है जबकि वास्तविकता यह है कि इसमें वैधानिक सत्ता के तत्त्वों का भी समावेश है । इसका कारण यह है कि इंग्लैण्ड की महारानी का पद एक पैतृक परम्परा से सम्बन्धित है लेकिन तो भी वहाँ जन – प्रतिनिधियों के द्वारा बनाये जाने वाले कानून महारानी के नाम से ही लागू होते हैं । यदि भारत के सन्दर्भ में देखा जाय तो यहाँ की राजनीति में भी वैधानिक सत्ता तथा परम्परागत सत्ता के तत्त्वों का एक मिश्रण देखने को मिलता है । स्वतन्त्रता के बाद भारतीय राजनीति के 44 वर्षों में से यदि हम उन छ : वर्षों को अपवाद के रूप में निकाल दें जिनमें लालबहादुर शास्त्री तथा गैर कांग्रेसी प्रधानमन्त्री सत्ता में रहे तो शेष 38 वर्षों तक यहाँ की वैधानिक सत्ता नेहरू परिवार तक ही सीमित रही है । इसी के फलस्वरूप भारत की वर्तमान राजनीति में अनेक विशेषताएं पैतृक शासन की विशेषताओं से मिलती – जुलती देखने को मिलती हैं । वेबर के अनुसार दूसरी बात यह है कि सत्ता की प्रणाली जिन वैध नियमों पर आधारित होती है उनसे सम्बन्धित व्यवहारों में परिवर्तन होने के साथ ही सत्ता के रूप में परिवर्तन होने की सम्भावना रहती है । इसका तात्पर्य है कि सत्ता के विभिन्न प्रकार ऐसे प्ररूप नहीं है जो कभी न बदलते हों । उदाहरण के लिए , एक चमत्कारी नेता यह कभी नहीं चाहता कि वह परम्परागत नियमों अथवा किसी कानून से बंधकर कार्य करे । इसके बाद भी उसके अनुयायी अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रयत्न करते रहते हैं कि नेता की अभूतपूर्व क्षमताओं के बाद भी वे अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को किसी न किसी तरह अवश्य बनाये रखें । फलस्वरूप अनुयायियों को जैसे ही अवसर मिलता है , वे अपने नेता के चमत्कार को भ्रमपूर्ण सिद्ध करके अनेक परम्पराओं और नियमों को महत्त्व देने लगते हैं । इसके फलस्वरूप सत्ता की एक विशेष प्रणाली दूसरी प्रणाली के रूप में बदलने लगती है । 40 | इसके बाद भी वेबर ने यह स्वीकार किया है कि विभिन्न परिस्थितियों में सत्ता का एक प्ररूप दूसरे में बदल जाना सदैव आवश्यक नहीं होता । इसका कारण यह है कि सत्ता की प्रत्येक प्रणाली में कुछ आन्तरिक रक्षा – कवच होते हैं जो इसके प्रभाव को बनाये रखने का काम करते हैं । परिवर्तन केवल तब होता है जब एक विशेष प्रणाली से सम्बन्धित शासक उन मानदण्डों की अवहेलना करने लगते हैं जिनके आधार पर उन्हें सत्ता मिली होती है । उदाहरण के लिए , वैधानिक सत्ता के अन्तर्गत यदि कानून का पोषण करने वाले लोग कानूनों का उपयोग स्वयं अपने हित में करने लगें तो ऐसी सत्ता अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकती । इसी तरह परम्परागत सत्ता के अन्तर्गत यदि शासक परम्पराओं की अवहेलना करके निरकुश ढंग से व्यवहार करने लगें तो उसमें से लोगों का विश्वास समाप्त हो जायेगा । वेबर का कथन है कि इतिहास के विभिन्न युगों में सत्ता के विभिन्न प्ररूपों अथवा प्रणालियों में केवल इसलिए परिवर्तन होता आया है कि शासक अपनी शक्ति की सीमाओं का उल्लंघन करके व्यक्तिगत हितों को पूरा करने का प्रयत्न करते रहे हैं । इस प्रकार जहाँ एक ओर सत्ता के स्रोत को ध्यान में रखना सदैव आवश्यक है , वहा यह ध्यान रखना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि सत्ता एक तुलनात्मक और परिवर्तन शील प्ररूप है ।

 

 

 

 

 

समालोचना ( Critique ) – यह सच है कि वेबर ने सत्ता की अवधारणा को वैज्ञानिक आधार पर प्रस्तुत करके यह स्पष्ट कर दिया कि कुछ व्यक्ति सामाजिक संगठन में कोई अधिकार न मिलने के बाद भी सत्ताधारी व्यक्ति की श्रेष्ठता को क्यों स्वीकार कर लेते हैं । लेकिन सत्ता की व्याख्या में वेबर ने अनेक परस्पर विरोधी तथ्यों का उल्लेख करके अपनी विवेचना की ताकिकता स्वयं कम कर ली । यही कारण है कि अनेक विद्वानों ने वेबर की इस अवधारणा के सभी पक्षों को स्वीकार नहीं किया है । आलोचकों का मत है कि वेबर ने जिस तरह सामाजिक क्रिया के चार प्रकारों का उल्लेख किया है उसके अनुरूप उन्होने सत्ता के प्रकारों में समुचित संयोजन स्थापित नहीं किया । साधारणतया सामाजिक क्रिया के सन्दर्भ में सत्ता के भी चार स्वरूप होने चाहिए थे । दूसरी बात यह है कि वेबर ने सत्ता के जिन प्रकारों का उल्लेख किया है उन्हें वेबर ने केवल एक आदर्श अथवा मॉडल के रूप में मानते हुए यह निष्कर्ष दिया है कि किसी भी समाज में सत्ता के एक से अधिक प्रकार एक साथ विद्यमान हो सकते हैं । इसके विपरीत , वास्तविकता यह है कि एक विशेष अवधि में किसी समाज के अन्तर्गत सत्ता का एक विशेष स्वरूप ही अधिक प्रभावपणं होता है जिस पर वेबर ने कोई प्रकाश नहीं डाला । अन्त में , यह भी कहा जा सकता है कि वेबर ने आधुनिक समाजों के प्रशासन को वैधानिक सत्ता से सम्बन्धित माना है जबकि व्यावहारिक रूप से वैधानिक सत्ता के आधुनिक रूप में भी चमत्कारी तथा परम्परागत सत्ता के कुछ न कुछ तत्त्व अवश्य पाये जाते हैं । इन आलोचनाओं के बाद भी यह स्वीकार करना आवश्यक है कि सत्ता की विवेचना में वेबर का दष्टि कोण दूसरे विद्वानों की अपेक्षा कहीं अधिक तर्कपूर्ण तथा व्यावहारिक है ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

अधिकारीतन्त्र

( Bureaucracy )

 

राजनैतिक समाजशास्त्र की विवेचना में वेबर का ध्यान आधुनिक राज्यों की उन विशेषताओं की ओर आकृष्ट हुआ जो पैतृक शासन तथा सामन्तवादी शासन से

उत्पन्न होने वाले दोषों से उत्पन्न हुई थीं । आज संसार के अधिकांश राज्यों में वैधानिक सत्ता पर आधारित शासन देखने को मिलता है । इस दृष्टिकोण से वेबर ने सर्वप्रथम उन दशाओं को स्पष्ट किया जिनके अन्तर्गत परम्परागत और चमत्कारी सत्ता के स्थान पर वैधानिक सत्ता तथा इसके एक विशेष उपकरण के रूप में अधि कारीतन्त्र को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा । सर्वप्रथम परम्परागत तथा चमत्कारी सत्ता की प्रणाली में शासन से सम्बन्धित अधिकांश अधिकारी वस्तु के रूप में मिलने वाले करों को अपनी निजी सम्पत्ति समझने लगे थे । जब मुद्रा का प्रचलन अधिक हो गया तब इस बात की आवश्यकता महसस की जाने लगी कि एक विश्वसनीय और कार्य – कुशल अधिकारीतन्त्र को विकसित करके राज्य की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाया जाय । इसके अतिरिक्त राज्य से आन्तरिक शान्ति की स्थापना करने , सामाजिक सेवाओं को पूरा करने तथा प्रौद्योगिक विकास करने के लिए भी यह आवश्यक हो गया कि शासन उन व्यक्तियों के माध्यम से चलाया जाय जो किसी विशेष व्यक्ति अथवा नेता के भक्त न होकर राज्य और कानून के प्रति अधिक वफा दार हों । राज्य में सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को दूर करने में भी वैधा निक सत्ता को अधिक उपयोगी महसूस किया जाने लगा । अधिकारीतन्त्र वैधानिक सत्ता का एक विशेष उपकरण है , इसलिए वैधानिक सत्ता के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए वेबर ने अधिकारीतन्त्र की प्रकृति तथा इसके लक्षणों का विश्लेषण किया । इस विश्लेषण में वेबर ने अधिकारीतन्त्र के चार पक्षों को विशेष रूप से स्पष्ट किया – – ( 1 ) अधिकारीतन्त्र के विकास के ऐतिहासिक कारण , ( 2 ) अधिकारी तन्त्र की कार्यप्रणाली में वैधानिक शासन का प्रभाव , ( 3 ) पैतृक शासन की कार्य प्रणाली की तुलना में , अधिकारीतन्त्र की प्रकृति , तथा ( 4 ) आधुनिक विश्व में अधिकारीतन्त्र के महत्त्वपूर्ण लक्षण तथा परिणाम । इन्हीं पक्षों के विवेचन द्वारा अधिकारीतन्त्र के बारे में वेबर के विचारों को अधिक व्यवस्थित रूप से समझा जा सकता है । सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है कि ‘ अधिकारीतन्त्र एक इस तरह का संस्तरणात्मक संगठन ( Hierarchical Organization ) है जिसका उद्देश्य बड़े पैमाने पर प्रशासनिक कार्यों को चलाने के लिए बहुत से व्यक्तियों के कार्य को तार्किक रूप से समन्वित करना होता है । ” 42 यदि इस दृष्टिकोण से विचार किया जाय तो जहाँ कहीं भी कानूनों पर आधारित शासन व्यवस्था ( वैधानिक सत्ता ) पायी जाती है वहाँ अधिकारीतन्त्र का प्रशासनिक संगठन अनेक नियमों अथवा सिद्धान्तों पर आधारित होता है ।

( 1 ) सर्वप्रथम , अधिकारीतन्त्र के अन्तर्गत सरकारी काम निरन्तरता के आधार पर किया जाता है । इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक कार्य के पीछे कुछ विशेष उद्देश्य और नीतियां होती हैं जिनके पालन की अपेक्षा इस तन्त्र से सम्बन्धित प्रत्येक व्यक्ति से करने की आशा की जाती है ।

 ( 2 ) अधिकारीतन्त्र के अन्तर्गत प्रत्येक कार्य पूर्व – निश्चित नियमों के अनुसार होता है जिनमें तीन नियम अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । सर्वप्रथम , कोई भी अधिकारी अथवा कर्मचारी अपने प्रत्येक कार्य को अवैयक्तिक रूप से ही कर सकता है । दूसरे , प्रत्येक कार्य को पूरा करने के लिए सम्बन्धित अधिकारियों को कुछ विशेष अधिकार सौंपे जाते हैं । तीसरे , किसी कार्य के लिए एक अधिकारी कुछ वैध साधनों का प्रयोग करके ही जनता को उसके लिए बाध्य कर सकता है । वह मनमाने रूप से अपने अधिकारों का उपयोग नहीं कर सकता ।

 ( 3 ) सम्पूर्ण अधिकारीतन्त्र में प्रत्येक अधिकारी के दायित्व और अधिकार उसके विभाग की सत्ता का एक अंग मात्र होते हैं । साधारणतया उच्च अधिकारियों को निरीक्षण का अधिकार दिया जाता है जबकि निम्न श्रेणी के अधिकारियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे आग्रह के द्वारा अपने कार्यों को पूरा करें ।

( 4 ) इस तन्त्र में सरकारी और व्यक्तिगत कार्य एक – दूसरे से बिलकुल अलग होते हैं । इसका तात्पर्य है कि एक अधिकारी राज्य के साधनों का उपयोग तो कर सकता है लेकिन किसी भी रूप में वह उन पर अपना स्वामित्व प्रदर्शित नहीं कर सकता ।

 ( 5 ) कोई भी अधिकारी अपने पद का उपयोग उसे व्यक्तिगत सम्पत्ति मान कर नहीं कर सकता । इसका तात्पर्य है कि किसी पद को न तो बेचा जा सकता है और न ही उसे किसी दूसरे व्यक्ति को उत्तराधिकार में दिया जा सकता है । अधिकारियों को अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह निभाने की प्रेरणा देने के लिए उन्हें पेन्शन प्राप्त करने और पद से बिना कारण न हटाये जाने का अधिकार अवश्य मिलता है लेकिन यह अधिकार भी सम्पत्ति के समान नहीं होते ।

( 6 ) अधिकारीतन्त्र के प्रशासनिक संगठन का एक प्रमुख नियम यह है कि कार्य लिखित दस्तावेजों ( Written Documents ) के आधार पर किये जाते हैं ।  इन दस्तावेजों को विभिन्न फाइलों के रूप में सुरक्षित रखा जाता है जिससे आवश्यकता पड़ने पर किसी भी पुराने निर्णय और उसके आधार को कभी भी पुनः देखा जा सके ।

 

 

282 सामाजिक विचारक इस प्रकार स्पष्ट होता है कि अधिकारीतन्त्र में सरकारी काम की निरन्तर निश्चित नियमों के द्वारा अधिकारों का सीमित उपयोग , नियमों को लागू करने के निरीक्षण , काम करने का अवैयक्तिक ढंग , पद और पदाधिकारी का भेद तथा लि रूप में कार्यों का सम्पादन कुछ ऐसी प्रमुख विशेषताएं हैं जिनके बिना अधिकारी के रूप में वैधानिक सत्ता को प्रभावपूर्ण नहीं बनाये रखा जा सकता ।

 

 वेबर ने अधिकारीतन्त्र की प्रकृति को एक पैतृक शासन से इसकी भिन्नता के आधार पर स्पष्ट किया है । सर्वप्रथम , एक पैतृक शासक और उसके द्वारा नियुक्त अधिकारी सम्पूर्ण कार्य अपनी इच्छा से करते हैं तथा वे कोई भी काम तभी करता चाहते हैं जब काम से उत्पन्न कष्टों के लिए उन्हें उसका समुचित पुरस्कार दिया जाय । दूसरे , पैतृक शासन के अन्तर्गत शासक और उसके अधिकारी कभी भी यह नहीं चाहते कि किन्हीं निश्चित नियमों के द्वारा उनकी सत्ता को एक सीमा में बाँध दिया जाय । वे कुछ परम्परागत नियमों का पालन कर सकते हैं लेकिन ऐसे नियम उनकी स्वच्छन्दता का समर्थन करने वाले ही होते हैं । तीसरे , एक पैतृक शासक यह स्वयं निश्चित करता है कि वह अपनी सत्ता को छोड़े अथवा जब तक चाहे उसे बनाये रखे । वह अपने पदाधिकारियों को क्योंकि स्वयं चुनता है इसलिए उनके कामों का निरीक्षण भी अपने प्रति उनकी स्वामिभक्ति और काम के प्रति रुचि को देखते हुए करता है । चौथे , पैतृक शासन में सभी प्रशासनिक पद शासक की इच्छा से जुड़े होते हैं तथा सभी अधिकारियों को शासक का व्यक्तिगत नौकर समझा जाता है । पांचवें , ऐसे शासन में अधिकारियों और प्रशासन पर होने वाला व्यय शासक के व्यक्तिगत कोष से दिया जाता है । अन्त में , सरकारी कार्य लिखित रूप में नहीं होता बल्कि शासक की इच्छाओं को ध्यान में रखते हुए मौखिक रूप से किया जाता है । वैधानिक सत्ता के अन्तर्गत अधिकारीतन्त्र की प्रकृति पैतक शासन की उपर्युक्त विशेषताओं से पूर्णतया भिन्न है । सवप्रथम , अधिकारीतन्त्र अधिकारियों के पद और उनके कार्यों का संचालन एक प्रशासनिक संगठन से प्रभावित होता है , किसी व्यक्ति की इच्छा से नहीं । दूसरे , इसके अन्तर्गत जहाँ अनेक लिखित नियमों को लागू करने पर जोर दिया जाता है , वहीं अधिकारियों की नियुक्ति भी कुछ विशेष नियमों के अन्तर्गत ही होती है । तीसरे , एक बार जब किसी व्यक्ति को एक अधिकारी के रूप में नियुक्त कर दिया जाता है तो वह नियमों का अवैयक्तिक रूप से पालन करता है , चाहे नियमों के पालन से स्वयं उसे नियुक्त करने वाले व्यक्ति अथवा संगठन को ही हानि क्यों न होती हो । उदाहरण के लिए सरकार द्वारा नियुक्त न्यायाधीश नियमों का पालन करने के लिए सरकार के विरुद्ध भी कोई आदेश दे सकते हैं । चौथे , प्रशासनिक कार्यों की निरन्तरता को बनाये रखने के लिए पूरे समय काम करने वाले अधिकारियों को नियुक्त किया जाता है । अपने कार्य से व्यक्तिगत प्रसन्नता न मिलने के बाद भी उन्हें एक निश्चित प्रणाली के अन्तर्गत काम करना आवश्यक होता है ।

 

 

 पाँचवें , अधिकारीतन्ध में एक अधिकारी को अपने कर्तव्यों का समुचित रूप से पालन करने का अवसर देने के लिए उसकी कुशलता का मूल्यांकन उसके द्वारा अजित लाभ से नहीं किया जाता । इसी कारण किसी भी कर्मचारी का वेतन उसके विभागीय राजस्व से नहीं दिया जाता बल्कि एक पथक सरकारी कोष से दिया जाता है । यह सभी विशेषताएँ पैतृक शासन के रूप में परम्परागत सत्ता तथा अधिकारीतन्त्र के रूप में वैधानिक सत्ता के अन्तर को स्पष्ट करती हैं ।

 वेबर ने वैधानिक सत्ता के अन्तर्गत प्रशासनिक संगठन की इन विशेषताओं पर विचार करने के बाद आधुनिक जगत में अधिकारीतम्ब के महत्त्वपूर्ण लक्षणों और परिणामों पर भी प्रकाश डाला है । इन्हें संक्षेप में निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :

 

( 1 ) सर्वप्रथम , वेबर का कथन है कि अधिकारीतन्त्र का संगठन दूसरे संगठनों की तुलना में उसी प्रकार श्रेष्ठ है जिस प्रकार मशीन से किया गया उत्पादन हाथ से किये गये उत्पादन से श्रेष्ठ होता है । उदाहरण के लिए काम का नियमित रूप से होना , किसी तरह की अस्पष्टता न होना , काम लिखित रूप से और निरन्तर होते रहना , कार्य – संचालन में एकरूपता होना , व्यक्ति की अपेक्षा नियमों की प्रधानता होना और मतभेद की कम से कम सम्भावना रहना अधिकारीतन्त्र के कुछ विशेष लाभ हैं । इसके बाद भी यह लाभ इसलिए तुलनात्मक है कि अधिकारीतन्त्र एक स्वयंचलित मशीन की तरह है जिसमें व्यक्तिगत कुशलता का अधिक महत्त्व नहीं होता । वेबर के शब्दों में ” वर्तमान न्यायाधीश सामान बेचने वाली ऐसी मशीन की तरह है जिसमें कीमत के समान मुकदमे के प्रमाण डाल दिए जाते हैं और वस्तु के समान निर्णय निकलकर सामने आ जाता है । इसका तात्पर्य है कि अधिकारी तन्त्र में व्यक्ति यदि नियमों को जानता है तो वह किसी भी निर्णय को पहले से ही बतला सकता है । इस तन्त्र में विधि का शासन होने के कारण लक्ष्य पर आधारित मनोवृत्ति व्यावहारिकता से अक्सर अलग हो जाती है । प्राचीन समय में एक शासक कोई भी निर्णय लेने के लिए सहानुभूति , परिस्थिति , कृतज्ञता तथा अतीत की निष्ठा आदि से प्रभावित था लेकिन अधिकारीतन्त्र अवैयक्तिक होने के कारण किसी तरह के प्रेम , घृणा अथवा किसी दूसरी वैयक्तिक भावना से प्रभावित नहीं होता । वास्तव में यह दशाएँ अधिकारीतन्त्र की तार्किकता और अवैयक्तिकता का परिणाम हैं ।

 

 ( 2 ) आधुनिक अधिकारीतन्त्र का दूसरा लक्षण ‘ प्रशासन के साधनों पर एकाधिकार की प्रवृत्ति ‘ है । वेबर ने मार्क्स की इस शब्दावली का उपयोग इसलिए किया कि वेबर यह स्पष्ट करना चाहते थे कि एकाधिकार की यह प्रक्रिया केवल आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं पायी जाती बल्कि सरकार , सेना , राजनैतिक दलों , विश्व विद्यालय और सभी बड़े – बड़े संगठनों में एकाधिकार की प्रवृत्ति विद्यमान होती है । इसका तात्पर्य है कि वैधानिक सत्ता में जैसे – जैसे किसी संगठन का आकार बढ़ता है . इसे चलाने वाले साधनों को स्वतन्त्र व्यक्तियों के हाथों से छीनकर उनका अधिकार शासन करने वाले कुछ थोड़े से व्यक्तियों को सौंप दिया जाता है । 47 उदाहरण के लिए जब बड़े – बड़े व्यापारिक संगठनों के द्वारा उत्पादन के उपकरणों पर अधिकार किया गया तब कारीगरों के अधिकार छिन गये ; जब सरकारों ने प्रशासन पर एका धिकार कर लिया तो सामन्ती व्यवस्था वाले सरदारों के अधिकार छिन गये ; जब विश्वविद्यालयों ने अपनी बड़ी – बड़ी प्रयोगशालाओं और पुस्तकालयों की स्थापना कर ली तो व्यक्तिगत रूप से शोध करने वाले विद्वानों का महत्त्व कम हो गया । इससे स्पष्ट होता है कि अधिकारीतन्त्र अधिकारों के विकेन्द्रीकरण को महत्त्व न देकर अधिकारों के एकाधिकार में अधिक रुचि लेता है ।

 

( 3 ) अधिकारीतन्त्र की तीसरी विशेषता समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को कम करना है । इसका तात्पर्य है कि अधिकारीतन्त्र के विकास से धनी और सम्भ्रान्त लोगों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिये जाते हैं । इस बात को पुनः अधिकारीतन्त्र की पैतृक सरकार से तुलना करके समझा जा सकता है । एक पैतृक शासन में सरकारी कामों का सम्पादन साधारणतया उन्हीं व्यक्तियों के द्वारा किया जाता है जो आर्थिक रूप से सम्पन्न होते हैं अथवा किसी न किसी रूप में उन्हें समाज में अधिक प्रतिष्ठा मिली होती है । ऐसे लोग अपने कार्य के विशेषज्ञ नहीं होते बल्कि प्रशासन के काम को एक शौक अथवा आनन्दपूर्ण व्यवसाय के रूप में देखते हैं । इसके फलस्वरूप उन्हें अपने पद के द्वारा आर्थिक लाभ उठाने के भी अवसर दिये जाते रहते हैं । अधिकारीतन्त्र में उन लोगों का समावेश होता है जो अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ होते हैं तथा अपना पूरा समय प्रशासन के लिए देना आवश्यक मानते हैं । नियमों को लागू करने लिए इनकी दृष्टि में सभी लोग समान होते हैं । अधिकारीतन्त्र का एक अधिकारी समाज के किसी भी आर्थिक वर्ग का सदस्य हो सकता है तथा परम्परागत रूप से उसके परिवार का प्रतिष्ठित होना आवश्यक नहीं होता । इस दृष्टिकोण से अधिकारीतन्त्र को विशेषज्ञों द्वारा लागू किया जाने वाला एक ऐसा शासन कहा जा सकता है जिसमें सामाजिक और आर्थिक असमानताएं कम से कम होती हैं ।

 

 ( 4 ) अधिकारीतन्त्र का अन्तिम महत्वपूर्ण लक्ष्य सत्ता के सम्बन्धों को एक स्थायी प्रणाली का लागू होना है । पैतृक शासन से सम्बन्धित कुलीन परिवारों के अधिकारी प्रशासनिक कार्य को न केवल आनन्द और वैभव की भावना से करते हैं बल्कि ऐसे शासन से अधिकारी के सम्बन्धों का भी स्थायी होना आवश्यक नहीं होता । इसके विपरीत , अधिकारीतन्त्र के अन्तर्गत एक अधिकारी की सम्पूर्ण सा जिक और आर्थिक अस्तित्व प्रशासन से मिल जाता है । इसी कारण वह अन्य कम चारियों का जितना अधिक सहयोग प्राप्त कर लेता है . वह अपने कार्य में उतना ही सफल रहता है । यह तन्त्र इसलिए भी स्थायी है कि इससे शक्ति होने वाले लोग इसे न तो समाप्त कर सकते हैं और न ही इससे नियमों में वैयक्तिक इच्छा से कोई परिवर्तन ला सकते हैं । वर्तमान अधिकारीतन्त्र का संचालन उन विशेषज्ञों के द्वारा होता है जो अपने कार्य के लिए एक लम्बा प्रशिक्षण प्राप्त करके विशेष क्षेत्र में योग्यता प्राप्त कर लेते हैं । प्रशिक्षण और विशेषीकरण की यह प्रक्रिया भी अधिकारी तन्त्र के स्थायित्व में वृद्धि करती है । उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि एक वैधानिक सत्ता को बनाये रखने के लिए वेवर अधिकारीतन्त्र को प्रशासन की स्थायी और आवश्यक विशेषता मानते हैं । इस सम्पूर्ण विवेचन में वेबर के विचार उन अराजकतावादियों और समाज वादियों से भिन्न हैं जो यह मानते हैं कि एक आदर्श समाज में प्रशासन के लिए अधिकारीतन्त्र अनावश्यक ही नहीं है बल्कि न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की स्थापना में बाधक भी है । वेबर ने दृढ़ना से यह विचार किया कि समाज में यदि वैधानिक सत्ता को बनाये रखना आवश्यक है तो इसे अधिकारीतन्त्र के द्वारा ही प्रभावपूर्ण बनाया जा सकता है । यदि कोई व्यवस्था अधिकारीतन्त्र के बिना किसी तरह का सुधार लाने का वचन देती है तो ऐसा सुधार निश्चय ही अधिक अव्यावहारिक और शोषणकारी होगा ।

 

 

 

 

 

 

समालोचना

( Critical Evaluation )

 

 वास्तविकता यह है कि मैक्स वेबर उन प्रमुख विचारकों में से एक हैं जिन्होंने अपने समय के प्रचलित सामाजिक दर्शन और चिन्तन को एक नया मोड़ प्रदान किया । इस सम्बन्ध में रेमण्ड ऐरो ( R . Aron ) ने लिखा कि ” मैक्स वेबर सम्भवतः महानतम् समाजशास्त्री हैं । ” समाजशास्त्र के लिए उनके योगदान को स्पष्ट करते हए बेन्डिक्स ( Berdix ) ने लिखा कि ‘ वेबर ने समाजशास्त्र के यद्यपि किसी विशेष सम्प्रदाय को स्थापित नहीं किया लेकिन उन्होंने समाजशास्त्र में सभी सम्प्रदायों और इसकी सभी शाखाओं को किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित किया । है । मैक्स वेबर के चिन्तन में न केवल एक गहन अन्तर्दृष्टि विद्यमान है बल्कि समकालीन और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर उन्होंने जो निष्कर्ष प्रस्तुत किए , वे आज भी उतने ही उपयोगी हैं । ” वेबर द्वारा प्रस्तुत सामाजिक क्रिया का विश्लेषण . मानव व्यवहारों का वर्गीकरण , विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन तथा सत्ता और अधिकारीतन्त्र की अवधारणाएं , ऐतिहासिक तथा समाजशास्त्रीय चिन्तन पर आधारित होने के बाद भी इतिहासवेत्ताओं और दूसरे समाजशास्त्रियों द्वारा दी गयी विवेचनाओं से अधिक उपयुक्त हैं । अक्सर यह कहा जाता है कि ‘ मैक्स वेबर आजीवन कार्ल मार्क्स के भूत से द्वन्द्व करते रहे । ‘ इसी प्रयत्न में उन्होंने राजनैतिक पूंजीवाद को आधुनिक पूंजीवाद से पृथक करके मार्क्स के विचारों से असहमति व्यक्त की ; धर्म के समाजशास्त्र की विवेचना द्वारा आर्थिक कारकों के निर्णायकवादी प्रभाव को अस्वीकार किया ; तथा राजनैतिक समाजशास्त्र के विभिन्न पक्षों को स्पष्ट करके सामाजिक सम्बन्धों को अधिक व्यवस्थित रूप से समझने की आवश्यकता पर बल दिया । सच तो यह है कि वेबर ने जिस पद्धतिशास्त्र को विकसित किया , वह भी इन्हीं प्रयत्नों की शृंखला की एक कड़ी है । इसके बाद भी वेबर को मार्क्स का विरोधी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वेबर के अधिकांश विचार किसी पूर्वाग्रह पर आधारित न होकर तर्कपूर्ण तथ्यों पर आधारित हैं । सालोमन ने सामाजिक चिन्तन में वेबर के योगदान का मूल्यांकन करते हुए बतलाया कि एक दृष्टिकोण से वेबर का स्थान मार्क्स की तुलना में कहीं अधिक व्यावहारिक और महत्त्वपूर्ण है । मार्क्स का सम्पूर्ण चिन्तन एक ऐसे लक्ष्य से बंधा रहा जो श्रमिकों को अधिक जागरूक बनाकर उन्हें अपने अधिकारों के प्रति सचेत कर पाता । उनके चिन्तन का अन्तिम लक्ष्य एक साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना के पक्ष में विभिन्न तर्क और अवधारणाएँ प्रस्तुत करना था । मार्क्स से भिन्न , वेवर के विचारों में न तो कोई उग्रता है और न ही उनके विचार किसी स्तर पर एकपक्षीय हैं । वेबर का सम्पूर्ण चिन्तन उन ठोस तथ्यों पर आधारित रहा जिन्हें सरलता से अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।

2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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