व्याख्यात्मक बोध की पद्धति
( Verstehen : Method of Interpretative Understanding )
समाजशास्त्रीय विश्लेषण की पद्धति क्या हो ? अथवा समाजशास्त्र की अध्ययन – वस्तु अर्थात् सामाजिक क्रियाओं का वैज्ञानिक बोध किस प्रकार किया जाय ? इसके लिए वेबर ने जिस पद्धति को प्रस्तुत किया , उसे अपने जर्मन भाषा में ‘ वटहीन ‘ ( Verstehen ) कहा । जर्मन शब्द ‘ वटहीन ‘ का कोई स्पष्ट अंग्रेजी अथवा हिन्दी पर्याय न होने के कारण अक्सर इसका अनुवाद करना कठिन हो जाता है । लेकिन सामान्य शब्दों में वर्स्टहीन का अभिप्राय ‘ बोध ‘ ( Understanding ) अथवा ‘ अन्तर्दृष्टि ‘ ( Insight ) से है । जर्मनी के दार्शनिक सम्प्रदाय में पहले से ही एक शब्द ‘ हरमेन्यूटिक्स ‘ ( Hermeneutics ) का प्रयोग होता रहा था जिसका तात्पर्य किसी कर्ता की क्रिया के अर्थ को समझने के लिए स्वयं को उसके स्थान पर रखकर वास्तविकता को ज्ञात करना था । डिल्थे ( Dilthey ) से प्रभावित होकर वेबर ने ‘ हरमेन्यूटिक्स ‘ शब्द की जगह ‘ वट हीन ‘ शब्द का उपयोग एक ऐसी पद्धति के लिए किया जिसके द्वारा मानव व्यवहारों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जा सकता है । सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार एक कलाकार द्वारा किसी कलाकृति को समझने के लिए स्वयं को चित्र बनाने वाले की स्थिति में रखकर उसे समझना पड़ता है अथवा जिस प्रकार एका मानसिक चिकित्सक गहन दृष्टि के द्वारा किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझता है , उसी प्रकार वटहीन एक ऐसी पद्धति है जिसके द्वारा कोई अध्ययनकर्ता स्वयं को क्रिया करने वाले कर्ता ( Actor ) की स्थिति में रखकर उसकी क्रियाओं का व्याख्यात्मक बोध करने का प्रयत्न करता है । इसे स्पष्ट करते हुए चार्ल्स कले ( C . H . Cocley ) ने लिखा है , ” वहीन अध्ययन का वह तरीका है जिसके द्वारा कोई अध्ययनकर्ता सम्पर्क और संचार के द्वारा क्रिया करने वाले व्यक्ति ( कर्ता ) के विचारों और भावनाओं में सहभाग करते हुए स्वयं को उसकी मानसिक स्थिति में इस तरह ले आता है जिससे उसी के विचारों और अर्थों के सन्दर्भ में किसी विशेष व्यवहार को समझा जा सके । ” 14 इस प्रकार वटहीन मानवीय व्यवहारो अथवा सामाजिक क्रियाओं के व्याख्यात्मक बोध की एक विशेष पद्धति है । वेबर का विचार है कि समाजशास्त्रीय अध्ययन की मुख्य विषय – वस्तु सामा जिक क्रियाओं से सम्बन्धित गतिविधियों और परिणामों की कारणात्मक विवेचना है ।
इस प्रकार सामाजिक क्रियाएं ही सभी मानवीय व्यवहारों का निर्धारण करती हैं । इसका तात्पर्य है कि यदि हम मानवीय व्यवहारों को समझना चाहते हैं तो व्यक्तियों की क्रियाओं के वास्तविक अर्थ को समझना आवश्यक है । वास्तविकता यह है कि विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों को उत्पन्न करने में भी मानवीय व्यवहारों की ही एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है , अत : सामाजिक क्रियाओं के बोध द्वारा ही मानवीय व्यवहारों की वास्तविकता को समझा जा सकता है । इस सम्बन्ध में वेबर का विचार है कि कुछ सामाजिक क्रियाएँ इतनी सरल और स्पष्ट होती हैं कि उन्हें समझने की विशेष आवश्यकता नहीं होती । लेकिन कुछ क्रियाएँ ऐसी होती हैं जिनका बाह्य रूप स्पष्ट नहीं होता । ऐसी क्रियाओं के अर्थ और उद्देश्य को उनके आन्तरिक रूप में समझे बिना उन परिस्थितियों को भी नहीं समझा जा सकता जो सामाजिक क्रियाओं के द्वारा उत्पन्न होती हैं । इस प्रकार समाजशास्त्रीय विश्लेषण के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न सामामिक क्रियाओं में निहित उन प्रयोजनों अथवा अर्थों का बोध कर लिया जाय तो कर्ता के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हों । अपने कथन को स्पष्ट करते हुए वेबर ने बतलाया कि प्रत्येक कर्ता के लिए अपने द्वारा की जाने वाली क्रिया का एक विशेष अर्थ होता है । यही अर्थ न केवल उसके लक्ष्य और साधनों को स्पष्ट करता है बल्कि इसी के सन्दर्भ में यह भी समझा जा सकता है कि कोई विशेष क्रिया किन मूल्यों को ध्यान में रखते हुए की गयी । इस प्रकार मानवीय क्रियाओं को समझने के लिए कर्ता के उन प्रयोजनों ( Inten tions ) को समझना आवश्यक होता है जो क्रिया से सम्बन्धित होते हैं । इसका तात्पर्य है कि सामाजिक क्रियाओं के क्षेत्र में हमें परस्पर क्रिया करने वाले व्यक्तियों की न केवल तुलनात्मक स्थिति को समझना आवश्यक होता है बल्कि वे एक – दूसरे के जिन वास्तविक अथवा सम्भावित व्यवहारों के सन्दर्भ में क्रिया करते हैं , उनको ध्यान में रखना भी आवश्यक होता है ।
इसे वेबर ने सामाजिक क्रियाओं का ‘ व्यक्तिनिष्ठ बोध ‘ ( Subjective Understanding ) कहा । वेबर के अनुसार यह व्यक्तिनिष्ठ बोध एक ऐसी विशेषता है जिसे प्राकृतिक विज्ञानों में नहीं पाया जा सकता । प्राकृतिक विज्ञानों में हम कुछ घटनाओं की समानताओं अथवा असमानताओं के आधार पर जिन नियमों का निर्माण करते हैं ; उन्हीं के आधार पर घटनाओं की व्याख्या कर देते हैं । इसके विपरीत , समाजशास्त्रीय ज्ञान का सम्बन्ध क्रियाओं अथवा घटनाओं के उस व्यक्तिनिष्ठ बोध से होता है जिसे परस्पर क्रिया करने वाले व्यक्तियों के प्रयोजनों और उद्देश्यों के सन्दर्भ में समझा जाता है । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि प्राकृतिक विज्ञान दोषपूर्ण है अथवा समाजशास्त्र । इस अर्थ में प्राकृतिक विज्ञानों से अधिक श्रेष्ठ है । इसका आशय केवल यह है कि वस्टहीन पद्धति के द्वारा समाज शास्त्र में वे अध्ययन भी किए जा सकते हैं जिनकी प्राकृतिक विज्ञानों में नितान्त कमी है । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि वर्टहीन से वेबर का तात्पर्य प्रयोजनात्मक बोध ( Motivational Understanding ) से है । यह वह पद्धति है जिसके द्वारा कर्ता द्वारा लगाए गये अर्थ के सन्दर्भ में ही उसकी क्रियाओं का व्याख्या की जाती है । इस पद्धति की क्रियाविधि ( Mechanism ) को यदि एक क्रम में स्पष्ट किया जाय तो इसके द्वारा सामाजिक क्रियाओं में निहित अर्थों तथा सामाजिक परिस्थितियों पर पड़ने वाले उनके प्रभावों को सरलतापूर्ण समझा जा सकता है । प्रत्येक सामाजिक क्रिया कर्ता द्वारा किसी विशेष घटना के प्रभाव अथवा अनुभव के कारण की जाती है । जब कोई घटना व्यक्ति को प्रभावित करती है तब व्यक्ति पहले उसके प्रभाव का मूल्यांकन करता है । इसके पश्चात् वह अपने पिछले अनुभवों , वर्तमान हितों और कुछ मूल्यों के सन्दर्भ में अपने व्यवहार की रूपरेखा बनाना आरम्भ कर देता है । वह घटनाओं के प्रभाव का मूल्यांकन जिस रूप में करता है , उसी के अनुसार कर्ता के मन में अपने व्यवहार के कुछ प्रयोजन अथवा अर्थ भी विकसित होने लगते हैं ।
सामान्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यदि वह किसी घटना के प्रभाव को अपने लिए अनुकूल समझता है तो वह उसे स्वीकार कर लेता है जबकि इस प्रभाव के प्रतिकूल होने पर वह उससे प्रभावित होना नहीं चाहता । इस प्रकार तत्कालीन दशाओं और अपने साधनों को ध्यान में रखते हुए ही कर्ता द्वारा एक विशेष क्रिया की जाती है जिसका उसके लिए एक विशेष अर्थ और प्रयोजन होता है । यह क्रिया पहले की दशाओं से प्रभावित ही नहीं होती बल्कि स्वयं भी परिस्थितियों में परिवर्तन उत्पन्न करती है । वेबर के अनुसार क्रिया के इन सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए जब कर्ता द्वारा लिए गये अर्थ के अनुसार सामाजिक क्रियाओं की विवेचना की जाती है तब इसी को हम बस्टहीन कहते है । यह पद्धति स्पष्ट करती है कि कोई भी सामाजिक क्रिया निरपेक्ष नहीं होती बल्कि वह किसी लक्ष्य का एक साधन ( Instrument ) होती है । वेबर के सन्दर्भ में व्याख्यात्मक बोध की प्रक्रिया के इस सूत्र को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है : प्रभाव का मूल्यांकन व्यक्ति पर प्रभाव परिस्थिति क्रिया हितों और मूल्यों के अनुसार साधनों का निर्धारण परिस्थितियों पर प्रभाव प्रयोजन इस प्रकार स्पष्ट होता है कि वर्स्ट हीन पद्धति दो प्रकार से सामाजिक व्यव हारों के वैज्ञानिक अध्ययन में योगदान करती है : प्रथम , यह प्रत्यक्ष अवलोकन के द्वारा मानवीय क्रियाओं के व्यक्तिनिष्ठ अर्थ को समझने में सहायता देती है तथा दूसरे , इसके द्वारा किसी भी क्रिया में निहित प्रयोजनों को समझा जा सकता है ।
इसे स्पष्ट करते हुए मैकाइवर ने लिखा है कि यदि हम यह जानना चाहें कि एक देश के नागरिक अपनी सरकार का विरोध क्यों करते हैं , किसी कारखाने में श्रमिक हडताल पर क्यों जाते हैं , अथवा यह कि किसी जनजातीय समूह के सदस्य अपने धार्मिक विश्वासों को किस प्रकार व्यक्त करते हैं तो हमें अपने आप को स्वयं उन स्थितियों में रखना पड़ेगा जिन स्थितियों में नागरिकों , श्रमिकों अथवा जनजातीय लोगों ने एक विशेष ढंग से व्यवहार किया । इस सम्बन्ध में हमें उन सामाजिक मूल्यों , उद्देश्यों और प्रयोजनों को जानना आवश्यक होगा जो एक विशेष परिस्थिति में क्रियाशील होते हैं । 16 यही वह आन्तरिक बोध है जिसे वेबर सामाजिक क्रियाओं के व्याख्यात्मक बोध के लिए आवश्यक मानते हैं । सामाजिक घटनाओं के विश्लेषण में वेबर ने वटहीन के रूप में व्याख्यात्मक बोध की जिस पद्धति को आवश्यक माना है , उसमें दो तत्त्व प्रमुख हैं : पहला , कर्ता द्वारा परिस्थितियों का मूल्यांकन ( Evaluation ) , तथा दूसरा , क्रिया के पीछे कर्ता का वास्तविक अभिप्राय अथवा प्रयोजन ( Intention ) । विभिन्न प्रकार की सामाजिक क्रियाओं में इन दोनों तत्त्वों को किस प्रकार समझा जा सकता है , इसके लिए वेबर ने दो मुख्य प्रणालियों का उल्लेख किया जिन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :
( 1 ) विवेकपूर्ण बोध ( Rational Understanding ) – जब हम क्रिया के पीछे कर्ता द्वारा लगाए जाने वाले अर्थ और प्रयोजन को बौद्धिक आधार पर स्पष्ट रूप से समझ लेते हैं तथा क्रिया के सभी तत्त्व ( अर्थात् उसकी परिस्थितियाँ , साधन , लक्ष्य तथा प्रभाव ) ताकिक रूप से प्रामाणिक प्रतीत होने लगते हैं , तब इसे विवेकपूर्ण बोध कहा जाता है । ऐसे बोध का मुख्य सम्बन्ध तार्किक क्रियाओं से होता है । वेबर के अनुसार विवेकपूर्ण बोध को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है ताकिक बोध तथा गणितीय बोध । ताकिक बोध ( Logical Understanding ) वह है जिसके द्वारा हम यह समझने का प्रयत्न करते हैं कि कोई कर्त्ता किन्हीं विशेष परिस्थितियों के अन्तर्गत किन साधनों के द्वारा एक विशेष क्रिया करता है तथा वह क्रिया विद्यमान परिस्थितियों को किस प्रकार प्रभावित करती है । इसका तात्पर्य है कि बोध की यह प्रणाली तर्क के आधार पर सामाजिक क्रियाओं की प्रकृति तथा उनके कारण और परिणामों को समझने पर बल देती है । गणितीय बोध ( Mathematical Understanding ) वह प्रणाली है जो विवेक के द्वारा उन क्रियाओं का बोध कराने में सहायक होती है जो गणित की समस्याओं की तरह स्पष्ट और सुसम्बद्ध होती हैं । जिस प्रकार 2×2 = 4 एक स्पष्ट रूप है , उसी प्रकार अनेक क्रियाएँ इस तरह की होती हैं कि वे न केवल अन्य व्यक्तियों की आशाओं के अनुरूप होती हैं बल्कि परिस्थिति के अनुसार उनके लक्ष्य और साधनों के बीच भी किसी प्रकार का भ्रम नहीं होता । ऐसी सभी क्रियाओं को विवेक अथवा तर्क के आधार पर सरलतापूर्वक समझा जा सकता है ।
( 2 ) परानुभूति पर आधारित बोध ( Emotionally Empathic Under standing ) – सामाजिक क्रियाओं के बोध की यह प्रणाली वह है जिसके द्वारा हम उस भावनात्मक परिप्रेक्ष्य को समझने का प्रयत्न करते हैं जिसके अन्तर्गत कर्ता द्वारा कोई क्रिया की जाती है । वास्तव में क्रिया का भावनात्मक सन्दर्भ इतना महत्त्वपूर्ण होता है कि इसे समझे बिना किसी क्रिया के वास्तविक प्रयोजन और प्रभाव को नहीं समझा जा सकता । इस भावनात्मक सन्दर्भ का बोध ‘ न तो तर्क के आ किया जा सकता है और न ही सामान्य अवलोकन इसके लिए पर्याप्त होता है । दशा में सामाजिक क्रियाओं का वास्तविक बोध तभी सम्भव है जब भावना आधार पर हम कर्ता की अनुभूति ( परानुभूति ) से अपना तादात्म्य स्थापित करने हए उसकी क्रियाओं को समझने का प्रयत्न करें । इस प्रणाली के द्वारा हम कर्ता की भावनाओं के जितना अधिक निकट आने का प्रयत्न करते हैं , उतने ही अच्छे ढंग से यह समझा जा सकता है कि कोई क्रिया प्रेम , घृणा , ईर्ष्या , क्रोध , उत्साह , निष्ठा भक्ति अथवा जिज्ञासा जैसे किस सवेग से कितनी अधिक प्रभावित है तथा इनके परिणामस्वरूप कौन से अताविक आचरण उत्पन्न हो रहे हैं ।
यदि सामाजिक क्रिया को प्रभावित करने वाले संवेग इतने गहरे हों कि अध्ययनकर्ता उन्हें पूरी तरह न समझ सके तो भी परानुभूति पर आश्रित बोध के द्वारा उनके अभिप्राय और सामाजिक क्रिया पर पड़ने वाले उनके प्रभावों को कुछ सीमा तक अवश्य समझ सकता है । किसो सामाजिक क्रिया का बोध चाहे विवेक द्वारा किया जाय अथवा इसे कर्ता की अनुभूति के सन्दर्भ में प्राप्त किया जाय , इसके लिए वेबर ने बोध की दो अन्य विधियों को महत्त्वपूर्ण माना है । वेबर ने इन्हें प्रत्यक्ष अवलोकन द्वारा बोध विवेचनात्मक बोध कहा । प्रत्यक्ष अवलोकन द्वारा बोध ( Direct Observational Understanding ) वह है जिसके द्वारा एक अध्ययनकर्ता प्रत्यक्ष अवलोकन की सहायता से ताकिक आधार पर कर्ता के विचारों और क्रियाओं के प्रयोजन को समझने का प्रयत्न करता है । उदाहरण के लिए , साम्प्रदायिक तनाव अथवा संघर्ष की दशा में प्रत्यक्ष अवलोकन के द्वारा ही विभिन्न सामाजिक क्रियाओं का वास्तविक बोध किया जा सकता है । विवेचनात्मक बोध ( Explanatory Understanding ) को वेबर ने ‘ प्रेरणाओं अथवा कारणों का तार्किक बोध ‘ ( Retional Understanding of Motivation ) भी कहा है । इसका तात्पर्य है कि विवेचनात्मक बोध वह विधि है जिसके द्वारा एक अध्ययनका तार्किक आधार पर किसी सामाजिक क्रिया से सम्बन्धित कारणों का विश्लेषण करके उसे कर्ता द्वारा लगाये गये अर्थ के सन्दर्भ में समझता है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जब हम तार्किक आधार पर यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि किन दशाओं अथवा परिस्थितियों ने कर्ता को एक विशेष क्रिया करने की प्रेरणा दी तथा कर्ता की उस क्रिया का वास्तविक प्रयोजन क्या है तब ऐसे बोध को हम ‘ विवेचनात्मक बोध ‘ कहते हैं ।
उदाहरण के लिए जब हम यह समझते हैं कि एक व्यक्ति बहुत तार्किक और उत्तरदायी ढंग से अपनी व्यापारिक क्रियाओं को इसलिए संचालित कर सका कि उसका प्रोटेस्टेन्ट आचारों में विश्वास था , तब ऐसे बोध को विवेचनात्मक बोध कहा जायेगा । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि वर्स्ट हीन अध्ययन की वह विधि है जो किसी क्रिया को कर्त्ता के ‘ मूल्यांकन ‘ और ‘ प्रयोजन ‘ के सन्दर्भ में प्रामाणिक आधार पर स्पष्ट करती है । यह विधि काल्पनिक रूप से कर्ता के व्यक्तित्व अथवा उसके अनुभवों में सहभाग करने को नहीं कहती , जैसाकि वेबर ने लिखा है कि “ सीजर को समझने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम स्वयं सीजर बन जायें । ” इसका तात्पर्य है कि वटहीन के उपयोग के लिए कर्ता की अनुभति का अंग बनना आवश्यक नहीं है । बल्कि इसके लिए उस सामान्यीकृत ज्ञान की आवश्यकता है जो कर्ता के अनुभवों और प्रयोजनों से सम्बन्धित होता है । वटहीन की उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए वेबर ने इसके दो प्रमुख प्रकार्यों का भी उल्लेख किया है । 18 प्रथम , व्याख्यात्मक बोध इसलिए आवश्यक है कि सामाजिक क्रियाएँ अर्थपूर्ण होती हैं तथा जब तक उनके अर्थ को कर्ता द्वारा किए गये मूल्यांकन और प्रयोजन के सन्दर्भ में नहीं समझा जायेगा तब तक कोई भी समाजशास्त्रीय विश्लेषण सार्थक नहीं हो सकता । दूसरी बात यह है कि समाजशास्त्रीय अध्ययनों में परिकल्पनाओं का निर्माण करने के लिए व्याख्यात्मक बोध ही मुख्य स्रोत है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि वर्टहीन ही वह प्रणाली है जिसके द्वारा सामाजिक क्रियाओं का समुचित ज्ञान प्राप्त करके समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को विकसित किया जा सकता है ।