विवाह – विच्छेद /तलाक
(DIVORCE)
समाज की व्यवस्था को बनाए तथा यौन आवश्यकताओं की पूर्ति को संस्थात्मक तरीके के रूप में विवाह की संस्था को सामाजिक स्वीकृति दी गई । कुछ तो पारिवारिक तनावों के बावजूद अपना जीवन औपचारिक रूप से संगठित बनाए रखते हैं तथा कुछ धार्मिक विश्वासों , पारिवारिक प्रतिष्ठा तथा पारिवारिक दबावों के कारण अपना जीवन ऊपरी तौर पर संगठित रखते हैं परन्तु अंदर से पारिवारिक तनाव की स्थिति रहती है । यद्यपि बहुत से लोग तलाक को ही पारिवारिक विघटन का एकमात्र कारण मानते हैं । लेकिन तलाक पारिवारिक विघटन का एक चिन्ह मात्र है , इसका कारण यह है कि तलाक विवाह का वैधानिक विच्छेद है और इसका परिणाम परिवार का अंतिम रूप से विघटन है । परम्परागत हिन्दू समाज में पहले विवाह एक धार्मिक कृत्य समझा जाता था आजकल यह धर्म निरपेक्ष होता जा रहा है । विवाह को मतैक्य सम्बन्धी मानने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । सन् 1950 के दशक के मध्य तक हिन्दू विधान में तलाक की अनुमति नहीं थी । यद्यपि कुछ जातियों में स्थानीय रिवाजों के अनुसार कुछ धन राशि देकर विवाह – विच्छेद की अनुमति दी जाती थी । चार दशक पूर्व हमारे देश के विधि निर्माताओं ने हिन्दू समाज को अशिक्षित व कठोर स्थिति से आधुनिक विचारधारा की ओर मोड़ दिया और अब “ पवित्र धार्मिक संस्कार ” से “ पारस्परिक सहमति से विवाह – विच्छेद ” में बदल गया है । सभी विवाह सफल नहीं होते , कुछ असामंजस्य व कटुता से से समाप्त होते हैं , कुछ असफल विवाहों वाले व्यक्ति भाग्य को दि मानते हुए अपना जीवन खींचते रहते हैं और पूरी जिन्दगी असमंजस है की स्थिति में ही व्यतीत करते हैं । परित्याग चाहे स्थाई हो या व अस्थाई , अवैधानिक व अनाधिकारिक होता है पति या पत्नी का अ प जिम्मेदारी का कार्य है क्योंकि परिवार भटकने अ शिबिजाता है जबकि विवाह – विच्छेद वैधानिक रूप से वैवाहिक बन्धनों को तोड़ना है तथा यथार्थ विवाह की अन्तिम समाप्ति है । जब तक राज्य , विवाह की संस्था का संचालन करता है तब तक शादी के बंधनों से किसी भी प्रकार की मुक्ति के लिए सरकारी नियमों का पालन आवश्यक है ।
तलाक एक प्रकार की दुखान्त घटना है जिसमें पति – पत्नी में से एक किसी दूसरे को छोड़ने की प्रार्थना करता है । आधुनिक पाश्चात्य समाजों में विवाह इतने अधिक अस्थायी हो गए हैं कि वहां पारिवारिक विघटन का सर्वप्रमुख कारण तलाक ही है परन्तु यह भी कहा जाता है कि पारिवारिक विघटन के पश्चात ही तलाक की समस्या उस समय उत्पन्न होती है जब एक या दोनों पक्ष अपने संबंध तोड़ देना चाहते हैं । तलाक सामंजस्यपूर्ण एवं सुखी परिवारों की समस्या नहीं है । इस प्रकार तलाक टूटे हुए विवाहों को कानूनी आधार प्रदान करता है । इसके साथ ही बहुत से ऐसे भी विवाह हैं जो पति – पत्नी को कष्टप्रद तो है पर उनमें तलाक की समस्या उत्पन्न नहीं होती । अधिकतर पति ही अपनी पत्नी का परित्याग करते हैं । विवाह – विच्छेद सदैव एक दुखद स्थिति है क्योंकि अस्वीकृत साथी अपमानित , तिरस्कृत व पीड़ित अनुभव करता है किन्तु परित्याग के सामाजिक दुष्परिणाम अधिक दुखदायी एवं अव्यावहारिक होते हैं विशेष रूप से स्त्री के लिए । स्त्री को सामाजिक आर्थिक व भावनात्मक आघातों का सामना करना पड़ता है । भावात्मक आधार पर उसे सदैव यही अनुभव होता है कि उसके पति द्वारा उसे तिरस्कृत रूप से अस्वीकार किया गया है तथा बेकार की वस्तु समझ कर फेंक दिया गया है ।
सामाजिक दृष्टि से उसे इस तरह दुख भोगना पड़ता है कि उसे यह निश्चित रूप से पता नहीं रहता कि उसका पति वापस आयेगा या नहीं और बच्चों को वह अपने पिता की अनुपस्थिति के बारे में क्या बताए । आर्थिक दृष्टि से जो स्त्री को आघात लगता है वह है आर्थिक संसाधनों की कमी , जिससे उसे अपने और बच्चों के भरण – पोषण में कठिनाई का सामना करना पड़ता है । परित्यक्त महिला स्वयं को न तो विवाहिता की श्रेणी में रख पाती है न विधवा की श्रेणी में । जीविकोपार्जन के लिए या तो उसे स्वयं कोर्ट कार्य करना पड़ता है या फिर अपने बच्चों को काम पर लगाना पड़ता है । कुछ महिलाओं को जब काम मिल जाता है तो उन्हें अधिक व्यस्त रहना पड़ता है । जिससे उनके बच्चों की उचित देख – रेख नहीं हो पाती या फिर वे अपनी आय को परिवार के लिए अपर्याप्त पाती हैं । ये सब परिस्थितियाँ बाल श्रम , किशोर अपराध , विघटित व्यक्तित्व आदि स्थितियों को जन्म देती हैं । किन्तु परित्याग की इस समस्या के विश्लेषण के लिए अभी तक कोई भी आधिकारिक समाजशास्त्रीय अध्ययन नहीं किया गया है न ही हमारे देश में कोई ऐसी सामाजिक सुरक्षा की योजना चलाई गयी है जिसके अंतर्गत परित्यक्त स्त्रियों के मामलों को प्रकाश में लाया जा सके । परन्तु विवाह – विच्छेद की ओर हमारा ध्यान कुछ दशकों से आकर्षित हुआ है । तलाक को व्यक्तिगत घटना नहीं समझना चाहिए । यद्यपि तलाक समस्या के व्यक्तिगत पक्ष भी हैं फिर भी बड़े पैमाने पर तलाक सामाजिक समस्या का रूप धारण कर लेता है क्योंकि राज्य या राष्ट्र का अस्तित्व , सफल पारिवारिक जीवन की सफलता पर ही निर्भर है । इस प्रकार समाज के वयस्क सदस्यों द्वारा वैवाहिक उत्तरदायित्वों का सुचारू रूप से संचालन स्थिर पारिवारिक जीवन समाज की प्रथम आवश्यकता है । यद्यपि विवाह स्वरूप सामाजिक पर्यावरण तथा परिस्थितियों के अनुरूप भिन्न – भिन्न होता है परन्तु विवाह प्रत्येक समाज की एक आवश्यक संस्था है ।
पति – पत्नी को विवाह आंनद एवं सुख – शांति प्रदान करता है परन्तु विवाह जब सुख – शांति देने के स्थान पर कष्टदायक हो जाता है तो अनेक व्यक्तिगत पारिवारिक तथा सामाजिक समस्याओं को जन्म देता है , इन समस्याओं को दूर करने के लिए जब विवाह के बंधन में बंधे दो साथी वैवाहिक जीवन को महत्वपूर्ण और आवश्यक नहीं समझते तो वैवाहिक बंधनों को तोड़कर इसके लिए कानूनी मान्यता प्राप्त करते हैं जिसे तलाक कहा जाता है विद्वानों के अनुसार ” तलाक सर्वदा दुखांत होता है क्योंकि इससे साधारणतः आपसी विश्वास समाप्त हो जाता है , सत्य नष्ट हो जाता है और भ्रम निवृत्त हो जाती है । ” तलाक की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि – एक सामाजिक घटना के रूप में तलाक की प्रवृत्ति उस समय से चली आ रही है जब से समाज में सामाजिक नियमों द्वारा संचालित विवाह की संस्था मौजूद है । कौटिल्य ने भी चार अधार्मिक विवाहों – असर गन्धर्व , पैशाच तथा राक्षस में विच्छेद की आज्ञा दी है । सर्वप्रथम हमें कानूनी मान्यताप्राप्त तलाक का विधान हैम्मराबी के विधान में
देखने को मिलता है । इस विधान के अनुसार पति किसी भी समय बिना किसी कारण का उल्लेख किये पत्नी को तलाक दे सकता था । यहदियों में तलाक एक पुरुषोचित अधिकार था । भारतीय समाज में संप्रति तलाक की गति वर्धमान है ।
यहाँ सामाजिक परिवर्तन की अनेक प्रक्रियाओं उद्योगीकरण , नगरीकरण आधुनिकीकरण तथा अन्य गतिविधियों के कारण जीवन सांमजस्य से असामंजस्य की स्थितियों की ओर बढ़ रहा है । इस असामंजस्य की स्थिति का प्रभाव जीवन के सभी पक्षों पर पड़ा है । वैवाहिक जीवन भी परिवर्तन की धारा में आकर इससे प्रभावित हुआ है । विवाह अब केवल धार्मिक बंधन नहीं अपितु कानूनी संविदा या समझौता मात्र रह गया है , जिसे कानूनी आधारों पर तोड़ा जा सकता है । अतः स्पष्ट है कि अब कानून द्वारा पति – पत्नी दोनों को ही तलाक के अधिकार प्राप्त हैं । तलाक के प्रकार – विद्वानों के अनुसार वैधानिक तलाक के दो प्रकार हैं
पूर्ण तलाक – पूर्ण तलाक में विवाह के पूर्ण दायित्व एवं अधिकार समाप्त हो जाते हैं । और दोनों ही पक्ष समाज में अकेले व्यक्ति के रूप में रहते हैं । दोनों के संबंध समाप्त हो जाते हैं ।
आंशिक तलाक – आशिक तलाक या वैधानिक अलगाव विवाह को नहीं समाप्त करता बल्कि केवल पति – पत्नी की वैधानिक पृथकता को मान्यता प्रदान करता है । इसमें वे न तो एक साथ सोते हैं न खाना ही खाते हैं । यह स्थिाति तब तक रहती है जब तक पति – पत्नी पुनः एक आवास में रहने का निश्चय नहीं कर लेते । इसमें पत्नी के भरण – पोषण के लिए कुछ व्यवस्था की जाती है । परन्तु ऐसी दशा में पति – पत्नी दोनों ही में एक – दूसरे से मिलने और साथ रहने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । कभी कभी पुनर्विवाह पर धार्मिक रोक हो जाने पर भी पति या पत्नी तलाक की स्थिति से ऊबकर पुनः आपस में मिलकर रहने लगते हैं । कुछ लोगों का ऐसा कहना है कि इस प्रकार का तलाक अवैधानिक व्यवहारों को प्रोत्साहित करता है इससे दोनों व्यक्तियों में तलाक के बाद पुनः एकीकरण की सम्भावना कम हो जाती है । स्त्रियाँ कभी – कभी अपने पति को अतिरिक्त विवाह करने से रोकने के लिए या अन्य धार्मिक या व्यक्तिगत कारणों से भी तलाक के लिए आवेदन करती है । परन्तु पूर्ण तलाक और आशिक तलाक को प्रकट करने वाले कोई ठोस आधार नहीं हैं । विवाह – विच्छेद के कारण विभिन्न विद्वानों ने इसके अपने – अपने कारण दिए हैं । एक के अनुसार तलाक के मख्य कारण हैं : • पारिवारिक सामंजस्य की कमी – पति – पत्नी के झगडे . पति द्वारा दुर्व्यवहार तथा ससुराल वालों के साथ झगड़े रहते हैं । • पत्नी का बाँझपन – पति या पत्नी का अनैतिक व्यवहार बीमारी या स्वभाव के कारण पति का पारिवारिक उत्तरदायित्व का निर्वाह न कर सकना , तथा पति को सजा होना । दसरे के अनसार – परित्याग और क्रूरता , पर – व्यक्तिगमन , नपंसकता और विविध कारण जो वास्तविक कारणों से भिन्न हैं । तीसरे के अनुसार – इनके अनुसार विवाह – विच्छेद के कारणों के दो समूह हैं –
- पर्यावरण सम्बन्धी कारण तथा
- व्यक्ति संबंधी कारण
पर्यावरण संबंधी कारण परिवार के अन्दर तथा परिवार के बाहर के वातावरण से सम्बद्ध है । पर्यावरण संबंधी कारणों में अवैध संबंध , अपर्याप्त गृह – जीवन , शारीरिक प्रहार , गरीबी , पत्नी का रोजगारमय जीवन और भूमिका संघर्ष । व्यक्तित्व संबंधी कारणों में – चिड़चिड़ा स्वभाव , असाध्यरोग , नपुंसकता , बाँझपन , आयु में बड़ा अन्तर तथा प्रभुत्व जमाने वाला स्वभाव । ये सभी अध्ययन यह संकेत देते हैं कि विवाह – विच्छेद सदैव ही विवाहित जीवन में सौहार्द की कमी के कारण नहीं होते हैं । नि : संदेह कुछ पत्नियाँ अपने पति के दुर्व्यवहार , क्रूरता व उपेक्षा पूर्ण रवैये के कारण विच्छेद चाहती हैं किन्तु कुछ मामलों में स्त्रियां इसलिए तलाक चाहती हैं कि वे अपने ससुराल वालो से तंग आ जाती हैं । इसके विपरीत कुछ पुरुष अपनी पत्नी की उनके प्रति वफादारी पर संदेह करते हैं या फिर उनके बीच बौद्धिक तथा शैक्षिक स्तर पर बड़ा अन्तर होता है । कहीं – कहीं तो पत्नी कठोर नियमों वाले रूढ़िवादी परिवार से सम्बद्ध होते हुए अपने पति के सामाजिक जीवन से स्वंय को अनुकूल नहीं कर पाती हैं क्योंकि उसे पति के घर पुरुष संगति की अनुमति नहीं मिली होती है , कही पर इसके विपरीत स्त्री को शान्त , नीरस तथा बदरंग मिजाज का पति मिल जाता है । माता – पिता द्वारा तय किये गए विवाह में जहाँ आपसी आकर्षण विवाह का कारण नहीं होता वहीं अनेक अन्य कारण होते हैं जैसे माता – पिता के प्रति सम्मान , अच्छा दोस्त – उच्च पारिवारिक संबंध लेने और देने के अवसर होते हैं और विवाह के बाद सामंजस्य की इच्छा भी बहुत कम रहती है ।
विवाह – विच्छेद के कारणों पर सैद्धान्तिक दृष्टिकोण विवाह – विच्छेद पर किसी भी व्याख्या को चार कारणों पर ध्यान देना चाहिए
( 1 ) वे कारक जो विवाह – मूल्यों को प्रभावित करते हैं ( प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण )
( 2 ) वे कारण जो बदलती आर्थिक व्यवस्था तथा उसके सामाजिक व आदर्शवादी अधिसंरचना , विशेषकर परिवार के मध्य संघर्ष के कारण उत्पन्न होते हैं , ( मार्क्सवादी दृष्टिकोण )
( 3 ) अंतः क्रिया की परिस्थिति और ( अन्तः क्रियावादी दृष्टिकोण ) ।
( 4 ) मूल्य तथा लाभ का विचार ( सामाजिक विनिमय दृष्टिकोण ) म प्रकार्यवादी दृष्टिकोण विवाह – विच्छेद को सामान्यत : आदर्शी व मूल्यों में होने वाले परिवर्तनों विशेष रूप से परिवार और विवाह में होने वाले परिवर्तनों के प्रतिबिम्ब के रूप में समझाता है । लोग विवाह से अधिक उम्मीदें करते हैं परिणामतः विवाह भंग होने की स्थिति में आ जाता है जब उनकी उम्मीदें पूर्ण नहीं होतीं । दूसरा प्रकार्यवादी इस तथ्य पर भी बल देते हैं कि परिवार की आर्थिक व्यवस्था की अपेक्षाओं के साथ अनुकूल न करने के कारण वैवाहिक सम्बन्धों पर एक तरह से बोझ पड़ता है । संयुक्त परिवार में मानसिक तनाव कभी – कभी निश्चित ही होता है क्योंकि परिवार का आकार आर्थिक बोझ , युवा सदस्यों की आशाएँ तथा बुजुर्गों द्वारा खड़ी की गई रूढ़िवादी मान्यताएँ एवं रोक लगाने वाले मूल्य व आदर्श आड़े ही आते हैं । अंत में प्रकार्यवादी विवाह और तलाक में आने वाले परिवर्तनों की बात भी करते हैं । भूतकाल में लोगों पर हिन्दू दर्शन का बड़ा प्रभाव था जिससे विवाह – विच्छेद की – सम्भावनाएँ काफी कम थीं । किन्त आज धर्मनिरपेक्ष विश्वासों के कारण विवाह – विच्छेद के प्रति मूल्यों एवं दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है । धर्म निरपेक्षता ने धार्मिक विश्वासों के प्रभाव को कम किया है जिससे विवाह – संबंध भी बहुत प्रभावित हुए हैं । मार्क्सवादी दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि वैवाहिक आकांक्षाएं तभी पूरी हो सकती हैं जब पति – पत्नी दोनों कमाने वाले हों किन्तु वेतन कमाने वाली श्रमिक महिलाओं की आशाओं और उन आदर्शात्मक आकांक्षाओं में जो वैवाहिक जीवन से जुड़ी रहती 18 , अन्तर्विरोध के कारण संघर्ष उत्पन्न होता है । कार्यरत पत्नियों सम्पादन की भूमिका के साथ गृहिणी की भूमिका के प्रतिबद्धता की भी आशा की जाती है । समान रूप से धनोपार्जन का कार्य करने के बावजद स्त्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वे घर क पुरुष मुखिया के आधीन भमिका का निर्वाह करे ।
इस प्रकार की आदर्शात्मक अपेक्षाएँ स्त्री व रात्मक अपेक्षाएँ स्त्री की धन उपार्जक भूमिका के बिल्कुल विरुद्ध है । इस प्रकार की स्थितियाँ भी इस तरह का वातावरण तैयार कर देती हैं । पत्नी और पति यदि अलग अलग सामाजिक पृष्ठभूमि के हों तो उनमें सामंजस्य स्थापित करना कठिन होता है जिससे परित्याग या पथक्करण या तलाक भी हो सकता है । ये सब कारण विवाह – विच्छेद में सहायक होते हैं । विवाह – विच्छेद के पश्चात् भूमिका समायोजन – तलाक के विभिन्न परिणाम हमारे सामने आते हैं । भारतीय समाज में इस तथ्य के विश्लेषण की आवश्यकता है कि तलाक के बाद पति – पत्नी किस प्रकार अपने को समायोजित करते हैं विवाह की संविदा का अंत तलाक होता है परन्तु पति – पत्नी की दृष्टि से यह केवल पति – पत्नी की परिस्थिति में परिवर्तन है । इससे वैयक्तिक विघटन भी होता है तथा ऐसे व्यक्ति स्वयं को अपराधी अनुभव करने लगते हैं । ऐसी दशा में उसके सामने असामंजस्य की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । तलाक के बाद पति – पत्नी दोनों की भूमिकाओं और परिस्थिति में परिवर्तन हो जाता है कुछ लोग तो तलाक से उत्पन्न परिस्थितियों का सामना कर लेते हैं परन्तु अन्य लोगों का जीवन इन स्थितियों में विघटित हो जाता है । भारत सहित प्रायः सभी देशों की सामाजिक संरचना विवाह की अवधारणा पर आधारित है । अन्य कोई भी व्यवस्था समाज के लिए इच्छित नहीं है ।
संबंधों की परिस्थिति में परिवर्तन भूमिका तथा व्यवहार में अस्पष्टता एवं परिवर्तन के कारण व्यक्ति के समक्ष सामंजस्य की समस्या उत्पन्न हो जाती है । तलाकशुदा व्यक्तियों के समक्ष वैवाहिक सम्बन्धों की पुनःस्थापना की समस्या भी आ जाती है । बहुत कम संख्या में तलाकशुदा स्त्री – पुरुष पुनर्विवाह करते हैं । तलाक के बाद अधिकांश स्त्री – पुरुष माता – पिता के साथ ही रहते हैं । तलाक से यौन सामंजस्य की समस्या उत्पन्न होती है । प्रायः स्त्री के पास ज्यादा समस्या उत्पन्न होती है । तलाक प्राप्त व्यक्तियों को प्रायः समाज में उचित सम्मान नहीं मिल पाता । ऐसे लोगों को व्यक्तित्व में परिवर्तन से उपस्थित कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । तलाक से व्यक्ति के अहम को चोट पहुँचती है । काफी तलाकशुदा स्त्रियाँ कोई काम नहीं करतीं । इसके बाद स्त्री – पुरुष एक – दूसरे के प्रति किसी प्रकार का मोह नहीं रखते । आदतों की पूर्ति न होने पर निराशा परेशानी त व असंतोष का भाव उत्पन्न हो जाता है , तलाक से आर्थिक त भमिकाओं के निर्वाह तथा आर्थिक जीवन के संचालन में अत्याधिक काठों का सामना करना होता है । तलाक के बाद बच्चों को को पारि ज्यादा आती है , उनका जीवन भी इन दोनों के बीच पिसता है । ऐसे व्यक्तियों के सामने समूह तथा समाज के वातावरण की अनेक कठिनाइयाँ सामने आती हैं पर धीरे – धीरे ये अवस्थाएँ व्यक्तियों के लिए स्वाभाविक हो जाती हैं । विवाह – विच्छेद की प्रवृत्तियाँ – भारत में तलाक की निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं : न्यायालयों में तलाक के लिए वास्तविक कारणों का उल्लेख नहीं किया जाता । वास्तविक कारण वैधानिक कारणों से भिन्न होते हैं । अतः परित्याग क्रूरता , व्यक्तिगत आदि कारण देने की अपेक्षा पारस्परिक मनमुटाव व तनाव आदि कारण देने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । वैधानिक कारणों के अंतर्गत क्रूरता तथा परित्याग के कारणों का उल्लेख अधिक लिया जाता है क्योंकि ये दोनों आधार अन्य आधारों की अपेक्षा कम आक्रामक माने जाते हैं ।
तलाक के लिए दिए जाने वाले आधारों को उदार बनाने के कोई प्रयत्न नहीं हो रहे हैं । यद्यपि 1960 से तलाक की दर में काफी वृद्धि हुई है लेकिन न्यायालयों की प्रवृत्ति यही है कि तलाक संबंधी निर्णय शीघ्रता तथा तच्छ बातों पर लिया गया कदम मानकर उससे बचने की कोशिश की जाए । तलाक को इतनी गम्भीर बुराई नहीं माना जा रहा है जितना – की पति – पत्नी का इकट्ठा रहकर तनाव भरा जीवन व्यतीत करने को । तलाक के बाद उपेक्षणीय संख्या में लोग पुनर्विवाह करते स्त्रियाँ भी पुरुषों की भाँति विवाह असफलता के कारण तलाक को आतुर हैं यद्यपि इतना अवश्य है कि वे विवाहित जीवन के बंधनों से मक्त होने के लिए तलाक नहीं चाहतीं बल्कि तनाव से तंग आकर अंतिम रूप के उपाय में तलाक के लिए पहल करती सायिक स्थिति तलाक के बाद बच्चे आमतौर पर माँ के साथ रहते हैं किन्तु पिता बच्चों से सामाजिक संबंधों को समाप्त नहीं करता । तलाक की दर में सामाजिक वर्ग तथा व्यावसायिक स्थिति के आधार पर भिन्नता आती जा रही है । मध्य स्थिति वाले व्यवसाय में लगे लोगों में उच्च व्यवसाय में लगे लोगों की अपेक्षा अधिक तलाक होते हैं । इसी प्रकार ग्रामीण लोगों में शहरी लोगों की अपेक्षा तलाक की दर कम है । भारत वर्ष में तलाक – भारत वर्ष में तलाक की परंपरा बहुत – नहीं है । अंग्रेजों के आने के बाद से लोगों में तलाक के प्रति लाई पड़ता था । परन्तु वर्तमान समय में भारत में तलाक की व्याख्या सन 1955 में बनाये गए हिन्दू विवाह अधिनियम के आधार पर की जाती है । इस अधिनियम में विवाह के प्राचीन स्वरूपों दहेज प्रथा एवं विवाह – विच्छेद के संबंधों में विशेष नियम बनाये गए । जम्मू कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में इस कानून को 18 मई , 1955 से लागू किया गया है । इस एक्ट के पूर्व भारत में तलाक के लिए कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं की गई थी । इस अधिनियम में स्त्रियों की स्वतंत्रता बढ़ाने पर बल दिया गया । अधिनियम से विवाह की धार्मिक मान्यता को ठेस पहुँची । इस अधिनियम का तलाक की दृष्टि से बहुत महत्त्व है । तलाक की प्रक्रिया – कानून द्वारा मान्यता प्राप्त होने के पश्चात तलाक की निम्नलिखित प्रक्रिया का विधानों में उल्लेख किया गया है :
1 . तलाक के लिए आवेदन पत्र न्यायालय में ही दिया जाएगा ।
2 . तलाक के लिए प्रार्थना – पत्र विवाह की तिथि के तीन वर्ष बाद ही दिया जा सकेगा ।
3 . न्यायालय तलाक और विवाह से संबंधित सभी मामलों की जाँच करने के बाद पति या पत्नी को तलाक की आज्ञा प्रदान करेगा ।
4 . यदि एक बार किसी युगल को न्यायालय से विवाह – विच्छेद या तलाक की अनुमति प्राप्त हो जाती है तो एक वर्ष की अवधि के अन्दर वह युगल पुनः विवाह करने के लिए अदालत से प्रार्थना कर सकता
5 . तलाक के बाद न्यायालय यह व्यवस्था कर सकता है कि प्रार्थी द्वारा दूसरे पक्ष को जीवन – पर्यन्त या जब तक दूसरा विवाह न कर ले तब तक के लिए जीवन यापन के लिए आवश्यक सहायता या खर्च दे । ।
6 . न्यायालय व्यय के संबंध में अन्य आवश्यक आदेश भी दे सकता है जिसके आधार पर प्रतिवादी के खर्च या जीवन – यापन संबंधी सुविधाओं तथा अन्य बातों की व्यवस्था हो । भारत में तलाक के आधार – भारत में पति तथा पत्नी दोनों ही एक – दूसरे को संविधान द्वारा परिभाषित अनेक या किसी एक कारण से तलाक दे सकते हैं । हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 , 14 में विवाहों के विच्छेद के लिए कई आधारों का वर्णन किया गया है । इस अधिनियम से वे विवाह भी प्रभावित होते हैं जो से लागू होने से पूर्व हुये थे । अधिनियम के अंतर्गत सलकि कालिए इच्छुक व्यक्ति के संवैधानिक आधारों पर न्यायालय में आवेदन पत्र देना होता है , जिसके आधार पर न्यायाधीश तलाक की अनमति प्रदान कर सकते हैं । पति या पत्नी कोई भी निम्नलिखित में किसी एक या कई आधारों पर विवाह – विच्छेद की आज्ञा के लिए न्यायालय में आवेदन पत्र दे सकता है ।
( क ) पति या पत्नी में कोई भी यदि बलात्कार का दोषी
( ख ) पति या पत्नी आवेदन की तिथि से तीन वर्ष पूर्व से भयंकर कोढ़ जैसे रोग से पीड़ित हो , जिसके उपचार की कोई सम्भावना न हो ।
( ग ) पति या पत्नी आवेदन करने की तिथि से पहले ऐसी विकृत मानसिक अवस्था में हो जिसका इलाज संभव न हो ।
( घ ) यदि पति या पत्नी ने विवाह के समय के अपने धर्म में विवाह के बाद परिवर्तन किया हो तो आवेदक को तलाक प्राप्त करने का अधिकार होगा ।
( ड ) विवाह के पश्चात् की स्थितियों में यौन संबंधी निम्नलिखित आधारों पर पत्नी अपने पति से तलाक के लिए आवेदन कर सकती है । • पति बलात्कार करने का दोषी हो । • पति नपुंसक हो । • पति गुदा मैथुन का दोषी हो । • पति पशु मैथुन का दोषी हो ।
( च ) यदि पति या पत्नी को संक्रमक यौन रोग हो गया हो तो वह विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम के आधार पर तलाक के लिए आवेदन कर सकता है । किसी भी पति के लिए आवश्यक है कि वह इस प्रकार तभी आवेदन करे जबकि दूसरे को तीन वर्ष पर्व से ही संक्रामक यौन रोग रहा हो ।
( छ ) हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार यदि पति ने दूसरा विवाह कर लिया हो तो पत्नी उसे तलाक दे सकती
( ज ) पति या पत्नी संन्यास धारण कर ले तो कोई भी पक्ष तलाक दे सकता है ।
( झ ) पति या पत्नी में से कोई भी पक्ष यदि विवाह से प्राप्त वैधानिक अधिकारों की रक्षा और उनका सम्मान नहीं करते तो दूसरे पक्ष को यह अधिकार रहता है कि वह तलाक प्राप्त कर ले ।
( त ) अधिनियम के अनुसार यदि पति या पत्नी के बारे में यह नहीं पता चलता है कि पिछले 7 वर्षों से दूसरा व्यक्ति जीवित है या मर गया है तो जीवित पति या पत्नी तलाक प्राप्त कर सकता हैं ।
( थ ) हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार तलाक प्राप्त
करने के लिए यह आवश्यक है कि प्रार्थना पत्र देने के पूर्व दो वर्षों में सहवास न प्रारंभ किया हो । भारत में तलाक को वैधानिक आधार प्राप्त होने से अब तक तलाक की दर में तेजी से वृद्धि हुई है । समाज में आधुनिकीकरण
प्रक्रिया जारी रहने तथा पाश्चात्य सभ्यताओं के प्रभाव के परिणामस्वरूप भारत में भी अब विवाह – विच्छेद होने लगे है और विवाह के पीछे धार्मिक भावना का महत्व कम हो रहा है परन्तु विदेशों की अपेक्षा भारत में विवाह – विच्छेद की गति काफी धीमी है ।
- नारीवाद: समानता और अंतर,
- समकालीन नारीवाद और समानता-अंतर,
- यौन पहचान का निर्माण: समानता और अंतर:
- यौन अंतर की ऐतिहासिकता
- मनोविश्लेषण: समानता और अंतर,
- समानता बनाम अंतर की वृद्धावस्था की दुविधा बहुत जटिल है। जब लोग पहली बार नारीवाद के बारे में सुनते हैं तो वे अक्सर यह मान लेते हैं कि यह यौन मतभेदों से इनकार करता है: ‘वह जो कुछ भी कर सकता है, मैं भी कर सकता हूं। स्रोत और पितृसत्तात्मक शक्ति के तंत्र के रूप में प्रजनन में महिलाओं की भूमिका। इस तरह के तर्कों का क्या मतलब है? क्या उनका मतलब है कि हमें सभी मतभेदों को खत्म करने का लक्ष्य रखना चाहिए, और यदि ऐसा है, तो हम कितनी दूर जा सकते हैं? सत्तर के दशक के दौरान, यह बन गया लिंग और लिंग के बीच अंतर की बात करना आम बात है; एक अनिवार्य जैविक अंतर का जिक्र करते हुए पूर्व का उपयोग करना, और निर्माण समाज के लिए बाद का उपयोग करना। उदाहरण के लिए, महिलाएं बच्चों को जन्म देती हैं, यह एक जैविक तथ्य है। कि तब वे लैंगिक संबंधों का विशिष्ट उत्तरदायित्व पैटर्न है, और जो परिवर्तन के लिए खुला है। अस्सी के दशक में, इस दृष्टिकोण को भी बल्कि चिकना के रूप में देखा गया है, जिसमें नारीवाद सेक्स के दावे की ओर अधिक गहन रूप से आगे बढ़ रहा है। अल अंतर।
- एंड्रोगनी आज महिला आंदोलन में फैशनेबल नहीं है। पन्द्रह-बीस साल पहले समानता की आकांक्षा एक ‘स्त्री‘ के बजाय एक ‘व्यक्ति‘ बनने की लालसा में, सेक्स की रूढ़िवादिता और परिभाषाओं से बचने की इच्छा में अभिव्यक्त हो सकती थी। आज जोर अलग होगा, और आंशिक रूप से, निश्चित रूप से, एक ऐसे आंदोलन के अस्तित्व के कारण जिसने महिलाओं को गर्व के साथ खुद को मुखर करने में मदद की है। एड्रिएन रिच, के लिए
- समकालीन नारीवाद में बहस का मुख्य जोर एक ओर मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत के प्रभाव से आया है और दूसरी ओर एक महिला-पहचानी गई महिला का उत्सव है। पहले के तर्क आमतौर पर महिलाओं के जीवन के किन पहलुओं के संदर्भ में रखे गए थे, नारीवादियों को अपनी गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए: वे जहां महिलाएं पुरुषों के साथ समानता का दावा कर रही थीं? या वे जो परंपरागत रूप से महिला की चिंता थी? यह तर्क इतना नहीं था कि क्या पुरुष और महिला सिद्धांत रूप में भिन्न थे, जबकि इस पर लगातार चर्चा होती थी। यह वास्तव में हिस्सेदारी का मुद्दा नहीं था।
- सैली अलेक्जेंडर व्यक्तिपरकता और यौन पहचान को ‘भेदभाव, विभाजन और विभाजन की एक प्रक्रिया के माध्यम से निर्मित, और एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में सबसे अच्छी तरह से समझी जाती है, जो हमेशा बनती रहती है, कभी भी पूर्ण नहीं होती है‘ (अलेक्जेंडर: 1987) के रूप में देखती है। यह प्रक्रिया छोटी लड़की/महिला और छोटे लड़के/पुरुष के लिए मूलभूत रूप से कम भिन्न नहीं है। उसकी मुख्य चिंता … यह है कि अचेतन राजनीति में कैसे प्रवेश करता है, और विशेष रूप से स्वयं और यौन पहचान को समझने के तरीके से वर्ग की हमारी समझ बदल जाती है। सोचा-उत्तेजक यह है, नारीवाद के लिए इसके निहितार्थों को अभी भी स्पष्ट करने की आवश्यकता है: क्या- एक अंतर के अलावा- क्या यह यौन अंतर दर्शाता है? ये बातें विभिन्न सामाजिक संस्थाओं की प्रक्रिया में देखी जा सकती हैं, उदाहरण के लिए परिवार, शिक्षा, आर्थिक आदि।
- पारंपरिक परिवार जिसमें पिता घर के बाहर पूरा समय काम करता है और माँ एक पूर्णकालिक गृहिणी है- अब विकसित समाजों में सबसे आम व्यवस्था नहीं है। इन परिवर्तनों ने समस्याएँ और अवसर दोनों पैदा किए हैं।
- एक और समस्या यह है कि भले ही पति और पत्नी दोनों घर से बाहर काम करते हों, पत्नी आमतौर पर घर का ज्यादातर काम करती है। अध्ययनों से पता चलता है कि यह एकतरफापन तब और भी अधिक होने की संभावना है जब पति को अत्यधिक भुगतान किया जाता है या उसके पास एक प्रतिष्ठित नौकरी होती है और पत्नी के पास कम वेतन और कम प्रतिष्ठा वाली नौकरी होती है।
- जब पत्नी अपने पति के सापेक्ष उच्च शिक्षित होती है, हालांकि, घरेलू कार्यों को साझा करने की प्रवृत्ति अधिक होती है (एरिक्सन, यैंसी और एरिक्सन: 1979)। अन्य अध्ययनों से पता चला है कि पति की तुलना में पत्नी की आय जितनी अधिक होती है, उसके पास परिवार में उतनी ही अधिक शक्ति होती है और जितना अधिक उसके पास परिवार में होता है और उतना ही अधिक वह पारिवारिक निर्णय लेने में भाग लेती है।
- अवसर की ओर, भुगतान वाली नौकरियां महिलाओं को मूल्य और स्वतंत्रता की भावना देती हैं जो उन्हें घर पर नहीं मिलती हैं। अध्ययनों से संकेत मिलता है कि घर और नौकरी दोनों के प्रबंधन के भार के बावजूद कामकाजी पत्नियां गृहणियों की तुलना में अधिक खुश हैं। यहां तक कि अगर उनकी नौकरियां रोमांचक नहीं हैं, या कम भुगतान करती हैं, कामकाजी महिलाओं का आत्म-सम्मान उन महिलाओं की तुलना में अधिक है जो घर पर रहती हैं (फ़ेयरी: 1976)। कई लोगों के लिए इसका अर्थ शक्ति और पहचान की एक नई भावना है।
- लिंग अकादमिक प्रदर्शन को प्रभावित कर सकता है। शुरुआती किशोरावस्था में अंतर काफी स्पष्ट होते हैं, जब लड़कियां मौखिक कार्यों में और लड़के दृश्य-स्थानिक और गणितीय कार्यों में उत्कृष्ट होते हैं (मैककोबी और जैकलिन: 1974)। लेकिन जबकि पढ़ने में पिछड़े लड़कों को अक्सर उपचारात्मक कक्षाओं में रखा जाता है, दृश्य-स्थानिक ट्यूशन उन लड़कियों के लिए काफी हद तक अनुपलब्ध है जिन्हें इसकी आवश्यकता हो सकती है। कक्षा कक्ष की संरचना भी लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए हानिकारक हो सकती है। अध्ययनों से पता चलता है कि शिक्षक के पास रहने के प्री स्कूल वर्षों में लड़कियों को पुरस्कृत किया जाता है; प्राथमिक विद्यालय में, सहमत होने के लिए उनकी प्रशंसा की जाती है। नियमों को तोड़ने के लिए लड़कों को फटकार लगाई जाती है, लेकिन लड़कियों की तुलना में उन्हें निष्क्रिय और सहमत होने के लिए पुरस्कृत किए जाने की संभावना कम होती है (आयरसन: 1978)। यद्यपि लड़कों और लड़कियों दोनों को उपलब्धि के लिए पुरस्कृत किया जाता है, लड़कों को अपने स्वयं के मानकों को विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जबकि लड़कियों पर दबाव डाला जाता है।
- जो महिलाएं पुरुष-प्रधान व्यवसायों में प्रवेश करती हैं, वे अक्सर पाती हैं कि उनकी समस्याएं अभी खत्म नहीं हुई हैं। अधिकांश व्यवसायों में आंतरिक स्तरीकरण प्रणाली होती है। उदाहरण के लिए, दवा के क्षेत्र में, बाल रोग, मनोरोग और सार्वजनिक स्वास्थ्य में महिलाओं का अधिक प्रतिनिधित्व है – फिर से पोषक, “स्त्री”, कम अच्छी तरह से भुगतान की जाने वाली विशेषताएँ – और अन्य क्षेत्रों में, विशेष रूप से सर्जिकल विशिष्टताओं में। भुगतान और प्रतिष्ठा की असमानताएं चिकित्सा क्षेत्र तक ही सीमित नहीं हैं। पूरे मंडल में पुरुषों और महिलाओं की आय असमान है।
- लैंगिक समानता के लिए प्रतिबद्धता हमें खुद यह नहीं बताती कि समानता को क्या आकार लेना चाहिए। नौकरियों के लिए समान वेतन, महिलाएं करती हैं या पुरुषों द्वारा की जाने वाली नौकरी में समान हिस्सेदारी? क्या महिलाओं के पास पुरुषों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के समान अवसर हैं या जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संख्यात्मक समानता है? क्या घर के कामकाज और बच्चों या घर में बेहतर स्थिति के लिए महिलाओं की समान जिम्मेदारी है? जो लोग खुद को नारीवादी बताते हैं, वे इस तरह के मुद्दों पर अपने विरोधियों के रूप में लगभग उतने ही विवादों में रहे हैं। इन सवालों के जवाब हम इस अध्याय में तलाश सकते हैं।
- उदाहरण के लिए, समलैंगिक अलगाववाद की राजनीति को सैद्धांतिक अभिव्यक्ति दी जब उन्होंने तर्क दिया कि महिलाओं का एक-दूसरे से मौलिक लगाव है, और वे केवल पुरुषों के साथ संबंधों में उलझी हुई हैं, शक्ति संबंधों के एक जटिल के माध्यम से जो विषमलैंगिकता को आदर्श के रूप में लागू करती हैं (रिच: 1980) ). डेल स्पेंडर ने नारीवादी परियोजना को महिलाओं के अनुभव और मूल्यों के अभिकथन के रूप में फिर से लिखा है
- पुरुषों के विभिन्न मूल्यों के ऊपर और उनके खिलाफ (स्पेंडर: 1982)। ये और अन्य लेखन एक लोकप्रिय प्रतिपादन में गठबंधन करते हैं जो महिलाओं को न केवल अलग, बल्कि पुरुषों से बेहतर मानते हैं, अनिवार्य रूप से ‘महिला‘ गुणों के वाहक हैं जो कभी-कभी आराम के लिए बहुत बारीकी से दोहराते हैं, नारीवादियों ने एक बार टालने की कोशिश की: भावनात्मक के बजाय भावनात्मक तर्कसंगत; विनाशकारी के बजाय शांतिप्रिय; चीजों के बजाय लोगों की परवाह करना। इस तरह के दर्शन में जिस तरह की ‘महिला केंद्रित संस्कृति‘ का वादा किया गया है, वह समान अधिकारों और अवसरों की तुच्छ राजनीति के लिए बहुत कम जगह छोड़ती है।
- आज के तर्क, इसके विपरीत, यौन अंतर पर एक अधिक आवश्यक रेखा का संकेत देते हैं। मनोविश्लेषण से प्रभावित लोग यौन अंतर के अपरिहार्य होने के बारे में स्पष्ट होने की अधिक संभावना रखते हैं, लेकिन इस अंतर की सामग्री बदलती और अस्पष्ट है। एल्श्टेन (1987) बताता है कि लड़के और लड़कियां यह देखते हुए सीखते हैं कि वे कौन हैं कि उनके शरीर अलग-अलग हैं। एक ‘यौन अंतर‘, वह सुझाव देती है, ‘न तो अपमान है, न ही आक्रोश है, न ही एक नशीली चोट है। दूसरी ओर, एक यौन विभाजन, एक गतिविधि मानव विषय की मनो-यौन पहचान के साथ-साथ स्तरीकरण और विशिष्टता की अत्यधिक कठोर प्रणाली की विशिष्ट क्षति दोनों के लिए एक गहरा घाव है।
- महिलाओं की शक्ति और महिलाओं के अंतर के इस दावे के समानांतर- यदि सैद्धांतिक रूप से दुनिया अलग है- मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत के तर्क हैं, जो बड़े पैमाने पर फ्रेंच नारीवादी लेखन (जैसे मार्क्स और डी कोर्टिव्रोन: 1980) के अनुवाद के माध्यम से अमेरिकी और ब्रिटिश बहस में प्रवेश कर चुके हैं। यहाँ कम स्पष्ट रूप से एक आवश्यक महिला और आवश्यक पुरुष है: जोर … अक्सर महिला की यौन पहचान की बहुत ही नाजुक और अनिश्चित प्रकृति पर होता है। लेकिन अगर यौन पहचान अनिश्चित और परिवर्तनशील है, तो यह अभी भी अंतर पर आधारित है: एक महिला होना एक पुरुष होना नहीं है। हमें बारहमासी और कठिन प्रश्न पर वापस लाया जाता है: यदि लिंग भिन्न हैं, तो वे किस अर्थ में और कैसे समान हो सकते हैं?
- अधिकार का मतलब केवल सभी के लिए एक समान मानक लागू करना हो सकता है- लेकिन क्या होगा अगर हम अलग और असमान हैं? क्या होगा यदि मेरे पास समर्थन करने के लिए एक बच्चा है और आपके पास कोई नहीं है? क्या हुआ अगर मैं कमजोर हूं और आप मजबूत हैं? अगर मुझे तुमसे ज्यादा चाहिए तो क्या होगा? तर्क का विशेष महत्व है
- लैंगिक समानता के लिए, समान व्यवहार के आह्वान या महिलाओं की विशेष जरूरतों पर जोर देने के बीच तनाव वह है जो नारीवादी दुविधाओं के केंद्र में रहता है। महिलाओं को काम करने का ‘समान अधिकार‘ पाने के लिए उदाहरण के लिए उन्हें वास्तव में कार्यस्थल नर्सरी की आवश्यकता हो सकती है; गर्भवती होने पर उन्हें अतिरिक्त सुरक्षा स्थितियों की आवश्यकता होती है; उन्हें मासिक धर्म के लिए समय की आवश्यकता हो सकती है। इस तरह के तर्क, निश्चित रूप से, भाग्य के लिए बंधक हो सकते हैं, एक बार जब आप स्वीकार करते हैं कि महिलाएं पुरुषों से अलग हैं, तो आप काम पर उनकी संभावना कम कर सकते हैं। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के अंत में सुरक्षात्मक कानून के सवाल में कठिनाई सामने आई: क्या महिलाओं को उन कानूनों का समर्थन करना चाहिए जो उन्हें विशेष रूप से कठिन श्रम से ‘संरक्षित‘ करते हैं (ब्रिटेन में खानों में काम करने से रोकते हैं, और रात में उनके रोजगार को प्रतिबंधित करते हैं) ; या क्या उन्हें अक्सर अधिक वेतन वाले काम की कुछ श्रेणियों से महिलाओं के बहिष्कार को चुनौती देनी चाहिए? (फिलिप्स: 1987)। वर्षों से पदों में बदलाव और समानता बनाम अंतर के सामान्य तनाव के साथ दुविधा एक अचूक साबित हुई।
- जब नारीवादी महिलाओं और पुरुषों के बीच असमानताओं की बात करते हैं, तो उनका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि महिलाओं की एकता है: सभी महिलाएं यह, सभी पुरुष अन्य। यह सबसे अधिक विश्वसनीय है जब महिलाओं को कानून के तहत उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है: जब, उदाहरण के लिए, उन्हें वोट देने के अधिकार से उनके लिंग के आधार पर वंचित किया जाता है; जब उन्हें महिलाओं के रूप में कुछ प्रकार के रोजगार के अधिकार से वंचित किया जाता है; जब उनकी उम्र, वर्ग, जाति की परवाह किए बिना, वे कानून में अपने पतियों के अधीन होती हैं। जब भी कानून महिलाओं के अधिकारों से वंचित करने के लिए सेक्स को नियोजित करता है, तब सभी महिलाएं सभी पुरुषों के लिए असमान होती हैं। महिलाओं को कानून में अधिकार मिल जाने के बाद इस एकता का क्या रह जाता है?
- इनमें से कुछ समस्याओं के माध्यम से सोचने पर हम देख सकते हैं कि वे उदारवाद की समाजवादी आलोचना के साथ आम जमीन साझा करते हैं: यह धारणा कि समानता केवल कानून के तहत समानता है; यह विचार कि औपचारिक समानता वास्तविक असमानताओं को वैधता प्रदान करती है; यह विचार कि यह नस्ल और वर्ग के अंतर से अलग है। लेकिन उदारवाद पर नारीवादी बहस सिर्फ समाजवादी और उदार खेमों में ही नहीं बंटी है। आंशिक रूप से निश्चित रूप से क्योंकि कट्टरपंथी नारीवाद … किसी भी परंपरा के बाहर खड़ा है। लेकिन विभिन्न संदर्भों के कारण भी जिसमें तर्क विकसित हुए हैं, ने राजनीतिक चिंताओं को आकार दिया है। समान अधिकार/उदारवादी नारीवाद के ब्रिटेन में महिला मुक्ति आंदोलन के उद्भव में बहुत कम अनुयायी थे, जिसके पास ‘बोर्डरूम में महिलाओं‘ के दृष्टिकोण के रूप में देखने के लिए बहुत कम समय था, और खुद को एक कट्टरपंथी या समाजवादी परंपरा के भीतर अधिक निश्चित रूप से रखा।
- यह समानता और अंतर के बीच तनाव में विषमताओं में से एक है कि स्पेक्ट्रम के प्रत्येक छोर से प्रतिनिधि बी के लिए अपना मामला बना सकते हैं
- कठोर समानता के पैरोकारों ने तर्क दिया है- काफी बल के साथ- कि एक बार जब नारीवादी यौन अंतर की मामूली डिग्री को स्वीकार करते हैं, तो वे एक अंतर खोलते हैं जिसके माध्यम से प्रतिक्रिया की धाराएं बहती हैं। एक बार जाने दें कि मासिक धर्म से पहले का तनाव एकाग्रता के साथ हस्तक्षेप करता है, कि गर्भावस्था थकाऊ हो सकती है, मातृत्व अवशोषित कर रहा है, और आप अलग-अलग क्षेत्रों में ढलान से नीचे हैं। यह अच्छे कारण के साथ था कि प्रमुख प्रत्ययवादियों (जैसे मिलिसेंट गैरेट फॉसेट) ने महिलाओं की मातृ भूमिका पर जोर देने के खिलाफ तर्क दिया: आंदोलन का पूरा बिंदु महिलाओं को उनकी रूढ़िबद्ध घरेलूता से बाहर निकालना था, सार्वजनिक क्षेत्र में उनके दावों का दावा करना था।
- लेकिन जिन लोगों ने लैंगिक अंतर पर आधारित नारीवाद के लिए तर्क दिया है, उनका अपना बहुत ही प्रशंसनीय मामला है। समानता की राजनीति ऊर्जा को उन क्षेत्रों की ओर निर्देशित करती है जो पुरुषों के कब्जे में हैं, जबकि मुख्य रूप से घरेलू कामकाज या बच्चों की देखभाल के आसपास की महिला गतिविधियां हमेशा की तरह अस्पष्ट रहती हैं। महिलाओं को पुरुषों के लिए तैयार स्लॉट में खुद को फिट करने के लिए कहा जाता है, और इस प्रक्रिया में उनकी खुद की जरूरतों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। समानता का मतलब महिलाओं को पुरुषों के लिए बनाई गई दुनिया में खुद को आकार देना क्यों चाहिए? दुनिया को अपना भविष्य बदलने के लिए क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए?
- महिला आंदोलन के इतिहास में आमतौर पर समानता बनाम भिन्नता का एक वर्ग आयाम रहा है। उदाहरण के लिए, उन्नीसवीं सदी में, यह मध्यवर्गीय महिलाएं थीं, जिन्होंने खुद को अलग-अलग क्षेत्रों के सिद्धांत से सबसे अधिक पीड़ित महसूस किया, क्योंकि वे ही थीं जिनकी स्त्रीत्व को सबसे स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया था क्योंकि उन्हें उपयोगी काम से वंचित किया गया था। इससे उत्पन्न नारीवाद मुख्य रूप से चुनौती देने वाले बहिष्कार, सार्वजनिक जीवन तक पहुंच का दावा करने, वोट देने और अध्ययन करने और काम करने का अधिकार था। जिन नारीवादियों ने पहले मातृत्व के मुद्दों से इस आधार पर जुड़ने से इनकार कर दिया था कि इससे महिलाओं को घर वापस लाने में मदद मिलेगी, उन्हें अब मध्यवर्गीय महिलाओं की आवाज़ के रूप में पहचाना जाने लगा। मजदूर वर्ग की मां के नाम पर तब जोर उल्टा पड़ गया था।
- उदाहरण प्ररूपित करता है, क्योंकि वास्तव में कोई भी स्थिति संतोषजनक नहीं थी। नारीवादी स्पेक्ट्रम के समानता अंत ने महिलाओं को श्रमिकों के रूप में उजागर करने की प्रवृत्ति की थी, जबकि अंतर और महिलाओं को माताओं के रूप में उजागर किया है। चूंकि व्यवहार में अधिकांश महिलाएं दोनों होती हैं, इसलिए किसी भी पहलू को दूसरे के बहिष्करण पर जोर देना आमतौर पर एक खतरनाक विकल्प होता है।
- इस प्रकार यदि बेहतर गर्भनिरोधक सलाह, अधिक दाइयों, बेहतर प्रसव-पूर्व देखभाल, ‘पारिवारिक बंदोबस्ती‘ की आवश्यकता है और इसी तरह, महिलाओं को माताओं के रूप में जिन समस्याओं का सामना करना पड़ा, उन पर एक महत्वपूर्ण और स्वागत योग्य जोर दिया गया, इसने महिलाओं की वैतनिक कार्य की आवश्यकता को नकारने का जोखिम भी उठाया। 1940 और 1950 के दशक में जब कामकाजी मां खतरे में आ गई – जब युद्ध के समय नर्सरी बंद हो गईं और महिलाओं को घर में अपनी जगह बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया – नारीवादी उसके बचाव में कमोबेश तैयार थीं। सवैतनिक रोजगार के लिए अभियान बेहतर स्थिति वाली महिलाओं की सीमित जरूरतों के साथ बहुत करीब से पहचाने गए थे, और नारीवाद ने अस्थायी रूप से वह भाषा खो दी थी जिसमें महिलाओं को काम करने के समान अधिकार पर जोर दिया गया था (रिले: 1983)। इस उदाहरण में, दुर्भाग्यपूर्ण परिणामों के साथ समानता और अंतर राजनीति में बहुत अधिक विपरीत हो गए थे।
- ऐसे कई कारक हैं जो पुरुषों को बाज़ार में आगे रखते हैं जैसे महिलाओं का व्यावसायिक जीवन अक्सर पारिवारिक जिम्मेदारियों से बाधित होता है, कुछ नौकरियों में पदोन्नति के अवसर कम होते हैं आदि।
- जबकि इस समय सांस्कृतिक-जैविक असहमति को सुलझाना संभव नहीं है, यह कहना सुरक्षित है कि वास्तविक उत्तर दो चरम सीमाओं के बीच है। जो भी कारकों का समूह सबसे अधिक प्रभावशाली निकला, यह स्पष्ट है कि संस्कृति लिंग द्वारा सार्वभौमिक भेदभाव और स्तरीकरण को पुष्ट करती है। अमेरिका में परंपरागत रूप से पुरुष सामाजिक पदों में किसी भी महिला हित को बचपन, किशोरावस्था और वयस्कता के दौरान माता-पिता, साथियों और प्रेमियों द्वारा शुरू किए गए सांस्कृतिक हमले से बचने के लिए अविश्वसनीय बाधाओं से लड़ना होगा। शैशवावस्था में चाय पार्टी और माँ के पर्स के साथ शुरू करके, लड़कियों को पारंपरिक महिला गतिविधियों के लिए उनकी प्राथमिकता को ‘स्वाभाविक‘ दिखाने के लिए एक पर्याप्त सांस्कृतिक बंधन के साथ बमबारी की जाती है, चाहे वह आंशिक रूप से प्रकृति में निहित हो या नहीं।
SOCIOLOGY – SAMAJSHASTRA- 2022 https://studypoint24.com/sociology-samajshastra-2022
समाजशास्त्र Complete solution / हिन्दी में
INTRODUCTION TO SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2kHe1iFMwct0QNJUR_bRCw
SOCIAL CHANGE: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R32rSjP_FRX8WfdjINfujwJ
SOCIAL PROBLEMS: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R0LaTcYAYtPZO4F8ZEh79Fl
INDIAN SOCIETY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R1cT4sEGOdNGRLB7u4Ly05x
SOCIAL THOUGHT: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R2OD8O3BixFBOF13rVr75zW
RURAL SOCIOLOGY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R0XA5flVouraVF5f_rEMKm_
INDIAN SOCIOLOGICAL THOUGHT: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R1UnrT9Z6yi6D16tt6ZCF9H
SOCIOLOGICAL THEORIES: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R39-po-I8ohtrHsXuKE_3Xr
SOCIAL DEMOGRAPHY: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R3GyP1kUrxlcXTjIQoOWi8C
TECHNIQUES OF SOCIAL RESEARCH: https://www.youtube.com/playlist?list=PLuVMyWQh56R1CmYVtxuXRKzHkNWV7QIZZ
*Sociology MCQ 1*
*SOCIOLOGY MCQ 3*
**SOCIAL THOUGHT MCQ*
*SOCIAL RESEARCH MCQ 1*
*SOCIAL RESEARCH MCQ 2*
*SOCIAL CHANGE MCQ 1*
*RURAL SOCIOLOGY MCQ*
*SOCIAL CHANGE MCQ 2*
*Social problems*
*SOCIAL DEMOGRAPHY MCQ 1*
*SOCIAL DEMOGRAPHY MCQ 2*
*SOCIOLOGICAL THEORIES MCQ*
*SOCOLOGICAL PRACTICE 1*
*SOCOLOGICAL PRACTICE 2*
*SOCOLOGICAL PRACTICE 3*
*SOCOLOGICAL PRACTICE 4*
*SOCOLOGICAL PRACTICE 5*
*SOCOLOGICAL PRACTICE 6*
*NET SOCIOLOGY QUESTIONS 1*
**NET SOCIOLOGY QUESTIONS 2*
*SOCIAL CHANGE MCQ*
*SOCIAL RESEARCH MCQ*
*SOCIAL THOUGHT MCQ*
Attachments area
Preview YouTube video SOCIOLOGY MCQ PRACTICE SET -1
Preview YouTube video SOCIOLOGY MCQ PRACTICE SET -1
This course is very important for Basics GS for IAS /PCS and competitive exams
*Complete General Studies Practice in Two weeks*
https://www.udemy.com/course/gk-and-gs-important-practice-set/?couponCode=CA7C4945E755CA1194E5
**General science* *and* *Computer*
*Must enrol in this free* *online course*
**English Beginners* *Course for 10 days*
https://www.udemy.com/course/english-beginners-course-for-10-days/?couponCode=D671C1939F6325A61D67
https://www.udemy.com/course/social-thought-in-english/?couponCode=1B6B3E02486AB72E35CF
https://www.udemy.com/course/social-thought-in-english/?couponCode=1B6B3E02486AB72E35CF
ARABIC BASIC LEARNING COURSE IN 2 WEEKS
Beginners Urdu Learning Course in 2Weeks
https://www.udemy.com/course/learn-hindi-to-urdu-in-2-weeks/?couponCode=6F9F80805702BD5B548F
Hindi Beginners Learning in One week
https://www.udemy.com/course/english-to-hindi-learning-in-2-weeks/?couponCode=3E4531F5A755961E373A
Free Sanskrit Language Tutorial
Follow this link to join my WhatsApp group: https://chat.whatsapp.com/Dbju35ttCgAGMxCyHC1P5Q
https://t.me/+ujm7q1eMbMMwMmZl
Join What app group for IAS PCS
https://chat.whatsapp.com/GHlOVaf9czx4QSn8NfK3Bz
https://www.facebook.com/masoom.eqbal.7
https://www.instagram.com/p/Cdga9ixvAp-/?igshid=YmMyMTA2M2Y=