विचलन
विचलन की परिभाषा एवं अर्थ
सामाजिक परिवर्तनों से समाज की स्वीकृत प्रथाओं एवं प्रणालियों में परिवर्तन को विचलन कहा जाता है । समाज के प्रतिमान एवं सामाजिक मानदण्डों के विपरीत कार्य को विचलन के रूप में सम्बोधित किया जाता है । संसार के विभिन्न देशों में सामाजिक समस्याओं जैसे बाल – अपराध , वेश्यावृत्ति , नशावृत्ति का अध्ययन विचलन के रूप में किया जाता है ।विचलन का अर्थ समझने से पूर्व विभिन्न समाजशास्त्रियों द्वारा दी गई परिभाषाओं का विवेचन आवश्यक है
राबर्ट बेल के अनुसार ” समाज में औसत व्यवहार से बहुत अधिक भिन्नता प्रकट करना ही विचलन है । वाल्श और फरफे ने सामाजिक समस्या को विचलन माना है उनके मतानुसार “ सामाजिक आदर्श को विचलन माना गया है जो सामूहिक प्रयत्न से ही ठीक हो सकता है । ” इनके अनुसार विचलन के दो तत्व हैं –
1 ) आदर्श से कम स्थिति
( 2 ) इसके निराकरण हेतु सामूहिक प्रयत्न विचलन के सम्बन्ध में
जॉनसन ने लिखा है “ विचलन व्यवहार केवल ऐसा व्यवहार नहीं है जिसमें किसी मानदण्ड का उल्लंघन होता है । यह ऐसा व्यवहार है जो उस मानदण्ड का उल्लंघन करता है जिसकी ओर कर्ता उस समय अभिमुख हो , यह जानबूझकर किया गया उल्लंघन है ।
थियोडोरसन के अनुसार “ विचलन का अर्थ सामाजिक मानदण्डों के प्रति प्रतिरूपता ( Non – Confirmity ) है । ”
उक्त सभी परिभाषाओं से स्पष्ट है कि विचलन मानदण्डों के रूप में जाना जाता है । ये मानदण्ड सामाजिक जटिलता से परिवर्तित हो जाते हैं । इन परिवर्तनों को विचलन के रूप में जाना जाता है । परिभाषाओं से इसकी विशेषताएँ प्रकट होती हैं । इन विशेषताओं का विवरण बिन्दुवार निम्न प्रकार है –
1 . विचलन राज्य नियन्त्रित होता है – सामाजिक समस्याओं के द्वारा विचलन की उत्पत्ति होती है । इनकी रोकथाम के लिए सरकार का हस्तक्षेप आवश्यक होता है अत : सरकार राज्य के रूप में न्यायालय , जेल तथा पुलिस बल द्वारा इसे नियन्त्रित करता है ।
2 . विचलन समूह प्रधान होता है – यह आवश्यक नहीं है कि एक सामाजिक समस्या दसरे समाज की समस्या के रूप में हो । विचलन का सम्बन्ध सामाजिक समस्या से होता है अतः एक समूह का विचलन दूसरे समूह का विचलन नहीं हो सकता जैसे यौन सम्बन्ध भारत में निषेधित है किन्तु यूरोपीय देशों में इसे स्वतंत्र रूप में छूट है ।
3 . सामाजिक मानदण्ड के रूप में विचलन को सामाजिक मानदण्ड के रूप में देखा जाता है मानदण्डों की अवहेलना से विचलन पैदा होता है । अतः प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए कि इन मानदण्डों की अवहेलना न हो । जैसे ताश खेलना गम्भीर अपराध नहीं किन्तु जुआ के रूप में ताश खेलना गम्भीर अपराध है ।
विचलन के कारण ( Causes of Deviance )
प्रत्येक सामाजिक परिवर्तन व सामाजिक समस्या का कारण अवश्य होता है इसी प्रकार विचलन के कारण निम्न प्रकार हैं
- शिक्षा की कमी समाज में शिक्षा का अभाव है अतः मनुष्य सामाजिक समस्याओं को समझता नहीं है और दोषपूर्ण शिक्षा से विचलित सामाजीकरण की ओर उन्मुख हो जाता है ।
2 . दण्ड का अभाव कानून द्वारा समाज में व्याप्त दोषों की उचित दण्ड व्यवस्था नहीं है । इस अनुचित दण्ड व्यवस्था से मनुष्य नहीं डरता , विचलन व्यवहार बढ़ाता है । विचलन का राजनीतिकरण भी हो गया है ।
3 . संवैधानिक कमियाँ संविधान में विचलन की कोई ठोस धाराएँ नहीं हैं । जब कमी समाज में विचलन से सम्बन्धित प्रकरण आते हैं तो संविधान का गलत विश्लेषण करं विचलित व्यावहारिक व्यक्ति को बचा लिया जाता है ।
4 . अनुचित व्याख्या – राज्य के प्रमुख विभाग जो अपराध पर अंकुश लगाते हैं जैसे जेल , पुलिस आदि के अनुचित व्यवहार के कारण लोग विचलन को नकाबपोश नहीं करते , आगे आने में शंका करते हैं ।
5 . सामाजिक नियन्त्रण का अभाव – समाज का राजनीतिकरण होने से विचलित समाज का मानदण्ड कम होता जा रहा है , देश भक्ति व स्वतन्त्रता का अभाव है । अत : विचलन समाज द्वारा नियन्त्रित नहीं है ।
6 . अपराधी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन कुछ सामाजिक कारणों के डर से लोग अपराधी से डरते हैं वे अपराधी को पकड़ाने में रुचि नहीं लेते इससे अपराधी विचलन की प्रवृत्ति बढ़ती है ।
7 . राज्य की शिथिल नीति – विचलन के बढ़ने का एक मुख्य कारण राज्य सरकारों की शिथिलता भी है । सही समय पर सही कार्यवाही हो तो विचलन की प्रवृत्ति पर रोक लग सकती है ।
आत्महत्या का सिद्धान्त
दुखीम ने अपनी पुस्तक ‘ Le Suicide ‘ में बहत से आँकड़ों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि आत्महत्या किसी व्यक्तिगत कारण का परिणाम नहीं होती बल्कि यह एक सामाजिक तथ्य है । इसे स्पष्ट करते हुए दुर्थीम का कथन है कि जिन विद्वानों ने आत्महत्या को वंशानुगत दोष , निर्धनता , निराशा , मानसिक असन्तुलन अथवा जलवायु आदि के आधार पर स्पष्ट किया है , वे विद्वान आत्म हत्या को एक वैयक्तिक घटना मानने की गलती कर बैठते हैं । वास्तविकता यह है कि आत्महत्या का सम्बन्ध कुछ विशेष . सामाजिक दशाओं एवं उनसे किए गये वैयक्तिक अनुकूलन की मात्रा से होता है । दुर्थीम के शब्दों में , ” आत्महत्या तथा सामाजिक पर्यावरण की विभिन्न दशाओं के बीच का सम्बन्ध उतना ही अधिक प्रत्यक्ष और स्पष्ट होता है जितना कि जैविकीय और भौतिक दशाएँ आत्महत्या के साथ एक अनिश्चित और अस्पष्ट सम्बन्ध को स्पष्ट करती हैं । अपने इस कथन के आधार पर दुर्शीम ने यह स्पष्ट किया कि एक सन्तुलित व्यक्तित्व के लिए यह आवश्यक होता है कि सामाजिक दशाओं तथा सामूहिक चेतना का व्यक्ति के जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव स्वस्थ हो । इसके विपरीत , जब व्यक्ति के जीवन पर समूह के नियन्त्रण में आवश्यकता से अधिक वृद्धि अथवा कमी होने लगती है तो सामाजिक दशाएँ व्यक्ति को अस्वस्थ रूप से प्रभावित करना आरम्भ कर देती हैं । यही दशा आत्महत्याओं का कारण होती है ।
दुर्वीम ने अपने द्वारा एकत्रित आँकड़ों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि स्त्रियों की तुलना में पुरुष अधिक आत्महत्या करते हैं ; कम आयु के लोगों की अपेक्षा अधिक आयु के लोगों में आत्म हत्या की दर अधिक पायी जाती है । सामान्यत : जनता की तुलना में सैनिक लोग अधिक आत्महत्याएँ करते हैं ; अविवाहित और सुखी पारिवारिक जीवन से वंचित लागों में उन व्यक्तियों की तुलना में आत्महत्या की दर अधिक होती है जो विवाहित अथवा सुखी पारिवारिक जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं । इसी प्रकार कैथोलिक धर्म का मानने वालों की तुलना में प्रोटेस्टेन्ट धर्म को मानने वाले लोग अधिक आत्म हत्याएँ करते हैं । प्रोटेस्टेन्ट धर्म को मानने वालों में आत्महत्या की दर इसलिए जाधक है कि उनका धर्म व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर अधिक बल देने के कारण व्यक्तियों के व्यवहारों पर इतना नियन्त्रण स्थापित नहीं कर पाता कि वे पूर्णतया एक नैतिक समुदाय में संयुक्त हो सकें ।
इसका तात्पर्य है कि धार्मिक विश्वास तथा धार्मिक आचार अनिवार्य रूप से आत्महत्या पर नियन्त्रण नहीं लगाते । एक विशेष धर्म अपने आचारों के द्वारा वैयक्तिक जीवन को जितना अधिक संगठित कर लेता है , उसके मानने वालों में आत्महत्या की दर उतनी ही कम हो जाती है । इससे पुनः यह स्पष्ट होता है कि आत्महत्या की घटनाओं को सामाजिक आधार पर ही समझा जा सकता है । 15 इस सम्बन्ध में एक प्रश्न यह उठ सकता है कि यदि सामाजिक दशाएँ ही आत्महत्या का कारण हैं तो समान सामाजिक दशाओं में रहने वाले लोगों में आत्म हत्या की घटनाएं एक – दूसरे से भिन्न क्यों होती हैं ? इसे स्पष्ट करते हुए दुर्थीम का कथन है कि आत्महत्या को प्रेरणा देने वाली दशाएँ प्रत्येक समाज में क्रियाशील रहती हैं लेकिन विभिन्न व्यक्तियों पर उनका प्रभाव समान नहीं होता । इसका तात्पर्य है कि एक विशेष दशा को कुछ लोग बहुत सामान्य समझकर उसे यूं ही छोड़ देते हैं अथवा उसके प्रति पूरी तरह उदासीन बने रहते हैं । दूसरी ओर कुछ व्यक्ति ऐसे भी हो सकते हैं जो उसी दशा के उत्पन्न होने पर या तो पूरी तरह से टूट जाते हैं अथवा अपने कर्तव्य को इस सीमा तक पूरा करने के लिए तैयार हो जाते हैं कि उन्हें अपने जीवन की भी चिन्ता नहीं रहती । इसका तात्पर्य है कि आत्महत्या को प्रेरणा देने वाली विभिन्न सामाजिक दशाओं के प्रति जो व्यक्ति जितना अधिक लगाव महसूस करते हैं , उनमें आत्महत्या की ओर बढ़ जाने की सम्भावना उतनी ही अधिक हो जाती है । इसी कारण दुर्थीम ने लिखा है , ” यह निश्चित प्रतीत होता है कि कोई भी सामूहिक भावना व्यक्तियों को तब तक प्रभावित नहीं कर सकती जब तक वे उसके प्रति उदासीन बने रहें । ” दुर्शीम ने आत्महत्या को प्रेरणा देने वाली विभिन्न दशाओं के आधार पर आत्महत्या के तीन प्रमुख प्रकारों का उल्लेख किया है :
( 1 ) अहमवादी आत्महत्या ( Egoistic Suicide ) – यह आत्महत्या एक ऐसी सामाजिक स्थिति का परिणाम है जिसमें समूह के नियन्त्रण में बहत कमी हो जाने के कारण व्यक्ति और समूह का पारस्परिक सम्बन्ध इतना ढीला और कमजोर हो जाता है कि व्यक्ति अपने आपको न केवल उपेक्षित बल्कि समाज से पूर्णतया अलग – थलग समझने लगता है । दुर्थीम ने पश्चिमी समाजों का उदाहरण देते हुए बतलाया कि यहाँ व्यक्तिवाद में अत्यधिक वृद्धि हो जाने के फलस्वरूप अधिकांश व्यक्ति अपने निजी सुखों और स्वार्थों को इतना महत्व देने लगे हैं कि इससे पार . . .रिक त्याग , प्रेम और सहानुभूति के गुण समाप्त होते जा रहे हैं । इन अवैयक्तिक नों में जब इतनी वृद्धि हो जाती है कि व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण की चिन्ता करके केवल अपने स्वार्थों को पूरा करने में ही लिप्त हो जाते हैं तब संवेदनशील ति के अहम् के लिए यह दशा बहुत अपमानजनक बन जाती है । उसे यह अनुभव होने लगता है कि समूह में उसका ‘ अपना ‘ कोई नहीं है । ऐसा व्यक्ति जीवन के किसी स्तर पर पहुँच कर न केवल स्वयं को बहुत अकेला , अपरिचित और परित्यक्त महसूस करने लगता है बल्कि कभी – कभी अपने जीवन को अनुपयोगी भी समझने लगता है । आत्महत्या इसी स्थिति का स्वाभाविक परिणाम है जो व्यक्ति द्वारा अपने हम की रक्षा करने के लिए की जाती है । इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक घनिष्ठता में कमी , सम्बन्धों में औपचारिकता तथा सामाजिक नियन्त्रण में होने वाला ह्रास , अहमवादी आत्महत्या के प्रमुख कारण हैं ।
( 2 ) परमार्थवादी आत्महत्या ( Altruistic Suicide ) – – आत्महत्या का यह रूप अहमवादी आत्महत्या से पूर्णतया विपरीत दशा को स्पष्ट करता है । परार्थवादी आत्महत्या व्यक्तिगत अहम् की सन्तुष्टि के लिए न होकर किसी अन्य व्यक्ति अथवा समूह के हित को ध्यान में रखकर की जाती है । इसका तात्पर्य है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति का अस्तित्व अपने समूह में इस प्रकार घल – मिल जाता है कि व्यक्ति अपने जीवन की अपेक्षा अपने समूह को कहीं अधिक महत्वपूर्ण समझने लगता है । इस दशा में वह जो भी विचार करता है अथवा व्यवहार करता है , वह सब कुछ समूह – कल्याण को ध्यान में रखते हुए ही किया जाता है । किसी विशेष परिस्थिति में व्यक्ति यदि यह अनुभव करता है कि उसके बलिदान से उसके समूह की प्रतिष्ठा बढ़ेगी , किसी अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति की रक्षा होगी अथवा समूह अधिक संगठित बन सकेगा , तो व्यक्ति अक्सर अपने जीवन का बलिदान करने के लिए तैयार हो जाता है । यही परार्थवादी आत्महत्या है । दुर्चीम ने स्पष्ट किया कि इस श्रेणी की आत्महत्याएँ दो प्रमुख आधारों पर होती हैं – नैतिक आधार पर तथा मनोवैज्ञानिक आधार पर । नैतिक आधार व्यक्ति को अपने समूह के कल्याण के प्रति अधिक जागरूक बनाता है जबकि मनोवैज्ञानिक आधार पर आत्महत्या के विचार से उसे व्यक्तिगत सन्तुष्टि की अनुभूति होती है । उदाहरण के लिए जापान में ‘ हाराकिरी ‘ का प्रचलन अथवा भारत में एक लम्बे समय तक प्रचलित रहने वाली ‘ जौहर की प्रथा ‘ नैतिक आधार पर की जाने वाली आत्महत्याएँ हैं । दूसरी ओर एक प्रेमी द्वारा अपनी प्रेमिका के हित में की जाने वाली आत्महत्या अथवा परिवार की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए एक निरन्तर बीमार रहने वाली स्त्री द्वारा को जाने वाली आत्महत्या मनोवैज्ञानिक आधार से सम्बन्धित परार्थवादी आत्म हत्या है । दुर्थीम ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी समूह का आकार जितना छोटा होता है तथा उसमें वैयक्तिक और त्यागपूर्ण सम्बन्धों की जितनी प्रधानता होती है , वहाँ इस श्रेणी की आत्महत्याएँ उतनी ही अधिक होती हैं ।
( 3 ) विसंगत आत्महत्या ( Anomique Suicide ) – आत्महत्या का यह प्रकार समाज की उस दशा से सम्बन्धित है जिसे दुर्थीम ने ‘ विसंगति ‘ अथवा अप्रतिमानता ( Anomic ) कहा है । विसंगति को परिभाषित करते हुए दुर्थीम ने लिखा कि , ” विसंगति आदर्श – नियमों की समाप्ति की दशा है , एक सामान्य शून्यता है , नियमों का निलम्बन है तथा यह एक ऐसी स्थिति है जिसे हम अक्सर नियम विहीनता कहते है । ” 28 इसका तात्पर्य है कि जब किन्हीं आकस्मिक दशाओं के फलस्वरूप समाज का संगठन तथा उसका नैतिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और व्यक्ति इन बदली हुई दशाओं से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते तब यह दशा विसंगति की दशा होती है । यही कारण है कि इस स्थिति में की जाने वाली आत्महत्या को हम बिसंगतिपूर्ण अथवा नियमहीनता से उत्पन्न आत्महत्या कहते हैं । आत्महत्या के इस रूप को स्पष्ट करते हुए सारोकिन ( Sorokin ) ने लिखा है कि , ” जब किसी समाज के मूल्यों और आदर्श नियमों की व्यवस्था को आघात पहुँचता है तथा वह छिन्न – भिन्न हो जाती है तो विसंगत आत्महत्या की दर स्वयं ही ऊपर की ओर उठने लगती है । ” उदाहरण के लिए किसी समाज में आथिक संकट की दशा उत्पन्न हो जाने पर अथवा तीव्र राजनैतिक उथल – पुथल होने की दशा में समाज में न केवल आदर्श नियमों का प्रभाव समाप्त होने लगता है बल्कि बहुत से व्यक्ति अपने जीवन में एक शून्यता महसूस करने लगते हैं । इसका स्वाभाविक परिणाम बहुत से व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या के रूप में देखने को मिलता है । भारत में सन् 1990 में आरक्षण की नीति को लेकर जिस अप्रतिमानता को प्रोत्साहन मिला उससे सम्बन्धित एक बड़ी संख्या में होने वाली आत्महत्याएँ विसंगत आत्महत्या की दशा को ही स्पष्ट करती हैं । इस सन्दर्भ में दुर्सीम ने पारिवारिक विसंगति का भी उल्लेख करते हुए बताया कि परिवार में यदि पति या पत्नी में से किसी एक की मृत्यु हो जाने के कारण परिवार का संगठन नष्ट हो जाये तो दूसरे पक्ष द्वारा की जाने वाली आत्महत्या भी विसंगत आत्महत्या की प्रकृति को ही स्पष्ट करती है । वास्तविकता यह है कि समाज में विसंगति अथवा नियमहीनता के कारण अनेक व्यक्ति अपनी दशाओं से सामंजस्य स्थापित करने में पूर्णतया असफल हो जाता हैं और इसलिए आत्महत्या के द्वारा इस संकट से स्वयं को बचाने का प्रयत्न करते हैं । इस प्रकार दुर्वीम ने आत्महत्या को एक सामाजिक घटना मानकर सामाजिक दशाओं के सन्दर्भ में ही आत्महत्या की प्रकृति तथा दर को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि दुर्थीम ने आत्महत्या की गतिशील प्रकृति की स्पष्ट करने तथा इसे सामाजिक दशाओं का परिणाम सिद्ध करके समाजशास्त्राय
चिन्तन में एक महत्वपूर्ण योगदान किया है लेकिन कुछ आधारों पर दुर्वीम के आत्महत्या के सिद्धान्त की आलोचना भी की जाती है । ऐरों ( Aron ) ने लिखा है । कि दुर्थीम के इस सिद्धान्त का सबसे बड़ा दोष यह है कि उन्होंने आत्महत्या की विवेचना में सामाजिक कारकों के प्रभाव पर आवश्यकता से अधिक बल दे दिया । वास्तविकता यह है कि व्यक्ति की मानसिक संरचना अथवा व्यक्तित्व सम्बन्धी कारक भी आत्महत्या जैसी घटना के लिए एक बड़ी सीमा तक उत्तरदायी होते हैं । दुर्सीम ने इस तथ्य को पूर्णतया अवहेलना कर दी जिसके फलस्वरूप उनके विचार एकपक्षीय प्रतीत होने लगते हैं ।
सामाजिक संरचना तथा नियमहीनता
विभिन्न विद्वान एक लम्बे समय से इस तथ्य को समझाने का प्रयत्न करते रहे हैं कि सामाजिक संरचना और व्यक्ति के व्यवहारों के बीच एक घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । इसका कारण यह है कि व्यक्ति सामाजिक संरचना का ही एक अंग है तथा जिस समाज की सामाजिक संरचना की जैसी प्रकृति होती है उसी के अनुसार साधारणतया व्यक्ति के व्यवहारों का निर्धारण होता है । व्यक्ति पर सामाजिक संरचना का प्रभाव प्रत्येक दशा में स्वस्थ ही नहीं होता बल्कि अनेक दशाओं में यह प्रभाव इस तरह का भी हो सकता है कि व्यक्ति समाज के स्वीकृत नियमों अथवा प्रतिमानों से हटकर व्यवहार करने लगे । सामान्य शब्दों में इसी दशा को हम ‘ एनामी ‘ ( Anomie ) कहते हैं । इस दशा को व्यक्त करने के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिनमें नियमहीनता , विसंगति , अप्रतिमानता तथा आदर्श – शून्यता आदि प्रमुख हैं । मर्टन से पहले भी अनेक विद्वानों ने कुछ ऐसी दशाओं का उल्लेख किया था जो व्यक्ति पर समाज के नियमों और प्रतिमानों का उल्लंघन करने के लिए दबाव डालती हैं । उदाहरण के लिए फ्रॉयड ( Freud ) ने मनोवैज्ञानिक आधार पर यह स्पष्ट किया था कि व्यक्ति में कुछ ऐसी प्राणीशास्त्रीय प्रवृत्तियाँ होती हैं जो उससे अपनी सन्तुष्टि की मांग करती है तथा यदि सामाजिक नियमों और प्रतिमानों के द्वारा यह सन्तुष्टि न की जा सके तो यह प्रवृत्तियाँ व्यक्ति को सामाजिक नियमों का उल्लंघन करने की प्रेरणा देने लगती है । इस दृष्टिकोण से फायड ने नियमहीनता को व्यक्ति के मस्तिष्क की एक विशेष अवस्था के रूप में स्वीकार किया , सामाजिक संरचना की विशेषता के रूप में नहीं – नियमहीनता की समाजशास्त्रीय अवधारणा सबसे पहले दीम द्वारा प्रस्तुत की गया । उन्हान नियमहीनता को एक ऐसी दशा के रूप में स्पष्ट किया जिसम मानव व्यवहारा को प्रभावित करने में सामाजिक प्रतिमानों का प्रभाव कम होने लगता हा सामाजिक नियम संघर्षपूर्ण दशाओं को प्ति सिद्ध होने लगते हैं तथा व्यक्तियों के बीच के नैतिक सम्बन्ध कम
जोर पड़ने लगते है । इसका तात्पर्य है कि नियमहीनता का सम्बन्ध किन्हीं प्राणी शास्त्रीय दशाओं से नहीं है बल्कि यह सामाजिक दशाओं से ही सम्बन्धित होती है । मर्टन ने अपनी पुस्तक Social Theory and Social Structure में दुर्थीम के विचारों को ही आगे बढ़ाते हुए नियमहीनता के सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की । मर्टन द्वारा प्रस्तुत मध्य – मार्गीय सिद्धान्तों में नियमहीनता के सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान बना हुआ है । _ मर्टन ने यह स्पष्ट किया कि नियमहीनता की दशा का सामाजिक संरचना से घनिष्ठ सम्बन्ध है । विभिन्न दशाओं में सामाजिक संरचना के अन्तर्गत ही कुछ ऐसी स्थितियाँ विद्यमान होती है जो व्यक्ति पर सामाजिक नियमों तथा प्रतिमानों के प्रतिकूल व्यवहार करने का दबाव डालती हैं । नियमहीनता तथा सामाजिक संरचना के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए मर्टन ने एक क्रमबद्ध विश्लेषण प्रस्तुत किया । उन्होंने बतलाया कि प्रत्येक सामाजिक संरचना अनेक ऐसी सामाजिक संहिताओं ( Social Ccdes ) अथवा व्यवहार के नियमों को विकसित करती है जो व्यक्ति को सामाजिक मानदण्डों के अनुसार व्यवहार करना सिखाते हैं । यह सामाजिक सहिताएँ ही बतलाती हैं कि समाज व्यक्ति से किस तरह के व्यवहारों की आशा करता है । मर्टन ने यह प्रश्न उठाया कि जब सामाजिक संरचना का कार्य व्यक्ति को समाज द्वारा मान्यता प्राप्त ढंग से व्यवहार करने की शिक्षा देना है तब वे कौन – सी दशाएँ हैं जिनके फलस्वरूप सामाजिक नियमहीनता उत्पन्न होती है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए मर्टन ने बतलाया कि प्रत्येक सामाजिक संरचना में कुछ ऐसे सांस्कृतिक मूल्यों का समावेश होता है जो अनेक व्यक्तियों के लक्ष्यों की पूर्ति अथवा लक्ष्य को प्राप्त करने से सम्बन्धित साधनों के रास्ते में बाधक होते हैं । यही मूल्य व्यक्ति पर इस तरह का दवाव डालने लगते हैं कि वह अपनी सामाजिक स्थिति के अनुसार कुछ ऐसे व्यवहार करने लगे जो समाज के प्रचलित नियमों अथवा मानदण्डों से भिन्न हो । मटन के अनुसार “ सांस्कृतिक संरचना उन प्रतिमानित मल्यों ( Normative Values ) का संगठित स्वरूप है जो एक समूह के सदस्यों के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखता है । दूसरी ओर , सामाजिक संरचना से हमारा तात्पर्य सामाजिक के उस संगठित स्वरूप से है जिसका निर्माण समूह के सदस्य विभिन्न क्रियाओं द्वारा mmyTVRATRIत्पर्य है कि सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना अनेक तत्त्वों से होता है लेकिन नियमहीनता को समझने के दृष्टिकोण से इनके दो तत्त्व अधिक रॉबर्ट के ० मर्टन323 महत्वपूर्ण है । इन्हें हम सांस्कृतिक लक्ष्य ( Cultural Goals ) तथा संस्थागत प्रति मान ( Institutional Norms ) कहते हैं । मटन ने इन्हीं के आधार पर नियमहीनता की अवधारणा को स्पष्ट किया ।
सांस्कृतिक लक्ष्य तथा संस्थागत प्रतिमान
( Cultural Goals and Institutional Norms )
प्रत्येक सांस्कृतिक संरचना में कुछ ऐसे लक्ष्यों का समावेश होता है जिन्ह प्राप्त करना समाज के सदस्यों के लिए महत्त्वपूर्ण समझा जाता है । मर्टन के अनुसार , यह लक्ष्य परस्पर सम्बन्धित होते हैं तथा इयका आधार समाज के कुछ वास्तविक तथ्य होते हैं । इनमें से प्रत्येक लक्ष्य हमारे किसी न किसी सामाजिक मूल्य से सम्ब न्धित होता है । जो लक्ष्य जितने अधिक महत्त्वपूर्ण मूल्य से सम्बन्धित होता है , उसे उतना ही उच्च समझा जाता है । उराहरण के लिए जापान की सेमुराय , जाति में युद्ध को जीतना या मृत्यु का वरण करना एक महत्त्वपूर्ण मूल्य है । इसके अनुसार वीरतापूर्वक युद्ध करना सेमुराय जाति का एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक लक्ष्य हैं । मर्टन _ _ _ का कथन है कि सांस्कृतिक लक्ष्य ही यह तय करते हैं कि किसी समाज में आकांक्षाएं क्या क्या होंगी तथा वे अपने समूह में किस तरह से व्यवहार करेंगे । इसका तात्पर्य है कि एक विशेष समाज या समूह की जीवन – विधि का निर्धारण उसक सास्कृतिक तथ्यों के अनसार ही होता हैALTERNER सांस्कृतिक संरचना के दूसरे महत्त्वपूर्ण तत्त्व को मर्टन ने संस्थागत प्रतिमान कहा । यह प्रतिमान व्यवहार के वे स्वीकृत तरीके हैं जो सांस्कृतिक लक्ष्य को प्राप्त करने में साधन का काम करते हैं । वास्तव में प्रत्येक समूह में सांस्कृतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कुछ जनरीतियों , प्रथाओं , लोकाचारों , कार्यविधियों या संस्थाओं का विकास हो जाता है । यह वे संस्थागत प्रतिमान हैं जो व्यक्तियों को एक विशेष ढंग से व्यवहार करने की सीख देते हैं । उदाहरण के लिए परिवार की स्थापना करना एक सांस्कृतिक लक्ष्य है जबकि हमारे समाज में एक विवाह का नियम वह संस्थागत प्रतिमान अथवा साधन है जिसके द्वारा इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है । लीड सांस्कृतिक लक्ष्य तथा संस्थागत प्रतिमानों की उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट होता है कि यह दोनों तत्त्व घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं तथा केवल विश्लेषण के . . दृष्टिकोण से ही इन्हें एक – दूसरे से अलग किया जा सकता है । वास्तविकता यह है कि सांस्कृतिक लक्ष्य और संस्थागत प्रतिमान संयुक्त रूप से मानवीय व्यवहारों को प्रभावित करते हैं तथा इन्हीं की संयुक्तता से समाज में एक क्रियात्मक सन्तुलन बना | रहता है । मर्टन का कथन है कि प्रत्येक सांस्कृतिक संरचना का यह प्रयत्न होता है । कि सांस्कृतिक लक्ष्यों और संस्थागत प्रतिमानों के बीच यह सन्तुलन बना रहे लेकिन अ
ऐसा होना सदैव सम्भव नहीं हो पाता । इसे मर्टन ने अनेक कारणों के आधार पर स्पष्ट किया । ( 1 ) पहला कारण यह है कि समाज में सांस्कृतिक लक्ष्यों का निर्धारण उस समाज के मूल्यों के आधार पर होता है जबकि विभिन्न दशाओं में व्यक्तियों के मूल्य एक – दूसरे से भिन्न हो सकते हैं । उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति का लक्ष्य परिश्रम के द्वारा समाज में सम्मानित पद प्राप्त करना हो सकता है जबकि किसी दूसरे व्यक्ति का लक्ष्य परिश्रम के द्वारा अधिक धन की प्राप्ति करना हो सकता है । इस प्रकार एक अवधि विशेष के मूल्यों के अनुसार व्यक्तिगत मूल्यों में भी परिवर्तन हो जाता है । ( 2 ) दूसरा कारण यह है कि विभिन्न दशाओं में एक ही व्यक्ति के मूल्यों के बीच द्वन्द्व अथवा विरोध की दशा उत्पन्न हो सकती है । उदाहरण के लिए सामान्यतः राष्ट्रवाद और अहिंसावाद जैसे मूल्यों के बीच कोई विरोध नहीं है । इसके बाद भी यदि व्यक्ति के राष्ट्र पर किसी शत्रु द्वारा आक्रमण कर दिया जाय तब इन दोनों मूल्यों के बीच संघर्ष की दशा पैदा हो जाती है । व्यक्ति यदि युद्ध करता है तब अहिंसा के मूल्य को आघात पहुँचता है जबकि युद्ध न करने पर राष्ट्र वाद के मूल्य पर आधारित लक्ष्य नष्ट होने लगता है । ( 3 ) मर्टन के अनुसार यह भी सम्भव है कि किन्हीं विशेष लक्ष्यों की प्राप्ति पर उस समाज की संस्कृति द्वारा अधिक बल दिया जाता हो लेकिन इन लक्ष्यों की प्राप्ति के संस्थागत साधन स्पष्ट और व्यवस्थित न हों । इस दशा में व्यक्ति अक्सर ऐसे साधनों के द्वारा उन लक्ष्यों को प्राप्त करने लगता है जो समाज के परम्परागत मूल्यों अथवा सामाजिक मानदण्डों के प्रतिकूल हों । इन दशाओं के फलस्वरूप कुछ व्यक्ति सांस्कृतिक लक्ष्यों की अवहेलना करके केवल संस्थागत साधनों को ही स्वीकार करते हैं जबकि कुछ व्यक्ति संस्थागत साधनों को बदलकर नए ढंग के व्यवहारों से सांस्कृतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगते हैं । कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो न तो अपने सांस्कृतिक लक्ष्यों को स्वीकार करते हैं और न ही संस्थागत प्रतिमानों को उपयोगी मानते हैं । समाज में जब इस प्रकार की दशाएं उत्पन्न होती हैं तब इससे नियमहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । इससे स्पष्ट होता है कि नियमहीनता के कारण समाज की सामाजिक तथा सांस्कृतिक संरचना के अन्दर ही विद्यमान होते हैं ।
व्यक्तिगत अनुकूलन के प्रकार ( Types of Individual Adaptation ) मर्टन ने स्पष्ट किया कि नियमहीनता की दशा का सम्बन्ध व्यक्ति द्वारा सांस्कृतिक लक्ष्यों और संस्थागत साधनों के किए जाने वाले नकारात्मक अनुकूलन से है । इसका तात्पर्य है कि सामाजिक संरचना में व्यक्ति जिस ढंग से अथवा जिस रूप में अनुकूलन करता है , उसी के आधार पर नियमहीनता की प्रकृति को समझा जा सकता है । मर्टन ने यह स्वीकार किया कि समाज में सांस्कृतिक लक्ष्यों की स्थापना और संस्थागत साधनों का निर्धारण करने में व्यक्तियों की भूमिका ही महत्त्वपूर्ण होती है , अत : व्यक्तिगत अनुकूलन की सहायता से ही नियमहीनता के प्रारूपो का समझा जा सकता है । अपने इस कथन को स्पष्ट करने के लिए न ने एक व्यवस्थित तालिका प्रस्तुत की जो इस प्रकार है :
अनुकूलन के तरीके ( Types of Adaptation )
- समानुरूपता ( Conformity )
2.नवाचार ( Innovation ) +
3.परम्परावादिता ( Ritualism )
- पलायनवाद ( Retreatism )
5.विद्रोह ( Rcbeltion )
उपयुक्त तालिका में मर्टन ने विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्तियों द्वारा समाज से अनुकूलन करने के विभिन्न तरीकों को स्पष्ट किया है । उनका कथन है कि यह व्यक्तित्व के प्रकार नहीं है बल्कि इनका सम्बन्ध केवल अनुकूलन के विभिन्न प्रकारों से है । इनकी प्रकृति को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :
( 1 ) समानुरूपता ( Conformity ) यह व्यक्तिगत अनुकूलन का वह प्रकार है जिसमें व्यक्ति अपने सांस्कृतिक लक्ष्यों और संस्थागत साधनों के अनुसार ही व्यव हार करता है । उदाहरण के लिए हमारे समाज में धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष विवाह के सांस्कृतिक लक्ष्य हैं । इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए व्यक्ति जब परम्परागत साधनों को ही स्वीकार करता है तब यह कहा जा सकता है कि समाज में समानुरूपता की | दशा विद्यमान है । दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि व्यक्ति द्वारा परम्परागत सांस्कृतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए जव संस्थागत साधनों का ही प्रयोग किया जाता है तब यह अनुकूलन के एक ऐसे स्तर को स्पष्ट करता है जिसमें कोई नियमहीनता नहीं होती ।
( 2 ) नवाचार ( Innovation ) – – – शाब्दिक रूप से नवाचार का अर्थ ‘ नए आचरण ‘ अथवा ‘ व्यवहार के नए तरीके से होता है । मर्टन ने यह स्वीकार किया कि नवाचार एक ऐसी दशा है जो कुछ सीमा तक नियमहीनता की स्थिति को जन्म देती है । इसे स्पष्ट करते हुए मर्टन ने लिखा कि जब किसी समाज में नवाचार की प्रक्रिया उत्पन्न होती है तब व्यक्ति अपने सांस्कृतिक लक्ष्यों को तो स्वीकार करते हैं । लेकिन इन्हें प्राप्त करने के संस्थागत साधनों में उनकी आस्था कम होने लगती है । इस प्रकार नवाचार की दशा सामाजिक संरचना से अनुकूलन करने की एक ऐसी स्थिति को स्पष्ट करती है जिसमें कुछ सीमा तक विचलनकारी व्यवहार उत्पन्न होने लगते हैं । मर्टन ने अमरीका के समाज की आर्थिक संरचना को ध्यान में रखते हुए इस स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया । उन्होंने बतलाया कि अमरीकन समाज में बहुत से चालाक लोग और सफेदपोश अपराधी अपने सांस्कृतिक लक्ष्यों में तो आस्था दिखाते हैं लेकिन उन लक्ष्यों को प्राप्त करने के संस्थागत साधनों को अस्वी कार करके , साधनों का उपयोग व्यक्तिगत इच्छा से करने लगते हैं । अपने समाज में यदि हम विवाह के सांस्कृतिक लक्ष्य को स्वीकार करें लेकिन विवाह करने के संस्था गत तरीकों को अस्वीकार करके अन्तर्जातीय विवाह अथवा प्रेम विवाह आदि करने लगें तो यह भी नवाचार के रूप में व्यक्तिगत अनुकूलन के प्रकार को स्पष्ट करता है । मर्टन का कथन है कि नवाचार की दशा में संस्थागत साधनों की स्वीकृति कम जोर पड़ जाने के कारण यह नियमहीनता की स्थिति को जन्म देता है ।
( 3 ) परम्परावादिता ( Ritualism ) व्यक्तिगत अनुकूलन का यह वह प्रकार है जिसमें व्यक्ति अपने सांस्कृतिक लक्ष्यों को अधिक महत्त्व न देकर केवल परम्परा द्वारा निर्धारित संस्थागत साधनों को ही अधिक महत्त्वपूर्ण मान लेता है । यह सामा जिक सन्तुलन का एक रूढ़िवादी तरीका है । इसे स्पष्ट करते हुए मर्टन ने लिखा कि जब कोई व्यक्ति यह कहता है कि परम्परागत ढंग से खेलना ही खेल का सर्वोत्तम तरीका हैं , तो यह परम्परावादी अनुकलन की दशा को स्पष्ट करता है । इसका तात्पर्य है कि सुरक्षात्मक या परम्परागत ढंग से खेलकर एक खिलाडी विजय के लक्ष्य से हट सकता है लेकिन वह खेल के तरीके को बदलना नहीं चाहता । इस तथ्य को यदि अपने समाज के उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें , तो कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति विवाह के सांस्कृतिक लक्ष्य की अवहेलना करके अपनी पुत्री को अविवाहित रखना पसन्द करे लेकिन किसी दूसरी जाति के पुरुष के साथ उसके विवाह की अनुमति न दे . तद ऐसे अनुकूलन को परम्परावादी अनुकूलन कहा जायेगा । मर्टन का कथन है कि सामान्य रूप से परम्परावादिता को नियमहीनता नहीं कहा जाता क्योंकि इस दशा में भी व्यक्ति लक्ष्य से सम्बन्धित साधनों को स्वीकार अवश्य करता है । इसके बाद भी यह अनुकूलन नियमहीनता को दशा को स्पष्ट करता है क्योंकि इस दशा में व्यक्ति उन्हीं नियमों अथवा साधनों को स्वीकार करता है जो उसकीअपनी भावनाओ और मूल्यों के अनुकल होते हैं । इस प्रकार मर्डन के शब्दों में परम्परावादिता भी सामाजिक नियमहीनता काही एक विशेष प्रकार है । “
( 4 ) पलायनवाद ( Retreatism ) मटन का कथन है कि जिस प्रकार समानुरूपता ( Conformity ) अनुकूलन का सर्वोत्तम रूप है , उसके ठीक विपरीत पलायनवाद अनुकूलन का नकारात्मक रूप है । पलायनवाद एक ऐसी दशा है जिसमें व्यक्ति न तो अपने सांस्कृतिक लक्ष्यों को मान्यता देता है और न ही संस्थागत साधना के द्वारा किसी लक्ष्य को प्राप्त करने में रुचि लेता है । वास्तव में समाज ने पलायन करने वाले व्यक्ति भी कुछ मूल्यों को आधार मानकर व्यवहार करते हैं लेकिन वह मूल्य वे होते हैं जिन्हें समाज की कोई स्वीकृति प्राप्त नहीं होती । मर्टन ने अत्यधिक शराब पीने वाले , नशे को गोलियाँ खाने वाले और मानसिक रूप से विकारयुक्त लोगों का उदाहरण देते हुए यह बतलाया कि ऐसे व्यक्ति सामान्यतः किसी भी सामा जिक प्रतिमान को स्वीकार नहीं करते , अतः इनके व्यवहारों को अप्रतिमानता अथवा नियमहीनता की श्रेणी में रखना उचित है । मटन के अनुसार सभी असफल ( De featist ) , निवृत्तिवादी ( Quietist ) तथा विरक्त लोग ( Resignist ) वे होते हैं जो सांस्कृतिक लक्ष्यों और संस्थागत साधनों की कसौटी को पूरा नहीं करते तथा समाज से उदासीन हो जाते हैं । वर्तमान युग में हिप्पी संस्कृति के लोगों के व्यवहार इसी श्रेणी की नियमहीनता को प्रदर्शित करते हैं ।
( 5 ) विद्रोही ( Rebellion ) – विद्रोह के रूप में अनुकूलन का प्रकार एक ऐसी दशा को स्पष्ट करता है जिसमें नियमहीतना के तत्त्व सबसे अधिक होते हैं । मर्टन का कथन है कि ” जब समाज की संस्थागत प्रणाली को वैधानिक लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधा के रूप में माना जाने लगता है , तब इस दशा में किए जाने वाले अनुकलन को विद्रोह का स्तर कहा जा सकता है । ” 16 इस तरह से अनुकूलन करने वाले व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था में पूर्ण परिवर्तन चाहते हैं । वे न तो अपने पुरातन सांस्कृतिक लक्ष्यों को स्वीकार करते हैं और न ही संस्थागत साधनों में उनकी कोई आस्था होती है । इतना ही नहीं . यह व्यक्ति कुछ नए सांस्कृतिक लक्ष्यों को महत्त्व पूर्ण समझते हुए नए – नए संस्थागत साधनों द्वारा उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगते हैं । मर्टन ने विद्रोही और नात्सीवादी के वीच अन्तर स्पष्ट करते हए बतलाया कि नात्सीवादी ( हिटलर के समर्थक ) असन्तुष्ट अवश्य होते हैं लेकिन वे पुरातन विचारों को ही स्वीकार करते हैं । इसके विपरीत , विद्रोही लोग वे है जो नए मल्यों और नए नियमों को प्रभावपूर्ण बनाकर सम्पूर्ण समाज को बदल देना चाहते हैं । स्पष्ट है कि विद्रोह की दशा में वैयक्तिक व्यवहार सामाजिक प्रतिमानों से बिलकल पृथक हो जाते हैं । यही अप्रतिमानता का निम्नतम् स्तर है । नियमहीनता की उपर्युक्त अवधारणा के द्वारा मर्टन ने यह स्पष्ट किया कि नियमहीनता का तात्पर्य समाज में नियमों के समाप्त हो जाने से नहीं है बल्कि इसका सम्बन्ध सांस्कृतिक लक्ष्यों तथा संस्थागत साधनों से सम्बन्धित सामाजिक प्रतिमानों के प्रभाव में कमी , उनमें होने वाले परिवर्तन अथवा उनकी पूर्ण अस्वीकृति से है । इस प्रकार नियमहीनता के आधार पर ही किसी समाज में विचलित व्यवहारों की प्रकृति को समझा जा सकता है ।