विकाशील देश के सन्दर्भ में जनांकिकी की भूमिका स्पष्ट कीजिए ।
विकासशील देशों को आज ” तीसरी दुनिया ” ( Third world ) के नाम से भी जाना जाता है । वैसे अभी यह विवादास्पद है कि इसमें कौन – कौन से देश सम्मिलित किए जाए । विकसित क्षेत्रों के अन्तर्गत् समस्त यूरोप , रूस , उत्तरी अमरीका , जापान , दक्षिणी अमेरिका , रेम्यरेट , ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड आदि देश सम्मिलित किए गए हैं । तथा कम विकसित देशों में इनको छोड़कर समस्त विश्व आता है । वस्तुतः किसी भी अर्थव्यवस्था में जनसंख्या सम्बन्धी विशेषताओं का अध्ययन दो दृष्टिकोणों से किया जा सकता है- ( i ) परिमाणात्मक तथा ( ii ) गुणात्मक । जनसंख्या के परिणाम पहलू के अन्तर्गत किसी भी देश के आकार व भार , जन्म व मृत्यु दर , आयु , संगठन , कार्यशील जनसंख्या व बेकारी आदि के विषय में अध्ययन किया जाता है । तथा गुणात्मक पहलू के अन्तर्गत , जीवन प्रत्याशा , शिक्षा , स्वास्थ्य व जीवन स्तर आदि के विषय में ज्ञान प्राप्त किया जाता है । विकासशील देशों की जनांकिकीय विशेषताओं का अध्ययन उपर्युक्त दो पहलुओं के अन्तर्गत निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है विकासशील देशों की जनांकिकीय विशेषताएँ
अर्द्ध विकसित देशों की प्रगति के लिये जनांकिकी विषय का आज अत्यधिक महत्व है । इन देशों की सरकारों को विभिन्न प्रगति योजना के निर्माण के पूर्व जनसंख्या सम्बन्धी विभिन्न विशेषताओं को ध्यान में रखना पड़ता है क्योंकि इन विशेषताओं की दृष्टिगत रखे बिना योजनाएँ सफल नहीं हो सकती जनांकिकी में क्योंकि मानवीय व्यवहारों एवं जनसंख्या से सम्बन्धित विषयों एवं समस्याओं का अध्ययन किया जाता है , अतः इस विषय की उपादेयता असंदिग्ध है । जनांकिकी विषय का अर्द्ध – विकसित देशों में क्या महत्व है . इस विषय में प्रो ० बी ० एस ० गांगुली ने कहा है कि , ” कुछ समय से यह महसूस किया जाने लगा है कि जब भी आर्थिक नियमों एवं सिद्धान्तों को विकासशील देशों ( या उन देशों के लिये जो आर्थिक संक्रमणकाल में है ) ये प्रयुक्त किया जाता है , ये नियम वास्तविकता एवं व्यावहारिकता छोड़ देते हैं । फलतः इनकी उपयोगिता कम होने लगती है , क्योंकि संक्रमणशील इन देशों में एक और जनांकिकी दबाव बढ़ता है और दूसरी ओर संस्थागत जड़ताएँ एवं संरचनात्मक परिवर्तन असमान रूप से होते हैं । अतः अर्थशास्त्र को व्यवहारिक रूप प्रदान करने के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि उसमें जनसंख्या सम्बन्धी घटकों को विशेष महत्व दिया जाये । ” प्रो ० अशोक मिश्रा के शब्दों में , ” अर्द्ध विकसित देशों में जनांकिकी
विकासशील देशों की जनांकिकीय विशेषताएँ 169 को महत्वपूर्ण योगदान देना है । यद्यपि इसके अभी सपरिणाम प्राप्त नहीं हुये हैं क्योंकि देश में अभी समकों का अभाव है , आधुनिक तकनीकों का अभाव है तथा सांख्यिकी का पर्याप्त विकास नहीं हो पाया है , किन्तु इसका आशय यह लगाना कि जनांकिकी का महत्व कम हो . गया , हमारी स्वयं की भूल होगी । ” अर्द्ध – विकसित देशों में जनांकिकी के महत्व के सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्य उल्लेखनीय है
उचित नियोजन के लिये आवश्यक ( Essential for appropriate planning ) – जनांकिकी के अध्ययन के आधार पर ही हम उचित नियोजन कर सकते है । जैसे यदि हमें यह मालूम है कि जन्म – दर स्थिर है और मृत्यु दर गिर रही है तो इससे निश्चय ही बच्चों की संख्या में वृद्धि होगी , इस प्रकार हमें बच्चों के विकास हेतु अधिक योजनाये तैयार करनी होगी । जनांकिकी से हमें अशिक्षित बेरोजगार , अपंग आदि व्यक्तियों की संख्या ज्ञात हो जाती है , इससे हम उनके कल्याणार्थ उचित योजनायें तैयार कर सकते है ।
देश के विकास कार्यक्रमों के लिये आवश्यक ( Essential for the development programmes of the country ) – प्रत्येक अर्द्ध- विकसित राष्ट्र अपनी प्रगति हेतु नियोजन के अन्तर्गत आर्थिक विकास कार्यक्रमों को अपनाता है लेकिन इन विकास कार्यक्रमों की सफलता के लिये आवश्यक है कि इनके निर्माण करते समय देश को वर्तमान व भावी जनसंख्या को ध्यान में रखा जाये । विकास कार्यक्रमों की पूर्ण सफलता के लिये जनसंख्या को ध्यान में रखा जाना अत्यन्त आवश्यक है और जनसंख्या से सम्बन्धित घटकों का अध्ययन जनांकिकी शास्त्र के अन्तर्गत ही किया जाता है ।
रोजगार एवं प्रशिक्षण सम्बन्धी व्यवस्था करने में सहायक ( Helpful to provide employment and training facilities ) — जनांकिकी का अध्ययन हमे यह जानने में मदद करता है कि देश में कितने प्रतिशत व्यक्ति बेरोजगार हैं तथा इन बेरोजगार में से कितने लोगों को तकनीकी दृष्टि से कुशल बनाया जा सकता है , कितने लोग मात्र साधारण मजदूरी करने के योग्य है ।
खाद्य सामग्री के उत्पादन का अनुमान लगाने में सहायक ( Helpful in estimating food production – जनांकिकी के अध्ययन के आधार पर ही खाद्य सामग्री की उचित उत्पादन योजना बनाई जा सकती है क्योंकि जनांकिकी के अध्ययन से ही यह ज्ञात हो सकता है कि वर्तमान में जनसंख्या की स्थिति क्या है , भविष्य में जनसंख्या की स्थिति क्या होगी तथा वर्तमान समय में हमारे पास कितनी खाद्य सामग्री है , हमें भविष्य को ध्यान में रखते हुए कितनी खाद्य सामग्री चाहिये , इन सब बातों के आधार पर ही खाद्य सामग्री के उत्पादक का अनुमान लगाया जा सकता है ।
परिवार नियोजन के लिये सहायक ( Helpful for family planning ) – यह सही है कि अर्द्ध – विकसित देश अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं । जनांकिकी की सहायता से हम भावी जनसंख्या वृद्धि की सम्भावना के सम्बन्ध में अनुमान लगा सकते है और उस पर आवश्यक नियन्त्रण के लिये परिवार नियोजन की नीतियों को लागू कर सकते हैं ।
सामाजिक सुरक्षा एवं सामाजिक कल्याण की योजनाओं के निर्धारण में सहायक ( Helpful in formulating the plans of social security and ( social service ) – आज प्रत्येक अर्द्ध विकसित राष्ट्र यह अधिकाधिक प्रयत्न करता है । कि वह अपने नागरिकों के हितार्थ सामाजिक सुरक्षा व सामाजिक कल्याण की योजनायें अधिकाधिक रूप से लागू करे । लेकिन इन सब कार्यों को करने के पूर्व जनांकिकी का अध्ययन आवश्यक है क्योंकि ये सभी सेवायें किसी न किसी रूप में जनसंख्या से सम्बन्धित अवश्य है ।
शिक्षा एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी योजनाओं के निर्माण में सहायक ( Helpful in formulating plans related to education and health ) – योग्य नागरिको के निर्माण की दृष्टि से यह प्रत्येक राष्ट्र का कर्त्तव्य हो जाता है कि वह अपने यहाँ शिक्षा एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाओं का विकास करें ।
परिमाणात्मक विशेषताएँ 1. आयु संरचना एवं जनसंख्या वितरण कार्यशील व्यापक निरक्षरता । ” जनसंख्या गुणात्मक विशेषताएँ
जनसंख्या आकार एवं वृद्धि दर – सन् 1960 से 1975 तक सम्पूर्ण विश्व की जनसंख्या अपनी जनसंख्या की लगभग 3.000 मि ० से बढ़कर 4.000 मि ० हो गयी । विकसित देशों में यह वृद्धि लगभग 175 मि ० ही हुई । इस प्रकार विश्व जनसंख्या के अन्तर्गत अपनी तीव्रतर विकास दर के अनुसार विकासशील देशों का हिस्सा 67.4 प्रतिशत ( 1960 में ) से बढ़कर 71.6 प्रतिशत हो गया । कम विकसित देशों में विकास दर 2.28 से बढ़कर 2.36 हो गई । जहाँ तक कम विकसित क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि दर का प्रश्न है लैटिन अमरीका का नाम सबसे ऊपर है । इनकी निम्नतम दर 1.6 प्रतिशत प्रतिवर्ष पूर्वी एशियाई देशों में पाई जाता है । यहाँ स्पष्ट है कि दोनों ही क्षेत्रों में वृद्धि दर में स्थिरता सी देखी जा रही है । आज पश्चिमी – दक्षिणी एशिया , उत्तरी अफ्रीका , मध्य अमेरिका तथा ट्रॉपिकल दक्षिणी अमेरिका की वर्तमान जनसंख्या वृद्धि दर 2.8 प्रतिशत प्रतिवर्ष से भी अधिक पाई जाती है ।
जनाधिक्य एवं जनसंख्या घनत्व — विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील देशों में जनसंख्या वृद्धि दर अधिक होती है । विश्व की प्राय : दो तिहाई जनसंख्या विकासशील देशों में निवास करती है । जनसंख्या घनत्व और आर्थिक विकास के दृष्टिकोण से विश्व के सभी देशों को निम्न चार भागों में बाँटा जा सकता है
( i ) विकासशील एवं कम घने बसे क्षेत्र ( Developing and thinly populated areas ) — जैसे- ब्राजील , गोल्ड कोस्ट , बर्मा
( ii ) विकासशील एवं सघन क्षेत्र ( Developing and thickly populated areas ) – चीन , भारत , मिस्र तथा जावा
( iii ) विकसित और सघन क्षेत्र ( Developed and thickly populated ) — इसके उदाहरण- जापान , इटली तथा स्विट्जरलैण्ड ।
( iv ) विकसित एवं कम घने बसे क्षेत्र ( Developed and thin populated areas ) — जैसे यू ० एस ० ए ० यू ० एस ० एस ० आर ० तथा कनाडा । जनसंख्या विकास – दर के आधार पर विश्व को पुनः निम्न चार भागों में विभाजित किया जा सकता है
( i ) कम घनत्व और तीव्र जनसंख्या विकास ( Low density and rapid population growth ) – जैसे – मध्य एवं दक्षिण अमेरिका , अफ्रीका का कुछ भाग , दक्षिण – पश्चिम एशिया व पैसिफिक द्वीप समूह ।
( ii ) कम घनत्व और तीत माध्यम जनसंख्या विकास ( Low density and moderate population growth ) – जैसे – उत्तरी अमेरिका , दक्षिणी रूस , आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैण्ड ।
( iii ) अधिक घनत्व और मध्यम जनसंख्या विकास ( High density and moderate population growth ) – जैसे जापान एवं अधिकाश यूरोप
( iv ) अधिक घनत्व और तीव्र जनसंख्या विकास ( FHigh density and rapid population growth ) – जैसे पूर्वी एशिया ( जापान छोड़कर ) , दक्षिणी – पूर्व एशिया , मध्य दक्षिण एशिया तथा कैरीबियन । उपयुक्त विश्लेषण के प्रथम दो वर्गों ( कम घनत्व वाले ) में विश्व की भूमि का 80 % भाग है जबकि विश्व की जनसंख्या 91 % भाग ही इन देशों में निवास करता है । शेष 20 % भूमि पर ( विकासशील देशों में ) विश्व की लगभग 70 % जनसंख्या निवास करती है । जनसंख्या में वृद्धि अधिक घनत्व वाले क्षेत्र की तुलना में कम घनत्व वाले क्षेत्र में अधिक तेजी से हुई है । अफ्रीका एवं लैटिन अमेरिका की जन विकास दर 49 % रही । इससे विकासशील एवं विकसित देशो का अन्तर स्पष्ट होता है ।
( iii ) आयु संरचना एवं जनसंख्या वितरण एवं कार्यशील जनसंख्या आयु संरचना के द्वारा किसी भी देश की जनसंख्या में बच्चों , किशोरों , व्यस्को एवं कार्यशील जनता का अनुपात न्यूनतम होता है । प्रो ० किण्डल वर्ग के शब्दों में 15 से 65 वर्ष की आयु वर्ग की दृष्टि से विकसित देशों में कुल जनसंख्या का 65 प्रतिशत तथा अविकसित देशों में कुल जनसंख्या का 55 प्रतिशत तथा अविकसित देशों में भाग सम्मिलित होता है । ” विकसित एवं विकासशील देशों में पृथक पृथक है । शिशु , किशोरों एवं तरुणों का जनसंख्या में अनुपात किसी भी देश की शक्ति एवं समय की मांग को प्रदर्शित करता है । अविकसित देशों में पूर्व एशिया को छोड़कर इनका अनुपात सम्पूर्ण जनसंख्या में 16 से 18 प्रतिशत है । इससे स्पष्ट है कि बच्चों को देखभाल का भार विकासशील देशो में विकसित देशों की अपेक्षा दुगुना है । विकसित देशों में जनसंख्या की प्रवृत्ति आयु की वृद्धि की ओर है अर्थात् वहाँ व्यस्क और बूढ़ों की संख्या अधिक पाई जाती है , जबकि विकासशील देशों में बच्चों की संख्या अधिक पाई जाती है ।
( iv ) ऊँची प्रजनन दर एवं मृत्यु दर विकासशील देशों में प्रजनन दर तथा मृत्यु दर दोनों ऊंची पाई जाती है । प्रो ० कोल और डूवर के शब्दों में , ” एक ग्रामीण अर्थव्यवस्था मे सामान्यतः विकसित देशों में रहने के कारण जन्म एवं मृत्यु दरें ऊंची रहती है । ” यौन क्रिया मनोरंजन का महत्वपूर्ण साधन , उष्ण जलवायु , गर्म एवं मादक भोज्य पदार्थों के कारण शीघ्र ही मातृत्व सम्भावना अविवेकपूर्ण मातृत्व तथा बच्चों को शक्ति स्रोत की मान्यता समझना आदि । इसी प्रकार इन देशों में ऊँची जन्म दर के कारणों में विवाह दर विवाह की आयु एवं दूसरे आर्थिक एवं सामाजिक तत्वों को सम्बन्धित किया जा सकता है ।
विकासशील देशों की जनांकिकीय विशेषताएँ आर्थिक दृष्टिकोण से पिछड़े हुए देशों में 45-49 आयु की 97 से 99 प्रतिशत महिलाएँ – विवाहित हैं । विकासशील देशों में विवाह आयु भी बहुत कम है । प्रायः इन देशों में 15 से . 19 वर्ष की आयु वाली 82.5 % लड़कियों का विवाह हो जाता है । विकासशील देशों में शीघ्र विवाह का कारण सामाजिक एवं सांस्कृतिक तत्व जैसे परिवार को प्रमुखता देना , संयुक्त परिवार , सीमित शहरीकरण तथा सामाजिक प्रथाएँ आदि है । जहाँ तक मृत्यु दर का प्रश्न है , यह विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील देशों में अधिक ऊंची है । भारत में 25 बर्मा में 27 , पाकिस्तान में 28 , इण्डोनेशिया में 20 और फिलिपाइन्स में 20 थी , लैटिन अमेरिका के देशों में , जैसे – चिली में 10 मैक्सिको में 9 तथा ब्राजील एवं वेनेजुएला में 17 थी । 1970-71 में यह दर आस्ट्रेलिया में 7 , फ्रांस में 10 ग्रेट ब्रिटेन में 9 तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में 7 प्रति हजार थी । पिछले तीन दशकों में विकासशील देशों में प्रजनन दर में कमी नहीं हुई है परन्तु मृत्यु दर में तीव्रता से कमी आई है , क्योंकि विकासशील देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधाओं में विनियोग लगातार बढ़ रहा है । विश्व जनसंख्या की यह दर 1920 से 1950 के मध्य 1.1 % थी जो कि 1950-56 में बढ़कर 1.6 % हो गयी तथा यह अनुमान है कि 2000 में यह दर बढ़कर 2.3 % तक हो जाएगी ।
( v ) जनसंख्या का कृषि पर अधिक दबाव – आँकड़ों से ज्ञात होता है कि विकासशील देशों में जनसंख्या का लगभग 65 से 85 प्रतिशत भाग जीविकोपार्जन हेतु कृषि पर निर्भर रहता है । इसका परिणाम होता है— विकासशील तथा विकसित देशों में कृषि जनसंख्या का प्रतिशत ( 1974 ) 70 % 53 % 1. भारत 3. ब्राजील 5. कोलम्बिया 7. आस्ट्रेलिया 9. अमेरिका 58 % 72 % 16 % 9 % 2 . 4 . 6 . लंका मलाया फ्रांस 8. ब्रिटेन 10. कनाडा 64 % 27 % 4 % 199 % सन् 1950 से 1970 के मध्य विकसित देशों की कृषि जनसंख्या 299 मि ० से कम होकर 206 मि ० तथा विकासशील देशों की कृषि जनसंख्या 1281 मि ० से बढ़कर 1656 मि ० हो गई है । इससे यह परिणाम सामने आया है कि विकसित देशों में कृषि घनत्व 46 से 31 व्यक्ति प्र ० वर्ग कि ० रह गया है , जबकि विकासशील देशों में यह 221 से 226 व्यक्ति प्र ० वर्ग कि ० हो गया है । सेवाओं में प्रो ० साइमन कुजनेट्स ने विभिन्न आर्थिक स्तरों वाले देशों में कृषि उद्योगों तथा जनसंख्या का अनुपात अग्र प्रकार प्रस्तुत किया है
इससे स्पष्ट है कि जहाँ धनवान देशों में कृषि 18.6 प्रतिशत श्रम शक्ति लगी हुई है वस्तुतः किसी भी देश में यह प्रतिशत आर्थिक विकास के साथ कम होता है तथा उद्योग और सेवाओं में यह प्रतिशत बढ़ता जाता है । गुणात्मक विशेषताएँ
व्यापक निरक्षरता- विकासशील देशों में प्रायः व्यापक निरक्षरता पाई जाती है । तकनीकी व प्राविधिक शिक्षा का भी अभाव रहता है । वहाँ विकासशील देशों में 63 % जनसंख्या अशिक्षित होती है । इस प्रकार शिक्षा के अभाव व विकास तथा उत्पादकता में तो कमी आती ही है , लोग परम्परावादी , भाग्यवादी व निराशावादी बन जाते हैं ।
विकासशील देशों में गुणात्मक विशेषताएँ ।
निम्न जीवन स्तर व स्वास्थ्य – प्रायः विकासशील देशों में बेरोजगारी , कम उत्पादकता व ऊँचे मूल्यों के कारण जनता का जीवन स्तर गिरा हुआ होता है । ” भारत में केवल 30 प्रतिशत लोगों को पौष्टिक तथा 41 प्रतिशत को अपौष्टिक भोजन मिल पाता है लेकिन शेष 20 प्रतिशत लोगों का तो भोजन बिल्कुल ही नहीं मिल पाता है । ” इसके साथ ही इन देशों में स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में अनेक महामारियाँ फैलती रहती हैं जिसका लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है ।
निम्न जीवन – प्रत्याशा ( Low Expectancy of Life ) जहाँ विकसित देशों में जनसाधारण का औसत जीवन काल 60 से 70 वर्ष होता है , वहाँ विकासशील देशों में यह 40 से 50 वर्ष होता है । किसी देश की जनसंख्या का प्रमाण ( Quality ) उसकी जीवन – प्रत्याशा या सामान्य जीवनवधि , साक्षरता का स्तर , उत्पादकता का स्तर , भोजन , स्वास्थ्य व चिकित्सा आदि पर निर्भर करता है । विकासशील देशों में निम्न जीवन – प्रत्याशा के जो अनेक कारण हैं , उनमें पौष्टिक भोजन का अभाव , स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव तथा महामारियों का प्रकोप आदि मुख्य हैं । और ये परिणाम कई रूपों में जैसे— श्रमिकों की क्षीणता , आर्थिक क्षय व अर्थ व्यवस्था की अस्थिरता आदि में देखे जा सकते हैं ।
कम श्रम उत्पादकता तथा विनियोग प्रवृत्ति की कमी – विकासशील देशों में श्रम की कम उत्पादकता एक प्रमुख समस्या है । इसके साथ ही कुशलता की कमी , बुरा स्वास्थ्य उत्पादन – साधनों का अभाव तथा मालिकों का व्यवहार इनकी उत्पादकता को और गिराता रहता है ।
| विकासशील देशों की जनांकिकीय विशेषताएँ 175 विकासशील देशों में पूँजी की कमी ( विनियोग की कमी ) आत्मविश्वास के अभाव तथा अन्धविश्वासों के प्रचलन के कारण व्यक्ति कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता है । | रीति – रिवाजों के नवीन ज्ञान का पिपासा के प्रति अविश्वास से ऐसा वातावरण बन जाता है ।
व्यापक निरक्षरता- विकासशील देशों में प्राय : व्यापक निरक्षरता पाई जाती है । तकनीकी व प्राविधिक शिक्षा का भी अभाव रहता है । वहाँ विकासशील देशों में 63 % जनसंख्या अशिक्षित होती है । इस प्रकार शिक्षा के अभाव व विकास तथा उत्पादकता में तो कमी आती ही है , लोग परम्परावादी , भाग्यवादी व निराशावादी बन जाते हैं । -प्राय : विकासशील देशों में बेरोजगारी , कम
निम्न जीवन स्तर व स्वास्थ्य उत्पादकता व ऊँचे मूल्यों के कारण जनता का जीवन स्तर गिरा हुआ होता है । ” भारत में केवल 30 प्रतिशत लोगों को पौष्टिक तथा 41 प्रतिशत को अपौष्टिक भोजन मिल पाता है लेकिन शेष 20 प्रतिशत लोगों का तो भोजन बिल्कुल ही नहीं मिल पाता है । ” इसके साथ ही इन देशों में स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में अनेक महामारियाँ फैलती रहती हैं जिसका लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है ।
निम्न जीवन – प्रत्याशा ( Low Expectancy of Life ) – जहाँ विकसित देशों में जनसाधारण का औसत जीवन काल 60 से 70 वर्ष होता है , वहाँ विकासशील देशों यह 40 से 50 वर्ष होता है । किसी देश की जनसंख्या का प्रमाण ( Quality ) उसकी जीवन – प्रत्याशा या सामान्य जीवनवधि , साक्षरता का स्तर , उत्पादकता का स्तर , भोजन , स्वास्थ्य व चिकित्सा आदि पर निर्भर करता है । विकासशील देशों में निम्न जीवन प्रत्याशा के जो अनेक कारण हैं , उनमें पौष्टिक भोजन का अभाव , स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव तथा महामारियों का प्रकोप आदि मुख्य हैं । और ये परिणाम कई रूपों में जैसे- श्रमिकों की क्षीणता , आर्थिक क्षय व अर्थ – व्यवस्था को अस्थिरता आदि में देखे जा सकते हैं ।
कम श्रम उत्पादकता तथा विनियोग प्रवृत्ति की कमी – विकासशील देशों में श्रम की कम उत्पादकता एक प्रमुख समस्या है । इसके साथ ही कुशलता की कमी , बुरा स्वास्थ्य उत्पादन – साधनों का अभाव तथा मालिकों का व्यवहार इनकी उत्पादकता को और गिराता रहता है । विकासशील देशों में पूँजी की कमी ( विनियोग की कमी ) , आत्मविश्वास के अभाव तथा अन्धविश्वासों के प्रचलन के कारण व्यक्ति कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता है । रीति – रिवाजों के नवीन ज्ञान का पिपासा के प्रति अविश्वास से ऐसा वातावरण बन जाता है कि जो प्रयोग व आविष्कारों के लिए प्रतिकूल रहता है ।
वस्तुतः कोई भी सिद्धान्त पूर्णत : सफल नहीं हो सकता यही बात माल्थस पर भी लागू होती है । इसके बावजूद माल्थस के सिद्धान्त में पर्याप्त सच्चाई है । इसमें सन्देह नहीं कि तत्कालीन विचारधारा में माल्यस ने एक कान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित किया , फिर भी इतनी कटु आलोचना के भागी नहीं थे । जिस व्यक्ति ने जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याओं के प्रति इतना संवेदनशील होकर विश्व को सजग किया उसकी आलोचना करना कष्टप्रद है । माल्थस का जनसंख्या नियन्त्रण के बारे में विचार जनसंख्या समस्या के प्रति माल्थस का दृष्टिकोण अनुभववादी था क्योंकि उनके अपने जनसंख्या सिद्धान्त का प्रतिपादन यूरोप के अनुभव पर आधारित था । अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में दो मान्यताएं रखी प्रथम मानव जीवन के लिए खाद्य पदार्थ आवश्यक है । द्वितीय , दो विभिन्न लिंगों में कामभाव स्वाभाविक है जो हमेशा इसी तरह बना रहेगा । इन दो मान्यताओं के आधार पर उन्होंने कहा कि जनसंख्या वृद्धि की क्षमता भूमि के जीवन निर्वाह प्रदान करने की क्षमता से अधिक होती है । अतः इस असन्तुलन को दूर करने के दो बताए है उपाय बताए
नैसर्गिक या प्राकृतिक अवरोध इसके अन्तर्गत माल्थस ने भुखमरी , अकाल , युद्ध , बीमारी , बाढ़ , भूकम्प तथा अन्य घोर संकटों का उल्लेख किया है । उनके अनुसार ये प्रतिबन्ध अत्यन्त भयानक एवं कष्टकारी होते है । अत : इससे बचने के लिए माल्थस ने सुझाव दिया कि मनुष्यों को विवेक से कार्य करना चाहिए । अतः मनुष्य को कृत्रिम अवरोध या प्रतिबन्धात्मक नियन्त्रण को अपनाना चाहिए ।
प्रतिबन्धात्मक यन्त्रण को अपनाना से . होते मनुष्य कृत हात विवक कृत्रिम या प्रतिबन्धक नियन्त्रण कृत्रिम या प्रतिबन्धात्मक नियन्त्रण जिसका प्रयोग जन्मदर घटाने के लिए वह अपने से करता है । इसके अन्तर इसके अन्तर्गत नैतिक , संयम , ब्रह्मचर्य , विलम्बित विवाह को सम्मिलित किया है । माल्थस की दृष्टि में मानव के जनसंख्या निरोधक कृत्रिम नियन्त्रणों की अपेक्षा प्राकृतिक नियन्त्रणों की प्रमुखता अधिक है । उन्होंने नैतिक नियन्त्रण तथा विवाहोपरान्त काम वासना के नियन्त्रण पर बल दिया । लेकिन माल्थस ने परिवार नियोजन के कृत्रिम संसाधनों पर विचार नहीं किया जबकि फ्रांस में उनका भारी प्रचलन था । कृत्रिम साधनों के प्रयोग पर माल्थस के अनुयायियों जो नव माल्यसवादी कहलाते है ने ही अधिक जोर दिया था । जनांकिकीय संक्रमण या परिवर्तन के सिद्धान्त किसी भी देश में जनसंख्या के प्रति मानव की जिज्ञासा पूर्व तथा वर्तमान दोनों कालों में रही है । जनसंख्या का विकास विभिन्न अवस्थाओं में होता है । इन अवस्थाओं की अपनी – अपनी विशेषताएँ होती है ।
जनांकिकी संक्रमण संसार के उन्नत देशों की वास्तविक जनसंख्या प्रवृत्तियों पर आधारित है । प्रत्येक राष्ट्र जनसंख्या सम्बन्धी आँकड़े किसी न किसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु एकत्र करता है । परन्तु आधुनिक समय में जनसंख्या सम्बन्धी सिद्धान्तों में वृद्धि आई और उसी में से एक जनांकिकीय संक्रमण का सिद्धान्त भी है ।
इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक देश में जनसंख्या वृद्धि तीन विभिन्न अवस्थाओं से गुजरती है । पहली अवस्था में जन्मदर तथा मृत्युदर दोनो ही ऊँची होती हैं परिणामस्वरूप जनसंख्या की दर नीची रहती है । दूसरी अवस्था में जन्मदर स्थिर रहती है । परन्तु मृत्युदर तेजी से गिर जाती है जिसके फलस्वरूप जनसंख्या तेजी से गिर जाती है तथा तीसरी अवस्था में जन्मदर गिरकर मृत्युदर के बराबर होने लगती है परिणामस्वरूप जनसंख्या वृद्धि दर बहुत धीमी हो जाती है । जनांकिको संक्रमण सिद्धान्त के सम्बन्ध में विद्वानों द्वारा अपने – अपने मत व्यक्त किए गए हैं । उनमें प्रो . सी पी ब्लेकर ने जनसंख्या परिवर्तन की इन अवस्थाओं को मुख्यतः पाँच भागों में विभाजित किया है जो निम्न है 1. उच्च स्थिर अवस्था जिसमें जन्म – मृत्यु दोनों ही दरें ऊँची रहती हैं ।
प्रारम्भिक विस्तारशील अवस्था जिसमें ऊंची जन्मदर बनी रहती है । परन्तु मृत्युदर घटने लगती है परिणामस्वरुप जनसंख्या विस्फोट की स्थिति बन जाती है ।
पहले से कम मृत्युदर और घट जाती । जन्मदर में भी गिरावट आती है । इससे जन्मदर एवं मृत्युदर के बीच अन्तर कम हो जाता है ।
चतुर्थ अवस्था में जन्मदर एवं मृत्युदर दोनों ही नियन्त्रित अवस्था में रहती हैं परिणामतः जनसंख्या स्थिर होती है और भविष्य में जनसंख्या घटने का डर रहता है । यूरोप में वर्तमान में यही स्थिति है ।
पाँचवी अवस्था में जन्मदर की अपेक्षा मृत्युदर अधिक हो जाती है अतः कार्यशील जनसंख्या घटने लगती है । इसी प्रकार जनांकिकी संक्रमण के विकास क्रम में अनेक विद्वानों ने अपने विचार दिए इसमें वर्ष 1909 में लेण्डर , वर्ष 1939 में बारेन थॉमस और वर्ष 1947 के ब्लेकर ने अपने मत व्यक्त किए । इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में अपना मत देते हुए नोटेस्टिन ने तीन स्थितियों को बताया है और कहा ब्लेकर द्वारा दिए गए पाँच अवस्थाओं में से प्रथम एवं अन्तिम अवस्था असाधारण है । इन्होंने जनसंख्या संक्रमण के सिद्धान्त को व्यापक तौर पर रखा और उर्वरता सम्बन्धी सिद्धान्त को समझाया है । इसलिए इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करने का श्रेय नोटेस्टिन को जाता है । इनके द्वारा बताई गई अवस्थाएँ निम्न हैं
विकासशील देशों में पूँजी की कमी ( विनियोग की कमी ) आत्मविश्वास के अभाव तथा अन्धविश्वासों के प्रचलन के कारण व्यक्ति कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता है । | रीति – रिवाजों के नवीन ज्ञान का पिपासा के प्रति अविश्वास से ऐसा वातावरण बन जाता है । जो प्रयोग व आविष्कारों के लिए प्रतिकूल रहता है ।