लघु एवं वहत् परम्पराएँ
( Little and Great Traditions )
भारतीय समाज को विधिवत् दृष्टिकोण से समझने के लिए यह अत्यावश्यक है कि हम उन सभी ‘ परम्परामों ‘ ( Traditions ) का अध्ययन करें जिनसे भारतीय समाज व्यवस्था अपनी विशिष्टता रखती है । ग्रामीण समाज व्यवस्था परम्पराओं केष्टिकोण से और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है । भारतीय समाज अत्यन्त विभिन्नतामों से युक्त होने के कारण अनेक प्रकार की परम्पराओं , कर्मकाण्डों , प्रथानों एवं धार्मिक विश्वासों से मिलकर बना है । भारतीय समाज का अध्ययन करने के लिए कुछ विद्वानों ने इसे अनेक परम्परागत प्राधारों जैसे वर्ण , धर्म , कर्म , पुरुषार्थ , प्राश्रम प्रादि परम्परागत प्राधारों पर स्पष्ट किया है जबकि कुछ अन्य विद्वानों ने ग्रामीण प्राथिक एवं सामाजिक व्यवस्था को ही भारतीय समाज की विवेचना का आधार मान लिया है । इस प्रकार के दृष्टिकोण सही नहीं है । वस्तुतः भारतीय ग्रामीण व्यवस्था अपनी कुछ विशिष्ट स्थानीय परम्पराओं एवं विशेषताओं के कारण अपनी पृथक् पहचान बनाये रख पाने में समर्थ हुई है । इससे पूर्व कि हम लधु ( Little ) एवं वृहत् ( Great ) परम्परामों का विस्तार से अध्ययन करें , यह समझ लें कि परम्परा क्या है ?
परम्परा क्या है ?
( What is Tradition ? )
– अत्यन्त सामान्य शब्दों में परम्परा हमारे व्यवहार के तरीकों ( Ways of Behaviour ) को कहा जाता है । समाज में प्रचलित विचार , रूढ़ियाँ , मूल्य , विश्वास , धर्म , रीति – रिवाज , पादतों आदि के संयुक्त रूप को ही मोटे तौर पर परम्परा कहा जा सकता है । जेम्स ड्रीवर ने परम्परा की परिभाषा करते हुए लिखा है कि ” परम्परा कानून , प्रथा , कहानी तथा किंवदन्ती का वह संग्रह है , जो मौलिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित किया जाता है । ” मोरिस जिन्सबर्ग ने लिखा है कि ” परम्परा का अर्थ उन सभी विचारों , पादतों और प्रथानों . का योग है , जो व्यक्तियों के एक समुदाय से सम्बन्धित होता है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता रहता है । ” प्रो . योगेन्द्र सिंह ने ‘ ट्रेडिशन एण्ड मोडरनिटी इन इण्डिया ‘ में परम्परा की व्याख्या करते हए लिखा है कि ” परम्परा किसी समाज की संचित विरासत है , जो सामाजिक संगठन के समस्त स्तरों पर छाई रहती है , जैसे मूल्य – व्यवस्था , सामाजिक संरचना तथा वैयक्तिक संरचना । ” 3 | इस प्रकार हम देखते हैं कि परम्परा सामाजिक विरासत ( Social Heritage ) का वह अभौतिक पक्ष ( प्रथाएँ , रूढ़ियाँ , प्रादतें , विचार , विश्वास , रीति – रिवाज , धर्म , कानून आदि ) है , जो हमारे व्यवहार के स्वीकृत तरीकों ( Accepted Ways of Behaviour ) का द्योतक है और जिसकी निरन्तरता पीढ़ी – दर – पीढ़ी हस्तान्तरण की प्रक्रिया द्वारा बनी रहती है । भारतीय समाज में सांस्कृतिक परम्परायों की तीन प्रमुख धाराएँ दिखाई देती हैं जिन्हें सांस्कृतिक उप – संरचनाओं के नाम से पुकारा गया है । डॉ . उन्नीथान , इन्द्रदेव एव योगेन्द्र सिंह ने इन्हें तीन भागों में रखा है
1 . अभिजात – उप – संरचना ( Elite – Sub – Structure )
. 2 . लोक – उप – संरचना ( Folk – Sub – Structure ) , एवं
3 . जनजातीय – उप – संरचना ( Tribal – Sub – Structure ) । यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि लोक – उप – संरचना का प्रमख क्षेत्र ‘ ग्रामीण भारत ‘ एव अभिजात परम्पराओं का ‘ नगरीय भारत ‘ रहा है । इसका यह आशय नहीं लगाया जाना चाहिए ।
ग्रामीण भारत में अभिजात परम्परा के एवं नगरीय भारत में लोक – परम्परा के तत्त्व नहीं पाए जाते ? बस्ततः ये दोनों ही परम्पराएं एवं इनके तत्व एक – दूसरे से इतने निकट हैं कि इन्हें पृथक करके नहीं समझा जा सकता ?
रॉबर्ट रेडफील्ड ( Robert Redfield ) ने पहली बार अपने अध्ययन के आधार पर यह प्रमारिणत किया कि प्रत्येक सभ्यता परम्परामों से निर्मित होती है । ग्रापके अनुसार एक अोर अभिजात लोगों की या थोडे से चिन्तनशील लोगों की परम्पराएँ आती हैं तो दूसरी और लोक या निरक्षर कृषकों की परम्पराएँ । पहले वाली को वृहत परम्परा ( Great Tradition ) एवं बाद वाली को लघु परम्परा ( Little Tradition ) कहा जाता है । मापके अनुसार प्रत्येक परम्परा का एक स्वयं का सामाजिक | संगठन होता है अर्थात् संस्थागत भूमिकाएँ , प्रस्थितियाँ तथा कार्यकर्ता होते हैं । दोनों परम्पराएं एक ऐसी विश्व – दृष्टि के प्रतीक के रूप में समझी जाती हैं , जो सभ्यता की एकता का प्रतिनिधित्व करती हैं । रॉबर्ट रेडफील्ड के उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि लघ परम्परात्रों का प्रतिनिधित्व जन – साधारण या निरक्षर कृषक और वहत परम्परामों का प्रतिनिधित्व अभिजात या चिन्तनशील लोग करते हैं । । अतः यह प्रावश्यक है कि हम लघु एवं वृहत् परम्परा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए भारत के मामीण समाज में इन दोनों परम्परानों के पारस्परिक आदान – प्रदान अथवा अन्तःक्रिया को स्पष्ट करें
लघु एवं वृहत् परम्परा का अर्थ
( Meaning of Little and Great Tradition )
रॉबर्ट रेडफील्ड ने मैक्सिको की माया संस्कृति के मन्दिरों एवं प्रासादों के विशाल प्रस्तर निर्मित वास्तुशिल्प , परिष्कृत केला , खगोल विज्ञान , पंचांग , चित्रलिपि में लिखित साहित्य देवताओं यवं प्रकृति शक्तियों तथा धर्म पर आधारित राज्य व्यवस्था को वहत परम्परा एवं इसके इसके विपरीत छोटे गाँवों एवं मठों के नगरों में पाई जाने वाली जीवन उपार्जन की क्रियाओं , शिल्प , गांव और उससे सम्बन्धित संगठन और प्रकृति पर आधारित धर्म को लघु परम्परा के नाम से पुकारा ।
रॉबर्ट रेडफील्ड के अनुसार वहृत परम्परा स्कूलों एवं मन्दिरों में पोषित होती है । लघु परम्परा ग्रामीण समुदायों के अशिक्षितों के जीवन में विकास करती है और अपने आपको बनाये रखती है । दार्शनिक , ब्रह्मविज्ञानी तथा साहित्यिक मनुष्य की परम्परा एक ऐसी परम्परा है जो विचारपूर्वक घोषित एवं हस्तान्तरित की जाती है । छोटे लोगों की परम्परा अधिकांशत : सहज सिद्ध मानी जाती है और उसका विशेष परिमार्जन और सुधार नहीं किया जाता । वृहत् एवं लघु परम्पराएँ प्रथमतः अपनी स्वयं की सृजनात्मक शक्ति के कारण विकसित होती हैं और फिर इन पर बाह्य सभ्यताओं की परम्पराओं का प्रभाव पड़ता है । ऐसा ऐतिहासिक सम्पर्क , युद्ध , राजनीतिक प्रमत्व या संचार के माध्यम से होता है । रेडफील्ड की मान्यता है कि सभ्यताएँ और उनकी सामाजिक संरचनाएँ भी इन बाह्य सम्पकों के माध्यम से परिवर्तित होती हैं । आपका मानना है कि सभी संरचनाएं अपनी स्वयं की रचनात्मक शक्ति के आधार पर उत्पन्न होती हैं और बाह्य सम्पर्क से इन में परिवर्तन होता रहता है ।
सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है कि सस्कितिक अथवा धार्मिक जीवन से सम्बन्धित यदि किसी परम्परा का मूल धर्म – ग्रन्थों से कोई सम्बन्ध न हो , वह परम्परा एक छोटे से क्षेत्र में प्रचलित हो तथा अधिकाँश व्यक्ति उसके वास्तविक अर्थ को न समझते हों , तब ऐसी परम्परा को हम लघु परम्परा कहते हैं । इसका प्राशय यह है कि लघ परम्परा का एक स्थानीय क्षेत्र होता है । एक छोटे से क्षेत्र के अन्दर ही जो विश्वास धीरे – धीरे विकसित होते हैं , उन्हें कुछ समय बाद एक धामिक कृत्य का रूप प्राप्त हो जाता है । इसके परिणामस्वरूप ऐसे विश्वास और धार्मिक कत्य ही लघु परम्परा का रूप धारण कर लेते हैं ।
राबर्ट रेडफील्ड कहते हैं कि साधारणतया निरक्षर कषकों की परम्परा को ही लघु परम्परा मान लिया जाता है । अह अशिक्षित कषकों के समुदाय में विकसित होती है और यहीं उसे स्थायित्व प्राप्त होता है । भारत में यदि हम इन्हें देखने का प्रयास करें तो हम देखते हैं कि वे देवी – देवता , धार्मिक अनुष्ठान , रीति – रिवाज , मेले , त्यौहार , साहित्य , संगीत तथा विभिन्न सांस्कृतिक तत्त्व जिनका अखिल भारतीय धर्म – ग्रन्थों जैसे – वेद , पुराण , महाभारत , रामायण , उपनिषद् , गीता और इसी प्रकार के अन्य ग्रन्थों में लिखित प्रालेख प्राप्त होता है , वहत परम्परा ( Great Tradition ) के अन्तर्गत रखें । जाते हैं । दूसरी ओर वे देवी – देवता , त्यौहार , धार्मिक अनुष्ठान , रीति – रिवाज , मेले , लोक कथाएँ , लोक – गीत , लोक – नत्य , जादई क्रियाएँ तथा अन्य सांस्कतिक क्रियाएँ जिनका वर्णन अखिल भारतीय धर्म – ग्रन्थों एव अन्य पुस्तकों में लिखित रूप में नहीं मिलता और जो प्रमुखतः मौखिक रूप में पीढ़ी – दर पीढ़ी हस्तान्तरित होते रहते हैं , ‘ लघु परम्परा ‘ ( Little Tradition ) के अन्तर्गत पाते हैं । का भारत में इन दोनों परम्पराओं को अत्यन्त प्राचीन समय से ही देखा जाता रहा है और इन परम्परागों की अपनी कुछ विशिष्टतायें भी हैं ।
ये दोनों ही परम्परायें एक – दूसरे से काफी निकट भी रही हैं , इनसे सम्बन्धित लोग भी एक – दूसरे के निकट सम्पर्क में रहे हैं । फलस्वरूप इन परम्पराओं में निरन्तर अन्तःक्रिया भी होती रहती है । – डॉ . बी . पार . चौहान ने राजस्थान के गाँव ‘ राणावतों की सादड़ी ‘ में किए गए अध्ययन के आधार पर वृहत् परम्पराओं एवं लघु परम्पराओं के अन्तर को निम्न प्रकार से सारणीबद्ध कर समझाया है राष्ट्रीय बृहत परम्पराएँ – –
लघु परम्पराएँ स्थानीय लिखित अलिखित विषय – वस्तु में शास्त्रीय एवं सांस्कृतिक अशास्त्रीय अधिक व्यवस्थित कम व्यवस्थित अधिक चिन्तनशील कम चिन्तनशील राबर्ट रेडफील्ड के द्वारा प्रस्तावित विश्लेषण के ढांचे का प्रयोग मैकिम मेरियट ( Mackim Marriot ) , मिल्टन सिंगर ( Milton Singer ) तथा इनके सहयोगियों ने भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को समझने हेतु किया है । मैकिम मेरियट ने उत्तर प्रदेश के एक ग्राम किशनगढ़ी के अपने अध्ययन के आधार पर वहत एवं लघु परम्पराओं के मध्य होने वाली अन्तःक्रिया को ‘ स्थानीयकरण ‘ ( Parochialization ) एवं ‘ सार्वभौमिकता ‘ ( Universalization ) के माध्यम से से समझाने का प्रयास किया है । व डॉ . योगेन्द्रसिंह ने बताया है कि इस उपागम ( Approach ) में मूल विचार , सभ्यता एवं परम्परा का सामाजिक संगठन है । यह उपागम इस उद्विकासीय दृष्टिकोण पर आधारित है कि सभ्यता या परम्परा का ढांचा ( जो सांस्कृतिक एवं सामाजिक दोनों ही संरचनाओं से बनता है ) दो चरणों में विकसित होता है
1 . स्वयं के अन्दर या देशज उद्विकास ( Orthogenetic or Idigenous Evolution )
2 . संस्कतियों या सभ्यताओं के साथ बाह्य सम्पक ( Hetrogenetic Contacts . with other Caltures or Civilizations )
इन सभ्यताओं की सामाजिक संरचना दो स्तरों पर क्रियाशील होती है – प्रथम , जनसाधारण , निरक्षर कषकों के स्तर पर एवं दूसरा , अभिजात या कुछ चिन्तनशील व्यक्तियों के स्तर पर । प्रथम के अन्तर्गत पाने वाली सांस्कृतिक प्रक्रियायें लघु परम्परा को निमित करती हैं , एवं द्वितीय के अन्तर्गत आने वाली सांस्कृतिक प्रक्रियायें वृहत् परम्परा को बनाती हैं । परम्पराओं के इन दोनों ही स्तरों पर निरन्तर अन्तःक्रिया होती रहती है ।
( प्रो . योगेन्द्र सिंह ने अपनी इसी कृति में लिखा है कि इस उद्विकासीय उपागम में यह मान्यता पाई जाती है कि समस्त संस्थाएं अपने स्वयं के स्थानीय सांस्कृतिक संगठन के स्तर से प्रारम्भ होती हैं , और समय के अनुसार शनैः – शनैः विकास की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप विकसित होती हैं । अन्य सम्यतामों व संस्कतियों से सम्पर्क के कारण इसमें विभिन्नतायें या भेद उत्पन्न हो जाते हैं । परिवर्तन की यह दिशा ग्रामीण या कृषक से नगण्य सांस्कतिक संरचना और सामाजिक संगठन की ओर होती है । अन्तिम चरणों में यह संस्कृति के एक सार्वभौमिक , प्रतिमान के रूप में विकसित हो जाती है , विशेषतः सम्यतामों के बढ़ते हुए अन्तर सम्पकों के द्वारा । । _ _ _ मैकिम मेरियट ने भी परम्परामों के इन दोनों प्रकारों को स्वीकार किया है । प्रापने बताया है कि प्रथम कृषक समाज के स्तर पर पाई जाने वाली लघु परम्परायें एवं द्वितीय नगण्य समाज के स्तर पर पाई जाने वाली वृहत् परम्परायें पाई जाती हैं । स्वयं मेरियट लिखते हैं कि “ यदि कोई परम्परा प्राचीन धर्म – ग्रन्थों में बताए गए व्यवहारों के अनुरूप होती है , तथा उसका प्रसार सम्पूर्ण समाज में होता है , तो उसे हम वहत परम्परा कहते हैं । “
लघु एवं वृहत् परम्परा – अन्तर्सम्बन्ध एवं अन्तर
( Little and Great Tradition – Interrelation and Difference )
लघु एवं वृहत् परम्परा के अर्थ को समझने से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि इन दोनों परम्परागों में जहाँ एक अोर अन्तनिर्भरता पाई जाती है वहीं इनमें एक – दूसरे के मध्य भिन्नता भी दिखाई देती है । जहाँ तक अन्तनिर्भरता का प्रश्न है , यह देखा गया है कि ये दोनों ही परम्पराएं एक – दूसरे को काफी लम्बे समय से प्रभावित करती रही हैं , और प्राज भी कर रही हैं ।
रॉबर्ट रेडफील्ड ने लिखा है कि ” वृहत् एवं लघु परंम्पराएं विचार तथा कर्म की दो धारामों के रूप में देखी जा सकती हैं , जो कि एक – दूसरे से पृथक् हैं किन्तु तब भी एक – दूसरे से मिलती हुई तथा एक – दूसरे में से बहती हुई निकलती हैं । इनके सम्बन्धों का चित्र लगभग उन तन्तु मानचित्रों ( Histomps ) जैसा होगा , जो कि हम कभी – कभी देखते हैं , अर्थात् वे रेखाचित्र ( Diagraphs ) जो धर्मों तथा सभ्यताओं का काल – क्रम में उत्थान और परिवर्तन व्यक्त करते हैं । “
वृहत परम्परा सामान्य लोगों तक कैसे पहुंचती थी इस सम्बन्ध में वी . राघवन ( V . Raghavan ) ने लिखा है कि ” हिन्दू राजा – महाराजा अपने द्वारा बनवाए गए मन्दिरों में हिन्द महाकाव्यों को गाने के लिए बड़ी – बड़ी निधियाँ स्थापित करते थे । ” दक्षिणी भारत के बारे में प्रापने लिखा है कि ” वहाँ हिन्दू राजा मन्दिरों में प्राचीन महाकाव्यों विशेषकर रामायण के पाठ के लिए दान देते थे । इन कथाओं का केवल पाठ ही नहीं होता था , बल्कि चलते – फिरते गायक साध लोग भक्ति गीतों द्वारा इनका प्रसार करते थे । इस प्रकार दार्शनिकों , धार्मिक विचारकों , साधु – सन्तों एवं कथावाचकों के द्वारा बहत परम्परा को गांवों के सामान्य जनों या लघु परम्परा से सम्बन्धित लोगों तक पहुंचाया जाता था । “
प्रो . जी . वोन यूनबाम ने बताया है कि किस प्रकार इस्लामी बृहत् संस्कृति एवं स्थानीय संस्कृतियों के मध्य संघर्ष , सहचार एवं पादान – प्रदान हुए । ” वे लिखते हैं कि ” कहने का प्राशय यह है कि इनमें से एक जीवन विधि को दूसरे से अधिक उन्नत माना गया है , वही अधिकार सत्ता का प्राधार है , यह अभिजात लोगों की रचनापों एवं साथ ही उनके सार्वजनिक क्रिया – कलापों में व्यक्त होती है सामाजिक सम्मान इनको अपनाने पर निर्भर करता है । दारेस्लाम ( Dara – Islam ) में इस्लामी जीवन – पद्धति सामान्य रूप से वहत परम्परा की स्थिति में है । इसके विपरीत लघ परम्परा लोकप्रिय अन्तर्धारा के प्राकार के समान है , इसकी प्रभावशीलता अब भी बद्धिजीवियों के द्वारा अनुभव की जाती है , लेकिन प्रौपचारिकत : इसे मन्जूर नहीं किया जाता । ” जहाँ बहत परम्पराओं की उप – कल्पनाओं को विश्वास माना जाता है , वहाँ लघ परम्पराओं । की उप – कल्पना को अन्धविश्वास ( Superstitions ) माना जाता है । यथार्थ में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि वह इन दो परम्पराओं में से किसे अपने जीवन में स्वीकारने का निश्चय करता है । इस प्रकार आपके अनुसार वृहत् एवं लघु परम्पराएँ एक – दूसरे की पूरक हैं , तथा इनमें अन्तःक्रिया होती रहती है ।
एक – दूसरे प्राधार से यदि हम लघु एवं वृहत् परम्पराओं के मौलिक मूल्यों एवं विश्व – दृष्टि के रूप में विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि ये परम्पराएँ समान ही हैं परन्तु फिर भी इनमें भिन्नता अवश्य पाई जाती है । रॉबर्ट रेडफील्ड ने लिखा है कि यह कहा जा सकता है कि भारत की लघु परम्परामों की विश्व – दृष्टि बहुदेववादी , जादूवादी तथा प्रदार्शनिक है जबकि वृहत् वैदिक परम्परा की विभिन्न धाराओं का बौद्धिक तथा नैतिक दृष्टिकोण इनसे अलग प्रकार का है । वेद बहुदेववादी तथा काव्यात्मक हैं , उपनिषदों का चिन्तन अमूर्त अद्वैतवादी और असम्पूर्ण रूप से ईश्वरवादी है , जबकि महत्त्वपूर्ण वैष्णव और शैव सम्प्रदाय ईश्वरवादी तथा नैतिकतावादी हैं । ऐसी ही विषमताएँ हम अन्यत्र भी देख सकते हैं ।
रेडफील्ड ने भारत से एक उदाहरण देकर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि किस प्रकार दृहत परम्परा का विकास होता है एवं फिर किस प्रकार उस परम्परा के सांस्कृतिक तत्त्व लघु परम्परा के रूप में गांवों तक में पाए जाते हैं । रेडफील्ड इसके लिए भारत के एक प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ ‘ रामायण ‘ को लेते हैं । आपके अनुसार वाल्मीकि नामक एक कवि ने भौतिक कहानियों या दन्तकथाओं के आधार पर इस महाकाव्य की रचना की थी और उससे यह कथा भारत की उच्च परम्परा का अंग बन गई । नवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक इसका अनुवाद भारत की अनेक जन – भाषाओं में हा और इन अनुदित रूपों में इसका साँस्कृतिक संरचना के व्यावसायिक गायकों ने गायन और प्रचार किया ।
सोलहवीं शताब्दी में तुलसीदास नामक सन्त ने इसको हिन्दी भाषा में लिखा , जो कि अनेक ग्राम – पों एवं त्यौहारों के अवसर पर पढ़ी जाने लगी । उच्च साँस्कृतिक परम्परा के इस व्याख्याकार ने एक प्रकार के मूल – स्रोत ग्रन्थ की रचना की । ऐसा कहा जाता है कि भारतीय ग्रामों में यह ग्रन्थ उससे भी अधिक प्रचलित है , जितनी कि इंग्लैण्ड के गाँवों में बाईबिल । किन्तु समय बीतने के साथ ग्रामवासियों के लिए तुलसीदास की हिन्दी कठिन हो गई । उन्होंने अपने स्थानीय प्रचलित शब्द इसमें मिला दिए । अब भारतीय ग्राम के इस मूल ग्रन्थ को समझने के लिए व्याख्याकार की आवश्यकता होती है । यह व्याख्या ‘ रामलीला ‘ के त्यौहार के अवसर पर की जाती है । राम और सीता की तथा रावण के साथ युद्ध की कहानियों के अभिनयों में दो प्रकार के लोग भाग लेने वाले होते हैं । उच्च या वृहत् परम्परा की ओर से एक पण्डित मंच पर पाता है और सोलहवीं शताब्दी के इस हिन्दी ग्रन्थ से पढ़ता है , और इसकी व्याख्या करता जाता है । इस ग्रन्थ का पढ़ना अावश्यक है , क्योंकि यही पवित्र ग्रन्थ है । किन्तु इसे समझना कठिन होता है । इसीलिए जब पण्डित पढ़ रहा होता है , एक नट ( सामान्यतः अनपढ़ ग्रामीण व्यक्ति ) उस कृत्य काअभिमय प्रारम्भ कर देता है जिसका पाठ में वर्णन होता है , तब पण्डित रुक जाता है और अभिनेता तेज मावाज में माधुनिक भाषा में उसे दोहराता है , जिसे पहले मूल भाषा में पण्डित द्वारा पढ़ा गया था ।
इसी प्रकार हम देखते हैं कि भारत में लघु एवं वहत परम्पराणों के मध्य निरन्तर और बहुमुखी भन्स : क्रिया होती रहती है । यही वृहत् परम्परा से सम्बन्धित चिन्तनशील और सभ्य मस्तिष्कों के विचार और उपदेश लघु परम्परा से सम्बन्धित कृषक – समाजों के त्यौहारों , अनुष्ठानों एवं प्रादर्शों में स्पष्टतः दिखाई पड़ते हैं । इसका यह प्राशय नहीं है कि लघु परम्परा ही वृहत् परम्परा से ग्रहण करती है । वास्तव में बहत् परम्परा भी लघु परम्परा से अनेक तत्त्व ग्रहण करती है और उन्हें अपने में एकीकृत कर लेती है । लघु एवं वृहत् परम्परा में भादान – प्रदान की इस प्रवृत्ति को जानने के लिए हमें संस्कृति के प्रवाह की दिशा को जानना होगा । यह दिशा वृहत् परम्परा से लघु परम्परा की पोर एवं लघु से वृहत् परम्परा की पोर है । इतना अवश्य है कि वर्तमान समय में लघु परम्परा तुलनात्मक दृष्टि से वृहत् परस्परा से अधिक ग्रहण कर रही है । सघु परम्परा से सम्बन्धित ग्रामवासियों ने बृहत् परम्परा से सम्बन्धित अभिजात लोगों से अनेक मौतिक सुख – सुविधाओं की वस्तुओं को ग्रहण किया है , उन पर अभिजात संस्कृति का प्रभाव सावतः दिखाई पड़ता है । धार्मिक क्षेत्र में भी जन – साधारण लोगों में प्रचलित कुछ अवधारणाएं जैसे पाप – पुण्य , स्वर्ग – नरक , आत्मा तथा ब्रह्म , पुनर्जन्म आदि वहत् परम्परा के ही तत्व हैं , जिन्हें लघु , परम्परा ने अपने में आत्मसात् कर लिया है ।
रामायण और महाभारत से सम्बन्धित अनेक कथानकों को लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में प्रदर्शित किए जाने वाले नाटक वहत् परम्परा की और सांस्कृतिक प्रवाहे को ही व्यक्त करते हैं । रासलीला , रामलीला तथा अनेक अन्य धार्मिक नाटक ग्रामीण क्षेत्रों में जन – साधारण में काफी लोकप्रिय हैं । भारत में कृषक समाजों में पाए जाने वाले परम्परागत राजनीतिक संगठनों पर भी बहत परम्परा का प्रभाव स्पष्टतः देखा जा सकता है । ग्रामीण लोगों में लोकप्रिय अनेक कहानियों और गीतों का स्रोत वहत परम्परा से सम्बन्धित ग्रन्थ जैसे रामायण , महाभारत , भगवद् – गीता ग्रादि हैं । इसी प्रकार वह परम्परा के अनेक तत्त्व लघु परम्परा का अंग बन गए हैं , लेकिन इससे यह प्राशय नहीं लगाया जाना चाहिए कि लघु परम्परा के सभी या अधिकाँश तत्त्व वृहत् परम्परा से ही होकर लघ परम्परा तक पहुंचे हैं । ठीक इसी प्रकार संस्कृति का यह प्रबाह केवल वृहत् से लघु परम्परा की ओर ही नहीं हुआ है , बल्कि लब्यु से वृहत् परम्परा की ओर भी इसका विकास हुंपा है ।
कृषक समाजों से प्राप्त तथ्य यह प्रमाणित करते हैं कि वहत् परम्परा भी लघु परम्परा से कुछ तत्त्वों को निरन्तर ग्रहण कर रही है , ब्रहामि लघु परम्परा की तुलना में कम मात्रा में । अभिजात लोगों की पोशाक , वेश – भूषा , उनके खेल – कद . चित्रपट , गायन , नृत्य , विश्वास , अन्धविश्वास तथा जीवन से सम्बन्धित विविध क्षेत्रों के अवलोकन से स्पष्टतः प्रतीत होता है कि उन्होंने कृषक समाजों से सम्बन्धित लघु परम्परा से काफी कुछ ग्रहण किया । है । ग्रामीण ढंग का पहनावा , लोक – गीत तथा लोक – नत्य अभिजात लोगों में काफी लोकप्रिय होते जा यद्यपि वहत परम्परा से सम्बन्धित अभिजात लोग लघु परम्परा से सम्बन्धित जन – साधारण ” लोगों की तुलना में अधिक ताकिक एवं ज्ञान सम्पन्न है , परन्तु फिर भी उन पर लघ परम्परा में प्रचलित विश्वासों और अन्धविश्वासों का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है । लोग नवीन ढंग के बने बंगलों एवं विशाल कोठियों को नजर लगने से बचाने के लिए उसके ऊपरी भाग पर कोई काली मिट्टी का बर्तन या कोई ऐसा ही चेहरा लटका देते हैं । अभिजात लोग भी शकुन – अपशकुन में विश्वास करते हैं ।
इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि सांस्कृतिक प्रवाह की दिशा वहत परम्परा से लध परम्परा की ओर ही नहीं वरन् लघु परम्परा से वृहत् परम्परा की ओर भी है । यह अवश्य बीमार करना पड़ेगा कि लघु परम्परा वृहत् परम्परा से जितना ग्रहण कर रही है , वहत् परम्परा लघु परम्परा से उतना नहीं । इतना सब होने के बाद भी हमें ध्यान रखना होगा कि इन दोनों अवधारणामों में पर्याप्त मन्तर है । इनमें से कुछ प्रमुख अन्तर निम्न हैं
( 1 ) वृहत् परम्परामों का उल्लेख सामान्यतः प्राचीन लिखित धर्म – ग्रन्थों में होता है , जबकि लघु परम्परामों का किसी मूल धर्म – ग्रन्थ से कार्य का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता । फिर ये लघु परम्पराएँ अलिखित भी होती हैं और केवल मात्र एक विश्वास ( Belief ) के रूप में ही इन परम्पराग्रा का स्थानीय लोगों द्वारा पालन किया जाता है ।
( 2 ) वृहत् परम्परायें अत्यन्त व्यापक होती हैं , अर्थात् इनका स्वरूप राष्ट्रीय होता है । जबकि लघु परम्पराओं का क्षेत्र सीमित व सामान्यतः स्थानीय होता है , यही कारण है कि विभित्र क्षेत्रों की लघु परम्परायें एक – दूसरे से काफी भिन्न हैं ।
( 3 ) वृहत् परम्परामों का सम्बन्ध अभिजात , चिन्तनशील एवं नगरीय लोगों से सामान्यतः अधिक होता है , जबकि लघु परम्परामों का विकास मलतः ग्रामीण , प्रशिक्षित एवं कृषक वर्ग के व्यक्तियों के द्वारा अधिक होता है ।
( 4 ) वृहत् परम्पराएँ सामान्यतः अत्यन्त व्यवस्थित रूप में पाई जाती हैं , इन परम्पराओं से सम्बन्धित नियमों , कर्मकाण्डों , अनुष्ठानों , निषेधों प्रादि का स्वरूप बहुत स्पष्ट होता है । लघु परम्पराएँ इस अर्थ में अव्यवस्थित हैं कि इनसे सम्बन्धित व्यवहारों के नियम पूर्णतः सुनिश्चित एवं निर्धारित नहीं होते । जाम
( 5 ) वृहत् परम्परानों की विषय – वस्तु शास्त्रीय ( Classic ) होती है । अर्थात् यह परम्पराएँ अत्यन्त प्राचीन एवं पौराणिक होती हैं तथा सदैव के लिए होती हैं । इसके विपरीत लघु परम्पराओं का प्राधार अशास्त्रीय माना जाता है , इनका स्वरूप न तो पौराणिक होता है एवं न ही इनका प्रभाव बाध्यतामूलक होता है ।
( 6 ) वृहत् परम्परायें लिखित रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती हैं , जबकि लघु परम्पराएँ सामान्यतः एक पीढ़ी से दूसरी . पीढ़ी में मौखिक रूप से हस्तान्तरित होती हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि इन दोनों परम्परामों में पर्याप्त अन्तर है । वृहत् परम्परा को ‘ अमिजात परम्परा ‘ ( Elite Tradition ) एवं लघु परम्परा को ‘ लोक परम्परा ‘ ( Folk Tradition ) भी कहा जा सकता है । डॉ . उन्नीथान , इन्द्रदेव एवं योगेन्द्र सिंह ने वृहत् परम्परा एवं लघु परम्परा की अवधारणा का प्रयोग अभिजात एवं लोक परम्पराओं के रूप में किया है । इनके अनुसार ये भारतीय संस्कृति की दो उप – संरचनायें हैं , जो एक दूसरे की पूरक हैं । इनमें से प्रत्येक का अस्तित्व एक दूसरे से सम्बन्धित है । ये दोनों एक – दूसरे से बहुत ही धनिष्ठता से जुड़ी हुई होती हैं । इन्हें एक – दूसरे की सतहें ‘ ( Dimensions ) कहा जा सकता है । इन दोनों परम्पराओं को एक – दूसरे से पृथक् करके रखना अत्यन्त कठिन है , यद्यपि मूल रूप से ये दोनों एक – दूसरे से भिन्न हैं । अभिजात परम्परा लोक परम्परा की अपेक्षा अत्यन्त व्यवस्थित , विशिष्ट एवं स्वचेतन है । परन्तु वस्तुतः इनमें से किसी भी एक परम्परा को समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम दूसरी परम्परा के सन्दर्भ में ही उसे समझने का प्रयास करें । डॉ . श्यामा चरण दुबे एवं कुछ अन्य समाजशास्त्रियों ने लघु एवं वहत् परम्पराओं के रूप में परम्परात्रों के द्वि – मागीकरण की आलोचना की है । डॉ . दुबे का मानना है कि लघु एवं वृहत् परम्परामों की अवधारणा के आधार पर सांस्कृतिक परिवर्तनों का विश्लेषण सन्तोषप्रद नहीं है , क्योंकि भारत में परम्परामों का संगठन ‘ द्विध्र वीय ‘ ( Bipolar ) व्यवस्था के रूप में न होकर ‘ बहुध्र वीय ‘ ( Multi – polar ) व्यवस्था के रूप में हुआ है ।
डॉ . दुबे का कहना है कि ” जहाँ तक लघु एवं वृहत् परम्परागों का सवाल है , इनकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती । जहाँ एक से अधिक वृहत् या अनेक बृहत् परम्परायें हैं , उनमें से प्रत्येक के अपने प्रमाणित ग्रन्थ एवं नैतिक आचार – संहितायें हैं , परिस्थिति को और अधिक उलझनपूर्ण बना देती हैं । इतना और कहा जा सकता है कि वृहत् एवं लघु परम्परायें का सन्दर्भ ढांचा क्षेत्रीय , पश्चिमी एवं उभरती हुई राष्ट्रीय परम्पराओं , जिनमें से प्रत्येक अपने तरीके से शक्तिशाली है , की भूमिका एवं महत्त्व के मनन के लिए समुचित क्षेत्र प्रदान नहीं करता । ” ] –
डॉ . दुबे ने उपरोक्त सन्दर्भ ढांचे के विकल्प के रूप में परम्परागों का वर्गीकरण छः रूपों में किया है । डॉ . दुबे के अनुसार ये छः परम्परायें निम्न हैं
( 1 ) शास्त्रीय परम्परा ।
( 2 ) उभरती हुई राष्ट्रीय परम्परा ।
( 3 ) क्षेत्रीय परम्परा ।
( 4 ) पश्चिमी परम्परा ।
( 5 ) सामाजिक समूहों की स्थानीय परम्परायें ।
( 6 ) उप – सांस्कृतिक परम्परायें ।
डॉ . दुबे के मन में उपरोक्त वर्गीकरण भारतीय सांस्कृतिक वास्तविकतामों का अधिक प्रतिनिधित्व करता है , और विश्लेषण के लिए यह एक उत्तम सन्दर्भ – ग्रन्थ प्रस्तुत करता है । आपके अनुसार इनमें से प्रत्येक प्रकार की परम्परा का अध्ययन ग्रामीण एवं नगरीय सन्दर्भो में किया जाना चाहिए ।