रॉबर्ट के मर्टन
[ Robert K . Merton : 1910 ]
आधुनिक समाजशास्त्रियों में रॉबर्ट के मटन वह सबसे प्रमुख समाजशास्त्र हैं जिन्हान सामाजिक विचारधारा तथा समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करके समाजशास्त्रीय साहित्य को अधिक ममद और वैज्ञानिक बनाने का प्रयत्न किया है । यह सच है कि मर्टन का चिन्तन मैका वेबर , विलियम थॉमस तथा मानहीन से भी प्रभावित हुआ लेकिन व्यावहारिक रूप से वे अपने शिक्षक टालकाट पार्सन्स से सबसे अधिक प्रभावित थे । मर्टन से पूर्व तक समाजशास्त्र एक ऐसा विज्ञान था जो एक बड़ी सीमा तक मानवशास्त्रीय अवधारणाओं के आधार पर विकसित हो रहा था । इसे एक स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान करने के लिए पार्सन्स ने जो प्रयत्न किए , उन्हीं को आगे बढ़ाते हुए मर्टन ने समाजशास्थीय अवधारणाओं को मानव शास्त्र से पृथक् करके का अथक प्रयास किया । इन्होंने जहाँ एक ओर प्रकायवाद का नया रूप प्रदान करके प्रकार्यवादी विश्लेषण को मानवशास्त्रीय परम्परा के प्रभाव से मुक्त किया , वहीं वेबर , दुर्थीन और पार्सन्स के विचारों को आगे बढ़ाने में भी योग दान दिया । कार्ल मानहीन द्वारा प्रस्तुत ‘ ज्ञान के सम जशास्त्र ‘ का आलोचनात्मक मूल्यांकन करते हुए आपने इस शाखा को विज्ञान के समाजशास्त्र ‘ ( Sociology of Science ) के रूप में प्रतिष्ठित करने का समान प्रयत्न किया । समाजशास्त्रीय जगत में मर्टन की प्रतिष्ठा एक अनुसन्धानकर्ता और विचारक के समन्वयक के रूप में रही है । अपने अनुभवसिद्ध अध्ययनों के आधार पर उन्होंने न केवल ‘ सन्दर्भ समूह ‘ की अवधारणा को विकसित किया बल्कि मध्य सीमा क सिद्धान्त ‘ ( Theory of Middle Range ) के रूप में समाजशास्त्रीय विकास को नयी दिशा देने का प्रयत्न किया । मर्टन द्वारा लिखित ग्रन्थों में उनकी पुस्तक ‘ सोशल थिएरी एण्ड सोशल स्ट्रक्चर ‘ सर्वाधिक चर्चित पुस्तक है । सन् 1949 में प्रकाशित इस पुस्तक का आज फेन्च , इटेलियन , स्पेनिश तथा जापनी आदि अनेक भाषाओं में अनुवाद होना है । यह पुस्तक प्रकार्यात्मक समाजशास्त्र की सैद्धान्तिक व्याख्या प्रस्तुत करने के साथ
हा अनेक अन्य समाजशास्त्रीय अवधारणाओं को स्पष्ट करने का सफल प्रयास है । इसी योगदान के फलस्वरूप मर्टन को ‘ प्रकार्यवादी सम्प्रदाय के नेता ‘ के रूप में मान्यता मिल सकी ।
जीवन तथा कृतियाँ
( Life and Works )
रॉबर्ट के० मर्टन का जन्म सन् 1910 में फिलेडेल्फिया ( Philadelphia ) में हुआ । उन्होंने अपनी स्नातक स्तर तक की शिक्षा ओबलिन ( Oberline ) विश्व विद्यालय में प्राप्त की । इसके पश्चात् स्नातकोत्तर के अध्ययन के लिए उन्होंने हार वर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया । सन् 1932 में उन्होंने स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करके सन 1934 से हारवर्ड विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक के रूप में कार्य करना आरम्भ कर दिया । इस बीच मर्टन निरन्तर अपने शोध कार्य में संलग्न रहे जिसके फलस्वरूप उन्हें सन् 1936 में डॉक्टर ऑफ फिलासफी ( Ph . D . ) की उपाधि प्रदान की गयी । सन् 1939 में डॉ० मर्टन ट्यूलेन विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए जहाँ दो वर्ष बाद ही उनकी नियुक्ति प्रोफेसर पद पर कर दी गयी । सन् 1947 में मर्टन ने ट्यूलेन विश्वविद्यालय को छोड़कर कोलम्बिया विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में अध्यापन कार्य करना आरम्भ कर दिया । समाजशास्त्र के एक प्रखर और बहुमुखी प्राध्यापक के रूप में मर्टन के विचार अपने बौद्धिक गुरु पार्सन्स से निरन्तर प्रभावित रहे । यही कारण था कि जब पार्सन्स ने हारवर्ड विश्वविद्यालय से अवकाश ग्रहण किया , तब सन् 1956 में मर्टन को उनके स्थान पर प्रोफेसर नियुक्त कर दिया गया । इस अवधि में भी मर्टन का पार्सन्स से निरन्तर सम्पर्क बना रहा तथा मर्टन ने पार्सन्स के विचारों को आगे बढ़ाने के साथ ही उनमें नई अवधारणाओं का भी समावेश किया । र अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखने के साथ ही मर्टन ने समाजशास्त्रीय अवधार णाओं , अध्ययन – पद्धति तथा शोध के उपागमों से सम्बन्धित जिन बहुत से शोध पत्रों को प्रस्तुत किया , उनको व्यवस्थित रूप से सूचीबद्ध कर सकना कठिन है । इसके बाद भी उन्होंने जिन प्रमुख ग्रन्थों की रचना की , उनमें से कुछ इस प्रकार हैं : मर्टन की प्रथम कृति ‘ सत्रहवीं शताब्दी के इंग्लैण्ड में विज्ञान , प्रौद्योगिकी और समाज ‘ ( Science , Technology and Society in Seventeenth Century England ) के नाम से सन् 1938 में प्रकाशित हुई । इसके पश्चात् सन् 1946 में उनकी दूसरी पुस्तक – Mass Persuation ‘ ( समूह आग्रह ) प्रकाशित हुई । मर्टन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘ सामाजिक सिद्धान्त एवं सामाजिक संरचना ‘ ( Social Theory and Social Structure ) है , जो सन् 1949 में प्रकाशित हई ।
इसी पुस्तक में उन्होंने प्रकार्यात्मक समाजशास्त्र की विस्तृत सैद्धान्तिक अवधारणा प्रस्तुत की तथा उन सैद्धान्तिक समस्याओं का निराकरण किया जिनके कारण समाजशास्त्र का पृथकअस्तित्व विकसित होने में कठिनाइयां उत्पन्न हो रही थीं । सन 1950 में मर्टन की एक अन्य पुस्तक ‘ कन्टीन्यूटीज इन सोशल रिसर्च : द अमेरिकन सोल्जर ‘ ( Con tinuities on Social Research : The American Soldier ) का प्रकाशन हुआ जिसमें मर्टन ने अन्य तथ्यों के साथ अनभवसिद्ध शोध की पद्धतियों और उनक महान को भी स्पष्ट किया । इन ग्रन्थों के अतिरिक्त मर्टन ने कुछ अन्य विद्वानों के साथ मिलकर जिन पुस्तकों का सम्पादन किया , उनमें ‘ रीडर इन व्यूरोक्रेसी ‘ ( Reader in Bureaucracy ) सन् 1952 में प्रकाशित हुई । यह पुस्तक मुख्यतः वेबर की समालोचनाओं तथा उनके प्रभाव को स्पष्ट करती है । सन 1957 में एक अन्य स्तक ‘ चिकित्सा के समाजशास्त्र में प्रारम्भिक अध्ययन ‘ ( Introductory Studies in the Sociology of Medical Educarion ) प्रकाशित हुई । सन् 1999 मर्टन द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘ वर्तमान समाजशास्त्र ‘ ( Sociology Today ) का प्रकाशन हुआ जिसमें अनेक प्रमुख समाजशास्त्रियों के योगदान का समावेश है । इन प्रमुख ग्रन्थों के अतिरिक्त मर्टन ने एनसाइक्लोपीडिया , अमेरिकन जनरल ऑफ सोशियोलॉजी तथा अमेरिकन सोशियोलॉजिकल रिव्यू में भी अपने महत्त्व पूर्ण विचार प्रस्तुत किए । इन्हीं प्रयत्नों के कारण अपने जीवनकाल में ही मटन एक प्रमुख समाजशास्त्रीय विचारक तथा सिद्धान्त शास्त्री के रूप में प्रतिष्ठित हो गये ।
प्रकार्यवाद
( Functionalism )
मर्टन की विचारधारा में प्रकार्यवाद को वह सबसे प्रमुख पक्ष कहा जा सकता है जिसे मर्टन ने एक नया रूप देकर समाजशास्त्रीय विश्लेषण को मानवशास्त्र के प्रभाव से मुक्त करने का प्रयत्न किया । मर्टन से पहले अनेक विद्वानों ने प्रकार्यात्मक विश्लेषण के आधार पर समाज की व्याख्या करने का प्रयत्न किया था लेकिन इनकी कमियों का उल्लेख करते हुए मर्टन ने लिखा कि समाजशास्त्रीय विश्लेषण की एक आधनिक पद्धति के रूप में प्रकार्यावादी विश्लेषण एक आशाजनक आधार जरूर है । लेकिन यह सबसे कम व्यवस्थित है । मानवशास्त्रीय सन्दर्भ में जिस तरह प्रकार्यवान का उपयोग किया गया , उसके फलस्वरूप इस पद्धति का विस्तार तो हआ लेकिन उससे समाज की वास्तविक व्याख्या करने का लक्ष्य पूरा नहीं हो सका । इस सवादी विश्लेषण वास्तव में एक त्रिकोणात्मक कोण से मर्टन ने बतलाया कि ” प्रकार्यवादी विश्लेषण वास्तव में पति और आँकड़ों के सम्बन्ध पर निर्भर करता है । इन सबसे कमजोर रहा है । जिन विद्वानों ने अभी तीनों में अभी तक पद्धति का पक्ष सबस कमजोर रहा है । जिन से अधिकांश ने इसके सैद्धान्तिक पक्ष पर ही विद्वानों ने आँकड़ों के सन्दर्भ में ही प्रकार्यवादी वद्वान बहुत कम हैं जिन्होंने प्रकार्यवादी विश्लेषण विश्लेषण प्रस्तुत कर दिया । ऐसे विद्वान बहुत कम है जिन्होंने प्रकार्यवाही सम्बन्ध अर्थात सिद्धान्त , पद्धति और आँकड़ों के सम्बन्ध तक प्रकार्यवाद की व्याख्या की , उनमें से अधिकांश ने इस | अधिक जोर दिया जबकि कुछ विद्वानों ने आँकड़ों के की पद्धति की चर्चा की है । इस कथन के द्वारा मर्टन का उद्देश्य यह स्पष्ट करना था कि प्रकार्यवादी विश्लेषण के क्षेत्र में समाजशास्त्रीय चिन्तन अभी परिपक्व नहीं हो सका है । मर्टन ने प्रकार्यवाद के इस दोष को न केवल दूर करने का प्रयत्न किया बल्कि उन्होंने प्रकार्यवाद में अनेक नई अवधारणाओं का समावेश करके इसे अधिक उपयोगी और व्यावहारिक बनाने का भी प्रयत्न किया । मटन द्वारा प्रस्तुत प्रकार्य वाद को तीन प्रमुख पक्षों की सहायता से समझा जा सकता है प्रकार्य का अर्थ , Dकार्यात्मक विश्लेषण का प्रारूप तथा प्रकार्यवाद की मान्यताएँ ।
प्रकार्य का अर्थ
( Meaning of Function )
मटन का कथन है कि समाजशास्त्र में प्रकार्यवादी उपागम के प्रारम्भिक समय से ही इसमें उपयुक्त शब्द को लेकर एक भ्रमपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गयी थी । विभिन्न विद्वानों ने जिन विभिन्न अर्थों में प्रकार्य शब्द का उपयोग किया , उससे इस दशा को समझा जा सकता है । ( 1 ) प्रकार्य का एक अभिप्राय समारोह तथा उत्सव के रूप में ( Function as a Festive Occasion ) देखने को मिलती है । सामान्य वार्तालाप में जब कोई व्यक्ति यह कहता है कि ‘ उसे किसी विशेष फंक्शन में सम्मि लित होना है ‘ तो यहां पर अंग्रेजी के शब्द ‘ फंक्शन ‘ का तात्पर्य समारोह से होता है । ( 2 ) मर्टन का कथन है कि फंक्शन अथवा प्रकार्य शब्द का उपयोग व्यवसाय के लिए भी किया जाता है । उदाहरण के लिए , मैक्स वेबर तथा ब्लण्ट ( Blunt ) ने फंक्शन शब्द का उपयोग व्यवसाय के लिए किया है । सामान्यतः अर्थशास्त्री जब किसी समूह का प्रकार्यात्मक विश्लेषण करते हैं , तब वे व्यवसाय को ही आधार मानते हैं । ( 3 ) राजनीतिशास्त्र में फंक्शन अथवा प्रकार्य का अभिप्राय उस व्यक्ति की गतिविधि से होता है जो किसी विशेष पद पर आसीन होता है । इसी अवधारणा के फलस्वरूप राजनीतिशास्त्र में फन्क्शनरी ( Functionary ) तथा अधिकारी ( Official ) शब्द की व्युत्पत्ति हुई है । ( 4 ) गणितशास्त्र में प्रकार्य अथवा फन्क्शन शब्द का उपयोग एक चर ( Variable ) का दूसरे चर से सम्बन्ध स्पष्ट करने के लिए किया जाता है । जब हम यह कहते हैं कि किसी समाज की जन्मदर उसकी आर्थिक दशाओं का प्रकार्य है , तब हम जन्मदर और आर्थिक दशाओं के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए फन्क्शन शब्द का उपयोग करते हैं । ( 5 ) फन्क्शन – का अन्तिम अभिप्राय एक कार्य प्रणाली ( Procedure ) से होता है । यह अवधारणा मयतः जीवविज्ञान से आरम्भ हुई जिसमें प्रकार्य का अभिप्राय एक ऐसी दशा क लिए किया जाता है जिसमें कोई सावयवी प्रक्रिया शरीर की प्रणाली को बनाए रखन में अपना योगदान करती है । मर्टन के अनुसार यही वह अवधारणा है जो समाज मास्त्र और मानवशास्त्र में प्रकार्य के वास्तविक अभिप्राय का बोध कराता है । हॉन स्पष्ट किया कि समाजशास्त्र में प्रकार्य को किसी तत्त्व की उस कार्यप्रणाला के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जिसके द्वारा वह तत्त्व सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में सहायक होता है । मर्टन के शब्दों में , ” प्रकार्य वे देखे जा सकन बाले परिणाम है जो सामाजिक व्यवस्था के अनकलन अथवा सामंजस्य को सम्भव बनाते हैं । ” अपने प्रकार्यात्मक विश्लेषण में मर्टन ने प्रकार्य शब्द के अनेक अर्थ स्पष्ट करने के साथ ही उन अनेक शब्दों का भी उल्लेख किया जो प्रकार्य से मिलते – जुलते अर्थ को स्पष्ट करते हैं । उदाहरण के लिए उपयोग ( Use ) , उपयोगिता ( Utility ) , उद्देश्य ( Purpose ) , प्रेरणा ( Motive ) , प्रयोजन ( Intention ) , लक्ष्य ( Aim ) तथा परिणाम ( Consequence ) आदि इसी प्रकार के शब्द हैं । यह सच है कि इन सभी शब्दों के अर्थ एक – दूसरे से अलग हैं लेकिन यदि इनका प्रयोग अनुशासित ढंग से न किया जाय तो किसी भी प्रकार्यात्मक विश्लेषण में यह एक भ्रमपूर्ण दशा उत्पन्न कर सकते हैं । उदाहरण के लिए यदि हम यह कहें कि ‘ दण्ड का उद्देश्य अपराधों का रोकना है ‘ तो यहाँ पर दण्ड के उद्देश्य और दण्ड के प्रकार्य में भेद करना कठिन हो सकता है । इस आधार पर मर्टन ने स्पष्ट किया कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए यह आवश्यक है कि जो शब्द जाकार्य के समान अर्थ वाले हैं , उनका उपयोग करते समय बहुत सावधानी रखी जाय ।
प्रकार्यात्मक विश्लेषण का प्रारूप
( A Paradigm for Functional Analysis )
मर्टन का कथन है कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण की आवश्यकता पर अनेक समाज वैज्ञानिकों ने जोर दिया है लेकिन इन सभी की विवेचना में कोई न कोई कमी अवश्य देखने को मिलती है । इस दशा में प्रकार्यात्मक विश्लेषण को तभी व्यव स्थित बनाया जा सकता है जब इसके एक सुनिश्चित प्रारूप का निर्माण कर लिया जाय । प्रकार्यात्मक विश्लेषण का एक निश्चित प्रारूप होना इसलिए भी आवश्यक है जिससे एक निश्चित मानदण्ड के आधार पर सामाजिक तथ्यों का अध्ययन वैज्ञानिक ढग से किया जा सके । इस दृष्टिकोण से मर्टन ने प्रकार्यात्मक विश्लेषण का एक प्रारूप प्रस्तुत किया जिससे कुछ निश्चित अवधारणाओं के सन्दर्भ में प्रकार्यात्मक विश्लेषण सम्बन्धी कठिनाइओं को दूर किया जा सके । मटन द्वारा प्रस्तुत इस प्रारूप में जिन अवधारणाओं तथा विशेषताओं का समावेश है , उन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :
( 1 ) विषय ( The Item ) – सामाजिक तथ्यों का क्षेत्र बहुत व्यापक है । प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए हम जिन सामाजिक तथ्यों का अध्ययन के लिए उप ‘ योग करते हैं , मर्टन के अनुसार उन्हें ‘ विषय ‘ कहा जाना चाहिए । इस प्रकार प्रकार्या त्मक विश्लेषण के लिए जो विषय अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं , उन्हें मर्टन ने सामाजिक भूमिका , संस्थागत प्रतिमान , सामाजिक प्रक्रिया , सांस्कृतिक प्रतिमान , संवेग ( Emotions ) , व्यवहार के सामाजिक मानदण्ड , ( Norms ) , समूह संगठन ( Group Organization ) , सामाजिक संरचना तथा सामाजिक नियन्त्रण कहा । मर्टन का विचार है कि किसी भी प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए इन सभी विषयों से सम्बन्धित तथ्यों का अध्ययन करना आवश्यक है ।
( 2 ) विषयगत प्रेरणाएँ ( Subjective Dispositions ) – कुछ दशाओं में प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए व्यक्ति की प्रेरणाओं का अध्ययन किया जाता है । इसके लिए यह आवश्यक है कि पहले ही यह जान लिया जाय कि किस तरह की प्रेरणाओं के अध्ययन के लिए हमें किस तरह के तथ्यों अथवा आँकड़ों ( data ) को एकत्रित करना जरूरी है । इसके साथ ही यह जानना भी आवश्यक है कि उन तथ्यों की प्रकृति दूसरे तथ्यों से किस तरह भिन्न है और उनका उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है । इसका तात्पर्य है कि जो तथ्य एक विशेष प्रेरणा और उद्देश्य ( Motive and Purpose ) के रूप में समाज में एक विशेष भूमिका निभाते हैं , प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए उनका चयन कर लेना जरूरी है ।
( 3 ) उद्देश्यगत परिणाम ( Objective Conseqences ) – मर्टन का कथन है कि किसी विषय के प्रकार्यात्मक विश्लेषण में हमें मुख्यत : दो समस्याओं का सामना करना पड़ता है : पहली यह कि सामाजिक तथ्यों के योगदान को उस सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत किस तरह ज्ञात किया जाय जिसमें उस तथ्य के प्रकार्य निहित हैं तथा दूसरी यह कि किसी तथ्य को विषयगत प्रेरणा को उसके उद्देश्यपूर्ण परिणामों से पृथक् करके किस तरह समझा जाय ? पहली दशा को स्पष्ट करते हुए मर्टन ने कहा कि सामाजिक प्रक्रियाओं के परिणाम गुणात्मक होते हैं । इन परिणामों का जब सम्पूर्ण रूप हमारे सामने आता है , तभी यह समझा जा सकता है कि किसी प्रक्रिया के परिणाम प्रकार्य के रूप में सामने आए हैं अथवा अकार्य ( Dys function ) के रूप में । इसी के सन्दर्भ में मर्टन ने प्रकार्य की अवधारणा को अकार्य की अवधारणा से पृथक् करके स्पष्ट किया । आपके अनुसार ” प्रकार्य वे देखे जा सकने वाले परिणाम हैं जो सामाजिक व्यवस्था में अनुकूलन अथवा सामंजस्य को सम्भव बनाते हैं । ” दूसरी ओर “ अकार्य वे स्पष्ट परिणाम हैं जो सामाजिक व्यवस्था में अनुकूलन अथवा सामंजस्य को कम करते हैं । ” दूसरी समस्या को स्पष्ट करते हुए मर्टन ने बतलाया कि किसी प्रक्रिया के प्रकार्य भी प्रत्येक दशा में समान नहीं होते । यह प्रत्यक्ष भी हो सकते हैं और निहित भी । मर्टन के शब्दों में ” प्रत्यक्ष अथवा घोषित प्रकार्य ( Manifest Functions ) वे वैषयिक परिणाम है जो सामाजिक व्यवस्था में अनुकूलन का गुण उत्पन्न करते हैं तथा जो इस व्यवस्था में भाग लेने वाले व्यक्तियों द्वारा इच्छित और मान्य होते हैं । ” 4 इसके विपरीत , ” निहित प्रकार्य ( Latent Functions ) वे हैं जो न तो इच्छित होते हैं और न ही सामान्य लोगों के द्वारा उन्हें पहचाना जाता है । इस तरह मर्टन ने प्रकार्य , अकार्य , प्रत्यक्ष प्रकार्य तथा निहित प्रकार्य की अवधारणाओं को प्रस्तुत करके प्रकार्यात्मक विश्लेषण में आने वाली समस्याओं का निदान प्रस्तुत किया । उन्होंने बतलाया कि किसी भी प्रकार्यात्मक विश्लेषण के अन्तर्गत यह जान लेना आवश्यक है कि जिन विषयों अथवा प्रक्रियाओं का हम अध्ययन कर रहे हैं उनके कौन – से परिणाम प्रकार्य हैं और कौन – से परिणाम अकार्य के रूप में स्पष्ट हैं । इसी तरह यह जानना भी आवश्यक है कि जब कोई प्रक्रिया प्रत्यक्ष प्रकार्य की जगह निहित प्रकार्यों को स्पष्ट करने लगती है , तब सामाजिक व्यवस्था पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है ।
( 4 ) प्रकार्य से सम्बन्धित इकाई ( Unit Subserved by the Fanc tion ) – मर्टन का कथन है कि जिस विषय ‘ का हम प्रकार्य के आधार पर विश्लेषण करते हैं , वह विषय या इकाई यदि किसी व्यक्ति अथवा उप – समूह के लिए कोई प्रकार्य करती है तो यह भी सम्भव है कि वह किसी दूसरे व्यक्ति या समूह के लिए | अकार्य करे । उदाहरण के लिए यदि सरकार द्वारा निजी क्षेत्र को दिया जाने वाला समर्थन कुछ पूंजीपतियों के लिए प्रकार्यात्मक हो सकता है तो वही समर्थन निर्धन समहों के लिए अकार्यात्मक हो सकता है । इसके साथ ही अध्ययनकर्ता को यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि किसी इकाई के जो प्रकार्य उसके सामने आते हैं , वे किस प्रकार के हैं । मर्टन के अनुसार यह प्रकार्य मनोवैज्ञानिक प्रकार्य , समूह – प्रकार्य , सामाजिक प्रकार्य तथा सांस्कृतिक प्रकार्य के रूप में व्यक्त हो सकते हैं । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि किसी भी विषय के उन प्रभावों का अध्ययन अवश्य किया जाना चाहिए जो व्यक्ति की सामाजिक स्थिति , उप – समूह , वृहत् सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक व्यवस्था पर स्पष्ट होते हैं ।
( 5 ) प्रकार्यात्मक आवश्यकताएँ ( Functional Requirements ) – यह एक विवादपूर्ण प्रश्न है कि किसी समाज अथवा समूह की प्रकार्यात्मक आवश्यकताएँ क्या हो सकती हैं । इस सम्बन्ध में मैलीनॉस्की तथा ब्राउन ने जहाँ प्राणीशास्त्रीय
आवश्यकताओं को सामाजिक आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया था , वहीं मर्टन ने यह स्पष्ट किया कि प्रकार्यात्मक आवश्यकताओं का विश्लेषण उनकी परिस्थिति के सन्दर्भ में ही किया जाना चाहिए । इसका तात्पर्य है कि किसी विशेष इकाई द्वारा किया जाने वाला कार्य केवल तभी प्रकार्य हो सकता है जब समूह की एक विशेष परिस्थिति के सन्दर्भ में वह एक इच्छित और उपयोगी प्रभाव को स्पष्ट करता हो ।
( 6 ) क्रियाविधि की अवधारणा ( Concept of Mechanism ) – मटन ने बतलाया कि समाजशास्त्र में प्रकार्यात्मक विश्लेषण शरीर – विज्ञान और मनोविज्ञान में किए जाने वाले उस अध्ययन के समान है जिसमें शरीर अथवा मस्तिष्क के प्रकार्यों की प्रणाली अथवा क्रिया – विधि के स्पष्ट स्वरूपों की चर्चा की जाती है । इसका तात्पर्य है कि प्रकार्यवादी विश्लेषण में भूमिका विभेद ( Role – segmentation ) , संस्थागत मांगों की उत्पत्ति ( insulation of Institutional Derands ) , मूल्यों की संस्त रित व्यवस्था ( Hterarchie Ordering of Values ) , श्रम का सामाजिक विभाजन ( Social Divisoin of Labour ) तथा रीतिगत विधान ( Ritual Inactment ) आदि वे प्रणालियाँ अथवा क्रिया – विधियाँ हैं जिनकी सहायता से इस विश्लेषण को अधिक व्यवस्थित बनाया जा सकता है । इससे स्पष्ट होता है कि विभिन्न तत्त्वों अथवा इकाइयों के प्रकार्यों को समझना ही काफी नहीं होता बल्कि उस क्रिया – विधि को समझना भी आवश्यक होता है जिसके द्वारा कुछ इकाइयाँ विशेष प्रकार्य करती हैं ।
( 7 ) प्रकार्यात्मक विकल्प ( Functional Alternatives ) – प्रकार्यात्मक विश्लेषण करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि कोई एक इकाई जो प्रकार्य करती है , किसी दूसरी या वैकल्पिक इकाई के द्वारा भी लगभग उसी तरह के कार्य किए जा सकते हैं । इन्हें हम ‘ प्रकार्यात्मक विकल्प ‘ कहते हैं । प्रकार्यात्मक विश्लेषण में इन विकल्पों का अध्ययन करना इसलिए आवश्यक है कि पुरक या वैकल्पिक तत्त्वों के द्वारा जो प्रकार्य सम्भव होते हैं , उनके परिणाम कुछ भिन्न प्रकृति के हो सकते हैं । इस प्रकार किसी भी अध्ययनकर्ता को इन विकल्पों से उत्पन्न होने वाले प्रकार्यों की विभिन्नता को ध्यान में रखकर ही कोई विश्लेषण करना चाहिए ।
( 8 ) संरचनात्मक सन्दर्भ ( Structural Context ) – मर्टन ने स्पष्ट किया कि वैकल्पिक प्रकार्यों के फलस्वरूप सामाजिक संरचना में जो विभिन्नता पैदा होती है , वह असीमित नहीं होती । इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा कि ” सामाजिक संरचना के तत्त्वों की पारस्परिक निर्भरता प्रकार्यात्मक विकल्पों द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले परिवर्तन की सम्भावना को कम कर देती है । ” मर्टन से पहले अनेक विद्वान यह मानते थे कि सामाजिक संरचना के तत्त्व प्रकार्यात्मक विकल्पों द्वारा उपन्न किए जाने ले परिवर्तन को रोकने में अधिक प्रभावी नहीं होते । इसके विपरीत , मटन तलाया कि सामाजिक संरचना के सभी तत्त्व इस तरह एक – दूसरे से सम्बद्ध होत है कि यदि एक इकाई के प्रकार्य किसी दूसरी इकाई द्वारा किए जाने लगते हतब सामाजिक संरचना स्वयं ही उन पर नियन्त्रण लगाने लगती है । इसका तात्पर्य ह सामाजिक संरचना में किसी इकाई के प्रकार्य का विश्लेषण एक विशेष सत्र के सन्दर्भ में ही किया जाना चाहिए ।
( 9 ) गत्यात्मकता तथा परिवर्तन ( Dynamics and Change ) – प्रकार्य वादी विश्लेषण के प्रारूप को स्पष्ट करते हुए मर्टन ने बतलाया कि बहुत – से विद्वान यह मानते आए हैं कि सामाजिक संरचना की प्रक्रति स्थिर अथवा जड़ होती है तथा सामाजिक संरचना में सामान्यतः किसी तरह का परिवर्तन नहीं होता । ऐसी धारणा बहुत भ्रान्तिपूर्ण है । वास्तव में प्रकार्यवादी विश्लेषण किसी भी सामाजिक संरचना को स्थिर अथवा जड़ मानकर नहीं चलता । ऐसे विचार मानवशास्त्रियों द्वारा आदिम और सरल समाजों के अध्ययन के लिए विकसित किए गये थे , जिन्हें समाज शास्त्र में भी प्रकार्यवादी विश्लेषण के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा । मर्टन के अनुसार , सामाजिक संरचना की कोई इकाई अनिवार्य रूप से प्रकार्य ही नहीं करती । बल्कि उसके प्रभाव अकार्य के रूप में भी हो सकते हैं । ऐसे सभी अकार्य सामाजिक संरचना में तनाव और दबाव की दशाएँ उत्पन्न करते हैं । इस दष्टिकोण से प्रकार्या त्मक विश्लेषण के लिए यह ज्ञात करना जरूरी है कि सामाजिक संरचना में विभिन्न इकाइयों के अकार्यों से जब तनाव और दबाव की दशाएं पैदा होती हैं तो परिवर्तन की कौन – सी प्रक्रियाएँ उत्पन्न होती हैं । इसका तात्पर्य है कि प्रकार्यात्मक – विश्लेषण के द्वारा परिवर्तन की प्रकृति और दिशा का अध्ययन करना भी आवश्यक है ।
( 10 ) वैधता की समस्या ( Problem of Validation ) – – – मर्टन के अनुसार , प्रकार्यात्मक विश्लेषण की एक मुख्य समस्या यह है कि समाजशास्त्रीय अध्ययनों में इस उपागम को वैध माना जा सकता है या नहीं ? इस समस्या का समाधान करते हए उन्होंने बतलाया कि ” प्रकार्यात्मक विश्लेषण से हमारा तात्पर्य केवल एक ऐसी पद्धति से है जिसके द्वारा समाजशास्त्रीय तथ्यों की व्याख्या की जाती है । यह उपागम तथ्यों का संकलन करने के क्षेत्र में कोई भूमिका नहीं निभाता । ” इसमा तात्पर्य है । कि प्रकारात्मक विश्लेषण यह नहीं कहता कि हम किसी विशेष अवधारणा से प्रभावित होकर तथ्यों का संकलन करें । प्रकार्यात्मक विश्लेषण केवल इस बात में विश्वास करता है कि प्राप्त तथ्यों का विश्लेषण कार्यात्मक विश्लेषण के प्रारूप में दी गयी सावधानियों तथा नियमों के अनुसार ही किया जाय ।
उपर्यत विवेचना से स्पष्ट होता है कि मर्टन ने जो प्रकार्यात्मक प्रारूप प्रस्तुत किया , उसमें प्रकार्यात्मक विश्लेषण से सम्बन्धित अनेक समस्याओं तथा अवधारणाओं का समावेश है । इन्हीं अवधारणाओं के आधार पर समाजशास्त्र के अध्येता सामाजिक आंकड़ों का प्रकार्यात्मक विश्लेषण वैज्ञानिक ढंग से कर सकते हैं । इस प्रारूप में मर्टन ने जिस तरह समस्याओं का निदान खोजने का प्रयत्न किया तथा प्रकार्यात्मक विश्लेषण सम्बन्धी पहले की गलतियों को दूर किया , उसी के आधार पर मर्टन को ‘ आधुनिक प्रकार्यवाद का नेता ‘ माना जाता है ।
प्रकार्यवाद की मान्यताएं
( Assumptions of Functionalism )
मर्टन से पूर्व मानवशास्त्रियों द्वारा प्रकार्यवाद को जिस रूप में विकसित किया गया था वह अनेक मान्यताओं पर आधारित था । यह मान्यताएं मुख्य रूप से तीन थीं : ( 1 ) एक सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली सभी इकाइयाँ सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत कुछ प्रकार्य अवश्य करती हैं , ( 2 ) सामाजिक इकाइयों के यह प्रकार्य ही . एक सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के अस्तित्व को बनाए रखते हैं , तथा ( 3 ) प्रकार्य , प्रत्येक तत्त्व अथवा इकाई के अपरिहार्य परिणाम हैं । अपने अध्ययन के आधार पर मर्टन ने बतलाया कि मानवशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत यह मान्य ताएँ न केवल बहुत विवादपूर्ण हैं बल्कि प्रकार्यात्मक अध्ययन में अनुपयोगी भी प्रमा णित हो चुकी हैं । इस आधार पर मर्टन ने इन मान्यताओं की आलोचनात्मक विवेचना करते हुए अपने द्वारा प्रस्तुत प्रकार्यात्मक विश्लेषण के प्रारूप को ही अधिक उपयुक्त माना । इस सम्बन्ध में मटन के विचारों को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :
( 1 ) समाज की प्रकार्यात्मक एकता को मान्यता ( Postulate of the Functional Unity of Society ) – मर्टन से पहले रेडक्लिफ ब्राउन तथा मैली नॉस्की ( Malinowski ) ने इस मान्यता को विशेष महत्त्व दिया था कि एक सामा जिक संरचना का निर्माण करने वाली सभी इकाइयां सामाजिक व्यवस्था के लिए कुछ न कुछ प्रकार्य अवश्य करती हैं । रेडक्लिफ ब्राउन ने लिखा कि ” किसी विशिष्ट सामाजिक प्रचलन अथवा व्यवहार का प्रकार्य सम्पूर्ण सामाजिक जीवन तथा सामा जिक व्यवस्था के लिए उसका वह योगदान है जिससे वह व्यवस्था क्रियाशील बनती है । इससे स्पष्ट होता है कि प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था में एक निश्चित प्रकार की एकता पायी जाती है तथा यह एकता सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली इकाइयों के प्रकार्य से ही सम्भव होती है । इस सम्बन्ध में मर्टन ने लिखा कि मानव शास्त्रियों ने इस मान्यता के आधार पर सामाज की जिस प्रकार्यात्मक एकता का उल्लेख किया , उसकी वास्तविकता को परीक्षण के द्वारा ज्ञात करना जरूरी है ।यह सच है कि प्रत्येक समाज में कुछ एकता अवश्य विद्यमान होती है लेकिन वामन समाजों में एकीकरण का यह स्तर अलग – अलग हो सकता है । इसका तात्पर्य है कि समाज में जो ‘ प्रचलन ‘ या ‘ व्यवहार ‘ प्रकार्यात्मक होते हैं , दूसरे समाज अथवा समूह में वे अकार्यात्मक भी हो सकते हैं । इस दष्टिकोण से यह आवश्यक है कि प्रकाया त्मक विश्लेषण करते समय विभिन्न इकाइयों के प्रकार्यों की विशेषताओं को अवश्य समझा जाय । इसी की सहायता से यह समझा जा सकता है कि किसी विशेष समाज में सामाजिक एकीकरण उत्पन्न करने में विभिन्न इकाइयों के प्रकार्य कैसा और कितना योगदान करते हैं ।
( 2 ) सार्वभौमिक प्रकार्यवाद की मान्यता ( Postulate of Universal Functionalism ) . – – प्रकार्यवाद की एक परम्परागत मान्यता यह भी थी कि विभिन्न इकाइयों के प्रकार्य ही किसी सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के अस्तित्व को बनाए रखते हैं । इसे स्पष्ट करते हुए मैलोनास्की ने लिखा था ” प्रत्येक प्रकार की सभ्यता , रीति – रिवाज , भौतिक तत्त्व , विचार और विश्वास आदि कुछ सामाजिक प्रकार्यों को पूरा करते हैं । ” इसी मान्यता के आधार पर क्लूखॉन ( Kluckhohn ) ने भी यह कहा कि “ कोई भी संस्कृति तब तक अपने अस्तित्व की रक्षा नहीं कर सकती जब तक कि वह कुछ ऐसे प्रकार्य न करे जिनमें समायोजन अथवा अनुकूलन का गुण निहित हो । ” 10 इस मान्यता को मर्टन ने अस्वीकार करते हुए यह कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि संस्कृति के स्थापित तत्त्व के रूप में प्रत्येक परम्परा समाज को बनाए रखने में अवश्य ही सहयोगी हो । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि जो परम्पराएँ अनेक पीढ़ियों तक समाज को स्थायित्व प्रदान करती रहती हैं वे कभी कभी या किसी विशेष अवधि में या तो अनुपयोगी सिद्ध होने लगती हैं अथवा समाज में परिवर्तन की दशा उत्पन्न कर देती हैं ( उदाहरण के लिए भारत में जाति – प्रथा के परम्परागत प्रकार्य वर्तमान समय में उसके अकार्य बन गये हैं तथा यह प्रथा सामाजिक व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने की जगह उसमें परिवर्तन उत्पन्न करने लगी है ) । इस प्रकार मर्टन यह स्वीकार नहीं करते कि किसी भी इकाई के प्रकार्यों की प्रकृति सार्वभौमिक होती है । उनका कथन है कि संस्कृति या सामाजिक संरचना का कोई तत्त्व प्रकार्यात्मक भी हो सकता है लेकिन यह मान लेना उचित नहीं है कि ऐसा प्रत्येक तत्त्व कोई न कोई प्रकार्य अवश्य करेगा ।
( 3 ) अपरिहार्यता की मान्यता ( Postulate of Indispensability ) – मर्टन के अनुसार मानवशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत प्रकार्यवाद की यह मान्यता भी उचित नहीं है कि ‘ प्रकार्य प्रत्येक सांस्कृतिक तत्त्व अथवा इकाई के अपरिहार्य परिणाम हैं । ” वह मैलीनॉस्की के इस कथन से सहमत नहीं हैं कि ‘ प्रत्येक प्रकार की सभ्यता , रीति रिवाज , भौतिक तत्त्व , विचार और विश्वास आदि कुछ सामाजिक प्रकार्यों को पूरा करते है । ” मर्टन का कथन है कि इस वाक्यांश से यह पता नहीं चल पाता कि इसके द्वारा में लीनॉस्की प्रकार्य की अपरिहार्यता को स्पष्ट करना चाहते हैं अथवा जनका तात्पर्य सांस्कृतिक तत्त्वों की अपरिहार्यता से है । वास्तविकता यह है कि प्रकार्य की अपरिहार्यता की मान्यता को दो परस्पर सम्बन्धित दशाओं के आधार पर ही समझा जा सकता है । पहली यह कि कुछ प्रकार्य इसलिए अपरिहार्य होते हैं कि यदि वे अपना कार्य न करें तो समाज अपने अस्तित्व को बनाकर नहीं रख सकता । इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक समाज में कुछ प्रकार्य वे होते हैं जो समाज का निर्माण करने वाली पूर्व परिस्थितियों को उत्पन्न करते हैं । इन्हें मर्टन ने समाज की ‘ प्रकार्यात्मक पूर्व – आवश्यकताएँ ‘ ( Functional Prerequisites ) कहा और इन्हीं के आधार पर उन्होंने ‘ प्रकार्यात्मक पूर्व – आवश्यकताओं की अवधारणा को प्रस्तुत किया । दूसरी दशा की चर्चा करते हुए मर्टन ने बतलाया कि प्रत्येक समाज के कुछ निश्चित सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्वरूप होते हैं जो इन प्रकार्यों को पूरा करने में सहयोग देते हैं । इस मान्यता को सरल रूप से प्रस्तुत करते हए मर्टन ने कहा कि जिस प्रकार समान प्रकृति के तत्त्वों के एक – दूसरे से भिन्न प्रकृति वाले अनेक प्रकार्य होते हैं , उसी प्रकार एक ही तरह का प्रकार्य अनेक इकाइयों से भी सम्बन्धित हो सकता है । इसका तात्पर्य है कि मर्टन ने प्रकार्य की अपरिहार्ययता को इस के संशो धित रूप में प्रकार्यात्मक विकल्प ( Functional Alternatives ) के रूप में प्रस्तुत किया । पूर्ण विवेचन से स्पष्ट होता है कि मर्टन का प्रकार्यवाद मानव शास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत पहले के प्रकार्यवाद से काफी भिन्न है ।
मर्टन ने जहाँ एक ओर यह स्वीकार किया कि सामाजिक संरचना के विभिन्न तत्वों की क्रमबद्धता उसके प्रकार्यों के कारण ही राम्भव होती है , वहीं दूसरी ओर उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि संस्कृति का कोई भी तत्त्व सदैव प्रकार्यवाद नहीं होता बल्कि वह कभी – कभी अकार्यात्मक भी हो सकता है । दूसरी बात यह है कि किसी विशेष अवधि या परि स्थिति में संस्कृति का कोई तत्त्व प्रकार्य करेगा अथवा अकार्य , यह इस बात पर निर्भर है कि उस तत्त्व को संस्कृति किस रूप में प्रभावित कर रही है । विभिन्न तत्वों के प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि किसी विशेष तत्त्व के प्रकार्य प्रत्यक्ष हैं अथवा निहित ( Latent ) । ऐसा करने से ही प्रकार्य की वास्तविक प्रकृति तथा उनके सामाजिक प्रभावों को समझा जा सकता है । प्रकार्या त्मक विश्लेषण में मर्टन ने अनेक ऐसी स्थितियों की भी चर्चा की जिसमें किसी सामाजिक इकाई के कार्य से न तो सामाजिक व्यवस्था में अनुकूलन बढ़ता है और न ही उससे कोई विघटनकारी दशा उत्पन्न होती है । ऐसे कार्य को मर्टन ने नकार्य ( Non – function ) का नाम दिया । इस तरह मर्टन ने प्रकार्यवाद को सामाजिक शों के विश्लेषण की एक पद्धति के रूप में ही स्वीकार किया है । उन्होंने इस पद्धति की सीमाओं और इसे उपयोग में लाने की सावधानियों का उल्लेख करते हुए यह बतलाया कि प्रकार्यवाद का सम्बन्ध किसी आदर्श दशा को शात करने से न होकर एक प्रत्यक्षवादी शान से है ।