राधाकमल मुखर्जी

 राधाकमल मुखर्जी

पिछली शताब्दी के समाज सुधारक तथा समाज चिन्तकों की एक कतार मौजूद थी , जिसने बाद में भारतीय समाजशास्त्र की उत्पत्ति और उसके विस्तार में अपना योगदान दिया था । उनमें कुछ धार्मिक आधार के लोग भी थे । राजा राममोहन राय , केशवचन्द्र सेन , ईश्वर चन्द्र विद्या सागर , रामकृष्ण गोखले परमहंस . विवेकानन्द , दादा भाई नौरोजी , बाल गंगाधर तिलक , गोपाल आदि अनेक समाज सुधारक विचारक – धार्मिक दार्शनिकों के संबंध में यह कहा जा सकता है कि उनके पास समाजशास्त्रीय दृष्टि थी ।

पर समाजशास्त्र एक विषय और ज्ञान की दृष्टि से कुछ और ही तरीके से विकसित हुआ । यह दृष्टि वैज्ञानिक प्रत्यक्षवाद , उसके सिद्धान्त , पद्धति तथा तत्संबंधी विश्लेषण पर केन्द्रित था । उसी समय बहुत से पादरी तथा प्रशासन अधिकारी उन आंकड़ों का संग्रहण कर रहे थे , जिनकी प्रकृति समाजशास्त्रीय थी और जिनका प्रयोग समाजशास्त्र में अध्ययनों के लिए किया गया था । प्रो . योगेन्द्र सिंह के अनुसार समाजशास्त्र के प्रारंभ में न केवल औपनिवेशिकता – साथ ही साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलन का भी प्रभाव था ।

1950 से पहले का समाजशास्त्र कई स्तरों पर समन्वय का समाजशास्त्र था । यह विचित्र संयोग था कि समाजशास्त्र और मानवशास्त्र का विकास दो ऐसे बड़े शहरों मुंबई और कोलकता में हुआ था । जो उपनिवेशवादी शासन के बड़े केन्द्र थे । बाद में लखनऊ भी समाजशास्त्र का बड़ा केन्द्र बना । 1950 से पहले जिन समाजशास्त्रियों का योगदान महत्वपूर्ण माना जाता है । उनमें बी.एन.सील . , जी.एस धुरये , बी.के , सरकार , राधाकमल मुकर्जी , डी.पी. मुकर्जी और के पी . चट्टोपाध्याय का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । ये सभी समाजशास्त्री भारतीय समाजशास्त्र के प्रारंभिक विद्वान थे तथा भारत में समाजशास्त्र की प्रारंभिक दिशाओं के निर्धारक भी थे ।

1919 में बम्बई विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग का शुभारम्भ हुआ । यह विभाग पेट्रिक गेडिस के संरक्षण में प्रारम्भ किया गया था । 1921 में डॉ . राधाकमल मुखर्जी की अध्यक्षता में लखनऊ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के अधीन समाजशास्त्र के अध्ययन व शोध का कार्य आरम्भ किया गया । डॉ . मुखर्जी के अथक परिश्रम , साधना व चिन्तन ने लखनऊ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग को विकसित और पल्लवित होने में महत्वपूर्ण भूमिका अभिनीत की । लखनऊ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग का नाम शीघ्र ही विश्व में जाना जाने लगा । यह मात्र डॉ . मुखर्जी के योगदान का ही परिणाम था ।

आरम्भ में डॉ . मुखर्जी एक अर्थशास्त्री के रूप में जाने और माने जाते थे । उन्होंने अर्थशास्त्र की समाजशास्त्रीय व्याख्या प्रस्तुत की । उन्होंने अनेक दृष्टिकोण से यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि आर्थिक सिद्धान्तों की पृष्ठभूमि में भौतिक व मनोवैज्ञानिक सिद्धांत रहते हैं । यहां वे संस्थात्मक व्यवस्था की प्रकार्यात्मकता से जुड़े प्रतीत होते हैं ।

आरम्भ में मुखर्जी ऐसे अर्थशास्त्री थे जिन्होंने जनसंख्या वृद्धि की समाजशास्त्रीय विवेचना व विश्लेषण प्रस्तुत करने का श्रेय प्राप्त किया । इसी तरह सैद्धान्तिक क्षेत्र में , प्रयोगात्मक तर्कवादी और पारभौतिक विरोधी पाश्चात्य दृष्टिकोण की आपने कटु आलोचना की । अपने तथ्यों को प्रमाणित करने हेतु उन्होंने जहां पाश्चात्य विद्वानों के उदाहरण प्रस्तुत किये वहीं पूर्वी और पश्चिमी नीतियों व मूल्यों का समन्वय करने का यथासम्भव प्रयास किया । इसी प्रकार उन्होंने मानवीय समस्याओं को अन्तर्शास्त्रीय दृष्टि से परखने और विश्लेषण का प्रयास किया है ।

आपका मत है , “ आर्थिक , राजनीतिक और वैधानिक प्रजातंत्रात्मक राज्यक्रम की स्थापना तभी सम्भव है जब विभिन्न सामाजिक विज्ञान खंडात्मक रूप से नहीं वरन् एकजुट होकर मानव – मूल्यों के दर्शन समुच्चय के अंगों के ही रूप में समग्र – मानव और संस्कृति के सम्पूर्ण मूल्यों की खोज और विवेचन करें । ” डॉ . मुखर्जी के व्यक्तित्व की यह विशेषता थी कि जिस विषय को भी उन्होंने स्पर्श किया उसकी तह तक जाने का यथासम्भव प्रयास किया ।

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मुकर्जी ने समाजशास्त्र के क्षेत्र में ग्रामीण अर्थशास्त्र , श्रमिक अर्थशास्त्र , सामाजिक परिस्थितिशास्त्र , सामाजिक मनोविज्ञान तथा सामाजिक दर्शनशास्त्र को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जोकि उपेक्षित स्थिति में थे । मुकर्जी ने वार्ड , गिडिंग्स , कॉम्ट , स्पेन्सर , बेगहॉट , रिकाडों , मिल , हॉबहाउस तथा मार्शल इत्यादि विद्वानों की कृतियों में काफी रुचि ली । इसीलिए उनके चिन्तन में पूर्व व पश्चिम का एक अद्भुत मिश्रण मिलता है जो उनके द्वारा मानवीय मूल्यों की व्याख्या में देखा जा सकता है । मुकर्जी का चिन्तन पश्चिम तथा पूर्व के विचारों का एक अद्भुत मिश्रण है । अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में वह ‘ समाज के महाविज्ञान ‘ ( Master science of society ) के निर्माण में लगे रहे तथा इसी विषय पर उनका उद्घाटन भाषण उनकी 1968 ई ० में मृत्यु के एक सप्ताह पश्चात् आठवें अखिल भारतीय समाजशास्त्रीय सम्मेलन में पढ़ा गया । समाजशास्त्र में उनके योगदान में ‘ मानवीय पारिस्थितिकीय सिद्धान्त ‘ , ‘ समाजशास्त्रीय सिद्धान्त ‘ तथा ‘ मूल्यों एवं प्रतीकों के सिद्धान्त ‘ का प्रमुख स्थान है तथा प्रत्येक सिद्धान्त अपने में पूर्ण है । मुकर्जी ने अपने जीवनकाल में अनेक पुस्तकें लिखीं तथा साथ ही अनेक प्रख्यात देशी व विदेशी पत्रिकाओं में अनेक शोध लेख लिखे । अर्थशास्त्र , परिस्थितिशास्त्र , प्रादेशिक समाजशास्त्र , समाजशास्त्र , दर्शनशास्त्र , मनोविज्ञान , संस्कृति , सभ्यता , मानव – उद्विकास , कला , धर्म , आचार , रहस्यवाद , प्रतीकात्मक समाजशास्त्र , मूल्य , मानवता आदि विभिन्न विषयों पर मुकर्जी की बौद्धिक पकड़ उनकी कृतियों में स्पष्ट देखी जा सकती है ।

 

उनकी प्रमुख पुस्तकें 

A History of Indian Civilization ( 1956 ) :

The Culture and Art of India ( 1959 ) ;

The Philosophy of Social Science ( 1960 ) ;

The Philosophy of Personality ( 1963 ) ;

Social Structure of Values ( 1949 ) :

The Dimension of Human Evolution ( 1963 ) ;

The Destiny of Civilization ( 1964 ) ;

The Dimensions of Values ( 1964 ) :

The Foundations of Indian Economics ( 1916 ) ;

The Principles of Comparative Economics ( 1922 ) ;

Democracies of the East ( 1923 ) ;

Civics ( 1926 )

Regional Sociology ( 1926 ) ,

Mind in Society : Introduction to Social Psychology ( 1928 ) ;

The Theory and Art of Mysticism ( 1937 ) :

Man and His Habitation ( 1940 ) .

Social Ecology ( 1945 ) :

The Social Function of Art ( 1948 ) :

The Indian Scheme of Life ( 1949 ) ,

The Dynamics of Morals ( 1951 ) ;

Borderlands of Economics ( 1952 ) :

The Horizon of Marriage ( 1956 ) :

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राधाकमल मुकर्जी की रचनाओं का प्रमुख उद्देश्य विभिन्न समाज वैज्ञानिकों के बीच खाइयों को पाटना था । वे विशेष रूप से अर्थशास्त्र का अन्तर्राष्ट्रीय तथा समाजशास्त्र को जोड़ना चाहते थे । उनका अर्थशास्त्र सिद्धान्त इसी सोच का परिणाम था जिसमें उन्होंने भविष्य के लिए कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाया था । प्रो . मुकर्जी का योगदान भारतीय समाज के आनुभाविक अध्ययनों में भी था । ग्रामीण समस्याओं के संबंध में उनकी रचना ‘ ‘ लैंड प्राबल्म्स इन इंडिया महत्वपूर्ण रचना हैं । उनके सम्मान में प्रस्तुत पुस्तक में उन्हें विआधारीय विद्वान स्वीकार किया गया हैं । वे वैज्ञानिक आधार पर प्रशिक्षित थे . वे अपने विषय के बहुत बड़े ज्ञाता थे और मानवीय आपदाओं तथा चिन्ताओं के प्रति सजग थे । उन्होंने अपने अध्ययनों में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को स्वीकार किया था । मुकर्जी का मानना था कि आज का जो चित्र है उसमें समाज विज्ञान बंटे हुए हैं , प्रत्येक सामाजिक विज्ञान अपने आप में स्वायत्त घोषित हैं , इनमें पारस्परिक अन्तक्रिया हों और अंतसामाजिक विज्ञानों के अध्ययनों को प्रोत्साहन मिले । उन्होंने लिखा है कि भारतीय अर्थशास्त्र में बहुत कम है । आवश्यकता इस बात की है कि पारस्परिक अन्तक्रिया जो ब्रिटिश अर्थशास्त्र पंरपरा पर आधारित है , भारतीय परंपरा जैसे जाति तथा स्थानीय व्यापारिक प्रतिमानों , दस्तकारियों और बाजारों के परिदृश्यों का कोई ख्याल नहीं रखा गया । इन सामाजिक परिप्रेक्ष्यों को समझे बिना हम उन आर्थिक संरचनाओं को नहीं समझ सकते , जो इस देश की विशेषता है । अर्थशास्त्र का यह प्रारूप नगरीय – औद्योगिक प्रणाली का है । प्रो . राधाकमल मुकर्जी के कुछ प्रमुख विचारों की चर्चा आगे के पृष्ठों पर की गई है ।

राधाकमल मुकर्जी अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र दोनों में प्रशिक्षित थे । भारतीय समाज को समझने के लिए उनका विश्वास था कि अर्थव्यवस्था को समझने के लिए सामाजिक अवस्था को समझने की और उसके पारस्परिक समन्वयित अध्ययन की आवश्यकता है । भारत जैसे देश में , जहां बहुत से आर्थिक क्रियाकलाप जाति तथा आदिवासी समूहो की अपनी पारम्परिक स्थितियों में होते है । अतः अर्थशास्त्र का बाजार प्रारूप सामाजिक संदर्भ के लिये प्रांसगिके है । इन परंपराओं ने अपनी स्वयं की आर्थिक संरचानाएँ भी तैयार की है । उनका मान्यता थी कि भारत में जातियां , आढ़तिये तथा दस्तकारी के समूह समाज में गैर प्रतियोगी आधार पर काम करते हैं । कृषि तथा दस्तकारी उत्पादन में पारस्परिक आधुनिक जैसी प्रतियोगिताएँ नहीं हैं । आर्थिक विनिमय भी हिन्दू मानकीय आधार पर होते हैं । दस्तकारों और किसानों को अपना बहुत सा उत्पादन हिन्दू सामाजिक अवस्था के आधार पर संचालित करना पड़ता है । वर्ण व्यवस्था के अनुसार हिन्दू मान्यताओं में पारस्परिक व्यावसायिक मान्यताओं पर अधिक जोर है । इसलिए यदि ग्रामीण आर्थिक संरचना को हमें समझना है तो स्थानीय या सार्वभौमिक सामाजिक नियमों के अनुसार समझना पड़ेगा । मात्र भौतिक अथवा जैविक आवश्यकताएँ ही आर्थिक क्रिया कलाप पैदा नहीं करती । समाज के सदस्यों के बीच मूल अंतर्निहित होते हैं और सामूहिक स्वीकृति के साथ समाज के सदस्य निर्धारित आचरणों को करने के लिए बाध्य हैं । उदाहरण के लिए कितना ही भूखा हो , पर कोई भी हिन्दू गौमांस नहीं खायेगा और इसी प्रकार कोई मुस्लिम या यहूदी सूअर का मांस नहीं खायेगा । इसी प्रकार बहुत सी आवश्यकताएं और उनका विक्रय तथा विनिमय सामाजिक आवश्यकताओं तथा सामाजिक प्रचलनों के साथ जुड़ा हुआ है । यह कहना बड़ा कठिन है कि आर्थिक व्यवहार सामूहिक सामाजिक व्यवहार से भिन्न है । राधाकमल मुकर्जी का यह स्पष्ट मत था कि भारत में आर्थिक संरचना के बहुत से अंश सामाजिक हैं तथा अर्थव्यवस्था या आर्थिक व्यवहार के बहुत से पक्ष सामाजिक व्यवस्था के साथ जुड़े हुए हैं ।

 

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सामाजिक पारिस्थितिकी एक और विषय था , जिस पर राधाकमल मुकर्जी ने अपना योगदान दिया , उनका विचार था कि सामाजिक परिस्थितिक एक जटिल रचना है , जिसमें कई सामाजिक विज्ञान एक दूसरे के साथ जुड़ते हैं । भू – वैज्ञानिक , भूगोलवेत्ता तथा जीवशास्त्री एक साथ मिल कर पारिस्थितिकी क्षेत्र का निर्माण करते हैं । आर्थिक , सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियाँ इन पारिस्थितिकी क्षेत्रों को सांचे में ढालती हैं । उदाहरण के लिए बहुत से परिस्थितिकी क्षेत्रों में मानवीय या कृषक बसाव राजनीतिक विजय के कारण हुआ । प्रो . मुकर्जी का विचार था कि पारिस्थिकी में मानव की बसावट कोई यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है । अपनी पारिस्थितिकी से हटाकर नई बसावट प्राय : सारे सामाजिक संतुलन को बिगाड़ म देती है । उन्होंने भारत में बड़े बांधों के निर्माण के कारण हटाए लोगों की चर्चा की । भारत के वि अधिकांश भागों में सामाजिक जीवन अतनिर्भरता का है । बहुत सारी प्रथाएँ तथा सामाजिक प्रचलन इस अन्तनिर्भरता को मजबूत करते हैं । विकास के नाम पर यदि किसी बसावट को उखाड़ दिया जाये तो सामाजिक संरचना का यह भाग नष्ट हो जाता है । इसीलिए आवश्यक है कि सामाजिक परिस्थितिकी को बनाये रखने के लिए पहले से ही योजना बना ली जाय । उनका विचार था कि सामाजिक परिस्थितिकी के असंतुलन की अवस्था में अंतनिर्भरता का एक विकल्प सहकारिता हो सकता है । नगरीय – औदयोगिक अर्थव्यवस्था में क्रमबद्धता तथा व्यवस्थित रुपान्तरण के लिए एक सामाजिक परिपेक्ष्य आवश्यक है । सामाजिक पारिस्थितिकी की अपनी अवधारणा में मुकर्जी ने पाश्चात्य देशों की अवधारणा से अपने आपको अलग कर लिया । समाजशास्त्र की शिकागो विचारधारा के समाजशास्त्रियों जैसे पार्क एण्ड बर्गीज , लुईविर्थ तथा गिडिंग आदि ने सामाजिक समस्याओं और सामाजिक विघटन के संदर्भ में सामाजिक परिस्थितिकी की चर्चा की थी । उन्होंने मानवीय पारिस्थितिकी के अध्ययन पर जोर दिया था । इसी विचारधारा ने सामाजिक यांत्रिकी की चर्चा भी की । इस यांत्रिकी का अर्थ था गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों की नई सादर , नौकरी के नये अक्सर इत्यादि शामिल थे ।

मुकर्जी ने भारत में तत्कालीन समस्याओं को हल करने के साथ – साथ मूल्य आधारित नये भारतीय समाज की संरचना के निर्माण का आव्हान भी किया था । ऐसी सरचना का निर्माण भारतीय समाज के लिए अधिक उपयुक्त होगा । सामाजिक पारिस्थितिकी के विश्लेषण क्रम में ही मुकर्जी ने क्षेत्रीय समाजशास्त्र की अवधारणा को भी रखा । यदि सभी क्षेत्रों का समान रूप से अन्तर्मुखी विकास हो , तो सम्पूर्ण भारत का विकास बहुत तेजी से हो जाता है , अन्यथा सम्पूर्ण भारतीय सामाजिक व्यवस्था में असंतुलन स्थापित हो , जायेगा । प्रत्येक क्षेत्र में अलग – अलग नृजातीय जनसंख्या का बसाव है । अतः आर्थिक विकास तथा क्षेत्रीय जनसंख्या का पारस्परिक संतुलन बनाना झेगा : एक प्रकार से मुकर्जी का विचार अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक व्यवस्था के बीच संतुलनालक संबंध जोड़ना था ।

भारत के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी – अपनी लोक कलाएँ है । कातना , बुनना , रंगाई , छपाई तथा वस्त्रों का निर्माण आधुनिकता के संदर्भ में समाप्त हो सकता है । इन लोककलाओं को आधुनिक सहकारी समाज में संयोजित किया जा सकता है । सामाजिक पारिस्थितिकी का प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने के लिए प्रो . मुकर्जी ने बन संरक्षण पर भी जोर दिया । बाढ़ और सूखे के कारण अपार जन धन की हानि होती है इसी को रोकने के लिए और प्राकृतिक संतुलन को बनाने के लिए बन सुरक्षा अत्यन्त आवश्यक है ।

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प्रो . मुकर्जी ने भारतीय कलाओं , इतिहास , संस्कृति तथा वास्तुकला पर भी विस्तार से लिखा । उन्होंने लिखा कि एशिया की कला सामूहिक विकासोन्मुखी थी । एशिया की कला लाखों लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत तथा धार्मिक और नैतिक परिवर्तनों के लिए जिम्मेदार थी । पूर्वी संस्कृति में जो भी कुछ कलाएँ हैं वे सामूहिक अभिव्यक्तियाँ हैं और इन्हीं अभिव्यक्तियों ने भारत जैसे देश को सांस्कृतिक निरन्तरता प्रदान की है । दूसरी और पश्चिमी जगत में कलाओं का संबंध व्यक्तिगत आधारों से जुड़ा रहा है । पश्चिमी जगत में कला सामूहिक या सामाजिक अभिव्यक्ति नहीं थी , इसलिए कला पाश्चात्य जगत में कोई सामाजिक एकता अथवा आध्यात्मिक आन्दोलन भी पैदा नहीं कर पाई । भारत में कला का परिवेश सामाजिक तथा नैतिक है ।

मंदिरों , स्कूलों , विहारों में इस कला के धार्मिक , नैतिक तथा सामाजिक मूल्यों के पक्षों को देखा जा सकता है । मुकर्जी मानते थे कि भारतीय कला का संबंध धर्म से था । इतिहास के अपने अध्ययन में उन्होंने हिन्दू जैन , बौद्ध आदि धर्मों का उल्लेख किया और उनसे संबंधित कला का विश्लेषण किया । अन्य देशों में भारतीय कला के प्रभावों की भी उन्होंने चर्चा की । भारत से लगे हुए कई पूर्वी देशों में इस छाप को स्पष्टत : देखा जा सकता है । उन्होंने रामायण के मंचन के उन स्वरूपों का भी उल्लेख किया जो इन देशों में दिखाई देता है । नृजातीय विभिन्नताओं के होते हुए भी यह सब कुछ लोगों को एक सूत्र में बांधने का प्रयास करता है । भारतीय समाज में जो धर्म पनपे , वे बहुत लचीले थे और किसी भी प्रकार की विभिन्नता को स्वीकार कर सकते थे । प्रो . मुकर्जी ने भारतीय संस्कृति को न केवल स्थायी माना , साथ ही संस्कृति की सामंजस्यता पर भी प्रकाश डाला । किसी संस्कृति की रचना में धर्म की क्या भूमिका हो सकती है , इसका विश्लेषण भी प्रो . मुकर्जी ने किया ।

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अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘ भारत की संस्कृति और कला ‘ में उन्होंने सभ्यता , संस्कृति , साहित्य , धर्म और कला के विकास के विभिन्न चरणों को प्रस्तुत किया । वे कहते हैं कि भारतीय सभ्यता का मानव इतिहास में तीन कारणों से अधिक महत्व है

पहला कारण , लगभग पांच हजार वर्ष तक इस सभ्यता की अद्भुत अविच्छिन्नता इसकी ओजस्विता को प्रमाणित करती है । इसकी जड़ें इसकी मानवीय भावना और मूल्यों व सामाजिक विधान की विशिष्ट व्यवस्था में समाई हुई हैं , और वे मानवजाति की शक्ति और स्थायित्व के असंख्य स्रोतों पर प्रकाश डालती हैं ।

दूसरे भारतीय संस्कृति ने अनेक शताब्दियों में एशियाई सभ्यता की एकता स्थापित की है । तीसरे मानव जीवन और समाज की समस्याओं पर , सभ्यता के अरुणोदय से भारत में जो सशक्त चिन्तन चला उससे एक ऐसा मानसिक प्रतिमान उत्पन्न व परिपुष्ट हो गया जो पाश्चात्य तथा पूर्वी एशियाई प्रतिमान से कुछ भिन्न है । इस प्रतिमान में शांति और सामंजस्य की खोज के लिए अगाध निष्ठा का प्रमुख स्थान है , जिसमें युद्ध क्लान्त जगत रुचि लिए बिना नहीं रह सकता । ” भारतीय समाज का विश्लेषण करने पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस देश में राजनीति , राज्य , युद्ध को इतना महत्व नहीं दिया गया है जितना धर्म , अध्यात्म , कला को । इन तत्वों ने जहां जनमानस को प्रभावित किया है वहीं जनआन्दोलन को भी जन्म दिया । भारतीय समाज परम्पराओं से अधिक प्रभावित व शासित हुआ । इसने विभिन्न धर्मों के मध्य समन्वय स्थापित कर शांति की स्थापना भी की है । मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया – इन्हीं के द्वारा अनेक शताब्दियों तक एक आत्मिक समाज के रूप में संगठित रहा है । ” भले ही विदेशियों ने भारत को धर्मान्धता का देश कहा किन्तु डॉ . मुखर्जी के विचार से यह पुराणों , अध्यात्म और सौन्दर्यबोध का देश है । पुराणों में विवेचित 33 करोड़ देवी – देवता भारत – भूमि की अलौकिक , आध्यात्मिक और सौन्दर्यात्मक विशेषताओं की मूलतः व्याख्या है । भारतीय संस्कृति की विशेषता बताते हुए वे कहते हैं , ” भारतीय संस्कृति में जो लचक और उदारता मिलती है , उसे देश के भीतर व बाहर , विदेशी व पिछड़ी नस्लों और जातियों को आत्मसात करने में जो इतनी अधिक सफलता मिली , उसका कारण यह है कि भारत में धर्म , शास्त्रीय मतों और रूढ़ियों पर नहीं रहा बल्कि विशुद्ध और आध्यात्मिक परम्पराओं पर रहा है , और उन्हीं से उसका विश्व – विज्ञान तथा सामाजिक मूल्यों और संस्थाओं की व्यवस्था विकसित हुई है । उपनिषदों ने दया , संयम और दान के गुणों पर और बुद्ध ने संयम के अष्टांत्रिक मार्ग पर जोर दिया , और तबसे धर्म के भारतीय विधान में विनम्रता , करुणा और अहिंसा पर जोर रहा है । भारत ने इन गुणों द्वारा बहुत – सी जातियों को , बिना तलवार और बन्दूक के , विनम्र और सभ्य बना दिया ।

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इस पुस्तक में जहां सिंधु – संस्कृति से लेकर जैन , बौद्ध धर्म की व्याख्या की गई है , वहीं मुगल संस्कृति , कला व हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान पर भी गंभीर रूप से विवेचना की गई है । अपने निष्कर्ष में डॉ . मुखर्जी कहते हैं , ” भारतीय इतिहास के प्रति केवल राजनीतिक नहीं बल्कि अखंडता का और सांस्कृतिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए । ‘ ” ‘ भारतीय सभ्यता का इतिहास ‘ उनकी कम महत्वपूर्ण पुस्तक नहीं है । इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने यह दिखाने का प्रयास किया है कि भारतीय मिथक , धर्म और कला का प्रतिमान विभिन्न युगों में किस प्रकार का रहा है । उसका विकास किस रूप में हुआ है और वह किस रूप में भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है ।

व्यक्ति एक समय में एक साथ ही अपने साथी व्यक्ति से एकात्मकता खोजता है और दूसरी ओर उसी साथी व्यक्ति से स्वयं को पृथक रूप में खोजता है । वह एक समय में एक अंग भी है और एक समग्र भी है , वह व्यक्ति भी है और समष्टि भी है । ( Man simultaneously identifies himself with fellowman and differentiates from him . He is atonce a part and a whole , an individual and a ‘ universe . ) ” वह एक साथ इन्द्रियात्मक और अनुभवात्मक है , विचारात्मक और आत्मज्ञानी है , अभिनेता भी है और दर्शक भी है । वह आत्मसम्पृक्त भी है और असम्पृक्त भी । वह तात्कालिक और अतार्किक है और निरावधि और आत्म – सत्य है । ” ( He is simultaneously both the sensory and experiencing and the subjective and self understanding being , the actor , the spectator . He alternates between self – involvement and self – detachment between the immediate and irrational and timeless and true self . )

डॉ . मुखर्जी का यह विचार है कि मनुष्य द्वन्द्वमय चिन्तन करता है और द्वन्द्व में रहता भी है । समस्त सामाजिक सम्बंधों व पृष्ठभूमि में जीवन – मूल्य कहीं परस्पर विरोधी हैं तो कहीं उनमें एकरूपता है । किन्तु व्यक्ति इन द्वन्द्वात्मक प्रवृत्तियों की ओर सदैव सजग नहीं रहता और न उसका यह स्वभाव है । फिर भी प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था , संस्कृति , अपने प्रतिद्वन्द्वी का तीव्र विरोध करती है और उसे परास्त कर विजय प्राप्त करने की कामना रखती है । इसके लिए संघर्ष करने की अवधि में विरोधी दृष्टिकोण व आशय को भी आंशिक रूप से स्वीकार कर लेती है ।

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इसलिए मुखर्जी का यह विचार है , ” व्यक्ति मूल्य का सृजक और मूल्य को पूर्ण करने वाला प्राणी है । उसका यह विशेष लक्षण उसके व्यक्तित्व की संरचना और सामाजिक सम्बन्धों को प्रभावित करता है , विशेषतौर से समूहों और संस्थाओं को जो मूल्यों का अनुभव करने की अभिव्यक्ति अथवा साधन है , वह मात्र मूल्यों का उद्गमस्रोत ही नहीं है वरन् वह मूल्य – निर्धारण भी करता है जो कि समूहों और संस्थाओं की सामान्य कार्यविधि में अन्तर , वैयक्तिक लक्ष्यों , सम्बन्धों और व्यवहारों में समाहित है । ” ( Man is a value – creating and value fulfilling animal and this distinctive characteristic influences the structure of personality and social relationships , more particularly groups and institutions that are expressions of , and instruments for the realisation of values . He is not only the fountain of values , he also makes value – judgement embodied in all inter – personal goals , relations and behaviour in the normal functioning of groups and institutions . ) ) वे आधुनिक युग में परिवर्तित होते हुए मूल्यों के बारे में भी कहते हैं कि आधुनिक युग में शक्तिशाली राष्ट्रों व वर्गों द्वारा अपने मूलभूत मूल्यों को दूसरों पर थोपने के गम्भीर खतरों का अनुभव व्यक्ति और संस्कृति को हो चुका है । इसलिए अब आधुनिक युग मूल्यों के सर्वसामान्य समूह में सहभागी होकर एक विश्व , एक विश्व – समुदाय बनाने की इच्छा रखता है ।

( The modern age has experienced grave dangers to mar culture arising from powerful nations and classes imposing their fundamental valuations upon others . It now wants to build – up one world – one earth community through the sharing of common pool of values . )

मूल्य को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है , ” मूल्य मनुष्य के सामाजिक झुकाव और निर्देशन के तंत्र हैं , वे मानव समूहों और व्यक्तियों के द्वारा प्राकृतिक और सामाजिक संसार से सामंजस्य करने का उपकरण हैं । मूल्य के प्रतिमान हैं जो मनुष्य की विभिन्न आवश्यकताओं की व्यवस्थित पूर्ति में उसका मार्गदर्शन करते हैं , जो सामाजिक ‘ अस्तित्व की दृष्टि से सामूहिक जीवन के केन्द्रीय तत्व माने जाते हैं और जिनकी रक्षा के लिए समूह के सदस्य हर सम्भव त्याग करते हैं । मूल्य एक प्रकार से सामूहिक लक्ष्य होते हैं जिनके प्रति सदस्यों की स्वाभाविक आस्था होती है । “

वे मूल्यों को ‘ समाज द्वारा स्वीकृति प्राप्त आकांक्षायें और लक्ष्य ‘ कहते हैं । मूल्यों की विशेषताएं मूल्यों का महत्व बताते हुए उन्होंने लिखा है , ” सामाजिक विज्ञान के लिए मूल्यों का वही महत्व है जो भौतिकशास्त्र के लिए गति और गुरुत्वाकर्षण का और शरीर विज्ञान के लिए पाचन – क्रिया व रक्त – संचार का । किन्तु गति , गुरुत्वाकर्षण और रक्त – संचार को तो प्राकृतिक घटनाओं से पृथक करके नापा जा सकता है और एक निश्चित फार्मूले द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है किन्तु मूल्यों को जीवन , बुद्धि और समाज से पृथक नहीं किया जा सकता । “

डॉ . मुखर्जी ने मूल्य की निम्न विशेषताएं बताई हैं

  1. निरपेक्षता व सार्वभौमिकता – मूल्यों की अनेक विशेषताओं में से निरपेक्षता व सार्वभौमिकता भी एक है । मूल्य व्यक्ति के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़े हुए हैं । ये व्यक्ति की लक्ष्यपूर्ति में सहायक हैं । मूल्य ऐसे सशक्त साधन हैं जो व्यक्ति की क्रियाओं को निर्देशित करते हैं । आर्थिक क्षेत्र में मूल्य के आधार पर मनुष्य अपने आपको विभिन्न प्रकार के कार्यों पर व्यय करता है । सामाजिक जीवन में जो मूल्य प्रगति और सन्तुलन की ओर ले जाते हैं , उन्हीं के आधार पर सामाजिक प्रतिमानों , सम्बन्धी संस्थाओं आदि का जन्म और विकास होता है । डॉ . मुखर्जी सार्वभौमिक मूल्यों को स्वीकार करते हैं । समाजशास्त्र द्वारा सार्वभौमिक मूल्यों , आदर्शों और प्रतीकों का अध्ययन , व्याख्या और पोषण किए बिना भावी समाज का निर्माण नहीं हो सकता । “

  1. मूल्यों की अभिव्यक्ति प्रतीकों द्वारा – मूल्यों की प्रकृति प्रतीकात्मक है । सभी प्रकार के सम्बन्धों की व्याख्या प्रतीकों के माध्यम से होती है । विभिन्न चीजों को प्राप्त करने के लिए व्यक्तियों में जो प्रतिस्पर्धा होती है , वह प्रतीकात्मक होती है । मनुष्यों को विभिन्न आर्थिक – सामाजिक चीजों की जानकारी विभिन्न प्रकार के प्रतीकों द्वारा ही प्राप्त होती है । इस तरह प्रतीकों के माध्यम से मानवीय मूल्यों को समझा जा सकता है ।

  1. मूल्य गतिशील हैं – मूल्य समयानुसार परिवर्तित होते रहते हैं । मूल्य आर्थिक , सामाजिक व सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुसार सदैव बदलते रहते हैं । सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था की प्रकार्यात्मक निरन्तरता में मूल्य भी अन्य प्रकार्यात्मक अंगों व उप – अंगों के साथ जुड़े होते हैं । उनके प्राकार्यात्मक स्वरूप में परिवर्तन होने से मूल्य भी

बदल जाते हैं । डॉ . मुखर्जी के अनुसार , ” मूल्य पूर्णरूप से वैयक्तिक स्वार्थ पर आधारित हो सकते हैं । आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति का प्रयोगात्मक , संघर्षपूर्ण और आक्रामक प्रतिमान मूल्यों की स्पष्टता , संपूर्णता , शाश्वत और निरपेक्ष प्रकृति को स्वीकार नहीं करता । ” डॉ . मुखर्जी का कथन है , ” समाजशास्त्र द्वारा सार्वभौमिक मूल्यों , आदर्शों व प्रतीकों का अध्ययन , व्याख्या और पोषण किये बिना भावी समाज का निर्माण नहीं हो सकता । “

  1. मूल्य एवं आदर्श समूहों की प्रकृति व सम्बन्ध -समूह की सांस्कृतिक व्याख्या का प्रभाव मूल्यों पर पड़ता है । मूल्य जहां एक ओर सामाजिक व्यवहार का प्रतिमान बनाते हैं वहीं सांस्कृतिक एकता को भी स्थापित करते हैं । समस्त सामाजिक तथ्यों , सम्बन्धों और स्थितियों की महत्वपूर्ण विषयवस्तु दूसरे व्यक्तियों के मूल्य हैं जिनमें मनुष्य के स्वयं के मूल्य , संघर्ष व सहयोग की स्थिति में मिलते हैं । ( The most important content of social facts , relations and situations in the values of other persons with which one’s own come into conflict and co operation . ) ) इसके साथ ही मूल्य ऐसे भी होते हैं जो सार्वभौमिक रूप से सम्पूर्ण मानव – जाति पर लागू होते हैं और वे सामान्यत : सभी व्यक्तियों को मान्य होते हैं ।

  1. संस्कृति की एकता व स्थायित्व मूल्यों पर आधारित है – डॉ . मुखर्जी के अनुसार ‘ व्यक्तिगत आनन्द , व्यक्तिगत सामंजस्य एवं सामाजिक और संस्थागत अनुकूलन का एकीकरण करने वाला संगठन सूत्र मूल्यात्मकता की केन्द्रीय अवधारणा ही है । ” वास्तव में संस्थाओं और समूहों की निरन्तरता और अनुरूपता का अधार मूल्य है । विभिन्न प्रकार के मूल्यों व मानवीय व्यवहारों में परस्पर एकता के तत्व विद्यमान हैं जिन पर सामाजिक संगठन , व्यक्तित्व का संगठन आधारित है । मूल्यों की उत्पत्ति और विकास डॉ . मुखर्जी ने मूल्यों की व्याख्या करते समय इनकी उत्पत्ति और विकास की ओर भी ध्यान दिया है । मानव – मन जहां अपनी आवश्यकता पर विचार करता रहा है , वहीं पारस्परिक संबंधों में वृद्धि कैसे हो और उनमें सन्तुलन कैसे बनाये रखा जाय ? इस पर भी विचार करता है । मनुष्य परस्पर विचारों का आदान – प्रदान करता है । परस्पर सहयोग के बन्धनों से वह सदैव बंधा रहा है क्योंकि सामाजिक क्रिया अन्तर्सम्बंध को स्थापित कर व्यक्ति को सन्तुष्ट करती है । इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ही मूल्यों व उनसे जुड़े हुए अनेक प्रकार के प्रतीकों का प्रादुर्भाव होता है । इसलिए वे कहते हैं कि मूल्यों की उत्पत्ति और विकास सामूहिक सम्बन्धों की संरचना में होता है । इसीलिए जब भी संस्कृति में परिवर्तन होते हैं , नये मूल्यों का जन्म होता है ।

उन्होंने , ‘ मानव को खोज करने वाला और मूल्यों का निर्माण करने वाला प्राणी माना है । ‘ ( Man is the value seeking and value – creating being ) | ‘ मूल्य मानव की प्राणिशास्त्री प्रवृत्तियों , मूल प्रवृत्तियों , इच्छाओं और हितों में पाया जाता है किन्तु इसे तभी समझा जा सकता है जब इसे सामाजिक प्रकृति एवं प्रकरण का फल माना जाय । ‘ डा . मुखर्जी यह मानते हैं कि सामूहिक परिस्थिति मूल्यों की उत्पत्ति का मुख्य आधार है । मनुष्य जब सामाजिक जीवन में सक्रिय होता है तो वह अपने मन में आदर्शों व मैतिक तथ्यों के प्रति अधिक चेतनशील होता है । अस्तु सामूहिक अन्त : क्रिया के परिणामस्वरूप अनेक अनुभवों के आधार पर सामाजिक जीवन से जुड़ी अनेक चीजों का विकास होता है । इनसे प्राप्त अनुभव और समूह की प्रकार्यात्मक प्रक्रिया मूल्यों की भी रचना करती है ।

मुकर्जी ने मूल्यों को दो श्रेणियों—

( 1 ) साध्य – मूल्य ( intrinsic values ) , तथा ( 2 ) साधन मूल्य ( Instrumental values ) में विभाजित किया है । प्रथम मूल्य वे लक्ष्य व सन्तुष्टियाँ हैं जिन्हें मनुष्य या समाज जीवन व मस्तिष्क के विकास व विस्तार की प्रक्रिया में अपने लिए स्वीकार कर लेते हैं , जिनका व्यक्ति अपने व्यवहार में आन्तरीकरण कर लेता है और जो स्वयं साध्य होते हैं । दूसरे वे मूल्य हैं जो स्वयं साध्य – मूल्यों को उन्नत करने के लिए साधन के रूप में प्रयोग किए जाते हैं ।

प्रथम प्रकार के मूल्य अमूर्त व लोकातीत ( Transcendent ) होते हैं , जबकि द्वितीय विशिष्ट एवं अस्तित्वात्मक ( Existential ) होते हैं । उनके अनुसार प्रथम प्रकार के मूल्यों का सम्बन्ध समाज व व्यक्ति के जीवन के उच्चतम आदर्शों तथा मूल्यों से होता है ; जबकि द्वितीय मूल्यों का लौकिक लक्ष्यों की पूर्ति के साधन या उपकरण के रूप में प्रयोग किया जाता है । सामान्य रूप से मनुष्य का सम्बन्ध साध्य मूल्यों की अपेक्षा साधन मूल्यों से अधिक होता है और इसीलिए इनकी विवेचना सामाजिक विज्ञानों में अधिक की जाती है । सामाजिक मूल्य सार्वभौमिक नहीं होते अपितु परिस्थिति एवं क्षेत्रीय आधार पर विकसित होने के कारण इनमें सार्वभौमिकता का अभाव पाया जाता है । अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि यद्यपि मूल्य प्रत्येक समाज में पाए जाते हैं , फिर भी इनकी प्रकृति एवं क्षेत्र सभी जगह एक समान नहीं होते । उदाहरणार्थ – भारत में हिन्दू विवाह से सम्बन्धित मूल्य , मुस्लिम विवाह के मूल्यों अथवा पश्चिमी देशों में विवाह के मूल्यों से भिन्न हैं । उनके अनुसार मूल्य – सिद्धान्त सामाजिक संगठन एवं सामाजिक संरचना से सम्बन्धित हैं तथा इसीलिए इसमें स्थानीयता पाई जाती है ।

मूल्यों की उत्पत्ति

डॉ . मुखर्जी ने मूल्यों की उत्पत्ति के विभिन्न स्तर बताये हैं क्योंकि कोई भी विचार या आदर्श आरम्भ में मूल्य नहीं बनता बल्कि उसे मूल्य बनने की विभिन्न प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है । वे प्रक्रियाएं निम्न हैं

  1. लक्ष्य – मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताएं उसके जीवन के लक्ष्य निर्धारित करती हैं । ये लक्ष्य इन आवश्यकताओं की व्यवस्थित पूर्ति में तनाव और पारस्परिक संघर्ष को कम करने में सहायक हैं । लक्ष्यों में प्रतियोगिता होती रहती है ।

  1. आदर्श – प्रतियोगी लक्ष्यों में जो सर्वोत्तम होते हैं उनका प्राथमिकता के आधार पर चयन किया जाता है और यह अन्ततोगत्वा आदर्श बन जाते हैं । अन्य लक्ष्यों की तरह आदर्श में भी पूर्ण स्थायित्व , व्यवस्था और संगठन नहीं होता है ।

  1. मान्यतायें – जो आदर्श समय के साथ स्थायी हो जाते हैं और समूह अपने अस्तित्व और कल्याण के लिए आवश्यक बन जाते हैं , उन्हें मान्यताओं का रूप दे दिया जाता है । इस सम्बन्ध में डॉ . मुखर्जी ने कहा है , ” मान्यतायें आत्मानुभूति के लिए मनुष्यों के प्रयत्नों व आकांक्षाओं का मूर्तिमान स्वरूप हैं , जिन्हें उसका जीवन एवं उसका समाज प्रस्तुत करते हैं । “

  1. मूल्य – ये मान्यताएं जब मनुष्य की चेतना में स्थायित्व प्राप्त कर लेती हैं और उसमें प्रविष्ट हो जाती हैं तब यह मूल्य बन जाते हैं । मूल्यों का संस्तरण डॉ . मुखर्जी ने मूल्यों की उत्पत्ति और विकास का आधार सामाजिक अन्त : क्रिया और सामाजिक संरचना को माना है । सामाजिक जीवन में जिन स्तरों अथवा सामूहिक एकीकरण की जिन अवस्थाओं में वह भागीदार होता है उनके प्रत्येक स्तर पर भिन्न – भिन्न मूल्यों की उत्पत्ति होती है । इन स्तरों के आधार पर मूल्यों के संस्तरण का निर्माण होता है ।

मूल्यों का संस्तरण चार प्रकार की सामाजिक – व्यवस्था में देखा जा सकता है । ये निम्न हैं

  1. भीड़ – भीड़ में नैतिक भावनाओं की अमानवीय अभिव्यक्ति को देखा जा सकता है । भीड़ में सामान्यतः किसी त्रुटि या सामाजिक अवांछित कार्य को सुधारने का वातावरण प्रदर्शित होता है । ऐसे अवसर पर नैतिकता से सम्बन्धित मूल्यों का जन्म होता है और अपने स्वार्थों के अनुरूप समूहों में भाग लेने लगता है । इन विभिन्न समूहों की विशेषता है कि इनका एकीकरण का आधार स्वार्थ होता है । भीड़ में ईमानदारी , संघर्ष , प्रतिशोध आदि मूल्यों का प्रादुर्भाव होता है ।

  1. स्वार्थ – समूह – स्वार्थ समूह में आदान – प्रदान , एकता , उचित क्या है ? आदि नैतिक सिद्धान्त को देखा जा सकता है । इसमें होते हुए भी वहित का संघर्ष निरन्तर चलता

। आर्थिक – धार्मिक समूह इसके उदाहरण हैं । इस प्रकार के समूहों में प्राथमिक मूल्यों की उत्पत्ति होती है ।

  1. समाज – समाज में समानता व न्याय की अभिव्यक्ति होती है । इसके सदस्य सामाजिक जीवन में समानता व न्याय को बनाये रखने के लिये आवश्यक कुछ मूल्यों की अभिव्यक्ति करते हैं । वास्तव में हित समूह कालान्तर में समाज या समुदाय में परिणित ही जाते हैं ।

  1. जन समुदाय – जनसमुदाय एक श्रेष्ठ नैतिक – सामाजिक समूह है । इस स्तर पर जब भी मानव पहुंचता है , तब अपनी भूख , प्यास एवं आवश्यकताओं की पूर्ति करके बन्धुत्व के आध्यात्मिक मूल्य जैसे प्रेम , समानता , एकता , सामाजिक उत्तरदायित्व आदि को विकसित करता है । मूल्य की यह वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति आत्म – प्रेरित , स्वार्थी एवं अहंवादी प्रवृत्ति से हटकर पदार्थवादी , सार्वभौमिक मानव के नवनिर्माण का आधार बनता है । उन्हीं के शब्दों में , ” प्रगति एवं नैतिकता का सांसारिक दृष्टिकोण , जिसमें सामाजिक उत्तरदायित्व , एकता व सहयोग आधार होते हैं , ही भविष्य के संसार के पुनर्निर्माण के निश्चित नैतिक आधार प्रदान कर सकते हैं । “

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अपमूल्यों की अवधारणा ( Concept of Disvalues )

डॉ . मुखर्जी ने न केवल मूल्यों पर विचार किया है बल्कि अपमूल्यों पर भी अपने विचार व्यक्त किए हैं । आपका मत है कि समाज में मूल्य व अपमूल्य दोनों ही विद्यमान होते हैं । अपमूल्य से उनका अर्थ सामाजिक मान्यताओं की उपेक्षा करना है । सामाजिक जीवन में जब बुराइयां उत्पन्न होने लगती हैं तब अपमूल्यों की स्थापना होने लगती है । उदाहरण के लिए स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय जीवन के आदर्शों में शिथिलता आ गयी और इसी के परिणामस्वरूप मूल्यों में शिथिलता उत्पन्न होने लगी और आदर्शों का अपमूल्य होने लगा । सत्य , अहिंसा , प्रेम , त्याग व भाईचारे की भावना के स्थान पर असत्य , हिंसा , द्वेष व विघटन की भावना ने अपना स्थान बना लिया । इस तरह निर्धारित मूल्यों को महत्व न देने के कारण अपमूल्यों ने अपनी महत्ता बढ़ा ली । अपमूल्यों की उत्पत्ति भी सामाजिक जीवन में व्याप्त दोषों और गतिरोधों के फलस्वरूप होती है । मनुष्य की मुख्य तीन आवश्यकताएं हैं जिनकी पूर्ति सन्तुलित रूप में होना आवश्यक है

( 1 ) उसकी शारीरिक और जीवनशास्त्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति ।

( 2 ) उसकी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति व ,

( 3 ) उसकी आदर्शात्मक अथवा मानसिक अथवा आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति ।

जब इन तीनों प्रकार की मानवीय सन्तुष्टियों में पारस्परिक सन्तुलन बिगड़ जाता है तो अपमूल्यों का जन्म होता है । डॉ . मुखर्जी अपमूल्यों के निराकरण के लिए भी प्रयत्नशील हैं । अपमूल्य दो तरीके से सुधारे जा सकते हैं – प्रथम सुधारात्मक तथा द्वितीय रचनात्मका विचलित व्यवहार वाले व्यक्तियों में सामाजिक एकीकरण करके अपमूल्यों को समाप्त किया जाता है जैस  यदि अपराधी को पुनः सामाजिक जीवन व्यतीत करने का समुचित अवसर दिया जाय तो वह पुनः सुधरी स्थिति में प्रवेश कर सकता है । इस तरह समाज में व्याप्त अपमूल्यों का निराकरण संभव है । मूल्य और व्यक्तित्व डॉ . मुखर्जी के व्यक्तित्व – संगठन में मूल्यों का विशेष महत्व है । मूल्य व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं । मूल्यों का व्यक्तित्व में जितना ही अधिक व्यवस्थित रूप में प्रवेश होता है , मनुष्य को अपने से और साथ ही समाज में सामंजस्य करने में उतनी ही अधिक सुविधा रहती है । इसके ही साथ मूल्यों में गतिशीलता एवं परिमार्जन होता रहता है । मानव – व्यवहार के तीन पक्ष हैं । प्रथम जैवकीय सामाजिक पक्ष , जिसमें व्यक्ति सामाजिक बनने का प्रयास करता है और उस पर पर्यावरण का नियंत्रण रहता है । द्वितीय मानसिक पक्ष , जिसमें व्यक्ति अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए अन्य मनुष्य के साथ शांतिपूर्वक रहता है । तृतीय , आध्यात्मिक पक्ष , जिसमें व्यक्ति सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एवं परमात्मा के साथ आन्तरिक सम्बन्ध स्थापित कर आत्मानुभूति प्राप्त करता है ।

डॉ . मुखर्जी ने लिखा है कि किसी समाज को जीवित रहने के लिए नियमित रूप से व्यक्तित्व के सर्वोच्च मूल्यों की पूर्णता का प्रयास करना चाहिए । उनके कथन से यह भी संकेत मिलता है कि क्यों किसी सभ्यता का शीघ्र अन्त होता है । उन्हें यह भी शंका है कि जीवित सभ्यताएं शायद ही अधिक समय तक चल सकें । उनका पतन अथवा उत्थान बहुत कुछ उनके द्वारा व्यक्ति के विकास पर बल देने पर निर्भर करता है ।

 

पुस्तकीय एवं क्षेत्राधारित परिप्रेक्ष्यों का समन्वय

[ SYNTHESIS OF TEXTUAL AND FIELD VIEWS ]

भारतीय समाज का अपना एक लम्बा एवं गौरवमयी इतिहास है । यदि हम भारतीय समाज के इतिहास पर दृष्टि डाले तो उसके विभिन्न युग भाँति – भाँति की झलकियाँ प्रस्तुत करते हैं । वैदिक काल में भारतीय समाज का जो रूप था , वह आज के भारतीय समाज का नहीं है । वैदिक काल में धर्म की प्रधानता थी तथा वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रचलन था । वैदिक काल से आधुनिक युग तक भारतीय समाज अनेक अवस्थाओं से गुजरा है । इसमें विविध प्रकार के परिवर्तन भी होते रहे हैं । इस्लामी और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण भारतीय सामाजिक संगठन में अनेक परिवर्तन हुए हैं । अनेक प्रजातियों के आगमन से भारतीय समाज में अनेक भाषाएँ एवं संस्कृतियाँ विकसित हुई हैं तथा इसी का परिणाम है कि आज ‘ विविधता में एकता ‘ भारतीय समाज एवं संस्कृति की प्रमुख विशेषता है । यद्यपि भारतीय संस्कृति इन प्रभावों के द्वारा परिवर्तित होती रही परन्तु अन्य संस्कृतियों की भांति इसका पतन नहीं हुआ है । इसीलिए भारतीय समाज एवं संस्कृति अत्यन्त प्राचीन हैं । भारतीय समाज का अध्ययन दो दृष्टिकोणों से किया गया है – शास्त्रीय दृष्टिकोण तथा क्षेत्राधारित दृष्टिकोण । इन दोनों दृष्टिकोणों द्वारा भारतीय समाज को समझने तथा इसका चित्रण करने के प्रयास किए गए हैं । दोनों ही दृष्टिकोण अपनी – अपनी जगह महत्त्वपूर्ण हैं तथा एक – दूसरे से भिन्न होते हुए भी परस्पर अन्तर्सम्बन्धित है । शास्त्रीय दृष्टिकोण का अर्थ एवं महत्त्व ( ( Meaning and Importance of Classical View ) किसी भी समाज के अध्ययन के दो प्रमुख स्रोत हो सकते हैं – द्वितीयक स्रोत तथा प्राथमिक स्रोत । यदि कोई विद्वान् भारत जैसे प्राचीन संस्कृति वाले समाज का शास्त्रीय रूप में अध्ययन करना चाहता है तो उसे इन दोनों दृष्टिकोणों में से पहले का ही चयन करना होगा । ऐसे विद्वान् परम्परागत भारतीय समाज को उपलव्य ग्रन्थों के माध्यम से समझना चाहते हैं , वे द्वितीयक स्रोतों को प्राथमिकता देते हैं तथा उनका दृष्टिकोण शास्त्रीय अथवा पुस्तकीय दृष्टिकोण कहा जाता है । इस दृष्टिकोण में अध्ययन का आधार वे सब पुस्तकें हैं जो प्राचीन एवं परम्परागत समाज के विभिन्न पक्षों की विशद् विवेचना करती हैं । भारतीय समाज के परम्परागत स्वरूप का अध्ययन क्षेत्राधारित दृष्टिकोण द्वारा नहीं किया जा सकता है क्योंकि उस समय के बारे में प्राथमिक आँकड़ें संकलित नहीं किए जा सकते हैं । इसके लिए एक ही । बचता है और वह है उपलब्ध ग्रन्थों की सहायता से भारतीय समाज का चित्रण करना । इसीलिए शास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाने वाले समाजशास्त्रियों एवं दर्शनशास्त्रियों ने परम्परागत ग्रन्थों को अपने अध्ययन का प्रमुख स्रोत बनाया है ।

 क्षेत्राधारित दृष्टिकोण का अर्थ एवं महत्त्व ( Meaning and Importance of Field View )

शास्त्रीय दृष्टिकोण के विपरीत क्षेत्राधारित दृष्टिकोण द्वितीयक स्रोतों की महत्ता को नकार कर प्राथमिक आँकड़ों के महत्त्व को स्वीकार करता है तथा क्षेत्र में जाकर वास्तविकता को ज्ञात करने पर बल देता है । आधुनिक समाजशास्त्री एवं सामाजिक मानवशास्त्री इस दृष्टिकोण को अधिकाधिक अपना रहे हैं तथा यथार्थता को समझने में इसे अधिक उपयोगी मानते हैं । इन विद्वानों का कहना है कि शास्त्रीय दृष्टिकोण द्वारा जो चित्र समाज का प्रस्तुत किया जाता है उसकी विश्वसनीयता सन्देहजनक है । कुछ लोग तो परम्परागत ग्रन्थों में वर्णित समाज के विभिन्न पक्षों को कोरी कल्पना मात्र मानते हैं । यह सत्य ही है कि इन ग्रन्थों में लिखी गई किसी भी बात का आज वैज्ञानिक परीक्षण करना सम्भव नहीं है । क्षेत्राघारित दृष्टिकोण क्योंकि प्राथमिक आँकड़ों द्वारा ज्ञात वास्तविकता पर बल देता है , इसलिए यह दृष्टिकोण अधिक विश्वसनीय , यथार्थ एवं वैज्ञानिक माना जाता है । अधिकांश आधुनिक समाजशास्त्रियों का कहना है कि अगर समाजशास्त्र को एक सुदृढ़ वैज्ञानिक आधार प्रदान करना है हैं । तो क्षेत्राधारित दृष्टिकोण को ही प्राथमिकता देनी होगी । यही एकमात्र दृष्टिकोण है जो यथार्थता को समझने में सहायता प्रदान करता है । वस्तुनिष्ठ रूप से ग्रामीण भारत में जो अध्ययन किए गए हैं तथा ऐसे अध्ययनों से जो तथ्य सामने आए हैं वे भारतीय समाज का एक ऐसा चित्र प्रस्तुत करते हैं जो शास्त्रीय दृष्टिकोण द्वारा प्रस्तुत चित्र से पूर्णतया भिन्न हैं । आज जो वास्तविकता है उसकी प्रमाणिकता की जाँच तो बार – बार की जा सकती है , परन्तु ग्रन्थों में लिखी हुई बातों की विश्वसनीयता की जाँच करने का कोई साधन उपलब्ध नहीं है ।

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