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राज्यपाल बनाम विधानसभा: विधेयकों पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला और भारतीय संघवाद का भविष्य

राज्यपाल बनाम विधानसभा: विधेयकों पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला और भारतीय संघवाद का भविष्य

चर्चा में क्यों? (Why in News?):** हाल ही में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण मामले में पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए एक ऐतिहासिक टिप्पणी की है। यह मामला राज्यपाल की विधायी शक्तियों के दायरे और उनकी सीमाओं से संबंधित है, विशेष रूप से विधेयकों को अपनी मंजूरी देने में उनकी देरी या अस्वीकृति के संबंध में। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि राज्यपाल किसी विधेयक की “विधायी क्षमता” की जाँच नहीं कर सकते, जो कि सीधे तौर पर विधानसभा के अधिकार क्षेत्र का मामला है। इस टिप्पणी ने भारत में राज्यपाल के पद और केंद्र-राज्य संबंधों पर एक तीखी बहस छेड़ दी है, जिसका सीधा प्रभाव भारतीय संघवाद के ताने-बाने पर पड़ता है। यह मुद्दा न केवल संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या का है, बल्कि सत्ता के संतुलन और लोकतांत्रिक जवाबदेही का भी है।

यह ब्लॉग पोस्ट UPSC सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे उम्मीदवारों के लिए इस जटिल मुद्दे को सरल, विस्तृत और ज्ञानवर्धक तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास करेगा। हम इस मामले के संवैधानिक आधारों, सुप्रीम कोर्ट की पिछली टिप्पणियों, विभिन्न राज्यों में उत्पन्न विवादों, और इस फैसले के दूरगामी परिणामों का विश्लेषण करेंगे।

मामले की जड़: राज्यपाल और विधेयकों का लंबा सफर

भारतीय संविधान के तहत, किसी भी राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक को कानून बनने के लिए राज्यपाल की सहमति आवश्यक होती है। यह प्रक्रिया, जो अनुच्छेद 200 के तहत उल्लिखित है, राज्यपाल को कई विकल्प देती है:

  • वे विधेयक को अपनी सहमति दे सकते हैं।
  • वे विधेयक को, यदि वह धन विधेयक नहीं है, तो राज्य विधानमंडल के पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं।
  • वे विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकते हैं।
  • वे विधेयक को बिना सहमति के अस्वीकार कर सकते हैं (हालांकि यह अत्यंत दुर्लभ है और आमतौर पर इसके पीछे ठोस कारण होते हैं)।

समस्या तब उत्पन्न होती है जब राज्यपाल किसी विधेयक को अनिश्चित काल के लिए लंबित रखते हैं, या उसकी मंज़ूरी को इस आधार पर रोकते हैं कि विधेयक “विधायी क्षमता” से बाहर है, अर्थात्, उन्हें लगता है कि वह विधेयक राज्य विधानमंडल के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।

“विधायी क्षमता” की जाँच का मतलब यह है कि क्या राज्य विधानमंडल के पास उस विशेष विषय पर कानून बनाने का संवैधानिक अधिकार है। यह सामान्यतः उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता है, न कि राज्यपाल के।

पश्चिम बंगाल के मामले में, राज्य सरकार का आरोप था कि राज्यपाल द्वारा विभिन्न विधेयकों को अनिश्चित काल के लिए रोका जा रहा था, जिससे राज्य सरकार के विधायी कार्य बाधित हो रहे थे। राज्य सरकार के वकील ने सुप्रीम कोर्ट में यही दलील दी कि राज्यपाल के पास किसी विधेयक को केवल इसलिए रोकने का अधिकार नहीं है क्योंकि उन्हें लगता है कि वह विधायी क्षमता से बाहर है। यह काम न्यायालयों का है, राज्यपाल का नहीं।

संवैधानिक आधार: अनुच्छेद 200 और राज्यपाल की भूमिका

राज्यपाल की शक्तियों का मूल अनुच्छेद 200 में निहित है। आइए इसे गहराई से समझें:

अनुच्छेद 200: राज्य विधानमंडल के सदनों द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की सम्मति

जब कोई विधेयक राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों (या विधान परिषद वाले राज्यों में, विधानमंडल के सदनों) द्वारा पारित कर दिया जाता है, तो वह राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। राज्यपाल या तो:

  1. घोषणा करेगा कि उसने विधेयक पर अपनी सम्मति दे दी है, या
  2. घोषणा करेगा कि उसने विधेयक पर अपनी सम्मति रोक दी है; या
  3. यदि वह विधेयक धन विधेयक नहीं है, तो यह अपेक्षा करेगा कि वह सदन (या सदनों) द्वारा विधेयक पर, यथास्थिति, पुनर्विचार करे और यदि विधेयक इस प्रकार पुनर्विचार के पश्चात् उस सदन (या सदनों) द्वारा, संशोधनों सहित या बिना संशोधनों के, पुनः पारित कर दिया जाता है और राज्यपाल के समक्ष पुनः प्रस्तुत किया जाता है, तो राज्यपाल उस पर अपनी सम्मति नहीं रोकेगा।

इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 200 में यह भी प्रावधान है कि राज्यपाल, किसी विधेयक पर, यदि उसे यह प्रतीत होता है कि वह विधेयक उच्च न्यायालय की स्थिति, गरिमा या शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा, तो वह राष्ट्रपति के विचार के लिए उस विधेयक को आरक्षित रखेगा।

विधायी क्षमता की जाँच: एक सूक्ष्म अंतर

यहीं पर सबसे बड़ा विवाद उत्पन्न होता है। क्या “विधायी क्षमता” की जाँच के दायरे में आना राज्यपाल के अधिकार का हिस्सा है? सामान्य संवैधानिक व्याख्या यह है कि किसी कानून की संवैधानिक वैधता या विधायी क्षमता की अंतिम जाँच केवल न्यायिक प्रणाली (उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय) द्वारा की जा सकती है। राज्यपाल एक कार्यकारी प्रमुख हैं, और विधायी क्षमता का मूल्यांकन करना न्यायपालिका का कार्य है।

जब राज्यपाल किसी विधेयक को “विधायी क्षमता से बाहर” बताकर रोकते हैं, तो वे प्रभावी रूप से एक न्यायिक निर्णय ले रहे होते हैं, जो उनके संवैधानिक पद के लिए अनुचित माना जा सकता है। इसके विपरीत, यदि वे किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करते हैं (जैसा कि अनुच्छेद 200 के दूसरे पैराग्राफ में है), तो यह एक अलग प्रक्रिया है जहाँ वे अपनी विवेक की शक्ति का उपयोग करते हैं, जो किसी बड़े संवैधानिक प्रश्न से संबंधित हो सकता है, लेकिन फिर भी यह “विधायी क्षमता” की प्रत्यक्ष जाँच नहीं है।

ऐतिहासिक संदर्भ और पूर्ववर्ती मामले

यह पहली बार नहीं है जब राज्यपालों की विधायी शक्तियों पर सवाल उठे हैं। भारत के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच इस मुद्दे पर टकराव हुआ है:

  • केरल सरकार बनाम केरल के राज्यपाल (2023): यह वर्तमान पश्चिम बंगाल मामले से मिलता-जुलता मामला था। केरल के राज्यपाल, श्री आरिफ मोहम्मद खान, द्वारा कई विधेयकों को लंबे समय तक रोके जाने के बाद, केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था। सुप्रीम कोर्ट ने उस समय भी राज्यपाल की भूमिका पर महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ की थीं, हालांकि एक निश्चित अंतिम निर्णय नहीं आया था। सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल तक लंबित नहीं रख सकते और उन्हें जल्द से जल्द कार्रवाई करनी चाहिए।
  • नबाम रेबिया और बामन पदेन बनाम उप-सभापति, अरुणाचल प्रदेश विधानसभा (2016): हालांकि यह मामला सीधे तौर पर राज्यपाल और विधेयकों से संबंधित नहीं था, लेकिन इसने विधानसभा अध्यक्ष की शक्तियों और राज्यपाल की भूमिका पर महत्वपूर्ण न्यायिक व्याख्याएँ दीं। इसने विधानसभा के सुचारू कामकाज में राज्यपाल के हस्तक्षेप की सीमा को भी स्पष्ट किया।
  • शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974): यह एक ऐतिहासिक फैसला था जिसने स्पष्ट किया कि राज्यपाल को राज्य के मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना चाहिए, सिवाय उन मामलों के जहाँ संविधान उन्हें अपने विवेक का प्रयोग करने की अनुमति देता है। यह सिद्धांत अप्रत्यक्ष रूप से विधेयकों पर राज्यपाल की शक्तियों पर भी लागू होता है।

ये मामले दर्शाते हैं कि राज्यपाल की भूमिका, खासकर जब यह विधायी प्रक्रिया से टकराती है, हमेशा से बहस का विषय रही है। शीर्ष न्यायालय इन मामलों में हमेशा संघवाद को बनाए रखने और विधायी प्रक्रिया की अखंडता को सुनिश्चित करने का प्रयास करता रहा है।

पश्चिम बंगाल सरकार की दलील: विधायी संप्रभुता की रक्षा

पश्चिम बंगाल सरकार के वकील ने सुप्रीम कोर्ट में कई सशक्त दलीलें पेश कीं, जिनमें मुख्य बिंदु थे:

  • विधायी क्षमता का निर्धारण न्यायिक कार्य है: राज्य सरकार ने तर्क दिया कि किसी विधेयक की संवैधानिकता या राज्य विधानमंडल की उसे पारित करने की क्षमता की जाँच करना केवल न्यायालय का विशेषाधिकार है। राज्यपाल, एक कार्यकारी के रूप में, यह निर्णय नहीं ले सकते कि कोई विधेयक “विधायी क्षमता” से बाहर है या नहीं। ऐसा करना न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण है।
  • अनिश्चितकालीन विलंब का दुरूपयोग: राज्यपाल द्वारा विधेयकों को बिना कोई कारण बताए या समय-सीमा तय किए अनिश्चित काल तक लंबित रखना, राज्य सरकार के विधायी कार्यों को पंगु बनाने जैसा है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अपमान है।
  • संविधान का उद्देश्य: संविधान का उद्देश्य राज्यपाल को राज्य के कार्यकारी प्रमुख के रूप में स्थापित करना था, न कि एक ऐसा अवरोधक जो चुनी हुई सरकार के विधायी एजेंडे को बाधित करे। उनका पद राज्य का प्रतिनिधित्व करना है, न कि विधायी प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न करना।
  • संवैधानिक विवेक का सीमांकन: राज्यपाल की विवेक की शक्तियाँ सीमित हैं और उन्हें विवेकाधिकार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। विधेयकों को अपनी मंज़ूरी देना या न देना, या उन्हें पुनर्विचार के लिए वापस भेजना, मुख्य रूप से मंत्रिपरिषद की सलाह पर आधारित होना चाहिए, सिवाय उन विशिष्ट मामलों के जहाँ संविधान स्पष्ट रूप से विवेक की शक्ति देता है (जैसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना)।

यह तर्क इस सिद्धांत पर आधारित है कि राज्य विधानमंडल, जनता द्वारा चुने जाने के कारण, अपनी विधायी संप्रभुता रखता है, जिसे राज्यपाल द्वारा अनुचित रूप से चुनौती नहीं दी जानी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी: एक सशक्त संकेत

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी कि “विधायकों की विधायी क्षमता राज्यपाल नहीं जांच सकते” अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह टिप्पणी सीधे तौर पर राज्यपाल की भूमिका को सीमित करती है और राज्य विधानमंडलों की शक्ति को बल देती है।

इस टिप्पणी के निहितार्थ:

  • राज्यपाल की भूमिका पर स्पष्टता: यह टिप्पणी राज्यपाल के पद की भूमिका को और स्पष्ट करती है। अब यह साफ हो गया है कि वे विधायी प्रक्रिया में “निगरानी” या “न्यायाधीश” की भूमिका नहीं निभा सकते, बल्कि उन्हें संविधान द्वारा निर्धारित भूमिका निभानी होगी।
  • न्यायपालिका की प्रधानता: यह टिप्पणी न्यायपालिका की प्रधानता को रेखांकित करती है, खासकर जब संवैधानिक वैधता का प्रश्न उठता है। किसी भी कानून की संवैधानिकता की अंतिम जाँच न्यायपालिका के पास है।
  • संघात्मक व्यवस्था की मजबूती: यह राज्य सरकारों को सशक्त बनाती है और केंद्र-राज्य संबंधों में संतुलन बनाने का प्रयास करती है। यह सुनिश्चित करता है कि राज्य अपने विधायी कार्यों को स्वतंत्र रूप से कर सकें।
  • विलंब पर अंकुश: यह राज्यपालों द्वारा विधेयकों को अनिश्चित काल तक लंबित रखने की प्रथा पर एक बड़ा अंकुश लगाता है। इससे भविष्य में ऐसी स्थितियाँ कम उत्पन्न होने की उम्मीद है।

यह टिप्पणी एक “प्रि-ऑर्डर” या “इंटरिम” टिप्पणी के रूप में आई है, जिसका अर्थ है कि मामले पर अंतिम फैसला अभी आना बाकी है। हालांकि, इस तरह की तीखी टिप्पणी से यह स्पष्ट है कि न्यायालय राज्यपालों की शक्तियों के ऐसे प्रयोग से असंतुष्ट है जो विधायी प्रक्रिया को बाधित करता हो।

विपक्ष में तर्क और राज्यपाल की संवैधानिक सीमाएँ

हालांकि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का स्वागत किया गया है, राज्यपालों के अधिकार की रक्षा करने वाले कुछ तर्क भी हैं, जो उनकी भूमिका को केवल एक “रबर स्टैंप” के रूप में देखने से रोकते हैं:

  • संवैधानिक रक्षक की भूमिका: राज्यपाल को संविधान का रक्षक माना जाता है। यदि उन्हें लगता है कि कोई विधेयक स्पष्ट रूप से संविधान के विरुद्ध है या राज्य के विधायी अधिकार क्षेत्र से बाहर है, तो उनके पास इस पर आपत्ति जताने का अधिकार होना चाहिए, भले ही यह एक नाजुक संतुलन हो।
  • राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करने का अधिकार: अनुच्छेद 200 स्पष्ट रूप से राज्यपालों को राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक आरक्षित करने की शक्ति देता है। यह शक्ति केवल तभी सार्थक होगी जब राज्यपाल किसी ऐसे विधेयक पर संदेह कर सकें जो उनके विचार में, संघीय या संवैधानिक व्यवस्था के लिए हानिकारक हो।
  • राज्यों के भीतर संघीय हितों की रक्षा: कुछ मामलों में, ऐसे विधेयक पारित हो सकते हैं जो राष्ट्रीय हित या अन्य राज्यों के अधिकारों को प्रभावित करते हों। ऐसे में राज्यपाल की भूमिका राष्ट्रीय एकता और अखंडता सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है।
  • अत्यधिक विधायी शक्ति का नियंत्रण: यह सुनिश्चित करने के लिए कि राज्य सरकारें अपनी विधायी शक्तियों का दुरुपयोग न करें, राज्यपाल के पास एक अंतिम जाँच का अधिकार होना चाहिए।

यह समझना महत्वपूर्ण है कि राज्यपाल की भूमिका एक नाजुक संतुलन का कार्य है। उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना है, लेकिन साथ ही उन्हें यह भी सुनिश्चित करना है कि राज्य के विधायी कार्य संविधान के दायरे में रहें।

संघीय व्यवस्था पर प्रभाव: केंद्र-राज्य संबंधों का नया अध्याय

यह मामला भारतीय संघीय व्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारत एक “अर्ध-संघीय” (Quasi-federal) या “सहकारी संघीय” (Co-operative federal) व्यवस्था का पालन करता है, जहाँ केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है, लेकिन साथ ही सहयोग और समन्वय की भी अपेक्षा की जाती है।

  • राज्यपाल की भूमिका पर विवाद: राज्यपाल, संविधान द्वारा राज्य के प्रमुख के रूप में नियुक्त होते हैं, लेकिन उनकी नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है। यह अक्सर राज्यपाल को केंद्र सरकार के “एजेंट” के रूप में देखे जाने का कारण बनता है, खासकर जब वे राज्य सरकार के साथ टकराव में आते हैं।
  • राष्ट्रीय बनाम राज्य हित: कई बार, विधेयकों पर विवाद तब उत्पन्न होता है जब केंद्र सरकार को लगता है कि वह राज्य के विधायी कार्य राष्ट्रीय हित में नहीं हैं, या वे राष्ट्रीय नीतियों के विरुद्ध हैं। ऐसी स्थिति में, राज्यपाल की भूमिका अक्सर विवाद का केंद्र बन जाती है।
  • राज्य स्वायत्तता का प्रश्न: इस तरह के न्यायिक हस्तक्षेप से राज्य सरकारों की स्वायत्तता पर पड़ने वाले प्रभाव पर भी बहस होती है। क्या राज्यपालों को राज्य की विधायी संप्रभुता पर अनिश्चित काल तक वीटो शक्ति का प्रयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिए?
  • संवैधानिक संकट का निवारण: सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप अक्सर ऐसे संवैधानिक संकटों का निवारण करता है जहाँ राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच गंभीर मतभेद पैदा हो जाते हैं।

यह मामला भारत के संघीय ढांचे के विकास में एक और महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है। यह स्पष्ट करता है कि राज्यों के विधायी अधिकार क्षेत्र को राज्यपाल के विवेकपूर्ण हस्तक्षेप से सीधे चुनौती नहीं दी जानी चाहिए।

चुनौतियाँ और भविष्य की राह

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी एक महत्वपूर्ण दिशा-निर्देशक है, लेकिन यह कई चुनौतियाँ भी पेश करती है:

  • अंतिम निर्णय का इंतजार: चूंकि यह एक अंतरिम टिप्पणी है, इसलिए अंतिम निर्णय का इंतजार करना होगा। अंतिम निर्णय राज्यपालों की शक्तियों को और स्पष्ट रूप से परिभाषित करेगा।
  • राज्यपालों की नई भूमिका: क्या राज्यपालों को अब विधेयकों पर अपनी राय देने से पूरी तरह बचना होगा, या वे संवैधानिक रूप से प्रासंगिक होने पर ही सवाल उठा सकते हैं? इस पर अधिक स्पष्टता की आवश्यकता है।
  • केंद्र-राज्य सहयोग: इस फैसले का दीर्घकालिक प्रभाव केंद्र-राज्य संबंधों में विश्वास और सहयोग को कैसे प्रभावित करेगा, यह देखना बाकी है।
  • अन्य राज्यों पर प्रभाव: यह फैसला अन्य राज्यों में भी समान विवादों को प्रभावित कर सकता है, जहाँ राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच मतभेद हैं।

आगे का रास्ता:

  1. स्पष्ट दिशानिर्देश: सर्वोच्च न्यायालय को राज्यपालों द्वारा विधेयकों को कब और कैसे आरक्षित किया जा सकता है, इसके संबंध में स्पष्ट और समय-बद्ध दिशानिर्देश जारी करने चाहिए।
  2. राज्यपाल की नियुक्ति प्रक्रिया: राज्यपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी पुनर्विचार की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे निष्पक्ष और स्वतंत्र बने रहें।
  3. संवैधानिक संवाद: राज्यपाल, राज्य सरकार और विधायिका के बीच संवैधानिक मुद्दों पर निरंतर संवाद बनाए रखना आवश्यक है।
  4. न्यायिक सक्रियता का संतुलन: न्यायपालिका को अपनी भूमिका निभाते हुए कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्र में अनुचित हस्तक्षेप से बचना चाहिए, लेकिन साथ ही संघवाद और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा भी करनी चाहिए।

यह ऐतिहासिक फैसला भारत के विधायी और संवैधानिक परिदृश्य को आकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। यह सुनिश्चित करेगा कि लोकतंत्र की जड़ें और मजबूत हों और विधायी प्रक्रिया बिना किसी अनुचित बाधा के आगे बढ़ती रहे।

UPSC परीक्षा के लिए प्रासंगिकता

यह मुद्दा UPSC सिविल सेवा परीक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से निम्नलिखित क्षेत्रों में:

  • भारतीय राजव्यवस्था: केंद्र-राज्य संबंध, राज्यपाल की भूमिका और शक्तियाँ, विधायी प्रक्रिया, संघवाद।
  • संवैधानिक मुद्दे: अनुच्छेद 200, शक्तियों का पृथक्करण, न्यायिक समीक्षा।
  • समसामयिक मामले: हालिया अदालती फैसले और उनके प्रभाव।

यह ब्लॉग पोस्ट आपको इस विषय की गहन समझ प्रदान करता है, जो आपको प्रारंभिक और मुख्य परीक्षाओं दोनों में अच्छा प्रदर्शन करने में मदद करेगा।

UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)

प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs

  1. प्रश्न 1: भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद के तहत राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की सहमति का प्रावधान है?

    (a) अनुच्छेद 200

    (b) अनुच्छेद 201

    (c) अनुच्छेद 199

    (d) अनुच्छेद 213

    उत्तर: (a) अनुच्छेद 200

    व्याख्या: अनुच्छेद 200 राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की सहमति, अस्वीकृति या पुनर्विचार के लिए वापसी का प्रावधान करता है।
  2. प्रश्न 2: सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी के अनुसार, राज्यपाल किसी विधेयक की किस क्षमता की जाँच नहीं कर सकते?

    (a) वित्तीय क्षमता

    (b) विधायी क्षमता

    (c) कार्यकारी क्षमता

    (d) प्रशासनिक क्षमता

    उत्तर: (b) विधायी क्षमता

    व्याख्या: सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि राज्यपाल किसी विधेयक की ‘विधायी क्षमता’ की जाँच नहीं कर सकते, क्योंकि यह विधायी या न्यायिक अधिकार क्षेत्र का मामला है।
  3. प्रश्न 3: भारतीय संविधान के अनुसार, राज्यपाल निम्नलिखित में से कौन सा कार्य नहीं कर सकते?

    (a) विधेयक को अपनी सहमति देना

    (b) विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करना

    (c) विधेयक को सीधे तौर पर विधानसभा को भंग करने के लिए वापस भेजना

    (d) विधेयक को, यदि वह धन विधेयक नहीं है, तो पुनर्विचार के लिए वापस भेजना

    उत्तर: (c) विधेयक को सीधे तौर पर विधानसभा को भंग करने के लिए वापस भेजना

    व्याख्या: राज्यपाल विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं, राष्ट्रपति के लिए आरक्षित कर सकते हैं या सहमति दे सकते हैं/अस्वीकार कर सकते हैं। वे विधेयक को सीधे तौर पर विधानसभा को भंग करने के लिए वापस नहीं भेज सकते।
  4. प्रश्न 4: राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को अनिश्चित काल तक लंबित रखना, किस संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन कर सकता है?

    (a) शक्तियों का पृथक्करण

    (b) कानून का शासन

    (c) मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना

    (d) उपरोक्त सभी

    उत्तर: (d) उपरोक्त सभी

    व्याख्या: अनिश्चितकालीन विलंब विधायी प्रक्रिया को बाधित करता है, मंत्रिपरिषद की सलाह की अवहेलना करता है, और शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को प्रभावित कर सकता है।
  5. प्रश्न 5: निम्नलिखित में से कौन सा मामला राज्यपाल की शक्तियों और राज्य विधानमंडल के कामकाज से संबंधित है?

    (a) केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य

    (b) मेनका गांधी बनाम भारत संघ

    (c) नबाम रेबिया एवं बामन पदेन बनाम उप-सभापति, अरुणाचल प्रदेश विधानसभा

    (d) एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ

    उत्तर: (c) नबाम रेबिया एवं बामन पदेन बनाम उप-सभापति, अरुणाचल प्रदेश विधानसभा

    व्याख्या: यह मामला, हालांकि सीधे तौर पर विधेयकों से संबंधित नहीं था, राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष की शक्तियों पर महत्वपूर्ण न्यायिक व्याख्याएं प्रदान करता है।
  6. प्रश्न 6: संविधान का रक्षक होने के नाते, राज्यपाल को किस स्थिति में विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करने की शक्ति प्राप्त है?

    (a) जब विधेयक राज्य के लिए आर्थिक रूप से हानिकारक हो

    (b) जब विधेयक उच्च न्यायालय की स्थिति, गरिमा या शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले

    (c) जब विधेयक राष्ट्रीय नीतियों के विरुद्ध हो

    (d) जब राज्यपाल को लगता है कि विधेयक में कोई तकनीकी त्रुटि है

    उत्तर: (b) जब विधेयक उच्च न्यायालय की स्थिति, गरिमा या शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले

    व्याख्या: अनुच्छेद 200 का दूसरा पैराग्राफ स्पष्ट रूप से यह कारण बताता है।
  7. प्रश्न 7: भारत में राज्यपाल की नियुक्ति कौन करता है?

    (a) भारत के राष्ट्रपति

    (b) संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री

    (c) भारत के मुख्य न्यायाधीश

    (d) संबंधित राज्य की विधानसभा

    उत्तर: (a) भारत के राष्ट्रपति

    व्याख्या: राज्यपाल की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, आमतौर पर केंद्र सरकार की सलाह पर।
  8. प्रश्न 8: “विधायकों की विधायी क्षमता राज्यपाल नहीं जांच सकते” – यह टिप्पणी किस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई थी?

    (a) केरल सरकार बनाम केरल के राज्यपाल

    (b) पश्चिम बंगाल सरकार बनाम राज्यपाल

    (c) पंजाब सरकार बनाम पंजाब के राज्यपाल

    (d) दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल

    उत्तर: (b) पश्चिम बंगाल सरकार बनाम राज्यपाल (हालिया मामले के संदर्भ में)

    व्याख्या: यह टिप्पणी पश्चिम बंगाल सरकार की याचिका पर सुनवाई के दौरान की गई थी।
  9. प्रश्न 9: भारतीय संविधान में ‘अर्ध-संघीय’ (Quasi-federal) या ‘सहकारी संघीय’ (Co-operative federal) व्यवस्था का क्या अर्थ है?

    (a) राज्यों के पास केंद्र से अधिक शक्ति होती है

    (b) केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है, लेकिन केंद्र की स्थिति थोड़ी मजबूत होती है

    (c) केंद्र और राज्य समान रूप से शक्तिशाली होते हैं

    (d) राज्यों के पास अपनी कोई शक्ति नहीं होती

    उत्तर: (b) केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है, लेकिन केंद्र की स्थिति थोड़ी मजबूत होती है

    व्याख्या: यह व्यवस्था मजबूत केंद्र के साथ संघवाद का मिश्रण दर्शाती है, जहाँ सहयोग और समन्वय महत्वपूर्ण हैं।
  10. प्रश्न 10: निम्नलिखित में से कौन सा कथन राज्यपाल की विवेक शक्ति के संबंध में सही है?

    (a) राज्यपाल की विवेक शक्तियाँ असीमित हैं

    (b) राज्यपाल केवल उन्हीं मामलों में विवेक का प्रयोग कर सकते हैं जिनके लिए संविधान विशेष रूप से अनुमति देता है

    (c) सभी मामलों में राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह का पालन करना अनिवार्य है

    (d) राज्यपाल किसी भी विधेयक को बिना कारण बताए अपनी मंजूरी दे सकते हैं

    उत्तर: (b) राज्यपाल केवल उन्हीं मामलों में विवेक का प्रयोग कर सकते हैं जिनके लिए संविधान विशेष रूप से अनुमति देता है

    व्याख्या: एस.आर. बोम्मई मामले और शमशेर सिंह मामले ने स्पष्ट किया है कि राज्यपाल की विवेक की शक्तियाँ सीमित हैं।

मुख्य परीक्षा (Mains)

  1. प्रश्न 1: सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में की गई इस टिप्पणी की विवेचना करें कि “विधायकों की विधायी क्षमता राज्यपाल नहीं जांच सकते”। इस टिप्पणी के संवैधानिक, राजनीतिक और संघीय व्यवस्था पर पड़ने वाले संभावित प्रभावों का विश्लेषण करें। (250 शब्द)
  2. प्रश्न 2: भारतीय संघवाद के संदर्भ में राज्यपाल की भूमिका की आलोचनात्मक समीक्षा करें, विशेष रूप से विधेयकों को अपनी मंजूरी देने या रोकने के संबंध में। ऐसे कौन से तंत्र हैं जिनसे राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव को कम किया जा सकता है? (250 शब्द)
  3. प्रश्न 3: अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को प्राप्त शक्तियों और उनकी विवेक की सीमाओं पर चर्चा करें। क्या राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को अनिश्चित काल तक लंबित रखना, संवैधानिक शक्तियों के दुरुपयोग की श्रेणी में आ सकता है? अपने उत्तर के समर्थन में प्रासंगिक न्यायिक निर्णयों का उल्लेख करें। (250 शब्द)
  4. प्रश्न 4: राज्यपाल को केंद्र सरकार का एजेंट माने जाने के आरोपों की जांच करें। सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणियों और पूर्ववर्ती फैसलों के आलोक में, राज्य स्वायत्तता और राष्ट्रीय एकता के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जा सकता है? (250 शब्द)

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