राज्यपाल की ‘अनिश्चितकालीन चुप्पी’ पर सुप्रीम कोर्ट का डंडा: 22 जुलाई को ऐतिहासिक सुनवाई!
चर्चा में क्यों? (Why in News?):
भारत की सर्वोच्च अदालत, सुप्रीम कोर्ट, एक ऐसे संवेदनशील और संवैधानिक रूप से महत्वपूर्ण मामले पर सुनवाई करने जा रही है, जिसने पिछले कुछ समय से केंद्र-राज्य संबंधों में एक नया तनाव पैदा कर दिया है। यह मामला है राज्यपालों द्वारा राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक सहमति रोके रखने का। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने इस मुद्दे की गंभीरता को स्वीकार करते हुए 22 जुलाई को इस पर विस्तृत सुनवाई करने का निर्णय लिया है। यह सुनवाई इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न केवल राज्यों की विधायी स्वायत्तता को प्रभावित करती है, बल्कि संवैधानिक मर्यादाओं और शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर भी गंभीर सवाल खड़े करती है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और संभावित निर्णय भारतीय संघवाद के भविष्य के लिए दूरगामी परिणाम ला सकते हैं।
मामले की जड़ क्या है? (What is the Root of the Matter?):
इस पूरे विवाद की जड़ भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में निहित है, जो राज्यपाल को राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर अपनी सहमति देने या रोकने का अधिकार देते हैं। हालांकि, इन अनुच्छेदों में राज्यपाल के लिए कोई विशिष्ट समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है, जिसके भीतर उन्हें किसी विधेयक पर निर्णय लेना होता है। इसी “समय-सीमा के अभाव” का लाभ उठाकर कई राज्यों में राज्यपालों पर आरोप लगते रहे हैं कि वे निर्वाचित सरकारों द्वारा पारित विधेयकों को बिना किसी स्पष्टीकरण के लंबे समय तक रोके रखते हैं, जिससे राज्य के नीति निर्माण और शासन प्रक्रिया में बाधा आती है।
यह मुद्दा कई राज्यों, विशेष रूप से गैर-भाजपाई शासित राज्यों, जैसे पंजाब, तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में गहराया है। इन राज्यों की सरकारों ने बार-बार आरोप लगाया है कि राज्यपाल केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में कार्य कर रहे हैं और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए विधेयकों को रोक रहे हैं। इससे न केवल राज्यों की विधायी प्रक्रिया ठप हो जाती है, बल्कि यह निर्वाचित सरकार की इच्छाशक्ति और जनादेश का भी अपमान है। सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मामले इन्हीं संवैधानिक गतिरोधों को दूर करने और राज्यपाल की शक्तियों के प्रयोग में स्पष्टता लाने का प्रयास है।
संवैधानिक प्रावधान: राज्यपाल की शक्तियाँ (Constitutional Provisions: Powers of the Governor):
राज्यपाल का पद भारतीय संघीय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह न केवल राज्य के संवैधानिक प्रमुख होते हैं, बल्कि केंद्र और राज्य के बीच एक कड़ी के रूप में भी कार्य करते हैं। उनकी शक्तियाँ और भूमिका कई संवैधानिक अनुच्छेदों में विस्तृत हैं:
अनुच्छेद 153: राज्यों के राज्यपाल (Governors of States)
यह अनुच्छेद प्रावधान करता है कि प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा। यह एक व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त करने की भी अनुमति देता है।
अनुच्छेद 154: राज्य की कार्यकारी शक्ति (Executive Power of State)
राज्य की कार्यकारी शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और उसका प्रयोग वह सीधे या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से इस संविधान के अनुसार करेगा। इसका अर्थ है कि राज्यपाल, मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करते हैं, सिवाय कुछ विवेकाधीन मामलों के।
अनुच्छेद 163: राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद (Council of Ministers to aid and advise Governor)
यह अनुच्छेद कहता है कि राज्यपाल को अपने कार्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रमुख मुख्यमंत्री होगा। इसमें एक महत्वपूर्ण अपवाद है: यदि संविधान में किसी विशेष मामले में राज्यपाल को अपने विवेक से कार्य करने का अधिकार दिया गया है, तो उस मामले में उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह की आवश्यकता नहीं होती। हालांकि, विधेयकों पर सहमति देने का मामला आमतौर पर विवेकाधीन शक्ति के दायरे में नहीं आता।
अनुच्छेद 200: विधेयकों पर सहमति (Assent to Bills)
यह अनुच्छेद किसी राज्य की विधानसभा द्वारा या किसी राज्य में दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक के संबंध में राज्यपाल की शक्तियों का विस्तृत वर्णन करता है। राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं:
- सहमति देना (Assent): राज्यपाल विधेयक पर अपनी सहमति दे सकता है, जिसके बाद विधेयक कानून बन जाता है।
- सहमति रोकना (Withholding Assent): राज्यपाल विधेयक पर अपनी सहमति रोक सकता है। यदि राज्यपाल सहमति रोक देता है, तो विधेयक कानून नहीं बनता है। हालांकि, संविधान यह स्पष्ट नहीं करता कि राज्यपाल कितने समय तक सहमति रोक सकता है।
- पुनर्विचार के लिए वापस भेजना (Return for Reconsideration): राज्यपाल विधेयक को (यदि वह धन विधेयक नहीं है) सदन या सदनों को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है। यदि विधानमंडल विधेयक को संशोधन सहित या बिना संशोधन के फिर से पारित कर देता है और उसे राज्यपाल के पास दोबारा भेजता है, तो राज्यपाल को उस पर अपनी सहमति देनी ही होगी। यह एक महत्वपूर्ण संवैधानिक बाध्यता है।
- राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखना (Reserve for President’s Consideration): राज्यपाल कुछ विशेष प्रकार के विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रख सकता है। यह शक्ति विशेष रूप से तब महत्वपूर्ण होती है जब विधेयक उच्च न्यायालय की शक्तियों को कम करता हो, संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करता हो, या देश के व्यापक हित में हो।
अनुच्छेद 201: राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित विधेयक (Bills reserved for Consideration of President)
यह अनुच्छेद उन विधेयकों से संबंधित है जिन्हें राज्यपाल ने राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखा है। इसमें कहा गया है कि जब कोई विधेयक राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखा जाता है, तो राष्ट्रपति उस पर अपनी सहमति दे सकता है या रोक सकता है। राष्ट्रपति के पास विधेयक को राज्यपाल के माध्यम से राज्य विधानमंडल को पुनर्विचार के लिए वापस भेजने का भी विकल्प होता है। यदि विधानमंडल विधेयक को संशोधित या असंशोधित रूप में फिर से पारित करता है, तो इसे राष्ट्रपति के समक्ष पुनः प्रस्तुत किया जाता है। हालांकि, यहाँ भी राष्ट्रपति के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है।
राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ (Discretionary Powers of the Governor):
संविधान राज्यपाल को कुछ मामलों में मंत्रिपरिषद की सलाह के बिना अपने विवेक से कार्य करने की शक्ति देता है। इनमें प्रमुख हैं:
- मुख्यमंत्री की नियुक्ति (जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत न हो)।
- विधानसभा का विघटन (जब सरकार बहुमत खो दे)।
- राष्ट्रपति शासन की सिफारिश (अनुच्छेद 356)।
- कुछ विशेष राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित कार्य।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि विधेयकों पर सहमति देना आमतौर पर विवेकाधीन शक्ति के दायरे में नहीं आता है, खासकर जब सदन द्वारा विधेयक को दोबारा पारित किया गया हो। विवाद का मुख्य बिंदु यही है कि राज्यपाल अपनी विवेकाधीन शक्तियों का विस्तार उन क्षेत्रों तक कर रहे हैं, जहां उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना चाहिए।
प्रेसिडेंट के लिए डेडलाइन का मुद्दा (The Issue of Deadline for President):
समाचार शीर्षक में “गवर्नर-प्रेसिडेंट के लिए डेडलाइन” शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य राज्यपाल द्वारा विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखने की स्थिति से भी है। यदि राज्यपाल किसी विधेयक को अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के लिए आरक्षित रखता है, तो राष्ट्रपति के लिए भी कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है कि वे उस विधेयक पर कब निर्णय लेंगे। यह स्थिति राज्य के शासन के लिए और भी जटिल हो सकती है, क्योंकि इसमें केंद्र सरकार की भूमिका भी शामिल हो जाती है। यह संवैधानिक चुप्पी, जहां राज्यपाल और राष्ट्रपति दोनों के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की कोई समय-सीमा नहीं है, राज्यों के लिए एक गंभीर चुनौती बन गई है, जिससे विधायी अनिश्चितता और गतिरोध पैदा होता है। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई संभवतः इस पहलू पर भी प्रकाश डालेगी कि क्या संवैधानिक पदाधिकारियों के लिए ‘उचित समय’ की कोई अवधारणा होनी चाहिए।
विभिन्न राज्यों में उत्पन्न संवैधानिक संकट (Constitutional Crisis in Various States):
पिछले कुछ वर्षों में, कई गैर-भाजपाई शासित राज्यों में राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच विधेयकों पर सहमति को लेकर गंभीर टकराव देखे गए हैं। यह समस्या केवल एक या दो राज्यों तक सीमित नहीं है, बल्कि एक व्यापक पैटर्न का हिस्सा बन गई है:
- पंजाब: राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित ने कई विधेयकों को लंबे समय तक रोके रखा, जिसमें सिख गुरुद्वारा (संशोधन) विधेयक, 2023 और पंजाब विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक, 2023 शामिल थे। मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे, जिसने राज्यपाल को विधेयकों पर तेजी से निर्णय लेने का निर्देश दिया और इस बात पर जोर दिया कि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयकों को रोके नहीं रख सकते। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं और विधानसभा उसे दोबारा पारित कर देती है, तो राज्यपाल को सहमति देनी ही होगी।
- तमिलनाडु: राज्यपाल आर.एन. रवि पर आरोप लगे कि उन्होंने 10 से अधिक महत्वपूर्ण विधेयकों को महीनों तक रोके रखा, जिनमें राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति और सहकारी समितियों से संबंधित विधेयक शामिल थे। राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट का रुख करना पड़ा, जिसने राज्यपाल को जवाब देने का निर्देश दिया।
- केरल: राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने कई विधेयकों को अपनी स्वीकृति नहीं दी, जिनमें विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक और लोकायुक्त (संशोधन) विधेयक शामिल थे। राज्य सरकार ने इसे संघीय ढांचे पर हमला बताया।
- तेलंगाना: राज्यपाल तमिलिसाई सुंदरराजन और तत्कालीन बीआरएस सरकार के बीच भी विधेयकों को लेकर गतिरोध था, खासकर जब नए विधानसभा चुनावों के बाद भी विधेयक अटके रहे।
- पश्चिम बंगाल: राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस और राज्य सरकार के बीच भी कई मुद्दों पर टकराव की स्थिति बनी रही, जिसमें विधेयकों पर सहमति का मुद्दा भी शामिल था।
इन सभी मामलों में, राज्य सरकारों का तर्क है कि राज्यपाल “जेब वीटो” (Pocket Veto) का प्रयोग कर रहे हैं, जो संविधान में सीधे तौर पर उल्लिखित नहीं है, लेकिन समय-सीमा की अनुपस्थिति का फायदा उठाकर विधेयकों को निष्क्रिय कर देता है। यह स्थिति निर्वाचित सरकारों के जनादेश का उल्लंघन है और राज्य के प्रशासन को पंगु बना सकती है।
सुप्रीम कोर्ट की पिछली टिप्पणियाँ और रुख (Previous Supreme Court Observations and Stance):
यह पहली बार नहीं है जब राज्यपालों की भूमिका और उनके द्वारा विधेयकों पर सहमति को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी चिंता व्यक्त की है। हाल के पंजाब मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने अत्यंत कठोर और महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं, जो आगामी सुनवाई के लिए आधार तैयार करती हैं:
“अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास कई विकल्प हैं – सहमति देना, सहमति रोकना, या पुनर्विचार के लिए भेजना। लेकिन इस प्रावधान में एक और विकल्प नहीं है – वह विधेयक को हमेशा के लिए रोके रखना नहीं है।”
— सुप्रीम कोर्ट, नवंबर 2023, पंजाब सरकार बनाम राज्यपाल मामले में
कोर्ट ने आगे कहा था कि यदि राज्यपाल विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेजता है और विधानमंडल उसे संशोधित या असंशोधित रूप में फिर से पारित कर देता है, तो राज्यपाल को “उसे अपनी सहमति देनी होगी”। यह टिप्पणी अनुच्छेद 200 की स्पष्ट व्याख्या थी कि राज्यपाल दूसरी बार पारित विधेयक पर अपनी सहमति रोकने का विकल्प नहीं रख सकते।
न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि राज्यपाल को संवैधानिक मर्यादाओं में रहकर कार्य करना चाहिए और वे राज्य की निर्वाचित सरकार को “समांतर प्रशासन” नहीं चला सकते। ये टिप्पणियां स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं कि सुप्रीम कोर्ट इस संवैधानिक गतिरोध को एक गंभीर मुद्दा मानता है और वह संविधान की भावना को बनाए रखने के लिए हस्तक्षेप करने को तैयार है। आगामी सुनवाई में, यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या कोर्ट इस “संवैधानिक चुप्पी” को भरने के लिए कोई स्पष्ट दिशानिर्देश या समय-सीमा निर्धारित करता है।
क्या राज्यपाल के लिए कोई समय-सीमा है? (Is there a timeline for the Governor?):
भारतीय संविधान राज्यपाल को किसी विधेयक पर सहमति देने या रोकने के लिए कोई निश्चित समय-सीमा निर्धारित नहीं करता है। यह “संवैधानिक मौन” ही मौजूदा विवाद की जड़ है। अन्य संवैधानिक पदों, जैसे राष्ट्रपति (अनुच्छेद 111 में भी कोई समय-सीमा नहीं), के लिए भी विधेयकों पर निर्णय लेने की कोई कठोर समय-सीमा नहीं है, लेकिन राज्यपाल के मामले में यह समस्या इसलिए अधिक गंभीर हो जाती है क्योंकि वे राज्यों में केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में भी देखे जाते हैं।
कुछ देशों में, जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका में, राष्ट्रपति को विधेयक पर निर्णय लेने के लिए 10 दिन का समय मिलता है (पॉकेट वीटो का प्रावधान)। भारत में ऐसी कोई समय-सीमा न होने के कारण, राज्यपाल “पॉकेट वीटो” का अनौपचारिक रूप से प्रयोग कर रहे हैं, जहाँ वे विधेयक पर कोई कार्रवाई नहीं करते, जिससे वह अनिश्चितकाल के लिए लंबित रहता है और कानून नहीं बन पाता। यह स्थिति राज्य के शासन, नीति निर्माण और जनता की इच्छाशक्ति के लिए हानिकारक है।
शक्तियों का पृथक्करण और संवैधानिक संतुलन (Separation of Powers and Constitutional Balance):
भारतीय संविधान शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर आधारित है, जिसके तहत विधायिका (कानून बनाना), कार्यपालिका (कानून लागू करना) और न्यायपालिका (कानूनों की व्याख्या करना) अपने-अपने कार्यक्षेत्र में स्वतंत्र रूप से कार्य करती हैं। राज्यपाल, हालांकि कार्यपालिका का हिस्सा हैं, उनकी भूमिका राज्य की विधायी प्रक्रिया में भी महत्वपूर्ण होती है।
जब राज्यपाल निर्वाचित विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोके रखते हैं, तो यह सीधे तौर पर शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। यह निर्वाचित विधायिका के अधिकार को कमजोर करता है और राज्यपाल को एक प्रकार की “विधायी शक्ति” प्रदान करता है जो उन्हें संविधान द्वारा स्पष्ट रूप से नहीं दी गई है। यह एक संवैधानिक संतुलन को बिगाड़ता है, जहाँ एक गैर-निर्वाचित पदधारक निर्वाचित सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों में बाधा डाल सकता है, जिससे लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण होता है।
संघवाद पर प्रभाव (Impact on Federalism):
भारत एक अर्ध-संघीय (quasi-federal) राज्य है, जहाँ केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है। संघवाद की नींव इस बात पर टिकी है कि राज्य अपनी विधायी और कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग बिना किसी अनावश्यक हस्तक्षेप के कर सकें। राज्यपाल द्वारा विधेयकों को रोके रखना भारतीय संघवाद पर कई तरह से नकारात्मक प्रभाव डालता है:
- राज्य की स्वायत्तता का हनन: यह राज्य सरकारों की अपनी नीतियों और कानूनों को लागू करने की क्षमता को कमजोर करता है, जिससे उनकी स्वायत्तता पर प्रश्नचिह्न लगता है।
- राजनीतिकरण: राज्यपाल का पद, जो तटस्थ और संवैधानिक होना चाहिए, राजनीतिक विवादों में घसीटा जाता है, जिससे केंद्र-राज्य संबंध तनावपूर्ण होते हैं।
- विकास में बाधा: महत्वपूर्ण कल्याणकारी योजनाएं और विकासात्मक पहलें कानून न बन पाने के कारण अधर में लटक जाती हैं, जिससे नागरिकों को नुकसान होता है।
- अविश्वास का माहौल: केंद्र और राज्यों के बीच अविश्वास और शत्रुता का माहौल पैदा होता है, जो सहकारी संघवाद की भावना के विपरीत है।
- लोकतंत्र का कमजोर होना: निर्वाचित सरकार का जनादेश और विधायिका की सर्वोच्चता पर सवाल उठता है, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं कमजोर होती हैं।
आगे की राह: क्या हो सकता है समाधान? (Way Forward: What could be the solution?):
इस संवैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए कई संभावित रास्ते हो सकते हैं, जिनमें न्यायिक व्याख्या, संवैधानिक संशोधन और आयोगों की सिफारिशें शामिल हैं:
1. न्यायिक व्याख्या (Judicial Interpretation):
सुप्रीम कोर्ट की आगामी सुनवाई इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कदम हो सकती है। न्यायालय अनुच्छेद 200 की ऐसी व्याख्या कर सकता है जो राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए ‘उचित समय-सीमा’ की अवधारणा स्थापित करे। यह ‘उचित समय’ क्या होगा, यह न्यायालय तय कर सकता है, या ऐसे दिशानिर्देश जारी कर सकता है जो अनावश्यक देरी को रोकें। जैसा कि पंजाब मामले में संकेत दिया गया था, न्यायालय स्पष्ट कर सकता है कि “सहमति रोकना” “अनिश्चितकाल तक रोके रखना” नहीं हो सकता।
2. संवैधानिक संशोधन या संसदीय कानून (Constitutional Amendment or Parliamentary Law):
संविधान में एक विशिष्ट अनुच्छेद जोड़कर या मौजूदा अनुच्छेद 200 में संशोधन करके राज्यपाल के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है। उदाहरण के लिए, यह कहा जा सकता है कि राज्यपाल को विधेयक प्राप्त होने के 30 या 60 दिनों के भीतर निर्णय लेना होगा। इसी तरह, संसद एक कानून पारित कर सकती है (हालांकि यह संवैधानिक प्रावधानों पर सीधे हावी नहीं हो सकता) जो इस प्रक्रिया को विनियमित करने के लिए विस्तृत दिशानिर्देश प्रदान करे। हालांकि, संविधान संशोधन एक लंबी और जटिल प्रक्रिया है, और इस पर राजनीतिक सहमति बनाना मुश्किल हो सकता है।
3. आयोगों की सिफारिशें (Recommendations of Commissions):
विभिन्न आयोगों ने राज्यपाल के पद और उनकी शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं:
- सरकारिया आयोग (1983): इसने केंद्र-राज्य संबंधों पर विस्तृत रिपोर्ट दी। राज्यपालों के संदर्भ में, इसने सिफारिश की थी कि राज्यपाल को यथासंभव मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना चाहिए। इसने यह भी सुझाव दिया कि राष्ट्रपति को विधेयक को वापस भेजने या सहमति देने के लिए समय-सीमा तय होनी चाहिए, हालांकि राज्यपाल के लिए कोई विशिष्ट समय-सीमा नहीं दी गई थी। आयोग ने स्पष्ट किया था कि जब राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखते हैं, तो उन्हें इस बात का उल्लेख करना चाहिए कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं।
- वेंकटचलैया आयोग (राष्ट्रीय संविधान कार्यप्रणाली समीक्षा आयोग – 2000): इसने सिफारिश की कि राज्यपाल को विधेयक पर निर्णय लेने के लिए एक निश्चित समय-सीमा (जैसे 4 महीने) दी जानी चाहिए। यदि राज्यपाल इस अवधि में निर्णय नहीं लेते हैं, तो यह मान लिया जाना चाहिए कि उन्होंने विधेयक पर अपनी सहमति दे दी है।
- पुंछी आयोग (2007): इसने केंद्र-राज्य संबंधों पर अपनी रिपोर्ट में राज्यपाल के विवेकाधीन अधिकारों को कम करने की सिफारिश की। विशेष रूप से, इसने सिफारिश की कि राज्यपाल को विधेयक पर निर्णय लेने के लिए एक निश्चित समय-सीमा (जैसे 6 महीने) दी जानी चाहिए। यदि विधेयक को पुनः विधानमंडल द्वारा पारित किया जाता है, तो राज्यपाल को उस पर तुरंत सहमति देनी चाहिए। आयोग ने यह भी सुझाव दिया कि राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित विधेयकों पर भी राष्ट्रपति को उचित समय-सीमा के भीतर निर्णय लेना चाहिए।
इन आयोगों की सिफारिशें एक मजबूत आधार प्रदान करती हैं कि कैसे इस संवैधानिक रिक्तता को भरा जा सकता है और राज्यपाल के पद की निष्पक्षता और संवैधानिक मर्यादा को बहाल किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट अपने निर्णय में इन सिफारिशों का संज्ञान ले सकता है।
4. अंतर-राज्यीय परिषद की भूमिका (Role of Inter-State Council):
अंतर-राज्यीय परिषद, जो केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय स्थापित करने का एक मंच है, इस मुद्दे पर चर्चा कर सकती है और एक आम सहमति विकसित करने में मदद कर सकती है। हालांकि, यह एक सलाहकारी निकाय है और इसके निर्णय बाध्यकारी नहीं होते।
UPSC परीक्षा के लिए महत्व (Importance for UPSC Exam):
यह विषय UPSC सिविल सेवा परीक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, विशेषकर सामान्य अध्ययन-II (राजव्यवस्था और शासन) के पाठ्यक्रम के तहत। यह निम्नलिखित मुख्य विषयों से संबंधित है:
- केंद्र-राज्य संबंध (Federalism)
- राज्यपाल की भूमिका और शक्तियाँ (Role and Powers of Governor)
- संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provisions – Articles 200, 201, 163, etc.)
- शक्तियों का पृथक्करण और संवैधानिक संतुलन (Separation of Powers and Constitutional Balance)
- संविधान की कार्यप्रणाली (Working of the Constitution)
- विभिन्न संवैधानिक आयोगों की सिफारिशें (Recommendations of various Constitutional Commissions – Sarkaria, Punchhi, Venkatachaliah)
- न्यायिक सक्रियता और न्यायिक व्याख्या (Judicial Activism and Judicial Interpretation)
प्रीलिम्स में सीधे संवैधानिक प्रावधानों, आयोगों की सिफारिशों या सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर प्रश्न पूछे जा सकते हैं। मेन्स में, यह केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव, राज्यपाल के पद के राजनीतिकरण, और संवैधानिक नैतिकता जैसे विषयों पर विश्लेषणात्मक प्रश्न पूछने का अवसर प्रदान करता है। उम्मीदवारों को इस मुद्दे के बहुआयामी पहलुओं को समझने की आवश्यकता है, जिसमें कानूनी, राजनीतिक और सामाजिक निहितार्थ शामिल हैं।
निष्कर्ष (Conclusion):
22 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों वाली पीठ द्वारा की जाने वाली सुनवाई भारतीय संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हो सकती है। यह न केवल राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर सहमति रोके रखने के मुद्दे पर स्पष्टता लाएगी, बल्कि संवैधानिक पदाधिकारियों के लिए ‘उचित समय’ की अवधारणा को भी परिभाषित कर सकती है। यह निर्णय भारतीय संघवाद के सिद्धांतों, राज्य की विधायी स्वायत्तता और लोकतांत्रिक शासन के लिए राज्यपाल की भूमिका के संबंध में एक नई मिसाल कायम करेगा। यह उम्मीद की जाती है कि सुप्रीम कोर्ट एक ऐसा रास्ता निकालेगा जो संवैधानिक मर्यादाओं को बनाए रखे और निर्वाचित सरकारों को अपना जनादेश पूरा करने में सक्षम बनाए, जिससे केंद्र और राज्यों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध मजबूत हों।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
(यहाँ 10 MCQs, उनके उत्तर और व्याख्या प्रदान करें)
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प्रश्न 1: भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद के तहत राज्यपाल राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रख सकता है?
(A) अनुच्छेद 163
(B) अनुच्छेद 200
(C) अनुच्छेद 201
(D) अनुच्छेद 356
उत्तर: (C)
व्याख्या: अनुच्छेद 201 सीधे तौर पर उन विधेयकों से संबंधित है जिन्हें राज्यपाल ने राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखा है। अनुच्छेद 200 राज्यपाल को सहमति देने, रोकने, या राष्ट्रपति के लिए आरक्षित रखने का विकल्प देता है, लेकिन अनुच्छेद 201 विशेष रूप से आरक्षित विधेयकों से संबंधित है। -
प्रश्न 2: राज्यपाल द्वारा किसी गैर-धन विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेजे जाने के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
1. यदि विधानमंडल विधेयक को संशोधन के बिना फिर से पारित करता है, तो राज्यपाल को उस पर अपनी सहमति देनी होगी।
2. यदि विधानमंडल विधेयक को संशोधन के साथ फिर से पारित करता है, तो राज्यपाल अपनी सहमति रोक सकता है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?
(A) केवल 1
(B) केवल 2
(C) 1 और 2 दोनों
(D) न तो 1 और न ही 2
उत्तर: (A)
व्याख्या: अनुच्छेद 200 के तहत, यदि राज्यपाल द्वारा लौटाया गया कोई विधेयक (धन विधेयक नहीं) सदन या सदनों द्वारा संशोधन के साथ या बिना संशोधन के फिर से पारित किया जाता है और राज्यपाल को प्रस्तुत किया जाता है, तो राज्यपाल को उस पर अपनी सहमति देनी होगी। कथन 2 गलत है क्योंकि राज्यपाल को ऐसी स्थिति में सहमति देनी ही होती है। -
प्रश्न 3: राष्ट्रीय संविधान कार्यप्रणाली समीक्षा आयोग (वेंकटचलैया आयोग) ने राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए कितनी अवधि की सिफारिश की थी?
(A) 3 महीने
(B) 4 महीने
(C) 6 महीने
(D) कोई समय-सीमा नहीं
उत्तर: (B)
व्याख्या: वेंकटचलैया आयोग ने सिफारिश की थी कि राज्यपाल को विधेयक पर निर्णय लेने के लिए अधिकतम 4 महीने का समय दिया जाना चाहिए। -
प्रश्न 4: निम्नलिखित में से कौन सी सिफारिश पुंछी आयोग द्वारा राज्यपाल के पद के संबंध में नहीं की गई थी?
(A) राज्यपाल को विधेयक पर निर्णय लेने के लिए 6 महीने की समय-सीमा होनी चाहिए।
(B) राष्ट्रपति द्वारा आरक्षित विधेयकों पर राष्ट्रपति को उचित समय-सीमा के भीतर निर्णय लेना चाहिए।
(C) यदि विधानसभा विधेयक को दूसरी बार पारित करती है, तो राज्यपाल को उस पर सहमति देनी होगी।
(D) राज्यपाल को केंद्र सरकार की इच्छा के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
उत्तर: (D)
व्याख्या: पुंछी आयोग ने राज्यपाल के विवेकाधीन अधिकारों को कम करने और उनके पद की निष्पक्षता सुनिश्चित करने पर जोर दिया था, न कि उन्हें केंद्र सरकार की इच्छा के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता देने पर। अन्य सभी विकल्प पुंछी आयोग की सिफारिशें हैं। -
प्रश्न 5: हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने किस राज्य के राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर सहमति में देरी के मामले में महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं, जिसने इस मुद्दे को राष्ट्रीय बहस में लाया?
(A) तमिलनाडु
(B) केरल
(C) पंजाब
(D) पश्चिम बंगाल
उत्तर: (C)
व्याख्या: सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2023 में पंजाब सरकार बनाम राज्यपाल के मामले में स्पष्ट टिप्पणियां की थीं कि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयकों को रोके नहीं रख सकते। -
प्रश्न 6: भारतीय संविधान में राज्यपाल के लिए विधेयकों पर सहमति देने या रोकने के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है। इस स्थिति को अक्सर किस शब्द से संदर्भित किया जाता है?
(A) पॉकेट वीटो (Pocket Veto)
(B) निलंबित वीटो (Suspensive Veto)
(C) पूर्ण वीटो (Absolute Veto)
(D) अर्हक वीटो (Qualified Veto)
उत्तर: (A)
व्याख्या: जब कोई कार्यकारी प्रमुख किसी विधेयक पर कोई कार्रवाई नहीं करता है, जिससे वह अनिश्चितकाल के लिए लंबित रहता है, तो उसे ‘पॉकेट वीटो’ कहा जाता है। भारत में राज्यपाल द्वारा समय-सीमा के अभाव में विधेयकों को रोके रखने को अनौपचारिक रूप से पॉकेट वीटो के रूप में देखा जाता है। -
प्रश्न 7: राज्यपाल की कौन सी शक्ति सीधे तौर पर मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधी नहीं है?
(A) राज्य विधानसभा को बुलाना
(B) धन विधेयक को मंजूरी देना
(C) राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना
(D) राज्य उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करना
उत्तर: (C)
व्याख्या: राज्यपाल कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में (जैसे जब राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया हो) राष्ट्रपति शासन की सिफारिश अपने विवेक से कर सकते हैं। अन्य सभी कार्यों में उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना होता है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, जिसमें राज्यपाल से परामर्श किया जाता है लेकिन यह उनका प्रत्यक्ष कार्य नहीं है। -
प्रश्न 8: निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
1. राज्यपाल की विधायी शक्तियाँ अनुच्छेद 200 में निहित हैं।
2. राज्यपाल केवल उन्हीं विधेयकों को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है जो धन विधेयक नहीं हैं।
3. भारत का राष्ट्रपति भी अनुच्छेद 111 के तहत किसी विधेयक पर निर्णय लेने के लिए समय-सीमा से बंधा नहीं है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?
(A) केवल 1 और 2
(B) केवल 2 और 3
(C) केवल 1 और 3
(D) 1, 2 और 3
उत्तर: (D)
व्याख्या:
1. राज्यपाल की विधायी शक्तियाँ, विशेषकर विधेयकों से संबंधित, अनुच्छेद 200 में विस्तृत हैं। (सही)
2. राज्यपाल धन विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस नहीं भेज सकता; उसे या तो सहमति देनी होती है, या रोकनी होती है, या राष्ट्रपति के लिए आरक्षित रखना होता है। (सही)
3. अनुच्छेद 111 के तहत राष्ट्रपति के लिए भी विधेयक पर सहमति देने या रोकने की कोई निश्चित समय-सीमा नहीं है। (सही) -
प्रश्न 9: निम्नलिखित में से कौन सा कथन राज्यपाल के पद के संवैधानिक महत्व को सर्वोत्तम रूप से दर्शाता है?
(A) वह राज्य विधानमंडल का वास्तविक प्रमुख होता है।
(B) वह केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में कार्य करता है।
(C) वह राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में कार्य करता है और केंद्र-राज्य संबंधों का एक सेतु है।
(D) वह राज्य की सभी प्रशासनिक शक्तियों का प्रयोग स्वयं करता है।
उत्तर: (C)
व्याख्या: राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख (नाममात्र का कार्यकारी) होता है और केंद्र तथा राज्य के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करता है, संघीय ढांचे को बनाए रखने में मदद करता है। विकल्प A गलत है क्योंकि मुख्यमंत्री वास्तविक प्रमुख होता है। विकल्प B आंशिक रूप से सही हो सकता है लेकिन यह पद के पूर्ण संवैधानिक महत्व को नहीं दर्शाता, बल्कि विवादित पहलू को इंगित करता है। विकल्प D गलत है क्योंकि वे मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करते हैं। -
प्रश्न 10: हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में लंबित गवर्नर द्वारा विधेयकों को रोके रखने का मामला भारतीय संविधान के किस प्रमुख सिद्धांत पर सवाल उठाता है?
(A) मौलिक अधिकार
(B) न्यायपालिका की स्वतंत्रता
(C) शक्तियों का पृथक्करण
(D) आपातकालीन प्रावधान
उत्तर: (C)
व्याख्या: राज्यपाल द्वारा निर्वाचित विधायिका द्वारा पारित विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोके रखना विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, क्योंकि यह विधायिका के अधिकार को कमजोर करता है।
मुख्य परीक्षा (Mains)
(यहाँ 3-4 मेन्स के प्रश्न प्रदान करें)
- “राज्यपाल का पद भारतीय संघवाद में एक महत्वपूर्ण कड़ी होने के बजाय, हाल के वर्षों में केंद्र-राज्य संबंधों में टकराव का एक स्रोत बन गया है।” इस कथन के आलोक में राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर सहमति में देरी के संवैधानिक और राजनीतिक निहितार्थों का विश्लेषण करें। (250 शब्द)
- भारतीय संविधान में राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक पर सहमति देने या रोकने के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित न होने के क्या कारण और परिणाम हैं? इस संवैधानिक मौन को दूर करने के लिए विभिन्न आयोगों द्वारा की गई प्रमुख सिफारिशों का मूल्यांकन करें। (250 शब्द)
- शक्तियों के पृथक्करण और संवैधानिक संतुलन के संदर्भ में, राज्यपाल द्वारा राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोके रखने की प्रथा का समालोचनात्मक परीक्षण करें। सुप्रीम कोर्ट की आगामी सुनवाई इस मुद्दे को कैसे प्रभावित कर सकती है? (250 शब्द)
- राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ और उनके विधेयकों पर निर्णय लेने की शक्ति के बीच अंतर स्पष्ट करें। क्या आपको लगता है कि संविधान में अनुच्छेद 200 के तहत ‘अनिश्चितकालीन चुप्पी’ को दूर करने के लिए संशोधन की आवश्यकता है, या न्यायिक व्याख्या पर्याप्त होगी? अपने तर्क प्रस्तुत करें। (250 शब्द)