राजनीति में ‘देश पहले’ या ‘दल पहले’? थरूर के बयान के मायने और चुनौतियाँ
चर्चा में क्यों? (Why in News?):
भारतीय राजनीति में वफादारी और निष्ठा का प्रश्न हमेशा से एक संवेदनशील विषय रहा है। हाल ही में, कांग्रेस सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर ने इस बहस को एक बार फिर हवा दी है। उनका यह बयान कि “पहली वफादारी देश के लिए है, पार्टी के लिए नहीं” और “दूसरे दलों के साथ मिलकर काम करना चाहिए, इसे गद्दारी समझ लिया जाता है”, भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एक गहरा चिंतन पैदा करता है। यह बयान न केवल राजनीतिक निष्ठा की प्रकृति पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि किस तरह रचनात्मक सहयोग को अक्सर राजनीतिक अवसरवाद या विश्वासघात के रूप में देखा जाता है। यह मुद्दा हमारे संसदीय लोकतंत्र की कार्यप्रणाली, दलों के बीच संबंधों और अंततः राष्ट्रीय हित की प्राथमिकताओं पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
शशि थरूर के बयान का मर्म (Core of Shashi Tharoor’s Statement)
शशि थरूर का बयान सिर्फ एक राजनीतिक टिप्पणी नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के सामने खड़ी एक मौलिक दुविधा का आईना है। उनके इस कथन को दो मुख्य भागों में समझा जा सकता है:
- “पहली वफादारी देश के लिए है, पार्टी के लिए नहीं”: यह कथन किसी भी राजनेता के लिए नैतिक और संवैधानिक जिम्मेदारी की बात करता है। जब एक सांसद या विधायक शपथ लेता है, तो वह संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा रखने और देश की संप्रभुता व अखंडता को बनाए रखने की शपथ लेता है, न कि किसी विशेष राजनीतिक दल के प्रति। थरूर यह इंगित कर रहे हैं कि दलगत राजनीति में, अक्सर पार्टी हित को राष्ट्रीय हित पर प्राथमिकता दी जाती है। इससे उन निर्णयों और नीतियों पर असर पड़ता है जो वास्तव में देश के लिए बेहतर हो सकते हैं। एक राजनेता का प्राथमिक ‘मालिक’ उसके मतदाता और अंततः देश है, न कि उसकी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व।
- “दूसरे दलों के साथ मिलकर काम करना चाहिए, इसे गद्दारी समझ लिया जाता है”: यह बिंदु भारतीय राजनीति के ध्रुवीकरण और ‘हम बनाम वे’ की मानसिकता को उजागर करता है। थरूर का मानना है कि आज की राजनीति में, यदि कोई राजनेता या पार्टी राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर दूसरे दल के साथ रचनात्मक सहयोग करता है, तो उसे अपनी ही पार्टी के प्रति ‘गद्दारी’ या ‘अवसरवाद’ के रूप में देखा जाता है। यह सोच संसदीय लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के विपरीत है, जहां बहस, विचार-विमर्श और आम सहमति के माध्यम से कानून बनाए जाते हैं। एक मजबूत विपक्ष का अर्थ केवल विरोध करना नहीं होता, बल्कि सरकार को रचनात्मक सुझाव देना और राष्ट्रीय हित में सहयोग करना भी होता है। जब सहयोग को गद्दारी समझा जाता है, तो संसद में गतिरोध बढ़ता है, महत्वपूर्ण विधेयकों पर सर्वसम्मति नहीं बन पाती और अंततः देश का नुकसान होता है।
संक्षेप में, थरूर का बयान देश और दल के प्रति निष्ठा के बीच संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता पर बल देता है, और राजनीतिक ध्रुवीकरण के कारण उत्पन्न हुए सहयोग के संकट पर प्रकाश डालता है।
भारतीय राजनीति में वफादारी का द्वंद्व (Dilemma of Loyalty in Indian Politics)
भारतीय राजनीति में वफादारी का यह द्वंद्व कोई नया नहीं है। यह दशकों से बहस का विषय रहा है। आइए इसके विभिन्न आयामों को समझें:
संवैधानिक निष्ठा बनाम राजनीतिक निष्ठा (Constitutional vs. Political Loyalty):
हमारे संविधान ने स्पष्ट रूप से राजनेताओं की सर्वोच्च निष्ठा देश और उसके संविधान के प्रति निर्धारित की है। एक सांसद या विधायक, पदभार ग्रहण करते समय, भारत के संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा और निष्ठा बनाए रखने की शपथ लेता है। अनुच्छेद 51A के तहत मौलिक कर्तव्य भी नागरिकों को देश और उसके आदर्शों के प्रति निष्ठावान रहने की बात करते हैं।
शपथ का सार स्पष्ट है: “मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा; मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूँगा; तथा मैं जिस पद को ग्रहण करने वाला हूँ, उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करूँगा।”
हालांकि, व्यवहार में, राजनीतिक दलों की अपनी आंतरिक संरचना, अनुशासन और महत्वाकांक्षाएँ होती हैं। एक राजनेता का करियर, टिकट का वितरण, चुनाव प्रचार और पद की प्राप्ति बहुत हद तक उसकी पार्टी के प्रति वफादारी पर निर्भर करती है। अक्सर, पार्टी की ‘व्हिप’ (Whip) या निर्देश को सर्वोपरि माना जाता है, भले ही वह व्यक्तिगत विवेक या व्यापक राष्ट्रीय हित के खिलाफ क्यों न हो। यह द्वंद्व तब पैदा होता है जब पार्टी लाइन और देश हित एक-दूसरे के विपरीत खड़े होते हैं।
दल-बदल कानून और इसका प्रभाव (Anti-defection law and its impact):
संविधान की 10वीं अनुसूची, जिसे आमतौर पर दल-बदल विरोधी कानून के रूप में जाना जाता है, का उद्देश्य राजनीतिक अस्थिरता को रोकना और विधायकों को बार-बार पाला बदलने से रोकना था। यह कानून एक विधायक को अयोग्य घोषित कर सकता है यदि वह स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है या अपनी पार्टी के निर्देश के विरुद्ध मतदान करता है।
हालांकि इसका उद्देश्य नेक था, इस कानून का एक अनपेक्षित परिणाम यह हुआ कि इसने पार्टी के भीतर व्यक्तिगत असंतोष या व्यापक राष्ट्रीय हित में स्वतंत्र विचार रखने की स्वतंत्रता को काफी हद तक सीमित कर दिया। यह कानून राजनेताओं को अपनी पार्टी के खिलाफ जाने से रोकता है, भले ही उन्हें लगता हो कि पार्टी का रुख देश हित में नहीं है। यह पार्टी के नेतृत्व को अधिक शक्ति देता है और विधायकों की स्वतंत्र आवाज़ को दबाता है, जिससे पार्टी की वफादारी सर्वोपरि हो जाती है।
सत्ता-पक्ष और विपक्ष की भूमिका (Role of Ruling and Opposition Parties):
एक स्वस्थ लोकतंत्र में, सत्ताधारी दल और विपक्ष दोनों की महत्वपूर्ण भूमिकाएँ होती हैं। सत्ता पक्ष सरकार चलाता है और नीतियां बनाता है, जबकि विपक्ष सरकार को जवाबदेह ठहराता है, उसकी नीतियों की आलोचना करता है और वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
लेकिन हाल के वर्षों में, भारतीय राजनीति में एक ऐसा माहौल बन गया है जहाँ विपक्ष का मतलब केवल ‘विरोध करना’ हो गया है, भले ही मामला राष्ट्रीय हित का ही क्यों न हो। वहीं, सत्ता पक्ष भी अक्सर विपक्ष के सुझावों को ‘राजनीतिक पैंतरेबाजी’ या ‘बाधा’ के रूप में खारिज कर देता है। इस ‘ब्लॉक बनाम ब्लॉक’ मानसिकता ने सहयोग के लिए बहुत कम जगह छोड़ी है। यह ठीक उसी तरह है जैसे दो प्रतिद्वंद्वी टीमें एक-दूसरे को नीचा दिखाने में इतनी व्यस्त हों कि वे खेल के नियमों या खेल भावना को ही भूल जाएँ।
भारत के लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का महत्व (Importance of Political Parties in Indian Democracy):
यह कहना भी महत्वपूर्ण है कि राजनीतिक दल किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ होते हैं। वे मतदाताओं को संगठित करते हैं, नीतियों का मसौदा तैयार करते हैं, चुनाव लड़ते हैं और शासन में भागीदारी करते हैं। उनके बिना, लोकतंत्र एक दिशाहीन भीड़ जैसा हो जाएगा। दल ही हैं जो विभिन्न विचारधाराओं, हितों और आकांक्षाओं को एक मंच पर लाते हैं।
हालांकि, समस्या तब उत्पन्न होती है जब इन दलों की आंतरिक कार्यप्रणाली अलोकतांत्रिक हो जाती है, या जब वे अपने संकीर्ण हितों को राष्ट्रीय हितों पर प्राथमिकता देना शुरू कर देते हैं। एक पार्टी के प्रति वफादारी आवश्यक है ताकि वह एक cohesive इकाई के रूप में काम कर सके, लेकिन यह वफादारी राष्ट्रीय हित को कुचलने वाली नहीं होनी चाहिए।
सहयोग बनाम ‘गद्दारी’: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (Cooperation vs. ‘Betrayal’: Historical Perspective)
थरूर का बयान कि सहयोग को ‘गद्दारी’ समझा जाता है, वर्तमान राजनीतिक विमर्श की एक कड़वी सच्चाई है। लेकिन क्या ऐसा हमेशा से था? आइए भारतीय राजनीति में सहयोग के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर एक नज़र डालें:
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान (During Freedom Struggle):
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, विभिन्न विचारधाराओं और पृष्ठभूमि के नेताओं ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए सहयोग किया। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, और कई अन्य, जिनके बीच वैचारिक मतभेद थे, एक बड़े लक्ष्य – भारत की स्वतंत्रता – के लिए एकजुट हुए। यहां तक कि सांप्रदायिक विभाजन के बावजूद, शुरुआती दौर में कांग्रेस और मुस्लिम लीग जैसी पार्टियों ने कुछ साझा लक्ष्यों पर काम किया। यह दर्शाता है कि राष्ट्रीय हित के लिए मतभेदों को दरकिनार करना संभव है।
नेहरू युग (Nehruvian Era):
स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती दशकों में, भारतीय संसद में अपेक्षाकृत अधिक सामंजस्य देखा गया। हालांकि कांग्रेस का प्रभुत्व था, विपक्ष छोटा होने के बावजूद रचनात्मक भूमिका निभाता था। नेहरू स्वयं विपक्ष के विचारों का सम्मान करते थे और महत्वपूर्ण मुद्दों पर आम सहमति बनाने का प्रयास करते थे। नीतियों पर तीखी बहस होती थी, लेकिन अक्सर उसका उद्देश्य रचनात्मक समाधान खोजना होता था, न कि केवल राजनीतिक अंक बटोरना।
गठबंधन की राजनीति का उदय (Rise of Coalition Politics):
1989 के बाद भारतीय राजनीति में गठबंधन का युग शुरू हुआ। इस दौर में किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलना मुश्किल हो गया, जिससे सरकार बनाने के लिए विभिन्न दलों को एक साथ आना पड़ा। इसने स्वाभाविक रूप से सहयोग की आवश्यकता को जन्म दिया। हालाँकि, ये गठबंधन अक्सर वैचारिक समानता के बजाय संख्या बल पर आधारित होते थे, जिससे अस्थिरता और अवसरवाद की समस्याएँ भी पैदा हुईं। इसके बावजूद, यह अवधि दिखाती है कि भारतीय राजनीति में सहयोग करना संभव है, भले ही वह मजबूरन ही क्यों न हो।
वर्तमान परिदृश्य (Current Scenario):
आज, हम भारतीय राजनीति में तीव्र ध्रुवीकरण देख रहे हैं। राजनीतिक दलों के बीच शत्रुता का स्तर बढ़ गया है। विपक्ष अक्सर सरकार की हर नीति का विरोध करता है, और सरकार भी विपक्ष को अक्सर ‘गैर-जिम्मेदार’ या ‘देश-विरोधी’ करार देती है। इस माहौल में, यदि कोई राजनेता अपनी पार्टी की लाइन से हटकर किसी विपक्षी दल के साथ सहयोग करने की बात करता है या ऐसा करता है, तो उसे अपनी पार्टी के भीतर और समर्थकों द्वारा ‘गद्दार’ या ‘विपक्ष का एजेंट’ के रूप में देखा जाता है। सोशल मीडिया ने इस ‘ट्रेंड’ को और बढ़ा दिया है, जहां असहमति को देशद्रोह के रूप में पेश किया जाता है।
यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है क्योंकि यह स्वस्थ लोकतांत्रिक बहस को रोकता है और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर आम सहमति बनने में बाधा डालता है।
सहयोग की आवश्यकता और लाभ (Need and Benefits of Cooperation)
सहयोग को ‘गद्दारी’ समझना एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक है। वास्तव में, राष्ट्रीय हित में दलों के बीच सहयोग अत्यंत आवश्यक है और इसके कई लाभ हैं:
- राष्ट्रीय हित में निर्णय (Decisions in National Interest): जब विभिन्न दल राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर एक साथ आते हैं, तो बेहतर और अधिक प्रभावी नीतियां बन पाती हैं। उदाहरण के लिए, जीएसटी (GST) जैसे बड़े आर्थिक सुधार को सभी दलों के सहयोग के बिना लागू करना असंभव था। विदेश नीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और आपदा प्रबंधन जैसे विषयों पर अक्सर सर्वदलीय सहमति की आवश्यकता होती है।
- संसदीय कामकाज की दक्षता (Efficiency of Parliamentary Functioning): विपक्ष के निरंतर बहिष्कार और हंगामे से संसद का कीमती समय बर्बाद होता है। रचनात्मक सहयोग और बहस से बिलों पर बेहतर चर्चा होती है, कानूनों की गुणवत्ता बढ़ती है और विधायी प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती है। यह लोकतंत्र की उत्पादकता बढ़ाता है।
- लोकतांत्रिक परिपक्वता (Democratic Maturity): विभिन्न दलों के बीच सहयोग एक परिपक्व लोकतंत्र का संकेत है। यह दर्शाता है कि राजनेता व्यक्तिगत या पार्टीगत लाभ से ऊपर उठकर राष्ट्र के बारे में सोचने में सक्षम हैं। यह जनता में भी विश्वास पैदा करता है कि उनके प्रतिनिधि वास्तव में उनके कल्याण के लिए काम कर रहे हैं।
- नीतिगत निरंतरता (Policy Continuity): कुछ नीतियाँ ऐसी होती हैं जिनका प्रभाव दीर्घकालिक होता है, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य या आर्थिक विकास। यदि ये नीतियाँ हर सरकार बदलने पर पूरी तरह बदल दी जाती हैं, तो देश की प्रगति बाधित होती है। दलों के बीच सहयोग से इन नीतियों में निरंतरता बनी रह सकती है।
- संघीय ढाँचे की मजबूती (Strengthening Federal Structure): भारत एक संघीय देश है जहाँ केंद्र और राज्य सरकारों को एक साथ काम करना होता है। विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा शासित राज्यों और केंद्र के बीच सहयोग, संघीय ढांचे को मजबूत करता है और देश के समग्र विकास को गति देता है।
- जनता का विश्वास (Public Trust): जब नेता विभिन्न राजनीतिक मतभेदों के बावजूद राष्ट्रीय हित में एक साथ काम करते हैं, तो इससे जनता का राजनीति और लोकतांत्रिक संस्थाओं में विश्वास बढ़ता है।
कल्पना कीजिए कि एक ही परिवार के सदस्य, अलग-अलग विचारों के बावजूद, घर के बड़े निर्णयों के लिए एक साथ बैठते हैं। इसी तरह, देश को आगे बढ़ाने के लिए अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं वाले दलों को राष्ट्रीय लक्ष्यों पर सहयोग करना होगा।
चुनौतियाँ और अवरोध (Challenges and Obstacles)
सहयोग की आवश्यकता और लाभों के बावजूद, भारतीय राजनीति में रचनात्मक सहयोग में कई बाधाएँ हैं:
- विचारधारात्मक मतभेद (Ideological Differences): भारत में राजनीतिक दल व्यापक विचारधारात्मक स्पेक्ट्रम पर काम करते हैं – दक्षिणपंथी, वामपंथी, केंद्रवादी, क्षेत्रीय आदि। इन गहरे वैचारिक मतभेदों के कारण साझा जमीन खोजना मुश्किल हो जाता है।
- व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ और नेतृत्व का संकट (Individual Ambitions and Leadership Crisis): कई बार, राजनेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ पार्टी या राष्ट्रीय हित पर हावी हो जाती हैं। दलबदल अक्सर अवसरवाद और व्यक्तिगत लाभ से प्रेरित होता है, जिससे दलों के बीच अविश्वास बढ़ता है।
- मतदाता का दबाव और ‘वोट बैंक’ की राजनीति (Voter Pressure and ‘Vote Bank’ Politics): राजनीतिक दल अक्सर अपने विशिष्ट ‘वोट बैंक’ को बनाए रखने के लिए मजबूर होते हैं। यदि वे विपक्षी दल के साथ सहयोग करते हैं, तो उन्हें अपने मतदाताओं के बीच ‘कमजोर’ या ‘समझौतावादी’ के रूप में देखे जाने का डर होता है।
- मीडिया की भूमिका (Role of Media): मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सनसनीखेज खबरें और राजनीतिक टकराव को बढ़ावा देता है, बजाय इसके कि वह रचनात्मक बहस और सहयोग की कहानियों को उजागर करे। ‘डिबेट’ शो अक्सर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को और भी कटु बना देते हैं।
- पार्टी अनुशासन और ‘व्हिप’ का अत्यधिक उपयोग (Party Discipline and Excessive Use of ‘Whip’): जैसा कि पहले चर्चा की गई, दल-बदल विरोधी कानून और पार्टी ‘व्हिप’ ने विधायकों को अपनी अंतरात्मा की आवाज़ या राष्ट्रीय हित के आधार पर स्वतंत्र रूप से मतदान करने की क्षमता को सीमित कर दिया है।
- विपक्ष की भूमिका पर बहस (Debate on Role of Opposition): यह एक गलत धारणा बन गई है कि विपक्ष का एकमात्र काम सरकार का विरोध करना है, भले ही सरकार सही क्यों न हो। यह ‘विरोध के लिए विरोध’ की राजनीति को जन्म देता है, जो सहयोग के लिए बाधा है।
- धन-बल और बाहुबल का प्रभाव (Influence of Money and Muscle Power): राजनीति में धन और बाहुबल का बढ़ता प्रभाव, खासकर चुनावों में, नैतिक आधारों पर सहयोग को और भी मुश्किल बना देता है।
ये सभी कारक मिलकर एक ऐसा माहौल बनाते हैं जहाँ सहयोग को कमजोर माना जाता है और वैचारिक शुद्धता या पार्टीगत कठोरता को अधिक महत्व दिया जाता है।
आगे की राह (Way Forward)
थरूर के बयान ने भारतीय लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है। इस चुनौती का सामना करने और राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं:
- संसद में रचनात्मक बहस को बढ़ावा (Promoting Constructive Debates in Parliament): संसद को केवल हंगामा करने का अखाड़ा नहीं, बल्कि गंभीर विचार-विमर्श का मंच बनाना होगा। विभिन्न विषयों पर स्थायी समितियों और संयुक्त संसदीय समितियों (JPCs) को मजबूत करना चाहिए ताकि विशेषज्ञता और आम सहमति के आधार पर कानून बनाए जा सकें।
- सर्व-दलीय बैठकें और आम सहमति (All-party Meetings and Consensus): सरकार को राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर अधिक बार सर्व-दलीय बैठकें बुलानी चाहिए और वास्तविक अर्थों में विपक्ष के सुझावों पर विचार करना चाहिए। विपक्ष को भी इन बैठकों में रचनात्मक भूमिका निभानी चाहिए।
- नागरिक समाज और थिंक टैंक की भूमिका (Role of Civil Society and Think Tanks): नागरिक समाज संगठन, शिक्षाविद और थिंक टैंक तटस्थ मंच प्रदान कर सकते हैं जहां विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के लोग राष्ट्रीय मुद्दों पर खुली चर्चा कर सकें। वे नीति-निर्माण के लिए साक्ष्य-आधारित सुझाव भी प्रदान कर सकते हैं।
- मीडिया की जिम्मेदारी (Media Responsibility): मीडिया को अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करना चाहिए। उन्हें सनसनीखेज रिपोर्टिंग और राजनीतिक टकराव को बढ़ावा देने के बजाय, सहयोग, आम सहमति और जनहित से जुड़ी नीतियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। सकारात्मक पहल को भी उजागर करना चाहिए।
- दलबदल कानून में सुधार (Reforms in Anti-defection Law): दल-बदल विरोधी कानून की समीक्षा की जानी चाहिए। इसे पार्टी अनुशासन बनाए रखने और विधायकों की स्वतंत्रता के बीच संतुलन स्थापित करना चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ विशिष्ट मामलों (जैसे अविश्वास प्रस्ताव) को छोड़कर, ‘व्हिप’ के उपयोग को सीमित किया जा सकता है।
- राजनीतिक नैतिकता का पुनरुत्थान (Resurgence of Political Ethics): नेताओं को देश और संविधान के प्रति अपनी प्राथमिक निष्ठा को याद रखना चाहिए। पार्टी हितों से ऊपर राष्ट्रीय हित को रखना, नैतिक नेतृत्व का प्रतीक है। राजनीतिक दलों को अपने आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करना चाहिए ताकि नेता स्वतंत्र रूप से अपने विचार व्यक्त कर सकें।
- संघीय सहकारिता का महत्व (Importance of Cooperative Federalism): केंद्र और राज्यों के बीच सहयोगात्मक संघवाद को बढ़ावा देना चाहिए। नीति आयोग जैसी संस्थाएं केंद्र और राज्यों के बीच नीतिगत समन्वय के लिए महत्वपूर्ण मंच प्रदान करती हैं।
- युवाओं में राजनीतिक शिक्षा और सहिष्णुता (Political Education and Tolerance in Youth): भावी पीढ़ियों को राजनीतिक प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने और विभिन्न विचारों के प्रति सहिष्णु होने के लिए शिक्षित करना महत्वपूर्ण है। यह ध्रुवीकरण की प्रवृत्ति को कम करने में मदद करेगा।
यह सब एक सांस्कृतिक बदलाव की मांग करता है – ‘विपक्षी’ से ‘प्रतिद्वंद्वी’ और अंततः ‘सहयोगी’ बनने की ओर। यह यात्रा कठिन हो सकती है, लेकिन एक मजबूत और प्रगतिशील लोकतंत्र के लिए यह अनिवार्य है।
निष्कर्ष (Conclusion)
शशि थरूर का बयान भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म देता है: क्या हमारा लोकतंत्र इतना परिपक्व हो गया है कि हम दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रख सकें? यह केवल एक सैद्धांतिक प्रश्न नहीं है, बल्कि इसका सीधा असर हमारे देश के विकास, संसदीय कार्यप्रणाली की दक्षता और जनता के विश्वास पर पड़ता है।
एक मजबूत लोकतंत्र वह है जहाँ विचारों में भिन्नता हो सकती है, लेकिन राष्ट्रीय लक्ष्यों पर सहमति बन सकती है। जहाँ विपक्ष सरकार की कमियों को उजागर करे, लेकिन राष्ट्रीय संकट में उसके साथ खड़ा हो। जहाँ सरकार विपक्ष के सुझावों को सुने और उन्हें महत्व दे। ‘गद्दारी’ के लेबल लगाने की प्रवृत्ति को छोड़ना होगा और रचनात्मक सहयोग को सम्मान देना सीखना होगा।
भारत एक युवा और जीवंत लोकतंत्र है, और इसकी सफलता इसी बात पर निर्भर करती है कि हमारे राजनेता कितनी कुशलता से पार्टी की निष्ठा और राष्ट्रीय कर्तव्य के बीच संतुलन बनाते हैं। यह समय है कि हम ‘देश पहले’ के नारे को केवल एक चुनावी जुमला न मानें, बल्कि इसे अपने राजनीतिक आचरण का मूल मंत्र बनाएँ। तभी हम एक ऐसे भारत का निर्माण कर पाएँगे जो समावेशी, प्रगतिशील और truly democratic हो।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
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भारत के संविधान की 10वीं अनुसूची, जिसे ‘दलबदल विरोधी कानून’ के रूप में जाना जाता है, के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- यह कानून संविधान (52वां संशोधन) अधिनियम, 1985 द्वारा जोड़ा गया था।
- यह किसी सांसद या विधायक को अयोग्य घोषित करता है यदि वह स्वेच्छा से अपनी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है।
- इस कानून के तहत अयोग्यता का अंतिम निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लिया जाता है।
ऊपर दिए गए कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
- केवल 1 और 2
- केवल 2 और 3
- केवल 1 और 3
- 1, 2 और 3
उत्तर: A
व्याख्या: कथन 1 सही है। दलबदल विरोधी कानून को 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 द्वारा संविधान में जोड़ा गया था। कथन 2 भी सही है। यह कानून उन सदस्यों को अयोग्य घोषित करता है जो स्वेच्छा से अपनी पार्टी छोड़ देते हैं। कथन 3 गलत है। इस कानून के तहत अयोग्यता का निर्णय सदन के पीठासीन अधिकारी (लोकसभा में अध्यक्ष, राज्यसभा में सभापति) द्वारा लिया जाता है, न कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा। हालाँकि, पीठासीन अधिकारी का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन होता है।
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भारतीय संसद में ‘व्हिप’ (Whip) के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- व्हिप एक लिखित आदेश होता है जो किसी राजनीतिक दल द्वारा अपने सदस्यों को जारी किया जाता है, जिसमें उन्हें किसी विशिष्ट मुद्दे पर मतदान करने का तरीका बताया जाता है।
- व्हिप का उल्लंघन करने पर सदस्य को संसद की सदस्यता से अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
- भारत में ‘थ्री-लाइन व्हिप’ का उपयोग केवल महत्वपूर्ण विधेयकों पर मतदान के लिए किया जाता है।
ऊपर दिए गए कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
- केवल 1 और 2
- केवल 2 और 3
- केवल 1 और 3
- 1, 2 और 3
उत्तर: A
व्याख्या: कथन 1 सही है। व्हिप पार्टी द्वारा जारी एक निर्देश है। कथन 2 भी सही है। व्हिप का उल्लंघन दलबदल विरोधी कानून के तहत अयोग्यता का आधार बन सकता है। कथन 3 गलत है। ‘थ्री-लाइन व्हिप’ सबसे सख्त व्हिप होता है, जिसमें सदस्यों को अनिवार्य रूप से उपस्थित रहने और पार्टी लाइन के अनुसार मतदान करने का निर्देश दिया जाता है, लेकिन यह केवल महत्वपूर्ण विधेयकों तक ही सीमित नहीं होता, बल्कि किसी भी महत्वपूर्ण पार्टी मामले या मतदान पर लागू हो सकता है।
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भारतीय संविधान के तहत ‘कर्तव्यों’ के संबंध में, निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही नहीं है?
- मौलिक कर्तव्य संविधान के भाग IVA में वर्णित हैं।
- मौलिक कर्तव्यों को 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा संविधान में जोड़ा गया था।
- मौलिक कर्तव्य प्रवर्तनीय (enforceable) नहीं हैं, अर्थात इनके उल्लंघन पर कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती।
- प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य है कि वह संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे।
उत्तर: C
व्याख्या: कथन C सही नहीं है। मौलिक कर्तव्य प्रवर्तनीय नहीं हैं, अर्थात इनके उल्लंघन पर सीधे कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती, लेकिन वे अप्रत्यक्ष रूप से कानूनों के प्रवर्तन में सहायक होते हैं और न्यायालय किसी कानून की संवैधानिकता का निर्धारण करते समय उनका उपयोग कर सकते हैं। अन्य सभी कथन सही हैं।
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भारतीय राजनीतिक प्रणाली में ‘गठबंधन की राजनीति’ (Coalition Politics) के उदय के संबंध में निम्नलिखित में से कौन-सा एक कारण नहीं था?
- किसी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत मिलने में कमी।
- क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय और प्रभाव में वृद्धि।
- राष्ट्रीय दलों का अखिल भारतीय स्तर पर कमजोर होना।
- दल-बदल विरोधी कानून का कठोर क्रियान्वयन।
उत्तर: D
व्याख्या: विकल्प D सही कारण नहीं है। दलबदल विरोधी कानून का कठोर क्रियान्वयन तो दल-बदल को रोकने और पार्टी की वफादारी को मजबूत करने के लिए लाया गया था, जो गठबंधन की अस्थिरता को कम करने में सहायक हो सकता है। गठबंधन की राजनीति के मुख्य कारण थे – किसी एक पार्टी को बहुमत न मिलना, क्षेत्रीय दलों का उदय और राष्ट्रीय दलों का कमजोर होना।
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भारतीय संसद में ‘सर्व-दलीय बैठकें’ (All-Party Meetings) आयोजित करने का मुख्य उद्देश्य क्या है?
- विपक्ष के सदस्यों को सरकार की नीतियों की केवल जानकारी देना।
- महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर आम सहमति बनाना और सहयोग को बढ़ावा देना।
- केवल आगामी सत्र के एजेंडे पर चर्चा करना।
- अंतर्राष्ट्रीय प्रतिनिधियों का स्वागत करना।
उत्तर: B
व्याख्या: सर्व-दलीय बैठकों का मुख्य उद्देश्य महत्वपूर्ण राष्ट्रीय और विधायी मुद्दों पर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति और सहयोग बनाना है, ताकि संसद का कामकाज सुचारू रूप से चल सके और महत्वपूर्ण निर्णय सर्वसम्मति से लिए जा सकें।
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भारत में राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए निम्नलिखित में से कौन-से कदम उठाए जा सकते हैं?
- पार्टी के भीतर नियमित और पारदर्शी चुनाव कराना।
- पार्टी के सदस्यों को नीति-निर्माण में अधिक भागीदारी का अवसर देना।
- पार्टी के वित्तीय लेन-देन में पारदर्शिता लाना।
- दल-बदल विरोधी कानून को पूरी तरह से हटाना।
ऊपर दिए गए कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
- केवल 1, 2 और 3
- केवल 2, 3 और 4
- केवल 1 और 4
- 1, 2, 3 और 4
उत्तर: A
व्याख्या: कथन 1, 2 और 3 सही हैं। पार्टी के भीतर नियमित चुनाव, सदस्यों की भागीदारी और वित्तीय पारदर्शिता आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करते हैं। कथन 4 गलत है। दल-बदल विरोधी कानून को पूरी तरह से हटाना राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ा सकता है; इसमें सुधार की आवश्यकता है, न कि पूर्ण उन्मूलन की।
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भारत में ‘सहकारी संघवाद’ (Cooperative Federalism) का सबसे अच्छा वर्णन कौन-सा कथन करता है?
- राज्य सरकारों का केंद्र सरकार के अधीन कार्य करना।
- केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का कड़ाई से पृथक्करण।
- केंद्र और राज्य सरकारों का राष्ट्रीय विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मिलकर काम करना।
- राज्य सरकारों को केंद्र से अधिक वित्तीय स्वायत्तता प्रदान करना।
उत्तर: C
व्याख्या: सहकारी संघवाद वह अवधारणा है जहाँ केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर राष्ट्रीय विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक-दूसरे के साथ सहयोग करती हैं, बजाय इसके कि वे एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हों। नीति आयोग जैसे मंच इसके उदाहरण हैं।
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भारतीय संसदीय प्रणाली में, किसी विधेयक पर आम सहमति बनाने के लिए कौन-सा तंत्र सबसे प्रभावी हो सकता है?
- अध्यक्ष द्वारा बार-बार संसदीय सत्र स्थगित करना।
- केवल सत्ताधारी दल के सदस्यों द्वारा विधेयक पर चर्चा करना।
- विधेयक को संसदीय स्थायी समिति को भेजना, जिसमें विभिन्न दलों के सदस्य शामिल हों।
- विपक्ष द्वारा केवल सदन से बहिर्गमन करना।
उत्तर: C
व्याख्या: विधेयक को संसदीय स्थायी समिति को भेजना, जिसमें विभिन्न दलों के सदस्य होते हैं, सबसे प्रभावी तरीका है। समितियाँ विस्तृत चर्चा, विशेषज्ञ सलाह और आम सहमति बनाने के लिए एक गैर-राजनीतिक माहौल प्रदान करती हैं, जिससे विधेयक की गुणवत्ता में सुधार होता है।
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शशि थरूर के बयान “पहली वफादारी देश के लिए, पार्टी के लिए नहीं” का निहितार्थ क्या है?
- राजनेताओं को पार्टी अनुशासन का पालन नहीं करना चाहिए।
- राष्ट्रीय हित हमेशा पार्टी हितों पर वरीयता लेनी चाहिए।
- विपक्षी दलों के साथ गठबंधन करना हमेशा राष्ट्रहित में होता है।
- केवल व्यक्तिगत विवेक के आधार पर निर्णय लेने चाहिए।
ऊपर दिए गए कथनों में से कौन-सा/से सबसे उपयुक्त निहितार्थ है/हैं?
- केवल 2
- केवल 1 और 3
- केवल 2 और 4
- 1, 2, 3 और 4
उत्तर: A
व्याख्या: सबसे उपयुक्त निहितार्थ यह है कि राष्ट्रीय हित हमेशा पार्टी हितों पर वरीयता लेनी चाहिए (कथन 2)। यह बयान पार्टी अनुशासन को पूरी तरह से त्यागने या हमेशा गठबंधन करने की वकालत नहीं करता, बल्कि प्राथमिकताओं के क्रम को स्पष्ट करता है। व्यक्तिगत विवेक महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे राष्ट्रीय हित से जोड़ा जाना चाहिए।
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भारतीय राजनीति में बढ़ती ध्रुवीकरण की प्रवृत्ति के संभावित नकारात्मक परिणाम क्या हो सकते हैं?
- संसद में गतिरोध और विधायी कार्यों में बाधा।
- राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर आम सहमति की कमी।
- समाज में विभाजन और असहिष्णुता में वृद्धि।
- अंतर्राष्ट्रीय मंच पर देश की एकीकृत छवि का कमजोर होना।
ऊपर दिए गए कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
- केवल 1 और 2
- केवल 2 और 3
- केवल 1, 2 और 3
- 1, 2, 3 और 4
उत्तर: D
व्याख्या: सभी कथन बढ़ती ध्रुवीकरण की प्रवृत्ति के नकारात्मक परिणाम हैं। यह संसदीय कामकाज को बाधित करता है, महत्वपूर्ण मुद्दों पर सर्वसम्मति नहीं बनने देता, समाज में विभाजन पैदा करता है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी देश की छवि को प्रभावित कर सकता है।
मुख्य परीक्षा (Mains)
- शशि थरूर के इस बयान का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए कि “पहली वफादारी देश के लिए है, पार्टी के लिए नहीं।” भारतीय राजनीति में दलगत निष्ठा और संवैधानिक निष्ठा के बीच के द्वंद्व को उदाहरणों सहित स्पष्ट कीजिए।
- “भारत में, दूसरे दलों के साथ मिलकर काम करना अक्सर ‘गद्दारी’ समझ लिया जाता है।” इस कथन के आलोक में, भारतीय लोकतंत्र में रचनात्मक सहयोग के मार्ग में आने वाली प्रमुख चुनौतियों पर चर्चा कीजिए। संसदीय कार्यप्रणाली को सुचारू बनाने के लिए किन उपायों की आवश्यकता है?
- भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची (दलबदल विरोधी कानून) को भारतीय राजनीति में दलगत वफादारी को मजबूत करने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित करने में किस हद तक सफल/विफल माना जा सकता है? इसके संभावित सुधारों पर प्रकाश डालिए।
- “एक स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष का अर्थ केवल विरोध करना नहीं, बल्कि रचनात्मक आलोचना और सहयोग भी है।” इस कथन के संदर्भ में, भारतीय राजनीति में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच सहयोग के महत्व और उसकी वर्तमान स्थिति का मूल्यांकन कीजिए। राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखने के लिए क्या नैतिक एवं संस्थागत परिवर्तन आवश्यक हैं?