राजनीतिक संस्कृति
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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संस्कृति
( Culture )
सामान्यतः संस्कृति शब्द का प्रयोग हम दिन – प्रतिदिन के जीवन में ( अकरार ) निरन्तर करते रहते हैं । साथ ही संस्कृति शब्द का प्रयोग भिन्न – भिन्न अर्थों में भी करते हैं । उदाहरण के तौर पर हमारी संस्कृति में यह नहीं होता तथा पश्चिमी संस्कृति में इसकी स्वीकृति है । समाजशास्त्र विज्ञान के रूप में किसी भी अवधारणा का स्पष्ट अर्थ होता है जो कि वैज्ञानिक बोध को दर्शाता है । अतः संस्कृति का अर्थ समाजशास्त्रीय अवधारणा के रूप में ” सीखा हुआ व्यवहार ” होता है । अर्थात् कोई भी व्यक्ति बचपन से अब तक जो कुछ भी सीखता है , उदाहरण के तौरे पर खाने का तरीका , बात करने का तरीका , भाषा का ज्ञान , लिखना – पढना तथा अन्य योग्यताएँ , यह संस्कृति है ।
मनुष्य का कौन सा व्यवहार संस्कृति है ? मनुष्य के व्यवहार के कई पक्ष हैं
( अ ) जैविक व्यवहार ( Biological behaviour ) जैसे – मूख , नींद , चलना , दौड़ना ।
( ब ) मनोवैज्ञानिक व्यवाहार ( Psychological behaviour ) जैसे – सोचना , डरना , हँसना आदि ।
( स ) सामाजिक व्यवहार ( Social behaviour ) जैसे – नमस्कार करना , पढ़ना – लिखना , बातें करना आदि ।
संस्कृति के अन्तर्गत हम जैविकीय व्यवहार अथवा मनोवैज्ञानिक व्यवहार का नहीं लेते । संस्कृति मानव व्यवहार का वह पक्ष है जिसे व्यक्ति समाज क सदस्य के रूप में सीखता है जैसे – वस्त्र पहनना , धर्म , ज्ञान आदि । मानव एवं पशु समाज में एक महत्वपूर्ण अन्तर यही है कि मानव संस्कृति का निर्माण कर सका जबकि पशु समाज क पास इसका अभाव है ।
क्या आप जानते हैं कि मानव संस्कृति का निर्माण कैसे कर पाया ?
लेस्ली ए व्हाईट ( Leslie A White ) ने मानव में पाँच विशिष्ट क्षमताओं का उल्लेख किया है , जिसे मनुष्य ने प्रकृति से पाया है और जिसके फलस्वरुप वह संस्कृति का निर्माण कर सका है :
पहली विशेषता है – मानव के खड़े रहने की क्षमता , इससे व्यक्ति दोनों हाथों द्वारा उपयोगी कार्य करता है ।
दूसरा – मनुष्य के हाथों की बनावट है , जिसके फलस्वरुप वह अपने हाथों का स्वतन्त्रतापूर्वक किसी भी दिशा में घुमा पाता है और उसके द्वारा तरह – तरह की वस्तुओं का निर्माण करता है ।
तीसरा – मानव की तीक्ष्ण दृष्टि , जिसके कारण वह प्रकृति तथा घटनाओं का निरीक्षण एवं अवलोकन कर पाता है और तरह – तरह की खोज एवं अविष्कार करता है ।
चौथा – विकसित मस्तिष्क , जिसकी सहायता से मनुष्य अन्य प्राणियों से अधिक अच्दी तरह सोच सकता है । इस मस्तिष्क के कारण ही वह तर्क प्रस्तुत करता है तथा कार्य – कारण सम्बन्ध स्थापित कर पाता है ।
पाँचवौं – प्रतीकों के निर्माण की क्षमता । इन प्रतीकों के माध्यम से व्यक्ति अपने ज्ञान व अनुभवों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी में हस्तांतरित कर पाता है । प्रतीकों के द्वारा ही भाषा का विकास सम्भव हुआ और लोग अपने ज्ञान तथा विचारों के आदान – प्रदान में समर्थ हो पाये हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि प्रतीकों का संस्कृति के निर्माण , विकास , परिवर्तन तथा विस्तार में बहुत बड़ा योगदान है ।
क्या आप जानते हैं ?
प्रसिद्ध मानवशास्त्री एडवर्ड बनार्ट टायलर ( 1832 – 1917 ) के द्वारा सन् 1871 में प्रकाशित पुस्तक Primitive Culture में संस्कृति के संबंध में सर्वप्रथम उल्लेख किया गया है । टायलर मुख्य रूप से संस्कृति की अपनी परिभाषा के लिए जाने जाते हैं , इनके अनुसार , ” संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमें ज्ञान , विश्वास , कला आचार , कानून , प्रथा और अन्य सभी क्षमताओं तथा आदतों का समावेश होता है जिन्हें मनुष्य समाज के नाते प्राप्त कराता है । टायलर ने संस्कृति का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया है । इनके अनुसार सामाजिक प्राणी होने के नाते व्यक्ति अपने पास जो कुछ भी रखता है तथा सीखता है वह सब संस्कृति है । इस परिभाषा में सिर्फ अभौतिक तत्वों को ही सम्मिलित किया गया है ।
संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा
राबर्ट बीरस्टीड ( The Social Order ) द्वारा संस्कृति की दी गयी परिभाषा है कि ” संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है , जिसमें वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं , जिन पर हम विचार करते हैं , कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते इस परिभाषा में संस्कृति दोनों पक्षों भौतिक एवं अभौतिक को सम्मिलित किया गया है ।
हर्षकोविट्स ( Man and His Work ) के शब्दों में ” संस्कृति पर्यावरण का मानव निर्मित भाग है । इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि पर्यावरण के दो भाग होते हैं पहला – प्राकृतिक और दूसरा – सामाजिक । सासाजिक पर्यावरण में सारी भौमिक और अभौतिक चीजें आती हैं , जिनका निर्माण मानव के द्वारा हुआ है । उदाहरण के जिए कुर्सी , टेबुल , कलम , रजिस्टर , धर्म , शिक्षा , ज्ञान , नैतिकता आदि । हर्षकोविट्स ने इसी सामाजिक पर्यावरण , जो मानव द्वारा निर्मित है , को संस्कृति कहा है ।
बोगार्डस के अनुसार , ” किसी समूह के कार्य करने और विचार करने के सभी तरीकों का नाम संस्कृति है । ” इस पर आप ध्यान दें कि , बोगार्डस ने भी बीयरस्टीड की तरह ही अपनी भौतिक एवं अभौतिक दोनों पक्षों पर बल दिया है ।
मैलिनोस्की – संस्कृति मनुष्य की कृति है तथा एक साधन है , जिसके द्वारा वह अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करता है । आपका कहना है कि ” संस्कृति जीवन व्यतीत करने की एक संपूर्ण विधि ( Total Way of Life ) है जो व्यक्ति के शारीरिक , मानसिक एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करती है । “
रेडफिल्ड ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए कहा कि ” संस्कृति किसी भी समाज के सदस्यों की जीवन – शैली ( Style of Life )
उपयुक्त परिभाषाओं को देखने से स्पष्ट होता है कि विभिन्न समाजशास्त्रियों एवं मानवशास्त्रियों ने अपने – अपने दृष्टिकोण के आधार पर संस्कृति की परिभाषा दी है । वास्तव में संस्कृति समाज की जीवन विधि है ( Way of Life ) और इस रूप में यह आवश्यक परिवर्तन व परिमार्जन के बाद पीढ़ी – दर पीढी हस्तांतरित होती रहती है । संस्कृति के अन्तर्गत विचार तथा व्यवहार के सभी प्रकार आ जाते हैं । अतः यह स्पष्ट होता है कि संस्कृति में भौतिक एवं अमौतिक तत्वों की वह जटिल संपूर्णता , जिसे व्यक्ति समाज के सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है तथा जिसके माध्यम से अपनी जिन्दगी गुजारता है ।
संस्कृति की प्रकृति या विशेषताँए ( Nature or Characteristics of Culture )
संस्कृति के सम्बन्ध में विभिन्न समाजशास्त्रियों के विचारों को जानने के बाद उसकी कुछ विशेषताए स्पष्ट होती है , जो उसकी प्रकृति को जानने और समझने में भी सहायक होती है । यहाँ कुछ प्रमुख विशेषताओं का विवेचन किया जा रहा
1 . संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है ( Culture is learned behaviour ) – संस्कृति एक सीखा हुआ व्यवहार है । इसे व्यक्ति अपने पूर्वजों के वंशानुक्रम के माध्यम से नहीं प्राप्त करता , बल्कि समाज में समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सीखता है । यह सीखना जीवन पर्यन्त अर्थात् जन्म से मृत्यु तक अनवरत चलता रहता है । आपको जानना आवश्यक है कि संस्कृति सीख हुआ व्यवहार है , किन्तु सभी सीखे हुए व्यवहार को संस्कृति नहीं कहा जा सकता है । पशुओं द्वारा सीखे गये व्यवहार को संस्कृतिनहीं कहा जा सकता , क्योंकि पशु जो कुछ भी सीखते हैं उसे किसी अन्य पशु को नहीं सीखा सकते । संस्कृति के अंतर्गत वै आदतें और व्यवहार के तरीके आते है , जिन्हें सामान्य रूप से समाज के सभी सदस्यों द्वारा सीखा जाता है । इस सन्दर्भ में लुन्डबर्ग ( Lundbarg ) ने कहा है कि , ” संस्कृति व्यक्ति की जन्मजात प्रवृत्तियों अथवा प्राणीशास्त्रीय विरासत से सम्बन्धित नहीं होती , वरन् यह सामाजिक सीख एवं अनुभवों पर आधरित रहती है ।
ii . संस्कृति सामाजिक होती है ( Culture is Social ) – संस्कृति में सामाजिकता का गुण पाया जाता है । संस्कृति के अन्तर्गत पूरे समाज एवं सामाजिक सम्बन्धों का प्रतिनिधित्व होता है । इसलिए यह कहा जा सकता है कि किसी एक या दो – चार व्यक्तियों द्वारा सीखे गये व्यवहार को संस्कृति नहीं कहा जा सकता । कोई भी व्यवहार जब तक समाज के अधिकतर व्यक्तियों द्वारा नहीं सीखा जाता है तब तक वह संस्कृति नहीं कहला सकता । संस्कृति एक समाज की संपूर्ण जीवन विधि ( Way of Life ) का प्रतिनिधित्व करती है । यही कारण है कि समाज का प्रत्येक सदस्यं संस्कृति को अपनाता है । संस्कृति सामाजिक इस अर्थ में भी है कि यह किसी व्यक्ति विशेष या दो या चार व्यक्तियों की सम्पत्ति नहीं है । यह समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए होता है । अतः इसका विस्तार व्यापक और सामाजिक होता है ।
iii . संस्कृति हस्तान्तरित होती है ( Culture is Transmissive ) – संस्कृति के इसी गुण के कारण ही संस्कृति एक पीढी से दूसरी पीढी में जाती है तो उसमें पीढ़ी – दर – पीढ़ी के अनुभव एवं सूझ जुड़ते जाते हैं । इससे संस्कृति में थोड़ा – बहुत परिवर्तन एवं परिमार्जन होता रहता है । संस्कृति के इसी गुण के कारण मानव अपने पिछले ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर आगे नई – नई चीजों का अविष्कार करता है । आपको यह समझना होगा कि – पशुओं में भी कुछ – कुछ सीखने की क्षमता होती है । लेकिन वे अपने सीखे हुए को अपने बच्चों और दूसरे पशुओं को नहीं सिखा पाते । यही कारण है कि बहुत कुछ सीखने की क्षमता रहने के बाद भी उनमें संस्कृति का विकास नहीं हुआ है । मानव भाषा एवं प्रतीकों के माध्यम से बहुत ही आसानी से अपनी संस्कृति का विकास एवं विस्तार करता है तथा एक पीढी से दूसरे पीढी में हस्तान्तरित भी करता है । इससे संस्कृति की निरन्तरता भी बनी रहती है ।
iv . संस्कृति मनुष्य द्वारा निर्मित है ( Culture is Man – Made ) – संस्कृति का तात्पर्य उन सभी तत्वों से होता है , जिनका निर्माण स्वंय मनुष्य ने किया है । उदाहरण के तौर पर हमारा धर्म , विश्वास , ज्ञान , आचार , व्यवहार के तरीके एवं तरह – तरह के आवश्यकताओं के साधन अर्थात् कुर्सी , टेबुल आदि का निर्माण मनुष्य द्वारा किया गया है । इस तरह यह सभी संस्कृति हर्षकाविट्स का कहना है कि ” संस्कृति पर्यावरण का मानव – निर्मित भाग है । ।
संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करती है ( Culture Satisfies Human Needs ) – संस्कृति में मानव आवश्यकता पूर्ति करने का गुण होता है । संस्कृति की छोटी – से – छोटी इकाई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य की आवश्यकता पूर्ति करती है या पूर्ति करने में मदद करती है । कभी – कभी संस्कृति की कोई इकाई बाहरी तौर पर निरर्थक या अप्रकार्य प्रतीत होती है , लेकिन सम्पूर्ण डोंचे से उसका महत्वपूर्ण स्थान होता है ।
मैलिनोस्की के विचार : – प्रसिद्ध मानवशास्त्री मैलिनोस्की का कथन है कि संस्कृति के छोटे – से – छोट तत्व का अस्तित्व उसके आवश्यकता पूर्ति करने के गुण पर निर्भर करता है । जब संस्कृति के किसी भी तत्व में आवश्यकतापूर्ति करनेका गुण नहीं रह जाता तो उसका अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है । उदाहरण के तौर पर प्राचीनकाल में जो संस्कृति के तत्व थे वे समाप्त हो गए क्योंकि वे आवश्यकता पूति में असमर्थ रहे , इसमें सतीप्रथा को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है । इसी प्रकार , व्यवस्था में कोई इकाई कभी – कभी बहुत छोटी प्रतीत होती है मगर व्यवस्था के लिए वह इकाई भी काफी महत्वपूर्ण होती है । इस प्रकार , संस्कृति का कोई भी तत्व अप्रकार्यात्मक नहीं होता है बल्कि किसी भी रूप में मानव की आवश्यकता की पूर्ति । करती है । i
.vi प्रत्येक समाज की अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है ( Culture is Distinctive in every Society ) – प्रत्येक समाज की एक विशिष्ट संस्कृति होती है । हम जानते हैं कि कोई भी समाज एक विशिष्ट भौगोलिक एवं प्राकृतिक वातावरण लिये होता है । इसी के अनुरूप सामाजिक वातावरण एवं संस्कृति का निर्माण होता है । उदाहरण के तौर पर पहाड़ों पर जीवन यापन करने वाले लोगों का भौगोलिक पर्यावरण , मैदानी लोगों के भौगोलिक पर्यावरण से अलग होता है । इसी प्रकार , इन दोनों स्थानों में रहने वाले लोगों की आवश्यकताएं अलग – अलग होती है । जैसे – खाना , रहने – सहने का तरीका , नृत्य , गायन , धर्म आदि । अतः दोनों की संस्कृति भौगोलिक पर्यावरण के सापेक्ष में आवश्यकता के अनुरूप विकसित होती है । जब समाज के व्यवहारों एवं आवश्यकताओं में परिवर्तन होते हैं तो संस्कृति में भी परिवर्तन होता है । विभिन्न समाज के लोगों के व्यवहार में परिवर्तन की दर एवं दिशा भिन्न होती है . जिसके कारण संस्कृति में परिवर्तन की दर एवं दिशा में भी भिन्नता पायी जाती है ।
vii . संस्कृति में अनुकूलन का गुण होता है ( Culture has Adoptive Quality ) – संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता होती है कि यह समय के साथ – साथ आवश्यकताओं के अनुरूप अनुकूलित हो जाती है । संस्कृति समाज के वातावरण एवं परिस्थिति के अनुसार होती है । जब वातावरण एवं परिस्थिति में परिवर्तन होता है तो संस्कृति भी उसके अनुसार अपने का ढालती है । यदि यह विशेषता एवं गुण न रहे तो संस्कृति का अस्तित्व ही नहीं रह जायेगा । संस्कृति में समय एवं परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होने से उराकी उपयोगिता समाप्त नहीं हो पाती । प्रत्येक संस्कृति का प्रमुख उद्देश्य तथा कार्य गानव की शारीरिक , मानसिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है । इन आवश्यकताओं के अनुसार ही संस्कृति को ढालना पड़ता है क्या आप जानते हैं – प्रत्येक युग में लोगों की आवश्यकताएँ भिन्न – भिन्न रही है । पुरानी आवश्यकताओं के स्थान के स्थान पर नई आवश्यकताओं का जन्म हुआ है तथा समय – समय पर इनमें परिवर्तन भी होते हैं । इनके साथ अनुकूलन का गुण संस्कृति में होता है । यही कारण है कि संस्कृति में परिवर्तन होता है , लेकिन संस्कृति में परिवर्तन बहुत ही धीमी गति से होता है ।
viii . संस्कृति अधि – सावयवी ह ( Culture is Super – organic ) – मानव ने अपनी मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं के प्रयोग द्वारा संस्कृति का निर्माण किया , जो सावयव से ऊपर है । संस्कृति में रहकर व्यक्ति का विकास होता है और फिर मानव संस्कृति का निर्माण करता है जो मानव से ऊपर हो जाता है । मानव की समस्त क्षमताओं का आधार सावयवी होता है , किन्त इस संस्कृति को अघि – सावयवी से ऊपर हो जाती है । इसी अर्थ में संस्कृति को अधि – सावयवी ( Super – Organic ) कहा गया है ।
ix . संस्कृति अधि – वैयक्तिक है ( Culture is Super – individual ) – संस्कृति की रचना और निरन्तरता दोनों ही किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं है । इसलिए यह अधि – वैयक्तिक ( Super – individual ) है । संस्कृति का निर्माण किसी व्यक्ति विशेष द्वारा नहीं किया गया है बल्कि संस्कृति का निर्माण सम्पूर्ण समूह द्वारा होता है । प्रत्येक सांस्कृतिक इकाई का अपना एक इतिहास होता है , जो किसी एक व्यक्ति से परे होता है । संस्कृति सामाजिक अविष्कार का फल है , किन्तु यह अविष्कार किसी एक व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज नहीं है । इस प्रकार कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण संस्कृति का निर्माता नहीं हो सकता । इसमें परिवर्तन एवं परिमार्जन करने की भी क्षमता किसी व्यक्ति विशेष के वश की बात नहीं है । इस प्रकार संस्कृति अधि – वैयक्तिक है ।
x संस्कृति में संतुलन तथा संगठन होता है ( Culture has The Integrative ) – संस्कृति के अन्तर्गत अनेक तत्व एवं खण्ड होते हैं किन्तु ये आपस में पृथक नहीं होते , बल्कि इनमें अन्तः सम्बन्ध तथा अन्तः निर्भरता पायी जाती है । संस्कृति की । प्रत्येक इकाई एक – दूसरे से अनग हटकर कार्य नहीं करती , बल्कि सब सम्मिलित रूप से कार्य करती है । इस प्रकार के संतुलन एवं संगठन से सांस्कृतिक ढाँचे का निर्माण होता है । इस ढाँचे के अन्तर्गत प्रत्येक इकाई की एक निश्चित स्थिति एवं कार्य होता है , किन्तु यह सभी एक – दूसरे पर आधारित एवं सम्बन्धित होती है । संस्कृति के किसी एक अंग में या इकाई में । परिवर्तन होने पर दूसरे पक्ष या दूसरी इकाई पर भी प्रभाव पड़ता है ।
- संस्कृति समूह का आदर्श होती है ( Culture is Ideal for The Croup ) – प्रत्येक समूह की संस्कृति उस समूह के लिए आदर्श होती है । इस तरह की धारण सभी समाज में पायी जाती है । सभी लोग अपनी ही संस्कृति को आदर्श समझते हैं तथा अन्य संस्कृति की तुलना में अपनी संस्कृति को उच्च मानते हैं । संस्कृति इसलिए भी आदर्श होती है कि इसका व्यवहार – प्रतिमान किसी व्यक्ति – विशेष का न होकर सारे समूह का व्यवहार होता है ।
आपको यह समझना आवश्यक है कि – इमाइल दुर्थीम के अनुसार , संस्कृति सामूहिक – चेतना का प्रतीक है अर्थात किसी व्यक्ति विशेष का नहीं बल्कि समूह को प्रतिनिधित्व करती है , इसलिए यह आदर्श मानी जाती है , यही कारण है कि इसकी अवहेलना सामूहिक चेतना के विरूद्ध होती है तथा उस व्यक्ति की निंदा होती है मगर जो इसका सम्मान करते हैं उसकी प्रशंसा होती है ।
संस्कृति के प्रकार
ऑगर्बन एवं निमकॉफ ने संस्कृति के दो प्रकारों की चर्चा की है –
भौतिक संस्कृति एवं अभौतिक संस्कृति । 1 . भौतिक संस्कृति
-1.भौतिक संस्कृति के अर्न्तगत उन सभी भौतिक एवं मूर्त वस्तुओं का समावेश होता है जिनका निर्माण मनुष्य के लिए किया है , तथा जिन्हें हम देख एवं छू सकते हैं । भौतिक संस्कृति की संख्या आदिम समाज की तुलना में आधुनिक समाज में अधिक होती है , प्रो . बीयरस्टीड ने भौतिक संस्कृति के समस्त तत्वों को मुख्य 3 वर्गों में विभाजित करके इसे और स्पष्ट करने का प्रयास किया है iमशीनें 1 . उपकरण iii . बर्तन iv . इमारतें v . सड़कें vi . पुल vii . शिल्प वस्तुएँ viiiकलात्मक वस्तुएँ ix . वस्त्र x . वाहन xi फर्नीचर xii . खाद्य पदार्थ xiii औषधियां आदि ।
भौतिक संस्कृति की विशेषताएँ इस प्रकार हैं
1 . भौतिक संस्कृति मूर्त होती है ।
2 . इसमें निरन्तर वृद्धि होती रहती है ।
3 . भौतिक संस्कृति मापी जा सकती है ।
4 . मौलिक संस्कृति में परिवर्तन शीध होता है ।
5 . इसकी उपयोगिता एवं लाभ का मूल्यांकन किया जा सकता है ।
6 . भौतिक संस्कृति में बिना परिवर्तन किये इसे ग्रहण नहीं किया जा सकता है । अर्थात एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने तथा उसे अपनाने में उसके स्वरूप में कोई फर्क नहीं पड़ता । उदाहरण के लिए मोटर गाड़ी , पोशाक तथा कपड़ा इत्यादि ।
अभौतिक संस्कृति – अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत उन सभी अभौतिक एवं अमूर्त वस्तुओं का समावेश होता है , जिनके कोई माप – तौल , आकार एवं रंग आदि नहीं होते । अभौतिक संस्कृति समाजीकरण एवं सीखने की प्रक्रिया द्वारा एक पीढी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती रहती है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अभौतिक संस्कृति का तात्पर्य संस्कृति के उस
107 पक्ष में होता है , जिसका कोई मूर्त रूप नहीं होता , बल्कि विचारों एवं विश्वासों कि माध्यम से मानव व्यवहार को नियन्त्रित , नियमित एवं प्रभावी करता है । प्रो . बीयरस्टीड ने अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत विचारों और आदर्श नियमों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया और कहा कि विचार अभौतिक संस्कृति के प्रमुख अंग है । विचारों की कोई निश्चित संख्या हो सकती है , फिर भी प्रो . बीयरस्टीड ने विचारों के कुछ समूह प्रस्तुत किये हैं वैज्ञानिक सत्य धार्मिक विश्वास पौराणिक कथाएँ iv . उपाख्यान साहित्य vi अन्ध – विश्वास vii . सूत्र viii लोकोक्तियाँ आदि । ये सभी विचार अभौतिक संस्कृति के अंग होते हैं । आदर्श नियमों का सम्बन्ध विचार करने से नहीं , बल्कि व्यवहार करने के तौर – तरीकों से होता है । अर्थात व्यवहार के उन नियमों या तरीकों को जिन्हें संस्कृति अपना आदर्श मानती है , आदर्श नियम कहा जाता है । प्रो . बीयरस्टीड ने सभी आदर्श नियमों को 14 भागों में बाँटा है 1 . कानून 2 . अधिनियम 3 . नियम 4 . नियमन 5 . प्रथाएँ 6 , जनरीतियाँ 7 . लोकाचार 8 . निषेध 9 . फैशन 10 . संस्कार 11 . कर्म – काण्ड 12 . अनुष्ठान 13 . परिपाटी 14 . सदाचार ।
अभौतिक संस्कृति की विशेषताएँ इस प्रकार हैं
1 . अभौतिक संस्कृति अमूर्त होती है ।
2 . इसकी माप करना कठिन है ।
3 . अभौतिक संस्कृति जटिल होती है ।
4 . इसकी उपयोगिता एवं लाभ का मूल्यांकन करना कठिन कार्य है ।
5 अभौतिक संस्कृति में परिवर्तन बहत ही धीमी गति से होता है ।
6 . अभौतिक संस्कृति को जब एक स्थान से दूसरे स्थान में ग्रहण किया जाता है , तब उसके रूप में थोड़ा – न – थोड़ा परिवर्तन अवश्य होता है ।
7 . अभौतिक संस्कृति मनुष्य के आध्यात्मिक एवं आन्तरिक जीवन से सम्बिन्धित होती है ।
भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति में अन्तर
भौतिक एवं अभौतिक पक्षों के योग से ही संस्कृति की निर्माण होता है किन्तु दोनों में कुछ अन्तर हैं , जो इस प्रकार है
1 . भौतिक संस्कृति को सभ्यता भी कहा जाता है , जबकि अभौतिक संस्कृति को केवल संस्कृति कहा जाता है ।
2 . भौतिक संस्कृति मूर्त होती है , जबकि अभौतिक अमूर्त । जैसे – रेलगाडी तथा वैज्ञानिक का विचार एवं दिमाग , जिससे रेलगाड़ी का आविष्कार हुआ । यहाँ रेलगाड़ी भौतिक संस्कृति है , जबकि वैज्ञानिक का विचार अभौतिक संस्कृति है ।
3 . अभौतिक की तुलना में भौतिक संस्कृति को ग्रहण करना आसान है । उसे कहीं भी किसी स्थान पर स्वीकार किया जा सकता है , किन्तु अभौतिक संस्कृति को ग्रहण करना आसान नहीं है । दूसरे स्थान पर स्वीकार करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । बहुत आससनी से हम दूसरे स्थानों के आदर्शों एवं मूल्यों को स्वीकार नहीं कर पाते हैं ।
4 . भौतिक संस्कृति की तुलना में अभौतिक संस्कृति में धीमी गति से परिवर्तन होता है । जैसे – मोटर , घडी आदि बदल जाते हैं , किन्तु मनुष्य के विश्वास जल्द नहीं बदलते । ।
5 . भौतिक संस्कृति चूँकि मूर्त होती है , अतः उसकी माप करना सरल है , किन्तु अभौतिक संस्कृति अमर्त रहने के कारण उसकी माप में कठिनाइयों आती हैं । इसकी माप तौल करना सम्भव नहीं होता ।
6भौतिक संस्कृति में वृद्धि तीव्र गति से होती है , जबकि अभौतिक संस्कृति में वृद्धि बहुत ही मन्द गति से होती है । उदाहरण के लिए समाज में नई – नई खोज एवं आविष्कार से तरह – तरह की वस्तु सामने आती है , किन्तु व्यक्ति का विचार वर्षों पुराना ही पाया जाता है ।
7 . अभौतिक संस्कृति की वृद्धि एवं संचय को स्पष्ट नहीं किया जा सकता । किन्तु भौतिक संस्कृति में वृद्धि एवं संचय होता है और उसे मापा भी जा सकता है ।
8 . भौतिक संस्कृति के लाभ एवं उपयोगिता को माप कर बताया जा सकता है , किन्तु अभौतिक संस्कृति की उपयोगिता एवं लाम को मूल्यांकित नहीं किया जा सकता । इसे मात्र अनुभव किया जा सकता है ।
9 . भौतिक संरकृति मानद के दाह्मय एवं भौतिक जीवन से राम्बिन्धित होती है , जबकि अभौतिक संस्कृति मानव के आध्यात्मिक एवं आन्तरिक जीवन से सम्बिन्धित होती है ।
10 . भौतिक संस्कृति सरल होती है , जबकि अभौतिक संस्कृति का स्वरूप जटिल होता है । ।
संस्कृति की संरचना ( The Structure of Culture )
1 . सांस्कृतिक तत्व ( Culture Traits )
2 . सांस्कृतिक संकुल ( Culture Complex )
3 . सांस्कृतिक प्रतिमान ( Culture Pattern or Culture Configuration )
1 . सास्कृतिक तत्व – सांस्कृतिक तत्व संस्कृति की लघुतम इकाईयों अथवा अकेले तत्व होते हैं । इन इकाइयों को मिलाकर संस्कृति का निर्माण होता है । इन इकाइयों को मिलाकर संस्कृति का निर्माण होता है । हर्षकोविट्स ने सांस्कृतिक तत्व को एक संस्कृति – विशेष में सबसे छोटी पहचानी जा सकने वाली इकाई कहा है । क्रोबर ने इसे ” संस्कृति का न्यून्तम परिभाष्य तत्व कहा । उदाहरण के लिए – हाथ मिलाना , चरण स्पर्श करना , टोप उतारना , गालों का चुम्बन लेना , स्त्रियों को आवास स्थान प्रदान करना , झंडे की सलामी , शोक के समय श्वेत साड़ी पहनना , शाकाहारी भोजन खाना , नंगे पाँव चलना , मूर्तियों पर जल छिड़कना । इसकी तीन प्रमुख विशेषताएं होती हैं i प्रत्येक सांस्कृतिक तत्व का उसकी उत्पत्ति विषयक इतिहास होता है , चाहे वह इतिहास छोटा हो या बड़ा । ii . सांस्कृतिक तत्व स्थिर नहीं होता । गतिशीलता उसकी विशेषता है । iii . सांस्कृतिक तत्वों में संयुक्तीकरण की प्रकृति होती है । वे फूलों के गुलदस्ते की भाँति घुल – मिलकर रहते है ।
2 . सांस्कृति संकुल – सांस्कृतिक तत्वों से मिलकर बनते है । जब कुछ या अनेक तत्व मिलकर मानव अवश्यकता की पूर्ति करते हैं । इस प्रकार , मूर्ति के सम्मुख नतमस्तक होना , उसपर पवित्र जल छिडकना , उसके मुंह में कुछ भोजन रखना , हाथ जोड़ना , पुजारी से प्रसाद लेना तथा आरती गाना आदि सभी तत्व मिलकर धार्मिक सांस्कृतिक संकुल का निर्माण करते हैं । Piddington ने सांस्कृतिक संकुल को सांस्कृतिक तत्वों का प्रकार्यात्मक सम्मिलन ( Functional Association ) कहा जाता
3 . सांस्कृतिक प्रतिमान – जब सास्कृतिक तत्व एवं संकुल मिलकर प्रकार्यात्मक भूमिकाओं में परस्पर संबंधित हो जाते हैं तो उनसे संस्कृति प्रतिमान का जन्म होता है । संस्कृति – प्रतिमान के अध्ययन से किसी संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं का ज्ञान होता है । उदाहरणार्थ – गाँधीवाद , अध्यात्मवाद , जाति – व्यवस्था , संयुक्त परिवार , ग्रामीणउसद भारतीय संस्कृति के संस्कृति संकुज हैं जो भारतीय संस्कृति की विशेषताओं का परिचय देते हैं ।
Clark Wissler ने 9 आधार मूलक सांस्कृतिक तत्वों का उल्लेख किया है जो संस्कृति – प्रतिमान को जन्म देते हैं
1 . वाणी एवं भाषा
2 . भौतिक तत्व – 1 भोजन की आदतें निवास iii यातायात iv . बर्तन आदि v . शस्त्र viव्यवसाय एवं उद्योग
3 . कला
4 . पुराण विद्या एवं वैज्ञानिक ज्ञान
5 . धार्मिक क्रियाएँ
6 . परिवारिक एवं सामाजिक प्रजातियाँ
7 . सम्पत्ति
8 . शासन
9 . युद्ध ।
किम्बल यंग ( Kimble Young ) ने संस्कृति के 13 तत्वों को सार्वभौमिक प्रतिमानों में सम्मिलित किया है
1 . स्चरण के प्रतिमान : संकेत एवं भाषा
2 . मनुष्य तक कल्याण हेतु वस्तुएँ एवं दंग
3 . मात्रा एवं यातायात के साधन एवं ढंग
4 , वस्तुओं एवं सेवाओं का विनिमय – व्यापार वाणिज्य
5 . सम्पत्ति के प्रकार – वास्ततिक एवं व्यक्तिक
6 . लगिक एवं पारिवारिक प्रतिमान – विवाह एवं तलाक नातेदारी सम्बन्धों के प्रकार अत्तराधिकारिता संरक्षकता ।
7 . सामाजिक नियंत्रण तथा शासकीय संस्थाएं – लोकाचार जनमत कानून युद्ध
8 . कलात्मक अभिव्यक्तिः निर्माण कला , चित्रकला , संस्कृति
9 . विश्राम के समय गतिविधि
10 . धार्मिक एवं जादूई विचार
11 . पुराण शास्त्र एवं दर्शनशास्त्र
12 . विज्ञान
13 . मूलाधार अंतक्रियात्मक प्रक्रियाओं की सांस्कृतिक संरचना ।
संस्कृति के प्रकार्य
( Function of Culture )
1 . व्यक्ति के लिए
2 समूह के लिए
1 . व्यक्ति के लिए
i संस्कृति मनुष्य को मानव बनाती है ।
- जटिल स्थितियों का समाधान ।
iiiमानव आवश्यकताओं की पूर्ति
iv . व्यक्तित्व निर्माण
V : मानव को मूल्य एवं आदर्श प्रदान करती है ।
vi मानव की आदतों का निर्धारण करती है ।
vii . नैतिकता का निर्धारण करती है ।
viiiव्यवहारों में एकरूपता लाती हैं ।
ixअनुभव एवं कार्यकुशलता बढ़ाती है ।
x . व्यक्ति की सुरक्षा प्रदान करती है ।
xi . समस्याओं का समाधान करती है ।
xii . समाजीकरण में योग देती है ।
xiii प्रस्थिति एवं भूमिका का निर्धारण करती है ।
xiv . सामाजिक नियन्त्रण में सहायक
. 2 समूह के लिए
iसामाजिक सम्बन्धों को स्थिर रखती है ।
iiव्यक्ति के दृष्टिकोण को विस्तृत करती है ।
iiiनई आवश्यकताओं को उत्पन्न करती है ।
. Phase of Culture
Dr . Dube ने संस्कृति की छः अवस्थाओं की चर्चा की है ।
1 . आदि पाषाण युग
2 . पुरापाषाण युग
3 . नवपाषाण युग
4 . ताम्रयुग
5 . कॉस्य युग
6 . लौह युग
संस्कति के नियामक आधार
( Normative Bases of Culture )
Emile Durkhim ने समाज की एकता और स्थिरता को बनाये रखने के लिए नियामक आधारों की आवश्यकता के सम्बन्ध में कहा | W . G . Sumner ने समाज के प्रभावशाली संचालन के लिए नियामक आधारों की आवश्यकता पर बल दत जब हम सस्कृति के नियामक आधारों की बात करते हैं तब हम उन सभी अमूर्त स्वरूपों की चर्चा करते है जो किसी – न – किसी रूप से सामाजिक व्यवहार को नियंत्रित करते हैं , निर्देशित करते हैं एवं प्रभावित करत हो । उदाहरण – नियम – मूल्य , जनरीतियों , रूद्वियों , कानून , प्रथा आदि । करते है ।
सामाजिक अनुशास्ति ( Social Sanction ) सामाजिक अनुशास्ति दो प्रकार की होती है
1 . सकारात्मक अनुशास्ति ( Possitive Sanction )
2 . नकारात्मक अनुशास्ति ( Negative Sanction ) सकारात्मक अनुशास्ति वह है जो किसी कार्य को अपेक्षित सानता है और जिसके करने पर सामाजिक सम्मान में वृद्धि होती है । उदाहरण के लिए कार्यालय में समय पर पहुँचना एक अच्छी बात है और जो ऐसा करते हैं उन्हें अच्छा माना जाता है । नकारात्मक अनुशास्ति , ऐसे कार्य जिसके करने पर प्रतिष्ठा गिरती है , दण्ड मिलता है । उदाहरण के लिए , भारत में स्त्रियों पर हाथ उठाना बुरा माना जाता है , एवं जिससे प्रतिष्ठा गिरती है ।
सांस्कृतिक विलम्बन
( Culture Lag )
इस अवधारणा की चर्चा डब्ल्यू एफ ऑगबर्न ( W . F . Ogbum ) ने अपनी पुस्तक ‘ Social Change में 1925 में की । अगिबर्न के अनुसार संस्कृति को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा जा सकता है
1 . भौतिक एवं
2 आमौतिक संस्कृति के ये दोनों भागों समान गति से परिवर्तित नहीं होते हैं । किन्हीं कारणों से एक भाग आगे बढ़ जाता है । दूसरा पीछे छूट जाता है । फलस्वरूप सांस्कृतिक विलम्बना की स्थिति पैदा होती है । इससे समाज में व्याधियाँ उत्पन्न होती है । जैसे ही पीछे छूटे हुए भाग को आगे लाया जाता है तो समाज में परिवर्तन होता है । इस तरह ऑगवर्न के अनुसार सांस्क । तिक विलम्बन समाजशास्त्रियों के हाथ में एक मंत्र है जिसके द्वारा समाज परिवर्तित होता है ।इन्हान जितने भी उदाहरण दिए वह सब यही स्पष्ट करते हैं कि भौतिक संस्कृति आगे बढ़ जाती है और अभौतिक पछि रह जाता है । इसपर इनकी काफी आलोचना हुई । इन आलोचनाओं को स्वीकार करते हुए 1957 में अपनी पुस्तक ‘ On Social and Culture Change में सांस्कतिक विलम्बन को पर्ण परिभाषित करते हुए इसे एक सिद्धात के रूप में प्रस्तुत कया । इनके अनुसार – a culture lag occurs when end the two parts which are co – related or change before or in greater degree than the other part does their by causing less adjustment between the part then exist its previously . इस परिभाषा से स्पष्ट है कि सांस्कृतिक विलम्बन के लिए निम्नलिखित परिस्थितियों का होना जरूरी है 1 . कोई दो चर चाहे दोनो भौतिक या एक भौतिक एक अभौतिक । ii . दोनों चरों के बीच में सह – सम्बन्ध होना आवश्यक है । iii . दोनों चरों के बीच एक खास समय में अनुकूलन आवश्यक है । IV . किसी कारणवश एक आगे बढ़ जाए एक पीछे । फलस्वरूप दोनों में विलम्बन हो जाए ।
सांस्कृतिक विलम्बन उत्पन्न होने के चार कारक है
1 . रूढ़िवादिता
2 . अतीत के प्रति निष्ठा
3 . नए विचारों के प्रति भय
4 . निहित स्वार्थ
इसकी आलोचना करते हुए मैकाइवर एवं पेज ( Mackiwar and Page ) ने कहा है कि Cultural Lag की जगह Technological Lag का प्रयोग होना चाहिए । आज के समाजशास्त्र में Culture Lag महत्वहीन है क्योंकि यह केवल दो चरों की बात करता है जबकि आज किसी भी विज्ञान में Multiple of factors की बात होती है ।
Culture Change – प्रश्न उठता है कि संस्कृति में परिवर्तन क्यों होता है । समनर ने इसके तीन कारण बताये हैं
1 . संस्कृति का शत – प्रतिशत हस्तान्तरण असम्भव है । 2 . बाह्य दशाओं में परिवर्तन 3 . अनुकूलन का प्रयत्न ।
Culture Contact – जब दो भिन्न संस्कृतियाँ एक – दूसरे के सम्पर्क में आती हैं तो उसे सांस्कृतिक सम्पर्क करते हैं । सांस्कृतिक सम्पर्क के कारण संस्कृतिकरण या पर –
संस्कृतिकरण ( Acculturation ) की प्रक्रिया शुरू होती है । Accultraltion ( पर – संस्कृतिकरण ) – हर्षकावितस के अनुसार , ” जब दो संस्कृतियों के तत्व आपस में घुजते – मिलते हैं । यह दो तरफा प्रक्रिया है ( Two Way Process ) जैसे – भारतीय मुसलमान और हिन्दू एक दूसरे के तत्व अपनाये हैं ।
Culteral Relativism ( सांस्कृतिक सापेक्षववाद ) – हर्षकोवितस ने इसका उल्लेख किया है । सांस्कृतिक सापेक्षता का अर्थ है विभिन्न संस्कृतियों का पाया जाना । सांस्कृतिक सापेक्षवाद को हम अभिवादन के उदाहरण द्वारा व्यक्त कर सकते हैं । भारत में अभिवादन के लिए हाथ जोड़ते हैं , पश्चिमी समाजों में हाथ मिलाते और टोप उतारते हैं , जापान में शरीर को झुकाया जाता है तो अफ्रीका के मसाई जनजाति के लोग एक – दूसरे पर थूकते हैं । प्रत्येक मनुष्य के अनुभव , निर्णय और व्यवहार अपनी संस्कृ ति के अनुरूप ही होते हैं , इसे ही सांस्कृतिक सापेक्षवाद कहा जाता है । अतः हर्षकोवितस का कहना है कि किसी भी संस्कृति की तुलना दूसरी संस्कृति के मूल्यों के आधार पर नहीं करनी चाहिए बल्कि हर संस्कृति का मूल्यांकन उसके अपने संस्कृति के सापेक्ष में करना चाहिए ।
Ethnocentricism ( स्व – संस्कृति केन्दियता ) – इसकी चर्चा अमेरिकन समाज शास्त्री W . G . Sumner ने की है । जब एक संस्कृति के लोग अपनी संस्कृति के उच्चतर मानकर अन्य सारी संस्कृतियों का मूल्यांकन उसी आधार पर करते हैं तो इसे Ethnocetrism कहते हैं ।
Temperocentricism ( स्वकाल केन्द्रीयता ) Bierstedt ने चर्चा करते हुए कहा कि हर प की भूत क वानस्बत ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं
TransCulturation ( परा – संस्कृतिग्रहण वह प्रक्रिया जिसमें दो या दो से अधिक संस्कृतिया अपना आदान – प्रदान करती है । उसे Trans – Culturation कहते हैं ।
सास्कृतिक बहुलतावाद Cultural Pluralism इसका तात्पर्य ऐसे समाज से है जहाँ बहुत सारा सा स मल – जुलकर रहते हैं । सभी एक – दूसरे का सम्मान करते हैं , कोई किसी को हीन नहीं समझला । उदाहरण के तौर पर भारतीय संस्कृति ।
सभ्यता
( Civilization )
सामान्यतः ” सभ्यता शब्द का प्रयोग लोग संस्कृति के अर्थ में करते हैं अर्थात आम – बोल – चाल में इन दोनों को । एक ही अर्थ में समझते हैं । सभ्यता के अन्तर्गत हम उन भौतिक वस्तुओं को सम्मिलित करते हैं , जिनके माध्यम से हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । उदाहरण के लिए मकान , मेज , कलम जिसे देख सकते हैं तथा छू सकते हैं । इसे भौतिक संस्कृति भी कहा जाता है । हड़प्पा सभ्याता को सभ्यता क्यों कहते है ?
सभ्यता के अंग्रेजी शब्द Civilization ” की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Civitas और Civis ‘ से हई है , जिसका अर्थ शहरी एवं नगरी समूह होता है । ऐसे समूह शिक्षित , व्यवहार – कुशल एवं सम्यता के सूचक होते हैं । सभ्य समाज के लोगों का व्यवहार जटिल होता है , उनकी भाषा विकसित होती है तथा अनके कार्यों में विभेदीकरण एवं विशेषीकरण पाया जाता है । अनेक विद्वानों ने सभ्यता की परिभाषा दी है । कुछ समाजाशास्त्रियों द्वारा दी गई परिभाषाओं का उल्लेख किया जा रहा है ।
ऑगबर्न एवं निमकॉफ ने सभ्यता की परिभाषा देते हुए कहा कि सभ्यता को अधि – सावयवी संस्कृति के बाद की अवस्था कहा ।
ग्रीन के अनुसार ” संस्कृति तब सभ्यता बनती है , जब उसके पास लिखित भाषा , विज्ञान , दर्शन , अत्यधिक विशेषीकरण वाला श्रम विभाजन , जटिल प्रविधि तथा राजनैतिक व्यवस्था हो ।
‘ मैकाइवर एवं पेज ने सभ्यता को अलग ढग से परिभाषित किया है । सभ्यता से हमारा तात्पर्य उस सम्पूर्ण प्रविधि और संगठन से है जिसे मानव ने अपने जीवन की दशाओं को नियन्त्रण करने के प्रयास में बनाया है । ‘ मैकाइवर ने अपनी परिभाषा में सामाजिक संगठन के साथल – साथ भौतिक उपकरणों को भी शामिल किया है जो मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । उदाहरणस्वरूप टाइपराइटर , टेलीफोन , प्रेस , मोटर आदि हैं , जो मानव के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए साधन के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं ।
सम्यता की विशेषताएं
संस्कृति की तरह सभ्यता की भी कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं ,
1भातिक स्वरूप – सभ्यता के अन्तर्गत भौतिक वस्तुओं का समावेश होता है । भौतिक पक्ष के दृष्टिकोण से सभ्यता मूर्त होती है । अर्थात हमस म्यता को देख एवं छ सकते हैं । इन भौतिक वस्तुओं का निर्माण भी मानव द्वारा ही होता है । जैसे – टेबन , कुर्सी आदि । .
2 उपयोगिता सभ्यता के अन्तर्गत सभी भौतिक वस्तओं को सम्मिलित नहीं किया जाता । इसमें वे सारी चीज साम्मलित होती हैं जो उपयोगिता के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होती हैं । तिन वस्तुओं की उपयोगिता समाप्त हो जाती है , उन्हें लोग त्याग देते हैं । अर्थात सभ्यता मानव को आनन्द और सन्तुष्टि प्रदान करती है ।
- सभ्यता साधन है . . . सभ्यता उस अ साधनयोकि इसके अन्तर्गत उन वस्तओं का सम्मिलित किया जाता ह . जिनकद्वारा मनुष्य अपने उददेश्यों की पर्ति करता है । यह वैसी उपयोगह वस्तु होती है जिसके द्वारा मनुष्य अपने उद्देश्यों की पूर्ति करता है । जैसे गाड़ी से हम एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से गमन करत है ।
4 पारवतनशीलता – सभ्यता में परिवर्तन बहत ही तीव्र गति से होता है , मनुष्य की आवश्यकताओं एवं रूचियों में पारवलन के साथ – साथ उनके पति के साधन भी बदल जाते हैं । यही कारण है कि सभ्यता में हमेशा परिवर्तन होता रहता है ।
5 निश्चित दिशा – सभ्यता का विकास एक निश्चित दिशा की ओर होता है । इसका विकास हमेशा ऊपर की ओर होता है । सभ्यता के विकास की गति कभी भी पीछे की ओर नहीं मुडती । सभ्यता में निरन्तर प्रगति होती रहती है ।
6 . मापन सम्भव – सभ्यता के अन्तर्गत आने वाली वस्तुओं की माप करना सम्भव होता है ।
- ग्रहणशीलता – सभ्यता में ग्रहणशीलता का गुण पाया जाता है । अर्थात् कोई भी व्यक्ति सभ्यता को ग्रहण कर सकता है और उससे लाभ उठा सकता है । एक वस्तु का निर्माण या आविष्कार चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हो , लेकिन उसे हर क्षेत्र में लोग आसानी से ग्रहण कर सकते हैं तथा उससे लाभ उठा सकते हैं ।
- वैकल्पिकता – सभ्यता के अन्तर्गत जितनी वस्तुएं आती हैं उन्हें अपनाना अनिवार्य नहीं होता । यह व्यक्ति की इच्छा एवं रूचि पर निर्भर करता है कि वह उस वस्तु को अपनायेगा अथवा नहीं । उदाहरण के लिए , कोई व्यक्ति यात्रा मोटरगाडी , रेलगाड़ी , बस अथवा पैदल भी कर सकता है । यह व्यक्ति विशेष की इच्छा पर निर्भर है । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि सभ्यता बाध्यतामूलक न होकर वैकल्पिक होती है ।
सभ्यता और संस्कृति में अन्तर
सभ्यता और संस्कृति शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में प्रायः लोग करते हैं , किन्तु सभ्यता और संस्कृति में अन्तर है । सभ्यता साधन है जबकि संस्कृति साध्य । सभ्यता और संस्कृति में कुछ सामान्य बातें भी पाई जाती हैं । सभ्यता और संस्कृति में सम्बन्ध पाया जाता हैं । सभ्यता संस्कृति के लिए प्यावरण तैयार करता है और संस्कृति का प्रचार भी सभ्यता के द्वारा ही होता है । संस्कृति सभ्यता को दिशा प्रदान करती है । सभ्यता के द्वारा ही संस्कृति एक समाज से दूसरे समाज में तथा एक पीढी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती रहती है । सभ्यता और संस्कृति दोनों एक – दूसरे से प्रभावित होती हैं तथा एक – दूसरे को प्रभावित करती भी हैं । मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दोनों का निर्माण तथा विकास हुआ । इनमें इतना अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध हाता है कि इन्हें एक – दूसरे से पृथक करना कठिन कार्य है । इसके बावजूद सभ्यता और संस्कृति में अन्तर होता है । मैकाइवर एवं पेज ने सभ्यता और संस्कृति में अन्तर किया है । इनके द्वारा दिये गये अन्तर इस प्रकार हैं
1 . सभ्यता की माप सम्भव है , लेकिन संस्कृति की नहीं – सभ्यता को मापा जा सकता है । चूंकि इसका सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं की उपयोगिता से होता है इसलिए उपयोगिता के आधार पर इसे अच्छा – बुरा , ऊँचा – नीचा , उपयोगी अनुपयोगी बलाया जा सकता है । संस्कृति के साथ ऐसी बाता नहीं है । संस्कृति की माप सम्भव नहीं है । इसे तुलनात्मक रूप से अच्छा – बुरा , ऊँचा – नीचा , उपयोगी अनुपयोगी नहीं बताया जा सकता है । हर समूह के लोग अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताते हैं । हर संस्कृति समाज के काल एवं परिस्थितियों की उपज होती है । इसलिए इसके मूल्यांकन का प्रश्न नहीं उठता । उदाहरण स्वरूप हम नई प्रविधियों को देखे । आज जो वर्तमान है और वह परानी चीजों से उत्तम है तथा आने वाले समय में उससे भी उन्नत प्रविधि हमारे सामने मौजूद होगी । इस प्रकार की तुजना हम संस्कृति के साथ नहीं कर सकते । दो स्थानों और दो युगों की संस्कृति को एक – दूसरे से श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता । बताते हैं । हर संस्कृति , उपयोगी अनुपयोगी नहीं बताहीं है । संस्कृति की माप सम्बया
2 . सम्यता सदैव आगे बढ़ती है , लेकिन संस्कृति नहीं – सम्यता में निरन्तर प्रगति होती रहती है । यह कभी भी पीछे की ओर नहीं जाती । मैकाइवर ने बताया कि सभ्यता सिर्फ आगे की ओर नहीं बढ़ती बल्कि इसकी प्रगति एक ही दिशा में होती है । आज हर समय नयी नयी खोज एवं आविष्कार होते रहते हैं जिसके कारण हमें पुरानी चीजों की तुजना में उन्नत चीजें उपलब्ध होती रहती हैं । फलस्वरूप सभ्यता में प्रगती होती रहती है । सभ्यता में प्रगति होती रहती है । सभ्यता का हर पहला कदम , हर नया आविष्कार , हर नयी खोज , हर नयी वस्तु पिछले कदम , पिछले आविष्कार , पिछजी खोज , पिछली वस्तु की अपेक्षा अच्छी होती है । किन्तु यह संस्कृति के साथ सम्भव नहीं है । यह कभी भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि पहले के कवि , उपन्यासकार , नाटककार , इत्यादि की अपेक्षा आज बाल ज्य जा परिवर्तन होता है । उसकी दिशा भी निश्चित नहीं होती । उपन्यासकार , नाटककार , इत्यादि की अपेक्षा आज वाल ज्यादा बेहतर हैं । संस्कृति में
3 . सभ्यता बिना प्रयास के आगे बढ़ती है , संस्कति नहीं – सभ्यता के विकास एवं प्रगति के लिए विशष प्रयल का सानहाहाता , यह बहुत ही सरलता एवं सजगता से आगे बढ़ती जाती है । जब किसी भी नई वस्तु का हाता तब उस वस्तु का प्रयोग सभी लोग करते हैं । यह जरूरी नहीं है कि हमउसक सम्बन्ध में पूरी पान रखया उसक आविष्कार में पूरा योगदान दें । अर्थात इसके बिना भी इनका उपभोग किया जा सकता है । मानक वसतुआ का उपयोग बिना मनोवृत्ति , रूचियों और विचारों में परिवर्तन के किया जाता है , किन्तु संस्कृति के साथ एता बारा नहा हा सस्कृति के प्रसार के लिए मानसिकता में भी परिवर्तन की आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिए , वाक्त धम परिवर्तन करना चाहता है , तो उसके लिए उसे मानसिक रूप से तैयार होना पड़ता है , नेकिन परतफ उपयाग के लिए विशेष सोचने की आवश्यकता नहीं होती । सभ्यता को उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त किया जा सकता है , किन्तु संस्कृति को नहीं । इस प्रकर यह स्पष्ट होता है कि सभ्यता का स्थानान्तारण सस्कृति का । तुलना में सरल है ।
4 . सभ्यता बिना किसी परिवर्तन या हानि के ग्रहण की जा सकती है , किन्तु संस्कृति को नहीं – सभ्यता के तत्वों या वस्तुओं को ज्यों – का – त्यों अपनाया जा सकता है । उसमें किसी तरह की परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ती । इस एक वस्तु का जब आविष्कार होता है , तो उसे विभिन्न स्थानों के लोग ग्रहण करते हैं । भौतिक वस्तु में बिना किसी परिवर्तन लाये ही एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाया जा सकता है । उदाहरण के लिए , तब ट्रैक्टर का आविष्कार हुआ तो हर गाँव में उस ले जाया गया । इसके लिए उसमें किसी तरह के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ी । किन्तु संस्कृति के साथ ऐसी बात नहीं है । संस्कृति के तत्वों को जब एक स्थान से दूसरे स्थान में ग्रहण किया जाता है तो उसमें थोड़ा बहुत परिवर्तन हो जाता है । उसके कुछ गुण गौण हो जाते हैं , तो कुछ गुण जुड़ जाते हैं । यही कारण है कि धर्म परिवर्तन करने के बाद भी लोग उपने पुराने विश्वासों , विचारों एवं मनोवृत्तियों में विल्कुल परिवर्तन नहीं ला पाते । पहले वाले धर्म का कुछ – न – कुछ प्रभाव रह जाता है । करने के बाद भी है । उसके कुछ गुण गाव एक स्थान से दूसरे स्था
5 . सभ्यता बाह्य है , जबकि संस्कृति आन्तरिक – सभ्यता के अन्तर्गत भौतिक वस्तुऐं आती हैं । भौतिक वस्तुओं का सम्बन्ध बाह्य जीवन से , बाहरी सुख – सुविधाओं से होता है । उदाहरण के लिए , बिजली – पंखा , टेलीविजन , मोटरगाडी , इत्यादि । इन सारी चीजों से लोगों को बाहरी सुख – सुविधा प्राप्त होती है । किन्तु संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति के आनतरिक जीवन से होता है । जैसे – ज्ञान , विश्वास , धर्म , कला इत्यादि । इन सारी चीजों से व्यकित को मानसिक रूप से सन्तुष्टि प्राप्त होती है , इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सभ्यता बाह्य है , लेकिन संस्कृति आन्तरिक जीवन से सम्बन्धित होती है । अर्थात सभ्यता से सिर्फ दैहिक सुख मिलता है , जबकि संस्कृति से मानसिक ।
6 . सम्यता मूर्त होती है , जबकि संस्कृति अमूर्त – सभ्यता का सम्बन्ध भौतिक चीजों से होता है । भौतिक वस्तुएँ मूर्त होती हैं । इन्हें देखा व स्पर्श किया जा सकता है । इससे प्रायः सभी व्यक्ति समान रूप से लाभ उठा सकते हैं , किन्तु संस्कृति का सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं से न होकर अभौतिक चीजो से होता है । इन्हें अनुभव किया जा सकता है , किन्तु इन्हें देखा एवं स्पर्श नहीं किया जा सकता । इस अर्थ में संस्कृति अमूर्त होती है । सभ्यता का तात्पर्य संस्कृति के भौतिक पक्ष से है । इस अर्थ में सभ्यता मूर्त है । जैसे – – कुर्सी , मकान , पंखा , इत्यादि । संस्कृति का अमूर्त पक्ष अभौतिक संस्कृति कहलाता है । जैसे – ज्ञान , विश्वास , कला इत्यादि ।
7 . सभ्यता साधन है जबकि संस्कृति साध्य – सभ्यता एक साधन है जिसके द्वारा हम अपने लक्ष्यों व उद्देश्यों तक पहुंचते हैं । संस्कृति अपने आप में एक साध्य है । धर्म , कला , साहित्य नैतिकता इत्यादि संस्कृति के तत्व हैं । इन्हें प्राप्त करने के लिए भौतिक वस्तुएं जैसे – धार्मिक पुस्तकें , चित्रकला , संगीत , नृत्य – बाद्य इत्यादि की आवश्यकता पड़ती है । इस प्रकार सभ्यता साधन है और संस्कृति साध्य ।
संस्कृति एवं व्यक्तित्व
संस्कृति एवं व्यक्तित्व में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । संस्कति व्यक्तित्व को एक निश्चित व निर्माध में जिन कारकों का योगदान माना जाता है । उनमें संस्कृति का स्थान प्रमुख सम्बन्ध हाता है । संस्कृति व्यक्तित्व को एक निश्चित दिशा प्रदान करती है । व्यक्तित्व के पागवान माना जाता है । उनमें संस्कृति का स्थान प्रमुख है । व्यक्तित्व के विकास में संस्कृति बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । इन दोनों के सम्बन्धी को जानने के लिए यह अदा करता है । इन दोनों के सम्बन्धों को जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि सस्कृति एवं व्यक्तित्व क्या है ? संस्कृति क्या है , इसकी चर्चा पहले की जा चुकी है । अतः यहाउस क्या है , इसकी चर्चा पहले की जा चुकी है । अतः यहाँ उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है । व्यक्तित्व क्या है इसकी चर्चा नीचे की जा रही है
व्यक्तित्व
साधारण बोल – चाल की भाषा में लोग व्यक्तित्व का मतलब बाहरी रंग – रूप तथा वेश – भूषा रागझतहकर सहाव्याक्तत्व मनुष्य का सिर्फ बाहरी गण नहीं जो उसकी शारीरिक रचना से स्पष्ट होता है । पहले व्यक्तित्व अध्ययनासफ मनोविज्ञान में होता था , किन्तु अब मानव शास्त्र में भी यह चर्चा का विषय बन गया है । मानव शास्त्र कक्षत्रम अनक महत्वपूर्ण अध्ययन हुए हैं , जो वयक्तित्व के निर्माण में संस्कृति की भूमिका को महत्वपूर्ण दशति है । व्याक्तत्व शब्द अंग्रेजी के ‘ Personality ‘ का हिन्दी रूपान्तरण है , जो लैटिन के ‘ Persona ‘ शब्द से बना है । इसका अर्थ आकृति तथा नकाब होता है । नाटक आदि में लोग नकाब पहनकर विशेष भूमिका अदा करते है । भूमिका बदलन पर नकाब भी बदल लेते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि भिन्न – भिन्न भूमिकाओं के लिए भिन्न – भिन्न प्रकार के नकाब होते हैं । जिस प्रकार की भूमिका अदा करनी होती है , उसी प्रकार के नकाब पहने जाते हैं । यहाँ यह स्पश्ट करना आवश्यक है कि व्यक्तित्व का अर्थ सिर्फ चेहरा , रंग , कद तथा पोशाक नहीं है । इसके अनतर्गत शारीरिक , मनोवैज्ञानिक , सामाजिक तथा सांस्कृतिक पहलओं का समावेश होता है । विभिन्न विद्वानों ने व्यक्तित्व की परिभाषा अपने – अपने ढंग से दी है , आलपोर्ट के अनुसार – ‘ व्यक्तित्व , व्यक्ति के मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है जो उसका पर्यावरण के साथ अनोखा सामंजस्य निर्धारित करता है । उन्होंने अपनी परिभाषा के द्वारा यह स्पष्ट करना चाहा है कि व्यक्तित्व किसी व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक गुणों का परिवर्तनशील योग है , जो र्यावरण के साथ उसके अनुकूलन को निर्धारित करता है । इसी के कारण व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में अलग – अलग ढंग से व्यवहार करता है । पार्क एवं बर्गेस के अनुसार , – ” व्यक्तित्व एक व्यक्ति के व्यवहारों के उन पक्षों का योग है जो समुह में व्यक्ति की भूमिका निर्धारित करता है आलपोर्ट की तरह ही पार्क एवं बर्गेस ने भी व्यक्तिव्य को विभिन्न गुणों का योग बताया है । इन्हीं गुणों के द्वारा समूह में व्यक्तित्व के व्यवहार और भूमिका निर्धारित होते हैं । एडवर्ड सापिर ने लिखा है – * व्यक्तित्व एक व्यक्ति के व्यसहारों के उन पक्षों का योग है जो समाज में उसे अर्थ प्रदान करते हैं तथा समुदाय में अन्य सदस्यों से पृथक करते हैं । मैरिल एवं एल्डूिज के अनुसार – ” व्यक्तित्व प्रत्येक वयक्ति से सम्बिन्धित जन्मजात और अर्जित गुणों का समूह है । इन्होंने व्यक्तित्व को जन्मजात एवं अर्जित गणों का योग बताया है । उपर्युक्त विद्वानों के विचारों से स्पष्ट होता है कि वयक्तित्व के निर्माण में शारीरिक , मनोवैज्ञानिक , सामाजिक , सांस्कृतिक पक्षों का योगदान होता है । यही कारण है कि व्यक्ति एक समान संस्कृति का योगदान होता है । यही कारण है कि व्यक्ति एक समान संस्कृति का सदस्य होते हुए भी दूसरों से अलग व्यक्तित्व का विकास करता है ।
व्यक्तित्व के आधार
व्यक्तित्व के निर्माण के तीन प्रमुख आधार होते हैं ,
1 . शारीरिक पक्ष
2 . समाज
3 . संस्कृति
व्यक्तित्व के विकास में इन तीनों का हाथ होता है , अर्थात् इन्हीं की अन्तः क्रिया के फलस्वरूप व्यक्तित्व का विकास होता है । शारीरिक आधार – इसके अन्तर्गत व्यक्ति की शारीरिक बनावट , आकार , रंग – रूप , कद , वजन आदि आते हैं । साधारण तौर पर व्यक्ति इन्हीं के आधार पर व्यक्तित्व की व्याख्या करता है । अर्थात शारीरिक रंग – रूप को देखकर व्यक्ति को आकर्षण अथवा बड़े व्यक्तित्व का बताया जाता है । वंशानुक्रमणवादी व्यक्तित्व के निर्माण में इसी आधार को महत्वपूर्ण बताते हैं । इनके अनुसार व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानक्रमण शरीर रचना बन्दि एवं प्रतिभा स्नायमण्डल तथा अन्तः स्त्रावी ग्रान्थया का योगदान होता है ।
सामाजिक आधार – इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण सामाजिक पर्यावरण आता है । समाज के अभाव मध्य नहीं है । यदि किसी व्यक्ति की प्राणिशास्त्रीय रचना बहत ही अच्छी है , किन्तु वह सामाजिक ण सामाजिक पर्यावरण आता है । समाज के अभाव में व्यक्तित्व का विकास सम्भव ऐसी स्थिति में उसके वयकितत्व का विकास नहीं हो सकता । कहने का तात्पर्य सामाजिक आय रचना बहुत ही अच्छी है , किन्तु वह सामाजिक सम्पर्क से वंचित रहा है , वब सम्पर्क से ही संस्कृति का प्रभाव भी सम्भव होता है । बच्चा जब इस पृथ्वी पर आता स नहीं हो सकता । कहने का तात्पर्य सामाजिक सम्पर्क आवश्यक है । सामाजिक समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा समाज व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करता मा सम्भव होता है । बच्चा जब इस पृथ्वी पर आता है , तब वह सिर्फ जैवकीय प्राणी होता है । आकया कद्वारा समाज व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करता है और तबवह जैवकीय प्रसणी से सामाजिक पपल जाता हा विभिन्न सामातिक संस्थाओं परिस्थितियों एवं भमिकाओं का प्रभाव व्यक्तित्व पर पड़ता है । इन्हा की सारा प्याक्तत्व का आदता , व्यवहारों , मनोवत्तियों मल्यों एवं आदर्शों का निर्माण होता है , जिससे व्यक्तित्व का विकास होता ।
सास्कृतिक आधार – मानवशास्त्रियों ने व्यक्तित्व के निर्माण में सांस्कतिक आधार को महत्वपूर्ण बताया है । उनके अनुसार । बहुत सी जैवकीय क्षमताओं का निर्धारण संस्कृति से होता है । मानवशास्त्रियों ने संस्कृतियों की भिन्नता के आधार पर विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व के गठन की चर्चा की है । इन विद्वानों में मीड , लिटन , कार्डिनर , डूबाइस आदि के नाम प्रमुख हैं । य । विद्वान Culture Personality School के नाम से जाने जाते हैं । संस्कृति और व्यक्तित्व के पारस्परिक सम्बन्ध का उल्लेख करते हुए जॉन गिलिन ने बताया कि जन्म के बाद मनुष्य एक मानव निर्मित यावरण में प्रवेश करता है , जिसका प्रभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व पर पड़ता है । संस्कृति मनुष्य की आवश्यककताओं की पूर्ति के लिए कुछ नियमों तथा तरीकों का निर्धारण करती है । इन्हें समाज के अधिकांश लोग मानते हैं । संस्कृति के अन्तर्गत जिन प्रथाओं , परम्पराओं , जनरीतियों , रूढियों , धर्म , भाषा , कला आदि का समावेश होता है , वे सामाजिक एवं सामूहिक जीवन विधि को व्यक्त करते हैं । उचित व अनुचित व्यवहार के लिए संस्कृति पुरस्कार तथा दण्ड का भी प्रयोग करती है । रूथ बेनेडिक्ट ने अपना विचार प्रकट करते हुए कहा कि , बच्चा जिन प्रथाओं के बीच पैदा होता है , आरम्भ से ही उसके अनुरूप उसके अनुभव एवं व्यवहार होने लगते हैं । आगे उसने यह भी बताया कि संस्कृति व्यक्ति को कच्चा माल प्रदान करता है , जिससे वह अपने जीवन का निर्माण करता है । यदि कच्चा माल ही अपर्याप्त हो , तो व्यक्ति का विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पाता है । यदि कच्चा माल पर्याप्त होता है तो व्यक्ति को उसका सदुपयोग करने का अवसर मिल जाता है । फेरिस ने व्यक्तित्व को संस्कृति का वैषविक पक्ष कहा है । प्रत्येक समाज की अपनी विशिष्ट प्रकार की संस्कृति होती है , जो दूसरे से भिन्न होती है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है । यही कारण है कि सांस्कृतिक भिन्नता से व्यक्तियों में भी भिन्नता पायी जाती है । क्लूखौन और मूरे के अनुसार , प्रत्येक व्यक्ति कुछ अंशों में 1 . दूसरे सब लोगों की तरह होता है । 2 . दूसरे कुछ लोगों की तरह होता है और दूसरे किसी भी मनुष्य की तरह नहीं होता । पहला – प्राणिशास्त्रीय दृष्टिकोण से सभी मानव की शारीरिक विशेषताएँ समान होती हैं जैसे आँख , नाक , कान , हाथ , पैर इत्यादि । अतः प्रत्येक मनुष्य कुछ – न – कुछ अंशों में दूसरे सभी लोगों के समान होता है । दसरा – प्रत्येक समाज में कुछ सामान्य व्यवहार प्रतिमान होते हैं । जिन्हें व्यक्ति अपनी पसन्द से अपनाता है । इस प्रकार प्रत्येक दूसरे कुछ लोगों की तरह होता है । अर्थात् समान व्यवहार व कार्य के आधार पर कुछ लोगों में समानता पायी जाती तीसरा – प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशिष्ट गुण होते हैं , जो किसी दूसरे मनुष्य की तरह नहीं होते । यही कारण है कि मानव व्यक्तित्व में भिन्नता पाई जाती है । सांस्कृति पर्यावरण में भिन्नता के कारण दो विभिन्न संस्कृतियों के व्यक्तियों के सामान्य गुण में समानता नहीं पाई जाती ।
एक राजनीतिक संस्कृति क्या है?
सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में ‘राजनीतिक संस्कृति’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह राजनीतिक व्यवस्थाओं की प्रकृति के बारे में ऐतिहासिक रूप से आधारित, व्यापक रूप से साझा विश्वासों, भावनाओं और मूल्यों को संदर्भित करता है, जो नागरिकों और सरकार के बीच एक कड़ी के रूप में काम कर सकता है।
अलग-अलग देशों की अलग-अलग राजनीतिक संस्कृतियाँ हैं, जो हमें यह समझने में मदद कर सकती हैं कि कैसे और क्यों उनकी सरकारें एक निश्चित तरीके से संगठित होती हैं, लोकतंत्र सफल या विफल क्यों होते हैं, या कुछ देशों में अभी भी राजशाही क्यों हैं। हमारी अपनी राजनीतिक संस्कृति को समझना भी राजनीतिक संबंधों का सुराग प्रदान कर सकता है, जैसे कि हम एक-दूसरे या अपनी सरकारों के साथ साझा करते हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका में, हम डेमोक्रेट या रिपब्लिकन के रूप में अपनी मतदान स्थिति के संदर्भ में राजनीतिक संस्कृति के बारे में सोचने के लिए ललचा सकते हैं। हालाँकि, यह समझना महत्वपूर्ण है कि राजनीतिक संस्कृति राजनीतिक विचारधारा से भिन्न होती है। शब्द ‘राजनीतिक विचारधारा’ सरकारों और राजनीति के बारे में विश्वासों या विचारों के एक कोड को संदर्भित करता है जो हमारे वोट देने के तरीके को प्रभावित कर सकता है या हम कुछ विधायी कार्यों का समर्थन करते हैं या नहीं।
उदाहरण के लिए, दो लोग एक राजनीतिक संस्कृति साझा कर सकते हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक विचारधाराएं भिन्न हैं। दूसरे शब्दों में, एक दक्षिणपंथी रूढ़िवादी उसी राजनीतिक संस्कृति से हो सकता है जो वामपंथी उदारवादी है। दूसरे शब्दों में, राजनीतिक संस्कृति ऐसी चीज़ है जिसे हम साझा करते हैं, जबकि राजनीतिक विचारधारा ऐसी चीज़ है जिसका उपयोग हम स्वयं को परिभाषित करने और राजनीतिक निर्णय लेने के लिए करते हैं।
अब आइए राजनीतिक संस्कृति के कुछ सिद्धांतों पर एक संक्षिप्त नज़र डालें।
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सिद्धांतों
1963 में, दो राजनीतिक वैज्ञानिकों, गेब्रियल बादाम और सिडनी वर्बा ने पांच लोकतांत्रिक देशों: जर्मनी, इटली, मैक्सिको, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका से जुड़ी राजनीतिक संस्कृतियों का एक अध्ययन प्रकाशित किया। बादाम और वर्बा के अनुसार, तीन बुनियादी प्रकार की राजनीतिक संस्कृति हैं, जिनका उपयोग यह समझाने के लिए किया जा सकता है कि लोग राजनीतिक प्रक्रियाओं में भाग क्यों लेते हैं या नहीं लेते हैं।
मेक्सिको जैसी संकीर्ण राजनीतिक संस्कृति में, नागरिक ज्यादातर बेख़बर हैं और अपनी सरकार से अनभिज्ञ हैं और राजनीतिक प्रक्रिया में बहुत कम रुचि लेते हैं। एक विषय राजनीतिक संस्कृति में, जैसे कि जर्मनी और इटली में पाए जाते हैं, नागरिक कुछ हद तक अपनी सरकार के बारे में सूचित और जागरूक होते हैं और कभी-कभी राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेते हैं। एक सहभागी राजनीतिक संस्कृति में, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह, नागरिकों को सूचित किया जाता है और सक्रिय रूप से राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेते हैं।
राजनीतिक संस्कृति के अन्य सिद्धांतों से पता चलता है कि राजनीतिक संस्कृति कैसे जड़ें जमाती है और राजनीतिक समाजीकरण के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होती है और इसमें सीमोर मार्टिन लिपसेट का प्रारंभिक घटना सिद्धांत शामिल है, जो किसी देश की स्थापना के समय हुई प्रमुख घटनाओं के लंबे समय तक चलने वाले प्रभावों का वर्णन करता है; लुई Hartz का टुकड़ा सिद्धांत, जो देशों और समाजों पर यूरोपीय उपनिवेशवाद के लंबे समय तक चलने वाले प्रभावों की व्याख्या करता है; और रोजर इंगलहार्ट का उत्तर-भौतिकवाद सिद्धांत, जो बचपन की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के लंबे समय तक चलने वाले प्रभावों की व्याख्या करता है।
राजनीतिक संस्कृति दृष्टिकोणों, विश्वासों और भावनाओं का समूह है जो एक राजनीतिक प्रक्रिया को आदेश और अर्थ देती है और जो अंतर्निहित मान्यताओं और नियमों को प्रदान करती है जो राजनीतिक व्यवस्था में व्यवहार को नियंत्रित करती है। यह राजनीतिक आदर्शों और एक राज्य व्यवस्था के परिचालन मानदंडों दोनों को समाहित करता है। राजनीतिक संस्कृति इस प्रकार राजनीति के मनोवैज्ञानिक और व्यक्तिपरक आयामों के समग्र रूप में अभिव्यक्ति है। एक राजनीतिक संस्कृति एक राजनीतिक प्रणाली के सामूहिक इतिहास और उस प्रणाली के सदस्यों के जीवन इतिहास दोनों का उत्पाद है, और इस प्रकार यह सार्वजनिक घटनाओं और निजी अनुभवों में समान रूप से निहित है।
राजनीतिक संस्कृति एक हालिया शब्द है जो राजनीतिक विचारधारा, राष्ट्रीय लोकाचार और भावना, राष्ट्रीय राजनीतिक मनोविज्ञान और लोगों के मूलभूत मूल्यों जैसी दीर्घकालिक अवधारणाओं से जुड़ी समझ को अधिक स्पष्ट और व्यवस्थित बनाने की कोशिश करता है। राजनीतिक संस्कृति, नेताओं और नागरिकों दोनों के राजनीतिक झुकावों को गले लगाकर, राजनीतिक शैली या परिचालन कोड जैसे शब्दों की तुलना में अधिक समावेशी है, जो अभिजात वर्ग के व्यवहार पर ध्यान केंद्रित करते हैं। दूसरी ओर, यह शब्द अधिक स्पष्ट रूप से राजनीतिक है और इसलिए जनमत और राष्ट्रीय चरित्र जैसी अवधारणाओं की तुलना में अधिक प्रतिबंधात्मक है।
राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा को राजनीतिक विश्लेषण में व्यवहारिक दृष्टिकोण के विकास में एक प्राकृतिक विकास के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि यह समग्र या प्रणालीगत विश्लेषण की समस्याओं पर लागू करने के प्रयास का प्रतिनिधित्व करता है, जो अंतर्दृष्टि और ज्ञान के प्रकारों का अध्ययन करके शुरू में विकसित किया गया था। व्यक्तियों और छोटे समूहों का राजनीतिक व्यवहार। [देखें राजनीतिक व्यवहार।]
अधिक विशेष रूप से, राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा को व्यक्ति के राजनीतिक व्यवहार की मनोवैज्ञानिक व्याख्याओं के आधार पर सूक्ष्मविश्लेषण के स्तर के बीच व्यवहारिक दृष्टिकोण में बढ़ती खाई को पाटने की आवश्यकता के जवाब में विकसित किया गया था, और मैक्रोएनालिसिस के स्तर पर आधारित था। राजनीतिक समाजशास्त्र के लिए सामान्य चर। इस अर्थ में अवधारणा मनोविज्ञान और समाजशास्त्र को एकीकृत करने का प्रयास करती है ताकि गतिशील राजनीतिक विश्लेषण में आधुनिक गहन मनोविज्ञान के क्रांतिकारी निष्कर्ष और सामूहिक समाजों में दृष्टिकोण को मापने के लिए समाजशास्त्रीय तकनीकों में हालिया प्रगति दोनों को लागू करने में सक्षम हो सके। राजनीति विज्ञान के अनुशासन के भीतर, राजनीतिक संस्कृति पर जोर राजनीतिक विचारधारा, वैधता, संप्रभुता, राष्ट्रीयता और कानून के शासन जैसी पारंपरिक समस्याओं के अध्ययन के लिए विश्लेषण के अनिवार्य रूप से व्यवहारिक रूप को लागू करने के प्रयास का संकेत देता है। (अवधारणा के सैद्धांतिक विश्लेषण के लिए पाइ एंड वर्बा 1965 में वर्बा देखें, पीपी। 512-560।)
राजनीतिक संस्कृति और समाजीकरण
राजनीति में राष्ट्रीय मतभेदों की जड़ों के बारे में बौद्धिक जिज्ञासा हेरोडोटस के लेखन से मिलती है, और संभवतः हाल के किसी भी अध्ययन ने राष्ट्रीय स्वभाव के ऐसे क्लासिक अध्ययनों को समझने की समृद्धि हासिल नहीं की है जैसे कि टोकेविले, ब्राइस और एमर्सन द्वारा। लेकिन राजनीतिक संस्कृति के अध्ययन को प्रेरित करने वाली गतिशील बौद्धिक परंपरा लगभग पूरी तरह से राष्ट्रीय चरित्र के अध्ययन और 1930 और 1940 के दशक के मनोसांस्कृतिक विश्लेषण से आती है। बेनेडिक्ट (1934; 1946), मीड (1942; 1953), गोरर (1948; 1953; 1955), फ्रॉम (1941), और क्लाइनबर्ग (1950) सभी ने मनोविश्लेषण और सांस्कृतिक नृविज्ञान के निष्कर्षों का उपयोग करने के लिए राष्ट्रीय की गहरी समझ प्रदान करने की मांग की। राजनीतिक व्यवहार। इन अध्ययनों के लिए एक प्रमुख आपत्ति यह पहचानने में उनकी विफलता थी कि राजनीतिक क्षेत्र आचरण के अपने नियमों और समाजीकरण की अपनी विशिष्ट प्रक्रियाओं के साथ एक अलग उपसंस्कृति का गठन करता है। बाल प्रशिक्षण के चरण से सीधे राष्ट्रीय निर्णय लेने के स्तर तक जाने की प्रथा का अर्थ था कि महत्वपूर्ण हस्तक्षेप प्रक्रियाओं की उपेक्षा की गई।
समाजीकरण के चरण
राजनीतिक संस्कृति की धारणा राजनीतिक क्षेत्र की विशिष्ट विशेषताओं और बचपन और वयस्क राजनीतिक जीवन में प्रवेश के बीच व्यक्तित्व विकास के मध्यवर्ती चरणों पर उचित ध्यान देते हुए पहले के राष्ट्रीय चरित्र अध्ययनों की मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मताओं को बनाए रखने का प्रयास करती है। यह समाजीकरण के दो चरणों की कल्पना करके प्राप्त किया जाता है; पहला सामान्य संस्कृति में प्रवेश है, जबकि दूसरा राजनीतिक जीवन के लिए अधिक विशिष्ट, और आमतौर पर अधिक स्पष्ट, समाजीकरण है। विश्लेषण के कुछ रूपों में एक अतिरिक्त चरण, राजनीतिक प्रक्रिया के भीतर विशेष भूमिकाओं के लिए राजनीतिक भर्ती में अंतर करना उपयोगी होता है। ये चरण आवश्यक रूप से अनुक्रमिक नहीं हैं; स्पष्ट राजनीतिक समाजीकरण बहुत प्रारंभिक बिंदु पर हो सकता है, जब व्यक्ति अभी भी अपनी सामान्य संस्कृति में सामाजिक हो रहा है।
राजनीतिक संस्कृतियों के विश्लेषण के लिए बुनियादी समाजीकरण के विभिन्न चरणों और अंतिम राजनीतिक समाजीकरण प्रक्रिया और राजनीतिक संस्कृति में व्यवहार के प्रमुख पैटर्न के बीच संबंधों की जांच है। कुछ प्रणालियों में विभिन्न समाजीकरण प्रक्रियाओं की सामग्री के बीच एक मौलिक अनुरूपता होती है
और मौजूदा राजनीतिक संस्कृति। जापान, मिस्र, इथियोपिया और तुर्की की पारंपरिक राजनीतिक संस्कृतियों में ऐतिहासिक रूप से इस तरह की समानता मौजूद थी (देखें वार्ड, पीपी। 27-82; बाइंडर, पीपी। 396-449; लेविन, पीपी। 245-281; रुस्टो, पीपी। 171-)। 198 पाई और वर्बा 1965 में)। ऐसी प्रणालियों में सामान्य समाजीकरण की प्रक्रिया के दौरान आंतरिक मूल्यों और व्यवहारों को अधिक स्पष्ट रूप से राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया में बल दिए गए दृष्टिकोणों और मूल्यों के अनुरूप और प्रबलित किया जाता है; और संयुक्त समाजीकरण प्रक्रिया वर्तमान राजनीतिक संस्कृति को समर्थन और सुदृढ़ करने के लिए बदले में होती है। ऐसी परिस्थितियों में सुसंगत और अपेक्षाकृत स्थिर राजनीतिक संस्कृति के निरंतर अस्तित्व की संभावनाएं हैं।
हालाँकि, समाजीकरण प्रक्रियाओं में और इन प्रक्रियाओं और राजनीतिक प्रणाली की आवश्यकताओं के बीच विरोधाभासों और विसंगतियों के प्रकार के अनुसार राजनीतिक संस्कृतियों में विभिन्न प्रकार के तनावों और अस्थिरताओं को अलग करना भी संभव है। इस तरह के विरोधाभासों के सबसे नाटकीय उदाहरण क्रांतिकारी व्यवस्थाओं में पाए जाते हैं जिनमें अभिजात वर्ग की राजनीतिक संस्कृति या तो अत्यधिक स्पष्ट और गैर-संस्कृति-बद्ध विचारधारा से आकार लेती है या उपनिवेशवाद जैसे बहिर्जात ऐतिहासिक अनुभव का उत्पाद है।
कुछ समाजों में समाजीकरण की प्राथमिक प्रक्रिया लोगों को जीवन के प्रति अत्यधिक आशावादी दृष्टिकोण और मानवीय संबंधों में बुनियादी विश्वास की गहरी भावना प्रदान करती है, जबकि राजनीतिक समाजीकरण के बाद के चरणों में निंदक और राजनीतिक अभिनेताओं के संदेह पर जोर दिया जाता है। नतीजतन, राजनीतिक संस्कृति को मौजूदा राजनीतिक प्रथाओं के एक महत्वपूर्ण और तिरस्कारपूर्ण दृष्टिकोण की विशेषता है, लेकिन एक मजबूत यूटोपियन विश्वास से भी रंगा हुआ है कि सुधार अंततः मौजूदा स्थिति का समाधान कर सकता है। इस प्रकार सनकवाद इस उम्मीद से संतुलित है कि सुधार मांगे जाने योग्य हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सनकवाद का चरित्र रहा है जिसने अमेरिकी राजनीति में मूकराकिंग परंपरा को प्रेरित किया। ऐसा लगता है कि फिलीपींस की राजनीतिक संस्कृति में भी यही गतिशीलता काम कर रही है (ग्रॉसहोल्ट्ज़ 1964)। अन्य समाजों में समकालीन राजनीतिक संस्थानों और व्यक्तियों के प्रति अविश्वास पहले की समाजीकरण प्रक्रिया से पहले होता है जो मौलिक अविश्वास और संदेह की भावना पैदा करता है, जिसके परिणामस्वरूप लोगों का सुधारवादी समाधानों में बहुत कम विश्वास होता है और महसूस होता है कि राजनीतिक सुधार के लिए विनाशकारी परिवर्तनों की आवश्यकता होती है। बर्मा इस प्रक्रिया का एक उदाहरण प्रदान करता है (सम्मेलन देखें … 1963)।
निरन्तरता और अनिरन्तरता
निरंतरता और अनिरंतरता की समस्याओं के लिए समाजीकरण और राजनीतिक संस्कृति के बीच संबंधों के विश्लेषण की भी आवश्यकता है। राजनीतिक व्यवस्था के भीतर ऐतिहासिक घटनाएं राजनीतिक संस्कृति में बदलाव की मांग कर सकती हैं जो अतीत या वर्तमान समाजीकरण प्रक्रियाओं के साथ असंगत हैं। सभी गतिशील राजनीतिक व्यवस्थाओं में तनाव संभव है क्योंकि समाजीकरण की प्रक्रिया उतनी तेजी से नहीं बदल सकती जितनी तेजी से राजनीतिक प्रक्रिया। यह समस्या तब गंभीर हो जाती है जब किसी समाज की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में अचानक परिवर्तन होता है, उदाहरण के लिए, जब कोई उपनिवेश स्वतंत्रता प्राप्त करता है। कई नए विकासशील देशों में अस्थिरता और अप्रभावीता के बुनियादी स्रोतों में से एक, सामाजीकरण प्रक्रियाओं के जोर के बीच अंतर में निहित है, जिसने समकालीन समाज के विभिन्न स्तरों और राष्ट्रीय राजनीतिक प्रक्रिया को संचालित करने के लिए आवश्यक दृष्टिकोण का उत्पादन किया।
समाजीकरण एजेंट
राजनीतिक संस्कृति को आकार देने में राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया विभिन्न समाजीकरण एजेंटों के संदर्भ में संचालित होती है। इनमें से कुछ एजेंट, जैसे कि परिवार, समाजीकरण प्रक्रिया के शुरुआती चरणों में प्रमुख होते हैं, और इस प्रकार उनके प्रभाव राजनीतिक संस्कृति के लिए मौलिक व्यक्तित्व विशेषताओं से सबसे निकट से संबंधित होते हैं। अन्य समाजीकरण एजेंट, जैसे मास मीडिया और राजनीतिक दल, बाद के चरणों में आलोचनात्मक हो जाते हैं और इस प्रकार मुख्य रूप से राजनीतिक संस्कृति के अधिक संज्ञानात्मक पहलुओं को प्रभावित करने में शामिल होते हैं।
विभिन्न राजनीतिक संस्कृतियों पर वर्तमान शोध ने राजनीतिक संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को आकार देने में विभिन्न प्रकार के सामाजिक एजेंटों के सापेक्ष महत्व को निर्धारित करने की मांग की है और इस प्रकार, समाज की समाजशास्त्रीय संरचना और राजनीतिक प्रक्रिया के बीच संबंधों का मूल्यांकन किया है। उदाहरण के लिए, परिवार, हाइमन (1959) के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका में पार्टी की वफादारी निर्धारित करने में विशेष रूप से शक्तिशाली है, जबकि बादाम और वर्बा (1963) के अनुसार औपचारिक शिक्षा लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता पैदा करने में सबसे महत्वपूर्ण है। अविकसित देशों की संक्रमणकालीन राजनीतिक व्यवस्थाओं के अध्ययन में, यह स्पष्ट हो गया है कि इन समाजों की गहन राजनीतिक प्रकृति अक्सर समाजीकरण के गैर-दलीय या संवैधानिक एजेंटों के खिलाफ पक्षपातपूर्ण भूमिका का परिणाम है। यह उल्लेखनीय है कि उप-सहारा अफ्रीका में एक-दलीय प्रणाली की ओर रुझान इस तथ्य से निकटता से जुड़ा हुआ है कि राष्ट्रवादी दल अधिकांश लोगों के सामाजिककरण के लिए एकमात्र मजबूत एजेंसी थे।
नव राजनीतिक रूप से जागरूक जनता (हैना 1964)। जब गैर-दलीय या राजनीतिक रूप से तटस्थ सामाजिककरण एजेंट कमजोर होते हैं, तो सामाजिक जीवन अत्यधिक राजनीतिक हो जाता है, और एक निष्पक्ष नौकरशाही और कानून के शासन के रूप में इस तरह के मौलिक संवैधानिक संस्थानों के लिए बहुत कम प्रशंसा होने की संभावना है। समाज में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का अध्ययन जिसमें जनसंचार माध्यम कमजोर हैं और राष्ट्रीय घटनाओं का एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण प्रदान नहीं कर सकता है, यह सुझाव देता है कि ऐसी परिस्थितियों में संवैधानिक विकास आसानी से संस्थागत नहीं हो सकता है (सम्मेलन देखें … 1963; श्रैम 1964)। समाजीकरण की प्रक्रिया और आगामी राजनीतिक संस्कृति के बीच यह संबंध उन देशों में राष्ट्रीय संस्थानों के निर्माण में कुछ बुनियादी कठिनाइयों की व्याख्या करता है जहां लोकप्रिय राजनीतिक चेतना अत्यधिक पक्षपातपूर्ण और वैचारिक रूप से उन्मुख स्वतंत्रता आंदोलनों से प्रेरित थी।
कुलीन और सामूहिक उपसंस्कृति
सभी समाजों में उन लोगों के राजनीतिक झुकावों के बीच अनिवार्य रूप से कुछ अंतर हैं जिनके पास निर्णय लेने की जिम्मेदारी है और जो केवल पर्यवेक्षक या भाग लेने वाले नागरिक हैं। एक राष्ट्रीय राजनीतिक संस्कृति में इस प्रकार एक कुलीन उपसंस्कृति और एक सामूहिक उपसंस्कृति दोनों शामिल हैं, और दोनों के बीच संबंध राजनीतिक व्यवस्था के प्रदर्शन को निर्धारित करने वाला एक अन्य महत्वपूर्ण कारक है। संबंध सरकार की वैधता, नेतृत्व की स्वतंत्रता और सीमाओं, राजनीतिक लामबंदी की सीमाओं और सत्ता के व्यवस्थित हस्तांतरण की संभावनाओं के आधार जैसे महत्वपूर्ण मामलों को निर्धारित करता है।
बड़े पैमाने पर उपसंस्कृतियां शायद ही कभी सजातीय होती हैं, क्योंकि आम तौर पर समाज के राजनीतिक रूप से चौकस स्तरों और उन तत्वों के बीच महत्वपूर्ण अंतर होते हैं जो राजनीति से बहुत कम चिंतित हैं। कुछ मामलों में जन राजनीतिक संस्कृति अत्यधिक विषम है और क्षेत्र, सामाजिक और आर्थिक वर्ग, या जातीय समुदाय के अनुसार तीव्र मतभेद मौजूद हैं। ऐसे मामलों में, व्यापक राजनीतिक संस्कृति का वर्णन करने में विभिन्न उपसंस्कृतियों के बीच संबंधों का पैटर्न एक महत्वपूर्ण कारक बन जाता है।
इस बात का विश्लेषण करने में कि किस हद तक संभ्रांत और जन उपसंस्कृतियों में मूल्यों के पूरक सेट होते हैं, उन प्रणालियों के बीच अंतर करना उपयोगी होता है जिनमें कुलीन उपसंस्कृति में भर्ती आम तौर पर सामूहिक उपसंस्कृति में समाजीकरण से पहले होती है और जिसमें समाजीकरण के चैनल होते हैं पूरी तरह से अलग। अधिकांश स्थिर, आधुनिक लोकतांत्रिक समाजों में प्रमुख राजनीतिक भूमिकाओं में भर्ती होने से पहले व्यक्तियों को सामूहिक संस्कृति में सामाजिक बनाने के लिए सामान्य पैटर्न है, और इस प्रकार अभिजात वर्ग, अत्यधिक विशिष्ट कौशल और राजनीतिक ज्ञान प्राप्त करने के बावजूद, बुनियादी मूल्यों की सराहना कर सकते हैं। समग्र रूप से नागरिकों का। यह, निश्चित रूप से, इसका पालन नहीं करता है कि सभी मामलों में जो लोग सामूहिक उपसंस्कृति से बाहर निकलते हैं, उनकी पृष्ठभूमि के प्रति सहानुभूति या प्रतिक्रिया बनी रहेगी; वास्तव में, संक्रमणकालीन समाजों में नेतृत्व के तत्वों में अक्सर उन लोगों के प्रति गहरी नाराजगी होती है, जिनके साथ वे कभी जुड़े थे।
अधिकांश पारंपरिक, और कई संक्रमणकालीन प्रणालियों में, जो नेतृत्व के पदों के लिए किस्मत में हैं, उनकी करियर रेखाएँ काफी भिन्न होती हैं, शिक्षा के काफी भिन्न रूप प्राप्त होते हैं, और उनके अनुयायियों के द्रव्यमान से काफी भिन्न सामाजिक अनुभव होते हैं। यहां तक कि कई संक्रमणकालीन समाजों में नेताओं की वैधता का आधार लोकप्रिय धारणा पर टिका है कि वे जन्म के समय दूसरों से स्वाभाविक रूप से अलग हैं।
राजनीतिक संस्कृतियों की गतिशीलता में एक बुनियादी समस्या दो उपसंस्कृतियों के समाजीकरण पैटर्न में असमान परिवर्तन से संबंधित है। राजनीतिक व्यवस्था के लिए गंभीर कठिनाइयाँ तब उत्पन्न हो सकती हैं जब शासकों को पता चलता है कि जन उपसंस्कृति अब पारंपरिक नेतृत्व पैटर्न के प्रति उत्तरदायी नहीं है, लेकिन शासन के अधिक आधुनिक तरीकों में उनके पास स्वयं का कौशल कम है। या विपरीत समस्या तब उत्पन्न हो सकती है जब संभ्रांत उपसंस्कृति को संभ्रांत समाजीकरण के नए पैटर्न द्वारा महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया गया है लेकिन जन संस्कृति काफी हद तक अपरिवर्तित बनी हुई है। ऐसी परिस्थितियों में नेता परिवर्तन के लिए अधीर हो सकते हैं, और जनसंस्कृति के आवश्यक गुणों के लिए थोड़ी समझ और यहां तक कि एकमुश्त तिरस्कार प्रदर्शित करने में वे आबादी में आक्रोश पैदा कर सकते हैं, जो महसूस कर सकते हैं कि उनके नेताओं ने शासन के औचित्य की भावना खो दी है। .
राजनीतिक संस्कृतियों की सामग्री
राजनीतिक संस्कृतियों की सामग्री बड़े पैमाने पर प्रत्येक विशेष समाज के लिए अद्वितीय है। विभिन्न राजनीतिक संस्कृतियों के अध्ययन इसलिए विभिन्न विषयों पर जोर देते हैं, और राजनीतिक संस्कृति के सिद्धांत की उपयोगिता का अंतिम परीक्षण तुलनात्मक और सामान्यीकृत विश्लेषण के लिए इसके मूल्य पर निर्भर करेगा। तुलनात्मक विश्लेषण में पहले से ही आशाजनक अग्रणी प्रगति हुई है जिसमें राजनीतिक संस्कृतियों के समान गुणों को एक सामान्य प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था से जोड़ा गया है। उदाहरण के लिए, बादाम और वर्बा (1963) ने “नागरिक संस्कृति” की पहचान की है जो लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्थाओं को रेखांकित करती है।
राजनीतिक प्रणालियों और व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रियाओं दोनों के कुछ निहित गुणों के संदर्भ में राजनीतिक संस्कृतियों के कुछ सार्वभौमिक आयामों को अलग करना भी संभव है।
राजनीतिक प्रणालियों और व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रियाओं दोनों के कुछ निहित गुणों के संदर्भ में राजनीतिक संस्कृतियों के कुछ सार्वभौमिक आयामों को अलग करना भी संभव है।
It is also possible to distinguish some universal dimensions of political cultures in terms of some inherent properties of both political systems and the processes of personality formation.
राजनीतिक व्यवस्थाओं और व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रियाओं दोनों के कुछ अंतर्निहित गुणों के संदर्भ में राजनीतिक संस्कृतियों के कुछ सार्वभौमिक आयामों को अलग करना भी संभव है।
It is also possible to distinguish some universal dimensions of political cultures in terms of some inherent properties of both political systems and the processes of personality formation.
नाथन लेइट्स (1951; 1953) ने अभिजात वर्ग के राजनीतिक व्यवहार का चारित्रिक रूप से विश्लेषण करने के मूल्य का प्रदर्शन किया है। ऐसा लगता है कि आगे के शोध से पता चलेगा कि राजनीतिक संस्कृतियों में निश्चित सिंड्रोम प्रकट होते हैं जो या तो व्यक्तित्व विकास के मान्यता प्राप्त पैटर्न या ऐतिहासिक विकास के सामान्य पैटर्न या दोनों से संबंधित हैं। ज्ञान के इस स्तर पर केवल कुछ सार्वभौमिक समस्याओं या विषयों का सुझाव देना संभव है, जिनसे सभी राजनीतिक संस्कृतियों को एक या दूसरे तरीके से निपटना चाहिए।
राजनीति का दायरा और कार्य
प्रत्येक राजनीतिक संस्कृति को अपने समाज के लिए आम तौर पर स्वीकृत दायरे या राजनीति की सीमाओं और जीवन के सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच वैध सीमाओं को परिभाषित करना चाहिए। कार्यक्षेत्र में राजनीतिक प्रक्रिया में स्वीकृत प्रतिभागियों की परिभाषा, अनुमेय मुद्दों की सीमा, और समग्र राजनीतिक प्रक्रिया दोनों के मान्यता प्राप्त कार्य और अलग-अलग एजेंसियां या निर्णय लेने के डोमेन शामिल हैं जो सामूहिक रूप से राजनीतिक प्रक्रिया का गठन करते हैं।
प्रतिभागियों का दायरा नागरिकता की आवश्यकताओं द्वारा औपचारिक रूप से परिभाषित अधिकांश प्रणालियों में है, लेकिन सभी प्रणालियों में आम तौर पर उम्र, लिंग, सामाजिक स्थिति, प्रशिक्षण, पारिवारिक कनेक्शन और इसी तरह की औपचारिक या अनौपचारिक सीमाएँ होती हैं जो भर्ती प्रक्रिया को नियंत्रित करती हैं। .
इसी तरह, अधिकांश राजनीतिक संस्कृतियों में कुछ मुद्दों को राजनीति के क्षेत्र या राजनीतिक प्रक्रिया के विशेष भागों या एजेंसियों के अधिकार क्षेत्र से बाहर माना जाता है। मुद्दों और कार्यों का संबंध इस अर्थ में अत्यधिक विशिष्ट हो सकता है कि विशेष मुद्दों को चुनावी, संसदीय, नौकरशाही, न्यायिक, या तकनीकी विशेषज्ञता जैसे निर्णय लेने के विशेष रूपों की विशेष जिम्मेदारी के रूप में पहचाना जाता है।
लोकतांत्रिक राजनीतिक संस्कृतियों में आमतौर पर राजनीतिक जीवन की उचित सीमाओं का स्पष्ट अर्थ होता है, नए मुद्दों की स्पष्ट पहचान जैसे ही वे उत्पन्न होते हैं, और मुद्दों से निपटने में कार्यात्मक विशेषज्ञता के लिए कुछ हद तक सम्मान और विभिन्न डोमेन की सापेक्ष स्वायत्तता के लिए राजनीतिक निर्णय लेना। अधिनायकवादी संस्कृतियों में गतिविधि के राजनीतिक क्षेत्र की कुछ स्थापित सीमाएँ हैं, स्पष्ट ज्ञान है कि सभी मुद्दे राजनीतिक बन सकते हैं, और कार्यात्मक विशेषज्ञता के लिए कुछ सम्मान लेकिन विभिन्न डोमेन की स्वायत्तता के लिए बहुत कम है। संक्रमणकालीन प्रणालियों में आमतौर पर राजनीतिक जीवन की स्पष्ट रूप से स्वीकृत सीमाएँ नहीं होती हैं, लेकिन राजनीति की नपुंसकता वास्तविक सीमाएँ प्रदान करती है: एक उम्मीद है कि सभी मामले राजनीतिक हो सकते हैं, और राजनीतिक निर्णय लेने के विभिन्न क्षेत्रों में बहुत कम कार्यात्मक विशेषज्ञता या स्वायत्तता है। . [देखें निर्णय लेना, राजनीतिक पहलुओं पर लेख।]
शक्ति और अधिकार की अवधारणाएँ
सत्ता और प्राधिकार की प्रकृति और गुणों के बारे में अवधारणाएँ प्रदान करने में राजनीतिक संस्कृतियाँ, (1) शक्ति और प्राधिकार को विभेदित करने के आधार के अनुसार भिन्न हो सकती हैं; (2) वे तरीके जिनके द्वारा एक का दूसरे में अनुवाद किया जा सकता है; (3) शक्ति की प्रभावकारिता की अनुमानित सीमा; (4) वैध शक्ति के तत्व या घटक, जैसे, भौतिक बल, लोकप्रिय समर्थन, नैतिक औचित्य, कानूनी प्रतिबंध, आदि; और (5) शक्ति और अधिकार के केंद्रीकरण के प्रसार की डिग्री। [प्राधिकरण देखें; शक्ति।]
सत्ता को वैध बनाने की प्रक्रिया का राजनीतिक प्रणाली के प्रदर्शन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है [देखें वैधता]। आमतौर पर वैधीकरण में संभावित शक्ति के उपयोग को रोकना और विशेष संस्थानों और शक्ति धारकों के कार्यों की सीमा को सीमित करना शामिल है। यह पश्चिमी राजनीतिक संस्कृतियों और शक्तियों के विभाजन के संबंध में अमेरिकी संवैधानिक सिद्धांत के विकास में विशेष रूप से सच रहा है। वैधता के ये प्रतिबंध कभी-कभी एक निरंकुश रूप ले लेते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कोई भी संस्था या राजनीतिक अभिनेता निर्णायक रूप से और पूरी दक्षता के साथ प्रदर्शन नहीं कर सकता है। कुछ राजनीतिक संस्कृतियों में सत्ता को वैध बनाने की प्रक्रिया विपरीत दिशा में आगे बढ़ती है, ताकि वैधता केवल उन्हीं को प्रदान की जाती है जो निर्णायक और प्रभावी ढंग से कार्य कर सकते हैं और करते हैं। यह उन देशों में विशेष रूप से सच है जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय मामलों में कमजोरी के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय अपमान की अवधि का अनुभव किया है। उदाहरण के लिए, चीनी कम्युनिस्टों की बहुत प्रभावशीलता पेकिंग सरकार को अपने विषयों की आंखों में वैधता की भावना देने में सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक रही है। लोकतांत्रिक राजनीतिक संस्कृतियों में अक्सर सभी शक्ति को नियंत्रित करने की आवश्यकता और वैध शक्ति के प्रभावी होने की आवश्यकता के बारे में अस्पष्ट भावनाएँ होती हैं। संक्रमणकालीन समाजों में सत्ता के किसी भी रूप को वैध बनाना अक्सर मुश्किल होता है क्योंकि ऐसा लगता है कि सभी को प्रभावी होने में बहुत कठिनाई होती है।
सभी राजनीतिक संस्कृतियों में, शक्ति और अधिकार के बारे में अवधारणाएँ
प्रारंभिक समाजीकरण प्रक्रिया में माता-पिता के अधिकार की मौलिक भूमिका के कारण गहरे मनोवैज्ञानिक आयाम हैं। परिवार के अधिकार का सामना करने में बच्चे जो कौशल विकसित करते हैं, वे अधिकार से निपटने में वयस्क शैलियों के लिए एक स्थायी आधार प्रदान करते हैं। इस प्रकार, कुछ संस्कृतियों में यह व्यापक रूप से माना जाता है कि मैत्रीपूर्ण अनौपचारिकता की भावना में न्याय और निष्पक्षता के मुद्दों पर बल देकर प्राधिकरण को सबसे अच्छा नियंत्रित किया जा सकता है, जबकि अन्य में शैली पूर्ण और अपमानजनक प्रस्तुत करने के द्वारा पक्ष जीतने की है।
राजनीतिक एकीकरण
अलग-अलग तरीकों से और अलग-अलग डिग्री में, राजनीतिक संस्कृतियाँ लोगों को राष्ट्रीय पहचान की भावना और विशेष राजनीतिक व्यवस्थाओं से संबंधित होने की भावना प्रदान करती हैं। राजनीतिक प्रणाली के एकीकरण की समस्याओं के लिए मूल राष्ट्रीय पहचान की भावना स्थापित करना है, और राष्ट्रीय पहचान की समस्या बदले में उस प्रक्रिया का एक कार्य है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी अलग पहचान की भावना का एहसास करते हैं। राष्ट्रीय पहचान और व्यक्तिगत पहचान के बीच यह बुनियादी संबंध समाजीकरण की प्रक्रिया और राजनीतिक प्रक्रिया के एकीकरण के बीच एक बुनियादी कड़ी प्रदान करता है [पहचान, राजनीतिक देखें]।
एकीकरण में राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल विभिन्न संरचनाओं के संबंध भी शामिल हैं, और इसलिए ऊपर चर्चा किए गए निर्णय लेने वाले समूहों के बीच कार्य की विशेषज्ञता की समस्याओं से संबंधित है।
एकीकरण का एक तीसरा पहलू उस तरीके से संबंधित है जिसमें विभिन्न उपसमुदाय, जातीय या क्षेत्रीय समूह, या उपसंस्कृति एक दूसरे से संबंधित हैं। एकीकरण के अपेक्षित मानकों को पूरा करते हुए ऐसे अल्पसंख्यकों को उनकी अलग पहचान बनाए रखने की अनुमति देने के अनुसार राजनीतिक संस्कृतियां भिन्न होती हैं। [एकीकरण देखें।]
राजनीति और राजनेताओं की स्थिति
पारंपरिक समाजों में, धर्म, युद्ध और सरकार ने अभिजात वर्ग प्रदान किया, और शासन करने की कला को एक पवित्र मूल के रूप में देखा गया। नेतृत्व उच्च दृश्यता रखता था, और जो लोग निर्णय लेने में भाग लेते थे वे गौरव और महानता का दावा कर सकते थे। आधुनिक राजनीतिक संस्कृतियाँ, श्रम के बढ़ते विभाजन और धर्मनिरपेक्ष विचारों के उदय को दर्शाती हैं, राजनीति को केवल कई व्यवसायों में से एक के रूप में स्वीकार करती हैं और राज्य और राष्ट्र के सर्वोच्च महत्व की प्रशंसा करते हुए भी राजनेता की भूमिका को कम करती हैं।
एक राजनीतिक संस्कृति को सक्रिय राजनीतिक भागीदारी के लिए आम तौर पर स्वीकार्य पुरस्कार और दंड स्थापित करना चाहिए। पारंपरिक समाजों में नेताओं की उच्च स्थिति का मतलब यह भी था कि सत्ता वाले लोग वैध रूप से उच्च भौतिक पुरस्कारों की उम्मीद कर सकते थे। अन्य व्यवसायों के उद्भव और राजनीतिक क्षेत्र के संकुचन के साथ, सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने वालों के भौतिक पुरस्कारों में कमी आई, और उनसे सार्वजनिक सेवाओं के प्रदर्शन के लिए व्यक्तिगत बलिदान करने की अपेक्षा की जाने लगी। राजनीतिक संस्कृति, सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने वालों के लिए पुरस्कार और दंड के बीच स्वीकृत संतुलन को नियंत्रित करने में, भर्ती किए गए लोगों की गुणवत्ता को भी नियंत्रित करती है। लोकतांत्रिक राजनीतिक संस्कृतियों में सत्ता को हथियाने की इच्छा इस आवश्यकता को उत्पन्न करती है कि सत्ता चाहने वालों का कोई स्वार्थ नहीं होना चाहिए, बल्कि केवल दूसरों के हित की सेवा करनी चाहिए; और यह संदेह कि ऐसा हमेशा नहीं होता है, एक वर्ग के रूप में राजनेताओं के लिए लोकप्रिय सम्मान को कम करता है। राजनीतिक संस्कृतियाँ, राजनेताओं और राजनेताओं के बीच भेद पैदा करने में, सत्ता चाहने वालों को पुरस्कृत करने और नियंत्रित करने के लिए एक और आधार प्रदान करती हैं [देखें राजनीतिक भर्ती और करियर]।
प्रदर्शन का मूल्यांकन
सभी राजनीतिक संस्कृतियों में राजनीतिक व्यवस्था में विशेष भूमिका निभाने वालों की प्रभावशीलता और क्षमता का मूल्यांकन करने के लिए मानक होते हैं। इस तरह के मानक आम तौर पर लोकप्रिय विचारों पर निर्भर करते हैं कि कैसे राष्ट्रीय और समुदाय-व्यापी समस्याओं को सबसे अच्छा हल किया जाना चाहिए। पारंपरिक संस्कृतियों में, समस्या समाधान आमतौर पर अनुष्ठानों के सही प्रदर्शन से जुड़ा हुआ था, और इसलिए प्रदर्शन का मूल्यांकन समारोहों में प्रदर्शित कौशल से काफी प्रभावित था। यद्यपि आधुनिक राजनीतिक संस्कृतियां समस्या समाधान में तर्कसंगतता के केंद्रीय स्थान को पहचानती हैं, फिर भी तर्कसंगत होने के रूप में स्वीकार की जाने वाली संस्कृतियों के बीच बहुत अंतर होता है। नेतृत्व में कौशल के बारे में निर्णय इस बात से भी प्रभावित होता है कि कोई समाज नेतृत्व के व्यक्तिगत चुंबकत्व या तकनीकी विशेषज्ञों और विशेषज्ञों की क्षमताओं को किस हद तक महत्व देता है। राजनीतिक संस्कृतियों के मूल्यांकनात्मक आयाम में परिवर्तन होते हैं क्योंकि नए कौशल और व्यवसायों को राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने के लिए प्रासंगिक माना जाता है।
राजनीतिक संस्कृतियों के मूल्यांकनात्मक पहलू को अपरिहार्य तथ्य को भी प्रतिबिंबित करना चाहिए कि राजनीति भविष्य की आकस्मिकताओं से संबंधित है जो तैयार भविष्यवाणी की सीमा से परे हैं। प्रत्येक राजनीतिक संस्कृति को स्वीकार्य नेताओं की पूर्वानुमान शक्तियों में विश्वास का कुछ आधार प्रदान करना चाहिए। परंपरागत रूप से, यह विश्वास आमतौर पर व्यक्तिगत नेतृत्व की रहस्यमय और करिश्माई शक्तियों में रखा गया था। अन्य संस्कृतियों में या तो दैवीय या धर्मनिरपेक्ष रूप से प्रेरित सिद्धांतों को सभी आवश्यक भविष्यवाणी के साथ संपन्न माना जाता है
सक्रिय शक्तियाँ। अभी भी अन्य संस्कृतियों में नौकरशाही और सरकार की जटिल मशीनरी की बहुत व्यापकता और अनिवार्य रूप से गूढ़ संचालन एक लोकप्रिय विश्वास पैदा करने के लिए पर्याप्त है कि सत्ता में रहने वालों को भविष्य की समझ है। सभी मामलों में नेतृत्व की अंतिम परीक्षा सभी संभावित आकस्मिकताओं से निपटने के लिए नेता की क्षमता में लोकप्रिय विश्वास बनाए रखने का कौशल है। [देखें नेतृत्व, राजनीतिक पहलुओं पर लेख।]
राजनीति का भावात्मक आयाम
संभवतः कोई अन्य सामाजिक गतिविधि भावनाओं की इतनी विस्तृत श्रृंखला को राजनीति के रूप में नहीं छूती है, और प्रत्येक राजनीतिक संस्कृति स्वीकार्य सार्वजनिक भावनाओं की अभिव्यक्ति को विनियमित करने और दूसरों को वैधता से वंचित करने का प्रयास करती है। इन सबसे ऊपर, चूँकि राजनीति में निरपवाद रूप से सत्ता के लिए संघर्ष शामिल होता है, व्यक्तिगत आक्रामकता एक बुनियादी भावना है जिससे सभी राजनीतिक संस्कृतियों को आक्रामकता के कुछ रूपों को वैध बनाकर और उन क्षेत्रों और समयों को परिभाषित करके निपटना चाहिए जिनमें इसकी अभिव्यक्ति की अनुमति है।
राजनीतिक संस्कृतियों का यह कार्य संबंधित है लेकिन व्यवस्था को एकीकरण और सामूहिक पहचान की भावना प्रदान करने की आवश्यकता से परे है। इसमें वह सीमा शामिल है जिस हद तक शक्ति और निर्णय का अंतर्निहित नाटक या तो बल देता है या मौन रहता है। अनिवार्य रूप से, राजनीतिक संस्कृति का प्रभावशाली आयाम उन तरीकों से निर्धारित होता है जिसमें लोगों को वैध रूप से राजनीति में सक्रिय भागीदारी से मानसिक संतुष्टि का एहसास करने की अनुमति दी जाती है।
राजनीतिक संस्कृतियों की सुसंगतता और स्थिरता को लगातार इस तथ्य से खतरा है कि लोग अत्यधिक निजी और मनोवैज्ञानिक रूप से व्यक्तिगत कारणों से राजनीतिक कार्रवाई की ओर मुड़ सकते हैं, और इस प्रकार उन संतुष्टि की तलाश कर सकते हैं जो राजनीति के सामाजिक या सामूहिक कार्यों से पूरी तरह से असंबंधित हैं। ऐसे लोगों की सार्वजनिक लक्ष्यों या उनके द्वारा समर्थित आंदोलनों के उद्देश्यों में बहुत कम रुचि हो सकती है, क्योंकि उनकी संतुष्टि मुख्य रूप से भागीदारी की भावना और भागीदारी के नाटक से आती है। हेरोल्ड लैसवेल ने पहली बार इस घटना (1930; 1948) को इंगित किया, जिसे बादाम ने कम्युनिस्ट आंदोलनों (1954) में भी देखा था।
सहयोग और प्रतिस्पर्धा के बीच संतुलन
राजनीति सामूहिक कार्यों पर टिकी होती है जो बदले में विश्वास की मूल भावना और सहयोग की क्षमता पर निर्भर करती है। साथ ही राजनीति में संघर्ष और प्रतिस्पर्धा शामिल है। इसलिए संस्कृतियों को सहयोग और प्रतिस्पर्धा के बीच एक स्वीकार्य संतुलन बनाना चाहिए, और इस समस्या का प्रबंधन करने के लिए राजनीतिक संस्कृतियों की क्षमता आमतौर पर इस बात पर निर्भर करती है कि बुनियादी समाजीकरण प्रक्रिया आपसी विश्वास और व्यक्तित्व विकास में अविश्वास की समस्याओं को कैसे संभालती है। [संघर्ष देखें; सहयोग।]
जटिल मानव संगठनों के निर्माण के लिए एक आवश्यक शर्त मानव विश्वास की एक मजबूत भावना है। जहां बुनियादी संस्कृति लोगों में अविश्वास और संदेह की गहरी भावना पैदा करती है, सामूहिक कार्रवाई मुश्किल हो जाती है, और प्रतिस्पर्धा हाथ से निकल जाती है और गंभीर रूप से विघटनकारी हो जाती है। दूसरी ओर, सामान्य संस्कृतियाँ जो व्यक्तिगत विश्वास के निर्माण पर जोर देती हैं, उन्हें राजनीतिक संस्कृतियों द्वारा संतुलित करना पड़ सकता है जो सार्वजनिक संस्थानों के प्रबंधन में संदेह की आवश्यकता पर जोर देती हैं। उदाहरण के लिए, यह सुझाव दिया गया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में बुनियादी समाजीकरण प्रक्रिया मानवीय संबंधों में विशेष रूप से उच्च स्तर के बुनियादी विश्वास पर जोर देती है, लेकिन अमेरिकी राजनीतिक संस्कृति संस्थानों पर अविश्वास करने, उनकी शक्तियों की जांच करने और सख्त मांग करने की आवश्यकता पर बल देती है। सभी सरकारी अधिकारियों की जवाबदेही। कई संक्रमणकालीन समाजों में हम इसके विपरीत पैटर्न पाते हैं, जिसमें समाजीकरण की प्रक्रिया मानवीय संबंधों के प्रति गहरा अविश्वास पैदा करती है, जबकि साथ ही लोगों को अपने सार्वजनिक संस्थानों में पूर्ण और अविवेकी विश्वास रखने के लिए कहा जाता है। पैटर्न भारत (कारस्टेयर 1957), सीलोन (1960 Wriggins), बर्मा (सम्मेलन देखें … 1963), और इटली (बैनफील्ड 1958) में देखा गया है।
राजनीतिक संस्कृति के सिद्धांत का भविष्य
जैसा कि पूर्वगामी चर्चा से पता चलता है, प्रस्तावों का एक बढ़ता हुआ निकाय है जो विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं में समग्र और व्यक्तिगत व्यवहार को जोड़ने की कोशिश करता है, ताकि अब राजनीतिक संस्कृति के सिद्धांत के विकास की बात करना संभव हो सके। हालाँकि, इस सिद्धांत की कई आलोचनाओं पर ध्यान देना भी उचित है जो इसके विकास के वर्तमान प्रारंभिक चरण को दर्शाती हैं।
यह सुझाव दिया गया है कि अवधारणा पुराने विचारों के लिए एक नए लेबल से थोड़ा अधिक दर्शाती है। एक हद तक, यह एक वैध अवलोकन है, लेकिन वह जो सिद्धांत के केंद्रीय उद्देश्य की उपेक्षा करता है, जो कि मनोवैज्ञानिक सिद्धांत को कुल राजनीतिक प्रणाली के प्रदर्शन से जोड़ने का एक नया तरीका खोजना है।
वर्तमान में केवल “राजनीतिक संस्कृति” शब्द त्वरित सहज समझ पैदा करने में सक्षम है, ताकि लोगों को अक्सर लगता है कि आगे और स्पष्ट परिभाषा के बिना वे इसके अर्थों की सराहना कर सकते हैं और इसका स्वतंत्र रूप से उपयोग कर सकते हैं। हालांकि, जिस आसानी से इस शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता है, इसका मतलब यह है कि इस बात का काफी खतरा है कि राजनीतिक विश्लेषण में समझाई नहीं जा सकने वाली किसी भी चीज़ को भरने के लिए इसे “मिसिंग लिंक” के रूप में नियोजित किया जाएगा।
पुनरुक्ति विशेष रूप से ठीक उस क्षेत्र में महान है जो अब सिद्धांत के भविष्य के विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण है – राजनीतिक संस्कृति और राजनीतिक संरचनाओं या संस्थानों के बीच संबंध। यदि राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाना है, तो इसे संरचनात्मक विश्लेषण के साथ पूरक करने की आवश्यकता है, लेकिन कठिनाई यह है कि राजनीतिक संरचनाओं को एक ओर राजनीतिक संस्कृति को दर्शाने वाले उत्पादों के रूप में देखा जा सकता है, जबकि दूसरी ओर वे महत्वपूर्ण “दान” जो राजनीतिक संस्कृति को आकार देते हैं।
ये ऐसी समस्याएं हैं जिन पर विजय प्राप्त की जानी चाहिए यदि राजनीतिक संस्कृति के सिद्धांत को अपने शुरुआती वादे को पूरा करना है। संभावना उत्कृष्ट है कि वर्तमान शोध इन अधिकांश आपत्तियों को अलग कर देगा और एक राजनीतिक संस्कृति सिद्धांत की उपयोगिता को बहुत आगे बढ़ाएगा। हाल के व्यवस्थित तुलनात्मक शोध, सर्वेक्षण विधियों पर आधारित, राजनीतिक समाजीकरण प्रक्रियाओं और राजनीतिक संस्कृति के कई आयामों के बीच संबंधों को और स्पष्ट करने का वादा करते हैं। लोकतांत्रिक राजनीतिक संस्कृति के घटकों की पहचान करने में गेब्रियल ए. आलमंड और सिडनी वर्बा के काम ने दुनिया भर में लोकतांत्रिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का मूल्यांकन करने के नए प्रयासों को पहले ही प्रेरित कर दिया है। 1960 के दशक में वेरबा भारत, जापान, नाइजीरिया और मैक्सिको में द सिविक कल्चर की कुछ परिकल्पनाओं को लागू करते हुए एक अध्ययन का निर्देशन कर रहे थे। सिविक कल्चर की बुनियादी अवधारणाओं का उपयोग वार्ड द्वारा जापानी विकास के विश्लेषण में, स्कॉट द्वारा मेक्सिको के लिए, रोज़ द्वारा इंग्लैंड के लिए, और बारघोर्न द्वारा सोवियत संघ के लिए किया गया है (देखें पीपी। 83–129; 330–395; 450–511) पाई और वर्बा 1965)। आर्थिक विकास के लिए राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक अवरोधों पर अन्य शोध आधुनिक राजनीतिक संस्कृति के लिए और महत्वपूर्ण आयामों का सुझाव दे रहे हैं, चाहे वह लोकतांत्रिक हो या नहीं (मैक्लेलैंड 1961; हेगन 1962)।
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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