राजनीतिक व्यवस्था

राजनीतिक व्यवस्था

2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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  1. राजनीतिक व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था का ही एक भाग है जो इसके सभी प्रकार्यो में किसी न किसी रूप में योगदान देती है। ईस्टन के अनुसार, राजनीतिक व्यवस्था सम्पूर्ण सामाजिक व्यवहार से ली गई कुछ अन्तःक्रियाओं अथवा प्रक्रियाओं की एक व्यवस्था है जिसके माध्यम से मूल्य-प्रधान वस्तुओं का समाज में प्राधिकृत रूप से विनियोजन होता है।

 

  1. प्राधिकारिक से तात्पर्य उन व्यक्तियों से है जो सत्ता में हैं तथा जो किसी भी बात को अपने निर्णयों द्वारा मनवा सकते हैं। मूल्य-प्रधान का अर्थ यहाँ विचारों एवं विश्वासों से न होकर टोकन आॅफ प्राइससे है अर्थात् मूल्यों से परितोषण तथा दण्ड का बोध होता है। राजनीतिक  व्यवस्था  मूल्य-प्रधान  वस्तुओं  का  विनियोजन  ऐसे  व्यक्तियों  द्वारा  करवाती  है।  जिनके  पास सत्ता होती है।

 

  1. राजनीतिक व्यवस्था के चारों सम्पूर्ण पर्यावरण पाया जाता है जोकि दो प्रकार का होता है: (1) समाज अंतर्गत तथा (2) समाजबाह्य। प्रथम प्रकार के पर्यावरण के प्रमुख तत्व समाज के अन्दर पायी जाने वाली पारिस्थितिकीय व्यवस्थाजैविकीय व्यवस्था, व्यक्तिगत  व्यवस्था तथा  सामाजिक  व्यवस्था है  जबकि

 

  1. द्वितीय  प्रकार  के  पर्यावरण  अर्थात्  समाजबाह्य  पर्यावरण  के  प्रमुख  तत्व  अन्तर्राष्ट्रीय  राजनीतिक  व्यवस्था, अन्तर्राष्ट्रीय पारिस्थितिकीय-व्यवस्था तथा अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक व्यवस्था है।

 

  1. राजनीतिक व्यवस्था एक गतिशील एवं खुली व्यवस्था है जिस पर पर्यावरण (समाजान्तर्गत तथा समाजबाह्य)  के  अनेक  कारक  प्रभाव  डालते  हैं  अर्थात्  राजनीतिक  व्यवस्था  को  पर्यावरण  द्वारा  निरन्तर चुनौतियाँ मिलती रहती हैं। ये चुनौतियाँ माँग ;क्मउंदकेद्ध  तथा समर्थन ;ैनचचवतजद्ध  के रूप में होती हैं।

 

  1. माँग  विचारों  की  एक  अभिव्यक्ति  है  जिसका  एक  निश्चित  विषय-वस्तु  के  सम्बन्ध  में  प्राधिकृत  रूप  से विनियोजन किया भी जा सकता है अथवा नहीं भी। माँग रखी जाने के बाद इनका जनचेतन के रूप में समर्थन होता है तथा ये माँगे मानवीय माँगों के सन्धियोजन के रूप में वृद्धि करती हैं। तत्पश्चात् ये माँगे विशिष्ट मुद्दों के रूप में गठित होकर विकसित होती हैं। अन्त में ये माँगें प्राधिकृत निर्णयों द्वारा निर्गतन अवस्था तक पहुँचती हैं। माँगों के लिए ईस्टन ने निवेशन तथा प्राधिकृत निर्णयों के लिए निर्गतन शब्दों का प्रयोग किया है।
  2. माँगेंचाहे  अधिक  हों  अथवा  कमराजनीतिक  व्यवस्था  को  प्रभावित  करने  में  महत्वपूर्ण  भूमिका निभाती हैं क्योंकि राजनीतिक व्यवस्था एक निश्चित अवधि में अनेकों माँगों को नियन्त्रित कर भी सकती है अथवा नहीं भी। राजनीतिक व्यवस्था में अपना एक यन्त्र होता है जिसके द्वारा वह माँगों को पीछे धकेल सकती है अथवा उनको उचित सीमा तक पूरा कर सकती है।

 

 

  1. ईस्टन ने राजनीतिक व्यवस्था की चार प्रकार की नियन्त्रण की उपव्यवस्थाओं का उल्लेख किया है:

 

    1. वे अवस्थाएँ जोकि राजनीतिक व्यवस्था की सीमाओं पर चैकीदारी का कार्य करती हैं। ये माँगों के बहाव को राजनीतिक व्यवस्थाओं में प्रविष्ट होने पर रोक लगाती हैं तथा माँगों के साथ सन्धियोजन का कार्य करती हैं।

 

    1. राजनीतिक व्यवस्था में कुछ ऐसी सांस्कृतिक उपव्यवस्थाएँ एवं सामाजिक सांस्कृतिक आदर्श होते हैं जो माँगों की प्रभावक शक्ति की जाँच करते हैं।

 

 

    1. राजनीतिक व्यवस्था संचार व्यवस्था के जाल के माध्यम से माँगों का परिसंचरण कर सकती है।

 

    1. अन्त में राजनीतिक व्यवस्था माँगों को काट-छाँट करके एक विशिष्ट रूप प्रदान करती है जिसके बिना माँगें परिवर्तन प्रक्रिया से सही प्रकार से नहीं गुजर सकतीं।
  1. माँगों के साथ-साथ माँगों का समर्थन भी होता है जोकि निवेशन है। राजनीतिक व्यवस्था माँगों को  इस  प्रकार  प्राधिकारिक  निर्णयों  में परिवर्तित  कर  देती  है  जिससे  माँग करने  वाले  सन्तुष्ट  हो  जायें। जिन  प्राधिकृत  निर्णयों  से  किसी  राजनीतिक  व्यवस्था  के  अधिकांश  सदस्य  असंतुष्ट  होंगेवे  निर्णय  उस व्यवस्था के प्रति आस्था में कमी लायेंगे। माँगों का प्राधिकृत निर्णयों में परिवर्तन निर्गतन कहलाता है तथा वह प्रक्रिया जिसके द्वारा ऐसा होता है उसे परिवर्तन क्रियाविधि ;ब्वदअमतेपवद उमबींदपेउद्ध  कहा जाता है।

 

  1. कालान्तर में इन निर्गतनों द्वारा भविष्य के निवेशनों का निर्धारण होता है अर्थात् प्राधिकारिक निर्णय समय के साथ पर्यावरण में फिर से नवीन माँगें उत्पन्न करते हैं। इसे पुनर्निवेशन ;थ्ममकइंबाद्ध  प्रक्रिया कहा जाता है। इस प्रकार निर्गतन ही राजनीतिक व्यवस्था के अन्तिम बिन्दु नहीं हैं। वास्तव में, ये व्यवस्था में पुनः वापस चले जाते हैं  तथा व्यवस्था के आगामी व्यवहार  का  आधार  प्रदान करते हैं। इसी  दृष्टिकोण द्वारा राजनीतिक प्रक्रिया को व्यवहारों की एक निरन्तर एवं अन्तःसम्बन्धित प्रक्रिया कहा गया है। पुनर्निवेशन एक गतिशील प्रक्रिया को व्यवहारों की एक निरन्तर एवं अन्तःसम्बन्धित प्रक्रिया कहा गया है। पुनर्निवेशन एक गतिशील प्रक्रिया हैं जिसे राजनीतिक व्यवस्था के बहाव प्रतिरूप के रूप में जाना जा सकता है।
  2. ईस्टन का व्यवस्थात्मक उपागम आमण्ड के संरचनात्मक-प्रक्रियात्मक उपागम से अधिक व्यापक है तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं एवं व्यवहार के विश्लेषण में  अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है। इसमें इन्होंने

 

  1. तनाव एवं पुनर्निवेशन जैसे संप्रत्ययों को सम्मिलित करके इसे अधिक गतिशील बना दिया है। इस उपागम से  राजनीतिक  परिवर्तन  तथा  विकास  को  समझने  के  भी  सफल  प्रयास  किए  गए  हैं।  इस  उपागम  को जान-बूझ कर इस प्रकार का बनाया गया है कि यह किसी विशेष प्रकार की व्यवस्थाओं से आबद्ध नहीं हो पाया है, अपितु इससे राजनीतिक समाजशास्त्र में तुलनात्मक विश्लेषण को नवीन अन्तर्दृष्टि मिली है। इसे राजनीतिक विश्लेषण के सिद्धान्तों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।

 

 

  1. यद्यपि  ईस्टन  के  व्यवस्थात्मक  उपागम  द्वारा  राजनीतिक  व्यवस्था  के  विश्लेषण  की  आलोचना अनेक कारणों से की गई परन्तु फिर भी इसकी उपयोगिता किसी भी प्रकार से कम नहीं होती है। इस उपागम  द्वारा  क्योंकि  अधिक  आनुभविक  अध्ययन  नहीं  किये  गये  हैंअतः  इस  पर  आसानी  से  निश्चित आरोप नहीं लगाये जा सकते। फिर भी, ईस्टन के विश्लेषण में व्यवस्थात्मक उपागम की अनेक सामान्य कमियाँ स्पष्ट देखी जा सकती हैं-

 

  1. यह उपागम संतुलित अस्तित्व को अत्यधिक महत्व देता है जोकि राजनीतिक परिवर्तन की दृष्टि से मूलभूत नहीं है।          इस उपागम द्वारा उन इकाइयों अथवा तत्वों का विश्लेषण नहीं किया जा सकता जोकि वास्तव में गैर-राजनीतिक हैं परन्तु माँगों को प्रस्तुत करने में तथा उनके प्रति समर्थन जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।         इस उपागम द्वारा आकस्मिक तथा क्रान्तिकारी  परिवर्तनों  की  व्याख्या  नहीं  दी  जा  सकती  क्योंकि  इन  परिवर्तनों  को  परिवर्तन-यंत्र  द्वारा नियन्त्रित करना कठिन हो सकता है।         इस उपागम द्वारा राजनीतिक शक्ति जैसे संप्रत्यय की पूर्ण व्याख्या  नहीं  की  जा  सकती  तथा  मतदान  जैसे  व्यावहारिक  राजनीतिक  पहलुओं  को  नहीं  समझा  जा सकता।
  2. कुछ भी हो, इतना अवश्य है कि यह उपागम राजनीतिक समाजशास्त्र में सार्वभौमिक एवं सामान्य सिद्धान्त सम्बन्धी आधारभूमि  के निर्माण का  एक  महत्वपूर्ण प्रयास है।  इसने राजनीतिक  समाजशास्त्र को व्यावहारिक बनाने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

 

 

 

 

  1. व्यवहारवादी या व्यवहारात्मक उपागम आज राजनीतिक समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा समाजशास्त्र में सर्वाधिक  प्रचलित  एवं  बहुचर्चित  उपागम  कहा  जा  सकता  है  जो  कि  मानव-व्यवहार  के  संप्रत्यय  को प्रतिष्ठित करता है। इस उपागम का विकास सावयवस्वरूपवादी, संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक, आदर्शात्मक तथा  संघर्षात्मक  उपागमों  के  विरोध  में  हुआ  है।  यह  उपागम  संविधान  के  अनुǔछेदों  अथवा  आदर्शो  के अध्ययन की अपेक्षा व्यक्तियों के व्यवहार (राजनीतिक व्यवहार सहित) के अध्ययन पर बल देता है, चाहे वे व्यक्ति शासित वर्ग के हों या शासक वर्ग के। इसमें व्यक्तियों के व्यवहार की तुलना भी की जाती है तथा
  2. यह आनुभविक एवं वैज्ञानिक अध्ययनों पर बल देता है। आमण्ड, दहल, ईस्टन, दुत्श, लैसवेल, की, पोम्पर,
  3. टूमैन इत्यादि इनेक विद्वान इस उपागम के समर्थक हैं।
  4. राजनीतिशास्त्र में व्यवहारवादी उपागम को एक आन्दोलन के रूप में माना गया है जिसे विविध प्रकार  के  नामों  जैसे  व्यवहारवादी  अनुनय  तथा  सफल  विरोध  से  जाना  जाता  है।  यह  आन्दोलन राजनीतिकशास्त्र पर समाजशास्त्र के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण बीसवीं शताब्दी के शुरू में प्रारम्भ हुआ तथा द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् राजनीतिक समाजशास्त्र विषय के विकास के साथ ही साथ इसे इसमें तथा राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र में एक महत्वपूर्ण उपागम के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
  5. राॅबर्ट  ए.  दहल  ने  इसे  राजनीतिशास्त्रियों  (मुख्य  रूप  से  अमरीकी  राजनीतिशास्त्री)  द्वारा  अपने विषय के प्रति एक विद्रोही आन्दोलन के रूप में देखा है जोकि राजनीतिशास्त्र में प्रयुक्त किये जाने वाले
  6. ऐतिहासिक, दार्शनिक, वर्णनात्मक-संस्थागत उपागमों की उपलब्धियों के प्रति असंतुष्ट थे तथा जिनका यह भी विश्वास था कि राजनीतिक स्थितियों व प्रघटनाओं को क्रमबद्ध रूप से समझने के लिए अन्य विधियाँ

 

  1. तथा उपागम उपलब्ध हैं या  उनका विकास किया जा सकता है। इस  आन्दोलन का  उद्देश्य राजनीतिक अध्ययनों  को  आधुनिक  समाजशास्त्रमनोविज्ञाननृविज्ञान  तथा  अर्थशास्त्र  के  सिद्धान्तोंविधियोंनिष्कर्षो तथा दृष्टिकोणों के अधिक नजदीक लाना तथा राजनीतिशास्त्र के आनुभविक घटक को अधिक वैज्ञानिक बनाना  था।  दहल  के  शब्दों  मेंइसका  उद्देश्य  सरकार  की  सभी  घटनाओं  का  व्यक्तियों  के  प्रेक्षित  एवं प्रेक्षणमूलक व्यवहार के रूप में वर्णन करना है ताकि राजनीतिक जीवन सम्बन्धी चिरस्थायी समस्याओं की पूर्ण वैज्ञानिक व्याख्या की जा सके।

 

 

डेविड टूमैन के अनुसार व्यवहारवादी उपागम की दो प्रमुख माँगें हैं:  (अ) अनुसन्धान व्यवस्थित होना  चाहिएतथा  (ब)  इसमें  मुख्य  रूप  से  आनुभविक  विधियों  को  महत्व  प्रदान  किया  जाना  चाहिए। व्यवस्थित  अनुसंधान  से  अभिप्राय  प्राक्कलनाओं  की  परिशुद्ध  प्रस्तावनाएँ  देना  तथा  प्रमाणों  को  यथातथ्य व्यवस्थित  करना  है।  साथ  हीइन्होंने  अशोधित  अनुभववाद  अथवा  ऐसी  प्राक्कल्पनाजिसका  आनुभविक परीक्षण नहीं किया जा सकता है, तथा आनुभविक विधियों में भेद करने पर भी बल दिया है।

 

 

डेविड  ईस्टन  ने  व्यवहारवादी  आन्दोलन  की  आठ  मान्यताओं  एवं  उद्देश्यों  का  उल्लेख  किया  है जिन्हें व्यवहारात्मक उपागम की बौद्धिक आधारशिलाएँ कहा जा सकता है, ये निम्नांकित हैं:

 

 

व्यवहारवादी  उपागम  के  समर्थकों  का  यह  विश्वास  है  कि  राजनीतिक  व्यवहार  में कुछ  समानताएँ  पायी  जाती  हैं  जिनकी  व्याख्या  सामान्यीकरण  तथा  सिद्धान्तों  के  रूप  में  की  जा सकती है तथा जिनकी सहायता से राजनीतिक स्थितियों एवं प्रघटनाओं को समझा जा सकता है तथा इनके बारे में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। ईस्टन ने स्वयं इस बात को स्वीकार किया हे कि यद्यपि राजनीतिक व्यवहार अनेक कारणों से प्रभावित होता है तथा सदा समान नहीं है, फिर भी व्यक्तियों को विभिन्न परिस्थितियों में कुछ पहलुओं के संदर्भ में समान रूप से व्यवहार करते देखा गया है। मतदान व्यवहार इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है।

व्यवहारवादी  उपागम  की  दूसरी मान्यता  यह  है  कि  ज्ञान  तभी  प्रमाणित  हो  सकता  है जबकि  इसे  ऐसी  प्रस्तावनाओं  के  रूप  में  परिसीमित  कर  दिया  जाए  जिनकी  आनुभविक  रूप  से परीक्षा की जा सके और प्रेक्षण पर आधारित प्रमाण एकत्रित किये जा सकें।

व्यवहारवादी उपागम आँकड़े संकलित करने तथा इनके निर्वचन के लिए आनुभविक एवं संशुद्ध  प्रविधियों  के  प्रयोग  पर  बल  देता  है  ताकि  वस्तुनिष्ठ  रूप  से  प्रघटनाओं  एवं  व्यवहार  को समझा जा सके। कुछ प्रविधियों जैसे बहुचर विश्लेषण, प्रतिदर्श, सर्वेक्षण, गणितीय आदर्शो, इत्यादि

द्वारा वैध, विश्वसनीय तथा तुलनात्मक आँकड़े संकलित किये जा सकते हैं।

व्यवहारवादी उपागम के समर्थक मापन तथा परिमाणन के महत्व को स्वीकार करते हैं। राजनीतिक जीवन की जटिलताओं के बारे में वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुणात्मक आँकड़ों की अपेक्षा परिमाणात्मक आँकड़ों का संकलन तथा इनका परिशुद्ध मापन अनिवार्य है।

व्यवहारवादी  उपागम  के  समर्थकों  की  यह  भी  मान्यता  है  कि  राजनीतिक  प्रघटनाओं  एवं व्यवहार का अध्ययन मूल्यों के प्रति तटस्थ रहकर किया जा सकता है। मूल्य तथा तथ्य दो विभिन्न बातें हैं तथा विश्लेषण की दृष्टि से इन्हें पृथक् माना जाना चाहिये। डेविड डब्लू. मिनार ने भी इन्हें पृथक्  मानने  पर  बल  दिया  है।  इन  दोनों  का  अध्ययन  पृथक्  रूप  से  अथवा  संयुक्त  रूप  से  हो सकता है, परन्तु इन्हें एक-दूसरे से मिलना उचित नहीं है। वैज्ञानिक अनुसंधान वस्तुनिष्ठ होने के लिए  मूल्यों से  स्वतंत्र  होना  चाहिए  तथा  अनुसंधानकत्र्ता  को  अध्ययन  करते समय अपने व्यक्तिगत अथवा नैतिक मूल्यों के प्रति तटस्थ रहना चाहिए।

व्यवहारवादी  उपागम  के  समर्थकों  का  यह  दावा  है  कि  राजनीतिक  समाजशास्त्र  में व्यवस्थित अनुसंधान सम्भव है। व्यवस्थित अथवा क्रमबद्ध रूप से इनका तात्पर्य सिद्धान्त-निर्देशित

 

एवं सिद्धान्ताभिमुख अनुसंधान से है जिसमें अनुसंधान को व्यवस्थित ज्ञान के परस्पर सम्बन्धित अंग माना गया है। व्यवहारवादियों का उद्देश्य कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर सामान्य सिद्धान्तों का निर्माण करना है अर्थात् परस्पर सम्बन्धित राजनीतिक घटनाओं के  सम्बन्ध में सामान्य नियमों की खोज करना है।

व्यवहारवादी उपागम विशुद्ध विज्ञान में विश्वास करने पर बल देता है। यद्यपि इन लोगों  का  यह  विचार  है  कि  अनुप्रयुक्त  अनुसंधान  (जिसका  उद्देश्य  व्यावहारिक  समस्याओं  का समाधान करना है) तथा विशुद्ध अनुसंधान (जिसका उद्देश्य व्यवस्थित एवं व्यवहारात्मक ज्ञान में वृद्धि करना  है)वैज्ञानिक  उद्यम  में  परस्पर  सम्बन्धित  हैंफिर  भी  इन्होंने  विशुद्ध  अनुसंधान  को  अधिक महत्वपूर्ण माना है।

व्यवहारवादी उपागम के समर्थक विभिन्न सामाजिक विज्ञानों में समाकलन (एकीकरण) पर बल देते हैं। वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है तथा उसकी सामाजिकराजनीतिकआर्थिकसांस्कृतिक  एवं  अन्य  गतिविधियों  में  अंतर  किया  जा  सकता  है, परन्तु  किसी  एक  को  समझने  के  लिए  दूसरी  गतिविधियों  का  ज्ञान  होना  अनिवार्य  है।  अतः राजनीतिक प्रघटनाओं को समझने के लिए आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक तथा अन्य प्रघटनाओं को समझना जरूरी है। दूसरे  शब्दों में यह  कहा  जा सकता  है कि व्यवहारात्मक  उपागम  के समर्थक अन्तःशास्त्रीय उपागम को अधिक महत्व देते हैं।

 

 

व्यवहारवादी  उपागम  की  इन  मान्यताओं को  परम्परावादी  राजनीतिशास्त्री  स्वीकार  नहीं  करते  तथा ईस्टन ने इन्हीं मान्यताओं के आधार पर व्यवहारात्मक एवं परम्परागत उपागमों में अन्तर समझाने का भी प्रयास किया है।

युलाउ ने व्यवहारवादी उपागम की चार विशेषताएँ बतायी हैं:

 

 

    1. यह व्यक्तियों और सामाजिक समूहों के व्यवहार का विश्लेषण करता है।
    2. यह सामाजिक मनोविज्ञान, सामाजशास्त्र और सांस्कृतिक नृविज्ञान से विषय-संदर्भ लेकर अनुसंधान
  1. एवं सिद्धान्त का विकास करता है।
    1. यह अनुसंधान और  सिद्धान्त की पारस्परिक  आत्मनिर्भरता में विश्वास करता है तथा इस बात पर बल देता है कि तथ्य सिद्धान्त की ओर तथा सिद्धान्त तथ्य की ओर जाने चाहिए।
    2. यह मान्य विश्वसनीय तथा परिशुद्ध प्रविधियों और पद्धतियों द्वारा तथ्यों के संकलन को महत्व प्रदान करता है।
    3. आज व्यवहारवादी आंदोलन अपने अगले चरण उत्तर-व्यवहारवादी अवस्था की ओर बढ़ गया है।
  2. यह  एक  प्रकार  के  व्यवहारवादी  उपागम  की  उपलब्धियों  और  विशेषताओं  को  बनाये  रखकर  समाज  की तात्कालिक समस्याओं, संकटों और चुनौतियों का अध्ययन करने तथा उनके समाधान की माँग करता है। इसलिये इसे परम्परावाद का पुनरूत्थान नहीं समझना चाहिये।

 

  1. व्यवहारवादी  उपागम  ने  राजनीतिक  समाजशास्त्र  के  विकास  में  महत्वपूर्ण  भूमिका  निभाई  है  तथा राजनीतिशास्त्र के परम्परागत  स्वरूप को  पूरी  तरह से  बदलकर उसे अन्य सामाजिक  विज्ञानों के समान स्तर  पर  लाने  में  सहायता  दी  है।  इससे  सामाजिक  विज्ञानों  में  समाकलन  बढ़ा  है  तथा  अन्तःशास्त्रीय उपागम द्वारा विविध प्रकार की स्थितियों एवं प्रघटनाओं को समझने में रूचि निश्चित रूप से अधिक होती जा रही है। ईस्टन के अनुसार यह उपागम सम्पूर्ण सामाजिक विज्ञानों में विश्लेषणात्मक एवं व्याख्यात्मक सिद्धान्त के समारम्भ का सूचक है। यह समाज के विभिन्न परिवर्तनशील अवबोधक उपागमों की एक लम्बी पंक्ति में एक नूतन विकास है। वर्मा ने इस उपागम की उपलब्धियों की विवेचना दो क्षेत्रों-(अ) सिद्धान्तों का  निर्माणतथा  (ब)  अनुसंधान  की  प्रविधियों  के  संदर्भ  में  की  है।  इनका  विचार  है  कि  अगर  हम

 

1960-1970  के  दशक  की  उपलब्धियों  को  भी  सामने  रखें  तो  ऐसा  आभास  होता  है  कि  व्यवहारवाद दो आंदोलनों-सैद्धान्तिक  तथा  तकनीकी  के  रूप  में  विकसित  हुआ  हैपरन्तु  तकनीकी  आंदोलन  सैद्धान्तिक आंदोलन से काफी आगे निकल गया है।

व्यवहारवादी  उपागम  ने  अनुसंधान  की  प्रविधियों  एवं  यंत्रों  को  विकसित  करने  एवं  उन्हें  अधिक सटीक बनाने में विशेष योगदान दिया है। अन्तर्वस्तु विश्लेषण, केस विश्लेषण, साक्षात्कार एवं प्रेक्षण तथा सांख्यिकी  के  क्षेत्र  में  इसका  योगदान  अद्वितीय  रहा  है।  इसमें  परिवर्तन  अग्रवर्णित  प्रकार  से  समझा  जा सकता है।

 

 

 

 

व्यवहारवादी  उपागम  की  आलोचना  अनेक  दृष्टियों  से  की  गयी  है।  आलोचना  के  कतिपय  प्रमुख बिन्दु निम्नांकित हैं:

  1. व्यवहारवादी उपागम  की  सहायता  से  यद्यपि  अनुसंधान  की  कार्य-पद्धतिप्रविधियों  एवं  यंत्रों  के विकास  के  क्षेत्र  में  उल्लेखनीय  सफलता  मिली  हैफिर  भी  इसने  विद्वानों  को  राजनीतिक समाजशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र की विषय-वस्तु से विमुख कर दिया। विभिन्न विद्वान इसके प्रभाव

 

के अन्तर्गत समाज की तात्कालिक समस्याओं, संकटों एवं चुनौतियों का अध्ययन करने तथा उनके समाधान ढूँढ़ने की अपेक्षा अनुसंधान की कार्य-पद्धति को विकसित करने में ही लगे रहे।

 

ऽ   व्यवहारवादी  उपागम  के  समर्थकों  का  राजनीति  के  विज्ञान  को  विशुद्ध  विज्ञान  बनाने का  दावा  भी अधिक उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि वे कार्य-पद्धति में सुधार के बावजूद राजनीतिक व्यवहार एवं राजनीतिक प्रघटनाओं के बारे में कोई सामान्य सिद्धान्त बनाने में सफल नहीं रहे हैं।

ऽ   व्यवहारवादी उपागम यद्यपि सामाजिक विज्ञान के समाकलन पर बल देता है, परन्तु वास्तविक यह है कि इसके द्वारा केवल सूक्ष्म अध्ययन अर्थात् छोटे समूहों की राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन ही सम्भव है। अगर  छोटे समूहों  में राजनीतिक व्यवहार  एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं को समझ भी लिया जाये, तो भी इन सूक्ष्म अध्ययनों के आधार पर सिद्धान्त का निर्माण करना कठिन है।

ऽ   राजनीति  तथ्य  जटिलसंश्लिष्ट  एवं  परिवर्तनशील  हैं  तथा  प्रत्यक्ष  प्रेक्षण  योग्य  न  होने  के  कारण प्राकृतिक या भौतिक तथ्यों से भिन्न हैं। अतः व्यवहारवादी उपागम के समर्थकों का राजनीतिशास्त्र, राजनीतिक समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञानों को प्राकृतिक या भौतिक विज्ञानों के समकक्ष मानना एवं एक समान कार्य-पद्धति अपनाने की बात कहना उचित नहीं है।

ऽ   व्यवहारवादी उपागम की आलोचना इस बिन्दु के आधार पर भी की गई है कि यद्यपि इसके समर्थक अपने-आपको विशुद्ध एवं मूल्य-निरपेक्ष वैज्ञानिक बताते हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि वे स्वयं अनेक पूर्वाग्रहों (विशेषतया प्रजातंत्र में आस्था) एवं मूल्यों से प्रभावित हैं।

ऽ   परम्परावादी  राजनीतिशास्त्री  व्यवहारवादी  उपागम  की  मान्यताओं  एवं  उद्देश्यों  से  भी  असहमत  हैं। इनका कहना है कि राजनीतिक प्रघटनाओं की प्रकृति इतनी जटिल है कि इनका प्रत्यक्ष प्रेक्षण द्वारा वस्तुनिष्ठ अध्ययन कर पाना सम्भव ही नहीं है। अधिकांश राजनीतिक मुद्दे नैतिक मूल्यों से जुड़े हैं, अतः तथ्यों को मूल्यों से पृथक् करना सम्भव नहीं है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रत्येक  समाज  में  सहयोग  तथा  संघर्ष  पाया  जाता  है।  जहाँ  सहयोग  जीवन  या  व्यवस्था  में  एकरूपता, मतैक्यएकीकरण  एवं  संगठन  का  विकास  करता  हैवहीं  दूसरी  ओर  संघर्षदमनविरोध  व  हिंसा  की उत्पत्ति  करता  है।  संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक  एवं  व्यवस्थात्मक  उपागमों  में  व्यवस्था  के  संतुलन  अथवा

एकात्मकता के आयामों को विशेष महत्व दिया जाता है। अतः इसके विरोध में एक अन्य उपागम विकसित किया गया है जिसे संघर्षात्मक उपागम के नाम से जाना जाता है। संघर्षात्मक उपागम में व्यवस्था में पाये जाने वाले तनाव व संघर्ष के आयामों को अधिक महत्व दिया जाता है। इस उपागम के समर्थक हमारा

ध्यान  इस  बात  की  ओर  आकर्षित  करते  हैं  कि  आधुनिक  समाज  तनाव  व  संघर्ष  से  आक्रांत  है  और सामाजिक  जीवन  में  सामान्य  सहमति  न  होकर  असहमतिप्रतिस्पद्र्धा  तथा  स्वार्थो  के  संघर्ष  की  प्रधानता होती  जा  रही  है।  इनका  विचार  है  कि  सामाजिक  तनाव  एवं  संघर्ष  के  प्रति  विमुख  होने  के  कारण संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक एवं व्यवस्थात्मक उपागम यथार्थ स्थिति को समझने में सहायक नहीं हैं। सिमेल, कोजर, माक्र्स, डेहरेन्डोर्फ, गालटुंग, कोलिन्स, ड्यूक, बेगहट, समनर, ओपनहीमर इत्यादि अनेक विद्वानों ने इस उपागम को समर्थन प्रदान किया है।

कोजर ने अपनी पुस्तक  में संघर्ष की परिभाषा इन शब्दों में दी है, ‘स्थिति, शक्ति तथा सीमित साधनों के मूल्यों अथवा अधिकारों के लिए होने वाले द्वन्द्व को  संघर्ष कहा  जाता  है  जिसमें  संघर्षरत  समूहों  का  उद्देश्य  न  केवल  मूल्यों  को  प्राप्त  करना  है  बल्कि  अपने प्रतिद्वन्द्वियों को प्रभावहीन करना, हानि पहुँचाना अथवा समाप्त करना भी है। इनका कहना है कि संघर्ष समूह अंतर्गत व्यक्तियों में, व्यक्ति तथा समूह में अथवा विभिन्न समूहों के मध्य हो सकता है।

 

संघर्ष  उपागम  के  तीन  प्रमुख  स्वरूप  हमारे  सामने  प्रस्तुत  किये  गये  हैं :    जिसमें इस तथ्य पर बल दिया जाता है कि समाज में रहने वाले विभिन्न व्यक्ति (अथवा समूह) सीमित साधनों पर अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पद्र्धा एवं संघर्ष करने में लगे रहते हैं;

जिसमें यह तर्क स्वीकार किया गया है कि समाज में संघर्ष स्थानिक है तथा इसके कारणों का पता लगाने का प्रयास किया जाता है; तथा    जिसमें संघर्ष को एक कार्य-प्रणाली अथवा राजनीतिक दाँव-पेच के रूप में स्वीकार किया जाता है। यह दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि ज्ञान कार्यवाही की माँग करता है जो कि सामान्यतः उग्र उन्मूलनवादी होती है।

 

 

 

डेहरेन्डोर्फ

डेहरेन्डोर्फ ने संघर्ष को एक अनिवार्य सामाजिक तथ्य बताया है, क्योंकि आज के औद्योगिक समाज में सम्पूर्ण सामाजिक जीवन हितों एवं स्वार्थो से प्रेरित होता है जो कि व्यक्तिगत तथा सामूहिक-दोनों क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं। इन्होंने संघर्ष उपागम में निम्नांकित चार विशेषताओं को महत्वपूर्ण माना है।

  1. प्रत्येक समाज सदैव परिवर्तन की प्रक्रियाओं के अधीन रहता है, सामाजिक परिवर्तन सर्वव्यापी हैं। अन्य विद्वानों ने कार्ल माक्र्स की वर्ग-संघर्ष की धारणा की आलोचना की है। इन विद्वानों का मत है कि केवल  आर्थिक  हित  ही  व्यवस्थाओं  के  परिवर्तन  में  निर्णायक  नहीं  हैं।  यह  संघर्ष  सत्ता  के  नियन्त्रण

अथवा विचारों के नियंत्रण पर भी हो सकता है। अनेक देशों में राजनीतिक आंदोलन, बेरोजगारी के कारण नहीं  हुए  अपितु  राजनीतिक  स्वतंत्रता  या  धार्मिक  एवं  शैक्षणिक  समस्याओं  के  लेकर  हुए  हैं।  साथ  ही वर्ग-संघर्ष को वर्तमान समाजों का आधार-मानना अनुचित है। अतः स्पष्ट है कि माक्र्स का वर्ग-संघर्ष का विश्लेषण राजनीतिक प्रघटनाओं की सटीक व्याख्या नहीं करता।

 

डेहरेन्डोर्फ की आधुनिक औद्योगिक समाज में संघर्ष की व्याख्या माक्र्सवाद का वेबर और मिचेल्स के कुछ विचारों से संयोजित आधुनिक स्वरूप ही है जिसमें उनके अपने महत्वपूर्ण एवं मौलिक योगदान की भी अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इनके अनुसार समाज की बाध्यकारी प्रकृति सत्ता सम्बन्धों को बढ़ावा देती है जिसके परिणामस्वरूप भूमिका-हितों पर आधारित संगठित संघर्ष-समूह विकसित होते हैं, इसलिए जहाँ  कहीं  भी  संगठन  होगावहीं  पर  संघर्ष  की  सम्भावना  भी  रहेगी।  उनके  अनुसार  सामाजिक  जीवन स्वाभाविक रूप से संघर्षात्मक है।

 

डेहरेन्डोर्फ के विचारों को संघर्ष रूपावली तथा संघर्ष का सिद्धान्त दोनों माना जा सकता है। संघर्ष उपागम का विकास यद्यपि मुख्य रूप से सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था और विशेष

रूप  से  राजनीतिक  व्यवस्था  का  अध्ययन  करने  के  लिए  किया  गया  हैपरन्तु  यह  संघर्ष  की  अन्य परिस्थितियों  को  समझने  में  भी  सहायक  है।  इसके  द्वारा  हम  मौलिक  संघर्ष-स्थितियों  के  वर्गीकरण, समाजीकरण  और  शिक्षणक्रान्तिकारी  और  संधि  परिस्थितियोंशक्ति  के  आदर्शो  और  व्यवस्थाओं  से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार की अन्य समस्याओं का भी अध्ययन कर सकते हैं।

जहाँ पर संघर्ष उपागम विविध प्रकार की सामाजिक परिस्थितियों के अध्ययन में उपयोगी सिद्ध हुआ है, वहीं पर यह उपागम अन्य उपागमों की तरह पूर्णतया दोषरहित नहीं है। इसमें सामाजिक वास्तविकता के केवल एक पक्ष अर्थात् संघर्ष एवं विरोध पर ही अत्यधिक बल दिया जाता है। इसी के परिणामस्वरूप इस दृष्टिकोण के समर्थक अध्ययन परिस्थितियों में पायी जाने वाली एकता की उपेक्षा करते हैं तथा जहाँ पर संघर्ष विद्यमान ही नहीं है, वहाँ पर भी संघर्ष को खोज निकालने का प्रयास करते हैं।

भारतीय समाज में संघर्ष उपागम द्वारा अधिक अध्ययन नहीं हुए हैं, अतः भारतीय समाज के संदर्भ में इसकी उपयोगिता एवं व्यावहारिकता के बारे में निश्चित रूप से कुछ कह पाना कठिन है। अधिकांश भारतीय विद्वानों  ने संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक  उपागम  को  ही  अपनाया  है।  संघर्ष  उपागम  की  उपयोगिता वर्तमान भारतीय समाज के संदर्भ में बढ़ती जा रही है तथा अन्य उपागमों की तरह निश्चित रूप से यह भी उपयोगी सिद्ध होगा।

 

संघर्षात्मक  उपागम  संगठनवादी  उपागमों  (संरचनात्मक-प्रकार्यत्मक  तथा  व्यवस्थात्मक)  से  बिल्कुल उल्टा है। पहले में विश्लेषण राष्ट्रीय एकता, राजनीति की आत्म-निर्भरता और वर्गोग पर आधारित है जबकि दूसरे प्रकार के उपागमों में विश्लेषण राजनीति के सामाजिक-आर्थिक आधार, श्रेणी-संघर्ष की अनिवार्यता  और  अन्तर्राष्ट्रीय  सम्बद्धता  के  सिद्धान्तों  पर  टिका  हुआ  है।

 

संघर्षात्मक  उपागम  हितों  और स्वार्थो, प्रलोभन और दमन, विभेदीकरण और भेदभाव, विरोध एवं तनाव, सामाजिक व्यवस्था में असंगठन और  आन्तरिक  विरोध  पर  बल  देता  है  जबकि  संगठनवादी  उपागम  सामाजिक  जीवन  में पाये  जाने  वाले आदर्शो और मूल्यों, वचनबद्धता, संगठन और एकता, पारस्परिकता और सहयोग तथा सामाजिक व्यवस्थाओं के संगठन और एकीकरण को अधिक महत्व प्रदान करता है।

राजनीतिक समाजशास्त्र में प्रयुक्त किये जाने वाले कतिपय प्रमुख उपागमों की संक्षिप्त विवेचना से हमें यह पता चलता है कि प्रत्येक उपागम में अध्ययन समस्या के विशेष पहलू के विश्लेषण पर अधिक बल दिया जाता है, इसलिए आज एक से अधिक उपागमों को एक साथ प्रयोग में लाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।

 

2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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