यांत्रिक तथा सावयवी एकता

यांत्रिक तथा सावयवी एकता

( Mechanical and Organic Solidarity )

यान्त्रिक तथा सावयवी एकता से सम्बन्धित दुर्थीम के विचार उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ समाज में श्रम – विभाजन ‘ ( The Division of Labour in Society ) का प्रमुख आधार है । दुर्थीम की यह मान्यता थी कि सामाजिक जीवन को तीन प्रमुख पक्षों के आधार पर ही स्पष्ट किया जा सकता है । यह पक्ष हैं – सामाजिक एकता , श्रम – विभाजन तथा सामाजिक उद्विकास । इस दृष्टिकोण से आपने अपनी उपयुक्त पुस्तक के प्रथम भाग में सामाजिक एकता , तथा दूसरे भाग में श्रम – विभाजन के विभिन्न पक्षों की विस्तृत विवेचना करके पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट किया । इस सम्बन्ध में अब्राहम तथा मॉर्गन ( Abraham and Morgan ) ने लिखा है कि “ दुर्थीम के द्वारा प्रस्तुत यांत्रिक तथा सावयवी एकता को समझने के लिए यह आवश्यक है कि उनके द्वारा प्रतिपादित सामाजिक एकता की अवधारणा को समझा जाय । ” 19 इस दृष्टिकोण से हम सर्वप्रथम दुर्थीम के सन्दर्भ में सामाजिक एकता की अवधारणा को स्पष्ट करने के बाद ही यान्त्रिक एकता तथा सावयवी एकता की प्रकृति को स्पष्ट करेंगे ।

 सामाजिक एकता ( Social Solidarity ) दुर्थीम से पूर्व भी विभिन्न सामाजिक विचारकों ने सामाजिक एकता की अवधारणा को विभिन्न रूपों में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया था लेकिन दुर्शीम ने कहीं अधिक तार्किक आधार पर सामाजिक एकता की अवधारणा को स्पष्ट किया । आरम्भ में ही यह ध्यान रखना आवश्यक है कि दुर्थीम के अनुसार सामाजिक एकता एक परिवर्तनशील दशा है जिसमें होने वाला परिवर्तन यान्त्रिक एकता ( Mechanical Solidarity ) से सावयवी एकता ( Organic Solidarity ) की ओर होता है । इसे स्पष्ट करते हुए दुखीम ने बतलाया कि सामाजिक एकता का वास्तविक आधार किसी समाज में पायी जाने वाली सामूहिक चेतना ( Collective Conscience ) है । सच तो यह है कि व्यक्ति सामूहिक चेतना के आधार पर ही एक विशेष सामाजिक यREDMINOTE करते हैं । सामहिक चेतना क्या है ? इसे स्पष्ट करते हुए दुखीम QUARलाया कि सामूहिक चेतना एक प्रकार की वास्तविकता है जो किसी समाज में लोगों की बौद्धिक , मनोवैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक समानताओं के आधार पर उत्पन्न होती है । दुर्थीम ने स्पष्ट किया कि जिन समाजों में सामाजिक एकता पायी जाती है , उन्हें मनोवैज्ञानिक प्रकार के समाजों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । इसका तात्पर्य है कि यदि किसी समाज को मनोवैज्ञानिक आधार पर समझने का प्रयत्न किया जाय तो यह कहा जा सकता है कि उस समाज का अस्तित्व बनाये रखने वाली दशाएं ( Conditions of Existence ) तथा उसके विकास की प्रणाली ( System of Development ) ठीक उसी प्रकार संचालित होती हुई मिलेगी जिस प्रकार एक व्यक्ति का विकास होता है । दुर्थीम ने स्पष्ट किया कि सामूहिक चेतना की प्रकृति व्यक्तिगत चेतना ( Individual Conscience ) से भिन्न होती है , यद्यपि यह व्यक्तियों के माध्यम से ही स्पष्ट होती है । सामाजिक एकता की प्रकृति के आधार पर समाज की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए दुर्थीम ने बतलाया कि प्रत्येक समाज में सामाजिक एकता किसी न किसी रूप में अवश्य पायी जाती है ।

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इसका अर्थ है कि आदिम समाजों से लेकर आधुनिक काल तक के सभी समाजों में सामाजिक एकता का एक विशेष रूप अवश्य पाया जाता रहा है । इसका कारण यह है कि सामाजिक एकता के बिना समाज का निर्माण ही सम्भव नहीं है । वास्तविकता यह है कि सामाजिक एकता तथा सामुहिक चेतना के बीच एक सकारात्मक सम्बन्ध होता है । इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए दुर्थीम ने लिखा है कि किसी समाज में सामूहिक चेतना उस समय . कहीं अधिक शक्तिशाली और स्वतन्त्र हो जाती है जब उस समाज के सदस्यों के विभिन्न गुणों में समानताएँ बढ़ रही हों । इसका उदाहरण देते हुए दुर्वीम ने स्पष्ट किया कि आदिम समाजों में सामुदायिक भावनाओं के कारण व्यक्तियों के विभिन्न गुणों में कहीं अधिक समानताएँ होती हैं जिसके फलस्वरूप उसमें सामूहिक चेतना की भावना भी बहुत प्रभावपूर्ण बन जाती है । यही वह सामाजिक चेतना है जो समाज में व्यक्तिगत विवादों को समाप्त कर देती है । आदिम अथवा जनजातीय समाजों में समुदाय की एकता सामुदायिकता की भावना पर ही आधारित होती है ।

इसी को ‘ हम की भावना ‘ ( We Feeling ) भी कहा जा सकता है । सामान्य शब्दों में , सामुदायिकता की भावना को ही दुर्थीम ने सामूहिक चेतना के रूप में स्पष्ट किया है । इससे पुनः यह स्पष्ट होता है कि जिस समाज में वहाँ की भाषा , संस्कृति , आचार – विचार तथा धार्मिक मान्यताओं को सभी सदस्यों द्वारा समान रूप से स्वीकार कर लिया जाता है वहाँ सामाजिक चेतना बहुत शक्तिशाली बन जाती है । दुर्थीम का कथन है कि ऐसे समाज में किसी भी व्यक्ति द्वारा समूह के नियमों को तोड़ने पर कड़े अपराधी कानूनों अथवा दृढ लोकाचारों के द्वारा उसे दण्ड दिया जाता है । सामाजिक परिवर्तन के साथ समाज में जैसे – जैसे  में परिवर्तन उत्पन्न होता है , वैसे – ही – वैसे वहाँ सामाजिक ता की प्रकृति भी बदलने लगती है । इस प्रकार , जहाँ एक ओर सामूहिक चेतना सामाजिक एकता का प्रमुख कारण है , वहीं प्रत्येक समाज में सामाजिक एकता का एक विशेष स्वरूप विद्यमान होना भी आवश्यक है । दुर्थीम ने यह स्वीकार किया कि सामाजिक एकता को बनाये रखने के लिए समाज में नियन्त्रण की जिस व्यव को लागू किया जाता है वह भी सामूहिक चेतना की प्रकृति के अनुसार ही एक – दूसरे से भिन्न हो सकती है । उदाहरण के लिए , एक शक्तिशाली सामूहिक चेतना पर _ _ आधारित सामाजिक एकता के लिए दमनकारी कानून ( Repressive Laws ) लाग किये जाते हैं जबकि सामूहिक चेतना की कमी की दशा में प्रतिकारी अथवा क्षति पूर्ति करने वाले कानूनों ( Restitutive Laws ) के द्वारा नियन्त्रण को प्रभावपूर्ण बनाया जाता है । इस दृष्टिकोण से दुर्थीम ने सामाजिक एकता के दो प्रमुख स्वरूपों की चर्चा की जिन्हें यान्त्रिक एकता तथा सावयवी एकता कहा जाता है । इन्हीं के आधार पर समाजिक एकता के सिद्धान्त को समुचित रूप से समझा जा सकता है ।

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 यांत्रिक एकता ( Mechanical Solidarity ) _ _ _ दुर्थीम के अनुसार ‘ यान्त्रिक एकता सादृश्यता अथवा समानता की एकता है । ” इसका तात्पर्य है कि यान्त्रिक एकता वह है जिसमें एक समाज के सभी सदस्य एक – दूसरे के समरूप दिखायी देते हैं । व्यक्तियों की समरूपता से दुखीम का तात्पर्य उनकी शारीरिक समानता से न होकर मानसिक और विश्वासगत समानताओं से है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि यान्त्रिक एकता वह एकता है जिसमें समाज के सभी सदस्य लगभग समान मानसिक स्थिति के हों तथा समान धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं में विश्वास करते हों । इस प्रकार यान्त्रिक एकता उन्हीं समाजों में पायी जाती है जो अपनी प्रकृति के समरूप ( Homogeneous ) होते हैं । आदिम समाज इन समरूप समाजों के सर्वोत्तम उदाहरण हैं । आदिम समाज आकार में बहुत छोटे थे , इनके सदस्यों की आवश्यकताएँ बहुत कम थीं तथा इनमें सदस्यों के कार्य करने के ढंगों एवं विचारों में भी अधिक असमानताएं नहीं थीं । इन समाजों में धर्म , परम्पराएँ तथा जनमत लोगों के व्यवहारों पर नियन्त्रण बनाये रखने का सबसे प्रभावशाली साधन थे । इसके फलस्वरूप आदिम समाजों में सामूहिक चेतना का एक उच्च स्तर देखने को मिलता था । इस सामूहिक चेतना से आदिम समाजों में जिस सामाजिक एकता का विकास हुआ , उसी को दुीम ने यान्त्रिक एकता कहा है । यह एक ऐसी एकता थी जिसमें समूह के सामने व्यक्ति का कोई महत्त्व न होने के कारण वह यान्त्रिक रूप से सामाजिक एकता से बंधा रहता था । इस प्रकार यान्त्रिक एकता सामाजिक विकास की आरम्भिक अवस्था थी । जिन समाजो म यान्त्रिक एकता पायी जाती है , दुर्थीम ने उन समाजों की अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया है । इनमें से कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं :

( 1 ) समरूप व्यक्तियों का समाज ( Society of Homogeneous People ) – दुर्थीम का कथन है कि जिस समाज में यांत्रिक एकता विद्यमान होती है । O उसमें व्यक्तियों की मानसिक और नैतिक विशेषताओं में काफी समरूपता पायी जाता है । यह एक ऐसा समाज होता है जिसमें सदस्य समान स्तर पर विचार करते हैं तथा उनके नैतिक मानदण्ड भी एक – दूसरे के बहुत कुछ समान होते हैं ।

 ( 2 ) समान संवेग तथा मूल्य ( Similarity in Emotions and Values ) यांत्रिक एकता वाले समाजों में सदस्यों के संवेगों में बहत – कुछ समानता पायी जाती है । इनके सभी सदस्य समान आधार पर एक जैसे सामाजिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं तथा उन्हीं के अनुसार आचरण करते हैं । दुर्वीम के अनुसार यांत्रिक एकता बाले समाजों में लगभग सभी सदस्य एक जैसी धार्मिक वस्तुओं अर्थात् बस्त्रों , आभूषणों तथा प्रतीकों को धारण करते हैं एवं समान धार्मिक विश्वासों में हिस्सा लेते हैं ।

 ( 3 ) समान तथा एकीकृत समाज ( Uniform and Non – atomized . Society ) – दुखीम के अनुसार यान्त्रिक कता वाले समाज की ओर अपनी प्रकृति से समरूप होते हैं तो दूसरी ओर इनमें सदस्यों को विभिन्न खण्डों में विभाजित करने वाली कोई व्यवस्था नहीं होती । इस प्रकार इन्हें एकीकृत अथवा अखण्डित समाज कहा जा सकता है । दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि ऐसे समाजों में सामाजिक आर्थिक आधार पर किसी तरह का विभेदीकरण ( Differentiation ) अथवा संस्तरण ( Stratification ) देखने को नहीं मिलता ।

 ( 4 ) सामान्य विचार तथा प्रवृत्तियाँ ( Common Ideas and Ten dencies ) – – यान्त्रिक एकता से सम्बन्धित समाजों में सदस्यों के विचारों में समानता होती है । अर्थात् एक समाज के सभी सदस्य आर्थिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक तथा अन्य क्षेत्रों से सम्बन्धित विषयों के प्रति समान दृष्टिकोण रखते हैं । इसके अतिरिक्त इन समाजों में सदस्यों की प्रवृत्तियों में भी समानता होती है । रूथ बेनेडिक्ट ( Ruth Benedict ) ने चिरकाहुआ अपाचे जनजाति का उदाहरण देते हुए बताया है कि इस जनजाति में सामाजिक एकता का जो रूप देखने को मिलता है वह यहाँ के लोगों में पायी जाने वाली सहयोग और प्रेम जैसी प्रवृत्तियों पर ही आधारित है । दूसरी ओर मॉरिस ओपलर ( Morris Opler ) ने अलोर जनजाति का उदाहरण देते हुए लिखा है कि इस जनजाति में घृणा , हिंसा तथा सन्देह की सामान्य प्रवृत्तियाँ होने के कारण ही इसमें यान्त्रिक एकता विकसित हुई है । स्पष्ट है कि यान्त्रिक एकता बाले समाजों में सदस्यों के विचारों और प्रवृत्तियों में एक समानता पायी जाती है , यह प्रवृत्तियाँ चाहे प्रेम और सहयोग की हों अथवा घृणा और हिंसा की ।

( 5 ) व्यक्तित्व और एकता में विपरीत सम्बन्ध ( Inverse ratio between Personality and Solidarity ) – दुखीम के अनुसार जिन समाजों में यान्त्रिक एकता पायी जाती है , उनमें व्यक्तिवादिता का विकास नहीं होता । ऐसे समाजों में व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के आधार पर कोई निर्णय नहीं लेते बल्कि समूह के अनुरूप शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि इन समाजों में व्यक्ति ता में समाहित हो जाता है । इसीलिए दुर्थीम ने यह स्वीकार किया है कि जैसे – जैसे समाज में यान्त्रिक एकता बढ़ती है , वैसे – ही – वैसे उस समाज में व्यक्तिवाद कम होने लगता है ।

 ( 6 ) सामूहिक चेतना की दृढ़ता ( Strong Collective Conscience ) यान्त्रिक एकता वाले समाजों में सामूहिक चेतना का रूप बहुत दृढ़ होता है । दुखीम के शब्दों में , ” आदिम समाजों में सामूहिक चेतना अत्यधिक दृढ़ और प्रबल रूप में होती है तथा इसी कारण यह अपने सदस्यों की मत – भिन्नता अथवा विवादों को समाप्त कर देती है । ” 20 इसी रूप में दुर्थीम ने दृढ़ सामूहिक चेतना को यान्त्रिक एकता के प्रमुख कारणों के रूप में स्वीकार किया ।

 ( 7 ) दमनकारी सामाजिक नियन्त्रण ( Repressive Social Control ) यान्त्रिक एकता की दशा में सामाजिक नियन्त्रण की एक ऐसी व्यवस्था को लागू किय जाता है जिसमें दमनकारी कानूनों तथा कठोर दण्ड की प्रधानता होती है । दमनकारी नियन्त्रण सामूहिक इच्छा को अधिक महत्त्व देकर समाज के नैतिक सन्तुलन को बनाये रखने का प्रयत्न करता है । यह दमनकारी कानून इस दृष्टिकोण से बहुत कठोर होते हैं कि जो व्यक्ति भी सामूहिक इच्छा अथवा सामाजिक एकता का उल्लंघन करता है उहका कठोरता के साथ दमन कर दिया जाता है । दुर्शीम ने स्पष्ट किया कि अपराधिक कार्यों के विरोध में समाज अपराधियों को इस तरह दण्डित करता है जिससे सामान्य लोगों में अपराधों की प्रवृत्ति उत्पन्न न हो । भारत की संथाल जनजाति में विटलाहा ‘ की जिस प्रथा का प्रचलन है , वह वहाँ के दमनकारी नियन्त्रण को ही स्पष्ट करती है । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि यान्त्रिक एकता मुख्यत : आदिम समाजों की ही विशेषता है । वर्तमान विश्व में भी जो जनजातियाँ परम्परागत जीवन व्यतीत कर रही हैं उनमें आज भी यान्त्रिक एकता का एक स्पष्ट रूप देखा जा सकता है ।

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 सावयवी एकता ( Organic Solidarity )

दुर्थीम से पहले इंग्लैण्ड के समाजशास्त्री हरबर्ट स्पेन्सर ( H . Spencer ) ने – सावयव तथा साजयदी ( Organic ) जैसे शब्दों का प्रयोग करते हुए समाज की संरचना को सावयवी संरचना के अनुरूप बतलाया था । स्पेन्सर ने यह स्पष्ट किया कि समाज के विभिन्न अंगों के बीच उसी तरह का सहयोग तथा परस्पर निर्भरता पायी जाती है जिस तरह यह शरीर के अंगों अथवा अवयवों में विद्यमान होती है । दुर्थीम ने स्पेन्सर के इस विचार से असहमत होते हए यह स्पष्ट किया कि सभी समाजों की संरचना सावयवी नहीं होती , केवल आधुनिक समाजों की संरचना का ही सावयवी संरचना कहा जा सकता है । उन्होंने बतलाया कि आदिम समाजों की संरचना में सावयवी संरचना की कोई विशेषताएँ विद्यमान नहीं थीं । इसके विपरीत , आधुनिक समाज जैसे – जैसे सावयवी एकता के आधार पर संगठित होने लगे , उनकी संरचना सावयवी रूप ग्रहण करने लगी । इस प्रकार दुर्थीम ने यह स्पष्ट किया कि सावयवी एकता सामाजिक एकता का दूसरा रूप है जो आधुनिक समाजों की विशेषता है । सामाजिक विकास के क्रम को स्पष्ट करते हुए दुर्थीम ने बतलाया कि जब समाजों का आकार बढ़ने लगा ( अथवा जनसंख्या में वृद्धि हुई ) तो लोगों की आवश्य कताएं बढ़ने के कारण उनमें भिन्नता उत्पन्न होना आरम्भ हो गयी । इन बढ़ी हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा में उत्पादन किया जाने लगा । इसके फलस्वरूप आधुनिक समाजों में श्रम – विभाजन तथा विशेषीकरण को प्रोत्साहन मिला । श्रम – विभाजन ने विभिन्न लोगों को एक – दूसरे से भिन्न कार्य अवश्य सौंपे लेकिन इसके फलस्वरूप लोगों की एक – दूसरे पर निर्भरता पहले की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ गयी । इसका कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए दूसरे लोगों को सहयोग देना आवश्यक हो गया । दुखीम के अनुसार यही सावयवी एकता की दशा है । दुर्सीम ने इसे सावयवी एकता इसलिए कहा कि जिस प्रकार एक सावयव के विभिन्न अंग एक – दूसरे से भिन्न – भिन्न कार्य करने के बाद भी अपने अस्तित्व के लिए सम्पूर्ण शरीर से जुड़े रहते हैं , उसी प्रकार आधुनिक समाजों में भी व्यक्ति पृथक – पृथक कार्यों को करने के बाद भी एक – दूसरे के सहयोग के बिना अपनी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकते । इस प्रकार सावयवी एकता आधुनिक समाजों की प्रर्वप्रमुख विशेषता है । दुीम ने उन विशेषताओं का भी उल्लेख किया जो सावयवी एकता से सम्बन्धित समाजों में देखने को मिलती हैं । इनमें से कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं :

( 1 ) व्यक्तियों के बीच विभेदों में वृद्धि ( Increase in Individual Differences ) – – दुर्चीम ने स्पष्ट किया कि जब किसी समाज में सावयवी एकता बढ़ती है तब उस समाज में व्यक्तियों के बीच पाये जाने वाले विभेद ‘ भी बढ़ने लगते हैं । दुर्योम के शब्दों में , ” जहाँ एक ओर आदिम समाजों में लोगों की समानताओं से यान्त्रिक एकता का विकास होता है वहीं दूसरी ओर आधुनिक समाजों में व्यक्तियों के विभेदों के कारण सावयवी एकता विकसित होती है । ” इसका तात्पर्य है कि वैचारिक , नैतिक तथा व्यवहारगत स्तर पर सावयवी एकता वाले समाजों में लोगों की भिन्नताएँ बहुत अधिक होती हैं ।

 ( 2 ) श्रम – विभाजन ( Division of Labour ) – सावयवी एकता वाले समाजों की एक प्रमुख विशेषता उनमें श्रम – विभाजन का एक स्पष्ट रूप विद्यमान होना है । दुर्थीम का कथन है कि यान्त्रिक एकता से सम्बन्धित समाजों में श्रम विभाजन नहीं पाया जाता । इसके बाद जैसे – जैसे यान्त्रिक एकता के स्थान पर सावयवी एकता में वृद्धि होने लगती है , वैसे – ही – वैसे श्रम – विभाजन में भी वृद्धि होती जाती है । श्रम – विभाजन एक ऐसी दशा है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति केवल वही कार्य करता है जिसमें वह अधिक कुशल होता है । इस प्रकार , श्रम – विभाजन के अन्तर्गत व्यक्ति एक – दूसरे से भिन्न कार्य करने के बाद भी अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक – दूसरे से जुड़े रहते हैं । यही वह स्थिति है जो कार्यात्मक आधार पर समाज को विभिन्न समूहों अथवा खंडों में विभाजित कर देती है ।

 ( 3 ) विशेषीकरण ( Specialization ) – दुर्थीम का कथन है , ” श्रम – विभाजन के अन्तर्गत समाज में व्यक्ति द्वारा पीढ़ – दर – पीढ़ी एक ही कार्य करने से वे अपने कार्य में कहीं अधिक कुशल हो जाते हैं । इसी से विशेषीकरण में वृद्धि होने लगती है । ” स्पष्ट है कि सावयवी एकता वाले समाजों में व्यावसायिक विशेषीकरण का एक प्रमुख स्थान है । उदाहरण के लिए , ऐसे समाज में स्त्री और पुरुषों का कार्य एक – दूसरे से भिन्न होने के कारण स्त्रियाँ तथा पुरुष दोनों ही अपने – अपने कार्य में विशेष दक्षता प्राप्त कर लेते हैं । इसके अतिरिक्त शिक्षा , विभिन्न प्रकार के व्यवसायों तथा अन्य संस्थागत क्षेत्रों में भी प्रत्येक व्यक्ति केवल वही कार्य करता है जिसके लिए वह अधिक उपयुक्त होता है तथा जिस काम को वह एक लम्बे समय से करता आया है । इस प्रकार विशेषीकरण श्रम – विभाजन का ही एक परिणाम है ।

( 4 ) व्यक्तिवादिता ( Individualism ) – सावयवी एकता की दशा में समूह की तुलना में व्यक्ति का महत्त्व बढ़ने लगता है । इसका कारण यह है कि जब श्रम विभाजन के कारण समाज के सभी सदस्य एक विशेष कार्य को करने में विशेष कुशलता प्राप्त कर लेते हैं तब उनके कार्य एवं कुशलता के आधार पर ही उन्हें समाज में एक विशेष स्थान प्राप्त होने लगता है । इससे स्पष्ट होता है कि यान्त्रिक एकता की दशा में जहाँ समूह का महत्त्व अधिक होता है , वहीं सावयवी एकता के अन्तर्गत व्यक्ति के महत्त्व में वृद्धि होने लगती है ।

( 5 ) पारस्परिक निर्भरता ( Interdependence ) – सावयवी एकता के अन्त र्गत श्रम – विभाजन तथा विशेषीकरण में वृद्धि होने का तात्पर्य यह नहीं है कि समाज के विभिन्न अंग एक – दूसरे से पृथक हो जाते हैं । इस दशा में भी समाज के विभिन्न अंग अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के कारण एक – दूसरे से सम्बन्धित और एक दूसरे पर निर्भर बने रहते हैं । सावयवी एकता की दशा में समाज के विभिन्न अंगों के बीच पाई जाने वाली पारस्परिक निर्भरता उसी प्रकार की होती है जिस प्रकार शरीर अथवा सावयव के विभिन्न अंग एक – दूसरे से अलग होने के बाद भी कार्यात्मक आधार पर एक – दूसरे से सम्बन्धित बने रहते हैं ।

6 ) सामहिक चेतना में कमी ( Weakening of Collective Con Succienee ) – समाज में जैसे – जैसे सवयवी एकता बढ़ती है , वैसे – ही – वैसे उस समाज मामहिक चेतना में दुर्बलता आने लगती है । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता कि सावयवी एकता तथा सामूहिक चेतना के बीच एक विपरीत सम्बन्ध होता है । मी स्थिति को दुखीम ने ‘ सावयवी एकता तथा सामूहिक चेतना का नकारात्मक सम्बन्ध ‘ कहा है । इसका कारण यह है कि सावयवी एकता की दशा में विभिन्न निर्णय लेने अथवा एक विशेष ढंग से व्यवहार करने के लिए व्यक्ति अपने ऊपर समाज का उतना दबाव महसूस नहीं करता जैसा कि यह यांत्रिक एकता वाले समाजों में पाया जाता है ।

 ( 7 ) जटिल संरचना ( Complex Structure ) – दुीम का कथन है कि सावयवी एकता के आधार पर गठित होने वाले समाजों की संरचना अत्यधिक जटिल होती है । श्रम – विभाजन , विशेषीकरण तथा व्यक्तिवादिता के कारण इन समाजों में किसी तरह की समरूपता नहीं रह जाती । विभिन्न स्वार्थ – समूहों के द्वारा उन उप संरचनाओं का निर्माण और विकास होने लगता है जो अपनी प्रकृति से काफी जटिल होती हैं । यही दशा सावयवी एकता वाले समाजों की संरचना को जटिल बना देती है ।

 ( 8 ) औद्योगिक गतिविधियों की प्रधानता ( Multiplication of Industrial Activities ) – एक जटिल सामाजिक संरचना में व्यक्तियों की आवश्यकताएँ अधिक होती हैं जिनकी पूर्ति करने के लिए ऐसे समाजों में औद्योगिक गतिविधियों को प्रधानता मिलने लगती है । यांत्रिक एकता वाले समाजों में जहाँ फल – संग्रह , शिकार अथवा कृषि के रूप में उत्पादन – कार्य किया जाता है , वहीं सावयवी एकता वाले समाजों में उद्योगों की स्थापना होने लगती है । उद्योगों तथा औद्योगिक उत्पादन की प्रकृति गुणात्मक रूप से बढ़ने की होती है । दूसरे शब्दों में , उद्योगों में होने वाली वृद्धि धीरे – धीरे न होकर गुणात्मक रूप में अर्थात् 2x4x8x16 आदि के रूप में होती है । यह स्थिति भी सावयवी एकता वाले समाजों की संरचना को जटिल बना देती है ।

 ( 9 ) क्षतिपूरक सामाजिक नियन्त्रण ( Restitutive Social Control ) सावयवी एकता के अन्तर्गत सामूहिक इच्छा की तुलना में व्यक्ति का महत्त्व अधिक होता है । इसके फलस्वरूप अपराध को सम्पूर्ण समाज के विरुद्ध किया जाने वाला कार्य न समझकर उसे व्यक्ति के विरुद्ध किया जाने वाला कार्य समझा जाने लगता है । इस दृष्टिकोण से कानूनों को एक ऐसा रूप दिया जाता है जिससे कानून के द्वारा उस व्यक्ति की क्षति को पूरा किया जा सके जिसे किसी विशेष अपराध के कारण हानि हुई हो । इससे स्पष्ट होता है कि यांत्रिक तथा सावयवी एकता की दशा में स्वरूप भी एक – दूसरे से भिन्न होता है ।

उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट होता है कि दुर्थीम ने यांत्रिक एकता को सामाजिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था के रूप में स्पष्ट किया तथा यह बताया कि यांत्रिक एकता की समाप्ति के साथ ही सावयवी एकता में वृद्धि होना आरम्भ हो जाती है । इस प्रकार सामाजिक एकता की प्रकृति में होने वाला परिवर्तन ही सामाजिक विकास की प्रकृति को स्पष्ट करता है ।

यात्रिक एकता तथा सावयवी एकता में अन्तर

( Disinction between Mechanical Solidarity and Organic Solidarity )

 

वास्तविकता यह है कि यान्त्रिक एकता तथा सावयवी एकता की प्रकृति को दुखीम ने जिस रूप में प्रस्तुत किया है उससे इन दोनों के बीच एक स्पष्ट अन्तर देखने को मिलता है । इन भिन्नताओं को समझकर यान्त्रिक एवं सावयवी एकता की प्रकृति को अधिक सरल रूप से समझा जा सकता है :

यान्त्रिक एकता    सावयवी एकता

1 . यान्त्रिक एकता आदिम समाजों की विशेषता है । 1 . सावयवी एकता का स्पष्ट रूप आधुनिक समाजों में देखने को मिलता है । 2 . व्यक्तियों में मानसिक तथा नैतिक आधार पर विषमताएँ होती हैं । 2 . इसके अन्तर्गत व्यक्तियों में मानसिक तथा नैतिक समरूपता पायी जाती 3 . व्यक्तियों के संवेग , सामाजिक मूल्य , 3 . व्यक्तियों के संवेगों , मूल्यों तथा धार्मिक मान्यताएँ तथा सांस्कृतिक मान्यताओं में अन्तर होने के कारण विशेषताएँ बहुत – कुछ समान होती इसके अन्तर्गत धर्म – निर्पेक्षता को प्रोत्साहन मिलता है । 4 . व्यक्तियों के विचारों में समानता 4 . व्यक्तियों के विचारों में कोई एक होती है । मत नहीं पाया जाता । 5 . व्यक्तियों के व्यवहारों तथा प्रवृत्तियों 5 . एक ही समाज में , एक ही समय में समरूपता देखने को मिलती है । पर लोगों की प्रवृत्तियों तथा व्यव हारों में अत्यधिक अन्तर होता है । 6 . इसके अन्तर्गत सामूहिक चेतना का 6 . सावयवी एकता में सामूहिक चेतना रूप बहुत दृढ़ होता है । तुलनात्मक रूप से कम पायी जाती Bाजिक नियgण के लिए दमन – 7 . सामाजिक नियन्त्रण क्षतिपूर्ति बाल  महत्त्व दिया कानूनों पर आधारित होता है । जाता है । 8 यान्त्रिक एकता के अन्तर्गत मिश्रित 8 . इसके अन्तर्गत विशेषीकरण पर विशेषताओं वाले समाज की स्था आधारित समाज का विकास होता पना होती है । 9 . श्रम – विभाजन का अभाव होता है । 9 . श्रम – विभाजन प्रत्येक क्षेत्र की श्रम – विभाजन कवल पुरुषों तथा अनिवार्य विशेषता होती है । स्त्रियों के बीच ही देखने को मिलता है । | 10 . व्यक्तिवादिता का अभाव होता है । 10 . जीवन के प्रत्येक स्तर पर व्यक्ति वादिता देखने को मिलती है । 11 . व्यावसायिक समानता आर्थिक जीवन 11 . औद्योगिक उत्पादन के कारण की प्रमुख विशेषता होती है । आर्थिक असमानता बढ़ जाती है । सामाजिक एकता की अवधारणा के माध्यम से दुर्थीम ने यह स्पष्ट किया कि यान्त्रिक एकता से सावयवी एकता की ओर होने वाला परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को ही स्पष्ट करता है । दुर्थीम के शब्दों में , ” यह एक | ऐतिहासिक तथ्य है कि प्रारम्भिक समाजों में केवल यान्त्रिक एकता ही पायी जाती थी लेकिन सामाजिक विकास के साथ – साथ इसका आधार समाप्त होता गया तथा समाज में धीरे – धीरे सावयदी एकता का प्रारम्भ होता गया 1123 जिन समाजों में यान्त्रिक एकता पायी जाती है वे समाज समरूप होते हैं जबकि सावयवी एकता वाले समाज अनेक स्तरों तथा खण्डों में विभाजित हो जाते हैं । इन समाजों को हम ‘ विषम समाज ‘ भी कह सकते हैं । सामाजिक एकता के इस सिद्धान्त द्वारा दुीम वास्तव में यह स्पष्ट करना चाहते थे कि सामाजिक विकास के प्रत्येक चरण में सामाजिक एकता का एक विशेष रूप अवश्य देखने को मिलता है , यद्यपि परि स्थितियों में परिवर्तन हो जाने से इसके रूप में भी कुछ परिवर्तन अवश्य हो जाता है । दूसरा तथ्य यह है कि विभिन्न दशाओं में चाहे सामूहिक चेतना अधिक महत्व पूर्ण हो अथवा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता , लेकिन व्यक्ति सदैव सामाजिक एकता से बंधकर ही अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकता है । इस सिद्धान्त के द्वारा दुर्थीम का उद्देश्य यह भी स्पष्ट करना था कि सामूहिक चेतना सभी समाजों की एक अनिवार्य विशेषता है , इसका रूप चाहे कैसा भी हो । अन्त में यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि सामाजिक एकता एक स्थिर विशेषता नहीं है बल्कि यह एक परिवर्तनशील तथ्य है । दुर्थीम ने सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के कारक के रूप में श्रम – विभा जन को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है । इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि स्तुत विवेचन में श्रम – विभाजन की प्रकृति की भी संक्षेप में विवेचना की जाय ।

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