मैक्स वेबर
[ Max Weber : 1864 – 1920 ]
जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर वह प्रमुख सामाजिक विचारक हैं जिन्हें समाजशास्त्र के संस्थापक जनकों में से एक माना जाता है । वेबर ने अर्थशास्त्र , कानून तथा राजनीतिशास्त्र का व्यापक अध्ययन करके जिन व्यवस्थित विचारों को प्रस्तुत किया , उनका सामाजिक विचारधारा के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है । अब्राहम तवा मॉर्गन ने लिखा है कि जर्मनी में जिन महान विचारकों ने समाज शास्त्र को समृद्ध बनाया , उनमें मैक्स वेबर सबसे अधिक महान हैं । वास्तविकता यह है कि वेबर के विचारों के अभाव में समाजशास्त्र के सिद्धान्तों तथा पद्धतिशास्त्र को समझ सकना बहुत कठिन है । वेबर का सामाजिक चिन्तन एक ओर अपने समकालीन विचारक कार्ल मार्क्स से प्रभावित है तो दूसरी ओर उनके चिन्तन में मार्क्स का विरोध भी स्पष्ट रूप से झलकता है । समाजशास्त्र में वेबर के योगदान को समझने से पूर्व यह आवश्यक है कि संक्षेप में उनके जीवन – इतिहास तथा रचनाओं के बारे में आवश्यक जानकारी प्राप्त कर ली जाय ।
जीवन तथा कृतियाँ
( Life and Works )
मैक्स वेबर का जन्म 21 अप्रैल , 1864 को जर्मनी के इरफर्ट ( Erfurt ) स्थान में हुआ था । उस समय जर्मनी में बिस्मार्क ( Bismark ) का शासन था । वेबर के पिता एक सम्पन्न वकील होने के साथ ही जर्मनी की संसद में राष्ट्रीय उदार वादी दल के सदस्य थे । उनकी माँ पवित्र विचारों की एक सुसंस्कृत महिला थीं जिनके मानवीय और धार्मिक दृष्टिकोण अपने पति से मेल नहीं खाते थे । इस प्रकार वेबर ने अपने जीवन के पहले उन्नीस वर्ष एक – दूसरे से भिन्न विचारों वाले माता पिता के साथ घर में ही व्यतीत किए । इसके बाद भी अपने परिवार में राजनीतिज्ञों , बुद्धिजीवियों तथा धार्मिक व्यक्तियों से मिलते रहने के कारण वेबर की बौद्धिक प्रतिभा का तेजी से विकास होने लगा । अठारह वर्ष की की आयु में अपनी स्कूली शिक्षा समाप्त करके वेबर ने हाईडलबर्ग विश्वविद्यालय में कानून के विद्यार्थी के रूप में प्रवेश लिया तथा सन् 1886 में उन्होंने कानून की परीक्षा पास की । वेबर के बारे में कहा जाता है कि वे शर्मीले और बीमार रहने वाले किन्तु विद्रोही स्वभाव के विद्यार्थी थे । कानून के अध्ययन के साथ ही उन्होंने भाषा , इतिहास तथा अनेक दूसरे विषयों का भी गहन अध्ययन किया । धर्म के विभिन्न पक्षों के सुक्ष्म अध्ययन में उनकी आरम्भ से ही विशेष रुचि थी ।
सन् 1889 में वेबर ने ‘ मध्ययुगीन व्यापारिक संगठनों के इतिहास के लिए एक देन ‘ नामक शोध कार्य प्रस्तुत किया । अपने शोध में उन्होंने यह स्पष्ट किया कि उन कानूनी सिद्धान्तों की प्रकृति क्या है जिनके आधार पर व्यक्ति किसी भी उद्यम की लागत , हानि या लाभ में संयुक्त रूप से भागीदार हो सकते हैं ? इस शोध कार्य को समाप्त करने के बाद वेबर ने जर्मनी की कचहरियों में वकालत करने के लिए प्रशिक्षण लेना आरम्भ कर दिया । प्रशिक्षण के दौरान ही वेबर ने एलबी नदी के पूर्वी प्रान्तों में खेतिहर समाज की सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं का भी अध्ययन किया । इसके फलस्वरूप उन्हें बलिन विश्वविद्यालयों में कानून का प्राध्यापक नियुक्त होने का अवसर प्राप्त हो गया । सन् 1891 में वेबर के उपर्युक्त अध्ययन के आधार पर उनका दूसरा प्रमुख ग्रन्थ ‘ रोम का खेतिहार इतिहास तथा सार्वजनिक और वैयक्तिक कानून के लिए इसका महत्त्व ‘ प्रकाशित हुआ ।
इसी वर्ष सन् 1891 में वेबर ने मेरियन श्निटजर से विवाह किया तथा अपने माता – पिता का घर छोड़ दिया । आर्थिक सिद्धान्तों के प्रति वेबर की पैनी दृष्टि को देखते हुए सितम्बर , 1894 में उन्हें फेलबर्ग विश्व विद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर पद पर नियुक्त किया गया । सितम्बर , 1897 में 33 वर्ष की आयु से वेवर को लम्बी बीमारी ने घेर लिया जिसके फलस्वरूप वह विश्वविद्यालय की नियुक्ति पर बहुत कम समय तक ही कार्य कर सके । वैसे भी वेबर किसी नियुक्ति के नियमों से बंधकर अपने स्वतन्त्र चिन्तन को छोड़ने के पक्ष में नहीं थे । उन्होंने लिखा है , ” मेरे दिमाग में यह पूरी तरह स्पष्ट है कि मैं व्यावहारिक अनुभवों का जीवन नहीं छोड़ सकता । मैं जानता है कि मैं व्यावहारिक अनुभवों को स्पष्ट करके ही कुछ कर सकता हूँ लेकिन अध्यापन क्षेत्र में रहते हुए ऐसा होना सम्भव नहीं है । अपनी दशा में कुछ सुधार होने के बाद सन् 1903 में वेबर ने अध्यापन कार्य छोड़कर समाज विज्ञान तथा समाज कल्याण से सम्बन्धित एक पत्रिका के सहायक सम्पादक के पद पर कार्य करना आरम्भ कर दिया । अपना बौद्धिक कार्य पुनः आरम्भ कर देने के फलस्वरूप सन् 1904 में उन्होंने न केवल समाज विज्ञानों के लिए ‘ पद्धतिशास्त्र ‘ पर एक महत्त्वपूर्ण लेख लिखा बल्कि इसी वर्ष उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘ द प्रोटेस्टेण्ट इशित द स्पिरिट ऑफ कैपिटलिज्म ‘ प्रकाशित हुई ।
वेबर की बहुमुखी प्रतिभा का अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है कि सन् 1918 में उन्हें बारसाई में जो युद्ध – शान्ति तथा बीमर संविधान मसविदा तैयार करने वाले आयोग के सलाहकार रूप में नियुक्त किया गया । सन् 1919 से उन्होंने पुनः म्यूनिख विश्वविद्यालय शिक्षण कार्य वरना आरम्भ कर दिया । जून , 1920 में 56 बर्ष की आयु में वेबर का देहान्त हो गया । वेबर के जीवन – परिचय से स्पष्ट होता है कि उनका सम्पूर्ण जीवन अभूतपूर्व तनाव से घिरा हुआ था । उनके सम्पूर्ण जीवन में निरन्तर यह द्वन्द्व चलता रहा कि वह एक व्यावहारिक जीवन को अपनाएँ अथवा सैद्धान्तिक कार्यों में ही लगे रहें । राजनैतिक विवेचनाओं में वेबर की विशेष रुचि थी लेकिन सन् 1908 में जब उन्हें राष्ट्रीय एसेम्बली के चुनाव के लिए मनोनीत होने का अवसर मिला तब उन्होंने इसके प्रति कोई रुचि नहीं दिखायी । इस प्रकार वेबर का उद्देश्य एक तटस्थ विचारक के रूप में राजनैतिक तथा सामाजिक जीवन का परीक्षण करना था । मैक्स वेबर के लेखों में उनके चिन्तन की विविधता तथा गहराई की एक स्पष्ट झलक देखने को मिलती है । ऐसा प्रतीत होता है कि बेबर ने अपने जीवन काल में विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित जो अनुभव संचित किए , उनके कारण उनके सम्पूर्ण कृतित्व में विविधता उत्पन्न हो गयी । दूसरी बात यह है कि वेबर की रचनाएँ किसी व्यवस्थित क्रम में प्रकाशित नहीं हुई बल्कि उन्होंने समय – समय पर जो लेख लिखे , उन्हीं के आधार पर वेबर की मृत्यु के बाद उनकी अधिकांश रचनाओं का प्रकाशन कुछ अन्य विद्वानों के द्वारा करवाया गया । इस सम्बन्ध में रेमण्ड ऐरों ने लिखा है कि वेबर के सम्पूर्ण कृतित्व को चार प्रमुख भागों में विभाजित करके समझा जा सकता है । इसी वर्गीकरण के आधार पर वेबर की बहमुखी प्रतिभा की प्रकृति को समझ सकना सम्भव है ।
( 1 ) पद्धतिशास्त्र ( Methodology ) – मैक्स वेबर द्वारा प्रतिपादित विचारों में उनका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विचार समाज विज्ञानों के लिए उपयोग में लाए जाने वाले पद्धतिशास्त्र में सम्बन्धित है । वेबर ने अपने पूर्ववर्ती विचारकों की आलोचना करते हुए उन सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया जिनकी सहायता से सामाजिक अध्ययनों को वैज्ञानिक रूप दिया जा सकता है । वेबर ने पद्धतिशास्त्र से सम्बन्धित अपने विचारों को अपनी पुस्तक ‘ स्टडी ऑफ द थ्योरी ऑफ साइन्स ‘ में प्रस्तुत किया । रेमण्ड ऐरों का कथन है कि यह पुस्तक इतिहास तथा समाजशास्त्र से सम्बन्धित सिद्धान्तों को स्पष्ट करने के क्षेत्र में वेबर की व्यावहारिक अन्तर्दष्टि को स्पष्ट करती है ।
( 2 ) इतिहास सम्बन्धी रचनाएँ ( Historical Works ) – सन् 1891 में वेबर की पुस्तक ‘ रोम का खेतिहर इतिहास ‘ प्रकाशित हुई जिसका इतिहास तथा समाजशास्त्र के अध्ययनों में विशेष महत्त्व है । इस पुस्तक के अतिरिक्त भी वेबर ने ऐतिहासिक तथ्यों को आधार मानते हए अनेक अध्ययन किए । इनके आधार पर वेबर की मृत्यु के बाद ‘ जर्मनी की प्राचीन कृषि प्रणाली तथा अर्थ – व्यवस्था के सह सम्बन्धों ‘ पर वेबर के विचार स्पष्ट हो सके । इन लेखों के द्वारा वेबर ने पोलैण्ड की कृषि प्रणाली तथा जर्मनी के सत्ता वर्ग ( Ruling Class ) के सह – सम्बन्धों को भी स्पष्ट किया । इस वर्ग में आने वाले उनके अधिकांश लेख राजनैतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में देबर के योगदान को स्पष्ट करते हैं ।
( 3 ) धर्म का समाजशास्त्र ( Sociology of Religion ) – धर्म के समाज शास्त्र से सम्बन्धित वेबर के विचार उनकी पूस्तक ‘ प्रोटेस्टेण्ट नीति तथा पूंजीवाद का सार ‘ ( The Protestant Ethic and the Spirit of Capitalism ) में देखने को मिलते हैं । इस पुस्तक में वेबर ने संसार के प्रमुख धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करके मार्क्स के इस विचार का खण्डन किया कि आर्थिक कारक ही सबसे आधार भूत तथा निर्णायकवादी होते हैं । वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट धर्म की नीतियों अथवा शूद्धा चरणवाद पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए यह प्रमाणित किया कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म को मानने वाले जिन देशों में पूंजीवादी व्यवस्था का विकास हुआ है , वह एक बड़ी सीमा तक प्रोटेस्टेण्ट धर्म की नीतियों का ही परिणाम है । इसका तात्पर्य है कि धार्मिक आचारों की प्रकृति आर्थिक व्यवस्था की प्रकृति को प्रभावित करने में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती है । वेबर के इस चिन्तन ने धर्म की विवेचना को एक नया मोड़ दे दिया ।
( 4 ) अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र ( Economics and Sociology ) अपने चिन्तन में वेबर ने अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध को स्वीकार किया है । इस सम्बन्ध में उनकी रचना ‘ सामाजिक एवं आर्थिक संगठन का सिद्धान्त ‘ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है जो वेबर की मृत्यु के पश्चात् सन् 1947 में टालकट पार्सन्स द्वारा प्रकाशित करवाई गयी । समाजशास्त्र के आधुनिक सिद्धान्तों को समझने के लिए देबर के इस सिद्धान्त को आज भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है । इसके अतिरिक्त वेबर ने अनेक दूसरे निबन्धों के द्वारा भी समाजशास्त्र की मूल अवधारणाओं को स्पष्ट किया तथा समाजशास्त्र एवं अर्थशास्त्र के सम्बन्धों पर गहराई से विचार किया । यह सच है कि मैक्स वेबर के नाम से प्रकाशित होने वाली रचनाओं की संख्या बहत कम है लेकिन वेबर के विचारों की व्यापकता अनेक उन पुस्तकों में देखने को मिलती है जिनमें दूसरे विद्वानों ने वेबर के विचारों का विश्लेषण किया है । मेरियन वेबर द्वारा लिखित पुस्तक ‘ मैक्स वेबर ‘ ( Max Weber ) इसी तरह की पुस्तक है । जिसमें समाज विज्ञानों के लिए वेबर के योगदान पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । पार्सन्स की पूस्तक The Structure of Social Acrion में भी वेबर के विचारों का विस्तृत उल्लेख है । गर्थ तथा मिल्स ( Gerth and Mills ) द्वारा लिखित पुस्तक From Max Weber : Essays in Sociology तथा रेमण्ड ऐरों की पुस्तक German Sociology में भी वेबर द्वारा प्रतिपादित उन विचारों को स्पष्ट किया गया है जो वेबर के विभिन्न लेखों में स्पष्ट होते रहे थे । वेबर ने सामाजिक वर्गों , प्रस्थिति – समूहों तथा राजनैतिक दलों के बारे में भी कुछ आरम्भिक विचार प्रस्तुत किए थे जिन्हें जीन्स विकेल्मन ने अपनी पुस्तक Max Weber ‘ s Sraatswissenschaft में संग्रहीत करके यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि इन अवधारणाओं पर वेबर अपने विचारों को किस तरह विकसित करना चाहते थे । बेण्डिक्स ने अपनी पुस्तक ‘ मैक्स वेबर : एक बौद्धिक व्यक्तित्व ‘ ( Max Weber : An Intellectual Personality ) में लिखा है कि ‘ वेबर की विद्वत्ता पूर्ण रचनाओं के बारे में मैं यह कहना चाहता हूँ कि अपने सम्पूर्ण जीवन में वेबर पश्चिमी सभ्यता में तर्कनावाद के विकास पर ही विचार करते रहे । उन्होंने इस बात से कभी इन्कार नहीं किया कि अपनी रचनाओं का विषय चुनने में उन्हें तर्क और स्वतन्त्रता के प्रति उनके अटूट विश्वास से ही एक दिशा – निर्देश मिल सका । ” वेबर के इसी तर्कनावाद तथा व्यावहारिक दृष्टिकोण ने उन्हें समाजशास्त्र तथा अन्य सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में एक अमर विचारक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया । प्रस्तुत विवेचन में हम वेबर द्वारा प्रस्तुत कुछ प्रमुख अवधारणाओं की सहायता से उनके बौद्धिक व्यक्तित्व को समझने का प्रयत्न करेंगे ।
समाजशास्त्र सामाजिक क्रियाओं तथा सम्बन्धों का अध्ययन
( Sociology : Study of Social Action and Relationship )
वेबर से पूर्व अनेक विद्वानों द्वारा समाजशास्त्र की अध्ययन – वस्तु तथा इससे सम्बन्धित अनेक अवधारणाएँ प्रस्तुत की गयी थीं लेकिन फिर भी कोई ऐसा ठोस आधार प्राप्त नहीं हो सका था जिसकी सहायता से समाजशास्त्र को तार्किक – वैज्ञानिक स्वरूप प्राप्त हो पाता । वेबर उन प्रारम्भिक विद्वानों में से एक हैं जिन्होंने सामा जिक घटनाओं का अध्ययन करने के लिए एक पृथक् वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया । वेबर से पूर्व का ऐतिहासिक सम्प्रदाय यह मानता था कि सामाजिक घटनाओं में व्यापकता , विविधता और भावनात्मक पक्षपात का समावेश होने के कारण इनका वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया जा सकता । वेबर ने यह विचार प्रस्तुत किया कि सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में भी वैज्ञानिक मानदण्ड को बनाए रखना सम्भव है । लेकिन ऐसा तभी हो सकता है जब हम सभी तरह की सामाजिक घटनाओं का अध्ययन न करके , समाजशास्त्र में मानवीय क्रियाओं तथा सम्बन्धों का ही अध्ययन करें । इस दृष्टिकोण से वेबर ने समाजशास्त्र को नए सिरे से परिभाषित करके इसकी अध्ययन – वस्तु तथा अध्ययन – विधि को स्पष्ट किया । वेबर के अनुसार ‘ समाजशास्त्र बह विज्ञान है जो सामाजिक क्रिया का व्याख्यात्मक बोध इस तरह करने का प्रयत्न करता है जिससे सामाजिक क्रिया सम्बन्धी गतिविधियों और परिणामों को कारण सम्बन्धी विवेचना तक पहुंचा जा सके । ” 3 इस प्रकार सामाजिक क्रिया ही वैज्ञानिक समाजशास्त्र के अध्ययन का वास्तविक केन्द्र है । इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वेबर के अनुसार , सभी मानवीय व्यवहार सामाजिक क्रियाएँ नहीं होती । इसे स्पष्ट करते हुए वेबर ने लिखा कि ” किसी क्रिया को सामाजिक क्रिया तभी कहा जा सकता है जब उस क्रिया को करने वाले व्यक्ति के द्वारा लगाए गये विषयगत अर्थ ( Sub jective Meaning ) के अनुसार उस क्रिया में दूसरे लोग ों की मनोवृत्तियों और क्रियाओं का समावेश हो तथा उसी के अनुसार उसकी गतिविधि निर्धारित हो । ”
इससे स्पष्ट होता है कि जब हम किसी क्रिया का अर्थ उसे करने वाले व्यक्ति के अभिप्राय के सन्दर्भ में ही समझते हैं तब उसकी विवेचना में भावनात्मक पक्षपात की सम्भावना स्वयं ही दूर हो जाती है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किसी क्रिया का विषयगत अर्थ समझने से कोई भी व्यवहार एक वस्तुनिष्ठ यथार्थता बन सकती है । समाजशास्त्र की अध्ययन – वस्तु में सामाजिक क्रिया के साथ सामाजिक सम्बन्ध ं को महत्त्व देते हुए वेबर ने लिखा कि ” किसी सामाजिक क्रिया की कारणा त्मक विवेचना तभी की जा सकती है जब एक अध्ययनकर्ता द्वारा किसी क्रिया के बाहरी रूप और उससे सम्बन्धित आन्तरिक प्रेरणाओं ( Motives ) को उनके सही रूप में समझ लिया जाय तथा साथ ही अर्थपूर्ण ढंग से उनके पारस्परिक सम्बन्ध को ज्ञात कर लिया जाय । ऐसा करने से मानवीय अन्तक्रियाओं का जो प्रतिमानित स्वरूप स्पष्ट होगा , उसी को हम ‘ सामाजिक सम्बन्ध ‘ कहते हैं । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अर्थपूर्ण सामाजिक क्रियाओं से उत्पन्न होने वाले जिन व्यव हारों में एक विशेष अभिप्राय , अर्थ अथवा प्रतीकात्मकता देखने को मिलती है उन्हीं को हम सामाजिक सम्बन्ध कहते हैं । इस आधार पर वेबर ने लिखा कि “ सामाजिक सम्बन्ध सामाजिक क्रियाओं से उत्पन्न वे प्रतिमानित तरीके हैं जो समाज की प्रत्याशाओं के रूप में मानवीय व्यवहारों का प्रदर्शित करते हैं । ” वेबर की विवेचना के आधार पर लारसन ( Larson ) ने ऐसे सभी सामाजिक सम्बन्धों को छ : भागों में विभाजित करके इन्हें समाजशास्त्र की अध्ययन वस्तु के रूप में स्पष्ट किया । ‘ ( 1 ) प्रचलन – इसके अन्तर्गत वे सभी सामाजिक सम्बन्ध आते हैं जो समाज की एक विशेष शैली अथवा शिष्टाचार जैसे प्रतिमान से अनुकूलन करने वाली क्रियाओं से उत्पन्न होते हैं । ( 2 ) प्रथाओं से अनुरूपता स्थापित करने वाली क्रियाएँ दूसरी श्रेणी के सम्बन्धों को जन्म देती हैं । ( 3 ) तीसरे प्रकार के सम्बन्ध तार्किकता पर आधारित उन क्रियाओं का परिणाम हैं जो एक – दूसरे के प्रति समान प्रत्याशाओं पर आधारित होती हैं तथा इनका उद्देश्य पारस्परिक हितों को पूरा करना होता है । ( 4 ) फैशन पर आधारित सामाजिक सम्बन्ध उन सामाजिक क्रियाओं का परिणाम होते हैं जो समकालीन रुचियों पर आधारित होती हैं । ( 5 ) कुछ सामाजिक क्रियाएं परम्पराओं ( Convention ) पर आधारित होती हैं तथा इनका उद्देश्य समाज के नैतिक दायित्वों को पूरा करना होता है । यह क्रियाएँ कुछ भिन्न प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों को जन्म देती हैं । ( 6 ) कानून से सम्बन्धित सामाजिक क्रियाएँ उन सम्बन्धों का आधार हैं जो संस्थागत निषेधों तथा प्रत्याशाओं के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार वे सभी सामाजिक सम्बन्ध जो सामाजिक क्रियाओं का परिणाम हैं , समाज शास्त्र की अध्ययन – वस्तु के अन्तर्गत आ जाते हैं । वेबर की मान्यता है कि समाजशास्त्र क्योंकि सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन करने वाला एक व्यापक विज्ञान ( Comprehensive Seicnce ) है , अत : एक वैज्ञानिक के रूप में समाजशास्त्रियों का कार्य विभिन्न सामाजिक क्रियाओं से सम्बन्धित उन कारणों तथा अर्थों की यथार्थ विवेचना करना है जो सार्वभौमिक रूप से प्रामा णिक हों । इस सम्बन्ध में वेबर ने लिखा , ” वैज्ञानिक व्यवहार किसी लक्ष्य के सन्दर्भ में की जाने वाली विवेकपूर्ण क्रिया तथा किसी मूल्य के सन्दर्भ में की जाने वाली विवेकपूर्ण क्रिया का एक सम्मिश्रण है । ” इसका तात्पर्य है कि सामाजिक मूल्य समाजशास्त्र की अध्ययन – वस्तु के बाहर नहीं हो सकते क्योंकि यह व्यक्ति की क्रियाओं और सामाजिक सम्बन्धों को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं । इसके बाद भी इन सामाजिक मूल्यों का अध्ययन यथार्थता अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर ही किया जाना चाहिए । समाजशास्त्र को एक विज्ञान मानने के पश्चात् भी वेबर ने यह स्पष्ट किया कि समाजशास्त्र की प्रकृति , प्राकृतिक विज्ञानों से भिन्न है । प्राकृतिक विज्ञानों में जहाँ गैर – मानवीय तथ्यों का अध्ययन होता है , वहीं समाजशास्त्र मानवीय व्यवहारों के विभिन्न पक्षों के अध्ययन से सम्बन्धित है । प्राकृतिक विज्ञानों में जहाँ घटनाओं के अर्थ अथवा उनके उद्देश्यों पर विचार नहीं किया जाता . वहीं समाजशास्त्र उन घटनाओं के अध्ययन पर बल देता है जो सामाजिक क्रियाओं का परिणाम होती हैं तथा जो अर्थपूर्ण होती हैं । प्राकृतिक विज्ञानों तथा समाजशास्त्रीय नियमों में भी एक स्पष्ट भिन्नता है । प्राकृतिक विज्ञानों में जहाँ नियमों की खोज करना ही अध्ययनकर्ता का अन्तिम उद्देश्य होता है , वहीं समाज शास्त्रीय नियमों का ऐति हासिक घटनाओं के सन्दर्भ में विभिन्न प्रकार की क्रियाओं तथा सम्बन्धों के कारणों एवं परिणामों को समझना है । इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि समाज शास्त्रीय अवधारणाओं को स्पष्ट करने के लिए परिष्कृत तथा संक्षिप्त तकनीकी शब्दावली का प्रयोग किया जाय । वास्तव में मानव – व्यवहारों का क्षेत्र इतना व्यापक है कि जब तक वास्तविक अर्थों के सन्दर्भ में समुचित शब्दावली का उपयोग नहीं किया जायेगा तब तक समाजशास्त्रीय विवेचन को दूषित होने से नहीं बचाया जा सकता । प्राकृतिक विज्ञानों के विपरीत , सामाजिक क्रियाएँ न तो अपने आप घटित होती हैं और न ही इनकी प्रकृति अपरिवर्तनशील होती है । इसका तात्पर्य है कि सामाजिक क्रियाओं तथा सामाजिक सम्बन्धों का तब तक समुचित अध्ययन नहीं किया जा सकता जब तक हम उनके वास्तविक और व्यक्तिनिष्ठ अर्थ को न समझ लें । इस दृष्टिकोण से सामाजिक क्रियाओं का अर्थपूर्ण बोध प्राप्त करना और उसके आधार पर विभिन्न क्रियाओं के कारण तथा परिणामों को खोज निकालना ही समाजशास्त्र का प्रमुख कार्य है । उपर्युक्त विवेचन के आधार पर वेबर द्वारा प्रस्तुत समाजशास्त्र की प्रकृति से सम्बन्धित कुछ प्रमुख निष्कर्ष दिए जा सकते हैं ।
( 1 ) वेबर के अनुसार , समाज शास्त्र मुख्यतः सामाजिक क्रियाओं तथा सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन है । इसके पश्चात भी सामाजिक मूल्यों के अध्ययन को समाजशास्त्र की विषय – वस्तु से पृथक नहीं किया जा सकता । इसका कारण यह है कि सामाजिक मूल्य ही मानवीय व्यवहारों को अर्थपूर्ण बनाते हैं ।
( 2 ) सामाजिक मूल्यों का अध्ययन भावनात्मक निर्णय के प्रभाव से स्वतन्त्र होना चाहिए । केवल तभी वैज्ञानिक विश्लेषण को प्रभावपूर्ण बनाया जा सकता है ।
( 3 ) ऐतिहासिक सम्प्रदाय से प्रभावित होने के कारण वेबर के अनुसार समाजशास्त्र इतिहास से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है । इसका कारण यह है कि अतीत की घटनाओं से तुलना करके न केवल वर्तमान सामाजिक घटनाओं के कारणों की परीक्षा की जा सकती है बल्कि विभिन्न घटनाओं की नियमितता ( Regularity ) तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों का विश्लेषण भी किया जा सकता है ।
( 4 ) वैज्ञानिक समाजशास्त्र का विकास तभी सम्भव है जब सामाजिक क्रियाओं तथा सामाजिक सम्बन्धों के अर्थ को कर्ता के दृष्टिकोण के सन्दर्भ में ही समझकर उनकी व्याख्या की जाय । व्याख्यात्मक बोध की इस पद्धति को वेबर ने वटहीन ( Verstehen ) का नाम दिया ।
( 5 ) जिस तरह प्राकृतिक विज्ञानों में कुछ सामान्यीकृत सैद्धान्तिक श्रेणियों से तुलना करके प्रामाणिक निष्कर्ष दिए जाते हैं , -उसी प्रकार समाजशास्त्रीय अध्ययन में कुछ आदर्श प्ररूपों ( Ideal Types ) को विकसित करके इनकी तुलना में वर्तमान व्यवहारों को समझा जा सकता है । इस प्रकार आदर्श – अरूप सामाजिक घटनाओं के विश्लेषण का एक वैज्ञानिक उपकरण है । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि वेबर के समाजशास्त्र को समझने के लिए उनके द्वारा प्रस्तुत तीन अवधारणाओं को विस्तार से समझना आवश्यक है । यह अवधारणाएँ हैं – – सामाजिक क्रिया , वस्टहीन अथवा व्याख्यात्मक बोध तथा आदर्श प्ररूप । सामाजिक क्रिया समाजशास्त्र के अध्ययन की वास्तविक विषय – वस्तु है ; वर्स्ट हीन वह पद्धति है जिसके द्वारा सामाजिक क्रियाओं का व्याख्यात्मक बोध किया जा सकता है तथा आदर्श – प्ररूप एक ऐसा साधन अथवा उपकरण है जिसकी सहायता से सामाजिक क्रियाओं के व्याख्यात्मक बोध को सरल बनाया जा सकता है ।