मृत्युक्रम

मृत्युक्रम : एक परिचय

मृत्युक्रम का प्रमुख उद्देश्य जनसंख्या के आकार में कमी करना जबकि प्रजननशीलता का उद्देश्य इस कमी की पूर्ति करना है । मृत्यु जीवन की समाप्ति की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । यह व्यक्ति में निहित जैविकीय शक्ति की समाप्ति का सूचक है ।

जनसंख्याशास्त्री इसे एक रहस्य अथवा दैवी नियन्त्रण के रूप में न देखकर एक जनांकिकीय घटना के रूप में देखते हैं । आज के तीव्र तकनीकी परिवर्तन वाले वैज्ञानिक युग में मृत्यु दर को कम करना जन्म दर को कम करने से अधिक आसान है । परन्तु मृत्यु दर को कभी शून्य नहीं किया जा सकता है मृत्यु सम्बन्धी समंकों के पंजीकरण का प्रारम्भ निश्चित नहीं है । विभिन्न प्रारम्भिक अध्ययनों में इन समंकों के एकत्रीकरण का उद्देश्य धार्मिक एवं आर्थिक प्रतीत होता है ।

मृत्युक्रम से आशय जनांकिकी के अन्तर्गत मृत्यु जीवन की एक प्रमुख घटना मानी जाती है जिससे जनसंख्या के आकार गठन और वितरण में कमी आती है । जनांकिकी में मृत्यु का सम्बन्ध व्यक्ति विशेष से न होकर व्यक्तियों के समूह से होता है , जिसे मृत्युक्रम कहते हैं । वास्तव में मृत्यु बीमारी , शारीरिक शक्ति एवं सामान्य स्वास्थ्य स्तर में गिरावट , हिंसा , दुर्घटना आदि का परिणाम है । प्रजनन दर की भांति मृत्यु दर का भी जनांकिकीय विश्लेषण में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि जनसंख्या वृद्धि प्रजनन दर एवं मृत्यु दर दोनों पर ही समान रूप से निर्भर करती है ।

मृत्यु सम्बन्धी समंको को आधुनिक रूप में एकत्र करने वर्गीकरण करने एवं विश्लेषण करने का श्रेय इंग्लैण्ड के कैप्टन जॉन ग्राउण्ट ( John Graunt 1620-1674 ) को है । सन् 1662 में प्रकाशित इनकी प्रसिद्ध कृति ‘ Natural and Political Observations Mentioned in the Index and Made upon the Bills of Mortality में कुछ स्थानों की मृत्यु के आंकड़े एवं उनके कारणों का विश्लेषण था । इस सम्बन्ध में जॉन ग्राउण्ट द्वारा किये गये प्रयासों को जनांकिकी के विकास में मील का पत्थर माना जाता है । इसी कारण से इन्हें जनांकिकी का जनक कहा जाता है । जन्म – मृत्यु सर्मकों के आधार पर जीवन तालिकाओं का निर्माण करने में एडमण्ड हैली , रिचर्ड प्राइस आदि का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है ।

 मृत्युक्रम की विशेषताएँ

 मृत्युक्रम समानार्थक की विभिन्न विशेषताएँ हैं जैसे-

 ( 1 ) सामान्यतया मृत्युक्रम और मृत्यु का प्रयोग रूप में किया जाता है ।

 ( 2 ) जनसंख्याशास्त्री इसे एक रहस्य अथवा दैवी नियन्त्रण न मानकर एक जनांकिकीय घटना के रूप में देखते हैं ।

( 3 ) मृत्युक्रम का सम्बन्ध व्यक्ति विशेष से न होकर व्यक्तियों के समूह से होता है

( 4 ) मृत्युक्रम जनसंख्या के आकार गठन और वितरण में कमी लाती है ।

( 5 ) उच्च मृत्यु दर निम्न विकास का संकेतक है ।

( 6 ) मृत्युक्रम में दीर्घकाल में स्थिर रहने की प्रवृत्ति पाई जाती है ।

 ( 7 ) जनसंख्या वृद्धि से भी मृत्युक्रम महत्वपूर्ण है । मृत्यु दर में कमी के कारण भी देश में जनसंख्या की दृष्टि से बढ़ सकती है । मृत्युक्रम को प्रभावित करने वाले तत्व

किसी समाज या देश में मृत्युक्रम को प्रभावित करने वाले विभिन्न तत्वों में प्रजननता का स्तर , आय स्तर , जनस्वास्थ्य का स्तर शिक्षा का स्तर चिकित्सा सुविधाएं एवं उनका प्रयोग , पर्यावरण प्रदूषण की स्थिति महामारियों का प्रभाव , सन्तुलित आहार उपलब्धता , नशीली एवं हानिकारक वस्तुओं का प्रयोग कार्य की प्रकृति आवास सुविधाएं , जनसंख्या की सघनता , प्राकृतिक मृत्युक्रम का 94 प्रकोप आदि प्रमुख हैं । मापन मृत्यु दरें दो या दो से अधिक देशों क्षेत्रों अथवा समयों के बीच मृत्यु के दबाव का तुलनात्मक अध्ययन करती हैं । मृत्यु का जनसंख्या पर दबाव मापने के लिए दो प्रकार की माप होती हैं प्रथम , जीवन तालिका एवं द्वितीय , मृत्युक्रम दरें मृत्यु दर का मापन जीवन तालिकओं के माध्यम से आसानी से किया जा सकता है , परन्तु सामान्यतया किसी भी देश में जीवन तालिकाओं का अभाव पाया जाता है ।

अतः मृत्यु दर को मापने के लिए अन्य प्रचलित विधियों का सहारा लिया जाता है । मृत्यु सम्बन्धी आंकड़े सामान्यतया मृत्यु प्रमाण पत्र जारी करने वाले कार्यालयों द्वारा एकत्रित किये जाते हैं जहां मृत्यु का पंजीकरण किया जाता है । सम्बन्धित कार्यालयों द्वारा एकत्रित किये गये मृत्यु समकों के आधार पर ही विभिन्न प्रकार की मृत्यु दरों की गणना की जाती है । 9.5 विभिन्न मृत्यु दरें दर 9.5.1 कुल मृत्यु कुल मृत्यु दर से आशय एक वर्ष में एक हजार जनसंख्या पर मृत्युओं की संख्या से है । इस निकालने के लिए निम्नलिखित सूत्र का उपयोग किया जाता है

D T.D.R. = x 1000 P T.D.R. कुल मृत्यु दर D किसी देश में किसी वर्ष विशेष में मृतकों की संख्या उस वर्ष में देश की कुल जनसंख्या P उदाहरण के लिए , यदि किसी वर्ष विशेष में देश की कुल जनसंख्या 5 लाख है तथा इनमें से उस वर्ष में 25 हजार व्यक्तियों की मृत्यु होती है तो कुल मृत्यु दर , 25,000 x 1000 = 50 प्रति हजार होगी । 5,00,000 एक देश की जनसंख्या को जन्म दर के साथ ही मृत्यु दर पर भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है । मृत्युदर के अधिक होने की स्थिति में देश के लोग अधिक मृत्यु की क्षतिपूर्ति हेतु जन्म दर को बढ़ा देते हैं , जिससे जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है । भारत में विकास प्रक्रिया के कारण मृत्यु दर में कमी आ रही है । 1911-20 की अवधि में यह 472 प्रति हजार थी । इसके बाद भारत में मृत्यु दर में निरन्तर गिरावट आयी है । 1941-50 में यह 274 थी जो वर्तमान में घटकर 6.4 प्रति हजार हो गयी । भारत में मृत्यु दर में कमी के प्रमुख कारण हैं शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार , बीमारियों एवं महामारियों में कमी , अन्धविश्वास में कमी , जीवन स्तर का ऊँचा होना , मनोरंजन के साधनों का विस्तार , महिलाओं की स्थिति में सुधार होना आदि ।

 अशोधित मृत्यु दर अशोधित मृत्यु दर ( Crude Death Rate )

मृत्यु दर की अत्यन्त सरल एवं सुविधाजनक माप है । मृत्यु को मापने की यह सर्वाधिक प्रचलित विधि है । इसकी गणना हेतु किसी वर्ष विशेष में कुल मृत्युओं की संख्या को उस वर्ष की मध्यवर्षीय जनसंख्या से भाग देकर 1000 से गुणा कर दिया जाता है । इसकी गणना करने के लिए निम्नलिखित सूत्र का उपयोग किया जाता है . DC.D.R … x1000 P C.D.R. = अशोधित मृत्यु दर D – किसी वर्ष विशेष में मृतकों की कुल संख्या उस वर्ष की मध्यववर्षीय कुल जनसंख्या P = उदाहरण के लिए , यदि किसी देश की मध्यवर्षीय जनसंख्या 8,00,000 है तथा उस वर्ष में इनमें से 40,000 व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है तो अशोधित मृत्यु दर 40,000 x1000 = 50 प्रति हजार प्रति वर्ष होगी । 8,00,000 / अशोधित मृत्यु दर की गणना कुल मृत्यु दर की तरह ही की जाती है । इन दोनों में अन्तर मात्र इतना है कि जहाँ अशोधित मृत्यु दर की गणना मध्यवर्षीय जनसंख्या के आधार पर की जाती है , वहीं कुल मृत्यु दर की गणना पूरे वर्ष में कुल जनसंख्या के आधार पर की जाती है । अशोधित मृत्यु दर के अनेक गुण हैं जैसे- प्रथम , यह मृत्यु दर को प्रदर्शित करने वाली एक सरल विधि है । द्वितीय , इसके द्वारा आम जनता को मृत्यु के सम्बन्ध में आसानी से जानकारी दी जा सकती है । तृतीय , इसमें मृत्यु की बारम्बारता को मात्र एक संख्या से व्यक्त किया जा सकता है । इसी कारण से विभिन्न वार्षिक अंकों एवं सांख्यिकीय प्रकाशनों में इसी का उल्लेख होता है ।

चतुर्थ , यह तुलनात्मक अध्ययन में सहायक है । इससे ग्रामीण – शहरी , स्त्री – पुरुष , विभिन्न जातियों , विभिन्न आय वर्गों अथवा विभिन्न देशों के मध्य मृत्यु की तुलना की जा सकती है ।

 परन्तु इसकी विभिन्न कमियाँ भी हैं , जैसे- प्रथम , इसमें जनसंख्या की संरचना पर ध्यान नहीं दिया जाता है । जनसंख्या के विभिन्न समुदायों में मृत्यु दरें अलग – अलग होती है , जबकि अशोधित मृत्यु दर की गणना में जनसंख्या के विभिन्न समुदायों को शामिल कर लिया जाता है । अतः तुलनात्मक दृष्टि से इसका उपयोग नहीं किया जाना चाहिये । द्वितीय , अशोधित मृत्यु दर निकालने के लिए समंक दो भिन्न – भिन्न स्रोतों से लिये जाते हैं । जैसे- मृतकों की संख्या का स्रोत पंजीकरण होता है जबकि जनसंख्या सम्बन्धी समंक जनगणना से लिये जाते हैं । दो अलग – अलग स्रोतों से सूचनाएं लेकर सांख्यिकीय विश्लेषण किया जाना वैज्ञानिकता की दृष्टि से उचित नहीं है क्योंकि दो स्रोत से ली गई सूचनाएं समान नहीं होती हैं ।

आयु – विशिष्ट मृत्यु दर

 अशोधित मृत्यु दर केवल प्रति हजार व्यक्तियों पर मृत्युओं की सम्भावना को बताती है । यह आयु , लिंग , निवास स्थान आदि कारकों को ध्यान में नहीं रखती है । आयु – विशिष्ट मृत्यु दर ( Age Specific Death Rate ) किसी स्थान अथवा क्षेत्र विशेष के निवासियों की भिन्न भिन्न आयु वर्गों में मृत्यु के सम्बन्ध में जानकारी देती है । सामान्यतया मृत्यु के आंकड़ों में आयु के अनुसार विचलन होता है । कम आयु में मृत्यु का दबाव अधिक , युवावस्था पर कम तथा वृद्धावस्था जनसंख्या में मृत्यु का दबाव ज्ञात करने के पर पुनः मृत्यु का दबाव अधिक होता है । अतः किसी के लिए आयु वर्ग -वर्ग के अनुसार मृत्यु दर की गणना की जानी चाहिये ।

आयु – विशिष्ट मृत्यु दर द्वारा जनसंख्या पर मृत्यु के दबाव का अध्ययन आयु – वर्ग के अनुसार ही किया जाता है । इसकी गणना हेतु यह आवश्यक है कि हमें विभिन्न आयु – वर्गों की मध्यवर्षीय जनसंख्या तथा विभिन्न आयु वर्गों में मृतकों की संख्या की जानकारी हो । इस दर को ज्ञात करने के लिए प्रत्येक आयु वर्ग में मृतकों की संख्या को उसी आयु – वर्ग की मध्यवर्षीय जनसंख्या से भाग देकर 1000 से गुणा कर दिया जाता है । सूत्र के रूप में , में D / A.S.D.R = x 1000 P A.S.D.R. आयु विशिष्ट मृत्यु दर B / विशिष्ट आयु वर्ग में मृतकों की संख्या उसी आयु वर्ग की मध्यवर्षीय जनसंख्या Pi उदाहरण के लिए , यदि किसी नगर में 10-30 आयु वर्ग के लोगों की संख्या 10,000 है और उसमें से 500 व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है , तो आयु – विशिष्ट मृत्यु दर ( 10-30 आयु वर्ग हेतु ) ,500 x 1000 = 50 प्रति हजार प्रति वर्ष होगी । 10,000 उपरोक्त उदाहरण में 10-30 आयु वर्ग की आयु विशिष्ट मृत्यु दर की गणना की गई है । इसी प्रकार से सम्पूर्ण जीवन काल को विभिन्न आयु वर्गों में विभक्त कर अलग – अलग आयु -वर्गों की आयु – विशिष्ट मृत्यु दर की गणना की जाती है ।

 आयु – विशिष्ट मृत्यु दर में मृत्युक्रम की माप आयु वितरण के आधार पर की जाती है । इसके विभिन्न गुण हैं , जैसे- प्रथम , इसके अन्तर्गत मृत्यु दर को सामान्यतया प्रत्येक वर्ष के लिए ज्ञात न करके 0-5 अथवा इसी प्रकार के अन्य आयु अन्तराल लेकर ज्ञात किया जाता है ।

 द्वितीय , यह मृत्यु की अच्छी माप मानी जाती है और जीवन तालिका के निर्माण में सहायक होती है , क्योंकि यह इस सम्बन्ध में तथ्यपूर्ण जानकारी देती है कि किसी विशेष समूह के व्यक्ति की एक विशिष्ट समय में मरने की सम्भावना है । तृतीय , आयु – विशिष्ट मृत्यु दर का वक्र U आकार का होता है । इसका कारण है कि जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में बच्चों की मृत्यु की सम्भावना अधिक होती है । आयु बढ़ने अर्थात् युवावस्था में यह सम्भावना कम हो जाती है और बाद के वर्षों में यह बढ़ जाती है । 60 वर्ष की आयु के पश्चात् यह तेजी से बढ़ती है । चतुर्थ , इस दर की गणना पुरूषों एवं स्त्रियों के लिए अलग – अलग हो सकती है । ऐसी स्थिति में गणना की गई दरें आयु लिंग विशिष्ट मृत्यु दरें कहलाती हैं ।

  शिशु मृत्यु दर ( Infant Death Rate )

 से आशय प्रथम वर्ष की मृत्युओं से है । यह वर्ष जीवन तालिका को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण वर्ष होता है क्योंकि सामान्यतया प्रथम वर्ष में होने वाली मृत्यु वृद्धावस्था को छोड़कर किसी अन्य आयु वर्ष पर होने वाली मृत्यु से अधिक होती है । इसकी गणना में किसी निश्चित वर्ष एवं निर्धारित क्षेत्र के एक वर्ष से कम आयु के शिशुओं की मृत्यु संख्या को उसी वर्ष एवं क्षेत्र में सजीव जन्मित शिशुओं की कुल संख्या से भाग देकर 1000 से गुणा कर दिया जाता है । सूत्र के रूप में , Des LD.R. x1000 B I.D.R = Dos शिशु मृत्यु दर

  • किसी विशिष्ट वर्ष एवं क्षेत्र में एक वर्ष से कम आयु के मृत शिशुओं की संख्या B B = उसी वर्ष एवं क्षेत्र में सजीव जन्मे शिशुओं की संख्या उदाहरण के लिए , यदि किसी देश में वर्ष 1996 में मृत शिशुओं की संख्या 4,000 है तथा सजीव जन्म शिशुओं की संख्या 80,000 है तो शिशु मृत्यु – वर , उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय 151 O # + ● 20 प्रति हजार प्रति वर्ष । 180 x1000 18,000
  • 10 प्रति हजार प्रति वर्ष । 240 x1000 12.000 = 20 प्रति हजार प्रति वर्ष 500 x * X 1000 9,000 55.56 प्रति हजार प्रति वर्ष 600 — x 1000 4,000 150 प्रति हजार प्रति वर्ष ।

4,000 x1000 = 50 प्रति हजार प्रति वर्ष होगी । 80,000

 शिशु मृत्यु दर ( Infant Death Rate ) तथा शिशु मृत्युक्रम ( Infant Mortality Rate ) को सामान्यतया एक ही अर्थ में लिया जाता है , जबकि इसमें अन्तर होता है । बार्कले ने इनमें अन्तर स्पष्ट करने का प्रयास किया है । उनका मानना है कि शिशु मृत्युक्रम में मृत्यु की माप का सन्बन्ध एक सहगण ( Cohort ) से होता है जबकि शिशु मृत्यु दर के अन्तर्गत सजीव उत्पन्न एवं मृत शिशुओं का सम्बन्ध किसी सहगण से न होकर एक वर्ष से होता है । अर्थात् शिशु मृत्यु दर में किसी वर्ष विशेष में मृत शिशुओं की संख्या को वर्ष विशेष में उत्पन्न होने वाले शिशुओं की संख्या से भाग दे दिया जाता है । स्पष्ट है कि शिशु मृत्यु दर में वर्ष का महत्व होता है जबकि शिशु मृत्युक्रम में सहगण का महत्व होता है ।

भारत में शिशु मृत्यु दर वर्ष 1980 में अपने उच्चतम स्तर 1593 प्रति हजार जीवित जन्म जो वर्ष 2010 में अब तक के अपने न्यूनतम स्तर 482 प्रति हजार जीवित जन्म पर आ विकास के साथ इसके भविष्य में और भी कम होने की सम्भावना है । विकसित थी गई है । देशों में यह दर काफी कम है । उदाहरण के लिए वर्ष 2010 में संयुक्त राज्य अमेरिका में यह दर 6.15 प्रति हजार जीवित जन्म थी । शिशु मृत्यु दर को आयु के आधार पर दो भागों में विभाजित किया जाता है प्रथम नवजात शिशु मृत्यु दर एवं द्वितीय , नवजन्मोत्तर काल शिशु मृत्यु दर

 नवजात शिशु मृत्यु दर ( Neo Natal Mortality Riate )

वास्तव में एक आयु – विशिष्ट मृत्यु दर है जिसके अन्तर्गत चार सप्ताह अथवा एक माह से कम आयु के शिशुओं की मृत्यु दर की गणना की जाती है । इसकी माप हेतु किसी निश्चित वर्ष एवं निर्धारित क्षेत्र के चार सप्ताह अथवा एक माह से कम आयु के शिशुओं की मृत्यु संख्या को उसी वर्ष एवं क्षेत्र में सजीव जन्मित शिशुओं की कुल संख्या से भाग देकर 1000 से गुणा कर दिया जाता है । सूत्र के रूप में :

 Neo – Natal Mortality Rate = x 1000  = किसी विशिष्ट वर्ष एवं क्षेत्र में 28 दिन अथवा एक माह से कम आयु के मृत शिशुओं की संख्या B = उसी वर्ष एवं क्षेत्र में सजीव जन्मे शिशुओं की संख्या भारत में नवजात शिशु मृत्यु दर वर्ष 1991 में 47 प्रति हजार जीवित जन्म थी जो वर्ष 2010 में घटकर 32 प्रति हजार जीवित जन्म हो गई है ।

नवजन्मोत्तर काल शिशु मृत्यु दर नवजन्मोत्तरकाल शिशु मृत्यु दर ( Past Neo Natal Mortality Rate ) भी एक प्रकार की आयु विशिष्ट मृत्यु दर ही है जिसके अन्तर्गत एक माह अथवा प्रथम चार सप्ताह से अधिक परन्तु एक वर्ष अथवा शेष 48 सप्ताह से कम आयु के शिशुओं की मृत्यु का सम्मिलित किया जाता है । इसकी गणना हेतु किसी निश्चित वर्ष एवं निर्धारित क्षेत्र के एक माह अथवा प्रथम चार सप्ताह से अधिक परन्तु एक वर्ष अथवा शेष 48 सप्ताह से कम आयु के शिशुओं की मृत्यु संख्या को उसी वर्ष एवं क्षेत्र में राजीव जन्मित शिशुओं की कुल संख्या से भाग देकर 1000 से गुणा कर दिया जाता है ।

 एक माह अथवा प्रथम चार सप्ताह से अधिक परन्तु एक वर्ष अथवा शेष 48 सप्ताह से कम आयु के मृत शिशुओं की संख्या B उसी वर्ष एवं क्षेत्र में सजीव जन्मे शिशुओं की संख्या सामान्यतया प्रथम चार सप्ताह में जिन शिशुओं की मृत्यु होती है , वह पूर्व – परिपक्व जन्मों के कारण उत्पन्न होने वाली विभिन्न शारीरिक एवं इन्द्रिय सम्बन्धी विकारों के कारण होती हैं । प्रथम चार सप्ताह के पश्चात् अगले 48 सप्ताह में शिशुओं की होने वाली मृत्यु अधिकतर खराब आवासों , गन्दगी , कुपोषण तथा विभिन्न सुविधाओं के अभाव आदि के कारण होती हैं । बोग का मानना है कि नवजन्मोत्तर काल शिशु मृत्यु की दृष्टि से अधिक घातक होता है । इसका प्रमुख कारण है कि जन्मित शिशु प्रथम चार सप्ताह तक मां के दूध पर जीवित रहता है जिससे वह पर्यावरण प्रदूषण से अप्रभावित रहता है । इसलिए इस काल में मृत्यु की सम्भावना कम होती है । परन्तु द्वितीय काल अर्थात् अगले 48 सप्ताह में शिशु मां के दूध के अतिरिक्त अन्य आहार भी लेता है जिसमें अशुद्धता सम्भव है । इसके साथ ही शिशु को बाहरी वातावरण की कठोरता एवं प्रदूषण का सामना भी करना पड़ता है । नवजन्मोत्तर काल में शिशु मृत्यु दर विकसित देशों में कम जबकि विकासशील देशों में अधिक है । इसका प्रमुख कारण विकसित देशों में विशिष्ट सुविधाओं की उपलब्धता है ।

 बाल मृत्यु दर बाल मृत्यु दर ( Child Mortality Rate ) से आशय प्रति हजार जीवित जन्मों पर 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की होने वाली मृत्युओं की संख्या से है इसकी गणना में किसी निश्चित वर्ष एवं निर्धारित क्षेत्र के 5 वर्ष से कम आयु के शिशुओं की मृत्यु संख्या को उसी वर्ष एवं क्षेत्र में सजीव जन्मित शिशुओं की कुल संख्या से भाग देकर 1000 से गुणा कर दिया जाता है । सूत्र के रूप में , Do s C.M.R. = …… x 1000 B C.M.R. = Do – 5 बाल मृत्यु दर किसी विशिष्ट वर्ष एवं क्षेत्र में 5 वर्ष से कम आयु के मृत शिशुओं की संख्या B उसी वर्ष एवं क्षेत्र में संजीव जन्मे शिशुओं की संख्या भारत में बाल मृत्यु दर वर्ष 1960 में 238.9 प्रति हजार जीवित जन्म थी जो वर्ष 2010 में कम होकर 82.7 प्रति हजार जीवित जन्म हो गई है । 9.5.8 मातृत्व मृत्यु दर स्त्रियों की मृत्यु दर आयु के अनुसार परिवर्तित होती रहती है । विवाहित स्त्रियों में प्रजनन आयुवर्ग में प्रसव के कारण मृत्यु की सम्भावना अधिक होती है । इसके लिए मातृत्व मृत्यु दर की गणना की जाती है ।

 मातृत्व मृत्यु दर ( Maternal Mortality Rate )

का आशय सन्तानोत्पत्ति आयु वर्ग ( अर्थात् 15-49 वर्ष की आयु में शिशु जन्म अथवा प्रसव के कारण ( प्रसव के सप्ताह के अन्दर मरने वाली स्त्रियों की कुल जनसंख्या से है ।

मातृत्व मृत्यु दर किसी निश्चित वर्ष एवं क्षेत्र में सन्तानोत्पादन आयु वर्ग की महिलाओं की शिशु जन्म के कारण हुई कुल मृत्यु संख्या B उसी वर्ष एवं क्षेत्र की महिलाओं द्वारा जन्मे शिशुओं की संख्या मातृत्व मृत्यु दर में सामान्यतया प्रसव के कारण 6 सप्ताह के अन्दर होने वाली माताओं की मृत्यु की घटनाओं को शामिल किया जाता है । भारत में वर्ष 2010 में मातृत्व मृत्यु दर 2 प्रति हजार जीवित जन्म थी । यह दर शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक है । भारत में मातृत्व मृत्यु दर के अधिक होने के अनेक कारण हैं , जैसे- बाल विवाह , स्त्रियों में शिक्षा का अभाव , गर्भवती स्त्रियों के लिए पौष्टिक आहार का अभाव , चिकित्सकीय सुविधाओं का अभाव , अन्धविश्वास एवं सामाजिक कुरीतियाँ , दो सन्तानों के जन्म के बीच कम समयान्तराल , समाज में स्त्रियों की उपेक्षा आदि ।

जीवन – प्रत्याशा

 जीवन – प्रत्याशा ( Expectancy of Life ) से आशय जीवित रहने की आयु से है । जब देश में एक शिशु जन्म लेता है तो उसके औसतन कितने वर्ष तक जीवित रहने की आशा की जाती है , इस जीवित रहने की आशा को ही जीवन प्रत्याशा अथवा प्रत्याशित आयु अथवा औसत आयु कहा जाता है । किसी देश में जीवन प्रत्याशा मुख्य रूप से मृत्युदर एवं विभिन्न आयुवर्गों पर मृत्यु के दबाव पर निर्भर करता है । देश में मृत्यु दर के कम होने पर जीवन – प्रत्याशा अधिक होती है जबकि मृत्यु दर के अधिक होने पर जीवन प्रत्याशा कम होती है । जानना चाहते वास्तव में में , जीवन – प्रत्याशा किसी देश के नागरिकों के स्वास्थ्य तथा सभ्यता एवं आर्थिक विकास का सूचक है । जीवन प्रत्याशा जन्मदर एवं मृत्यु दर पर प्रकाश डालता है साथ ही इससे किसी समाज में नागरिकों को मिलने वाली सुविधाओं का भी पता लगाया जा सकता है । एक देश जितना तीव्र गति से विकास करेगा , वहां जीवन – प्रत्याशा उतनी ही अधिक होगी ।

 प्रो . ओरगेन्स्की का मत कि यदि आप किसी देश के रहन – सहन के स्तर को  तो उसकी जीवित रहने की प्रत्याशा पर दृष्टिपात कीजिए , क्योंकि उससे अच्छी कोई भी माप नहीं है कि कोई सभ्यता प्रत्येक व्यक्ति को जीवन के कितने वर्ष देती है । जीवन प्रत्याशा के महत्व को दर्शाते हुए प्रो . जॉन ने कहा है कि दीर्घायु जीवन का अध्ययन जीव विज्ञान का विषय है । जनांकिकीवत्ता की रूचि इस विषय में इसलिये है कि दीर्घायु जीवन मानव समूह एवं उसकी संरचना हो प्रभावित करता है । भारत में जीवित रहने की आयु में निरन्तर वृद्धि हुई है परन्तु यह गति बहुत धीमी रही है । देश में लोगों की जीवन – प्रत्याशा 1911 में 22.9 वर्ष थी जो 1951 में 321 वर्ष तथा 1991 में बढ़कर 59.9 वर्ष हो गयी । वर्ष 2009 में यह 6989 वर्ष आकलित की गई है । इसी वर्ष पुरुषों की जीवन – प्रत्याशा 6746 वर्ष तथा महिलाओं की 7261 वर्ष रही । विकसित देशों की तुलना में भी भारत में जीवन प्रत्याशी कम है । उदाहरण के लिए वर्ष 2010 में जापान में जीवन प्रत्याशा 8273 वर्ष कनाडा में 805 वर्ष , आस्ट्रेलिया में 81.44 वर्ष तथा अमेरिका में 78.7 वर्ष एवं इंग्लैण्ड में 79.53 वर्ष थी ।

 सम्पूर्ण विश्व में औसत रूप में यह 67.88 वर्ष थी । 9.7 मृत्यु दर एवं जीवन प्रत्याशा में अन्तर्सम्बन्ध एक देश में मृत्युदर एवं जीवन – प्रत्याशा में विपरीत सम्बन्ध होता है । जीवन प्रत्याशा मुख्य रूप से मृत्युदर एवं विभिन्न आयुवर्गों पर मृत्यु के दबाव पर निर्भर करती है । यदि देश में मृत्युदर गिर रही है तो ऐसी स्थिति में लोगों के जीवित रहने की आयु में वृद्धि होगी । मृत्यु दर के कम होने पर जीवन प्रत्याशा अधिक होती है जबकि मृत्यु दर के अधिक होने पर जीवन – प्रत्याशा कम होती है । पिछले वर्षों में भारत सहित विश्व के विभिन्न देशों में जीवन – प्रत्याशा में वृद्धि दर्ज की गई है । इसका प्रमुख कारण मृत्यु के दबाव का धीरे – धीरे कम होना है । इसे हम आंकड़ों की सहायता से भी देख सकते हैं ।

भारत में मृत्युदर 1911-20 की अवधि में 472 प्रति हजार थी । इसके बाद यहां मृत्यु दर में निरन्तर गिरावट आयी है । 1941-50 में यह 27.4 थी जो वर्तमान घटकर 6.4 प्रति हजार हो गयी है । देश में जीवन – प्रत्याशा 1911-20 की अवधि में यह 20.1 वर्ष थी । इसके बाद यह निरन्तर बढ़ती गयी है । 1941-50 में यह 32.1 वर्ष थी जो वर्तमान में बढ़कर लगभग 70 वर्ष हो गयी है । भारत में जीवन – प्रत्याशा में वृद्धि तो हुई है परन्तु यह वृद्धि धीमी गति से हुई है ।

इसका कारण यहां सामाजिक – आर्थिक विकास के कम होने के कारण मृत्युदर का अधिक होना है । यदि देश में सामाजिक – आर्थिक विकास पर अधिक ध्यान दिया जाये तो जीवन – प्रत्याशा तेजी से वृद्धि सम्भावित है । 9.8 सारांश मृत्यु जीवन की एक प्रमुख घटना मानी जाती है जो जनसंख्या के आकार गठन और वितरण को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है । जनांकिकी में मृत्यु का सम्बन्ध व्यक्ति विशेष से न होकर व्यक्तियों के समूह से होता है , जिसे मृत्युक्रम कहते हैं । प्रजनन दर की भांति मृत्यु दर का भी जनांकिकीय विश्लेषण में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि जनसंख्या वृद्धि प्रजनन दर एवं मृत्यु दर दोनों पर ही समान रूप से निर्भर करती है ।

 मृत्युक्रम का प्रमुख उद्देश्य जनसंख्या के आकार में कमी करना जबकि प्रजननशीलता का उद्देश्य इस कमी की पूर्ति करना है । मृत्यु दरें दो या दो से अधिक देशों , क्षेत्रों अथवा समयों के बीच मृत्यु के दबाव का तुलनात्मक अध्ययन करती हैं । मृत्यु का जनसंख्या पर दबाव मापने के लिए दो प्रकार की माप होती है प्रथम , जीवन तालिका एवं द्वितीय , मृत्युक्रम दरें मृत्यु दर का मापन जीवन तालिकओं के माध्यम से आसानी से किया जा सकता है , परन्तु सामान्यतया किसी भी देश में जीवन तालिकाओं का अभाव पाया जाता है ।

अतः मृत्यु दर को मापने के लिए अन्य प्रचलित विधियों का सहारा लिया जाता है । जैसे- कुल मृत्यु दर , अशोधित मृत्यु दर , आयु – विशिष्ट मृत्यु दर शिशु मृत्यु दर ( नवजात शिशु मृत्यु दर एवं नवजन्मोत्तर काल मृत्यु दर ) , बाल मृत्यु दर मातृत्व मृत्यु दर आदि । जीवन – प्रत्याशा , जिसका आशय जीवित रहने की आयु से है • नागरिकों के स्वास्थ्य तथा सभ्यता एवं आर्थिक विकास का सूचक है । एक देश में मृत्युदर एवं जीवन प्रत्याशा में विपरीत सम्बन्ध होता है । जीवन प्रत्याशी मुख्य रूप से मृत्युदर एवं विभिन्न आयुवर्गों पर मृत्यु के दबाव पर निर्भर जीवन प्रत्याशा अधिक होती है जबकि मृत्युदर के अधिक होने पर जीवन प्रत्याशा कम होती है । पिछले वर्षों में भारत सहित विश्व के करती है । देश में मृत्युदर के कम होने पर दर्ज की गई है । इसका प्रमुख कारण मृत्यु के विभिन्न देशों में जीवन – प्रत्याशा में वृद्धि दबाब का धीरे – धीरे कम होना है ।

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