मालेगांव धमाका: जांच में चूक का खुलासा, आखिर धमाका कहाँ हुआ?
चर्चा में क्यों? (Why in News?):** हाल ही में मालेगांव धमाका मामले में एक विशेष अदालत के फैसले ने जांच प्रक्रिया पर गंभीर सवाल उठाए हैं। अदालत ने कहा कि यह स्पष्ट नहीं है कि विस्फोटक घर में रखा गया था या मोटरसाइकिल पर, जो अभियोजन पक्ष की ओर से पेश किए गए सबूतों में एक महत्वपूर्ण अंतर को दर्शाता है। यह फैसला न केवल इस विशेष मामले के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में जांच एजेंसियों की दक्षता पर भी व्यापक प्रकाश डालता है। UPSC के उम्मीदवारों के लिए, यह घटनापत्र न केवल समसामयिक मामले के रूप में महत्वपूर्ण है, बल्कि भारतीय न्यायपालिका, राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद से संबंधित कानून और जांच प्रक्रियाओं की बारीकियों को समझने का एक उत्कृष्ट अवसर भी प्रदान करता है।
मालेगांव धमाका, जो 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव शहर में हुआ था, एक ऐसा मामला है जिसने आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई को झकझोर कर रख दिया था। इस घटना में कई लोगों की जान गई थी और कई घायल हुए थे। यह मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इसमें शुरू में एक समुदाय को निशाना बनाया गया था, लेकिन बाद की जांच में इसके पीछे एक अलग विचारधारा वाले समूह का हाथ सामने आया। यह “भगवा आतंकवाद” के रूप में चर्चित हुआ और इसने देश भर में एक संवेदनशील बहस को जन्म दिया।
विशेष अदालत के इस हालिया फैसले ने एक बार फिर इस मामले की जटिलताओं और जांच की खामियों को उजागर किया है। आइए, इस पूरे मुद्दे को गहराई से समझें, इसके विभिन्न पहलुओं पर गौर करें और UPSC परीक्षा के दृष्टिकोण से इसके महत्व का विश्लेषण करें।
मालेगांव धमाका: घटनाक्रम और प्रारंभिक जांच
29 सितंबर 2008: महाराष्ट्र के मालेगांव शहर में, रमजान के पवित्र महीने में, एक मस्जिद के पास खड़ी एक मोटरसाइकिल में बम विस्फोट हुआ। इस शक्तिशाली विस्फोट में नौ लोगों की मौत हो गई और 80 से अधिक लोग घायल हुए।
प्रारंभिक आरोप: घटना के तुरंत बाद, आशंकाएं और आरोप एक विशेष समुदाय पर केंद्रित हुए। कई गिरफ्तारियां हुईं और आतंकवाद निरोधी दस्ते (ATS) ने जांच शुरू की। तत्कालीन सरकार और कुछ मीडिया संस्थानों ने भी इस घटना को “इस्लामी आतंकवाद” से जोड़ा।
जांच का रुख बदलना: हालांकि, जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ी, कुछ ऐसे सबूत सामने आए जिन्होंने प्रारंभिक थ्योरी पर सवाल उठाए। अभियोजन पक्ष के अनुसार, जांच को बाद में इस दिशा में ले जाया गया कि इस हमले के पीछे हिंदू अतिवादी समूहों का हाथ था। विशेष रूप से, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने इस मामले में जांच की और इसके आधार पर कई आरोप पत्र दाखिल किए।
मुख्य आरोपी और अभियोजन पक्ष का दावा: अभियोजन पक्ष के अनुसार, इस हमले को “धर्मांध” समूह द्वारा अंजाम दिया गया था, जिसने मुसलमानों को निशाना बनाने की योजना बनाई थी। मुख्य आरोपियों में लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, समीर कुलकर्णी, मेजर रमेश उपाध्याय (सेवानिवृत्त), अजय राहिरकर, सुरेश नायर और रामानंद छतरकर शामिल थे। यह कहा गया था कि यह बम धमाका कथित तौर पर “हिंदू राष्ट्र” की स्थापना और मुस्लिम बहुल इलाकों में आतंकवाद फैलाने के उद्देश्य से किया गया था।
मोटरसाइकिल का महत्व: अभियोजन पक्ष ने शुरुआत में दावा किया था कि इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल (एक TVS Apache) विस्फोट के लिए वाहन थी और इसमें बम फिट किया गया था। इसी तरह, 2008 में ही नासिक के भिकार町 में एक और संदिग्ध विस्फोट हुआ था, जिसमें एक स्कूटर का इस्तेमाल किया गया था। इन स्कूटरों को बाद में मालेगांव धमाकों से जोड़ा गया।
विशेष अदालत का फैसला: जांच में खामियां उजागर
अदालत का अवलोकन: विशेष न्यायाधीश एल.डी. चपलोट ने अपने आदेश में स्पष्ट रूप से कहा कि यह साबित नहीं हुआ है कि विस्फोट के लिए इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल पर विस्फोटक सामग्री रखी गई थी। उन्होंने कहा, “सबूत से यह स्थापित नहीं होता कि विस्फोटक सामग्री उस मोटरसाइकिल पर रखी गई थी। अभियोजन पक्ष इस संबंध में कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहा है कि विस्फोटक मोटरसाइकिल पर रखा गया था।”
घर बनाम मोटरसाइकिल: अदालत ने कहा कि विस्फोटक घर में रखा गया हो सकता है या मोटरसाइकिल पर, लेकिन अभियोजन पक्ष इसे निर्णायक रूप से साबित करने में विफल रहा। यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है क्योंकि यह सीधे तौर पर अभियोजन के मामले की नींव को हिला देता है। यदि विस्फोटक कहां रखा गया था, यह साबित नहीं होता, तो साजिश के तार को जोड़ना मुश्किल हो जाता है।
क्या इसका मतलब है कि आरोपी निर्दोष हैं?: यह समझना महत्वपूर्ण है कि अदालत का यह बयान सीधे तौर पर आरोपी को बरी करने जैसा नहीं है। अदालत ने केवल अभियोजन पक्ष की ओर से पेश किए गए एक विशेष आरोप (विस्फोटक का मोटरसाइकिल पर होना) को साबित करने में विफलता पर प्रकाश डाला है। इसका मतलब यह है कि अभियोजन पक्ष को अपने बाकी आरोपों को साबित करने के लिए अभी भी अन्य साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे। हालांकि, यह निश्चित रूप से अभियोजन के मामले को कमजोर करता है।
जांच की गुणवत्ता पर सवाल: यह फैसला उन एजेंसियों की जांच की गुणवत्ता पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाता है जिन्होंने इस मामले की तह तक जाने का प्रयास किया। यदि एक बुनियादी तथ्य, जैसे कि बम कहां रखा गया था, को स्पष्ट रूप से स्थापित नहीं किया जा सकता है, तो यह संदेह पैदा करता है कि क्या पूरी जांच प्रक्रिया निष्पक्ष और वैज्ञानिक तरीके से की गई थी।
जांच में खामियों के प्रभाव और विश्लेषण
सबूतों का बोझ (Burden of Proof): भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में, अभियोजन पक्ष का यह कर्तव्य है कि वह आरोपी के खिलाफ दोष सिद्ध करे, “उचित संदेह से परे” (beyond a reasonable doubt)। यदि अभियोजन पक्ष एक भी महत्वपूर्ण तथ्य को साबित करने में विफल रहता है, तो यह मामले को कमजोर करता है। इस मामले में, विस्फोटक की स्थिति को साबित करने में विफलता इसी श्रेणी में आती है।
निष्कर्ष पर पहुंचना: यह संभव है कि विस्फोटक किसी अन्य स्थान पर रखा गया हो और फिर उसे मौके पर ले जाया गया हो, या हो सकता है कि वह किसी अन्य उपकरण में हो। लेकिन, यदि अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर पाता कि वह मोटरसाइकिल पर था, तो यह उनके संपूर्ण मामले के निर्माण को प्रभावित करता है।
जांच एजेंसियों की चुनौतियां: आतंकवाद के मामलों में जांच अक्सर अत्यधिक जटिल होती है। गवाहों का अभाव, सबूतों का नष्ट हो जाना, अंतरराष्ट्रीय तार, और भय का माहौल ऐसी चुनौतियां हैं जिनका सामना जांच एजेंसियों को करना पड़ता है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि जांच में लापरवाही को नजरअंदाज किया जा सकता है।
क्या यह “भगवा आतंकवाद” की थ्योरी को कमजोर करता है?: इस विशेष फैसले का सीधा संबंध “भगवा आतंकवाद” की थ्योरी को कमजोर करने से नहीं है, क्योंकि यह केवल एक विशिष्ट बिंदु पर केंद्रित है। हालांकि, यह उन जांचों पर संदेह पैदा करता है जिन्होंने इस “थ्योरी” का समर्थन किया। यदि शुरुआती जांच में ही ऐसी चूकें थीं, तो क्या बाद की जांच प्रक्रियाएं भी उतनी ही कठोर थीं?
“सबूत से यह स्थापित नहीं होता कि विस्फोटक उस मोटरसाइकिल पर रखा गया था। अभियोजन पक्ष इस संबंध में कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहा है।” – विशेष न्यायाधीश एल.डी. चपलोट
UPSC के लिए प्रासंगिकता: विभिन्न आयाम
यह मामला UPSC सिविल सेवा परीक्षा के उम्मीदवारों के लिए कई महत्वपूर्ण दृष्टिकोणों से प्रासंगिक है:
1. समसामयिक मामले (Current Affairs)
- राष्ट्रीय सुरक्षा: यह मामला भारत में आतंकवाद की प्रकृति, इसके स्रोतों और उससे निपटने के तरीके पर प्रकाश डालता है।
- न्याय प्रणाली: यह भारतीय न्यायपालिका की भूमिका, निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार और सबूतों के महत्व को दर्शाता है।
- जांच प्रक्रियाएं: यह आतंकवाद से जुड़े मामलों में पुलिस और अन्य जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली, उनकी दक्षता और चुनौतियों पर सवाल उठाता है।
- “भगवा आतंकवाद”: यह शब्द और इससे जुड़ी बहस, भारत में राजनीतिक और सामाजिक ध्रुवीकरण के संदर्भ में महत्वपूर्ण है।
2. भारतीय संविधान और शासन (Indian Constitution and Governance)
- अनुच्छेद 20, 21, 22: ये अनुच्छेद अपराध के लिए दोषसिद्धि के संबंध में सुरक्षा, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा, और गिरफ्तारी और नजरबंदी के खिलाफ सुरक्षा से संबंधित हैं। इस मामले में, अभियुक्तों के अधिकारों पर सवाल उठ सकते हैं यदि जांच प्रक्रिया में खामियां पाई जाती हैं।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता: अदालत का यह फैसला न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सरकार से उसके अलगाव को प्रदर्शित करता है, जहां वह बिना किसी डर के साक्ष्यों के आधार पर निर्णय दे सकती है।
- कानून और व्यवस्था: यह केंद्र और राज्य सरकारों की आतंकवाद से निपटने की जिम्मेदारियों और कानून प्रवर्तन एजेंसियों की भूमिका पर प्रकाश डालता है।
3. सामाजिक मुद्दे (Social Issues)
- साम्प्रदायिक सौहार्द: मालेगांव जैसे मामले अक्सर समाज में साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ा सकते हैं। इन घटनाओं की निष्पक्ष जांच और समाधान साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है।
- मीडिया की भूमिका: प्रारंभिक चरण में मीडिया द्वारा कुछ समुदायों पर उंगली उठाना, और बाद में जांच का बदलना, यह दर्शाता है कि मीडिया को जिम्मेदारी से काम करना चाहिए और पूर्वाग्रहों से बचना चाहिए।
- ध्रुवीकरण: ऐसे मामले राजनीतिक और सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ा सकते हैं, जिससे देश की एकता और अखंडता को खतरा हो सकता है।
4. भारतीय दंड संहिता और आतंकवाद निरोधी कानून (Indian Penal Code and Anti-Terrorism Laws)
- विस्फोटक पदार्थ अधिनियम: इस मामले में विस्फोटक पदार्थों के कब्ज़े, उपयोग और रखने से संबंधित कानून महत्वपूर्ण होंगे।
- गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA): यह कानून आतंकवाद से संबंधित अपराधों से निपटने के लिए एक महत्वपूर्ण ढांचा प्रदान करता है। अदालत के फैसले इस कानून के तहत जांच और अभियोजन को कैसे प्रभावित कर सकते हैं, यह समझना महत्वपूर्ण है।
- सबूत और साक्ष्य: आपराधिक कार्यवाही में साक्ष्य के नियम, जैसे कि प्रत्यक्ष (direct) और परिस्थितिजन्य (circumstantial) साक्ष्य, इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मालेगांव मामले का व्यापक प्रभाव और ऐतिहासिक संदर्भ
मालेगांव धमाका मामला भारत में आतंकवाद की बदलती प्रकृति का प्रतीक बन गया है। इसने यह स्थापित किया कि आतंकवाद केवल एक विशेष समुदाय तक सीमित नहीं है, बल्कि विभिन्न विचारधाराओं और समूहों से उत्पन्न हो सकता है।
“भगवा आतंकवाद” की अवधारणा: 2008 के बाद, “भगवा आतंकवाद” शब्द का प्रयोग प्रमुखता से होने लगा। यह उस समय एक विवादास्पद शब्द था, और इसके उपयोग को लेकर अलग-अलग राय थीं। कुछ का मानना था कि यह एक वास्तविक खतरा था जिसे संबोधित करने की आवश्यकता थी, जबकि अन्य ने इसे राजनीतिक एजेंडे के रूप में देखा।
जांच एजेंसियों की निष्पक्षता: यह मामला इस बात पर भी जोर देता है कि जांच एजेंसियों को राजनीतिक दबाव से मुक्त होकर, साक्ष्यों के आधार पर निष्पक्ष रूप से काम करना चाहिए। यदि कोई भी एजेंसी किसी विशेष विचारधारा या समुदाय को अनुचित रूप से निशाना बनाती है, तो इससे न्याय प्रणाली में जनता का विश्वास कम होता है।
सबूतों का महत्व: यह मामला फिर से यह रेखांकित करता है कि किसी भी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए ठोस और पुख्ता सबूतों की आवश्यकता होती है। केवल आरोप लगाना या आशंका व्यक्त करना पर्याप्त नहीं है।
आगे की राह और चुनौतियां
जांच में सुधार: इस तरह के फैसलों से सीख लेकर, जांच एजेंसियों को अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करना चाहिए। इसमें शामिल हैं:
- वैज्ञानिक जांच: फोरेंसिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग।
- प्रशिक्षण: जांच अधिकारियों को नवीनतम तकनीकों और कानूनी प्रावधानों में बेहतर प्रशिक्षण देना।
- दस्तावेज़ीकरण: हर कदम का सटीक और विस्तृत दस्तावेज़ीकरण, ताकि अदालत में सबूत पेश करते समय कोई खामी न रहे।
- साक्ष्य संग्रह: साक्ष्य संग्रह के दौरान कानूनी प्रक्रियाओं का कड़ाई से पालन।
न्याय में देरी: भारत में अक्सर ऐसे मामलों में न्याय मिलने में बहुत देरी होती है। मालेगांव धमाके को 15 साल से अधिक हो गए हैं, और मामला अभी भी जारी है। न्याय में देरी भी न्याय से वंचित रहने के समान है। न्यायिक प्रक्रिया को तेज करने के लिए सुधारों की आवश्यकता है।
राजनीतिकरण से बचना: आतंकवाद के मामलों का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए। ऐसे मामलों को राजनीतिक एजेंडे के रूप में उपयोग करने से समस्या का समाधान नहीं होता, बल्कि यह और जटिल हो जाती है।
पुनर्वास और सुलह: यदि कोई व्यक्ति निर्दोष साबित होता है, तो उसे समाज में सामान्य जीवन जीने में मदद करने के लिए पुनर्वास के उपाय होने चाहिए। इसी तरह, यदि कोई व्यक्ति आतंकवाद में लिप्त पाया जाता है, तो उसके सुधार और समाज के मुख्यधारा में वापसी के तरीकों पर भी विचार किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
मालेगांव धमाका मामले में विशेष अदालत का हालिया फैसला जांच प्रक्रिया की खामियों को उजागर करता है। यह मामला न केवल आतंकवाद से लड़ने की हमारी क्षमता पर सवाल उठाता है, बल्कि हमारी न्याय प्रणाली की सटीकता और निष्पक्षता पर भी प्रकाश डालता है। UPSC उम्मीदवारों के लिए, यह घटना राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून, शासन और सामाजिक न्याय जैसे महत्वपूर्ण पहलुओं को गहराई से समझने का एक अवसर प्रदान करती है। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई केवल कानून प्रवर्तन एजेंसियों की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह एक सामूहिक प्रयास है जिसमें हर नागरिक की भूमिका होती है, और इसमें न्यायपालिका की निष्पक्षता सर्वोपरि है।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
1. मालेगांव धमाका किस वर्ष हुआ था?
a) 2006
b) 2007
c) 2008
d) 2009
उत्तर: c) 2008
व्याख्या: मालेगांव धमाका 29 सितंबर 2008 को हुआ था।
2. हालिया विशेष अदालत के फैसले के अनुसार, अभियोजन पक्ष यह साबित करने में असफल रहा कि:
a) घटना मालेगांव शहर में हुई थी।
b) धमाका एक मस्जिद के पास हुआ था।
c) विस्फोटक मोटरसाइकिल पर रखा गया था।
d) घटना के पीछे कोई साजिश थी।
उत्तर: c) विस्फोटक मोटरसाइकिल पर रखा गया था।
व्याख्या: विशेष न्यायाधीश ने कहा कि यह स्थापित नहीं हुआ है कि विस्फोटक मोटरसाइकिल पर रखा गया था।
3. “भगवा आतंकवाद” शब्द का प्रयोग किस घटना के बाद प्रमुखता से चर्चा में आया?
a) समझौता एक्सप्रेस धमाका
b) मक्का मस्जिद धमाका
c) मालेगांव धमाका
d) दिल्ली हाई कोर्ट blast
उत्तर: c) मालेगांव धमाका
व्याख्या: 2008 के मालेगांव धमाके के बाद “भगवा आतंकवाद” शब्द का प्रयोग चर्चा में आया।
4. निम्नलिखित में से कौन सा अनुच्छेद भारतीय संविधान में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा से संबंधित है?
a) अनुच्छेद 14
b) अनुच्छेद 19
c) अनुच्छेद 20
d) अनुच्छेद 21
उत्तर: d) अनुच्छेद 21
व्याख्या: अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा का अधिकार देता है।
5. भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में, दोष सिद्ध करने का प्राथमिक बोझ किस पर होता है?
a) बचाव पक्ष
b) अभियोजन पक्ष
c) न्यायाधीश
d) जूरी
उत्तर: b) अभियोजन पक्ष
व्याख्या: अभियोजन पक्ष का कर्तव्य है कि वह आरोपी के खिलाफ दोष सिद्ध करे।
6. हालिया मालेगांव धमाका फैसले का क्या तात्पर्य है?
a) सभी आरोपी बरी हो गए हैं।
b) अभियोजन पक्ष को एक महत्वपूर्ण सबूत साबित करने में कठिनाई हुई है।
c) मामले को तुरंत बंद कर दिया गया है।
d) यह केवल प्रारंभिक जांच की एक समीक्षा थी।
उत्तर: b) अभियोजन पक्ष को एक महत्वपूर्ण सबूत साबित करने में कठिनाई हुई है।
व्याख्या: फैसले ने विशेष रूप से विस्फोटक की स्थिति को साबित करने में अभियोजन की विफलता को उजागर किया।
7. गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) किस वर्ष पहली बार अधिनियमित किया गया था (यद्यपि इसमें बाद में संशोधन किए गए)?
a) 1965
b) 1967
c) 1974
d) 1980
उत्तर: b) 1967
व्याख्या: UAPA पहली बार 1967 में अधिनियमित किया गया था।
8. आतंकवाद के मामलों में जांच एजेंसियों के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक क्या हो सकती है?
a) बहुत कम गवाहों का होना
b) सबूतों का नष्ट हो जाना
c) अंतरराष्ट्रीय तार
d) उपरोक्त सभी
उत्तर: d) उपरोक्त सभी
व्याख्या: आतंकवाद के मामलों में ये सभी आम चुनौतियां हैं।
9. भारतीय न्यायपालिका के संबंध में निम्नलिखित में से कौन सा कथन सत्य है?
a) यह सरकार के अधीन काम करती है।
b) यह अपनी शक्तियों का प्रयोग स्वतंत्र रूप से करती है।
c) यह केवल सजा सुनाने का काम करती है।
d) यह कभी भी सरकार के फैसलों पर सवाल नहीं उठाती।
उत्तर: b) यह अपनी शक्तियों का प्रयोग स्वतंत्र रूप से करती है।
व्याख्या: भारतीय न्यायपालिका स्वतंत्र है और संविधान द्वारा निर्देशित है।
10. जांच में सुधार के लिए निम्नलिखित में से कौन सा एक महत्वपूर्ण कदम है?
a) फोरेंसिक विज्ञान का कम उपयोग
b) वैज्ञानिक जांच और प्रौद्योगिकी का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग
c) साक्ष्य संग्रह के दौरान कानूनी प्रक्रियाओं को नजरअंदाज करना
d) मामले के राजनीतिकरण को बढ़ावा देना
उत्तर: b) वैज्ञानिक जांच और प्रौद्योगिकी का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग
व्याख्या: वैज्ञानिक जांच और प्रौद्योगिकी का उपयोग जांच की गुणवत्ता बढ़ाता है।
मुख्य परीक्षा (Mains)
1. मालेगांव धमाका मामले में विशेष अदालत के फैसले ने भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में जांच की गुणवत्ता और सबूतों के महत्व पर प्रकाश डाला है। इस संदर्भ में, आतंकवाद से संबंधित मामलों में जांच एजेंसियों को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और इन चुनौतियों से निपटने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं? (लगभग 250 शब्द)**
2. “भगवा आतंकवाद” की अवधारणा को मालेगांव धमाके से जोड़कर देखें। इस तरह की अवधारणाओं के उदय और उनके सामाजिक-राजनीतिक निहितार्थों का विश्लेषण करें, और आतंकवाद के मामले में राजनीतिकरण के खतरों पर चर्चा करें। (लगभग 150 शब्द)**
3. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20, 21 और 22 के आलोक में, मालेगांव धमाके जैसे मामलों में अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को कैसे सुनिश्चित किया जाता है? अदालत के फैसलों की भूमिका पर चर्चा करें। (लगभग 150 शब्द)**
4. हालिया मालेगांव धमाका फैसले ने यह दर्शाया है कि कैसे सबूतों में एक महत्वपूर्ण खामी, पूरी अभियोजन कहानी को कमजोर कर सकती है। इस घटना से सीख लेते हुए, आतंकवाद विरोधी कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए जांच प्रक्रियाओं में क्या सुधार आवश्यक हैं? (लगभग 250 शब्द)**