मानवीय संसाधनों की अवधारणा :
मानवीय संसाधन से आशय किसी देश की जनसंख्या और उसकी शिक्षा , कुशलता , दूरदर्शिता तथा उत्पादकता से होता है । किसी देश की मानवीय शक्ति का अनुमान हम केवल वहां की जनसंख्या के आधार पर ही नहीं लगा सकते , इसके लिए जनसंख्या के गुणों पर भी विचार करना होगा । हार्बिसन और मायर्स के अनुसार ” मानवीय साधन का विकास ज्ञान , कुशलता तथा समाज के व्यक्तियों की कार्यक्षमता में वृद्धि होने वाली एक प्रक्रिया है । आर्थिक अर्थों में यह कहा जा सकता है कि यह मानवीय पूंजी का ऐसा संचय है जिसको अर्थव्यवस्था के विकास में प्रभावशाली विनियोग के रूप में लाया जा सकता है । “
किसी देश के आर्थिक विकास में मानव संसाधनों को महत्वपूर्ण भूमिका होती है यद्यपि आर्थिक विकास में प्राकृतिक संसाधनों तथा पूँजी की मात्रा की भी भूमिका होती है । फिर भी ये आर्थिक विकास के निर्जीव साधन है ।
वास्तव में मानव ही वह शक्ति है जो इन संसाधनों को अपनी कार्यकुशलता तथा बौद्धिक क्षमता द्वारा वांछित दिशा में गतिशील कर इनका कुशलतम उपयोग करती है तथा विकास का मार्ग प्रशस्त करती है । कुछ विद्वानों की धारणा है कि आर्थिक विकास के लिए मानव संसाधन प्राकृतिक संसाधनों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
अत : जनसंख्या आर्थिक विकास को गतिशील बनाने में सहायक है । जनसंख्या वृद्धि प्रारम्भ में आर्थिक विकास पर अनुकूल प्रभाव डालती है । इससे श्रमशक्ति में वृद्धि होती है जिससे प्राकृतिक संसाधन का उचित विदोहन होने लगता है । देश के कुल उत्पादन एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है और देश आर्थिक विकास के पथ पर अग्रसर होता है । इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि संसाधन के रूप में विकास को प्रोत्साहित करती है । इस सम्बन्ध में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं
जनसंख्या श्रमशक्ति आपूर्ति का स्रोत आर्थिक विकास प्राकृतिक संसाधनों , पूँजी की मात्रा , तकनीकी ज्ञान तथ श्रमशक्ति पर निर्भर करता है । इसमें विकास के निर्धारक घटकों में श्रमशक्ति सबसे महत्त्वपूर्ण एवं सक्रिय घटक है । जनसंख्या को वृद्धि श्रमशक्ति को बढ़ाती है ।
विस्तृत बाजार जनसंख्या वृद्धि से उपभोक्ताओं की वृद्धि होती है जिससे वस्तुओं के लिए माँग पैदा होती है तथा इससे बाजारों का विस्तार होता है । इससे उत्पादन के स्वरूप में विविधता आती है ।
उत्पादन बढ़ने से रोजगार के अवसर एवं आय में वृद्धि होती है । इस तरह जनसंख्या से बाजार का विस्तार एवं आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलता है ।
मानव पूँजी निर्माण में सहायक जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप उपलब्ध अतिरिक्त श्रम शक्ति पूँजी निर्माण का एक सुलभ साधन माना जाता है । जब देश में उपलब्ध जनशक्ति के ज्ञान में
वृद्धि करके उसको कार्यकावं सुधार किया जाता है पंजों का निर्माण होता है ।
अन्तिम प्रभाव यह होता है कि देश व्यक्ति उत्पादन बढ़ता है और देश का आर्थिक विकास होता है ।
दक्षता एवं निपुणता को बढ़ावा देना मानव का स्वभाव है जो स्वयं जनसंख्या का परिणाम है इस नए ज्ञान की खोज व उसका विकास कर दक्षताएका वृद्धजनसंख्या सृजनात्मक मस्तिष्कों का सृजन करती है बढ़ावा मिलता है , नए ज्ञान का भण्डार बढ़ता है , फलस्वरूप राष्ट्रीय होने लगती है । इस तरह आर्थिक विकास में मानव एक एस रूप में कार्य करता है तथापि जनसंख्या की अधिकता से साका होता है । आवश्यकता इस बात की है कि जनसंख्या कम हो और अधिक ही हो । प्रगति के लिए लोगों का होना आवश्यक है । अतः जन सुधार के बिना किसी भी तरह की उन्नति सम्भव नहीं है ।
अर्थ मानवीय पूंजी निर्माण अथवा मानव विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत मानव शक्ति के विकास हेतु भारी मात्रा में विनियोग किया जाता है ताकि देश की जन शक्ति प्राविधिक ज्ञान , योग्यता एवं कुशलता की दृष्टि विशिष्टता प्राप्त कर सके । प्रो . हार्बिन्सन के अनुसार मानवीय पूंजी निर्माण से अभिप्राय ऐसे व्यक्तियों को उपलब्ध कराना और उनकी संख्या में वृद्धि करना जो कुशल शिक्षित व अनुभवपूर्ण हो , जिनकी देश की आर्थिक एवं राजनीतिक विकास के लिए नितांत आवश्यकता होती है । मानव पूजी निर्माण इस प्रकार मानव में नियोजन और उसके सृजनात्मक उत्पादन साधनों के रूप में संबद्ध है । ” मानव पूंजी शब्द का प्रयोग सकचित और विस्तृत दोनों ही अर्थों में किया जाता है । संकुचित अर्थ में मानव पूजी में विनियोजन का अर्थ शिक्षा एवं प्रशिक्षण पर व्यय करना है । जबकि व्यापक अर्थ में स्वास्थ्य , शिक्षा तथा सभी सामाजिक सेवाओं पर व्यय करने से लगाया जाता है । सरल शब्दों में मानव पूजी में किया गया ऐसा कोई भी विनियोग जो जन शक्ति की शिक्षा प्रशिक्षण , स्वास्थ्य व जीवन स्तर में वृद्धि करता हो , मानवीय पूंजी निर्माण का एक सक्रिय विनियोग माना जायेगा ।
मानवीय संसाधनों के विकास के आवश्यक तत्व
प्रो . शुल्ज ने मानवीय संसाधनों के विकास के लिए निम्नलिखित चार तरीकों का उल्लेख किया है :
( i ) ऐसी नियोजित स्वास्थ्य सुविधाएं , जिनमें वे सब व्यय सम्मिलित हों , जो लोगों की जीवन प्रत्याशा शक्ति और तेज तथा जीवन शक्ति को प्रभावित करते हैं .
( ii ) कार्यरत प्रशिक्षण , जिसमें फर्मों द्वारा संगठित पुराने ढंग की शिक्षुत शामिल हो ।
( iii ) प्रारंभिक , माध्यमिक एवं उच्चतर स्तरों पर औपचारिक रूप से संगठित शिक्षा
( iv ) वयस्कों के लिए अध्ययन प्रोग्राम जिन्हें फार्म संगठित न करें , विशेषरूप से कृषि संबंधी विस्तार प्रोग्राम शामिल हो ।
मानवीय पूंजी निर्माण का आर्थिक विकास में महत्व
मानव पूंजी में विनियोग की विचारणा हाल ही में विकसित हुई है । आर्थिक विकास की प्रक्रिया में भौतिक पूंजी के संचय को महत्त्व देना व्यावहारिक है । अब अधिकतर यह माना जाने लगा है कि व्यवहार में पूंजी स्टॉक की वृद्धि पर्याप्त सीमा तक मानव पूंजी निर्माण पर निर्भर रहती है जो कि देश के सब लोगों का ज्ञान , कुशलता व क्षमताएं बढ़ाने की प्रक्रिया है ।
” शुल्ज , हार्बिन्सन , मोसिज अब्रामोविट्ज , बैक्कर , डेनिसन , केण्ड्रिक मेरी बोमैन कुजनेट्स और अन्य अर्थशास्त्रियों के दल के अध्ययनों से स्पष्ट है कि अमरीकी अर्थव्यवस्था की दुत उत्तरदायी आवश्यक साधनों में से एक शिक्षा पर बढ़ते हुए सापेक्ष उद्व्यय है । मानव पूंजी का महत्व निम्नलिखित बिंदुओं से स्पष्ट हो जायेगा
आर्थिक विकास की क्रियाओं का संपादन वृद्धि के लिए संयोप में आर्थिक विकास की प्रक्रिया में मानवीय संसाधन निम्नलिखित कार्यों का संपादन करते हैं :
( i ) प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन
( II ) पूंजी जुटाना ,
( iii ) वस्तुओं की मांग प्रस्तुत करना और
( iv ) व्यापार प्रणाली को बढ़ावा देना ।
आर्थिक विकास की गति आर्थिक विकास की गति तेजी करे के लिए देश को प्रशिक्षण प्राप्त अध्यापकों , डॉक्टरों , इंजीनियरों अर्थशास्त्रियों प्रबंधकों कलाकारों , लेखकों , शिल्पकारों आदि की आवश्यकता होती है । ये सब मानवीय पूंजी के ही अंग है ।
उत्पादकता व कुशलता में वृद्धि देश के निवासियों की उत्पादकता और कुशलता में वृद्धि करने के लिए आवश्यक है कि उनकी शिक्षा प्रशिक्षण व स्वास्थ्य आदि पर विनियोग किया जाये ताकि मानवीय संसाधनों की किस्म में सुधार हो सके । वस्तुतः मानवीय संसाधनों की किस्म में सुधार हो सके । वस्तुतः मानवीय संसाधनों की कुशलता एवं दक्षता पर ही आर्थिक विकास का ढांचा खड़ा किया जा सकता है ।
लाभपूर्ण रोजगार अद्धविकसित देशों के सामने मानव शक्ति से समस्याएं हैं । उनमें उद्योग क्षेत्र के लिए आवश्यक क्रांतिक कुशलताओं का अभाव और श्रम शक्ति का अतिरेक होता है । अतिरक श्रम शक्ति का पाया जाना पर्याप्त सीमा तक क्रांतिक कुशलताओं की कमी के कारण होता है । इसलिए वे पृथक समस्याएं परस्पर संबद्ध है । मानव पूंजी निर्माण का लक्ष्य है उत्पादक साधन के रूप में मानव में आवश्यक दक्षता का निर्माण और उसे लाभपूर्ण रोजगार प्रदान करके इन समस्याओं को हल करना ।
श्रम शक्ति के दृष्टिकोण में परिवर्तन आर्थिक विकास की प्रक्रिया में श्रम शक्ति का सामाजिक व्यवहार भी महत्वपूर्ण होता है । क्योंकि जब तक श्रम शक्ति के दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं होगा आर्थिक विकास की प्रक्रिया शुरू नहीं हो सकती । कहा जाता है कि इस बुलडोजर जंगल को साफ कर सकता है लेकिन मानव शक्ति के परपरागत विचारों संबंधित दा भिन्नऔर कुंठाओं को नष्ट नहीं कर सकता । इस हेतु शिक्षा और प्रशिक्षण आवश्यक है , अतः परंपरागत समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया के लिए महत्त्वपूर्ण मानव पूंजी की बहुत बड़ी मात्राएं आवश्यक हैं । प्रो . अजित दास गुप्ता के इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ” शिक्षा को आवंटिक किये गये साधन उत्पादकीय क्षमता को बढ़ाने में सहायक होते हैं , अतः भविष्य में उत्पादन और उपभोग को बढ़ाते हैं । इसलिए शिक्षा या अन्य प्रकार के सामाजिक आधारिक संरचना निवेश सिद्धान्त के आवश्यक अंग हैं । “
औद्योगीकरण का आधार
अर्द्धविकसित देशों में औद्योगीकरण के अधार रखने के लिए भी मानव पूंजी निर्माण में विनियोग की आवश्यकता होती है जैसा कि प्रो . गॉलबेंध ने लक्ष्य किया है , ” अब हमें हमारी औद्योगिक वृद्धि का अधिक पूंजी के निवेश में नहीं बल्कि मनुष्यों में निवेश और परिष्कृत मनुष्यों द्वारा लाये गये सुधारों से प्राप्त होता है । ” उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आज के युग में मानव पूंजी में विनियोग अथवा मानव में विनियोग आर्थिक विकास की एक प्रमुख शर्त एवं पूर्व आवश्यकता बन चुकी है जब तक अद्धविकसित देश में उपलब्ध श्रम शक्ति का पूर्णरूपेण विकास नहीं होगा तब तक आर्थिक विकास रहेगा । “
आर्थिक विकास में मानव संसाधन अथवा जनसंख्या का योगदान
किसी देश के आर्थिक विकास में मानव संसाधनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । यद्यपि आर्थिक विकास में प्राकृतिक संसाधनों तथा पूंजी की मात्रा की विशेष महत्वपूर्ण भूमिका हो है फिर भी ये आर्थिक विकास के निर्जीव साधन है वास्तव में मानव ही वह शक्ति है जो इन संसाधनों को अपनी कार्यकुशलता है बौद्धिक क्षमता द्वारा वॉक्षित दिशा में गतिशील कर इनका कुशलतम उपयोग करती है तथा विकास का मार्ग प्रशस्त करती है कुछ विद्वानों की धारणा है कि आर्थिक विकास के लिए मानव संसाधन प्राकृतिक संसाधनों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
इस सम्बन्ध में निम्नलिखित विद्वानों के विचार उल्लेखनीय हार्बिन्सन एंव मायर्स के अनुसार , ” आधुनिक राष्ट्रों का निर्माण मनुष्यों के विकास एव मानवीय कियाओं के संगठन पर निर्भर करता है । निःसंदेह पूंजी प्राकृतिक संसाधन विदेशी सहायता और अन्तर्रराष्ट्रीय व्यापार आर्थिक विकास में अपनी भूमिका निभाते है , परन्तु इनमें से कोई इतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना मानव शक्ति है ।
” The building of moderm nations depends upon the development of people and the orgainisation of human activity Capital , natural resources , foreign ald the International trade of course play importatant role in economic growth but none is more Important than man power -Harbinson and Myres Education . Manpower and Economic Growth
प्रो ० हिपल ( Whipple ) के अनुसार एक राष्ट्र की वास्तविक सम्पत्ति उसकी भूमि , जल , वनों , खाना , पशु – पक्षियों अथवा डॉलरों में निहित होती है , बल्कि उस राष्ट्रके समृद्ध तथा प्रसन्नचित पुरुषा स्त्रियों एवं बच्चों में निहित है । ” परिणाम प्रो ० रिचर्ड टी ० गिल ( RT . Gill ) के अनुसार आर्थिक विकास एक यन्त्रीक प्रक्रिया नहीं है यह एक मानव उपक्रम है तथा अन्य समस्त मानवीय उपक्रमों की तरह है जिसका उन व्यक्तियों की योग्यता गुण एवं दृष्टिकोण पर निर्भर करता है जो इसे अपने हाथों लेते हैं । में में इस तरह , मानव संसाधन आर्थिक विकास के अन्य संसाधनों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है ।
आज आर्थिक विकास के नए – नए संसाधनों की खोज , गगनचुम्बी इमारतो व ” विशालकाय फैक्ट्रीयों का निर्माण पर्वत का दक्ष छेदन सागर एवं अन्तरिक्ष विजय बंगवती नदियों के जल को नियन्त्रित करने वाले बांध , पृथ्वी के गर्भ से निकली गयी खनिज सम्पदा आदि सब मानवीय प्रयासों एंव संकल्प शक्ति की देन है स्पष्टयता , जनसंख्या आर्थिक विकास को गतिशील बनाने में सहायक है ।
जनसख्यां वृद्धि प्रारम्भ में आर्थिक विकास पर अनुकूल प्रभाव डालती है । इससे श्रमशक्ति में वृद्धि होती है जिससे प्राकृतिक संसाधन का उचित विदोहन होने लगता है देश के कुल उत्पादन एंव प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है । और देश आर्थिक विकास के जनसख्या आर्थिक विकास में सहायक है । इस मत को व्यक्त करने s पथ पर अग्रसर होता है वालों में प्रमुख है- ( प्रो 0 प्रो . हेन्सर के में वृद्धि आर्थिक विकास एफ . पेनरोज एक पूर्व शर्त आदि ) है ।
प्रो 0 हर्षमैन के लगती में जाती है क हेन्सन , आर्थर लुईस , कोलिन क्लार्क तथा ई . अनुसार , ” जनसंख्या की अनुसार , ” जनसंख्या का दबाव आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करता है । ” किसी देश की समृद्धि में वहां की जनसंख्या सहायक होती है परन्तु इस तस्वीर का दूसरा रूख भी है । यदि जनसख्यां आर्थिक विकास का एक प्रभावी श्रोत है तो कुछ दशाओं में वह आर्थिक विकास के मार्ग में आने वाली बाधा भी है ।
जब जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ने है तो अर्थव्यस्था आर्थिक विकास के आदर्श अनुपात से दूर हट जाती है जिससे देश नय समस्याएं उत्पन्न हो तथा पूर्व छोटी- छोटी समस्याएंव वृहद् तथा जटिल हो जाती है इस तरह जनसंख्या आर्थिक विकास में सहायक तत्व के रूप में होने के सीन पर बाधक तत्व बन जाती है । रिचर्ड गिल के अनुसार ,
” जनसंख्या वृद्धि का उत्पादन तथा प्रति व्यक्ति आय पर अन्तिम प्रभाव धनात्मक ऋणात्मक अथवा तटस्थ होगा , यह इस बात पर निर्भर करेगा कि जनसख्या में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है । जिसके कारण देश में आश्रितों की संख्या बढ़ रही है तो इससे उत्पादक जनसंख्या की बजाय देश में उपभोगताओं की संख्या अधिक होगी और कुल मिलाकर प्रति व्यक्ति उत्पादन पर , ऋणात्मक प्रभाव पड़ेगा ।
इसके विपरीत यदि संख्या की आयु रचना अनुकूल है तो इसका आर्थिक विकास पर धनात्मक प्रभाव पड़ेगा । पुनः जनसंख्या वृद्धि का आर्थिक विकास पर प्रभाव इस बात पर भी निर्भर करता है कि देश में प्रोद्योगिक स्तर , विकास की अवस्था , पूंजी निर्माण की दर , जनशक्ति का स्वरूप , नवपरिवर्तन के लिए प्रेरणा और बाजार का स्वरूप क्या है । तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या आर्थिक विकास मार्ग एक प्रर्बल वाधा के रूप में खड़ी हो जाती है । राष्ट्रीय प्रो ० सिंगर के अनुसार , जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालती है , बचत की दर को कम करती है तथा विनियोजन की उत्पादकता को कम करती है ।
प्रो ० सिंगर यह मत व्यक्त करते है कि आर्थिक विकास तभी हो सकता है , जबकि उत्पाकता और जनसंख्या वृद्धि की दर जनसंख्या विकास की दर से अधिक हो । उन्होंने आर्थिक विकास की दर बचतों की दर विनियोग की उत्पादकता और जनसंख्या वृद्धि की दर के बीच के सम्बन्ध को व्यक्त करने के लिए अग्र समीकरण को प्रस्तुत किया है D – S . Pr उपर्युक्त समीकरण में , D आर्थिक विकास की बर S = P = शुद्ध बचतों की दर ( अथवा बचत आय अनुपात )
मानव संसाधन निर्माण का क्षेत्र प्रायः मानवीय संसाधनों में विनियोग का अर्थ शिक्षा प्रशिक्षण , स्वास्थ्य , उपयुक्त भोजन और उचित आवास की व्यवस्था आदि पर व्यय करने से लगाया जाता है । परंतु प्रो . टी . डब्ल्यू . शूल्ज का मत है कि सैद्धांतिक दृष्टि से कौशल निर्माण हेतु अथवा मानवीय क्षमताओं में सुधार हेतु मुख्य रूप से निम्न मदों पर व्यय / विनियोग करना अधिक आवश्यक समझा जाता है :
शिक्षा एवं प्रशिक्षण सुविधाएं
प्रो . रिचार्ड टी . गिल के मतानुसार शिक्षा पर किया गया विनियोग आर्थिक विकास की दृष्टिसे सर्वाधिक सार्थक विनियोग माना जायेगा ” इसी प्रकार के विचार प्रो . जन कैनेथ गैलब्रेथ द्वारा भी रखे गये हैं । उनकी दृष्टि में शिक्षा उपभोग एवं विनियोग दोनों ही हैं । भौतिक संपत्तियों के निर्माण में किये गये बिनियोजन की भांति शिक्षा व प्रशिक्षण भी एक प्रकार का विनियोग है । अमरीका के अर्थशास्त्रियों विचार है कि उनके देश में शिक्षा पर किये जाने वाले विनियोग पर वार्षिक प्रतिफल की दर लगभग 10 प्रतिशत है ।
जॉन कैनेथ गैलब्रेथ के अनुसार , ” संयुक्त राज्य अमरीका में अन्य लोगों के साथ साथ थियोडोर शुल्दज द्वारा किये गये अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो गयी है कि शिक्षा पर किये गये व्ययों से उत्पादन में बहुत वृद्धि हो सकती है । जिस प्रकार की गणना से कार्लाइल उसी के द्वारा उन्होंने यह दिखा दिया है कि मानवीय प्राणियों गये एक डालर या एक रूपये से प्रायः राष्ट्रीय आय में उसकी जितनी एक डालर या रूपये को रेलों , वाली पूजीगत वस्तुओं में लगाने से होती को सबसे अधिक घृणा थी , के बौद्धिक सुधार में अपेक्षा अधिक वृद्धि बांधों , मशीन के पुर्जों या अन्य स्पष्ट दिखाई पड़ने लगाये होती है , है ।
जब शिक्षा को इस रूप में देखा जाता है , तब वह एक प्रकार का अत्यधिक उत्पादनशील विनियोग बन जाती है । शिक्षा पर किस सीमा तक व्यय किया जाना चाहिए । इस संबंध में स्टोनियर एवं हेग का विचार है . ” राष्ट्रीय दृष्टिकोण से शिक्षा पर किया जाने वाला व्यय , चाहे वह स्कूल पर किया जाये या कॉलेज पर या विश्वविद्यालय पर किया जाये , उस समय तक बढ़ाया जाना चाहिए जब तक कि उस पर प्राप्त किया गया प्रतिफल अर्थव्यवस्था अन्यत्र लोगों से प्राप्त होने वाले प्रतिफल के बराबर न हो जाये ।
” शिक्षा पर विशुद्ध आर्थिक दृष्टिकोण से विचार करने पर हम निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि शैक्षणिक कार्यक्रम उसी आधार पर बनने चाहिए जिस आधार पर औद्योगिक योजनाएं बनायी जाती है । शिक्षा में किये जाने वाले विनियोग के संबंध में लागत एवं लाभ का एक युक्तिसंगत हिसाब लगाया जाना चाहिए । यह एक निश्चित उत्पादक विनियोग है ।
जर्मनी और जापान जैसे देशों का जो द्वितीय महायुद्ध में युद्ध के कारण बरबाद हो गये थे 5 या 10 वर्षों की अवधि में लगभग पुनर्निर्माण हुआ है । वहां पर भौतिक दृष्टि से पुनर्निमाण की प्रक्रिया आश्चर्यजनक गति से बढ़ी है । लेकिन यदि जर्मन और जापानी लोगों का संचित ज्ञान तथा चातुर्य किसी तरह से नष्ट कर दिया जाता तो पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में निःसंदेह कई सदियां लग जाती । भारत के संदर्भ में डॉ . राव ने लिखा है ,
” आज हमारे देश पर चरित्र सकट मंडरा रहा है और इसका मुकाबला हम केवल इस तरह की शिक्षा देकर कर सकते हैं , जो मानवता और चरित्र निर्माण की दिशा में प्रयुक्त हो । निःसंदेह अर्थव्यवस्था की अवस्थाएं पूरी करना शिक्षा का कर्तव्य है हमारे विश्वविद्यालयों में उन कौशलों और मनोवृत्तियों तथा अनुसंधान कार्यों को प्रश्रय दिया जाना चाहिए , जिनकी हमारी सुनियोजित अर्थव्यवस्था की आवश्यकता पूरी करने तथा आर्थिक वृद्धि की दी तीव्रतर करने के लिए आवश्यकता है ।
अतः आज के लिए योजनाकारी शिक्षाविदों , अध्यापको , माता – पिता और युवकों सभी को शिक्षा के नवीनतम दृष्टिकोण के प्रति सजग होने की आवश्यकता है । तभी सामाजिक और आर्थिक विकास सुचारू ओर समन्वित रूप से हो सकेगा । इस प्रकार शिक्षा के महत्त्व को विस्मृत नहीं किया जा सकता है ।
स्वास्थ्य , पोषण एवं आवास व्यवस्था मानव पूंजी निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार , पोष्टिक आहार की उपलब्धता तथा उचित आवास व्यवस्था हेतु उचित विनियोग किया जाना चाहिए । अतः शिक्षा , प्रशिक्षण , स्वास्थ्य सेवाओं , पोषण तथा आवास व्यवस्था पर व्यय मानवीय पूंजी निर्माण के क्षेत्रों में आते हैं । व्यक्तियों को स्वास्थ्य सुविधाओं संतुलित भोजन व उचित आवास प्राप्त होने से उनकी प्रत्याशित आयु और उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि होती है । औसत आयु बढ़ने से अर्थव्यवस्था पर बहुत लाभदायक प्रभाव पड़ता है जैसा कि निम्न विवरण से स्पष्ट होता है :
( i ) औसत आयु बढ़ने से एक व्यक्ति का कार्यकाल बढ़ जाता है , जिसमें राष्ट्रीय उत्पादन आयु में वह अधिक वृद्धि कर सकता है । उदाहरण के लिए भारतवर्ष में प्रत्याशित आयु 58 वर्ष है और अमरीका में 78 वर्ष है ।
अल्प औसत आयु के कारण नागरिकों के पालन – पोषण , शिक्षा तथा प्रशिक्षण आदि पर किये गये व्यय का पूरा प्रतिफल नहीं मिल पाता । अधिकांश नागरिक 60 वर्ष से पूर्व ही मर जाते हैं । अतः मनुष्यों पर लगाये गये धन का पूर्ण लाभ उठाने के लिए यह आवश्यक है कि जीवनकाल में वृद्धि हो ।
( iii ) राष्ट्रीय आय का बहुत बड़ा भाग ऐसे शिशुओं पर व्यय होता है , जो उत्पादक आयु में पहुंचने से पूर्व ही मौत के शिकार बन जाते है । अतः अल्प औसत आयु से बच्चों के पालन – पोषण के लिए किये गये प्रयत्न और विनियोजन की व्यर्थता सूचित करती है । प्रो . अल्फ्रेड बोने के अनुसार , “
आर्थिक दृष्टि से अर्द्धविकसित देशों में इन असंख्य युवा वर्ग भरण – पोषण और शैक्षणिक विकास में भौतिक – अभौतिक दोनों तरह के विनियोग की हानि होती है , जो अपने जीवन की परिपक्व अवस्था तक नहीं पहुंच पाती है । भले ही वहां पश्चिमी देशों की तुलना में प्रति व्यक्ति , शिक्षा , कपड़े तथा खाद्य पदार्थों में विनियोग कम हो , परंतु फिर भी कुल व्यय की हानि अत्यधिक है । एक जीविकोपार्जक पश्चिमी देशों में सरलता से अपने भरण – पोषण , प्रशिक्षण आदि की लागत समाज को चुका देता है , क्योंकि उसे अपने जीवन के उत्पादक वर्षों तक पहुंचने के अवसर रहते हैं औ इसलिए वह अपना योगदान 40 या अधिक वर्षों तक देता है । ‘
( iv ) अल्प औसत आयु के कारण देश में अनुभवी लोगों की कमी रहती है । उदाहरण के लिए . भारतवर्ष में औसत जीवन अवधि कम होने के कारण कार्यशील अनुभव सिद्ध बुजुर्गों , 55 से ऊपर का अनुपात 2001 में केवल 10 प्रतिशत था , जबकि अमरीका में यही अनुपात 18.0 प्रतिशत है ।
अर्द्धविकसित देशों में मानव पूंजी का स्तर निम्न होने के कारण
भारत जैसे अद्धविकसित देशों में मावन पूंजी का स्तर निम्न होता है । इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित है
. 1. विदेशी विनियम कोषों की कमी अर्द्धविकसित देशों में विदेशी विनियम कोषों की कमी होती है । फलस्वरूप ये देश विदेशी आयात करने में असमर्थ होते हैं और बिना विदेशी तकनीक के ज्ञान के उनका स्तर पर नहीं उठ पाता है ।
- मानव पूंजी निर्माण एक सतत लंबी प्रक्रिया : मानव पूंजी निर्माण एक सतत लंबी प्रक्रिया है तरी इसके सुखद परिणाम भी दीर्घकाल में प्राप्त होते हैं । अर्द्धविकसित देशों के पास संसाधनों का अभाव होता है । अतः वे भौतिक विकास जो कि शीघ्रगामी तथा परिस्थितिजन्य भी होते हैं , में अधिक ध्याय देते हैं फलतः मानव पूंजी निर्माण का स्तर निम्न बना रहता है ।
3.रूढ़िवादिताः अर्द्धविकसित देशों में व्याप्त रूढ़िवादी विचार तकनीकी ज्ञान को अपनाने व उसे लागू करने में बाधक सिद्ध होते हैं । परिणामतः मानव पूंजी निर्माण का स्तर निम्न बना रहता है ।
- इच्छा शक्ति का अभावः अर्द्धविकसित देशों में व्याप्त रूढ़िवादी विचार तकनीकी ज्ञान को अपनाने व उसे लागू करने मे बाचक सिद्ध होते हैं । परिणमतः मानव पूंजी निर्माण का स्तर निम्न बना रहता है ।
- कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था अर्द्धविकसित देशों की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान होती है तथा कृषि में नव – प्रवर्तन तथा तकनीकी के प्रयोग की संभावनाएं अपेक्षाकृत सीमित होती है ।
- मानवीय साधनों के आयोजन के अभाव मानवीय साधनों के उचित आयोजन के अभाव देश में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है । मानवीय साधनों की मांग तथा पूर्ति के मध्य कोई विशेष संतुलन स्थापित नहीं किया जा सकता है । इसके फलस्वरूप एक ओर तो श्रम शक्ति नष्ट हो रही है तथा दूसरी ओर श्रम का उत्पादन में योगदान कम होता हा रहा है ।
- क्षेत्रीय विषमताएं : जीवन प्रमाण में सुधार के लिए जिन सेवाओं को उपलब्ध करवाया गया है वे देश के विभिन्न क्षेत्रों में असंतुलित रूप से वितरित हैं । ये विषमताएं ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में विशेष रूप देखने का मिलती हैं । शिक्षा , स्वास्थ्य आदि की विभिन्न सेवाएं शहरी क्षेत्रों में ही उपलब्ध हैं । ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी घोर कमी है ।
- निम्न उत्पादकता : जीवन प्रमाण में सुधार के लिए जो विनियोग किया जाता है इसके बदले में तत्काल ही आय प्राप्त नहीं होती , बल्कि इस प्रकार के लाभों को प्रत्यक्ष रूप से नहीं मापा जा सकता है । अतः इस तरह के विनियोग को अनुत्पादक विनियोग समझा जाता है और निजी उपक्रमी इस क्षेत्र मे विनियोग करने के लिए प्रेरित नहीं होता ।
9 निजी क्षेत्र की उदासीनताः मानवीय साधनों में निवेश का फल काफी समय बाद प्राप्त होता है । इसीलिए निजी क्षेत्र इसके विकास में कोई रूचि नहीं लेता । इसका सारा भार सरकार को ही सभालना पड़ता है । सरकार के साधन सीमित होते हैं । अतएव मानवीय साधनों के विकास पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता है ।
- जनसंख्या में वृद्धि भारत में जनसंख्या की वृद्धि बड़ी तीव्र गति से हो रही है तथा जनसंख्या पहले से ही बीत अधिक है । इतनी अधिक जनसंख्या के विकास के लिए बहुत अधिक साधनों की आवश्यकता होती है । भारत जैसे निवन देश के लिए इतने साधनों की व्यवस्था करना संभव नहीं है ।
मानव संसाधन निर्माण अथवा शिक्षा की कसौटियां
मानव पूंजी निर्माण में और विशिष्ट रूप से शिक्षा में निवेश की उत्पादकता का आगमन एक बहुत पेचीदा समस्या है । अर्थशास्त्रियों ने इसके लिए निम्नलिखित मापदंड अथवा कसौटियां प्रस्तुत की है
प्रतिफल की दर की कसौटी विनियोग के रूप में शिक्षा के दो अंश है प्रथम , भावी उपभोग अंश , द्वितीय , भावी अर्जन अंश । कुशलता तथा ज्ञान में विनियोग भावी आयों या अर्जनों को बढ़ाता है जबकि शिक्षा से प्राप्त संतुष्टि उपभोग अश है । चूंकि उपयोग अंश के रूप में शिक्षा राष्ट्रीय आय के योग में सम्मिलित प्रतिफल का आगणन करते समय केवल इसके भावी अर्जन अंश पर ही ध्यान देना चाहिए हाती शिक्षा में विनियोजन के इसके लिए एक विधि यह कि एक जैसे पथों में लगे ऊथी शिक्षा प्राप्त लोगों की औसत शहरी पुरूष सन् जीवन कालिक कमाई की तुलना कम शिक्षा प्राप्त लोगों की औसत जीवन कालिक कमाई से की जाती है ।
उदाहरण के लिए , बैक्कर ने हिसाब लगाया था कि एक गोरे के लिए संयुक्त राज्य अमरीका में कॉलिज शिक्षा पर विनियोग के प्रतिफल की दर 1940 में 125 प्रतिशत और 1950 में 10 प्रतिशत थी । परंतु कर काट लेने के बाद सन 1940 और 1950 में वह 9 प्रतिशत थी । इस आगणन में विद्यार्थी पर पड़ने वाली प्रत्यक्ष लागत , अध्ययन काल में परिव्यक्त कमाई और कॉलिज की लागत का अंश शामिल थे । सीमाएं इस मापदंड की निम्नलिखित सीमाएं व कठिनाइयां
( i ) बाह्य मितव्ययिताएं इस विधि के अंतर्गत केवल प्रत्यक्ष भौतिक मौदिक लाभों को ही मापा जाता है जबकि शिक्षा की बाह्य मितव्ययिताओं जैसे- शिक्षा के स्तर में सुधार के फलस्वरूप देश को प्राप्त होने वाला प्रत्यक्ष एवं परोक्ष लाभ की गणना नहीं हो पाती है ।
( ii ) व्यक्तिगत गुण मनुष्य की अर्जन शक्ति पर केवल उसकी शिक्षा की डिग्रियों का ही नहीं बल्कि उसके कार्य प्रशिक्षण योग्यता , अनुभव , पारिवारिक संबंधों का भी प्रभाव पड़ता है ।
( iii ) सामूहिक प्रयत्न यह मापदंड विधि वर्गों के सामूहिक प्रयत्नों का सही आगणन नहीं कर पाता है ।
( iv ) अर्थव्यवस्था उत्पादन क्षमता कौशल निर्माण हेतु किए गये विनियोजन के कारण संबद्ध व्यक्तियों की आय ही नहीं बढ़ती बल्कि इससे कार्य व्यवस्था की कुल उत्पादन क्षमता में भी वृद्धि होती है जिसका इस मापदंड में ध्यान नहीं दिया गया ।
( v ) शिक्षा का स्वरूपः मापदंड में इस बात का स्पष्ट नहीं किया गया है कि आर्थिक विकास के लिए कितनी और किस प्रकार शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है ।
सकल राष्ट्रीय आय की शिक्षा के योगदान की कसौटी
इस कसौटी के अनुसार शिक्षा में विनियोजन करने पर निश्चित अवधि में सकल राष्ट्रीय आय में जितनी वृद्धि होती है उसका आगणन कर लिया जाता है । प्रो . सकार पोलस शिक्षा की योग्यता को ज्ञान करने के लिए निम्न सूत्र का प्रयोग करते हैं :
( 1 ) प्रतिफल की सामाजिक दर अपक्षय ( स्थिर वार्षिक अर्जन भिन्नता ) दो वर्ष अवसर लागत रेकरेंट लागत वार्षिक पूंजी लागत 21 प्रतिशत ( ii ) प्रतिफल की व्यक्तिगत दर अक्षय ( स्थिर वार्षिक अर्जन भिन्नता कर भिन्नता ) दो वर्ष ( अक्सर लागत सौंधी लागत ) – 50 प्रतिशत प्रो . शुल्ज ने सन् 11000 से 1956 तक की अवधि में अमेरिका की राष्ट्रीय आय में वृद्धि में शिक्षा के योगदान का विश्लेषण किया और निष्कर्ष पर पहुंचा कि शिक्षा को आवंटिक • संसाधन डालरों में उपभोक्त आय की सापेक्षता में और डालरों में भौति पूंजी के सकल निर्माण की सापेक्षता में 3.5 गुणा बढ़े ।
दूसरे शब्दों में भौतिक पूंजी में निवेश की अपेक्षा शिक्षा में निवेश ने 3.5 गुणा अधिक योगदान दिया । भारत में इस मापदंड का प्रयोग प्रो . पंचमुखी द्वारा शिक्षा में लागत लाभ विश्लेषण की दृष्टि से किया जा चुका है । गुणः
( i ) शिक्षा पर प्रतिफलों के अनुमानों की अपेक्षा इस मापदंड के अनुमान अधिक वास्तविक है , क्योंकि ये अर्थव्यवस्था पर शिक्षागत निवेश पर पड़ने वाले प्रभावों का भी मापन करते हैं ।
( ii ) यह अनुमान शिक्षा की अवसर लागत पर आधारित है , अर्थात् इसमें विद्याध्ययन के दौरान , यानी विद्यार्थी जीवन में परितयक्त आय और शिक्षा पर किए गये व्यय दोनों का हिसाब लगाया जा सकता है । अवगुण :
( i ) इस कसौटी की संबंधित है परित्यक्त आय की सबसे बड़ी समस्या परित्यक्त आय की गणना करने से गणना लगाना कठिन है । क्योंकि
( अ ) अर्द्धविकसित देशों में गंभीर बेरोजगारी पाई जाती है । ऐसी परिस्थिति में परित्यक्त कमाई का आकलन मनमाना या स्वैच्छिक होगा क्योंकि श्रम की बढ़ रही पूर्ति वास्तविक आय को घटा देती है ।
( ब ) अर्द्धविकसित देशों में अधिकांश युवकों को स्कूल की शिक्षा नहीं मिलती । पर वे परिवार के व्यवसायों में धन अर्जित करते हैं । ऐसे युवकों की परित्यक्त आय को हिसाब लगाना कठिन है । इस कसौटी में स्कूली शिक्षा की सामाजिक लागतों को ध्यान में नहीं रखा गया है । उपर्युक्त कठिनाइयों के कारण ही बेलोग ने कहा है , शिक्षा की लाभदायकता के संबंध में किये गये आंकलन तकनीकी व आर्थिक रूप से न केवल त्रुटिपूर्ण हैं , बल्कि राजनैतिक तौर से अनैतिक भी हैं ।
अवशेष साधन कसौटी
कुजनेट्स , कंद्रिक , ग्रिलिचिज , जार्गेन्सन , सोजो तथा अन्य अर्थशास्त्रियों ने यह मापने का प्रयास किया है कि समय की एक अवधि के दौरान सकल राष्ट्रीय उत्पाद ( GNP ) में वृद्धि का ( अ ) कितना अनुपात पूंजी तथा श्रम की माप योग्य आगतों के योगदान द्वारा हो सकता है । तथा ( ब ) GNP में वृद्धि का कितना अनुपात अन्य साधनों ( जिनकी अवशेष में रखा जाता है ) के योगदान द्वारा हो सकता है । अवशेष साधन प्रमुख रूप से हैं शिक्षा अनुसंधान प्रशिक्षण , पैमाने की बचते तथा मानों उतपादकता को प्रभावित करने वाले अन्य घटक प्रो . डेनिसन ने सन् 1929-57 के बीच अमेरिका में इस संबंध में अनुमान लगाया जिसके अनुसार कुल वास्तविक राष्ट्रीय आय की वृद्धि में शिक्षा का योगदान 23 प्रतिशत था । शिक्षा के अतिरिक्त जहां तक अन्य अवशेष साधन के योगदान की बात थी डेनिस ने इसे राष्ट्रीय आय के कुल वृद्धि – 31 प्रतिशत के लिए उत्तरदायी माना इसमें 20 प्रतिशत ज्ञान के उम्पत प्रभाव के कारण और 11 प्रतिशत बाजारों की वृद्धि दर के परिणामस्वरूप माने की बचतों के कारण था । इसके विपरीत सोलो सन् 1909-49 की अवधि के दौरान अपने संयुक्त अपने संयुक्त राज्य अमेरिका के अध्ययन में 90 प्रतिशत प्रति व्यक्ति उत्पादन की औसत वृद्धि दर को अवशेष साधन का योगदान मानता है जो तकनीकी परिवर्तन के सामान्य शीर्षक में आता है । अवगुण अवशेष साधन कटौती में निम्नलिखित कमिया है .
( i ) अवशेष साधन एक बहुत विस्तृत शब्द है जिसमें शिक्षा अनुसंधान प्रशिक्षण पैमाने की बचते आदि को सम्मिलित किया गया है । फलत यह कसौटी अत्यंत जटिल है ।
( ii ) यह कसौटी व्यावहारिक तथा अव्यावहारिक शिक्षा तथा शिक्षा की गुणवत्ता या विषय वस्तु में कोई भेद नहीं करती है ।
( iii ) यह कसौटी पैमाने की स्थिर प्रतिफल नियम पर आधारित है । जबकि एक विकासशील देश में बढ़ते प्रतिफल पाये जाते हैं ।
( iv ) अवशेष कसौटी में पूंजी का आर्थिक विकास में योगदान कम आंका गया है । क्योंकि यदि ज्ञान की उन्नति में लगाये गये साधनों को विनियोग के अंतर्गत गिन लिया जाये और इस प्रकार के विनियोग को पूंजी स्टॉक की परिभाषा के अंतर्गत सम्मिलित कर दिया जाये , तो आर्थिक विकास वृद्धि दर का अधिक भाग पूंजी स्टॉक की वृद्धि का योगदान माना जायेगा और ज्ञान , कौशल , प्रशिक्षण आदि में वृद्धि के अवशेष वर्ग में कम योगदान रह जायेगा ।
( v ) सन् 1945-65 के लिए अमेरिका का अर्थव्यवस्था के अध्ययन में जार्गेन्सन तथा ग्रिलिचिज ने पाया कि पूंजी , श्रम , कीमतों आदि के लिए समूहन की अशुद्धियों को ठीक कर देने के बाद वास्तव में कोई अवशेष रहता ही नहीं , जिसकी व्याख्या आपेक्षित हो । इस अशुद्धियों के लिए समायोजन कर लेने के बाद अवशेष का योगदान घटकर 0.1 प्रतिशत प्रतिवर्ष रह जाता है ।
सम्मिश्र सूचकांक कसौटी
हार्बिसन तथा मायराज ने कुछ मानों स्त्रोतों के सूचकों के आधार पर सम्मिश्र सूचकांक कसौटी विकसित किया है । सम्मिश्र सूचकांक को 75 देशों को श्रेणीबद्ध करके तथा उनको मानों शोध विकास करके मानों शोध विकास के चार स्तरों का समूह बना कर प्रयुक्त किया जाता है । ये चार समूह ह : अर्द्धविकसित , आंशिक विकसित अल्प उन्नत तथा उन्नत । इसके उपरांत उन्होंने इस सूचकों तथा आर्थिक विकास के सूचकों के संबंधों का अध्ययन करने का प्रयास किया है हार्बिसन तथा मायरज ने मानव शोध विकासों की निम्नलिखित प्रकार से वर्णित किया है :
( i ) प्रति 10,000 जनसंख्या पर प्रथम तथा द्वितीय स्तर के शिक्षकों की संख्या
( ii ) प्रति 10,000 जनसंख्या पर चिकित्सकों तथा दंत चिकित्सकों की संख्या ।
( iii ) प्रति 10,000 जनसंख्या पर इंजीनियरों तथा वैज्ञानिकों की संख्या
( iv ) समायोजित प्रथम तथा द्वितीय स्तरों के संयुक्त पाठशाला में दाखिल विद्यार्थियों का अनुपात ।
( v ) 5 वर्ष से 14 वर्ष आयु वर्ग की अनुमानित जनसंख्या की प्रतिशतता पर प्रथम ( प्राथमिक ) शिक्षा स्तर पर दाखिल विद्यार्थियों की संख्या
( vi ) 20 से 24 वर्ष आयु वर्ग की अनुमानित जनसंख्या की प्रतिशतता पर तृतीय ( उच्चतर ) शिक्षा स्तर पर दाखिल विद्यार्थियों की संख्या ।
( vii ) 15 से 19 वर्ष आयु वर्ग की अनुमानित जनसंख्या की प्रतिशतता पर द्वितीय ( माध्यमिक ) स्तर पर दाखिल विद्यार्थियों की वह संख्या जिसे पाठशाला काल पर समायोजित किया गया है ।
( viii ) एक वर्तमान वर्ष में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा संकायों में दाखिल विद्यार्थियों की प्रतिशतता
( ix ) उसी वर्ष मानविकी , ललित कला एवं विधि संकायों में दाखिल विद्यार्थियों की प्रतिशतता ।
साख्यिकी विश्लेषण के लिए वे आर्थिक विकास के इन सूचकों को लेते हैं .
( अ ) यू . एस . डॉलर में सकल राष्ट्रीय उत्पादन प्रति व्यक्ति तथा
( ब ) कृषि कार्यों में संलग्न सक्रिय
जनसंख्या के प्रतिशतता ।
इसके अतिरिक्त उन्होंने दो और सूचकों को काम में लिया है :
( क ) राष्ट्रीय आय की प्रतिशतता का शिक्षा पर लोक व्यय तथा
( ख ) 5 से 14 तक कुल जनसंख्या की प्रतिशतता । आयु वर्ग हार्बिसन तथा मायरज का अध्ययन शिक्षा के सभी स्तरों पर नामांकित अनुपात और GNP के बीच एक निकट संबंध को दर्शाता है । सर्वाधिक सहसंबंध गुणांक है । यू . एस . डॉलर में GNP प्रति व्यक्ति तथा मानव स्त्रोत विकास के सम्मिश्र सूचकांक जो कि प्रथम द्वितीय स्तर नामांकित संख्या का अनुपात है , के बीच पाया गया है ।
गुण और अवगुण इस कसौटी के प्रमुख गुण हैं :
( अ ) यह अर्द्धविकसित देशों में आर्थिक विकास से संबंधित शिक्षा नीति के निर्धारण के लिए सम्मिश्र सूचकांक विभिन्न स्तरों की शिक्षा के योगदान को मापने की एक लाभप्रद कसौटी है साथ ही
( ब ) यह आर्थिक विकास सूचकों और मानव शोध विकास सूचकों की मात्रा संबद्धता को व्यक्त करती है । इस कसौटी का मुख्य दोष यह है कि ये केवल परिमाणात्मक संबंधों को व्यक्त करती है और गुणात्मक संबंधों की उपेक्षा करती है । इसके अतिरिक्त सम्मिश्र सूचकांक अन्य घटकों के प्रभवों को व्यक्त करने में भी असमर्थ है जैसे कि विपुल प्राकृतिक स्त्रोत या जनसंख्या स्तर जो कि उच्चतर GNP प्रति व्यक्ति की ओर ले जाता है आदि को प्रकट नहीं करते ।
अर्द्धविकसित देशों में मानव संसाधन निर्माण के उपाय
अद्धविकसित देशों में मानव पूंजी निर्माण के लिए विशेष ध्यान नहीं दिया गया है जिसके कारण यहां मानवीय संसाधन अधिक होते हुए भी मानव पूंजी अच्छी किस्म की नहीं है । मानव पूंजी निर्माण के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं . 24.8.1 शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन शिक्षा प्रणाली में मूलभूत सुधार व परिवर्तन करके ही हम अर्द्धविकसित देशों में मानव पूंजी निर्माण को प्रोत्साहित कर सकते है । एक ओर तो हमें अर्द्धविकसित देशों में साक्षरता कार्यक्रम सक्रिय करके निरक्षरता को दूर करना चाहिए और उच्च शिक्षा केवल उन्हीं व्यक्तियों को दी जानी चाहिए जो इसके योग्य हो । कारण यह है कॉलेजों , महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में स्नातक तथा स्नातकोत्तर शिक्षा प्रदान करने से मानव पूंजी निर्माण नहीं होता । बल्कि वे शिक्षित बेरोजगारी को बढ़ते हैं । में काफी जिससे युवकों असंतोष होता है ।
तकनीकी शिक्षा पर जोर
म जाना अधिक होती व्यापार तकनीकी प्रगति तथा प्रशिक्षण की सुविधा आर्थिक विकास का महत्त्वपूर्ण निर्धारण है क्योंकि तकनीकी प्रगति तथा प्रशिक्षण की सुविधा स्वयं उच्च शिक्षा तथा प्रशिक्षित जन शक्ति की उपलब्धता पर निर्भर होता है । अतः अर्द्धविकसित देशों में तकनीकी शिक्षा पर जोर दिया व्यवसायों में शिक्षित व्यक्तियों के रूप में मानव पूंजी की आवश्यकता इसलिए चाहिए । अर्द्धविकसित देशों में विभिन्न है क्योंकि वे व्यक्ति जटिल तरीके तथा उपकरण हैं । उदाहरणार्थ , उद्यमियों , प्रबंधको प्रशासको वैज्ञानिकों , इंजीनियरों , डॉक्टर आदि की जरूरत पड़ती है । वस्तुतः उर्द्धविकसित देशों में तकनीकी शिक्षा को अनिवार्य कर देना चाहिए ।
अनिवार्य शिक्षा :
अर्द्धविकसित देशों में अधिकांश जनसंख्या निरक्षर होती है इसलिए जहां तक संभव हो इन देशों में सभी व्यक्तियों के लिए स्कूल तक शिक्षा अनिवार्य कर देना चाहिए । अफ्रीका , दक्षिण अफ्रीका व एशिया के अधिकांश देशों में प्राथमिक शिक्षा को बहुत अधिक प्राथमिकता दी गयी तथा प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क व अनिवार्य है । परंतु माध्यमिक शिक्षा को कम प्राथमिकता दी जाती है जो उपयुक्त नहीं है । अनुभव यह बताता है कि माध्यमिक शिक्षा प्राप्त लाग ही वह प्रांतिक कुशलता प्रदान करते हैं , जो विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है । माध्यमिक शिक्षा के महत्त्व पर बल देते हुए प्रोफेसर लुईस माध्यमिक शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्था के अधिकारी तथा अनायुक्त अधिकारी मानता है ।
प्रौढ़ शिक्षा
अविकसित देशों में आर्थिक विकास की योजनाओं का सफल क्रियान्वयन में एक बहुत बड़ी रुकावट प्रौढ़ों का अशिक्षित होना है । इसलिए अशिक्षिता के कारण वे नयी योजनाओं का महत्त्व नहीं समझ पाते है फलतः उनके क्रियान्वयन में गतिरोध उत्पन्न करते हैं । ऐसे देशों में प्रोढ़ शिक्षा कार्यक्रमों का सर्वथा अभाव है , अतः आवश्यकता इस बात की है कि प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों को प्रोत्साहित किया जाये क्योंकि प्रौढ़ शिक्षा कृषकों का दृष्टिकोण बदलने में सहायक है , उनकी निर्णयकारी कुशलता बढ़ाती है और यह आधुनिक कृषि प्रथाओं के संबंध में उन्हें आवश्यक जानकारी कराती है । अधिक परिणामों के लिए प्रौढ़ शिक्षा का समस्त प्रोग्राम कृषि अनुसंधान केंद्रों तथा प्रयोगशालाओं से जोड़ देना चाहिए ।
प्रशिक्षण का विकास
शिक्षा के साथ साथ प्रशिक्षण भी मानव पूंजी के निर्माण के लिए आवश्यक है क्योंकि प्रशिक्षण द्वारा व्यक्ति की योग्यता , कुशलता एवं निपुणता में ही वृद्धि नहीं होती बल्कि उनमें आत्मनिर्भरता , आदर और आत्मगौरव बढ़ा कर उन्हें जीवन के संबंध में एक व्यापक दृष्टिकोण भी प्रदान करता है । यहीं कारण है कि आजकल प्रशिक्षण तथा लगभग सभी एवं विकास कार्यक्रम पर किया गया व्यय एक निवेश समझा जाता विकसित संस्थाओं में श्रमिकों तथा प्रबंधकों के लिए नाना प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं । जैसे अप्रेन्टिसशिप तथा रिफ्रेशर कोर्स पुनः प्रशिक्षण , सेल्समैन ट्रेनिंग प्रोग्राम , मैनेजमेट प्रोग्राम , इत्यादि । विकास का आधार स्वास्थ्य ही है । के साथ ही साथ इस बात का भी
स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार
अर्द्धविकसित देशों में मानव पूंजी निर्माण के लिए । आवश्यक है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिक विनियोग किया जाये क्योंकि मानव की सर्वागीण उन्नति तथा स्वास्थ्य जनता की कार्यक्षमता और शक्ति के मापदंड संकेतक है कि व्यक्ति कितने समय तक निर्माण कार्य में संलग्न राष्ट्रीय उन्नति में प्रवृत्त रह सकता है । रूग्ण व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता । ” बीमारियां किसी समुदाय के हृष्ट – पुष्ट और शक्तिवान लोगों को मार कर और काम करने वालों की संख्या में न काम करने वालों को अधिक बढ़ा कर विनाश कर सकती है । दूसरे , यदि बीमारों के प्राण नहीं लेतीं , तो उन्हें आशक्त कर देती हैं और इस प्रकार श्रमिकों की संख्या ही में कमी नहीं , वरन् श्रम की शक्ति में भी कमी कर देती हैं । “
अर्द्धविकसित देशों में स्वास्थ्य स्तर को बढ़ाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते
( i ) जन स्वास्थ्य सेवाओं व सुविधाओं का विकास व विस्तार करना चाहिए ।
( ii ) चिकित्सा विज्ञान को उन्नत बनाने के साथ ही साथ चिकित्सा सुविधाओं का भी तीव्र विस्तार किया जाना चाहिए ।
( iii ) सरकार को कृत – संकल्प हो कर निर्धनता का उन्मूलन करने का प्रयास करना चाहिए , ताकि लोगों की आय तथा जीवन स्तर में सुधार हो सकें ।
( iv ) देश में पोष्टिक खाद्यान्नों में तेजी से वृद्धि करके उनका समुचित वितरण किया जाना चाहिए ।
( v ) मादक व नुकसानदायक वस्तुओं के उपभोग व उत्पादन दोनों पर रोक लगायी जानी चाहिए ।
( vi ) स्वास्थ्य शिक्षा को पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर इसे अनिवार्य विषय के रूप में प्राथमिक स्तर से उच्च स्तर तक पढ़ाये जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए ।
( vii ) महिलाओं को स्वास्थ्य शिक्षा , पोषण , प्रसूति व आहार संबंधी शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए . साथ ही इन विषयों के प्रति उनमें जागरूकता भी उत्पन्न करनी चाहिए ।
मानव पूंजी संबंधी नीति का निर्धारण
मानव पूंजी से संबंधित नीति का निर्धारण करते समय महत्त्वपूर्ण कदम यह ज्ञात करना होता है कि मानव पूंजी तथा इसकी विभिन्न मदों पर विनियोग के फलस्वरूप कितनी प्रत्याय अथवा प्रतिफल प्राप्त हुए हैं । इस तथ्य को ज्ञात कर लेने के पश्चात् ही मानवीय पूंजी विनियोग के प्रतिफलों की तुलना भौतिक पूंजी के प्रत्याय या प्रतिफल से करके इस बात का निर्णय लेना होता है कि मानव पूंजी पर वस्तुतः कितना व्यय किया जाये ।
इसके अलावा मानव पूंजी में विनियोजित कुल राशि में से उसकी कितनी कितनी मात्रा विभिन्न मदों , यथा- प्रारंभिक , माध्यमिक तथा उच्चतर शिक्षा तकनीकी ज्ञान , चिकित्सकीय शिक्षा तथा स्वास्थ्य आदि पर खर्च की जाये , इस तथ्य को ज्ञात करने के लिए लागत लाभ अनुमान करना होता है किंतु यह अनुमान व्यावहारिक दृष्टि से काफी जटिल प्रकृति जिसका कारण यह है कि मानव पूंजी के लाभ न केवल दृश्य एवं प्रत्यक्ष होते हैं अपितु अदृश्य एवं परोक्ष भी होते है । जिनका अनुमान काफी कठिन होता है ।
मानव पूंजी पर विनियोग के संबंध में विभिन्न विद्वानों द्वारा अलग अलग विचारधाराएं प्रस्तुत की गयी हैं किंतु अल्प विकसित देशों विशेषकर भारतीय परिस्थितियों हेतु डेविड ओवेन्स की विचारधारा अधिक प्रासंगिक प्रतीत होती है । इस संबंध में डेविड ओवेन्स का मत यह है कि
1 कृषि , डॉक्टरी व तकनीकी शिक्षा परिवार नियोजन आदि पर हुए व्यय प्रतिफल या प्रत्याय की दृष्टि से उचित हैं किंतु
2 स्नातक स्तर के नीचे तक की कला की शिक्षा पर होने वाले व्यय सतुचित नहीं हैं । फलतः प्रथम प्रकार के व्ययों को और अधिक बढ़ाना श्रेयस्कर होगा तथा दूसरे प्रकार के व्ययों में कमी लानी होगी ।
अपने दृष्टिकोण को और प्रवर्तित करते हुए ओवेन्स ने यह भी कहा है कि शिक्षित व्यक्तियों को ऐसे क्षेत्रों तक कार्यों में लगाया जाना चाहिए जहां उनकी सेवाएं आर्थिक विकास को अधिकतम योगदान दे सके । भारतीय संदर्भ में इस दृष्टिकोण के पालनार्थ यहां के शिक्षित लोगों को देश के सुदूर ग्रामीण अंचल में काम करने के लिए प्रोत्साहित करना समीचीन होगा । में
राष्ट्रीय मानव विकास रिपोर्ट के सूचक
( 1 ) 1 वर्ष की आयु पर जीवन प्रत्याशा ( ii ) शिशु मृत्यु दर बलिंग साक्षरता दर , नामांकन शौतिक उपलब्धि अनुपात के साथ जोड़ कर ( III ) 7 वर्ष और अधिक आयु में साक्षरता दर ( iv ) औपचारिक शिक्षा की गहनता ( v ) रुपये वास्तविक अकल देशीय आर्थिक उपलि उत्पाद प्रति व्यक्ति यशक्ति समता के आधार पर ० एस ० डलर ) प्रति व्यक्ति वास्तविक उपभोग जिनका समायोजन असमानता के साथ किया गया है ।
निष्कर्षस्वरूप यह कहा जा सकता है कि वास्तव में मानवीय पूंजी पर किये जाने वाले विनियोगों को भी भौतिक पूंजी में विनियोग के फलस्वरूप प्राप्त प्रतिफलों की तरह आंकलित करना होगा तथा इन्हीं प्रतिफलों को आधार मान कर मानवीय पूंजी परकल विनियोग तथा इसके अंतर्गत आने वाले विभिन्न विनियोग मदों की प्राथमिकताएं निर्धारित करनी होंगी ।
ऐसा करने पर ही किसी भी देश की मानव पूंजी संबंधी सफल नीति का निर्माण संभव हो सकेगां सूचकांक प्रस्तुत किए गए हैं । ये आंकड़े 1981 1991 और 2001 से सम्बन्धित हैं । आंकड़ों की सभी राज्यों के लिए अनुपलब्धि के कारण मानव विकास सूचक केवल 15 मुख्य राज्यों के लिए परिकलित किए गए हैं ।
चाहे राष्ट्रीय मानव विकास रिपोर्ट मोटे तौर पर उन्हीं आयामों का इस्तेमाल करती है , जो यू ० एन ० डी ० पी ० की मानव विकास रिपोर्ट में प्रयुक्त किए गए हैं अर्थात् जीवन – प्रत्याशा , शौक्षिक उपलब्धि और आर्थिक उपलब्धि , फिर भी इसमें यू ० एन ० डी ० पी सूचकों में थोड़ा परिवर्तन किया गया है ।
राष्ट्रीय मानव विकास रिपोर्ट में संग्रथित मानव विकास सूचकांक के परिकलन के लिए विभिन्न सूचकों को महत्व प्रदान किए हैं । उदाहरणार्थ , स्वास्थ्य सूचक के लिए जीवन- प्रत्याशा को 65 प्रतिशत महत्व दिया गया है जबकि शिशु मृत्यु दर को केवल 35 प्रतिशत इसी प्रकार , शैक्षिक उपलब्धि का संगथित सूचकांक तैयार करने के लिए साक्षरता दर को 35 प्रतिशत महत्व और औपचारिक शिक्षा की गहनता के सूचक को 65 प्रतिशत महत्व दिया गया है और इसके लिए कक्षा 1 से 12 तक उत्तरोत्तर कक्षाओं में नामांकन को आधार बनाया गया है ।
आर्थिक उपलब्धि के सूचकांक के लिए प्रति व्यक्ति उपभोग को स्फीति से समायोजित किया गया है , ताकि प्रति व्यक्ति उपभोग के आधार पर अन्तः कालिक और अन्तः राज्यीय तुलना की जा सके । यू ० एन ० डी ० पी ० की कार्यविधि की भांति राष्ट्रीय मानव विकास सूचकांक के परिकलन में इन तीनों सूचकों अर्थात् जीवन प्रत्याशा , शौक्षिक उपलब्धि और आर्थिक विकास को समान महत्व प्रदान किया गया है । विभिन्न सूचकों का परिकलन करने के लिए राष्ट्रीय मानव विकास रिपोर्ट के अनुपात मानदण्ड निर्धारित किए हैं .