भीड़ व्यवहार – उत्तेजित भीड़ ( Mob )
भीड़ शब्द का प्रयोग सामान्य व्यक्तियों तथा समाज वैज्ञानिकों द्वारा विभिन्न रूपों में किया गया है । बाजार में , सड़क पर अथवा मैदान में एकत्रित व्यक्तियों को भीड़ नाम से अभिहित किया जाता है ।
भीड़ शब्द को और अधिक सामान्य बनाकर ब्राउन ( 6 ) ने उसके प्रयोग को व्यवस्थित बनाने का प्रयत्न किया है । उसके अनुसार भीड़ के अन्तर्गत सक्रिय भीड़ ( Active Crowd ) अथवा गतिशील भीड़ ( Kinetic Crowd ) , उत्तेजित भीड़ ( Mob ) तथा निष्क्रिय भीड़ ( Passive Crowd ) , श्रोतवद नामक भीड़ वर्ग शामिल है ।
सामान्य रूप से हम यह कह सकते हैं कि सभी भीड़ें चाहे वे उत्तेजित भीड हों या श्रोतृवृन्द हों , ऐसे व्यक्तियों का पुंज होती हैं जो किसी स्थान विशेष पर एकत्रित हो जाते हैं । ये भीड़ें एक साथ मिलकर कार्य करती हैं , ये अनाम , आकस्मिक , अस्थायी तथा असंगठित होती हैं । किम्बल यंग ने भीड की परिभाषा इस प्रकार दी है , ” भीड़ बहुत से मनुष्यों के एक ऐसे समूह को कहते हैं जो किसी सामान्य आकर्षण के विचार या केन्द्र के चारों ओर एकत्रित हो जाते हैं । ” इस परिभाषा के अंतर्गत उत्तेजित भीड़ तथा श्रोतृवृन्द दोनों ही शामिल हैं । श्रोतृवृन्द जैसी निष्क्रिय भीड़ भी कुछ परिस्थितियों में उत्तेजित भीड़ का रूप धारण कर लेती है । उदाहरणार्थ , हम किसी ऐसी बैठक को ले सकते हैं जो किसी ऐसे हॉल में हो रही हो जो इतना छोटा हो कि उसमें सब लोगों के बैठने का स्थान न हो ; तो वहां पर कई अवसरों पर हमें उत्तेजित भीड़ व्यवहार के लक्षण परिलक्षित हो सकते हैं ।
इसी प्रकार कभी – कभी ऐसा उस समय भी भीड़ के विभिन्न रूप भीड़ ( Crowds ) उत्तेजित भीड़ ( Mobs ) श्रोतृवृन्ट ( Audiences ) सांयोगिक ( Casual ) साभिप्रायी ( Intentional ) मनोरंजनार्थी सूचनार्थी ( Recreational ) ( Information Seeking ) आक्रामी ( Aggressive ) पलायक परिग्रही भावव्यंजक ( Escape ) ( Acquisitive ) ( Expressive ) असंगठित भीड़ में भय संगठित भीड़ में भय ( Panics in unorgariized ( Panics in organized Crowds ) Crowds ) हिसक उत्तेजित भीड़ संत्रासन ( Lynching ) ( Terrorization ) ( ब्राउन 6 . 841 ) उपद्रव ( Riots ) होता है जब कॉलेज के विद्यार्थी हॉल में किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम को देखने के लिए एकत्रित हुए हों , पर उनको संगीत या नर्तक का कार्यक्रम पसन्द न आ रहा हो , तो वे कार्यक्रम पसन्द न होने के कारण उस समय उत्तेजित भीड़ का सा व्यवहार कर सकते हैं ।
इसके विपरीत , अत्यन्त सक्रिय तथा अत्यधिक संवेगशील भीड़ भी उस समय श्रोतृवृन्द के रूप में परिवर्तित हो सकती है जब कोई ऐसा व्यक्ति उनके सामने उपस्थित हो जाए जो उन उद्देश्यों तथा लक्ष्यों का जिनके लिए वह भीड़ एकत्रित हुई हो , स्पष्टीकरण करदे , उनका नया मार्गदर्शन करे याउन उद्देश्यों या लक्ष्यों का समर्थन करे । शेक्सपीयर ने यह दर्शाया है कि जब लोग जूलियस सीज़र के शव को देखने के लिए एकत्रित होते हैं और वे ब्रूटस तथा एन्टोनी के भाषण सुनते हैं तो उस समय उत्तेजित भीड़ का व्यवहार किस प्रकार श्रोतृवृन्द के व्यवहार के रूप में परिवर्तित हो जाता है । इस संदर्भ में इस सुविदित तथ्य का भी उल्लेख किया जा सकता है कि जब किसी भाषण को सुनने अथवा किसी जलूस को देखने के लिए लोग भारी संख्या में एकत्रित होते हैं तो उस समय पुलिस अधिकारी बिलकुल सतर्क हो जाएंगे और वे सावधानी के रूप में अनेक पुलिस के सिपाहियों को तैनात कर देंगे ।
उत्तेजित भीड़ ( Mob ) के लक्षण
लेबां ( 7 ) मार्टिन ( 8 ) मैक्डूगल ( 9 ) तथा फ्रॉयड ( 10 ) ने सक्रिय अथवा उत्तेजित भीड़ों के अनेक विभिन्न लक्षण बताए हैं ।
1 . मानसिक समांगता ( Mental Homogeneity )
उत्तेजित भीड़ के सदस्यों में शिक्षा , व्यवसाय अथवा बुद्धि की विषमता होते हए भी उस समय उनकी भावनाओं , विचारों तथा क्रियाओं में एक समांगता परिलक्षित होती है । सबके सब सदस्यों का ध्यान उस समय किसी सामान्य लक्ष्य की ओर होता है और वे सब उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होते हैं । बुद्धि एवं शिक्षा की दृष्टि से भिन्न – भिन्न मात्रा एवं स्तर वाले लोगों के व्यवहार में पाई जाने वाली इस एक समांगता के कारण ही लेबां ने ‘ समूह मन ‘ की परि कल्पना की थी । लेबां का विचार था कि व्यक्ति भीड़ में अपने व्यक्तित्व ‘ को खो देता है और वह ‘ स्वचालक ‘ की भांति कार्य करने लगता है । हमारे लिए यहां पर यह दर्शाना आवश्यक नहीं है कि समूह मन के प्रतिपादन में उसने गलती की थी ; परन्तु यह सच है कि समूह का निर्माण करने वाले विभिन्न व्यक्तियों का उसने जो विवरण प्रस्तुत किया है वह सही है । उत्तेजित भीड़ में चाहे श्रमिक हों या कालेज के विद्यार्थी ; पर उस समूह के सब सदस्यों के व्यवहार में यह एक समांगता मिलती है ।
2 . संवेगात्मकता ( Emotionality )
क्रियाशील भीड़ ( Acive crowd ) की दूसरी विशेषता है उसकी प्रबल संवेगात्मकता । लेबां ने लिखा है कि ” उस समय व्यक्ति में आदिम प्राणी की ऐच्छिकता , हिंसा , क्रोध तथा उत्साह एवं वीरता भी होती है । ” ( 7 . 36 ) । अत्यधिक संवेगात्मकता उत्तेजित भीड़ की एक मुख्य विशेषता है । उत्तेजित भीड़ के व्यवहार में प्रचंड क्रोध , भय , प्रसन्नता तथा ऐसे ही अन्य संवेग परिलक्षित हो सकते हैं । इस प्रबल संवेगात्मकता के कारण ही उत्तेजित भीड़ हिंसक कार्य करने पर उतारू हो जाती है ।
3 . विवेकहीनता ( Irrationality )
उत्तेजित भीड़ के सदस्य , अस्थिर मति , सहजविश्वासी , असहिष्ण तथा विचारहीन होते हैं । वे किसी भी प्रकार के ऐसे तर्क से जो उनके प्रबल संवेगों के अनुकूल हों प्रभावित हो जाते हैं । उत्तेजित भीड़ के लोग विचार करने तथा अपने कृत्यों के परिणामों को सोचने एवं स्थिति का सही अध्ययन करने का कष्ट नहीं करेंगे । वास्तव में उच्च संवेगात्मकता तथा निम्न विचारशीलता इन दोनों का गहन सम्बन्ध है । यह कोई ऐसी विशेषता नहीं है जो केवल उत्तेजित भीड़ के व्यवहार के लिए ही विलक्षण हो । ऐसा व्यक्ति जो क्रोध अथवा भय या लज्जा या हर्ष से अत्यधिक अभिभूत हो जाता है , अकेला होते हुए भी अविवेकपूर्ण ढंग से व्यवहार करता है । अधिकांश हत्याएं व्यक्तियों द्वारा उस स्थिति में की जाती हैं जब वे ऐसे प्रबल संवेगों के वशीभूत हो जाते हैं जिनसे उनकी संवेगात्मकता बढ़ जाती हैं और संवेग उनकी तर्कनाशक्ति को कम कर देते हैं । चाहे हिंसा किसी व्यक्ति की हो या किसी व्यक्ति समूह की , इन दोनों स्थितियों में ही उच्च संवेगात्मकता तथा निम्न श्रेणी की तार्किकता की एक सी विशेषता होती है । अत्यधिक भावावेश से ग्रस्त होकर सैनिक अधिकारियों जैसे अत्यन्त अनुशासित व्यक्ति भी हत्या अथवा आत्महत्या कर लेते हैं । अतः विवेकहीनता को हमें कोई ऐसी चीज़ नहीं मान लेना चाहिए जो उत्तेजित भीड़ की ही विलक्षणता हो । उस स्थिति में तो उसमें केवल तीव्रता ही आती है क्योंकि तब उस समय पर लोग भारी संख्या में विवेकशून्य ढंग से व्यवहार करते हैं ।
4 . उत्तरदायित्व की भावना का ह्रास ( Diminished Sense of Responsibility )
उत्तेजित भीड़ व्यवहार की एक और विशेषता , उसमें उत्तरदायित्व की भावना का नष्ट होना है । उस समय व्यक्ति अत्यन्त अनुत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से व्यवहार करते हैं । उदाहरणार्थ , कलकत्ता में ऐसी घटनाएं प्रायः अनेक बार हो जाती हैं , जबकि क्रुद्ध भीड़ ट्रामों को जला देती हैं । यह ऋद्ध उत्तेजित भीड़ चाहे बेकार लोगों की हो या कारखाने के श्रमिकों की या किसी कॉलेज के छात्रों की हो पर वे सबके सब राज्य की मूल्यवान सम्पत्ति को जलाकर अनुत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार करते हैं । हम देखते हैं कि हिंसा को रोकने वाले साधारण सामाजिक नियंत्रण उस समय कारगर नहीं हो पाते , जब व्यक्ति अत्यधिक भावावेश में होते हैं ।
5 . शक्ति का अनुभव
उत्तेजित भीड़ के सदस्यों में अनुत्तरदायित्व की भावना के साथ – साथ सर्व शक्ति – सम्पन्नता की भावना भी होती है । वे यह अनुभव करते हैं कि उनमें सब कुछ करने की सामर्थ्य है और पृथ्वी की कोई भी शक्ति उनको रोक नहीं सकती । आक्रामक उत्तेजित भीड़ सशस्त्र पुलिस पर तथा सशस्त्र पुलिस – वाहन तक पर भी आक्रमण कर देगी । भीड़ के सदस्य केवल उसी समय भयभीत होते तथा भागते हैं जब मजिस्ट्रेट का आदेश प्राप्त करके पुलिस गोली चलाना आरंभ करदे । उदाहरणार्थ , विद्यार्थियों की उत्तेजित भीड़ को उस समय यह महसूस होता है कि वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ भी कर सकते हैं ।
6 . अनाम होने की भावना _ _ _
उत्तेजित भीड़ में व्यक्तियों के व्यवहार की ये अनेक विशेषताएं नाम का पता न होने के कारण होती हैं । प्रत्येक व्यक्ति यह महसूस करता है कि हिंसक कार्यों के लिए समूचा समूह ही उत्तरदायी है ; अतः कोई भी व्यक्ति अपने हिंसक कार्यों के लिए स्वयं को उत्तरदायी महसूस नहीं करता । प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सुरक्षित समझता है । वह यह समझता है कि उसका पता ही नहीं चल पाएगा और न उसे दंड मिल सकेगा , क्योंकि उस कार्य को करने में बहत से लोगों का हाथ है । इसी कारण वे पूर्णतया आश्वस्त होते हैं और उसी ढंग से व्यवहार करते हैं जिस ढंग से भीड़ के दूसरे सदस्य करते हैं ।
उत्तेजित भीड़ के प्रकार
ब्लमेर ने भीड़ों का एक ऐसा वर्गीकरण किया है जिसमें उत्तेजित भीड़ व्यवहार तथा श्रोतृवृद – व्यवहार दोनों ही शामिल हैं । वह ” आकस्मिक भीड़ ” का उल्लेख करता है जो अल्पकालिक होती है , उसका संगठन भी शिथिल होता है और वह भीड़ शिथिल रूप से एक संगठित समह होती है और वह उस समय की किसी आकर्षक घटना से अभिप्रेरित होती है । जब कोई दुर्घटना हो जाए या कोई व्यक्ति कोई विलक्षण ढंग का व्यवहार करे तो उस समय लोग एक समूह के रूप में उस स्थान पर एकत्रित हो सकते हैं । दूसरे कुछ भीड़ परम्परागत हो सकती है , उसके कार्य परम्परागत नियमों अथवा आशाओं द्वारा निर्दिष्ट होते हैं , किसी धार्मिक त्योहार पर लोगों का एकत्रित होना अथवा फुटबाल या क्रिकेट मैच के समय दर्शकों का एकत्रीकरण , इस प्रकार की भीड़ के उदाहरण हैं । तीसरी भीड़ सक्रिय भीड़ होती है , वह आक्रामक होती है और वह अपने निश्चित लक्ष्य की ओर कार्यरत होती है । उत्तेजित भीड़ ” सक्रिय भीड़ ” का उदाहरण है । अंत में ” भावव्यंजक भीड़ ” आती है । इस भीड़ का कोई स्पष्ट तथा निश्चित लक्ष्य नहीं होता । यह ऐसे लोगों का समूह होता है जो किसी घटना के कारण एक साथ एक स्थान पर एकत्रित हो जाते हैं ।
1 . आक्रामक उत्तेजित भीड़
सक्रिय भीड़ जो कि आक्रामक होती है किस प्रकार का व्यवहार करती है , यह हम पहले ही देख चुके हैं । डोलार्ड ( 15 ) के अनुसार आक्रामक व्यवहार वह व्यवहार है जिसका लक्ष्य किसी व्यक्ति को आघात पहुँचाना होता है । आक्रामक भीड़ लोगों पर आक्रमण करती है और सम्पत्ति को नष्ट करती है । हिन्दू – मुस्लिम उपद्रव अथवा ग्राम में दो पक्षों के अनुयायियों के बीच होने वाले उपद्रव आक्रामक उत्तेजित भीड़ के उदाहरण हैं । उपद्रव में , दो उत्तेजित भीड़ एक दूसरे के विरुद्ध आक्रामक कार्रवाई करती हैं । दोनों ओर ही हिंसा होती है । दूसरे प्रकार का उपद्रव वह होता है जिसमें उत्तेजित भीड़ का व्यवहार पुलिस के प्रति , जिसका कर्तव्य विधि – व्यवस्था बनाए रखना है , हिंसात्मक होता है । विशाल उत्तेजित भीड़ पुलिस की छोटी – सी टुकड़ी को घेर सकती है और उसे आतंकित कर सकती है । भारत में , स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद से विगत कुछ वर्षों में दुर्भाग्यवश
ऐसी स्थिति कई बार आ चुकी है । ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर पुलिस ने निहत्थी भीड पर लाठी प्रहार किया और गोलियां तक भी चलाईं । ग़लती किसकी होती है , उस समय यह कहना कठिन होता है । उत्तेजित भीड़ पुलिस वालों को भयभीत कर सकती है अथवा आतंकित पुलिस निहत्थे लोगों पर गोली चलाकर प्रत्याक्रमण कर सकती है । जो हो , यह स्पष्ट है कि जनता तथा पुलिस दोनों को ही अपने व्यवहार को बदलने की आवश्यकता है । जो लोग किसी सामाजिक अन्याय के कारण परेशान हों , उनको चाहिए कि वे संयत तथा अहिंसक ढंग से व्यवहार करें और पथराव , पुलिस पर आक्रमण तथा सम्पत्ति को नष्ट करने जैसे कार्य न करें । इसके विपरीत पुलिस वालों तथा मजिस्ट्रेटों को भी यह अनुभव करना चाहिए कि क्रुद्ध व उत्तेजित भीड़ में ऐसे साधारण नागरिक तथा सामान्यतः सद्व्यवहारी व्यक्ति शामिल होते हैं , जिनको कुछ कष्ट होता है । उनको चाहिए कि वे उन लोगों को पीटने या गोली से उड़ा देने की धमकी देकर उनको उत्तेजित या भयभीत न करें । वास्तव में , आग्नेयास्त्रों के बिना भीड़ों के साथ निबटना पुलिस वालों के लिए अधिक बुद्धिमानी पूर्ण होगा , जिससे कि कोई – सा भी पक्ष भयभीत महसूस न करे । इस बात से उनमें अत्यधिक भय अथवा अत्यधिक क्रोध उत्पन्न हो जाता है । ये दोनों ही स्थितियां निरस्त्र भीड़ पर गोली चलाने के कारण उत्पन्न होती हैं । उत्तेजित आक्रामक भीड़ का दूसरा उदाहरण हिंसात्मक उत्तेजित भीड़ है । हिंसक उत्तेजित भीड़ एक व्यक्ति या छोटे से व्यक्ति समूह पर अवैध ढंग से आक्रमण करती है और उसे तब तक संतुष्टि नहीं होती जब तक वह उनको आघात न पहुंचा दे या उनके जीवन का अंत न कर डाले । जब गांधीजी 1896 में डरबन पहुंचे तो एक हिंसक उत्तेजित भीड़ ने उन पर आक्रमण कर दिया था । उस समय दक्षिण अफ्रीका के गोरे लोगों की एक क्रुद्ध उत्तेजित भीड़ उनको आघात पहुंचाना तथा उनकी हत्या करना चाहती थी । इसी प्रकार , संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में श्वेत लोग कभी – कभी कानून को अपने हाथ में ले लेते हैं और जिस नीग्रो पर उन्हें किसी प्रकार के अपराध करने का संदेह होता है , वे उसकी हत्या करने पर उतारू हो जाते हैं ।
2 . पलायन भीड़ – आतंकित
जहां आक्रामक उत्तेजित भीड़ तथा परिग्रही उत्तेजित भीड़ ( इनका वर्णन आगे किया जाएगा ) की प्रवृत्ति सामान्यतः केन्द्राभिमुखी होती है , वहां पलायन उत्तेजित भीड़ की प्रवृत्ति केन्द्रविमुख , केन्द्रापसारी होती है । भय , पलायन अथवा परिहार का व्यवहार है । लोग खतरे के स्थान से भिन्न – भिन्न दिशाओं में भागते हैं । भय अत्यन्त संवेगात्मक तथा अत्यन्त विवेकशन्य भी होता है । लोग मनोरंजन के लिए या किसी और उद्देश्य से एक स्थान पर एकत्रित होते हैं । इस प्रकार ,आरम्भ में मनुष्यों का एक समूह एकत्रित हो जाता है । भीड़ को यदि तुरन्त अचानक किसी संकट या किसी अननुमानित खतरे की अनुभूति हो तो ऐसी स्थिति में भयग्रस्त व्यवहार होने लगता है । उदाहरणार्थ , किसी सिनेमाघर में बैठे लोगों को यदि अकस्मात् यह अनुभूति हो जाए कि सिनेमाघर में आग लग गई है तो इस कल्पनामात्र से ही प्रत्येक व्यक्ति को एक सदमा – सा पहुंचेगा और उनकी क्रियाएं बंद हो जाएंगी । दूसरे , उस स्थिति में भय तथा आतंक उत्पन्न हो जाएगा ।
उस स्थिति में लोगों के अन्दर निराशा का भाव आ जाएगा जिसके कारण उनका भय और अधिक बढ़ जाएगा । प्राचीन समय में सिनेमाघर में बहिःद्वार बहुत कम हुआ करते थे । परन्तु जब इसके भयंकर परिणाम हुए , भारी विनाश हुआ तो उसके फल स्वरूप आज कानून ही इस बात का निर्धारण करता है कि सिनेमाघरों अथवा थियेटरों में एक निश्चित संख्या में बहिःद्वार होने चाहिए ताकि भय की इस भावना तथा उस कुसमंजित व्यवहार के , जो इस आघात तथा भय की भावना के कारण होता है , फलस्वरूप होने वाली जीवनक्षति को रोका जा सके या उसे न्यूनतम किया जा सके । भयाक्रांत व्यक्ति विवेकहीन हो जाता है ; वह स्पष्ट रूप से सोचने में असमर्थ होता है । फलतः , इसके परिणामस्वरूप उस समय जो व्यवहार वह करता है वह कुसमंजित व्यवहार होता है । उस समय प्रत्येक व्यक्ति वहां से भागने लगता है और यह संभव है कि उस बेढंगी भगदड़ के कारण कुछ लोगों को इतनी चोट भी आ जाए जितनी उनको स्वयं आग लग जाने के कारण भी न लगती । इस प्रकार के भगदड़ व्यवहार में हम देखते हैं कि चूंकि वह खतरा अननुमानित होता है , अतः उसकी प्रतिक्रिया पहले से निश्चित नहीं होती । उदाहरणार्थ , सेना जैसे संगठित समूह के अन्दर भी भय व्याप्त हो सकता है । सेना के लोगों को यद्यपि खतरे का सामना करने के लिए ही तैयार किया जाता है परन्तु फिर भी , ऐसे अवसर आ जाते हैं जब वे भयाक्रांत हो जाते हैं । सेना जैसे संगठित समूह में भय की उत्पत्ति उनका अपने नेता में विश्वास न रहने के कारण होती है । इतिहास बताता है कि भारत की एक बड़ी सुसज्जित सेना विशाल होते हुए भी , भयाक्रांत होने के कारण सिकन्दर की छोटी – सी सेना से किस प्रकार परास्त हो गई थी । इसी प्रकार , इतिहास इस बात का भी साक्षी है कि एक छोटी – सी सेना को जो भयाक्रांत थी , झांसी की रानी ने किस प्रकार प्रोत्साहित किया था , और फिर वही सेना 1857 _ 00 की भारतीय क्रांति के युद्ध में ब्रिटिश सेना के साथ अन्त तक लड़ती रही थी । नेता समस्त भीड़ में एकता की भावना भरता है तथा उसे अदम्य शक्ति प्रदान 2 करता है । यदि उस समूह का नेता में विश्वास नहीं रहता तो उस स्थिति में उसमें भय उत्पन्न हो जाता है । ( देखिए अध्याय 22 )
3 . परिग्रही उत्तेजित भीड़
परिग्रही उत्तेजित भीड़ों की कार्यवाही केन्द्राभिमुखी होती है । वे लक्ष्य पर केन्द्रित होती हैं । क्षुधाग्रस्त लोगों के उपद्रव , खाद्यसामग्री की जमाखोरी के विरुद्ध आकस्मिक आन्दोलन , बैंक की ओर भागदौड़ ( बैंक से अपना पैसा निकालने के लिए भागदौड़ ) ये सब परिग्रही उत्तेजित भीड़ों के उदाहरण हैं । युद्ध काल में तथा युद्धोत्तर काल में भी , खाद्यसामग्री तथा कपड़े का भारी अभाव था । अतः लोगों ने दुकानों पर जाकर यथासंभव अधिक से अधिक अनाज और कपड़ा खरीदना आरम्भ कर दिया । लोगों के इस व्यवहार के फलस्वरूप इन वस्तुओं का वास्तव में ही अभाव हो गया , क्योंकि जिन लोगों के पास पैसा था और जो भयग्रस्त थे , उन्होंने अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुएं खरीद लीं और उनका जमा करके रख लिया । इसी कारण सरकार को राशन व्यवस्था तथा नियंत्रण व्यवस्था करनी पड़ी थी । सन् 1959 में अनाज की राज्य व्यापार सम्बन्धी नीति भी इस प्रकार के अभाव के भय के कारण ही अपनाई गई थी । इसी प्रकार सन 1930 – 40 के दौरान जब लोगों को क्विलोन बैंक के सम्बन्ध में यह संदेह हुआ कि वह बैंक फेल हो रहा है तो प्रत्येक व्यक्ति उस में से अपनी जमापूजी को निकालने के लिये दौड़ पड़ा । यद्यपि बैंक ने उनको यह आश्वासन भी दिया कि उसके पास पर्याप्त धनराशि है , पर फिर भी लोगों को विश्वास नहीं हुआ । उनको इतना अधिक भय हुआ कि बैंक में से अपना रुपया निकलवाने के लिए लोगों में भगदड़ पड़ गई । यदि सभी जमाकर्ता अपनी जमापूंजी एकदम एक समय पर ही निकालना चाहें तो ऐसी स्थिति में कोई भी बैंक सफल नहीं हो सकता । जैसा बाद में पता चला क्विलोन बैंक की स्थिति बिलकुल ठीक थी और वह रुपये में से चौदह आने से भी अधिक लौटाने में सफल हो गया था । अब सरकार ने रिजर्ब बैंक से ऐसी व्यवस्था करने के लिए कहा है कि बैंक – व्यापार – प्रणाली का संगठन ऐसा किया जाए कि लोगों का उससे विश्वास कभी न उठे । संभव है , राजनैतिक भगदड़ भी हो सकती है जैसाकि चुनाव के समय में होता है । प्रत्येक दल में विशेष रूप से कांग्रेस दल में ऐसे अनेक लोग हैं जो अपनी नामजदगी के लिए आवेदन करते हैं , अतः उस समय भगदड़ होती रहती है । यदि केवल तीन सौ उम्मीदवारों का निश्चय करना हो तो उसके लिए आवेदन पत्र तीन हजार व्यक्ति दे देंगे , और उस समय तो उनमें से प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सर्वोत्तम उम्मीदवार समझता है । दल द्वारा नामांकन होने के बाद उनमें अत्यधिक कुंठित व्यवहार परिलक्षित होने लगता है । जिन लोगों के आवेदनपत्र अस्वीकृत हो जाते हैं उनकी संख्या भी बहुत होती है । वे सब दल के प्राधिकारियों पर अनेक प्रकार के आरोप लगाने लगते हैं । ये सब प्रकार के व्यवहार भोजन , धन या पद आदि को प्राप्तकरने की आकांक्षा पर आधारित होते हैं ।
4 . भावव्यंजक उत्तेजित भीड़
सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि ऐसे उत्तेजित भीड़ व्यवहार को , जिसे इन उपर्युक्त तीनों अर्थात् आक्रामक , पलायक तथा परिग्रही वर्गों में नहीं रखा जा सकता , इस अंतिम वर्गीकरण में रखा जा सकता है । सामान्यरूप से यह कहा जा सकता है कि भावव्यंजक उत्तेजित भीड़ का व्यवहार परिपूर्ति वाला ( Consummatory ) होता है । छुट्टी के दिन की भीड़ तथा उत्सव आदि के अवसर की भीड़ ये सब भावव्यंजक उत्तेजित भीड़ों के उदाहरण हैं । यह एक ऐसा व्यवहार है जो सामान्य जीवन के दैनिक कार्यक्रम से कुछ मुक्ति प्रदान करता है । मैसूर में , दशहरे के अवसर पर हजारों , लाखों लोगों की भीड़ प्रासाद की चमक – दमक को देखने के लिए दौड़ पड़ती है । इसी प्रकार अन्य धार्मिक त्योहार भी हजारों , लाखों लोगों को आकर्षित करते हैं । ऐसी भीड़ों में सम्मिलित लोगों को सुविधा प्राप्त हो , इस बात का ध्यान रखने के लिए राज्य सरकार के विभागों को विशेष व्यवस्था करनी पड़ती है ।
गणतंत्र दिवस का राष्ट्रीय उत्सव भी भारी संख्या में लोगों को आकर्षित करता है । इसी प्रकार , विशेषरूप से भारत में हम यह देखते हैं कि हजारों लोग भारत के तथा अन्य देशों के महान् नेताओं को उस समय जब वे हवाई अड्डे से अपने आवास की ओर जाते हैं , देखने के लिए एकत्रित हो जाते हैं । हमारे यहां अवकाश भीड़ भी होती है । मद्रास तथा बम्बई जैसे बड़े नगरों में प्रायः शनिवार तथा रविवार एवं अवकाश के अन्य दिनों में हजारों लोगों को सागर तट की ओर जाते हुए देखा जाता है । भारतीय समाज में यह एक नई बात है । प्राचीनकाल में हमारे यहां अवकाश – भीड़ नहीं लगा करती थीं । केवल वर्तमान समय में ही , विशेषरूप से उद्योगीकरण होने के साथ – साथ हम देखते हैं कि अवकाश के दिनों की भीड़ में वृद्धि हो रही है । लोग सप्ताह भर काम करने के बाद जब विश्राम करते हैं , तब वे मनोरंजन के लिए या तो थियेटर में जाते हैं या पार्क अथवा सागर तट पर , तथा अन्य ऐसे ही स्थानों पर जाते हैं जहां उन्हें विश्राम तथा सुख मिल सके । फिर भी , भावव्यंजक उत्तेजित भीड़ के एक और प्रकार के दर्शन क्रीड़ास्थल में हो सकते हैं । वर्तमान समय में बड़े – बड़े स्टेडियम बनाए जा रहे हैं । हजारों लोग वहां पर फुटबाल मैच या क्रिकेट मैच देखने के लिए जाते हैं । निःसंदेह , यह कोई नई बात नहीं है । हमारे ग्रामों में सब प्रकार के खेलकूद होते हैं ; वे हजारों लोगों को आकृष्ट करते हैं । इन सभी स्थानों में हम देखते हैं कि लोग भारी संख्या में एक स्थान पर एकत्रित हो जाते हैं और वे उन्मुक्त रूप से बातचीत करते हैं और विधाम भी करते हैं । थियेटर में एकत्रित श्रोतृवृद के विपरीत ये समूह सक्रिय होते हैं ।