भारत में समाजशास्त्र की शिक्षा:
समाजशास्त्र की शिक्षा बम्बई विश्वविद्यालय में 1914 में शुरू हुई । इसके बाद में लखनऊ , मैसूर इत्यादि विश्वविद्यालयों में भी इस विषय की शिक्षा दी जाने लगी भारत में समाजशास्त्र का प्रारंभ एक विशिष्ट विषय के रूप में लगभग 1920 में हुआ । । लेकिन 1950 में स्वतंत्रता के बाद ही समाजशास्त्र की एक विषय मे पश्चात् हो पायी तथा एक्ट बहुत ही प्रचलित विषय के रूप में इसकी पढ़ाई होने लगी । 1950 के बाद लगातार समाजशास्त्र के विभाग देश के कई विश्वविद्यालयों में खुलने लगे । 1960 तक 23.8 प्रतिशत समाजशास्त्र विभाग भारत के विश्वविद्यालयों में खुल चुके थे जो बढ़कर 1965 में 29.6 प्रतिशत हो गये थे । इसके बाद लगातार समाजशास्त्र की शिक्षा में लगातार वृद्धि होती गई । समाजशास्त्र की पढ़ाई न केवल विश्वविधियाल में अपितु कृषि विश्वविद्यालयों , तकनीकी संस्थाओं , प्रबंध संस्थाओं , भारतीय सांख्यिकी संस्थान , कलकत्ता टाटा का सामाजिक विज्ञान संस्थान बम्बई गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद आदि समाजशास्त्र विषय की शिक्षा दी जाने लगी । आज भारत के कॉलेजों और विश्वविदयालयों में समाजशास्त्र काफी प्रचलित विषय है ।
समाजशास्त्र के अन्य विषयों के साथ जनसंख्या का एवं स्त्रियों का अध्ययन भी किया जाने लगा अधिकाशत : बीए . के विद्यार्थी अन्य विषयों के साथ एक विषय समाजशास्त्र का भी अध्ययन के लिये चयन करते है । यह माना जाता है कि परीक्षा में उत्तीण होने के लिये यह एक आसान विषय है । जो लड़कियाँ -नौकरी के लिये चिंतित नहीं होती वे अवश्य समाजशास्त्र का अध्ययन करती । इसी तरह एम.ए. के लिये भी बहुत सारे विद्यार्थी यह विषय अपने अध्ययन के लिये चुनते है ।
अत : समाजशास्त्र की पढ़ाई बी.ए. , एम.ए. , एम.फिल . , पी.एच.डी. तथा हर स्तर पर होने लगी । समाजशास्त्र , सामाजिक मनोवैज्ञानिक आदि का मुख्य विषयों के साथ शिक्षा दी जाने लगी । अनेक मुख्य विषयों के साथ शिक्षा दी जाने लगी । अनेक विशिष्ट विषयों की पढ़ाई भी समाजशास्त्र में होने लगी उदाहरण के तौर पर राजनैतिक समाजशास्त्र , शिक्षा का समाजशास्त्र , औद्योगिक समाजशास्त्र , नातेदारी का समाजशास्त्र , धर्म का समाजशास्त्र , परिवार एंव विवाह इत्यादि । इन विषयों एकीकरण की कमियाँ है तथा कई स्थानों पर आज भी पुराने पाठ्यक्रम के आधार पर समाजशास्त्र की पढ़ाई होती है ।
समाज की आवश्यकता एवं तार्किक आधार पर आज भी कुछ स्थानों नये पाठ्यक्रम के द्वारा समाजशास्त्र की शिक्षा दी जाती है ।
अत : आज के समाज के संदर्भ नये पाठ्यक्रमों के निर्माण की आवश्यकता है जो समाज की वास्तविकता की जानकारी दे सकें । 3.4 भारत में समाजशास्त्रीय अनुसंधान स्वतंत्रता के बाद , भारतीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में समाजशास्त्र की शिक्षा तीव्र विकास हुआ और साथ समाजशास्त्र के विभिन्न विषयों पर शोध में काफी वृद्धि हुई जिसके परिणाम स्वरूप विद्यार्थियों पी.एच.डी. के लिये विभिन्न विषयों पर अनुसंधान किये तथा कई पुस्तकों का प्रकाशन हुआ और शैक्षणिक पत्र – पत्रिकाओं शोध पों का प्रकाशन भी हुआ । भारत में समाजशास्त्र के विकास दर कई सर्वेक्षण किये गये है ।
उनमें से मुख्य बेकर कार्नस ( 1961 ) सरन ( 1958 ) बॉटमोर ( 1982 ) क्लिनार्ड एवं एएडर ( 1965 ) , विद्यार्थी व 1972 तथा इंडियन कोन्सिल ऑफ सोशियल साइन्स रिचर्स के विभिन्न प्रतिवेदन है । इसके बावजूद भी समाजशास्त्र के शोध के आन भी उचित सिद्धान्त तथा पद्धतियों का अभाव महसूस होता है । अक्सर विश्वविद्यालयों के विभागों में अनुसंधान की सुविधाएँ तो दिखाई देती है लेकिन ये सुविधाएँ कॉलेजों में अपर्याप्त है । कई विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों के अनुसंधान करने के लिये शिक्षकों को अवकाश लेने के लिये प्रावधान भी नहीं है । समाजशास्त्र के अनुसंधान के लिये क्षेत्रीय कार्य आवश्यक है । और यह बिना अवकाश के सम्बन्ध नहीं है । जबकि इंडियन कान्सिल ऑफ सोशियल साइन्स रिचर्स तथा यूत्रजी.सी ने इस तरह की सुविधाओं का प्रावधान दिया है । शिक्षा एवं अनुसंधान का काफी परस्पर संबंध है । अनुसंधान से शिक्षा के नये – नये विषयों को पढ़ाने के लिये मदद मिलती है ।