भारत में ग्रामीण प्रक्रियायें : स्थानीयकरण , सार्वभौमिकरण , संस्कृतिकरण , लघु एवं वृहत् परम्परा

भारत में ग्रामीण प्रक्रियायें 

स्थानीयकरण , सार्वभौमिकरण ,

संस्कृतिकरण , लघु एवं वृहत् परम्परा

( Rural Processes in India : Parochialization , Universalization , Sanskritization , Little and Great Tradition )

भारतीय ग्रामीण व्यवस्था का वैज्ञानिक अध्ययन इसमें निहित कुछ परिवर्तनों के माध्यम से ही किया जा सकता है । ये परिवर्तन सामाजिक , राजनीतिक , साँस्कृतिक एवं प्राविक प्रादि हो सकते हैं । जैसे – जैसे ग्रामीण अध्ययन के प्रति समाजशास्त्रियों एवं अन्य विद्वानों की रुचि बढ़ती जा रही है , वैसे – वैसे ऐसी अनेक प्रक्रियाओं ( Processes ) के अध्ययन को महत्त्व दिया जाने लगा है जो ग्रामीण व्यवस्था के अन्तर्गत ही विद्यमान हैं । किसी भी समाज में जब कोई परिवर्तन सामाजिक व्यवस्था ( Social System ) के अन्तर्गत ही होता है तो ऐसे परिवर्तन को हम प्रक्रियामूलक परिवर्तन कहते हैं ।

 यह सम्भव है कि समाज की बाह्य संरचना सामान्य रूप से यथावत् प्रतीत होती हो , लेकिन यह प्रक्रियामूलक परिवर्तन जीवन के सांस्कृतिक पक्ष में उत्पन्न होकर सामाजिक व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन उत्पन्न कर देते हैं । अतः ग्रामीण सामाजिक परिवर्तनों को समझने के लिए यह प्रावश्यक है कि उन प्रक्रियामों की विवेचना की जाये जो वर्तमान दशानों में ग्रामीण सामाजिक परिवर्तन का कारण भी है और परिणाम भी ।

 मूलतः इसीलिए समकालीन समाजशास्त्री ग्रामीण सामाजिक परिवर्तनों को अनेक ऐसी अवधारणाओं ( Concepts ) की सहायता से स्पष्ट करने के पक्ष में हैं , जो एक प्रक्रिया के रूप में नवीन परिवर्तनों के प्रादुर्भाव के लिए उत्तरदायी हैं । इन्हीं अवधारणामों की सहायता से भारतीय ग्रामीण व्यवस्था एवं उसमें होने वाले परिवर्तनों , उनके कारणों , परिणामों आदि को विस्तार से समझा जा सकता है । सामाजिक परिवर्तन की ये प्रमुख प्रक्रियाएँ निम्न हैं

 1 . संस्कृतिकरण ( Sanskritization )

2 . पश्चिमीकरण ( Westernization )

 3 . प्रौद्योगीकरण ( Industrialization )

 4 . नगरीयकरण ( Urbanization )

5 . आधुनिकीकरण ( Modernization )

 6 . सार्वभौमिकरण ( Universalization )

7 . स्थानीयकरण ( Parochialization )

 8 . लघु परम्परा ( Little Tradition )

 9 . वृहत् परम्परा ( Great Tradition )

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भारत में ग्रामीण प्रक्रियाएं

 प्रस्तुत विवेचन में हम अपने विषय – सन्दर्भ की परिधि के बाहर न जाते हुए स्थानीयकरण , सार्वभौमिकरण , संस्कृतिकरण एवं लघु एवं वृहत् परम्परा जैसी महत्त्वपूर्ण प्रक्रियाओं की विवेचना कर भारतीय ग्रामीण व्यवस्था को समझने का प्रयास करेंगे ।

 स्थानीयकरण ( Parochialization ) एवं सार्वभौमिकरण ( Universalization ) नामक अवधारणाओं का प्रयोग मैकिम मेरियट ने उत्तर प्रदेश के एक गांव किशनगढ़ी के अपने अध्ययन के आधार पर वृहत् और लघु परम्परामों के मध्य होने वाली अन्तःक्रिया को समझाने के लिए किया है । प्रो . एम . एन . श्रीनिवास ने दक्षिण भारत में कूगों के सामाजिक और धार्मिक जीवन का विश्लेषण करते समय पहली बार संस्कृतिकरण ( Sanskritization ) की अवधारणा का प्रयोग किया । बाद में श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण की अवधारणा के माध्यम से सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया ।

 रॉबर्ट रेडफील्ड ने भारत में सांस्कतिक परिवर्तनों की प्रक्रिया को समझाने के लिए ‘ परम्परा ‘ ( Tradition ) की अवधारणा का प्रयोग किया । आपका मानना है कि प्रत्येक संस्कृति का निर्माण परम्पराओं से होता है , जिन्हें दो भागों में बांटकर समझा जा सकता है । इन दोनों परम्पराओं में प्रथम श्रेणी की परम्परा को हम ‘ वृहत् परम्परा ‘ ( Great Tradition ) एवं द्वितीय श्रेणी की परम्परा को हम ‘ लघु परम्परा ‘ ( Little Tradition ) कहते हैं । यहां हम इन पांचों अवधारणामों का विस्तार से अध्ययन करेंगे ।

 

 स्थानीयकरण

( Parochialization )

भारतीय ग्रामीण व्यवस्था के विधिवत् अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि भारतीय समाज में पाई जाने वाली विभिन्न सांस्कृतिक परम्पराओं ( Cultural Traditions ) का पता लगाया जाए । भारतीय समाज में सांस्कृतिक परम्परामों की तीन प्रमुख धाराएं प्रमुखता से देखी जा सकती हैं , जिन्हें सांस्कतिक उप – संरचनामों के नाम से पुकारा जाता है । डॉ . टी . के . एन . उन्निथान , इन्द्रदेव एवं योगेन्द्रसिंह ने इन तीन उप – संरचनात्रों को निम्न रूप में रखा है ।

1 . अभिजात उप – संरचना ( Elite Sub – Structure )

2 . लोक उप – संरचना ( Folk Sub – Structure )

3 . जनजातीय उप – संरचना ( Tribal Sub – Structure )

लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि इनमें से किसी भी सांस्कृतिक उप – संरचना का प्रतिनिधित्व समाज के किसी एक वर्ग विशेष के द्वारा नहीं किया जाता । कोई भी उप – संरचना इस दृष्टि से अपने विशुद्ध रूप में नहीं पाई जाती है । लोक और अभिजात सांस्कृतिक तत्त्व एक दूसरे के काफी निकट पाए जाते हैं । इन सांस्कृतिक परम्पराओं के वाहक भी एक दूसरे से काफी निकट रहते रहे हैं । यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि लोक परम्परानों का प्रमुख क्षेत्र ‘ ग्रामीण भारत ‘ एवं अभिजात परम्पराओं का प्रमात्र नगरीय भारत रहा है । रॉबर्ट रेडफील्ड ने भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के विश्लेषण के लिए परम्परा की अवधारणा का प्रयोग किया और बतलाया कि प्रत्येक सभ्यता परम्पराओं से निर्मित होती है । एक ओर अभिजात लोगों की या थोड़े से चिन्तनशील लोगों की परम्पराएँ आती हैं , जिन्हें हम वृहत् परम्परा ( Great Tradition ) कहते हैं एवं दूसरी ओर लोक या निरक्षर कृषकों की परम्पराएँ आती हैं , जिन्हें हम लघु परम्परा ( Little Tradition ) कहते हैं । इन परम्पराओं की विस्तार से विवेचना हम आगे करेंगे , फिलहाल स्थानीयकरण की अवधारणा को समझने के लिए हम यह जान लें कि इन दोनों परम्परामों के मध्य एक प्रकार का सह – सम्बन्ध पाया जाता है । अर्थात् ये दोनों परम्पराएँ एक दूसरे में परिवर्तित होती रहती हैं । इसी सहसम्बन्ध को मैकिम मेरियट ने स्पष्ट किया है । मैकिम मैरियट ने उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले में किशनगढ़ी गाँव . के अध्ययन के प्राधार पर लघु तथा वृहत् परम्पराओं के मध्य स्पष्ट होने वाली अन्तःक्रिया को स्पष्ट करने के लिए दो अवधारणाओं का प्रयोग किया , वे हैं मा

1 . स्थानीयकरण ( Parochialization ) एवं

 2 . सार्वभौमिकरण ( Universalization )

 इन . अवधारणामों का प्रयोग मैकिम मेरियट ने लघु परम्परा एवं वृहत् परम्परा के मध्य प्रादान – प्रदान की प्रक्रिया की व्याख्या करने के लिए किया । स्थानीयकरण के सम्बन्ध में मैकिम मेरियट ने यह लिखा है कि साहित्यिक स्वरूपों आदि को स्थानीय बनाने की एक प्रक्रिया है । स्थानीयकरण की प्रक्रिया भारतीय प्राचीन सभ्यता के अन्तर्गत लघु समुदायों में क्रियाशील दिखाई पड़ती है जबकि सार्वभौमिकरण की अवधारणा का प्रयोग सांस्कृतिक तत्त्वों एवं सांस्कृतिक ज्ञान को आगे बढाने एवं ऊंचा उठाने के लिए किया है । यहां हम इनका विस्तार से विवेचन करेंगे ।

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 स्थानीयकरण का अर्थ एवं विशेषताएँ

( Meaning & Characteristics of Parochialization )

 साधारण भाषा में प्राग्ल भाषा के शब्द ( Parochial ) का प्राशय संकीर्णता या देहातीकरण से लगाया जाता है । इस प्रकार शाब्दिक रूप में कोई भी वह प्रक्रिया जो समूह की भावना को संकीर्ण बनाती है अथवा समूह में ग्रामों की स्थानीय विशेषताओं को उत्पन्न करती है , उसे हम स्थानीयकरण की प्रक्रिया कहते हैं । वैसे तो स्थानीयकरण की प्रक्रिया का सर्वप्रथम उल्लेख मॉरिस प्रोपलर ने किया था , लेकिन बाद में मैकिम मेरियट ने जिस रूप में इसकी विवेचना की उसमें संकीर्णता को अधिक महत्त्व न देकर स्थानीय धार्मिक विश्वासों को अधिक महत्त्व दिया गया है ।

 मैकिम मेरियट का मानना है कि अनेक संस्कृतियां जब काफी समय से चली आ रही होती हैं , मोर वे काफी पुरानी हो जाती हैं तो उनका वृहत परम्परामों में परिवर्तन होने लगता है तब साधारणतया ऐसी परम्पराओं को स्थानीय विश्वासों और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित किया जाने लगता है । अर्थात् शनैः – शनैः वृहत् परम्परा के अनेक तत्त्व लघु परम्परा के रूप में विकसित हो जाते हैं । फलस्वरूप किसी भी स्थानीय परम्परा के मूल स्वरूप , उसकी उपयोगिता तथा धर्म – ग्रन्थों से उसके सम्बन्धों को समझना बहुत कठिन हो जाता है । स्वयं एक ही गाँव के व्यक्ति भी ऐसी परम्परा के बारे में न तो अधिक जानकारी दे पाते हैं और न ही वे उस जानकारी के प्रति एक मत ही होते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि वृहत् परम्परा से सम्बन्धित विभिन्न विश्वास जब विभिन्न स्थानों एवं क्षेत्रों की पृथक सांस्कृतिक विशेषताएँ बनकर भिन्न – भिन्न रूप ग्रहण कर लेती हैं । इसी प्राधार पर मैकिम मेरियट कहते हैं कि जब वहत परम्परा में गांव की स्थानीय विशेषताओं का समावेश ह है तब इस प्रक्रिया को हम स्थानीय ( Parochialization ) को प्रक्रिया कहते हैं । अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जब स्थानीय विश्वास एक व्रत या दीर्घ परम्परा के प्रसार में बाधा डालकर उसके क्षेत्र को सीमित कर देते हैं , तो उसे हम स्थानीयकरण की प्रक्रिया के नाम से जानते हैं ।

मैकिम मेरियट ने स्थानीयकरण की अवधारणा को परिभाषित करते हुए लिखा है कि वृहत् परम्परा के तत्त्वों का नीचे की ओर बढ़ना तथा उनका लघ परम्परा के तत्त्वों से मिल जाना स्थानीयकरण की प्रक्रिया कहलाती है । मेरियट की उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि याद १९५ परम्परा लघु परम्परा के विकास को रोकना चाहे तो अनेक छोटी और पूर्णतः काल्पनिक परम्प इन बहत परम्परामों के विकास में बाधा डालकर उनके प्रभाव को कम कर देती है ।

वृहत् परम्परामों के अन्तर्गत अनेक छोटी – छोटी स्थानीय परम्पराओं का विकास हो जाता है । वस्तुतः यह संस्कृति का अल्प – विकास ( Downward Devolution ) अथवा ह्रासोन्मुख परिवर्तन है , जिसे हम स्थानीयकरण की प्रक्रिया कहते हैं ।

स्थानीयकरण की प्रक्रिया की विशेषताओं को मैकिम मेरियट ने पांच प्रमुख भागों में बाँटकर समझाया है

( 1 ) स्थानीयकरण एक ऐसी प्रक्रिया है , जिसके द्वारा किसी समाज की वृहत परम्परागों के अन्दर एक स्थान विशेष के विश्वासों और कर्मकाण्डों का समावेश होने लगता है ।

( 2 ) स्थानीयकरण की प्रक्रिया बुद्धि एवं विवेक को अत्यधिक महत्त्व नहीं देती । इसका प्राशय है कि स्थानीय विश्वासों के अनुसार वृहत् परम्परा में जो परिवर्तन हो जाते हैं , उन्हें ताकिक अथवा बौद्धिक प्राधार पर विवेचित नहीं किया जा सकता है ।

( 3 ) स्थानीयकरण की प्रक्रिया किसी परम्परा के द्वारा सम्पूर्ण समूह की विशेषता का प्रतिनिधित्व नहीं करती अपितु इस प्रक्रिया के अन्तर्गत एक छोटे से समूह के विचारों , अनुभवों एवं विश्वासों को ही महत्त्व दिया जाता है ।

 ( 4 ) स्थानीयकरण की प्रक्रिया परम्परानों को उनके मूल स्वरूप से दूर ले जाती है । इसका अर्थ है कि किसी परम्परा का प्राचीन धर्म – ग्रन्थ्य में जिस रूप में उल्लेख होता है , स्थानीयकरण की प्रक्रिया उस मूल स्वरूप को परिवर्तित करके उस परम्परा को एक नवीन स्वरूप प्रदान करती है ।

( 5 ) बृहत् परम्पराएं ( Great Traditions ) अत्यन्त व्यवस्थित रूप में होती हैं , लेकिन जब उनका स्थानीयकरण हो जाता है , तो उनसे सम्बन्धित व्यवहारों तथा कर्मकाण्डों ( Rituals ) में कोई व्यवस्था नहीं रह जाती ।

 उपरोक्त विशेषताओं के प्राचार पर मैकिम मेरियट ने अपनी कति में लिखा है कि ” स्थानीय करण स्थानीय विशेषताओं के प्रसार की प्रक्रिया है , यह एक ऐसी प्रक्रिया है , जो बुद्धिमत्ता के क्षेत्र को सीमित बनाती है , परम्पराओं को उनके मूल रूप से पृथक कर देती है , तथा किसी विशेष परम्परामों को कम व्यवस्थित और कम प्रतिनिधि धष्टिकोण से देखती है । ” इस प्रकार हम देखते हैं कि स्थानीयकरण की प्रक्रिया वृहत् परम्परा से लघू परम्परा बन जाने की एक अवधारणा है । बस्तुलः भारतीय ग्रामीण व्यवस्था एवं कृषक समाजों की यह एक प्रमुख विशेषता है । भारत के ग्रामीण जीवन से अनेक उदाहरण इस प्रकार की प्रक्रिया के दिए जा सकते हैं ।

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 स्थानीयकरण के कुछ उदाहरण

( Some Examples of Parochialization )

 मैकिम मेरियट ने स्थानीयकरण की इस प्रक्रिया की गोवर्धन पूजा ( Cownourisher Worship ) एवं नौती ( Nauratha or Navaratri ) के उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया है ।

 मैकिम मेरियट के अनुसार गोवर्धन पूजा का पर्व जिस प्रकार अलीगढ़ जिले के किशनगढी गांव में भगाया जाता है , वह सीमाओं के कुछ प्रकारों तथा परिवर्तनों का उदाहरण प्रस्तुत करता है , जो वहत परम्परामों से लघु परम्परानो लक सांस्कृतिक विषय – वस्तुओं के नीचे की ओर हस्तान्तरण के दौरान होते हैं । सांस्कृतिक विषय – वस्तुओं के रूपान्सर के प्रकार , जो गोवर्धन पूजा के त्यौहार में प्रकट हैं , को व्यक्त करने अर्थात् वृहत् परम्परागत लत्त्वों के नीचे की ओर गलि और तत्त्वों के साथ एकीकरण को बताने के लिए एक पद ( Term ) की आवश्यकता है । इस गति के लिए जो सार्वभौमिकरण ( Universalization ) के विपरीत है , मैकिम मेरियट स्थानीयकरण ( Parochi alization ) पद का सुझाव देता है ।

स्थानीयकरण स्थान को सीमित करने की , बोधगम्यता के क्षेत्र को संकुचित करने की , साहित्यिक स्वरूप को वंचित करने की तथा कम व्यवस्थित एवं कम विचारपूर्ण पायामों में घटित होने की प्रक्रिया है । स्थानीयकरण की प्रक्रिया भारतीय देशी सभ्यता के अन्तर्गत ‘ लघु समुदायों के रचनात्मक कार्य की विशेषता का निर्माण करती है । “

मैकिम मेरियट ने बताया कि किशनगढी गांव के लोग ‘ गोवर्धन पूजा ‘ का त्यौहार मनाते हैं । यहाँ इस सम्बन्ध में दो प्रमुख कथाएं सुनाई देती हैं । गोवर्धन पूजा से सम्बन्धित दोनों ही कथाएँ दसवीं शताब्दी के प्रमुख संस्कृत ग्रन्थ ‘ भागवत – पुराण ‘ से ली गई हैं । यह पुराण हिन्दूरों की वृहत् परम्परा का एक भाग है । वास्तव में किशनगढी से चालीस मील दूर गोवर्धन पर्वत स्थित है ।

 इस पुराण में लिखित कहानी के अनुसार भगवान श्री कष्ण ने एक बार गोवर्धन पर्वत पर अपने साथियों के साथ खेलते हुए उन्हें यह निर्देश दिया कि वे इन्द्र जैसे दूरस्थ देवता की अपेक्षा नजदीक के गोवर्धन पर्वत की पूजा किया करें । कष्ण के साथी ग्वाले उनकी बात मानकर ऐसा करने लगे । ऐसा करने से भगवान इन्द्र अत्यन्त क्रोधित होकर मूसलाधार वर्षा करने लगे और उन्होंने सम्पूर्ण ब्रज को पानी में डुबो देने का प्रयास किया लेकिन इस समय भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाकर ब्रजवासियों के जन – धन की रक्षा की । तब से गोवर्धन पर्वत को पवित्र माना जाने लगा और एक बहुत बड़े क्षेत्र में इसकी पूजा की जाने लगी । शनै : – शनैः गोवर्धन पूजा की इस वृहत् परम्परा में अनेक कर्मकाण्डों ( Rituals ) एवं विश्वासों ( Beliefs ) का समावेश हो गया , जिनका भागवत पुराण की कथा से कोई सम्बन्ध नहीं है ।

 किशनगढ़ी के निवासियों ने इस गाथा . के संकुचित स्वरूप को ग्रहण किया । गोवर्धन ( Cownourisher ) भाषा की अज्ञानता एवं व्युत्पत्ति के कारण स्थानीय भाषा के अनुसार ‘ गोबर – धन ‘ ( Cowdung – wealth ) बन गया । इस प्रकार गांव वालों ने गोबर को ही सबसे बड़ा धन मानना प्रारम्भ कर दिया । किशनगढ़ी के प्रत्येक परिवार के आँगन में गोबर के एक पर्वत के रूप में गोवर्धन दिखलाई देता है । इस गोबर के बने हुए पर्वत को तिनके एवं रूई से बनाए गए पेड़ों से सजाया जाता है । गोबर की बनी दीवार के अन्दर परिवार के गाय , बैल , भैस और यहाँ तक कि परिवार के ग्वाले , पशुमों को चारा खिलाने की नाद , दूध निकालने के बर्तन , पशुओं को पानी पिलाने का स्थान आदि भी गोबर से संकेत के रूप में बनाए जाते हैं । इस दिन परिवार के ग्वाले को एक रुपया भेंट दिया जाता है । संध्या के समय प्रत्येक परिवार के सगोत्री लोग सम्मिलित रूप से इस पर्वत की पूजा करते हैं । पर्वत के मध्य मार्ग में एक दीपक जलाते हैं , पर्वत के चारों ओर बनाए गए पेड़ों पर धागा लपेटते हैं और पितामह गोवर्धन के दीर्घायू होने हेतु नारे लगाते हैं । दूसरे दिन गोबर की इस प्रतिमा को तोड़ दिया जाता है , इसके अवशेषों को ईन्धन के रूप में प्रयोग में लिया जाता है , और इसका कुछ भाग बचाकर उनकी वरगलिएँ बनाकर चार माह बाद होली के दहन के समय जलाने के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है ।

 उपरोक्त गोवर्धन पूजा के उदाहरण से मैकिम . मेरियट यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि किशनगढी के निवासियों के ये सभी व्यवहार स्थानीय विशेषतामों के प्रतीक हैं , अर्थात् जब वहत् ( गोवर्धन पूजा ) के साँस्कृतिक तत्त्वों की गति नीचे की ओर हो जाती है तो इस यात्रा के दौरान उसका रूप बदल जाता है ( जैसे गोबर – धन पूजा ) और वे लघु परम्परा ( Little Tradition ) में एकीकत हो जाते हैं । वृहत परम्परा में बदल जाने की इसी प्रक्रिया को मेरियट ‘ स्थानीयकरण ‘ कहते हैं ।

 इसी स्थानीयकरण की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए मैकिम मेरियट ने एक और उदाहरण दशहरे के अवसर पर मनाए जाने वाले त्यौहार नवदुर्गा या नवरात्रि या नौरथा का उल्लेख PE किया है ।

सम्पूर्ण भारतवर्ष में नवरात्रि का त्यौहार मनाया जाता है , और इस दिन दुर्गा , अम्बा या काली प्रादि की पूजा की जाती है । अतः यह वृहत् परम्परा की श्रेणी में आता है लेकिन वहत् परम्परा का यह त्योहार किशनगढ़ी गांव में पहुंचने तक सम्पर्क के कारण भाषायी अस्पष्टता और अर्थ के नष्ट हो जाने के परिणामस्वरूप एक नई छोटी देवी का प्रादुर्भाव हो गया और यह नई देवी नौरथा ( Nauratha ) के नाम से प्रसिद्ध हो गई । _

 मैकिम मेरियट कहते हैं कि किशनगढ़ी गांव के अध्ययन से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हा कि यहाँ नवदुर्गा की पूजा के समय नौरथा देवी की भी पूजा की जाती है , जिसका हिन्दू धर्म – ग्रन्थों में कोई उल्लेख नहीं मिलता । –

मेरियट के अनुसार दशहरे के अवसर पर नौ दिनों तक गाँव की लड़कियां एवं स्त्रियाँ इस देवी की प्रातः एवं सायं पूजा करती हैं । नौ दिनों तक स्त्रिया एवं लड़कियाँ प्रत्येक दसवें घर से बाहर दीवार पर गोबर एवं मिट्टी की भिन्न – भिन्न प्रकार की प्रतिमाएं प्रतिदिन बनाती हैं , संध्या के समय वहाँ दीपक जलाती हैं , इस नौरथा देवी की पूजा करती हैं , एवं मंगल गीत गाती हैं । किशनगढ़ी गांव में जब गांववासियों से यह पूछा गया कि नौरथा किस देवी का रूप है तो किसी ने उसे दुर्गा का रूप बताया , किसी ने सीता का जबकि अनेक ग्रामीणों ने यह बताया कि वह नवदुर्गा में से ही एक है । उस गांव में कोई भी व्यक्ति यह नहीं जानता था कि नौरथा वास्तव में नवरात्रि का ही एक स्थानीय रूपान्तरण अथवा स्वदेशी नाम ( Indigenous Name ) है , जिसे भाषा सम्बन्धी भ्रम के कारण एक नवीन स्वरूप प्राप्त हो गया ।

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अतः ‘ मेरियट के अनुसार नौरथा एक संकुचित देवी ( Parochial Goddess ) है । इस देवी का हिन्दुओं की वृहत् परम्परा से कोई सम्बन्ध नहीं है , लेकिन एक बार जब इसका जन्म हो गया तो फिर सभी ग्रामीणों ने इसे एक बड़ी देवी के रूप में मान्यता देकर स्वीकार कर लिया ।

 स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति के भीतर स्थानीयकरण की प्रक्रिया निरन्तर छोटी – छोटी स्थानीय परम्परात्रों , कर्मकाण्डों एवं विश्वासों को जन्म देती है । यह सत्य है कि ग्रामीण व्यवस्था में पाई जाने वाली अधिकांश परम्पराओं का सम्बन्ध प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष रूप से आज भी स्थानीयकरण की प्रक्रिया से प्रभावित है । शार विहान लह

डॉ . श्रीवास्तव ने मेरियट से थोड़े हटकर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं । अापके अनुसार नौरथा नवरात्रि अर्थात् दुर्गा का ही एक अन्य वैकल्पिक नाम है , जिसकी नवरात्रि – काल में पूजा की जाती है । लय परम्परा से सम्बन्धित लोग सुविधा की दृष्टि से ही देवी – देवताओं के सामान्यतः वैकल्पिक नाम रख लेते हैं ।

 डॉ . बी . आर . चौहान ने भी गोवर्धन पूजा के प्राधार पर वरिणत स्थानीयकरण की अवधारणा की मालोचना की है , और यह बताया कि इस अवधारणा को प्रस्तावित करने के लिए गोवर्धन पूजा के त्यौहार को आधार के रूप में मानने की अपेक्षा . परीक्षरण – स्थल के रूप में समभा जाना चाहिए ।

लेविस स्पेन्स ने भी बताया है कि अर्ध – सभ्य लोगों में बड़े देवताओं के कार्यों में निरन्तर बति होती रही है । द्वन्द्वात्मक गलतफहमियों के कारण वरणनात्मक शब्दों का सृजन हा जो देवी नामों में परिवर्तन लाए । इस प्रकार देवी – देवताओं का स्थानीय नाम पाकर यह कहना कि वहत परम्परा के उस देवी – देवता का स्थानीयकरण हुआ है और लोकजना ने उन्हें अपना बनाकर अपनी परम्परा में प्रात्मसात कर लिया है , एक बड़ी भूल होगी । इसके अतिरिक्त भारत के दूसरे क्षेत्रों में लोकजन नौरथा नामक किसी भी देवी को नहीं जानते हैं और न ही वे नवरात्रि पूजा को दुर्गा के अतिरिक्त अन्य किसी धित करते हैं । इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि नौरथा शब्द का प्रयोग नवरात्रि की देवी दुर्गा के लिए ही किया है , न कि किसी अन्य देवी के लिए ।

स्थानीयकरण की अपनी अवधारणा को और अधिक स्पष्ट करने के लिए मैकिम मेरियट ने कुछ देवताओं के भी उदाहरण दिए हैं । प्रापके अनुसार किशनगढ़ी में सुक्राचार्य नामक देवता भी स्थानीयकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं लेकिन श्री वास्तव के अनुसार मैकिम मेरियट की यह व्याख्या ठीक प्रतीत नहीं होती । मैकिम मेरियट ने एक स्थान पर लिखा है कि किशनगढ़ी के प्रमुख ब्राह्मण खानदान के बुजुर्गों ने कुछ समय पहले सुक्राचार्य की पूजा करने के लिए पहलवों की प्रमशान भूमि में एक पेड़ के नीचे एक पत्थर खड़ा कर दिया , जहाँ उस परिवार की नववधएँ पति के घर पाने के कुछ ही दिनों के अन्दर अपने पति के साथ जाकर सुक्राचार्य का प्रतिनिधित्व करने वाले उस पत्थर की पूजा करती हैं । वे पुनः लिखते हैं कि उस खानदान की स्त्रियाँ तथा उस खानदान की नायन ( नाई की पत्नी ) ने मैकिम मेरियट को बताया कि सुक्राचार्य का प्रतिनिधित्व करने वाला वह पत्थर किसी सांस्कृतिक देवता का उद्बोधक नहीं है , अपितु उसी ब्राह्मण परिवार के पितरों का स्थल है । इस तथ्य को जानते हुए भी मैकिम मेरियट ने जबरन इस बात को थोपने का प्रयास किया कि सांस्कृतिक देवता . सुक्राचार्य स्थानीयकरण की प्रक्रिया के माध्यम से किशनगढ़ी ग्राम में एक स्थानीय देवता बन गए हैं ।

इन पालोचनामों के बाद भी मैकिम मेरियट द्वारा प्रतिपादित उपरोक्त अवधारणा स्थानीयकरण भारतीय ग्रामीण व्यवस्था को समझने के लिए एक प्रत्यन्त महत्त्वपूर्ण अवधारणा है ।

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