भारतीय समाज में  विविधता  में एकता

भारतीय समाज में  विविधता  में एकता

भारतीय समाज में विविधताएँ

( Diversities in Indian Society )

 

  भौगोलिक विभिन्नताएँ ( Geographical Diversities ) – भारतीय समाज के भौगोलिक स्वरूप से यह स्पष्ट है कि भारत भौगोलिक दृष्टि से अनेक विभिन्नतामों वाला एक राष्ट्र है । भारत के उत्तर में विराट हिमालय की गगनचुम्बी बर्फमण्डित शृंखलाएं हैं तो दक्षिण में फैला हुमा विशाल समुद्र है । यहाँ गंगा , यमुना और सिन्धु का विशाल उपजाऊ मैदान भी है तो दूसरी ओर राजस्थान का विशाल फैला हुआ मरुस्थल । यहाँ अनेक पहाड़ , पठार एवं वन – प्रदेश हैं ।

 भारत का क्षेत्रफल सोवियत रूस को छोड़कर समस्त यूरोप के क्षेत्रफल के बराबर है

प्रजातीय विभिन्नता ( Racial Diversities ) – भारत को ‘ प्रजातियों का अजायबघर ‘ ( Museum of Races ) कहा जाता है । भारत में बहुत नाटे कद वाले नीग्रिटो प्रजाति के निवासी हैं एवं लम्बे कद वाले नोडिक प्रजाति के लोग भी हैं । यहाँ पीले रंग वाले मंगोलाइड भी रहते हैं तो दूसरी ओर चॉकलेटी रंग वाले प्रोटो – आस्ट्रेलॉयड भी हैं । भारत में एक ओर लम्बे सिर वाले मध्य सागरीय प्रजाति के लोग निवास करते हैं वहीं दूसरी ओर चौड़े सिर वाले अल्पाइन प्रजाति के लोग भी रहते हैं । इस तरह भारत नीग्रिटो , प्रोटो – आस्ट्रेलॉयड , मंगोल , भूमध्यसागरीय , माल्पाइन , डिनारी , आर्मीनॉयड , नोडिक आदि प्रजातियों का संगम – स्थल रहा है । सर हरबर्ट रिजले ( Sir Herbert Risley ) ने भारतवर्ष के लोगों को प्रजातीय दृष्टि से सात भागों में बाँटा है । लेकिन यह विवरण बाद में विवादास्पद हो गया । यद्यपि भारतीय प्रजातियों के सम्बन्ध में अब भी व्यापक मतभेद है फिर भी जी . एस . घुर्वे ( G . S . Ghurve ) ने इसे मुख्यतः मोटे तौर पर पांच समूहों में बाँटा है , जो उनके सांस्कृतिक कार्यों एवं शारीरिक लक्षणों के रूप में स्पष्टतः प्रकट होते हैं । वे हैं – इण्डो – आर्यन , द्रविड , पूर्व – द्रविड , मुण्डा एवं मोंगोलाइड ।

  धार्मिक विभिन्नता ( Religious Diversities ) – भारत में धर्मों में भी विभिन्नताएँ हैं । भारत अनेकानेक धर्मों की लीला – भूमि है । यहाँ एकाधिक धर्म और उसके अनुयायी कितने ही वर्षों से साथ – साथ रहते हैं । यही कारण है कि हिन्दू धर्म के अगणित रूपों और सम्प्रदायों के अतिरिक्त इस देश में बौद्ध , जैन , सिक्ख , इस्लाम , ईसाई आदि धर्मों का प्रचलन है । केवल हिन्दू धर्म के ही विविध सम्प्रदाय व मत सारे देश में फैले हुए हैं जैसे वैदिक धर्म , पौराणिक धर्म , सनातन धर्म , शाक्त धर्म , शैव धर्म , वैष्णव धर्म , राजा बल्लभ सम्प्रदाय , नानक – पंथी , आर्य – समाज , ब्रह्म समाजी अादि । इनमें से कुछ धर्म साकार ईश्वर की पूजा करते हैं , तो कुछ धर्म निराकार ईश्वर की आराधना करते हैं , कोई पशु – बलि और यज्ञ पर बल देता है तो कोई अहिंसा का पुजारी है , किसी धर्म में भक्ति मार्ग की प्रधानता है तो किसी में ज्ञान मार्ग की ।

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 सांस्कृतिक भिन्नताएं ( Cultural Diversities ) भारत में प्रथाओं , वेष – भूषा , खान – पान , रहन – सहन , कला , आदि के दष्टिकोण से भी काफी भिन्नताएं पायी जाती हैं । प्रत्येक क्षेत्र के लोगों की अपनी विशिष्ट प्रथाएं हैं और यहां तक कि एक ही क्षेत्र के विभिन्न धार्मिक समूह की प्रथाओं में भी बहुत कुछ अन्तर है । जहां तक वेश – भूषा का प्रश्न है , यह कहा जा सकता है कि उत्तर और दक्षिण के लोगों की , ग्रामीण और नगरीय लोगों की , हिन्दू और मुसलमानों की , परम्परावादी और आधुनिक कहे जाने वाले लोगों की वेश – भूषा में रात – दिन का अन्तर है । खान – पान की दृष्टि से विचार करने पर भी हम देश के विभिन्न भागों में काफी भिन्नता पाते हैं । विभिन्न क्षेत्रों में कला , संगीत और नृत्य की दृष्टि से भी भिन्नता दिखायी पड़ती है । कहीं कोई शैली प्रचलित है तो कहीं कोई अन्य शैली । यहां मन्दिरों , मस्जिदों , चर्चों तथा स्तूपों , आदि में कला की भिन्नता का सरलता से पता लगाया जा सकता है । यही बात संगीत और नृत्य के सम्बन्ध में सही है । पंजाब में लोहड़ी एवं भंगड़ा , राजस्थान में घूमर , गुजरात में गर्भा एवं दक्षिण में भरतनाट्यम मृत्यों की प्रधानता है । इसी प्रकार से विभिन्न प्रान्तों के त्यौहारों ऐवं उत्सवों में भी भिन्नता पायी जाती है । स्थानीय देवताओं में भी भिन्नता पायी जाती है । विभिन्न भागों में लोगों के विश्वासों , नैतिकता सम्बन्धी धारणाओं और वैवाहिक एवं अन्य निषेधों में भी काफी भिन्नता देखने को मिलती है । यहां एक विवाह , बहुपति विवाह एवं बहुपत्नी विवाह को मानने वाले लोग भी हैं । पितृसत्तात्मक एवं मातृसत्तात्मक दोनों प्रकार की परिवार व्यवस्था यहां पर विद्यमान है ।

  नेता तथा जनसाधारण ( Leaders and the Masses ) इस देश में संख्यात्मक दृष्टि से नेताओं या अभिजात वर्ग ( Elite Group ) की तुलना में जनसाधारण का अनुपात अन्य विकसित देशों की बजाय काफी ऊंचा है । गुणात्मक दृष्टि से जनसाधारण और अभिजात वर्ग के बीच काफी बड़ी खाई पायी जाती है । यहां करीब 52 . 21 प्रतिशत लोग ही शिक्षित हैं और उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या तो बहुत ही सीमित है । यहां शिक्षा की अवधारणा और अधिकतर विषय – वस्तु

 

का स्रोत भी विदेशी संस्कृति है । यहां जनसाधारण और अभिजात वर्ग के लोगों में जीवन – शैली की दृष्टि से काफी भिन्नता पायी जाती है । जनसाधारण में परम्परावादी लोग ज्यादा हैं तो अभिजात वर्ग में आधुनिक । यहां तक कि आधुनिक कहे जाने वाले लोगों में भी परम्परा और आधुनिकता ( Tradition and Modernity ) दोनों का ही प्रभाव विभिन्न अंशों में विभिन्न अवसरों पर देखा जा सकता है । यहां जनसाधारण और अभिजात वर्ग के बीच संचार ( Communication ) भी कम ही पाया जाता है । इस दृष्टि से भी भारतीय समाज में विविधता देखने को मिलती है ।

. जनजातीय भिन्नता ( Tribal Diversities ) जनजातीय दृष्टि से भी भारत में अनेक भिन्नताएं पायी जाती हैं । इस देश में 6 . 78 करोड़ से भी अधिक जनजातीय लोग निवास करते हैं । प्रत्येक जनजाति समूह की अपनी विशिष्ट संस्कृति एवं जीवन पद्धति है । कुछ जनजातियां अब भी अपने विकास की आदिम अवस्था में हैं तो कुछ काफी मात्रा में सभ्य हो चुकी हैं और आधुनिक ढंग का जीवन जी रही हैं । जनसंख्या की दृष्टि से मध्य प्रदेश में सर्वाधिक जनजातीय लोग निवास करते हैं । उसके बाद क्रमशः उड़ीसा , बिहार , गुजरात , राजस्थान , महाराष्ट्र , आन्ध्र एवं असम राज्य आते हैं । शेष प्रान्तों में इनकी संख्या बहुत कम है । विभिन्न जनजातियों के खान – पान , परिवार , विवाह एवं नातेदारी व्यवस्था में भी अनेक भिन्नताएं पायी जाती हैं ।

  जातीय भिन्नता ( Caste Diversities ) भारत में लगभग तीन हजार जातीय समूह हैं । प्रत्येक जाति के अपने खान – पान , विवाह , सामाजिक सहवास के नियम हैं । जातियों का सम्बन्ध एक निश्चित व्यवसाय से भी है और विभिन्न जातियों के बीच ऊंच – नीच का . एक संस्तरण है , इस आधार पर वे परस्पर छुआछूत बरतती हैं । कुछ जातियां ऐसी हैं जो एक क्षेत्र विशेष तक ही सीमित हैं जैसे मराठा , महर एवं मंग महाराष्ट्र में ; पाटीदार एवं कुनवी गुजरात में ; कामा एवं रेड्डी आंध्र में ; इजावाह केरल में ही पाये जाते हैं । सम्पूर्ण भारतीय समाज विभिन्न जातीय खण्डों में विभक्त है ।

 

 भाषायी विभिन्नताएँ ( Linguistic Diversities ) – भारतवर्ष में 1 . 652 मातृ – भाषाओं का प्रचलन है , जिन्हें 826 भाषामों के अन्तर्गत लाया जा सकता है । इन भाषाओं में 103 अभारतीय भाषाएँ भी सम्मिलित हैं । हिन्दी भाषा को बोलने वालों की संख्या सर्वाधिक है । 13 , 34 , 35 , 360 व्यक्ति इस भाषा को बोलते हैं और इसे बोलने वाले विशेष कर उत्तर प्रदेश में रहते हैं । इसके बाद मश : तेलगु व बंगला भाषानों का स्थान है । इन भाषानों को बोलने वालों की संख्या क्रमशः 3 . 77 करोड़ तथा 3 39 करोड़ है । इसके बाद भाषा को बोलने वालों की संख्या के आधार पर हम इस देश की विभिन्न भाषाओं को इस क्रम में प्रस्तुत कर सकते हैं – मराठी , तमिल , उर्दू , गुजराती , कन्नड़ , मलयालम , बिहारी , उड़िया , राजस्थानी , पंजाबी , प्रासामी , संथाली , भीली , कश्मीरी , गोंडी तथा सिन्धी । संस्कृत भाषा को बोलने वालों की संख्या केवल 2 , 544 है । इन भाषानों को चार अलग – अलग भाषा – परिवारों – प्रार्थन , द्राविड़यन , प्रास्ट्रिक और चीन – तिब्बती भाषा परिवार से सम्बद्ध किया जा सकता है ।

  आर्थिक विभिन्नता ( Economic Diversities ) – भारत में प्राथिक रूप से अनेक विभिन्नताएँ दिखाई देती हैं । भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर आधारित है परन्तु बहुत अधिक समय तक यह केवल कृषि पर आधारित नहीं रह सकती । यहाँ व्यापार एवं वाणिज्य की उन्नति से प्रार्थिक जीवन की इकाइयों में एक अनिवार्य रूप से विस्तार हो रहा है । भारत में उच्च वर्ग भी हैं एवं दूसरी ओर बहुत बड़ा भाग निम्न या मध्यम वर्ग में रखा जा सकता है । देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन करता है , जबकि कुछ थोड़े से चुने हुए लोग सम्पन्न एवं विलासी जीवन बिताते हैं । आर्थिक विभिन्नता भारतीय समाज में यद्यपि प्रारम्भ से ही रही है लेकिन फिर भी स्वतन्त्रता के बाद यहां की अर्थव्यवस्था ने सम्पन्न लोगों को और अधिक सम्पन्न करने में एवं विभिन्न लोगों को अपना जीवन – स्तर उठाने में सहयोग दिया है ।

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 भारतीय समाज में  विविधता  में एकता

 ( Unity in Diversity in India )

 

 

 ऐतिहासिक विविधता में एकता — अति प्राचीन काल से ही भारत विदेशियों के लिए मुख्य आकर्षण का केन्द्र रहा है । इसके प्राकृतिक वैभव , धन , सम्पदा व प्रसिद्धि के कारण विदेशी भारत में आने का मोह न त्याग सके । फलतः विदेशी लोग येन – केन प्रकारेण भारत में आते रहे । कुछ इसे लूट कर रह गये और साथ ही कई धर्मों व प्रजातियों के लोग यहां बस गये । उनके इतिहास में भिन्नता का होना स्वाभाविक है , किन्तु जब वे भारत में स्थायी रूप से बस गये तो उन्होंने एक समन्वित संस्कृति का निर्माण किया । प्राचीन समय से ही विभिन्न धर्मों , जातियों एवं संस्कृतियों ने एक समान भारतीय इतिहास का निर्माण किया है ।

 

 जातीय विविधता में एकता — जाति – व्यवस्था के अन्तर्गत भारत में विभिन्न प्रकार की जातियां पायी जाती हैं । जाति – व्यवस्था एक खण्डात्मक संरचना है जिसमें अनेक उपजातियां सम्मिलित हैं । प्रत्येक खण्ड की अपनी विशेषताएं , रीति – रिवाज और प्रथाएं हैं । इन विभिन्नताओं के बावजूद सभी जातियों में कई समानताएं भी हैं । विभिन्न जातियों के बीच पायी जाने वाली पारस्परिक निर्भरता ने भी जातियों को एकता के सूत्र में पिरोये रखा । समय – समय पर अनेक बाह्य – आक्रमणकारी लोग यहां आते रहे हैं , किन्तु वे सभी भारतीय जाति – व्यवस्था में घुल – मिल गये और उसी के अंग बन गये । जजमानी प्रथा द्वारा भी वे एक – दूसरे पर निर्भर रही हैं । जाति – व्यवस्था ने सारे भारत की एकता उस समय भी बनाये रखी जबकि सम्पूर्ण यूरोप बर्बरता के दलदल में डूबा हुआ था । इस प्रकार जाति – व्यवस्था ने भारत में एकता बनाये रखने में सहयोग दिया है । ( 9 ) मानसिक विविधता में एकता भारत देश विभिन्न धर्मों , जातियों व भाषाओं का देश है । इस देश में विभिन्न संस्कृतियों का आश्चर्यजनक संगम हुआ है । प्रत्येक संस्कृति , भाषा व धर्म की अपनी विशेषताएं होती हैं जो व्यक्ति को मानसिक रूप से प्रभावित करती हैं । प्रत्येक व्यक्ति के विचारों पर उसके धर्म व संस्कृति की अमिट छाप देखी जा सकती है । अतः इस विभिन्न संस्कृतियों व धर्मों वाले देश में मानसिक विविधता का पाया जाना स्वाभाविक है ।

 

  सांस्कृतिक एकता ( Cultural Unity ) – भारतीय समाज का साँस्कृतिक जीवन विविधतायों से भरा पड़ा है । भारत की सांस्कृतिक परम्परा अत्यन्त विशिष्ट है । धर्म , कर्म एवं जाति भारतीय संस्कृति के सामाजिक स्तरी करण की पदसोपानिक व्यवस्था में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं । किसी स्तर तक इन तत्त्वों की एकमतता में भारतीय समाज में सन्तुलन एवं स्तरीकरण की प्रक्रिया को बल दिया है और यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है । यह कहा गया है कि जो कुछ परिवर्तन भारतीय समाज में हुअा है वह उसकी सांस्कृतिक व्यवस्था में हुया है न कि सम्पूर्ण व्यवस्था में । दूसरे शब्दों में हमारे आधारभूत साँस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्य व मानक थोड़े – बहुत संशोधनों के साथ जारी हैं ।भारतीय संस्कृति की एकता को समझने के लिए प्रावश्यक है कि इसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को देखा जाए । सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन के रूप सहिष्णुता एवं सात्मीकरण की प्रक्रियाएं भारत में विशिष्ट रही हैं । ग्रार्य एवं द्रविर साथ रहे । हिन्दू और मुस्लिम भी घनिष्ट रूप से एक – दूसरे के साथ रहे । बाद ईसाई भी इनमें शरीक हो गए । आज भारत की सामाजिक एवं सार्वजनिक जीवन में चाहे वह उद्योग , वाणिज्य अथवा सरकारी प्रतिष्ठान ही क्यों न हो उसमें हिन्द जैन , मुस्लिम , सिख , निश्चयन आदि सभी साथ – साथ काम करते हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि इतनी विविधता के बाद भी भारतीय समाज में निरन्तर एकता के दर्शन होते हैं ।

 मार्थिक एकता ( Economic Unity ) – – भारतीय समाज में आर्थिक विभिन्नताओं का भी पर्याप्त समावेश है , कृषि एवं कृषिगत व्यवसाय यद्यपि भारतीय अर्थव्यवस्था का प्राण है , लेकिन फिर भी अाधुनिक प्रौद्योगिक क्षेत्र में भी भारतीय समाज किसी भी रूप में पीछे नहीं है । प्रौद्योगिक क्रान्ति ने सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में ही आश्चर्यजनक विविधताएँ उत्पन्न कर दी , लेकिन फिर भी भारतीय अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता के प्रति किसी तरह का सन्देह नहीं है । हमायं कबीरन लिखा है कि ” देश की भौगोलिक एकता का प्रभाव लोगों के आर्थिक जीवन पर पड़ा । है । भूगोल अर्थ – व्यवस्था को विशेष ढंग से ढालता ही है । यहाँ भी देश के प्राव और उसके उपजाऊपन ने एकता में सहायता पहुंचाई । देश के आकार और जमा की किस्म के कारण लोगों का विस्तार धीरे – धीरे मा और खेती का फैलाव धीरे – धीरे ही हुआ । अगर देश आकार में छोटा होता तो जो लोग यहाँ पहले होते देबारी – बारी से अगर निर्मुल नहीं किए जाते तो कम से कम बाहर अवश्य खदेड़ दिए जाते और खेती कहीं अधिक तेजी के साथ बढ़ाई जाती । जमीन को किस्मों में बहुत भेद होने से विभिन्न क्षेत्रों में असमान विकास होता । इन दोनों में से कोई भी संयोग होने पर उत्पावन पद्धति को लेकर बराबर प्रयोग होते रहते और नए – नागके प्राधिक समाज अस्तित्व में प्राते । इसमें तो कोई शक नहीं कि उत्पादन की रीतियों और उत्पादन – शक्तियों के साथ विभिन्न वर्गों के सम्बन्ध का समाज के रूपों पर बड़ा गहरा असर पड़ता है । लगभग चार – पाँच हजार वर्ष हो गए , भारत में निरन्तर कृषि प्रधान अर्थ – व्यवस्था की प्रतिष्ठा रही है और उसका विकास होता पाया है – इस तथ्य से कुछ हद तक उसकी संस्कृति , परम्पराओं की गहराई और छत्ता समझ में आ जाती है । इतना समय बीत जाने से एक – सी मनोवृत्ति पैदा होने में भी सहायता मिली है । देश भर में ग्रायिक संगठन की एकला होने के कारण इस प्रवृत्ति को और भी बल मिला है । यह सभी के अनुभव की बात है कि एक – से धन्धे करने वाले लोगों की मनोवृत्ति भी एक – सी हो जाती है । जैसा ऊपर कहा गया है भारत की अर्थ – व्यवस्था मूलतः कृषिप्रधान रही है ।

 

  सामाजिक एकता ( Social Unity ) – भारतीय संस्कृति के सामाजिक पहलूगों की शक्ति और कमजोरी जानने – समझने के लिए सबसे अच्छा साधन यह है कि वर्णन व्यवस्था का अध्ययन किया जाए । वर्ण – विभाजन के प्रति जो प्राक्षेप हैं , वे स्पष्ट हैं । इसके कारण भारतीय जीवन की एकता नष्ट हुई । इससे लोकतन्त्र के विकास में बाधा पड़ी । उच्च वर्गों में इसके कारण दिखावे और अहंकार की भावना पैदा हुई । निम्न बर्गों में इसने हीनता और दासत्व की भावना को जन्म दिया । वर्ण – व्यवस्था के विरुद्ध ये सब आक्षेप सही हैं और भी आक्षेप हो सकते हैं परन्तु फिर भी एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि इस व्यवस्था का जन्म मूलतः असहिष्णूतापीर समन्वय की भावना के कारण होना । वर्ण – व्यवस्था की सहिष्णुता की अभिव्यक्ति मानना पहले – पहले कुछ विरोधा भास – सा लगता है । परन्तु अगर हम यह याद रखें कि भारत एक ऐसा अखाड़ा रहा है जहाँ अनेक जातियाँ विजेतानों की तरह से प्राई पर बाद में परवर्ती अाक्रान्ताओं के द्वारा स्वयं विजित होकर रह गईं तो वह विरोधाभास अपने – ग्राप विलीन हो जाता है । रक्त , रंग और भाषा की ऐसी विविधता के बीच , विभिन्न प्रथाओं और विश्वासों में रहते हुए देश को एक सामाजिक और राजनीतिक इकाई का रूप दे पाना असम्भव – सी बात थी । 18वीं – 19वीं सदी में यूरोपीय उपनिवेशकों को भी अमेरिका , प्रास्ट्रेलिया और अफ्रीका में ऐसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ा था । यरोपियनों और वहाँ के देशी निवासियों में बड़ा वैषम्य था पर भारत के प्राय आक्रान्तानों को जितने बड़े वैषम्य का सामना करना पड़ा , उससे वह अधिक न था । सच तो यह है कि भारत में दोनों के लिए एक – दूसरे के साथ मेल बिठा लेने की समस्या कहीं जटिल थी । यूरोपियनों को जिन स्थानीय कबीलों से वास्ता पड़ा उन में काफी हद तक एक विविधता थी । उनके विकास की स्थिति भी काफी हद तक एक जैसी और एक रूप ही थी । भारत में , जिन जातियों और कबीलों का एक – दूसरे से वास्त पड़ा , वे बहुत – सारे तो थे ही पर इसके साथ ही उनकी सभ्यता और संस्कृति के स्तरों में अपार विविधता और विषमता थी । यूरोपीय उपनिवेशकों को तो दो तत्त्वों के संघर्ष का ही समाधान करना पड़ा परन्तु आर्य अधिवासियों को अपार विविधता में से एक ऐसी एकता खोज निकालनी पड़ी कि उनका काम चलता रहे ।

धार्मिक एकता ( Religious Unity ) – भारतीय धर्मों की कहानी भी वही एकता और निरन्तरता की कहानी है । हम संक्षेप में इस बात का जिक्र कर चुके हैं कि भारतीय धमों में जो आश्चर्यचकित कर देने वाली विविधता है , उसका कारण यह है कि हिन्दू धर्म की चिन्तन – धारा में भिन्न – भिन्न और शायद परस्पर विरोधी मत समाते गये हैं । प्रादि आर्य प्रकृति की शक्तियों की पूजा करते थे और अपनी पुरा – कथाओं तथा मन्त्रों में उन्होंने उनका मानवीकरण कर दिया है । भारत में बस जाने के तुरन्त बाद हम देखते हैं कि वैदिक देवता धीरे – धीरे अपनी महत्ता खोते चले जाते हैं । उनका स्थान त्रिदेव ग्रहण कर लेते हैं । इन विदेवों में ब्रह्मा के स्थान पर क्रमशः शक्ति की प्रतिष्ठा हुई । वैदिक साहित्य में किसी ऐसी देवी का उल्लेख नहीं जिसका शक्ति से कोई भी सादृश्य हो और विष्णु तथा शिव के उल्लेख भी बहुत ही कम हैं । विभिन्न धर्मों की जन्म – स्थली भारत में कहने को अनेक धर्म , मत , धामिक: तु यदि आप योड़ा गहराई से देखें तो पाएंगे कि सभी धर्म

समान दार्शनिक एवं नैतिक सिद्धान्तों पर अवलम्बित हैं । सभी धर्म , ईश्वर , आत्मा , पुनर्जन्म , अध्यात्मवाद , कर्म , माया , मोक्ष , पाप – पुण्य , सत्य , असत्य , स्वर्ग – नरक , दया , ईमानदारी , सत्य , अहिंसा यादि में विश्वास करते हैं । भारतीयों की सात पवित्र नदियाँ ( गंगा , यमुना , गोदावरी , सिन्ध , सरस्वती , नर्मदा , कावेरी ) यद्यपि देश के विभिन्न भागों में स्थित हैं परन्तु सम्पूर्ण भारतवासी उन्हें समानभाव से पवित्र व श्रद्धास्पद मानते हैं । भारत के देवताओं जैसे शिव , राम , कृष्ण , विष्णु प्रादि का गुणगान भी लगभग सम्पूर्ण भारत में किया जाता है । चारों दिशाओं में स्थित चार धाम ( उत्तर में बद्रीनाथ , दक्षिण में रामेश्वरम् , पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिका ) भारत की धार्मिक एकता व अखण्डता के पुष्ट प्रमाण हैं । समस्त भारतीय समान रूप से वेद , उपनिषद् , गीता , रामायण , महाभारत , कुरान , बाइबल , धर्मशास्त्र , पुराण आदि के प्रति श्रद्धा रखते हैं । इस प्रकार भारत में धार्मिक एकता व अखण्डता को देखा जा सकता है ।

 भाषायी एकता ( Linguistic Unity ) – भारतीय संस्कृति की एकता और अविच्छिन्नता उसकी विभिन्न भाषामों में भी व्यक्त होती है । आज अक्सर भारत की भाषायों के आपसी भेदों पर जोर दिया जाने लगा है और इन भेदों को बढ़ा – चढ़ा कर दिखाने के स्पष्ट ही कुछ राजनीतिक कारण हैं । पर अतिशयोक्तियों से काम लेकर भी उनकी प्रकृति और दष्टि की मूलभूत एकता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । इस बात से तो कोई इन्कार नहीं कर सकता कि उनके स्रोत भिन्न – भिन्न है – प्रार्य , द्रविड़ , जन जातीय । जातियों के संश्लेषण की तरह भाषाओं का भी संश्लेषण हुअा है और इसी संश्लेषण के कारण उनमें से अनेक जीवित हैं और उन्हें एक ही दृष्टिकोण के सूत्र में बंधे रह कर विकास के पूरे अवसर मिले हैं । संस्कृत एक ऐसी भाषा है जिसका निर्माण किसी पूर्ववर्ती भाषा – रूप के आधार पर हुआ — यह बात उसके नाम से ही स्पष्ट है , परन्तु उसने भारत की दूसरी भाषाओं के शब्द – भण्डार और रचना – शैली पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला है । यह प्रभाव इतना गहरा है कि कभी – कभी तो कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष तक निकाला है कि सारी भारतीय भाषाओं का एक ही प्राधार है – संस्कृति , और वे सब इसी भाषा के विकसित रूप हैं । तमिल जैसी भाषा भी – जिसका साहित्य भारत भूमि पर पार्यों के आगमन से पहले ही काफी विकसित था – संस्कृति के प्रभाव से अछूती नही रह सकी । समय बीतता गया है परन्तु संस्कृत की इस परम्परा का रंग फीका नहीं पड़ा है । नए – नए आक्रान्ता आए , उन के साथ नई – नई भाषाएँ आईं और उन्होंने संस्कृत की प्रभुता को चुनौती दी परन्तु संस्कृत का प्रभाव ज्यों का त्यों बना हुअा है , शायद और भी बढ़ गया है । इस प्रकार सभी भारतीय भाषाओं का बहुत सारा शब्द – भण्डार एक जैसा है और व्याकरणिक रचना में भी उनमें बहुत कुछ समानताएँ हैं ।

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 कला और साहित्य की एकता ( Unity of Art & Literature ) भारतीय जीवन में कला की एकता भी कम उल्लेखनीय विषय नहीं हैं । स्थापत्य कला , मूर्तिकला , चित्रकला , नत्य , संगीत आदि के क्षेत्र में हमें एक अखिल भारतीय समानता देखने को मिलती है । इन सभी क्षेत्रों में देश की विभिन्न कलाओं का एक अपूर्व मिलन हुआ है । देश के विभिन्न भागों में बने मन्दिरों , मस्जिदों , चर्चों तथा इमारतों में इस मिलन का प्राभास होता है । दरबारी , मियाँ मल्हार , ध्र पद , भवन , ख्याल , टप्पा , ठुमरी , गजल यहाँ तक कि पाश्चात्य धुनों का भी विस्तार सारे भारतवर्ष में है । इसी प्रकार भरतनाट्यम् , कथकली , कत्थक , मणिपुरी प्रादि सब प्रकार के नृत्य भारत के सभी भागों में प्रचलित हैं । अतः हम कह सकते हैं कि कला के क्षेत्र में भी भारत में अखण्ड एकता है ।

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