भारतीय गांवों में शक्ति संरचना
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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भारत एक कृषि प्रधान देश होने के नाते भूमि के स्वामी के पास शक्ति केन्द्रित रही है । अंग्रेजी शासनकाल में शक्ति . संरचना जमींदारी व्यवस्था पर आधारित थी । जमींदार ही संपूर्ण ग्रामीण . आर्थिक व्यवस्था को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से संचालित एवं नियंत्रित करता था । इस तरह अंग्रेजी शासनकाल में ग्रामीण शक्ति . संरचना सामन्ती समाज के हाथों में थी । इन जमींदार और ताल्लुकेदारों के पास असीमित कृषिभूमि थी । ये अथाह सम्पत्ति के स्वामी थे । सम्पूर्ण ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था और जातीय संगठन पर इनका एकाधिकार था । इसलिए ये भू . स्वामी अत्यधिक शक्तिशाली थे । श् शक्ति श् का प्रतिनिधित्व ये सामन्त ही करते थे । पंचायती व्यवस्था पर भी इनका काफी प्रभाव व दबाव था । अंग्रेजी सरकार ने जमीदारों की मालगुजारी वसूल करने का अधिकार प्रदान किया और इसी नीति ने इन्हें अत्यधिक शक्तिशाली बना दिया । जमींदार और ताल्लुकेदारों को भूमि के स्वामित्व में न्यायिक अधिकार भी दिये गये । ये व्यक्ति ही भूमि के स्वामी समझे जाते थे और बाकी लोग श् रैयत श् कहलाते थे जिन्हें मात्र भूमि के जोतने और लगान देने के एवज में उस पर केवल खेती करने का अधिकार था । सेवक और शूद्र जातियां भी पूर्ण रूप से जमींदारों के आदेशों के अनुसार कार्य करती थीं । इस तरह अंग्रेजी शासनकाल में सामन्तों के पास असीमित अधिकार और शक्ति थी । जैसा चे चाहते थे वैसा ही गांवों में होता था । उनकी इच्छा के विरूद्ध गांव में कुछ भी घटित नहीं हो सकता था । गांव पंचायतें . गांव पंचायतें ग्रामीण समाज की शक्ति की महत्वपूर्ण साधन रही हैं किन्तु इस संस्था पर भी जमींदारों का वर्चस्व था । जमीदारों की राय लेकर ही इसमें प्रतिनिधि रखे जाते थे चाहे वे किसी वर्ग और जाति के क्यों न हों । जमीदारों के विश्वासपात्र और सेवक ही इसमें स्थान प्राप्त करते थे । ये एक ऐसी महत्वपूर्ण संस्था थी जो संपूर्ण ग्रामीण व्यवस्था को नियंत्रित रखती थी । यह जाति पंचायतों की अपीलें भी सुनती थी और भूमि संबंधी झगड़े भी । जाति पंचायतें . ग्रामीण संरचना में शक्ति के रूप में जाति पंचायतों का अपना स्थान रहा है । ये विशेष जातियों की रक्षा करती थीं । ये विभिन्न जातियों के व्यक्तियों की उनके शत्रुओं से रक्षा करती थीं । यद्यपि अंग्रेजी शासनकाल में सामन्तों को अत्याधिकार देकर जाति पंचायतों को शक्तिहीन बना दिया गया था । इनका अस्तित्व समाप्त हो गया था । अंग्रेजी पुलिस व्यवस्था ने भी जाति पंचायतों की शक्ति और संगठन को काफी आघात पहुँचाया । जमींदारी समाप्त होने तक जाति पंचायतें मृत समान थीं । नीची जातियों में ही इन्हें विघटित रूप में देखा जाता था । जाति पंचायतों का मुख्य कार्य अपनी जातियों की रक्षा करना और यदि कोई व्यक्ति जाति नियमों का उल्लंघन करता है तो उसे दण्ड देना था । जातिगत नीतियों को बनाये रखने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी । आज गांव पंचायत व्यवस्था ने अपनी संकीर्ण सीमाएं बना ली हैं । अपनी जाति की रक्षा करना इनका मुख्य उद्देश्य है और दूसरी जातियां यदि इन्हें प्रताड़ित करती हैं तो उनका सामना करना है । इन सबके कारण ग्रामीण क्षेत्र में जातिगत गुटबंदी अधिक हो गई है । ये पंचायतें अब शक्ति को हथियाने में लगी हुई हैं जिससे विभिन्न जातियों के मध्य तनाव ए संघर्ष व घृणा में वृद्धि हो रही है ।
शक्ति का परिवर्तनशील चरण
ग्रामीण समाज की निर्धनता ए दरिद्रता और पिछड़ेपन का मूल कारण जमींदारी प्रथा और सामन्ती राज्य था । इस वर्ग ने ग्रामीण निर्धन ए अशिक्षित अन्धविश्वासी और भाग्यवादी ग्रामीणों का शताब्दियों तक शोषण किया । इसलिये स्वतंत्रता के पश्चात जमींदारी प्रथा को समाप्त करने के लिए प्रत्येक राज्य में कानून बनाए गए । सन 1948 में उत्तर प्रदेश पंचायत राज्य अधिनियम और सन 1951 में उत्तर प्रदेश
जमींदारी उन्मूलन अधिनियम बनाये गये । जमींदारी प्रथा समाप्त होते ही भू . स्वामी और जमींदारी की शक्ति में केवल कमी ही नहीं आई बल्कि आज उनकी शक्ति समाप्त हो गयी है । इसके स्थान पर गांव पंचायतों और न्याय पंचायतों की स्थापना हुई है जो ग्रामीण प्रशासन के लिये है । उनके लड़ाई झगड़ों का समाधान करती है । आज ग्रामीण संरचना में शक्ति का परम्परात्मक स्वरूप समाप्त हो गया है । गांव पंचायत और सहकारी समितियों के पदाधिकारियों के चुनाव होते हैं । इसलिए नेता ग्रामवासियों को अपने पक्ष में करने के लिए जातिवाद ए गुटबंदी ए पार्टीवाद आदि चीजों के माध्यम से चुनाव जीतने का प्रयास करता है । स्वतंत्रता के पश्चात ग्रामीण शक्ति की संरचना में केवल परम्परात्मक ढांचा ही नहीं बदला वरन उसके स्थान पर नवीन आयामी ढांचा भी उत्पन्न हुआ है । भूमि के आधार पर शक्ति को प्राप्त करने की प्रथा समाप्त हो गयी है । जमींदारों और सामन्तों के हाथ से शक्ति निकलती जा रही है ए शोषित वर्ग ए अल्प संख्यक वर्ग ए पिछड़ा वर्ग ए निम्न और निर्धन वर्ग में समय के साथ जागरूकता उत्पन्न हुई है । वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने लगे हैं । ग्रामीण शक्ति आज वास्तविक रूप में गांव के एम 0 एल 0 ए 0 ए एम 0 पी 0 और उसी क्षेत्र के मंत्रियों के हाथों में है । लोकतांत्रिक पद्धति से आज शक्ति को प्राप्त किया जाता है । जातिगत सम्पत्ति के आधार पर और भू स्वामी होने के कारण आज कोई व्यक्ति एम 0 एल 0 ए 0 ए एम 0 पी 0 या मंत्री नहीं बन सकता है । यहां तक कि वह गांव का प्रधान भी नहीं बन सकता है जब तक कि वह चुनाव में विजयी नहीं होता है । इस तरह स्वतंत्रता के पश्चात ग्रामीण शक्ति संरचना का प्रतिमान पूर्णतया परिवर्तित हो गया है । इस शक्ति को हथियाने के लिए ग्रामीण क्षेत्र में जातिवाद ए गुटबंदी ए पार्टीबंदी ए दबाव आदि में अत्यधिक बृद्धि हुई है । इसने संपूर्ण गांव के व्यक्तियों में अलगाव ए संघर्ष ए प्रतिस्पर्धा ए मनमुटाव और तनाव जैसी चीजों को उत्पन्न किया है । ग्रामीण समाज भी इसीलिए नगर की भांति विघटित हो गए हैं ।
ग्रामीण नेताओं के प्रकार
गांव के नेता को दो भागों में बांटा जा सकता है
; 1 द्ध औपचारिक नेता . इनकी नियुक्ति सरकार द्वारा या राज्य के किसी कानून के द्वारा होती है । इनके पीछे सरकार की अभिव्यक्ति है । सरकार द्वारा स्वीकृत एवं मान्य ग्राम पंचायत के सदस्य ए पटवारी व मुखिया आदि इस श्रेणी में आते हैं ।
; 2 द्ध अनौपचारिक नेता . ये वे नेता हैं जो कि सरकारी दृष्टि से नेता न होते हुये भी परम्परागत रूप से या सामाजिक नियम के अनुसार नेता बन जाते हैं । पंचायत आदि के नेता पंचायती राज बन जाने के बाद औपचारिक नेता के अन्तर्गत आ गये हैं जबकि पहले पंच या सरपंच भी अनौपचारिक नेता ही होते थे । जाति . पंचायत या वैसी ही अन्य सामाजिक संस्थाओं का भार संभालने वाले नेता भी अनौपचारिक नेता हैं । औपचारिक व अनौपचारिक नेता में सरकारी नियमों का अन्तर तो है ही इन दोनों के कार्यक्षेत्र ए अधिकार तथा मान्यताओं में भी पर्याप्त अन्तर देखने को मिलता है । औपचारिक नेता के हाथ में कानूनी शक्ति होती है और इसीलिये कानून के बल पर वह दूसरों पर प्रभाव डालता है । दूसरे लोगों द्वारा न चाहते हुए भी औपचारिक नेता का अनुसरण करना पड़ता है । इस अर्थ में औपचारिक नेतृत्व बाध्यतामूलक है जबकि अनौपचारिक नेतृत्व लोगों की स्वेच्छा ए श्रद्धा व सद्भावना पर आधारित होता है । भारतीय ग्रामीण व्यक्ति को कानून से उतना डर नहीं लगता जितना कि प्रथा ए परम्परा इत्यादि से लगता है । वह केवल डरता ही नहीं अपितु एक आदर की भावना भी उसके दिल में होती है । जिन व्यक्तियों का आदर्श उच्च होता है ए उनका ही समाज में आदर होता है । हेनरी ओरस्टीन ने अपने लेख में लिखा है ए श् इस प्रकार के नेतृत्व के आवश्यक लक्षण हैं . उच्च जातीय स्थिति ए अच्छी आर्थिक स्थिति तथा एक ऐसी आयु जो आदर प्राप्त कर सके । श्
ग्रामों के नेताओं को कुछ अन्य विद्वानों ने दो प्रकार का बताया है
; 1 द्ध प्राथमिक नेता . ग्रामीण जीवन में इनका अत्यधिक महत्व होता है । समूह इनसे पूर्णतया प्रभावित होता है । ऐसे नेता अधिकांशतः उच्च परिवार के होते हैं । अनुभव ए शरीर व मानसिक रूप से ये पूर्णतया प्रौढ़ता को प्राप्त होते हैं । अपने समूह के लिये ये सब कुछ करते हैं । इनकी स्थिति महत्वपूर्ण होती है । कानून ए झगड़े इत्यादि में इनकी सलाह नहीं ली जाती है ।
; 2 द्ध माध्यमिक नेता . ये वे नेता हैं जो प्राथमिक नेताओं से कम सम्मान पाते हैं । पद ए आयु प्रतिष्ठा ए इत्यादि के दृष्टिकोण से इनकी स्थिति कम होती है । प्रायः प्राथमिक नेता इनसे सलाह लेते रहते हैं और साथ ही इनकी सहायता पर भी निर्भर देखे गये हैं । सरकारी नेतृत्व का प्रभाव कम होता है . औपचारिक नेतृत्व के अन्तर्गत सरकारी नेतृत्व आता है । इसका प्रभाव समूह पर अपेक्षाकृत क्षीण होता है । इस असफलता के कुछ कारण हैं । ग्रामीणों पर नेतृत्व के स्वाभाविक प्रभाव हेतु यह आवश्यक है कि उनके मूल्यों ए आदर्शों एवं विचारों को भली भांति समझा जाये । कोई भी योजना व नियोजन तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि वह समूह के मूल्यों ए आदर्शों व विचारों के अनुकूल न हो । सरकारी नेतृत्व में इस बात की कमी है । ऊपर से जबरन थोपे गए नेतृत्व से जन . सहयोग कदापि प्राप्त नहीं किया जा सकता । उनके साथ सहिष्णुता दिखाकर उनकी संस्कृति ए मूल्य व विचारों को ध्यान में रखकर कार्य करने से नेतृत्व को सफल बनाया जा सकता है । भोले . भाले ग्रामीणों को उतने आर्थिक लाभ प्रिय नहीं हैं ए जितने उनके मूल्य ए आदर्श इत्यादि उन्हें प्रिय हैं । भारतीय ग्रामों में जात . पांत ए ऊँच . नीच ए लड़ाई झगड़े व अन्धविश्वासों को भली प्रकार से समझ लेने पर ग्रामीणों का आर्थिक विकास किया जा सकता है ।
भारतीय ग्रामों में नेतृत्व का उभरता हुआ प्रतिमान
शिक्षा का विस्तार ए यातायात तथा संचार के साधनों की उन्नति ए नगरों में मशीनों का कुछ श्रेय सरकारी प्रयत्नों को है और शेष सामाजिक शक्तियों को ए जिसके अन्तर्गत अधिक प्रयोग ए गांव व नगरों में सम्पर्क तथा ग्रामीण समुदाय में राजनैतिक पार्टियों अगुआ की अधिक कियाशीलता सम्मिलित है । इन सभी कारणों से ग्रामीण नेतृत्व का परम्परात्मक रूप दिन . प्रति . दिन बदलता जा रहा है । परम्परागत रूप में गांव के बड़े . बूढ़े ही गांव के नेता होते थे और वह इस अर्थ में कि वही बहुधा गांव पंचायत ए जाति . पंचायत या अन्य सामाजिक संगठन के होते थे और उस रूप में वह दूसरों पर नाना प्रकार से प्रभाव डालते थे । उस समय नेतृत्व का आधार बहुत कुछ आयु था । आज की भांति व्यक्तिवाद का विकास नहीं हुआ था जिसके कारण बड़े . बूढ़ों के प्रति आदर ए श्रद्धा की भावना आज जैसी मर नहीं गई थी । के ० एल ० शर्मा ने उत्तर प्रदेश के कुछ ग्रामों में अध्ययन करके परम्परागत नेतृत्व के सम्बन्ध में यह निष्कर्ष निकाला कि परम्परागत नेतृत्व अधिक निष्ठापूर्ण था । इसका सर्वप्रमुख कारण यह था कि पहले गांव का आकार छोटा होता था ए प्रत्येक परिवार एक दूसरे को घनिष्ठ रूप से पहचानता था । सामाजिक सम्बन्ध का आधार वास्तव में पारिवारिक सम्बन्ध था । इसकी अभिव्यक्ति चाचा ए ताऊ ए नाना इत्यादि के रूप में विशेषता बन गयी थी । लोगों में अपनों का लिहाज था और उसके साथ जब बड़े . बूढों के प्रति आदर की भावना मिल जाती थी तो ग्रामीण नेतृत्व अपने प्रभावित रूप में निखर उठता था । आज उस दशा में परिवर्तन हो रहा है और कुछ हो भी गया है । ये परिवर्तन निम्नलिखित हैं
; 1 द्ध नेतृत्व आज वंशानुगत नहीं रहा ए पहले पंच या सरपंच के पद वंशानुगत होते थे पिता का पद पुत्र को संभालना पड़ता था । अब स्थिति कुछ बदल गयी है । आज चुनाव के द्वारा नेता बनते हैं ।
; 2 द्ध ग्रामीण नेतृत्व में जाति का महत्व कम हो रहा है । पहले बहुधा ऊँची जातियों के सदस्य ही गांव के नेता होते थे परन्तु आधुनिक युग वयस्क मताधिकार का है और वह भी गुप्त चुनाव का है । इसलिये उच्च जातियों की पहले जैसी प्रभावशाली स्थिति अब नहीं है । वास्तव में गांव पंचायत आदि का सम्बन्ध अब किसी जाति विशेष से न होकर सम्पूर्ण गांव से हो गया है । अतः जाति का महत्व कम हो जाना भी स्वाभाविक है ।
; 3 द्ध आज की बदली हुयी परिस्थिति में ग्रामीण नेतृत्व में शिक्षा का महत्व बढ़ गया है । बैकन हीमर के अनुसार ग्रामीण नेतृत्व के लिये शिक्षा एक बहुमूल्य सम्पत्ति के रूप में विकसित हो रही है । नेता का शिक्षित होना काफी आवश्यक है । शिक्षा आजकल ग्रामीण नेतृत्व का आधार है ।
; 4 द्ध ग्रामीण नेतृत्व में आज विशेषीकरण की प्रवृत्ति पायी जाती है । पहले गांव का नेता हरफनमौला था ए प्रत्येक क्षेत्र में उसका हस्तक्षेप था और सब लोग उसी उसी रूप में मान्यता देते थे । परन्तु आज गांव में अलग . अलग क्षेत्र का एक विशेष नेता होता है । शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक ए महिला . कार्यक्रमों के संचालन हेतु महिला नेत तथा विकास के क्षेत्र में विकास अधिकारीगण इत्यादि अपने . अपने क्षेत्र में नेता होते
; 5 द्ध ग्रामीण नेतृत्व में आयु का महत्व भी घट रहा है । पहले बड़े . बूढ़े गावों के नेता होते थे पर आज यह आवश्यक नहीं है । आज नई पीढ़ी में यह आवश्यक नहीं है कि नेता बड़े . बूढ़े हों । इसका प्रमुख कारण यह है कि आज लोगों में एक प्रकार की जागरूकता पनप गयी है ।
; 6 द्ध ग्रामीण नेतृत्व में धन का महत्व अप्रत्यक्ष न होकर प्रत्यक्ष हो गया है । पहले धनी व्यक्ति विशेषकर जमींदार वर्ग बिना किसी होड़ के स्वतः ही नेता बन जाते थे अब अब वोटर खरीदने के लिये धन का तो उपयोग किया जाता है परन्तु चूंकि नेता अधिकांशतः चुने हुये होते हैं इसलिये धन का महत्व परोक्ष मान लिया गया है । यद्यपि व्यावहारिक रूप में धन के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।
; 7 द्ध ग्रामीण नेतृत्व में जो परिवर्तन आधुनिक समय में हो रहे हैं ए उनमें एक उल्लेखनीय परिवर्तन राजनैतिक जागरूकता है । नेता चाहे किसी भी क्षेत्र का हो वह किसी न किसी रूप में किसी न किसी राजनैतिक पार्टी का समर्थक बन जाता है ।
; 8 द्ध ग्रामीण नेतृत्व में कर्तव्य और अधिकार सम्बन्धी परिवर्तन भी आधुनिक समय में तेजी से हो रहा है । पहले कर्तव्य पर नहीं अधिकार पर अधिक बल दिया जाता था क्योंकि नेतृत्व वंशानुगत होता था और क्योंकि नेतृत्व पर उच्च जातियों का अधिकार था । आज अधिकार के साथ . साथ काम करके भी दिखाना पड़ता है नहीं तो अपने चुनाव में गद्दी छिन जाने का भय रहता है । उक्त विवरण से भली प्रकार स्पष्ट है कि ग्रामीण नेता वे नहीं रहे जो पहले थे । गांवों में नेतृत्व इस परिवर्तित समाज में पुराना रूप खो रहा है और नया रूप धारण करता जा रहा है ।
ग्रामीण शक्ति संरचना रू नेतृत्व
; त्नतंस च्वूमत ैजतनबजनतम रू स्मंकमतेीपच द्ध
अल्टेकर और पुरी ए हेनरी मेन ए ऑस्कर लेविस और योगेन्द्र सिंह ने भारतीय ग्रामी में शक्ति संरचना के व्यापक नेतृत्व के प्रतिमानों की अध्ययन पद्धति का उल्लेख किया है । इनके साथ ही चन्द्र प्रभात ए लीला दुबे और एल 0 पी 0 विद्यार्थी जैसे समाजशास्त्रियों ने ग्रामीण शक्ति संरचना के आधार पर निर्धारित होने वाले ग्रामीण नेतृत्व को अपने अध्ययनों में सम्मिलित किया है । इसका कारण यही है कि ग्रामीण समाज की शक्ति संरचना में नेतृत्व का प्रमुख स्थान है ।
जे 0 बी 0 चिताम्बर का कहना है कि प्रत्येक समाज की शक्ति संरचना में कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो लोगों को प्रोत्साहित करते हैं और उन्हें प्रेरणा देते हैं ए उनका मार्गदर्शन करते हैं या फिर लोगों को किया करने के लिये प्रभावित करते हैं । ऐसी किया को हम नेतृत्व और ऐसे व्यक्तियों को हम नेता कहते हैं । भारतीय ग्रामीण समाज में नेतृत्व की अवधारणा और नेताओं के कार्यों में वर्तमान समय में परिवर्तन का दौर चल रहा है ।
समाज में शक्ति संरचना
वस्तुतः एक सर्व . सामान्य मनुष्य न केवल सत्ता का वरन सभी मूल्यों की एक अन्तर्वैयक्तिक प्रक्रिया का भी प्रदर्शन करता है । इस प्रकार सर्व सामान्य मनुष्य राजनीतिक दृष्टि से एक संगठित समाज होता है । कार्ल मानहीम के अनुसार सर्व सामान्य मनुष्य से हमारा तात्पर्य उन सभी समूहों तथा नेताओं से है तो समाज के संगठन में सकिय भूमिका पूर्ण करते हैं । समाजशास्त्रीय दृष्टि से समझने पर सर्व . सामान्य मनुष्य इन सभी राजनीतिक और राजनीति सम्बन्धी इकाइयों में निहित रहता है । जब हम श् राजनीतिक सम्बद्ध पद का प्रयोग करते हैं तो वहां राजनीतिक शब्द का प्रयोग समस्या समूहों तथा जनता के लिये होता है । साथ ही इसमें परिवार अथवा रोजगार के विषय भी आ जाते हैं । कार्ल मानहीम यह भी कहते हैं कि राजनीतिक समाजशास्त्री का कार्य एक प्रदत्त सामाजिक संरचना में व्याप्त सभी राजनीतिक समूहों के मध्य सहयोग के प्रकारों का वर्णन करना होता है । यहां की प्रमुख समाजशास्त्री उनके नियंत्रण के सम्बन्धों की होती है जो प्रजातांत्रिक अर्थों में पद सोपानित संघीय अथवा समन्वयकारी प्रकार की भी हो सकती है ।
दूसरे शब्दों में ए हम उन सभी समूहों पर विचार करेंगे जो शासन करने ए नेतृत्व करने ए समन्वय करने आदि की अनेक राजनीतिक प्रकियाओं को जोड़ते हैं । इस विश्लेषण के अन्तर्गत राजनीतिक समाजशास्त्र को यह अवसर मिलता है कि एक ओर वह उन सामाजिक शक्तियों की ओर उचित ध्यान दे जो परम्परात्मक दृष्टि से राज्य द्वारा नियंत्रित नहीं है और अधिकारी तंत्र की सीमा में नहीं आते और दूसरी ओर राज्य तथा समाज के पुराने द्विवाचक विचार को समाप्त कर सके । शक्ति श् के अर्थ की राजनीतिक व मनोवैज्ञानिक ढंग से पृथक रूप में व्याख्या की जाती है जबकि समाजशास्त्रीय ढंग से शक्ति की व्याख्या बिलकुल पृथक प्रकार से की जाती है । वास्तव में शक्ति को सामाजिक संरचना में राजनीतिक व्यवस्था से मिलता जुलता ही नहीं मानना चाहिये बल्कि इसमें संरचना और स्तरीकरण का समन्वयात्मक पक्ष भी समाहित है । योगेन्द्र सिंह ने शक्ति की व्याख्या करते हुए लिखा है कि श् शक्ति की समाजशास्त्रीय व्याख्या में समाज के भीतर अन्तःकिया करने वाले ए ऐसे सभी व्यक्तिगत ए सामाजिक ए ऐतिहासिक तथा आर्थिक तत्व सम्मिलित किए जा सकते हैं जिनके परिणामस्वरूप प्रभुत्व और अधीनता अथवा स्वार्थों का नियंत्रण और नियंत्रित व्यक्तियों की और नियंत्रकों अर्थात शक्तिधारी व्यक्तियों की संरचना के अन्तर्गत सामाजिक सम्बन्धों की एक विधि का विकास होता है । श् वास्तव में श् शक्ति श् वह केन्द्र बिन्दु है जो सामाजिक व्यवस्था ए सामाजिक प्रक्रिया ए सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक गत्यात्मकता को प्रभावित करती है । सामाजिक संतुलन और असंतुलन की समस्त प्रकियायें बदलती हुई शक्ति संरचना को केन्द्र में रखकर ही समझी जा सकती हैं ।
डॉ ण् योगेन्द्र सिंह ने उत्तर प्रदेश के छः गांवों में शक्ति संरचना का अध्ययन किया । एम ण् एन ण् श्रीनिवास एवं श्यामाचरण दबे ने ग्रामीण नेतत्व के प्रतिमानों की अध्ययन पद्धति का उल्लेख किया है । श्रीनिवास ने ग्रामीण नेतत्व में प्रभु जाति ; क्वउपदंदज ब्ंेजम द्ध की अवधारणा को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है ए जबकि दुबे प्रभु जाति की अपेक्षा कुछ व्यक्तियों तक ही नेतृत्व की अवधारणा को सीमित मानते हैं । प्रभात चन्द्रा ने अपने लिखे एक लेख में परम्परागत नेतृत्व के पक्ष में ग्रामीण नेतृत्व का अध्ययन किया है । पार्क एवं टिकर की संकलित कृति श् लीडरशिप एण्ड पोलिटिकल इन्स्टीट्यूशनस् इन इण्डिया श् में अनेक विद्वानों ने अपने . अपने अध्ययन प्रस्तुत किए हैं । इनमें प्रोपलर ए बुड ए हियकांक ए ऑरेनस्टेन ए बील्स मैकारमैक ए हारपर प्रादि ने अनेक लेख लिखे हैं । मा श्रीमती लीला दुबे ए राय ए डॉ ण् कोठारी ए एल ण् पी ण् विद्यार्थी आदि ने भारत में नेतृत्व की अवधारणा ए विधियों एवं तथ्यों का उल्लेख किया है । 1962 में रांची में जनजातीय एवं ग्रामीण नेतृत्व पर हुई सेमीनार में प्रस्तुत अनेक लेखों के अशधार पर श्री विद्यार्थी ने श् लीडरशिप इन इण्डिया श् नामक पुस्तक सम्पादित की है ए जो ग्रामीण जनजातीय नेतृत्व के अध्ययन की एक श्रेष्ठ कृति है । इस प्रकार हम देखते हैं कि ग्रामीण संरचना एवं नेतत्व पर अनेक विद्वानों ने अपने . अपने अध्ययन प्रस्तुत किए हैं । हमें ध्यान रखना चाहिए कि शक्ति संरचना कभी भी स्वयं में स्वतन्त्र नहीं होती । नेतृत्व वह महत्त्वपूर्ण माध्यम है ए जिसके द्वारा शक्ति के एक विशेष स्वरूप को प्रभावपूर्ण बनाया जाता है । इससे पूर्व कि हम शक्ति संरचना एवं नेतृत्व के प्रतिमान को समझने का प्रयास करें यह समझ लें कि शक्ति ; च्वूमत द्ध ए शक्ति संरचना ; च्वूमत ैजतनबजनतम द्ध एवं नेतृत्व ; स्मंकमतेीपच द्ध क्या है घ्
ग्रामीण समुदाय में अत्यन्त प्राचीन काल से ही सामाजिक शक्ति ; च्वूमत द्ध के आधार पर व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण होता रहता है । अनेक धार्मिक ग्रन्थों ए इतिहासकारों एवं विद्वानों ने प्राचीन भारत के गांवों की राजनीतिक व्यवस्था का उल्लेख किया है । एक सामान्य विशेषता ऐतिहासिक राजनीतिक व्यवस्था के बारे में यह देखी गई है कि सामाजिक शक्ति के निर्धारण में प्राचीन काल में प्रदत्त प्रस्थिति ; ।ेबतपइमक ैजंजने द्ध को महत्त्व दिया जाता था ए न कि अजित प्रस्थिति ; ।बीपमअमक ैजंजने द्ध को । अनेक विद्वानों ने भारतीय ग्रामीण राजनीतिक व्यवस्था का जो अध्ययन किया है ए उनमें ए ण् एस ण् अल्तेकर एवं बी ण् एन ण् पुरी का नाम उल्लेखनीय है । आपने अपनी पुस्तक श् स्टेट एण्ड गवर्नमेंट इन एनसिएन्ट इण्डिया श् में प्राचीन ग्रामीण राजनीतिक व्यवस्था का विस्तार से अध्ययन प्रस्तुत किया है । । हैनरी मेन ने श् विलेज कम्यूनिटीज इन द ईस्ट एण्ड वेस्ट श् में भारतीय गाँवों में वृद्ध लोगों की परिषद एवं मुखियाओं की उपस्थिति का उल्लेख किया है । लेविस ने उत्तरी भारत में गुट एवं नेतृत्व का अध्ययन किया ।
शक्ति की अवधारणा ; ब्वदबमचज व िच्वूमत द्ध
एक अवधारणा के रूप में शक्ति का सम्बन्ध एक विशेष प्रस्थिति तथा उससे सम्बन्धित भूमिका के निर्वाह से है । शक्ति का अर्थ है ए दूसरों की क्रियात्रों को नियन्त्रित करने की क्षमता । ष् इसका प्राशय यह है कि व्यक्ति चाहे किसी भी स्थिति में हो ण् वह दूसरों के व्यवहारों को जिस सीमा तक नियन्त्रित कर लेता है ए वह उतना ही अधिक शक्ति . सम्पन्न होता है ।
मैक्स वेबर के अनुसार सामान्यतः हम शक्ति को एक व्यक्ति अथवा अनेक व्यक्तियों द्वारा इच्छा को दूसरों पर क्रियान्वित करने अथवा दूसरे व्यक्ति द्वारा विरोध करने पर भी उसे पूर्ण कर लेने की स्थिति को कहते हैं । ष्
ए हार्टन एवं हन्ट ; भ्वतजवद ंदक भ्नदज द्ध ने सोश्योलॉजी में लिखा है कि ष् शक्ति का अर्थ है ए दूसरों की क्रियात्रों को नियन्त्रित करने की क्षमता । ष् इसका प्राशय यह है कि व्यक्ति चाहे किसी भी स्थिति में हो ण् वह दूसरों के व्यवहारों को जिस सीमा तक नियन्त्रित कर लेता है ए वह उतना ही अधिक शक्ति . सम्पन्न होता है ।
इन दोनों परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि शक्ति किसी व्यक्ति अथवा समूह में निहित एक ऐसी क्षमता है जिसके द्वारा शक्ति को धारण करने वाला व्यक्ति अथवा समूह दूसरों की इच्छा के न होते हए भी उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने को बाध्य करता है और सभी निर्णय अपने ही पक्ष में करा लेने में सफल हो जाता है ।
।
चिताम्बर का कथन है कि जो व्यक्ति अथवा समूह प्रौपचारिक अथवा अनौपचारिक रूप से समाज पर अपना प्रभाव रखते हैं ए वे व्यक्ति समाज में शक्ति संरचना का निर्माण करते हैं ।
प्रत्येक समाज में कुछ व्यक्ति अथवा समूह अपनी कुछ विशेष योग्यता के कारण इतनी शक्ति प्राप्त कर लेते हैं कि वे उसका कभी भी प्रभावपूर्ण ढंग से उपयोग कर सकते हैं । समाज में प्रभाव का यह प्रतिमान एक ऐसे तन्त्र ; छमजूवता द्ध अथवा व्यवस्था का निर्माण करता है जो एक विशेष विषय से सम्बन्धित निर्णय लेने वाले व्यक्तियों एवं समहों को परस्पर सम्बद्ध करता है
सामान्य रूप से इस शक्ति को चार मुख्य स्वरूपों के माध्यम से समझा जा सकता है दृ
; क द्ध अभिजात वर्ग की शक्ति ए
; ख द्ध संगठित समूह की शक्ति ए
; ग द्ध असंगठित लोगों की शक्ति ए तथा
; घ द्ध कानून की शक्ति ।
अभिजात वर्ग की शक्ति का सम्बन्ध उन व्यक्तियों से है जो अपनी सम्पत्ति ए कार्य . कुशलता अथवा प्रभाव के कारण उच्च पदों पर आसीन होते हैं और अपने पद की शक्ति के द्वारा अन्य व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं । इसके अतिरिक्त प्रत्येक समाज में उद्योगपतियों ए चिकित्सकों ए प्राध्यापकों ए वकीलों अथवा किसानों के ऐसे संगठन होते हैं जो संगठित रूप से अपनी शक्ति का उपयोग करते हैं । साधारणतया इन संगठनों की शक्ति उनके सदस्यों की संख्या तथा संगठन की मात्रा में निहित होती है । कभी . कभी असंगठित लोगों द्वारा भी विभिन्न अवसरों पर अपनी शक्ति का प्रदर्णन किया जाता है । असंगठित लोगों की शक्ति का प्रयोग साधारणतया दो स्वरूपों में होता है . या तो किसी विशेष स्थिति में असहयोग को प्रदर्शित करके अथवा जनतान्त्रिक व्यवस्था में मताधिकार के द्वारा किसी का समर्थन अथवा बिरोध करके ए अन्त में ए कानून शक्ति का एक ऐसा वैधानिक स्वरूप है जिसे सम्पूर्ण समाज की अभिमति ; ैंदबजपवद द्ध प्राप्त होती है । कानून शक्ति की ऐसी ग्रौपचारिक संरचना है जिसके द्वारा सभी लोगों के अधिकारों एवं दायित्वों को परिभाषित किया जाता है तथा समाज में नियन्त्रण की स्थापना की जाती है । जिन समाजों में द्वतीयक समूह . सम्बन्धों ; ैमबवदकंतल ळतवनच त्मसंजपवदे द्ध की प्रधानता होती है वहाँ कानन को ही शक्ति के सबसे स्पष्ट रूप में देखा जाता है ।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि प्रत्येक समुदाय में कुछ लोग ऐसे अवश्य होते हैं ए जिनमें शक्ति निहित होती है । यह व्यक्ति समूह के निर्णयों तथा व्यक्तिगत व्यवहार . प्रतिमानों को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । किसी समूह के अनर्गत इस शक्ति का विस्तार किस वर्ग में होगा तथा शक्ति सम्पन्न व्यक्तियों एवं अन्य व्यक्तियों के बीच सम्बन्धों की प्रकृति किस प्रकार की होगी ए यही वह प्रमुख आधार है जिसके द्वारा समूह में एक विशेष शक्ति संरचना का निर्माण होता है । प्रत्येक समाज में ग्रामीण समुदाय की संरचना नगरीय समुदायों से अत्यधिक भिन्न होने के कारण वहाँ शक्ति संरचना भी अपनी पृथक् विशेषता लिए हुए होती है । ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि ग्रामीण ।
शक्ति संरचना की प्रकृति को स्पष्ट करके इसके सन्दर्भ में ग्रामीण सामाजिक संरचना की प्रकृति को स्पष्ट किया जाए ।
शक्ति संरचना ; च्वूमत ैजतनबजनतम द्ध
पारसन्स शक्ति को समाज व्यवस्था की एक ऐसी सामान्यकृत क्षमता ; ळमदमतंसप्रमक ब्ंचंबपजल द्ध मानते हैं जिसका उद्देश्य सामूहिक लक्ष्यों के हितों को पूर्ण करना होता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि हॉर्टन तथा मैक्स वेबर ने शक्ति को व्यक्ति अथवा व्यक्तियों में निहित मानकर एक ऐसी क्षमता के रूप में परिभाषित किया है जिसके द्वारा शक्ति धारण करने वाला व्यक्ति अपनी इच्छा को दूसरे लोगों पर उनकी इच्छा के विरुद्ध होने पर भी लादता है ।
पारसन्स शक्ति को एक समाज व्यवस्था के रूप में मानते हैं जिसका प्रयोग सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होता है । मित उपरोक्त सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि समाज में कुछ लोग अथवा समूह ऐसे होते हैं जिनमें कुछ गुणों अथवा क्षमताओं के कारण ऐसी योग्यता होती है कि वे इसका उपयोग विशेष परिस्थितियों में कर सकते हैं । समाज में प्रभाव का प्रतिमान एक संरचना का निर्माण करता है जो निर्णय लेने वाले व्यक्तियों एवं समूहों को परस्पर सम्बद्ध करती है । जो व्यक्ति अथवा समूह औपचारिक अथवा अनौपचारिक रूप से समाज में प्रभाव रखते हैं वे समाज में शक्ति संरचना का निर्माण करते हैं ।
शक्ति नेतृत्व में अथवा उन लोगों के समूह में होती है जो शक्ति धारण करते हैं और वे अपने शक्तिशाली प्रभाव का उपयोग लोगों को दिशा प्रदान करने में करते हैं । ये शक्तियां छोटे समूह के द्वारा अथवा अन्य रूपों में समाज में कार्य करती हैं । शक्ति कभी प्रौपचारिक रूप से सत्ता का रूप धारण कर समाज में कार्य करती है तो कभी अनौपचारिक रूप से व्यक्ति अथवा समूह के द्वारा समाज पर नियन्त्रण रखती है और निर्णय लेने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । प्रभाव ; प्दसिनमदबम द्ध का प्रतिमान और स्वरूप कोई भी हो सकता है किन्तु यह प्रत्येक समाज में अवश्य पाया जाता है । ग्रामीण समाज में प्रभाव का प्रतिमान ; च्ंजजमतद व िप्दसिनमदबम द्ध सम्पूर्ण शक्ति संरचना और नेतृत्व के रूप में देखा जा सकता है । शक्ति को परिभाषित करते हुए हॉर्टन एवं हन्ट लिखते हैं ष् दूसरों की क्रियानों को नियन्त्रित करने की क्षमता को ही शक्ति कहते हैं । ष् मैक्स वेबर भी शक्ति की व्याख्या इसी प्रकार करते हैं ए सामान्यतः हम श् शक्ति श् को व्यक्ति अथवा कई लोगों द्वारा अपनी इच्छा को दूसरों पर थोपने अथवा दूसरों द्वारा प्रतिरोध करने पर भी पूर्ण करने को कहते हैं ।
इस प्रकार समाज में शक्ति दो रूपों में देखी जा सकती है . . एक सत्ता ; ।नजीवतपजल द्ध के में दसरी प्रभाव ; प्ंसिनमदबम द्ध के रूप में । प्रभाव को व्यक्तियों एवं समूह द्वारा समाज में लोगों के वहार और क्रिया को प्रभावित करने वाली शक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें शक्ति संरचना और नेतृत्व भी सम्मिलित है । हॉर्टन और हन्ट प्रभाव को सीमित अर्थ में दर्शाते हैं । उनके अनुसार प्रभाव का अर्थ है दूसरों के व्यवहार और निर्णय को बिना सत्ता के प्रभावित करने की क्षमता । सत्ता को हम वैध शक्ति ; स्महपजपउंजम च्वूमत द्ध के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जो एक पद धारण करने के फलस्वरूप प्राप्त होती है जिसके द्वारा व्यक्ति अथवा समूह दूसरे लोगों को आदेश देने का अधिकार पाता है ए उनके व्यवहार को नियन्त्रित करता है । सत्ता औपचारिक शक्ति होती है जो एक व्यक्ति को एक पद धारण करने के कारण प्राप्त होती है । प्रभाव से अनौपचारिक शक्ति का आभास होता है । जिलाधीश को जो अधिकार और शक्ति प्राप्त है वह उसके पद धारण करने के कारण है । अतः हम जिलाधीश की शक्ति को सत्ता कहेंगे । गाँव में दयालु ए मिलनसार और धार्मिक प्रवृत्ति के वयोवद्ध व्यक्ति को जो शक्ति प्राप्त है वह अनौपचारिक है ए यह उसका प्रभाव कहलाएगा । प्रधानमन्त्री या राष्ट्रपति पद के कारण शक्ति प्राप्त करता है । उनकी शक्ति को हम सत्ता कहेंगे । जबकि महात्मा गाँधी की शक्ति को हम प्रभाव कहेंगे । अतः स्पष्ट है कि सत्ता वैधानिक शक्ति ; स्महपजपउंजम च्वूमत द्ध है जबकि प्रभाव अवैधानिक शक्ति ; छवद . समहपजपउंजम च्वूमत द्ध । शक्ति का संस्कृति से भी घनिष्ठ सम्बन्ध है । भारतीय संस्कृति में पारिवारिक निर्णय लेने में वयोवृद्ध पुरुष एवं स्त्री की शक्ति भिन्न . भिन्न है । भारत में बयोवद्ध पुरुष को स्त्री की तुलना में निर्णय लेने में अधिक शक्ति प्राप्त है जबकि पश्चिमी देशों में स्त्री की शक्ति भारतीय नारी की तुलना में अधिक है । शक्ति समाज में अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक संरचना की इकाइयों जैसे संस्था व संगठन के द्वारा प्रयुक्त होती है । इस रूप में शक्ति औपचारिक रूप धारण करती है । जा शक्ति समाज में अनेक रूपों से प्रकट होती है । इसके प्रमुख चार स्वरूप हैं . . अभिजात ए संगठित शक्ति ए प्रसंगठित लोगों की शक्ति तथा कानून की शक्ति । कम अभिजात ; ज्ीम म्सपजम द्ध समाज में कुछ लोगों का ऐसा समूह पाया जाता है जो अपनी सम्पत्ति ए कार्य करने की क्षमता तथा प्रभाव के कारण अथवा उच्च पदों के कारण शक्ति धारण करते हैं ए उन्हें हम अभिजात कहते हैं ।
संगठित शक्ति ; व्तहंदप्रमक च्वूमत द्ध समाज में कुछ ऐसे संगठन होते हैं जिन्हें जनता का समर्थन एवं स्वीकृति प्राप्त होती है और वे संगठन अपनी शक्ति का प्रयोग करते हैं । उदाहरण के लिए छात्रों ए वकीलों ए डॉक्टरों ए अध्यापकों ए किसानों एवं उद्योगपतियों की समाज में महत्त्वपूर्ण शक्ति एवं प्रभाव होता है । ये लोग अपनी शक्ति को प्रदर्शित करने के लिए संचार ए पत्र . पत्रिकायों ए रेडियो ए टेलीविजन आदि का प्रयोग करते हैं । विभिन्न संगठन अपनी संख्या के आधार पर शक्ति का प्रयोग के करते हैं ।
असंगठित लोगों की शक्ति ; च्वूमत व िन्दवतहंदपेमक डंेेमे द्ध असंगठित लोगों में भी शक्ति निहित होती है यद्यपि उसका उपयोग कभी . कभी ही होता है । वोट द्वारा तथा किसी कार्य में सहयोग एवं असहयोग द्वारा लोग अपनी शक्ति प्रकट करते हैं । कानून ; स्ंू द्ध शक्ति का वैधानिक स्वरूप है जिसे समाज के लोगों की अभिमति प्राप्त होती है । यह संगठित और औपचारिक संरचना का प्रतिनिधि है । कानून द्वारा लोगों के व्यवहार का नियन्त्रण होता है । लोगों के अधिकार एवं दायित्व परिभाषित होते हैं तथा नियमों की अवहेलना करने वालों को दण्ड मिलता है । उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्रत्येक समाज और समुदाय में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो प्रभावशाली और शक्तिशाली होते हैं । वे सामूहिक निर्णय लेने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । शक्ति धारण करने वाले ऐसे लोग एवं समूह परस्पर सम्बन्धित होते हैं और समाज में शक्ति संरचना का निर्माण करते हैं । ये अपनी शक्ति का प्रयोग अनौपचारिक रूप से करते हैं । शक्ति संरचना की अवधारणा को समझने के बाद हम यहाँ भारतीय ग्रामों में शक्ति संरचना के परम्परात्मक एवं आधुनिक स्वरूपों का उल्लेख करेंगे ।
शक्ति ; च्वूमत द्ध को परिभाषित करते हुए वेबर ने लिखा ए ष् अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों पर अपनी इच्छा को आरोपित करने की सम्भावना को ही शक्ति कहा जाता है । ष् इस अर्थ में हमारे अधिकांश सामाजिक सम्बन्धों का आधार शक्ति की यही अवधारणा है । व्यक्ति बाजार में ए भाषण के मंच पर ए खेलों में ए कार्यालयों में ए यहाँ तक कि प्रीति . भोज आदि के अवसरों पर भी शक्ति का प्रयोग करने अपने प्रभाव को स्थापित और प्रदशित करना चाहता है । इसके बाद भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि सभी स्थानों और अवसरों पर व्यक्ति के द्वारा उपयोग में लायी जाने वाली शक्ति समान प्रकृति की नहीं होती । शक्ति को इसके दो रूपों की सहायता से समझा जा सकता है . ; 1 द्ध शक्ति का पहला रूप वह है जिसे कुछ विशेष वस्तुओं पर अधिकार होने के कारण हम स्वयं प्राप्त कर लेते हैं और पारस्परिक हितों के कारण कुछ दूसरे लोग भी उसे स्वीकार कर लेते हैं । ; 2 द्ध दूसरी तरह की शक्ति वह होती है जिसे व्यक्ति किसी स्थापित संस्था से प्राप्त करता है तथा जो उसे कुछ विशेष आदेश देने के अधिकार सौंपती है । वेबर ने शक्ति के इस दूसरे रूप को ही श् सत्ता श् के नाम से सम्बोधित किया है । इसका तात्पर्य है कि सत्ता का तात्पर्य एक संस्थात्मक शक्ति ; प्दजेपजनजपवदंस च्वूमत द्ध से है । दूसरे शब्दों में ए यह कहा जा सकता है कि सत्ता एक ऐसी शक्ति है जो एक प्रभुतासम्पन्न व्यक्ति अथवा संस्था द्वारा किसी व्यक्ति को प्रदान की जाती है तथा इसके द्वारा उस व्यक्ति को कुछ आदेश देने के अधिकार प्रदान किये जाते हैं । एक उदाहरण के द्वारा शक्ति तथा सत्ता को भिन्नता को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है । वेबर का कथन है कि एक बड़ा केन्द्रीय बैंक अपनी आर्थिक स्थिति और साख के कारण अपने ग्राहकों को ऋण देने अथवा उनसे व्यापारिक सम्बन्ध रखने के लिए उन पर कोई भी शर्ते थोप सकता है तथा ग्राहक भी बाजार पर उस बैंक के एकाधिकार को देखते हुए उन शर्तों को मान लेते हैं । यह ग्राहकों पर बैंक द्वारा उपयोग में लायी जाने वाली श् शक्ति श् है । ऐसा बैंक ऋण देने के बारे में किसी तरह की सत्ता का उपयोग नहीं करता लेकिन स्वयं अपने हितों के कारण ग्राहक उसकी शक्ति को स्वयं ही स्वीकार कर लेते हैं । दूसरी ओर ए एक शासक जब कुछ लोगों के व्यवहारों को प्रभावित करने के लिए एक आदेश देता है तब इसे मानना या न मानना लोगों की इच्छा का विषय नहीं होता क्योंकि शासन के आदेश के पीछे कानून अथवा किसी दूसरी तरह की प्रभुता . सम्पन्न संस्था की मान्यता होती है । इन उदाहरणों के द्वारा वेबर ने यह स्पष्ट किया कि सत्ता एक ऐसी दशा है जिसमें कुछ विशेष तत्त्वों का समावेश होता है । यह तत्त्व हैं . ; 1 द्ध शासक या शासकों का एक समूह होना ए ; 2 द्ध कुछ लोगों का शासितों या सामान्य लोगों के समूह के रूप में होना ए ; 3 द्ध शासक में सामान्य लोगों के व्यवहारों को प्रभावित करने की इच्छा के रूप में कुछ आदेश देना ए तथा ; 4 द्ध प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी ऐसे कानून अथवा परम्परा का होना जिससे जनसाधारण यह समझने लगे कि वह उस आदेश का पालन करने के लिए बाध्य है 17 इस प्रकार वेबर का विचार है कि सत्ता एक ऐसी दशा है जिसमें शासक और शासितों के बीच आदेश देने और उनका पालन करने के वैधानिक सम्बन्धों का समावेश होता है । शासक और शासित का तात्पर्य केवल सरकार और जनता से ही नहीं होता बल्कि किसी भी संगठन अथवा प्रतिष्ठान में आदेश देने वाले और आदेशों का पालन करने वाले लोगों से होता है ।
वेबर ने इस प्रश्न पर भी विचार किया कि विभिन्न सामाजिक संगठनों में सत्ता को स्थायी बनाये रखने वाली दशाएं कौन . सी हैं घ् दुसरे शब्दों में ए वे कौन . से कारण हैं जो लोगों को एक विशेष सत्ता को मान्यता देने को प्रेरणा प्रदान करते हैं । इस स्थिति को वेबर ने अनेक दशाओं के आधार पर स्पष्ट किया । 38 सर्वप्रथम ए जिन लोगों के पास सत्ता होती है ए वे संख्या में कम होने के कारण अधिक संगठित रहते हैं । साथ ही अपनी नीतियों और निर्णयों की गोपनीयता को बनाये रखने के कारण ही वे अपनी सत्ता को बनाये रखने में सफल हो जाते हैं । दूसरे ए प्रभुतासम्पन्न लोगों का सदैव यह प्रयत्न रहता है कि वे किसी न किसी तरह अपनी सत्ता को बनाये रखें क्योंकि ऐसा करके ही वे अपने हितों को पूरा कर सकते हैं । तीसरे ए सत्ता को स्वीकार करने वाले लोगों में भी अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके हित सत्ता से सम्बन्धित आदेशों का पालन करने से ही सुरक्षित रहते हैं । ऐसे लोग दूसरे व्यक्तियों को भी यह समझाते रहते हैं कि सत्ता में विश्वास करना और उसके आदेशो का पालन करना उन्हीं के हित में है । अन्त में ए सत्ता के स्थायित्व का एक कारण यह भी है कि शासक अथवा सत्ता प्राप्त सभी लोग एक ओर अपनी श्रेष्ठता को किसी न किसी आधार पर प्रमाणित करते रहते हैं तथा दूसरी ओर सामान्य लोगों की अधीनता को उनकी अकुशलता अथवा भाग्य से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं । इन्हीं . दशाओं में सामान्य लोग सत्ता को मान्यता प्रदान करना अपने नैतिक कर्तव्य के रूप में देखने लगते हैं । विभिन्न समाजों तथा विभिन्न दशाओं में वेबर ने सत्ता की वैधता को तीन रूपों में स्पष्ट किया । इनका तात्पर्य है कि एक विशेष सत्ता द्वारा अपनी आदेश देने की शक्ति को तीन विभिन्न आधारों पर न्यायपूर्ण सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है । इसलिए इन्हें हम अक्सर श् सत्ता के विभिन्न प्रकार श् भी कह देते हैं । वेबर ने इन तीन प्रकारों को वैधानिक सत्ता ए परम्परागत सत्ता तथा चमत्कारी सत्ता के नाम से सम्बोधित किया है ।
; 1 द्ध वैधानिक सत्ता ; स्महंस ।नजीवतपजल द्ध
वेबर के अनुसार वैधानिक सत्ता वह है जिसके अन्तर्गत कुछ विशेष नियमों के द्वारा कुछ लोगों को शक्ति का उपयोग करने के अधिकार दिए जाते हैं । दूसरे शब्दों में ए यह कहा जा सकता है कि जिन लोगों को कानून के द्वारा कुछ विशेष बादेश देने के अधिकार दिए जाते हैं उनकी सत्ता को हम वैधानिक सत्ता के नाम से सम्बोधित करते हैं । वेबर के विचारों को स्पष्ट करते हुए इस सम्बन्ध में अब्राहम तथा मॉर्गन ने लिखा है कि इतिहास के प्रत्येक युग में वैधानिक सत्ता का रूप सदैव विद्यमान रहा है किन्तु आधुनिक समाजों में अधिकारीतन्त्र को हम वैधानिक सत्ता की सबसे प्रमुख कड़ी के रूप में स्वीकार कर सकते हैं । इस दृष्टिकोण से वैधानिक
सत्ता से वेबर का तात्पर्य मुख्य रूप से प्रशासनिक संरचना से है । ऐसी सत्ता एक विवेकशील सत्ता ; त्ंजपवदंस ।नजीवतपजल द्ध होती है जिसमें सामाजिक उद्देश्यों तथा सामाजिक मूल्यों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया जाता है । किसी समाज में जिन लोगों को वैधानिक सत्ता प्राप्त होती है ए उनका चनाव मनमाने ढंग से न होकर उनकी नियुक्ति एक विशेष कानूनी प्रक्रिया के द्वारा की जाती है । ऐसे लोगों की सत्ता उनकी निजी प्रतिष्ठा से सम्बन्धित नहीं होती बल्कि कानून के अन्तर्गत एक विशेष पद पर नियुक्त होने के कारण उन्हें जो अधिकार दिए जाते हैं ण् उनकी सत्ता वहीं तक सीमित रहती है । इसका तात्पर्य है कि वैधानिक सत्ता का एक विशेष कार्यक्षेत्र होता है जिसके बाहर जाकर इससे सम्बन्धित व्यक्ति अपनी सत्ता का उपयोग नहीं कर सकते । वैधानिक सत्ता यह स्पष्ट करती है कि एक व्यक्ति पदाधिकारी और वैयक्तिक रूप में एक . दूसरे से अलग हैं । इसका यह भी तात्पर्य हुआ कि वैधानिक सत्ता किसी व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए सत्ता का उपयोग करने की अनुमति प्रदान नहीं करती । इस सत्ता की वैधता को बनाये रखने के लिए इसके अअिकारी से यह आशा की जाती है कि वह अपने अधिकारों के उपयोग से सम्बन्धित सम्पूर्ण कार्यवाही को लिखित रूप से पूरा करेगा । दूसरी ओर ए जो व्यक्ति वैधानिक सत्ता के अधीन होते हैं वे विभिन्न आदेशों का पालन इस दृष्टिकोण से करते हैं कि उनके द्वारा विधान अथवा कानूनों का पालन किया जा रहा है ए इस दृष्टिकोण से नहीं कि उनका कर्तव्य किसी व्यक्ति विशेष के आदेशों का पालन करना है । तात्पर्य यह है कि वैधानिक सत्ता का स्रोत स्वयं संविधान अथवा कानून होते हैं । इन कानूनों के द्वारा एक निश्चित प्रक्रिया के अन्तर्गत कुछ लोगों को आदेश देने के अधिकार प्रदान किये जाते हैं जबकि अन्य लोगों से उन आदेशों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है । वेबर के अनुसार प्रत्येक युग में वैधानिक सत्ता किसी न किसी रूप में अवश्य विद्यमान रही है । उदाहरण के लिए प्राचीन काल में भी राजा द्वारा कुछ व्यक्तियों को पुरोहित ए मन्त्री ए सेनापति तथा न्यायाधीश जैसे पदों पर नियुक्त किया जाता था । ऐसे सभी व्यक्तियों के कुछ निश्चित अधिकार होते थे तथा यह लोग अपने अधिकारों की सीमा के अन्दर रहते हुए ही अपनी वैधानिक सत्ता का उपयोग करते थे । इसके बाद भी ए वैधानिक सत्ता का स्पष्ट रूप आधुनिक राज्यों के प्रशासनिक ढाँचे से सम्बन्धित है जिसमें एक विकसित कर्मचारीतन्त्र के अन्तर्गत विभिन्न लोगों को एक . दूसरे से भिन्न मात्रा में वैधानिक सत्ता प्रदान की जाती है तथा ऐसे सभी व्यक्तियों के अधिकारों में एक निश्चित संस्तरण देखने को मिलता है । इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वैधानिक सत्ता केवल राजनैतिक संस्थाओं से ही सम्बन्धित नहीं है बल्कि धार्मिक ए आर्थिक तथा शैक्षणिक संस्थाओं में भी वैधानिक सत्ता को देखा जा सकता है । उदाहरण के लिए ए कुछ समय पहले पंजाब के मुख्य
मन्त्री सुरजीत सिंह बरनाला द्वारा अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में पुलिस कार्यवाही का आदेश देना उनकी वैधानिक सत्ता को स्पष्ट करता है । इस कार्यवाही के कुछ दिन बाद अकाल तख्त के पांच प्रमुख ग्रन्थियों के आदेश से बरनाला को दण्ड दिया गया जिसे बरनाला ने भी स्वीकार किया । इसका तात्पर्य है कि धार्मिक संस्थाओं के काननों के अन्तर्गत उनकी भी एक वैधानिक सत्ता होती है जिसे उस धर्म क अनुयायियों द्वारा स्वीकार किया जाता है । इसके बाद भी किसी धार्मिक अथवा आर्थिक संगठन की वैधानिक सत्ता में उतना स्थायित्व नहीं होता जितना कि राज्य की वैधानिक सत्ता में पाया जाता है । उदाहरण के लिए ए अकाल तख्त के ग्रन्थियों द्वारा जब बरनाला को पुनः दण्डित किया गया तो इस बार बरनाला ने उस दण्ड को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया । दूसरे शब्दों में ए यह कहा जा सकता है कि वैधानिक सत्ता तभी तक प्रभावपूर्ण रहती है जब तक उससे सम्बन्धित लोग ; जनता अथवा अनुयायी द्ध उसे स्वीकार करते रहें ।
; 2 द्ध परम्परागत सत्ता ; ज्तंकपजपवदंस ।नजीवतपजल द्ध
ण् परम्परागत सत्ता एक व्यक्ति को किसी परम्परा के द्वारा स्वीकृत पद पर आसीन होने के कारण प्राप्त होती है ए यह वैधानिक नियमों के अन्तर्गत किसी पद पर आसीन होने से सम्बन्धित नहीं होती । वेबर के अनुसार सत्ता के इस रूप को स्पष्ट करते हुए रेमण्ड ऐरों ने लिखा है कि ष् परम्परागत सत्ता वह सत्ता है जो विशिष्ट गुणों की परम्परा के विश्वास पर आधारित होती है तथा जिसे एक लम्बे समय से लोगों द्वारा स्वीकार किया जाता रहा है । ष् ऐसी सत्ता जिन लोगों को प्राप्त होती है वे अपनी पैतृक अथवा आनुवंशिक प्रस्थिति के कारण इसका उपयोग करते हैं । परम्परागत सत्ता की प्रमुख विशेषता यह है कि यह किसी व्यक्ति को अपने आदेशों का पालन करवाने के लिए कहीं अधिक निरंकुश और विशेष अधिकार प्रदान करती है । जो व्यक्ति परम्परागत सत्ता के आदेशों के अनुसार कार्य करते हैं ए वह उसकी श् प्रजा श् होते हैं । साधारणतया इन लोगों में परम्परागत सत्ता के लिए एक श्रद्धा की भावना होती है । उनका यह विश्वास होता है कि परम्परागत सत्ता पर अधिकार रखने वाले व्यक्ति में कुछ दैविक गुणों का समावेश होता है ए अतः किसी भी दशा में उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । उदाहरण के लिए ए कुछ समय पहले तक भारत के गाँवों में पाई जाने वाली जाति पंचायतें सत्ता के इस रूप को स्पष्ट करती हैं । जाति पंचायतों के पास यद्यपि कोई वैधानिक अधिकार नहीं होते थे लेकिन इसके फैसलों को पंच . परमेश्वर के द्वारा दिए गये फैससे के रूप में स्वीकार किया जाता था । वेबर ने परम्परागत सत्ता की प्रकृति को इसके तीन प्रमुख रूपों की सहायता द्य से स्पष्ट किया है । इन्हीं को परम्परागत सत्ता के मुख्य उदाहरणों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है
; क द्ध परम्परागत सत्ता का पहला रूप कूल . पिता की परम्परा में देखने को मिलता है । जिन समाजों में संयुक्त परिवार या इसी से मिलते . जुलते परिवार होते हैं ए वहाँ परिवार की सम्पूर्ण शक्ति कुल पिता ; कर्ता द्ध के हाथों में निहित होती है । उसके द्वारा परिवार के विभिन्न सदस्यों को एक विशेष ढंग से कार्य करने और व्यवहार करने के जो आदेश दिए जाते हैं ए उनके पीछे किसी कानून की शक्ति नहीं होती बल्कि परम्परा के द्वारा ही इस शक्ति का निर्धारण होता है ।
; ख द्ध पैतृक शासन ए वेबर के अनुसार परम्परागत सत्ता का दूसरा उदाहरण है । कुछ समय पहले तक अधिकांश धर्मप्रधान समाजों में पैतृक शासन का एक स्पष्ट रूप देखने को मिलता था । इसके अन्तर्गत राज्य की सम्पूर्ण सत्ता एक व्यक्ति के हाथों में ही केन्द्रित रहती है तथा उसकी मृत्यु के बाद यह सत्ता स्वयं ही उसके ज्येष्ठ पुत्र अथवा उत्तराधिकारी को प्राप्त हो जाती है । यह सत्ता निरंकुश प्रकृति की होती है । एक पैतृक शासक साधारणतया उन्हीं नियमों का पालन करता है जो उसकी स्वच्छन्दता का समर्थन करने वाले होते हैं । वह अपने पदाधिकारियों का चुनाव स्वयं करता है तथा विभिन्न वर्गों के लोगों में सत्ता का वितरण इस दृष्टिकोण से करता है कि वे शासक के प्रति कितने अधिक विश्वसनीय तथा स्वामीभक्त हैं । इसका तात्पर्य है कि जो व्यक्ति शासक के सम्बन्धी अथवा कृपापात्र होते हैं ए उन्हीं के द्वारा इस सत्ता को कार्यान्वित किया जाता है ।
; ग द्ध वेबर के अनुसार सत्ता का तीसरा रूप एक सामन्तवादी सरकार के रूप में देखने को मिलता है जो पैतृक शासन का ही संशोधित रूप है । इसके अन्तर्गत एक संविदा ; ब्वदजतंबज द्ध के अधीन पैतृक शासक की सत्ता विभिन्न क्षेत्रों पर अधिकार रखने वाले अपने सामन्तों में विभाजित हो जाती है । प्रत्येक सामन्त को अपने . अपने क्षेत्र में आदेशों को उसी तरह क्रियान्वित करने का अधिकार मिल जाता है जिस तरह एक पैतृक शासक अपनी सम्पूर्ण प्रजा को आदेशों का पालन करने के सिए बाध्य कर सकता है । यह सामन्त शासक के विशेष कृपा . पात्र होते हैं तथा एक निश्चित परम्परा के अन्तर्गत वे शासक को कर तथा उपहार देते रहते हैं । स्पष्ट है कि परम्परागत सत्ता का यह रूप सुपरिभाषित नहीं होता और न ही ऐसी सत्ता के अधिकार . क्षेत्र पर कोई अंकुश रखा जा सकता है ।
; 3 द्ध चमत्कारी सत्ता ; ब्ींतपेउंजपब ।नजीवतपजल द्ध
वेवर के अनुसार चमत्कारी सत्ता का सम्बन्ध उस व्यक्ति की सत्ता से है जिसमें अपने विशिष्ट गुणों के द्वारा दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता होती है । स्पष्ट है कि ऐसी सत्ता का निर्धारण न तो वैधानिक नियमों के द्वारा होता है और न ही परम्परा के द्वारा । इसका आधार कुछ ऐसी चमत्कारिक क्रियाएं हैं जिन्हें प्रदर्शित करके कोई भी व्यक्ति सत्ता पर अपना अधिकार कर सकता है । दूसरे शब्दों में ए कोई भी वह पैगम्बर ए नायक ए तान्त्रिक अथवा जनप्रिय नेता जो अपने चमत्कारों की सहायता से सामान्य लोगों को आदेश देने की वैधानिक शक्ति प्राप्त कर लेता है ए उसे चमत्कारी सत्ता कहा जाता है । ऐसा व्यक्ति चमत्कारी सत्ता का उपयोग तभी कर सकता है जब वह यह सिद्ध कर दे अथवा कम से कम लोग यह विश्वास करने लगे कि उसके पास किसी तान्त्रिक शक्ति ए देवी शक्ति या किसी अभूतपूर्व गुण के कारण एक विशेष चमत्कार दिखाने की क्षमता है । जो व्यक्ति किसी चमत्कारी सत्ता की आज्ञाओं का पालन करते हैं वे उसके श् शिष्य श् अथवा श् अनुयायी श् होते हैं । यह अनु यायी किसी कानून से निर्धारित नियमों अथवा एक विशेष परम्परा के कारण उस नेता की सत्ता में विश्वास नहीं करते बल्कि उसके वैयक्तिक गुणों के कारण उसके आदेशों का पालन करते रहते हैं । चमत्कारी सत्ता के अन्तर्गत विभि र पदाधिकारियों का चुनाव उनकी योग्यता या कुशलता के आधार पर नहीं किया जाता बल्कि सत्तावान व्यक्ति के प्रति उनकी निष्ठा और भक्ति के आधार पर होता है । वेवर ने ऐसे पदाधिकारियों को श् शिष्य पदाधिकारी श् ; क्पेबपचसम व्ििपबपंसे द्ध कहा है । ऐसे पदाधिकारियों की क्रियाओं का निर्धारण और उनकी आदेश देने की शक्ति चमत्कारी नेता की इच्छा से ही निर्धारित होती है । विशेष बात यह है कि ऐसे नेता के अन्तर्गत कार्य करने वाले अधिकारी न किन्हीं नियमों से बंधे होते हैं और न ही कानूनों से ए बल्कि नेता की इच्छा ही उनके आचरणों को प्रभावित करती है । चमत्कारी सत्ता चाहे किसी भी रूप में हो वह अपने विश्वास करने वाले लोगों को समय . समय पर यह महसूस कराती रहती है कि उसके बिना कोई सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती । वेबर का कथन है कि एक चमत्कारी नेता जब कभी भी अपने शिष्यों की निगाह में अपने चमत्कार को सिद्ध नहीं कर पाता तो वह अपनी सत्ता को खोने लगता हे । देवर द्वारा चमत्कारी सत्ता की विशेषताओं के सन्दर्भ में रेमण्ड ऐरों ने रूस में लेनिन के नेतृत्व को चमत्कारी सत्ता के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है । आपका कथन है कि रूस की क्रान्ति के समय लेनिन ने वहाँ जिस सत्ता का उपयोग किया वह न तो कानूनों की विवेक शीलता पर आधारित थी और न ही वर्षों पुरानी रूसी परम्पराओं पर । उन्होंने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा विशिष्ट गुणों के आधार पर ही अपनी चमत्कारी सत्ता स्थापित की । . इस प्रकार स्पष्ट होता है कि चमत्कारी सत्ता पूर्णतया व्यक्तिगत होती है । समकारी सत्ता में व्यक्ति के विशेष गुणों ए देवी शक्तियों अथवा असामान्य क्षमताओं होने का विश्वास किया जाता है । इस सत्ता की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी अवधि अधिक लम्बी नहीं होती । यदि ऐसी सत्ता परम्परागत सत्ता अथवा वैधानिक सत्ता में परिवर्तित न हो जाय तो कुछ समय बाद ही इसके समाप्त हो जाने की सम्भावना की जा सकती है ।
सत्ता की उपर्युक्त अवधारणा के द्वारा वेबर ने इस तथ्य को भी स्पष्ट किया कि मानव इतिहास में सत्ता के यह विभिन्न प्रारूप ; ज्लचमे द्ध एक . दूसरे से पूरी तरह पृथक नहीं है बल्कि विभिन्न समाजों में इनका रूप एक . दूसरे से बहुत कुछ मिला जुला रहा है । इसका उदाहरण देते हुए वेबर ने बतलाया कि साधारणतया इंग्लैण्ड की महारानी की सत्ता को एक परम्परागत सत्ता के रूप में देखा जाता है जबकि वास्तविकता यह है कि इसमें वैधानिक सत्ता के तत्त्वों का भी समावेश है । इसका कारण यह है कि इंग्लैण्ड की महारानी का पद एक पैतृक परम्परा से सम्बन्धित है लेकिन तो भी वहाँ जन . प्रतिनिधियों के द्वारा बनाये जाने वाले कानून महारानी के नाम से ही लागू होते हैं । यदि भारत के सन्दर्भ में देखा जाय तो यहाँ की राजनीति में भी वैधानिक सत्ता तथा परम्परागत सत्ता के तत्त्वों का एक मिश्रण देखने को मिलता है । स्वतन्त्रता के बाद भारतीय राजनीति के 44 वर्षों में से यदि हम उन छ रू वर्षों को अपवाद के रूप में निकाल दें जिनमें लालबहादुर शास्त्री तथा गैर कांग्रेसी प्रधानमन्त्री सत्ता में रहे तो शेष 38 वर्षों तक यहाँ की वैधानिक सत्ता नेहरू परिवार तक ही सीमित रही है । इसी के फलस्वरूप भारत की वर्तमान राजनीति में अनेक विशेषताएं पैतृक शासन की विशेषताओं से मिलती . जुलती देखने को मिलती हैं । वेबर के अनुसार दूसरी बात यह है कि सत्ता की प्रणाली जिन वैध नियमों पर आधारित होती है उनसे सम्बन्धित व्यवहारों में परिवर्तन होने के साथ ही सत्ता के रूप में परिवर्तन होने की सम्भावना रहती है । इसका तात्पर्य है कि सत्ता के विभिन्न प्रकार ऐसे प्ररूप नहीं है जो कभी न बदलते हों । उदाहरण के लिए ए एक चमत्कारी नेता यह कभी नहीं चाहता कि वह परम्परागत नियमों अथवा किसी कानून से बंधकर कार्य करे । इसके बाद भी उसके अनुयायी अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रयत्न करते रहते हैं कि नेता की अभूतपूर्व क्षमताओं के बाद भी वे अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को किसी न किसी तरह अवश्य बनाये रखें । फलस्वरूप अनुयायियों को जैसे ही अवसर मिलता है ए वे अपने नेता के चमत्कार को भ्रमपूर्ण सिद्ध करके अनेक परम्पराओं और नियमों को महत्त्व देने लगते हैं । इसके फलस्वरूप सत्ता की एक विशेष प्रणाली दूसरी प्रणाली के रूप में बदलने लगती है । इसके बाद भी वेबर ने यह स्वीकार किया है कि विभिन्न परिस्थितियों में सत्ता का एक प्ररूप दूसरे में बदल जाना सदैव आवश्यक नहीं होता । इसका कारण यह है कि सत्ता की प्रत्येक प्रणाली में कुछ आन्तरिक रक्षा . कवच होते हैं जो इसके प्रभाव को बनाये रखने का काम करते हैं । परिवर्तन केवल तब होता है जब एक विशेष प्रणाली से सम्बन्धित शासक उन मानदण्डों की अवहेलना करने लगते हैं जिनके आधार पर उन्हें सत्ता मिली होती है । उदाहरण के लिए ए वैधानिक सत्ता के अन्तर्गत यदि कानून का पोषण करने वाले लोग कानूनों का उपयोग स्वयं अपने हित में करने लगें तो ऐसी सत्ता अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकती । इसी तरह परम्परागत सत्ता के अन्तर्गत यदि शासक परम्पराओं की अवहेलना करके निरकुश ढंग से व्यवहार करने लगें तो उसमें से लोगों का विश्वास समाप्त हो जायेगा । वेबर का कथन है कि इतिहास के विभिन्न युगों में सत्ता के विभिन्न प्ररूपों अथवा प्रणालियों में केवल इसलिए परिवर्तन होता आया है कि शासक अपनी शक्ति की सीमाओं का उल्लंघन करके व्यक्तिगत हितों को पूरा करने का प्रयत्न करते रहे हैं । इस प्रकार जहाँ एक ओर सत्ता के स्रोत को ध्यान में रखना सदैव आवश्यक है ए वहा यह ध्यान रखना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि सत्ता एक तुलनात्मक और परिवर्तन शील प्ररूप है ।
2023 NEW SOCIOLOGY – नया समाजशास्त्र
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