बेटियों पर आफत: ओडिशा में यौन उत्पीड़न से मौत, राहुल-प्रधान के आरोपों पर क्या है सच?
चर्चा में क्यों? (Why in News?):
हाल ही में ओडिशा से एक हृदय विदारक घटना सामने आई, जहाँ एक छात्रा के कथित यौन उत्पीड़न और उसके बाद हुई संदिग्ध मौत ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। यह मामला सिर्फ एक आपराधिक घटना तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसने समाज में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस घटना ने एक राजनीतिक तूफान भी खड़ा कर दिया है, जिसमें कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सीधे प्रधानमंत्री पर निशाना साधते हुए कहा कि “बेटियां जल रही हैं और PM चुप हैं”। वहीं, केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कांग्रेस पर “राजनीतिक रोटियां सेंकने” का आरोप लगाकर पलटवार किया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण, एक ओर न्याय की मांग कर रहा है, तो दूसरी ओर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के बीच मूल मुद्दे – समाज में व्याप्त हिंसा और महिलाओं की सुरक्षा – को फिर से केंद्र में ले आया है। UPSC उम्मीदवारों के लिए, यह घटना सिर्फ एक हेडलाइन नहीं, बल्कि भारतीय समाज, कानून-व्यवस्था, संस्थागत जवाबदेही और लैंगिक न्याय से जुड़े कई महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का एक अवसर है।
पूरा मामला क्या है? (What is the full case?)
ओडिशा के धेनकनाल जिले में एक 16 वर्षीय छात्रा की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। प्रारंभिक रिपोर्टों के अनुसार, छात्रा अपने स्कूल के छात्रावास में रहती थी और कथित तौर पर स्कूल के स्टाफ सदस्यों द्वारा उसका यौन उत्पीड़न किया जा रहा था। यह भी आरोप है कि जब छात्रा ने इस उत्पीड़न का विरोध किया या इसकी शिकायत करने का प्रयास किया, तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी गई। कुछ समय बाद, छात्रा अपने छात्रावास के कमरे में मृत पाई गई। पुलिस ने शुरुआत में इसे आत्महत्या का मामला बताया, लेकिन परिवार और स्थानीय लोगों के विरोध प्रदर्शनों के बाद, मामले की गहन जांच शुरू की गई।
परिवार ने आरोप लगाया कि उनकी बेटी की मौत यौन उत्पीड़न के कारण हुई थी और स्कूल प्रशासन ने मामले को दबाने की कोशिश की। इस घटना ने राज्य में व्यापक विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया, जिससे सरकार और पुलिस पर कार्रवाई करने का दबाव बढ़ा। पुलिस ने कुछ स्कूल स्टाफ सदस्यों को गिरफ्तार किया है और मामले की जांच जारी है। यह घटना ओडिशा के छोटे कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों और छात्रावासों में छात्राओं की सुरक्षा को लेकर एक बड़ी बहस का विषय बन गई है।
यौन उत्पीड़न: एक गंभीर सामाजिक अभिशाप (Sexual Harassment: A Serious Social Scourge)
यौन उत्पीड़न एक ऐसा अपराध है जो न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक और भावनात्मक रूप से भी पीड़ितों को तोड़ देता है। यह किसी भी व्यक्ति की गरिमा और सुरक्षा का उल्लंघन है।
यौन उत्पीड़न के विभिन्न रूप:
- शारीरिक उत्पीड़न: इसमें अवांछित शारीरिक संपर्क, छेड़छाड़, यौन प्रकृति के इशारे या शारीरिक दबाव शामिल हैं।
- मौखिक उत्पीड़न: इसमें अश्लील टिप्पणी, यौन प्रकृति के मजाक, धमकी भरे या अपमानजनक शब्द शामिल हैं।
- अमौखिक उत्पीड़न: इसमें अवांछित यौन संकेत, अश्लील तस्वीरें दिखाना या किसी भी यौन प्रकृति का गैर-मौखिक व्यवहार शामिल है।
- ऑनलाइन/डिजिटल उत्पीड़न: इसमें साइबरबुलिंग, अश्लील संदेश, तस्वीरें या वीडियो भेजना, या सोशल मीडिया पर यौन प्रकृति की टिप्पणियाँ करना शामिल है।
पीड़ितों पर प्रभाव:
यौन उत्पीड़न का शिकार होने वाले व्यक्ति पर इसका गहरा और स्थायी मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है।
“यौन उत्पीड़न केवल एक शारीरिक हमला नहीं है, यह आत्मा पर हमला है।”
- मनोवैज्ञानिक आघात: पीड़ितों को अवसाद, चिंता, पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD), नींद न आना, खाने की समस्या और आत्मघाती विचार जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
- शैक्षणिक/कैरियर बाधा: उत्पीड़न के कारण पीड़ित अपनी पढ़ाई या काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते, जिससे उनके शैक्षणिक प्रदर्शन या व्यावसायिक उन्नति में बाधा आती है। कई बार उन्हें अपनी संस्था या नौकरी छोड़नी पड़ती है।
- सामाजिक कलंक: समाज में अक्सर पीड़ितों को ही दोषी ठहराया जाता है, जिससे वे खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं और न्याय मांगने से कतराते हैं।
- आत्म-सम्मान में कमी: उत्पीड़न पीड़ित के आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास को गंभीर रूप से प्रभावित करता है, जिससे वे असुरक्षित महसूस करते हैं।
व्यापक सामाजिक निहितार्थ:
यह केवल व्यक्तिगत त्रासदी नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए एक चिंता का विषय है।
- भय का माहौल: ऐसी घटनाएँ समाज में, विशेषकर महिलाओं और लड़कियों में, भय और असुरक्षा का माहौल पैदा करती हैं।
- विश्वास का संकट: यह शिक्षण संस्थानों, कार्यस्थलों और सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षा के प्रति विश्वास को कम करता है।
- आर्थिक प्रभाव: यौन उत्पीड़न के कारण उत्पादकता में कमी, स्वास्थ्य देखभाल लागत में वृद्धि और पीड़ितों के करियर को नुकसान से अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- लैंगिक असमानता का बढ़ना: यह समाज में लैंगिक असमानता को और बढ़ाता है, जिससे महिलाओं की स्वतंत्रता और गतिशीलता बाधित होती है।
ओडिशा की घटना यह दर्शाती है कि कैसे संस्थागत स्तर पर सुरक्षा और जवाबदेही की कमी से ऐसे गंभीर परिणाम सामने आ सकते हैं। यह हमें याद दिलाता है कि केवल कानून बनाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उन्हें प्रभावी ढंग से लागू करना और समाज में एक सुरक्षित तथा संवेदनशील वातावरण बनाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
भारत में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा हेतु कानूनी ढाँचा (Legal Framework for Women and Child Safety in India)
भारत में महिलाओं और बच्चों को यौन उत्पीड़न तथा अन्य अपराधों से बचाने के लिए एक विस्तृत कानूनी ढाँचा मौजूद है। यह ढाँचा विभिन्न अधिनियमों, नियमों और संवैधानिक प्रावधानों से मिलकर बना है।
1. भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860:
IPC यौन उत्पीड़न और संबंधित अपराधों से निपटने के लिए कई प्रावधान करती है:
- धारा 354: महिला की लज्जा भंग करने के इरादे से उस पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग। इसमें चार उपधाराएँ (354A से 354D) जोड़ी गई हैं जो विशिष्ट प्रकार के यौन उत्पीड़न जैसे यौन टिप्पणी, पीछा करना (Stalking) और डिजिटल पीछा करना (Cyberstalking) को परिभाषित करती हैं।
- धारा 376: बलात्कार (Rape) को परिभाषित करती है और इसके विभिन्न रूपों (सामूहिक बलात्कार, नाबालिग से बलात्कार) के लिए दंड निर्धारित करती है।
- धारा 509: किसी महिला की लज्जा का अनादर करने के इरादे से शब्द, हावभाव या कार्य।
2. लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO Act), 2012:
यह अधिनियम बच्चों को यौन उत्पीड़न, यौन हमला और अश्लील साहित्य जैसे अपराधों से बचाने के लिए एक विशेष कानून है।
- मुख्य प्रावधान:
- बच्चों के यौन उत्पीड़न के विभिन्न रूपों को परिभाषित करता है और उनके लिए कठोर दंड का प्रावधान करता है।
- बच्चों की पहचान की गोपनीयता सुनिश्चित करता है।
- विशेष अदालतों (Special Courts) की स्थापना का प्रावधान है ताकि मामलों का त्वरित निपटारा हो सके।
- बच्चों की सुरक्षा और उनके सर्वोत्तम हितों को प्राथमिकता देता है।
- पुलिस, डॉक्टर और अन्य पेशेवरों के लिए यौन अपराधों की रिपोर्ट करने को अनिवार्य बनाता है।
- ओडिशा जैसे मामलों में, यदि पीड़ित नाबालिग है, तो POCSO अधिनियम के तहत कार्रवाई की जाती है।
3. कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम (POSH Act), 2013:
यह अधिनियम भारत में कार्यस्थलों पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाया गया है।
- मुख्य प्रावधान:
- यह ‘कार्यस्थल’ (Workplace) की परिभाषा को व्यापक बनाता है, जिसमें औपचारिक और अनौपचारिक दोनों क्षेत्र शामिल हैं।
- नियोक्ताओं के लिए आंतरिक शिकायत समिति (Internal Complaints Committee – ICC) या स्थानीय शिकायत समिति (Local Complaints Committee – LCC) का गठन अनिवार्य करता है।
- शिकायत निवारण प्रक्रिया और समय-सीमा निर्धारित करता है।
- शिकायतकर्ता को अंतरिम राहत और सुरक्षा उपाय प्रदान करता है।
- हालांकि यह अधिनियम कार्यस्थल से संबंधित है, लेकिन इसकी अवधारणाएँ शिक्षण संस्थानों में आंतरिक समितियों (Internal Committees) के गठन को भी प्रेरित करती हैं, जैसा कि विशाखा दिशानिर्देशों में भी कहा गया था।
4. राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR):
- NCW: महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और उनके मुद्दों को उठाने के लिए एक वैधानिक निकाय है। यह महिलाओं के खिलाफ अपराधों की जांच कर सकता है, सरकार को सिफारिशें दे सकता है और जागरूकता फैला सकता है।
- NCPCR: बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा और संवर्धन के लिए एक वैधानिक निकाय है। यह POCSO अधिनियम के कार्यान्वयन की निगरानी करता है और बच्चों के खिलाफ अपराधों की जांच करता है।
5. संवैधानिक प्रावधान:
भारत का संविधान भी महिलाओं और बच्चों के अधिकारों की रक्षा करता है:
- अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता।
- अनुच्छेद 15: धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध। अनुच्छेद 15(3) राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 21: प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण, जिसमें गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार भी शामिल है।
- अनुच्छेद 39(f) (राज्य के नीति निदेशक तत्व): बच्चों को स्वस्थ तरीके से और स्वतंत्रता और गरिमा की स्थितियों में विकसित होने के अवसर प्रदान करना।
6. विशाखा दिशानिर्देश (Vishaka Guidelines), 1997:
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी ये ऐतिहासिक दिशानिर्देश कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए बाध्यकारी थे, जब तक कि POSH अधिनियम नहीं बन गया। इन्होंने ‘आंतरिक शिकायत समिति’ की अवधारणा को जन्म दिया और यौन उत्पीड़न को एक गंभीर अपराध के रूप में मान्यता दी।
यह कानूनी ढाँचा मजबूत प्रतीत होता है, लेकिन ओडिशा जैसी घटनाएँ यह दर्शाती हैं कि केवल कानूनों का होना पर्याप्त नहीं है। महत्वपूर्ण है उनका प्रभावी कार्यान्वयन, पुलिस और न्यायपालिका की संवेदनशीलता, और एक ऐसा सामाजिक वातावरण जहाँ पीड़ित बिना किसी डर के शिकायत कर सकें और उन्हें त्वरित न्याय मिल सके।
संस्थागत जवाबदेही और सुरक्षा (Institutional Accountability and Safety)
शैक्षणिक संस्थान केवल ज्ञान के केंद्र नहीं होते, बल्कि वे बच्चों और युवाओं के सर्वांगीण विकास के लिए सुरक्षित और पोषणपूर्ण वातावरण प्रदान करने के लिए भी जिम्मेदार होते हैं। ओडिशा की घटना ने शिक्षण संस्थानों, विशेषकर छात्रावासों में, सुरक्षा और जवाबदेही की गंभीर खामियों को उजागर किया है।
शैक्षणिक संस्थानों की भूमिका:
- सुरक्षित वातावरण का निर्माण: संस्थानों को शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दोनों स्तरों पर एक सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करना चाहिए। इसमें परिसर में पर्याप्त प्रकाश व्यवस्था, सीसीटीवी कैमरे, प्रवेश/निकास बिंदुओं पर कड़ी निगरानी और पर्याप्त सुरक्षाकर्मी शामिल हैं।
- आंतरिक शिकायत निवारण तंत्र: प्रत्येक संस्थान में यौन उत्पीड़न या किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार की शिकायतों को गोपनीय रूप से और संवेदनशीलता के साथ संभालने के लिए एक सुव्यवस्थित आंतरिक शिकायत समिति (ICC या समकक्ष) होनी चाहिए। यह समिति POSH अधिनियम (यदि कर्मचारी शामिल हों) या संबंधित दिशानिर्देशों के अनुरूप होनी चाहिए।
- नियमित जागरूकता और संवेदनशीलता कार्यक्रम: छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों को यौन उत्पीड़न क्या है, इसकी रिपोर्ट कैसे करें, और इसके परिणामों के बारे में शिक्षित करने के लिए नियमित कार्यशालाएँ और जागरूकता सत्र आयोजित किए जाने चाहिए। लैंगिक संवेदनशीलता (Gender Sensitivity) को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।
- कर्मचारियों की पृष्ठभूमि की जाँच: संस्थान में नियुक्त किए जाने वाले सभी कर्मचारियों, विशेषकर उन लोगों की जो सीधे छात्रों के संपर्क में आते हैं, की आपराधिक पृष्ठभूमि की कठोरता से जाँच की जानी चाहिए।
- काउंसलिंग और सहायता सेवाएँ: पीड़ितों को भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक सहायता प्रदान करने के लिए प्रशिक्षित काउंसलर उपलब्ध होने चाहिए। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि पीड़ित को अकेले संघर्ष न करना पड़े।
- माता-पिता का जुड़ाव: माता-पिता को संस्थान की सुरक्षा नीतियों, शिकायत प्रक्रियाओं और उनके बच्चे की सुरक्षा से संबंधित चिंताओं के बारे में सूचित रखा जाना चाहिए। माता-पिता-शिक्षक बैठकों (PTMs) में इन मुद्दों पर चर्चा की जानी चाहिए।
- जवाबदेही तय करना: यदि किसी घटना की सूचना मिलती है, तो संस्थान को त्वरित, निष्पक्ष और पारदर्शी जाँच सुनिश्चित करनी चाहिए। दोषी पाए जाने पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए और इसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए। इसमें विफल रहने पर संस्थान के प्रबंधन पर भी कार्रवाई होनी चाहिए।
समस्याएँ और चुनौतियाँ:
- शिकायत न करने की प्रवृत्ति: अक्सर, उत्पीड़न के शिकार बच्चे या युवा बदनामी के डर, प्रतिशोध के भय या यह न जानने के कारण कि शिकायत कहाँ करें, चुप्पी साधे रहते हैं।
- संस्थागत उदासीनता: कुछ संस्थान अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए या जिम्मेदारी से बचने के लिए ऐसे मामलों को दबाने की कोशिश करते हैं। यह स्थिति पीड़ितों के लिए और भी खतरनाक हो सकती है।
- प्रशिक्षण और संवेदनशीलता की कमी: पुलिस, संस्थान के कर्मचारी और यहाँ तक कि माता-पिता भी अक्सर ऐसे मामलों को संभालने के लिए पर्याप्त रूप से संवेदनशील या प्रशिक्षित नहीं होते।
- निगरानी और विनियमन का अभाव: छोटे निजी स्कूलों या छात्रावासों में अक्सर सुरक्षा मानकों और विनियमन की कमी होती है, जिससे वे असुरक्षित हो जाते हैं।
एक प्रभावी संस्थागत जवाबदेही प्रणाली वह होती है जहाँ हर स्तर पर सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाती है, शिकायतों को गंभीरता से लिया जाता है, और यह सुनिश्चित किया जाता है कि कोई भी अपराधी बच न पाए। यह तभी संभव है जब कानून का डर हो और संस्थानों को यह पता हो कि लापरवाही की स्थिति में उन्हें भी जवाबदेह ठहराया जाएगा।
न्याय में देरी, न्याय से इनकार (Justice Delayed, Justice Denied)
किसी भी न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण स्तंभ यह सुनिश्चित करना है कि न्याय न केवल मिले, बल्कि समय पर मिले। दुर्भाग्य से, भारत में, यौन उत्पीड़न और बच्चों के खिलाफ अपराधों सहित कई मामलों में, न्याय प्रक्रिया में देरी एक गंभीर चुनौती बनी हुई है, जिससे अक्सर यह कहावत चरितार्थ होती है कि “न्याय में देरी, न्याय से इनकार है”।
न्याय में देरी के कारण:
- जांच में चुनौतियाँ:
- सबूतों का संग्रह: यौन उत्पीड़न के मामलों में, विशेषकर बच्चों के साथ होने पर, सबूत इकट्ठा करना मुश्किल हो सकता है। शारीरिक सबूत अक्सर तुरंत उपलब्ध नहीं होते, और मौखिक गवाही पर निर्भरता बढ़ जाती है।
- फोरेंसिक क्षमताओं की कमी: कई पुलिस स्टेशनों में आवश्यक फोरेंसिक उपकरण और प्रशिक्षित कर्मियों की कमी होती है, जिससे जांच धीमी हो जाती है।
- संवेदनशीलता का अभाव: पुलिस कर्मियों में संवेदनशीलता और विशेष प्रशिक्षण की कमी अक्सर पीड़ितों को दोबारा आघात पहुँचाती है, जिससे वे सहयोग करने से हिचकिचाते हैं।
- न्यायिक विलंब और बैकलॉग:
- अदालतों में बोझ: भारतीय अदालतें पहले से ही भारी संख्या में लंबित मामलों से जूझ रही हैं। न्यायाधीशों और न्यायिक कर्मचारियों की कमी भी एक बड़ा कारण है।
- लंबे मुकदमे: मामलों की सुनवाई में लंबा समय लगता है। बचाव पक्ष द्वारा अक्सर प्रक्रियात्मक देरी (जैसे स्थगन की मांग) का उपयोग किया जाता है।
- POCSO न्यायालयों का अभाव: यद्यपि POCSO अधिनियम में विशेष अदालतों के गठन का प्रावधान है, सभी जिलों में उनका पर्याप्त रूप से संचालन नहीं हो पाया है, जिससे मामलों का त्वरित निपटारा बाधित होता है।
- सामाजिक और सांस्कृतिक कारक:
- कलंक और बदनामी का डर: पीड़ित और उनके परिवार अक्सर सामाजिक कलंक और बदनामी के डर से पुलिस या अदालत में जाने से कतराते हैं, जिससे अपराध की रिपोर्टिंग दर कम हो जाती है।
- पारिवारिक दबाव: कई मामलों में, परिवारों पर दबाव डाला जाता है कि वे शिकायत वापस ले लें या समझौता कर लें, खासकर यदि आरोपी कोई प्रभावशाली व्यक्ति हो।
प्रभाव:
- पीड़ित का मनोबल टूटना: लंबी और थकाऊ कानूनी प्रक्रिया पीड़ितों को मानसिक रूप से थका देती है और न्याय की उम्मीद तोड़ देती है।
- साक्ष्य का बिगड़ना: समय बीतने के साथ सबूत कमजोर हो सकते हैं या नष्ट हो सकते हैं, जिससे अपराधी को दंडित करना मुश्किल हो जाता है।
- अपराधियों को प्रोत्साहन: यदि अपराधियों को लगता है कि उन्हें आसानी से पकड़ा या दंडित नहीं किया जाएगा, तो वे और अपराध करने के लिए प्रोत्साहित हो सकते हैं।
- न्याय प्रणाली में विश्वास की कमी: जनता का न्याय प्रणाली में विश्वास कम हो जाता है, जिससे अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
समाधान की दिशा में:
- त्वरित जांच और फोरेंसिक क्षमताओं का सुदृढ़ीकरण।
- न्यायिक प्रणाली का विस्तार और विशेष अदालतों का प्रभावी संचालन।
- पुलिस और न्यायिक कर्मियों के लिए नियमित संवेदनशीलता प्रशिक्षण।
- पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण अपनाना।
- जनता में जागरूकता बढ़ाना कि न्याय के लिए लड़ना शर्म की बात नहीं, बल्कि अधिकार है।
ओडिशा का मामला इस बात का एक दुखद उदाहरण है कि कैसे एक युवा जीवन को असामयिक रूप से समाप्त कर दिया गया, और अब यह सुनिश्चित करना समाज और न्याय प्रणाली का कर्तव्य है कि उसे और उसके परिवार को त्वरित और निष्पक्ष न्याय मिले, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोका जा सके।
राजनीति और संवेदनशीलता (Politics and Sensitivity)
ओडिशा की दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर राहुल गांधी और केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के बीच राजनीतिक बयानबाजी ने एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है: क्या ऐसी संवेदनशील घटनाओं का राजनीतिकरण करना उचित है? यह मुद्दा अक्सर सामने आता है जब कोई गंभीर सामाजिक या आपराधिक घटना घटित होती है।
राहुल गांधी का बयान: “बेटियां जल रहीं, PM चुप”
राहुल गांधी का बयान सरकार पर जवाबदेही तय करने का एक प्रयास था। विपक्ष के रूप में, उनका काम सरकार को उसकी जिम्मेदारियों के प्रति आगाह करना और जनता के सामने मुद्दों को उठाना है। जब महिलाएं और बच्चे असुरक्षित महसूस करते हैं, तो सरकार पर सवाल उठाना स्वाभाविक है। इस बयान का उद्देश्य संभवतः:
- सरकार की जवाबदेही तय करना: सरकार पर महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में उसकी कथित विफलता के लिए दबाव बनाना।
- जनता का ध्यान आकर्षित करना: मामले की गंभीरता और व्यापक प्रभाव को राष्ट्रीय स्तर पर उजागर करना।
- राजनीतिक विरोध: मौजूदा सरकार की नीतियों और प्रदर्शन पर असंतोष व्यक्त करना।
हालांकि, इस तरह के बयान की भाषा को लेकर अक्सर बहस होती है। क्या यह सिर्फ एक राजनीतिक हमला था, या वास्तव में इसमें गंभीरता और चिंता निहित थी?
धर्मेंद्र प्रधान का पलटवार: “कांग्रेस राजनीतिक रोटियां सेंक रही”
धर्मेंद्र प्रधान का जवाब सत्तारूढ़ दल की ओर से आया, जिसमें उन्होंने विपक्ष पर आरोप लगाया कि वह इस दुखद घटना का इस्तेमाल “राजनीतिक रोटियां सेंकने” के लिए कर रहा है। इस तरह के बयान का उद्देश्य अक्सर:
- विपक्ष के आरोप को कमजोर करना: यह दर्शाना कि विपक्ष गंभीर मुद्दों पर भी राजनीति कर रहा है।
- सरकार का बचाव करना: यह संकेत देना कि सरकार गंभीर है और मामले पर कार्रवाई कर रही है, जबकि विपक्ष केवल राजनीतिक लाभ देख रहा है।
- ध्यान भटकाना: मूल मुद्दे से ध्यान हटाकर राजनीतिक बहस पर केंद्रित करना।
संवेदनशील मामलों में राजनीतिकरण की नैतिकता:
यौन उत्पीड़न और हिंसा के मामलों का राजनीतिकरण कई नैतिक दुविधाएँ पैदा करता है:
- पीड़ित की गरिमा: जब ऐसे मामलों का राजनीतिकरण होता है, तो अक्सर पीड़ित और उसके परिवार को और अधिक मानसिक आघात झेलना पड़ता है। मीडिया और राजनीतिक मंचों पर उनके मामले का अनावश्यक विवरण सामने आता है, जिससे उनकी निजता का उल्लंघन होता है।
- मुख्य मुद्दे से भटकाव: राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप अक्सर मूल मुद्दे – न्याय, सुरक्षा और अपराध की रोकथाम – से ध्यान भटका देते हैं। इससे समाधान खोजने की बजाय केवल शब्दों का युद्ध होता है।
- विश्वास का ह्रास: जनता राजनीतिक नेताओं पर विश्वास खो सकती है यदि उन्हें लगता है कि वे गंभीर मानवीय त्रासदी पर भी संवेदनशीलता से काम नहीं ले रहे हैं, बल्कि केवल सत्ता की लड़ाई लड़ रहे हैं।
- समाधान पर नकारात्मक प्रभाव: जब राजनीतिक दल एक-दूसरे पर हमला करते हैं, तो आम सहमति और सहयोग की संभावना कम हो जाती है, जो महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए दीर्घकालिक समाधान खोजने के लिए आवश्यक है।
संतुलन कैसे साधें?
लोकतंत्र में विपक्ष को सरकार को जवाबदेह ठहराने का अधिकार है, खासकर जब सुरक्षा और न्याय जैसे मौलिक मुद्दों की बात हो। हालांकि, इसमें संवेदनशीलता और जिम्मेदारी का संतुलन होना चाहिए।
- तथ्य-आधारित आलोचना: आलोचना ठोस तथ्यों और आंकड़ों पर आधारित होनी चाहिए, न कि केवल भावनात्मक या उत्तेजक बयानों पर।
- रचनात्मक सुझाव: सरकार की आलोचना के साथ-साथ, विपक्ष को समस्या के समाधान के लिए रचनात्मक सुझाव भी देने चाहिए।
- राजनीतिक एकजुटता: कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जहाँ सभी राजनीतिक दलों को एकजुट होकर काम करना चाहिए, जैसे कि महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा। राजनीतिक लाभ से ऊपर उठकर साझा लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
- सत्यनिष्ठा: बयानों में सत्यनिष्ठा और पीड़ितों के प्रति वास्तविक सहानुभूति झलकनी चाहिए, न कि केवल राजनीतिक अवसरवादिता।
ओडिशा की घटना एक अनुस्मारक है कि जब तक समाज में हर व्यक्ति सुरक्षित महसूस नहीं करता, तब तक किसी भी राजनीतिक दल को “जीतने” का दावा करने का अधिकार नहीं है। इस तरह के संवेदनशील मामलों में, राजनीतिक बयानों को न्याय, संवेदनशीलता और समाधान की दिशा में केंद्रित होना चाहिए, न कि केवल राजनीतिक स्कोर बनाने के लिए।
आगे की राह (Way Forward)
ओडिशा की इस हृदय विदारक घटना ने एक बार फिर हमें महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता का एहसास कराया है। केवल कानून बनाना पर्याप्त नहीं है; उनका प्रभावी कार्यान्वयन और सामाजिक मानसिकता में परिवर्तन उतना ही महत्वपूर्ण है।
- कानूनों का सख्त और त्वरित कार्यान्वयन:
- फास्ट-ट्रैक न्यायपालिका: यौन उत्पीड़न के मामलों के लिए विशेष अदालतों (POCSO न्यायालयों सहित) को सशक्त बनाना और पर्याप्त न्यायाधीशों की नियुक्ति सुनिश्चित करना ताकि मामलों का त्वरित निपटारा हो सके।
- जांच का सुदृढ़ीकरण: पुलिस को फोरेंसिक विज्ञान, डिजिटल सबूत संग्रह और पीड़ित-संवेदनशील जांच तकनीकों में उन्नत प्रशिक्षण प्रदान करना।
- कठोर दंड: दोषियों को त्वरित और प्रभावी दंड सुनिश्चित करना ताकि दूसरों के लिए एक निवारक के रूप में कार्य किया जा सके।
- संस्थागत जवाबदेही में सुधार:
- अनिवार्य आंतरिक समितियाँ: सभी शिक्षण संस्थानों (स्कूल, कॉलेज, छात्रावास) और कार्यस्थलों में प्रभावी और सक्रिय आंतरिक शिकायत समितियों (ICC/Internal Committees) का गठन अनिवार्य किया जाना चाहिए। इन समितियों के सदस्यों को यौन उत्पीड़न के मामलों को संभालने के लिए संवेदनशील और प्रशिक्षित होना चाहिए।
- नियमित ऑडिट: संस्थानों की सुरक्षा प्रक्रियाओं, कर्मचारियों की पृष्ठभूमि की जांच और शिकायत निवारण तंत्र का नियमित रूप से स्वतंत्र ऑडिट किया जाना चाहिए।
- शून्य सहिष्णुता नीति: संस्थानों को यौन उत्पीड़न के प्रति ‘शून्य सहिष्णुता’ की नीति अपनानी चाहिए और किसी भी उल्लंघनकर्ता के खिलाफ तत्काल और कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, चाहे वह कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो।
- शिक्षा और जागरूकता:
- पाठ्यक्रम में लैंगिक संवेदनशीलता: स्कूलों के पाठ्यक्रम में लैंगिक समानता, सम्मान और सहमति (Consent) के महत्व को शामिल किया जाना चाहिए ताकि युवावस्था से ही बच्चों को सही मूल्यों की शिक्षा मिल सके।
- माता-पिता और शिक्षकों का सशक्तिकरण: माता-पिता और शिक्षकों को बच्चों को ‘अच्छे स्पर्श’ और ‘बुरे स्पर्श’ के बारे में शिक्षित करने और उन्हें यौन उत्पीड़न के मामलों में बोलने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु प्रशिक्षित करना।
- सार्वजनिक जागरूकता अभियान: सरकार और नागरिक समाज संगठनों द्वारा व्यापक सार्वजनिक जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए जो यौन उत्पीड़न के बारे में मिथकों को दूर करें, पीड़ितों को सहायता प्रदान करने के लिए उपलब्ध संसाधनों की जानकारी दें और समाज में जवाबदेही की संस्कृति को बढ़ावा दें।
- मनोवैज्ञानिक और सामाजिक सहायता:
- काउंसलिंग और पुनर्वास: यौन उत्पीड़न के शिकार पीड़ितों के लिए पर्याप्त मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग और पुनर्वास सेवाएँ उपलब्ध होनी चाहिए। उन्हें कानूनी प्रक्रिया के दौरान भी भावनात्मक सहायता मिलनी चाहिए।
- समुदाय आधारित पहल: स्थानीय समुदायों और पंचायती राज संस्थानों को महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए, जिसमें निगरानी समितियाँ बनाना और सुरक्षित वातावरण को बढ़ावा देना शामिल है।
- राजनीतिक इच्छाशक्ति और गैर-पक्षपातपूर्ण सहयोग:
- महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा एक गैर-राजनीतिक मुद्दा होना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों को इस मामले पर एकजुट होकर काम करना चाहिए, न कि केवल आरोप-प्रत्यारोप में लिप्त होना चाहिए।
- सरकार को विपक्ष और नागरिक समाज से रचनात्मक सुझावों का स्वागत करना चाहिए और समाधान-उन्मुख दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
- मीडिया की जिम्मेदार भूमिका:
- मीडिया को संवेदनशीलता के साथ रिपोर्टिंग करनी चाहिए, पीड़ित की गोपनीयता का सम्मान करना चाहिए और सनसनीखेज रिपोर्टिंग से बचना चाहिए।
- उनका ध्यान न्याय प्रक्रिया, समाधानों और जवाबदेही पर केंद्रित होना चाहिए, न कि केवल राजनीतिक बयानबाजी पर।
अंततः, ओडिशा की छात्रा की मौत जैसी घटनाएँ हमें याद दिलाती हैं कि एक सुरक्षित और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण एक सतत प्रक्रिया है जिसके लिए सरकार, न्यायपालिका, शैक्षिक संस्थानों, परिवारों और प्रत्येक नागरिक के सामूहिक और समर्पित प्रयासों की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित करना हमारा नैतिक और संवैधानिक दायित्व है कि किसी भी बच्चे को डर में न जीना पड़े और हर बेटी को सम्मान और सुरक्षा के साथ जीवन जीने का अधिकार मिले।
निष्कर्ष (Conclusion)
ओडिशा में छात्रा की दुखद मौत और उसके इर्द-गिर्द पनपी राजनीतिक बयानबाजी ने भारतीय समाज की एक गहरी और दर्दनाक सच्चाई को उजागर किया है: महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा अभी भी एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। यह घटना केवल एक आपराधिक मामला नहीं है, बल्कि शिक्षा प्रणाली में संस्थागत खामियों, न्याय वितरण प्रणाली की देरी और राजनीतिक विमर्श की संवेदनशीलता पर भी सवाल उठाती है।
जहां कानूनों का एक मजबूत ढाँचा मौजूद है, वहीं उनका प्रभावी कार्यान्वयन और सामाजिक मानसिकता में सकारात्मक परिवर्तन अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है। शिक्षण संस्थानों को सुरक्षित आश्रय स्थल बनना चाहिए, न कि डर के स्रोत। न्याय प्रणाली को त्वरित, संवेदनशील और निष्पक्ष होना चाहिए ताकि “न्याय में देरी, न्याय से इनकार” की स्थिति से बचा जा सके। और राजनीतिक दलों को ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर एकजुटता और संवेदनशीलता दिखानी चाहिए, बजाय इसके कि वे केवल राजनीतिक रोटियां सेंकें।
हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करना होगा जहां हर बच्चा, हर लड़की, बिना किसी डर के खुलकर साँस ले सके और अपने सपनों को पूरा कर सके। यह तभी संभव होगा जब हम सब मिलकर, सरकारों से लेकर नागरिक समाज तक, और परिवारों से लेकर व्यक्तियों तक, अपनी जिम्मेदारियों को समझेंगे और एक सुरक्षित, सम्मानजनक और न्यायपूर्ण वातावरण बनाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे। इस छात्रा की मौत एक और आंकड़ा नहीं, बल्कि समाज के लिए एक ज़ोरदार चेतावनी है कि अब कार्रवाई का समय है, और यह कार्रवाई सिर्फ कागजों पर नहीं, बल्कि जमीनी स्तर पर दिखाई देनी चाहिए।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
(यहाँ 10 MCQs, उनके उत्तर और व्याख्या प्रदान करें)
1. लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO Act), 2012 के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- यह अधिनियम केवल 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों को यौन अपराधों से सुरक्षा प्रदान करता है।
- यह अधिनियम बच्चों की पहचान की गोपनीयता सुनिश्चित करने का प्रावधान करता है।
- यह अधिनियम बाल यौन उत्पीड़न के मामलों के त्वरित निपटान के लिए विशेष अदालतों की स्थापना का प्रावधान करता है।
उपरोक्त कथनों में से कितने सही हैं?
(A) केवल एक
(B) केवल दो
(C) सभी तीन
(D) कोई नहीं
उत्तर: (B)
व्याख्या:
कथन (a) गलत है। POCSO अधिनियम 18 वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों (लड़के और लड़कियों दोनों) को यौन अपराधों से सुरक्षा प्रदान करता है।
कथन (b) सही है। अधिनियम बच्चों की पहचान की गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान करता है ताकि उन्हें और उनके परिवारों को सामाजिक कलंक से बचाया जा सके।
कथन (c) सही है। POCSO अधिनियम में बाल यौन उत्पीड़न के मामलों के त्वरित निपटान के लिए विशेष अदालतों की स्थापना का प्रावधान है।
2. भारत में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम से संबंधित कानूनी ढाँचे के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?
- कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013, संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों में लागू होता है।
- इस अधिनियम के तहत आंतरिक शिकायत समिति (ICC) का गठन प्रत्येक कार्यस्थल पर अनिवार्य है जहाँ 10 या अधिक कर्मचारी हों।
- विशाखा दिशानिर्देश भारत में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किए गए पहले बाध्यकारी दिशानिर्देश थे।
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए:
(A) केवल 1 और 2
(B) केवल 2 और 3
(C) केवल 1 और 3
(D) 1, 2 और 3
उत्तर: (C)
व्याख्या:
कथन 1 सही है। POSH अधिनियम ‘कार्यस्थल’ की परिभाषा को व्यापक बनाता है जिसमें औपचारिक और अनौपचारिक दोनों क्षेत्र शामिल हैं, जिससे संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं को कवर किया जा सके।
कथन 2 गलत है। POSH अधिनियम के तहत ICC का गठन प्रत्येक कार्यस्थल पर अनिवार्य है जहाँ 10 या अधिक कर्मचारी हों।
कथन 3 सही है। विशाखा दिशानिर्देश 1997 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से संबंधित कानून के अभाव में जारी किए गए पहले बाध्यकारी दिशानिर्देश थे।
3. भारतीय संविधान के निम्नलिखित में से कौन से अनुच्छेद महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति प्रदान करते हैं?
(A) अनुच्छेद 14
(B) अनुच्छेद 15(3)
(C) अनुच्छेद 21
(D) अनुच्छेद 39(f)
उत्तर: (B)
व्याख्या:
अनुच्छेद 15(3) भारतीय संविधान के तहत राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार देता है, भले ही अनुच्छेद 15(1) लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध करता हो। यह सकारात्मक भेदभाव (positive discrimination) का एक उदाहरण है।
अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता से संबंधित है।
अनुच्छेद 21 प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण से संबंधित है।
अनुच्छेद 39(f) राज्य के नीति निदेशक तत्वों का हिस्सा है और बच्चों के स्वस्थ विकास के अवसरों से संबंधित है।
4. राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- यह एक संवैधानिक निकाय है जिसका उल्लेख सीधे भारत के संविधान में है।
- इसका मुख्य कार्य महिलाओं को प्रभावित करने वाले कानूनों की समीक्षा करना और सरकार को नीतिगत सिफारिशें करना है।
- यह महिलाओं के खिलाफ अपराधों की शिकायतों की जांच कर सकता है और उपयुक्त कार्रवाई की सिफारिश कर सकता है।
उपरोक्त कथनों में से कितने सही हैं?
(A) केवल एक
(B) केवल दो
(C) सभी तीन
(D) कोई नहीं
उत्तर: (B)
व्याख्या:
कथन (a) गलत है। NCW एक वैधानिक निकाय है, जिसका गठन 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1990 के तहत किया गया था, न कि संवैधानिक निकाय।
कथन (b) सही है। NCW का एक मुख्य कार्य महिलाओं को प्रभावित करने वाले कानूनों की समीक्षा करना और नीतिगत सुधारों के लिए सिफारिशें करना है।
कथन (c) सही है। NCW महिलाओं के खिलाफ अपराधों की शिकायतों की जांच कर सकता है और अधिकारियों को उचित कार्रवाई की सिफारिश कर सकता है।
5. यौन उत्पीड़न के मामलों में, अक्सर ‘द्वि-विक्टिमाइजेशन’ (re-victimization) या ‘माध्यमिक विक्टिमाइजेशन’ (secondary victimization) की स्थिति देखी जाती है। इसका क्या अर्थ है?
(A) जब पीड़ित को एक ही अपराध में दो अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है।
(B) जब पीड़ित को अपराध के बाद पुलिस, न्याय प्रणाली या समाज द्वारा संवेदनशील तरीके से व्यवहार न करने के कारण और अधिक आघात पहुँचता है।
(C) जब पीड़ित को अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है और उसे कानूनी रूप से दंडित किया जाता है।
(D) जब पीड़ित स्वयं को दोषी मानता है और समाज से कट जाता है।
उत्तर: (B)
व्याख्या:
‘द्वि-विक्टिमाइजेशन’ या ‘माध्यमिक विक्टिमाइजेशन’ तब होता है जब अपराध का शिकार होने के बाद पीड़ित को औपचारिक प्रतिक्रिया प्रणाली (जैसे पुलिस, अदालतें, चिकित्सा पेशेवर) या सामाजिक प्रतिक्रियाओं (जैसे मीडिया, समुदाय) द्वारा और अधिक आघात, उपेक्षा या आरोप का सामना करना पड़ता है, जिससे वे मूल घटना के आघात को फिर से अनुभव करते हैं।
6. भारत में बच्चों के यौन शोषण को रोकने के लिए ‘चाइल्डलाइन इंडिया फाउंडेशन’ किस मंत्रालय के तहत कार्य करता है?
(A) स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय
(B) महिला एवं बाल विकास मंत्रालय
(C) गृह मंत्रालय
(D) सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय
उत्तर: (B)
व्याख्या:
चाइल्डलाइन इंडिया फाउंडेशन (Childline India Foundation – CIF) महिला एवं बाल विकास मंत्रालय (Ministry of Women and Child Development) के तहत एक नोडल एजेंसी है, जो बच्चों के लिए 24 घंटे की टोल-फ्री हेल्पलाइन (1098) संचालित करती है।
7. विशाखा दिशानिर्देश, जो भारत में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम से संबंधित थे, निम्नलिखित में से किस वर्ष सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किए गए थे?
(A) 1992
(B) 1997
(C) 2005
(D) 2013
उत्तर: (B)
व्याख्या:
विशाखा दिशानिर्देश 1997 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विशाखा बनाम राजस्थान राज्य मामले में जारी किए गए थे। इन दिशानिर्देशों ने 2013 के POSH अधिनियम के लिए आधार तैयार किया।
8. भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 354 मुख्य रूप से किससे संबंधित है?
(A) बलात्कार
(B) अपहरण
(C) महिला की लज्जा भंग करने के इरादे से हमला या आपराधिक बल का प्रयोग
(D) घरेलू हिंसा
उत्तर: (C)
व्याख्या:
IPC की धारा 354 महिला की लज्जा भंग करने के इरादे से उस पर हमला या आपराधिक बल के प्रयोग से संबंधित है। धारा 376 बलात्कार से संबंधित है, और घरेलू हिंसा मुख्य रूप से घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत कवर होती है।
9. राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- यह एक संवैधानिक निकाय है जिसका गठन संसद के एक अधिनियम द्वारा किया गया है।
- यह POCSO अधिनियम, 2012 के प्रभावी कार्यान्वयन की निगरानी करता है।
- इसका उद्देश्य भारत में बच्चों के सभी अधिकारों को सुनिश्चित करना है।
उपरोक्त कथनों में से कितने सही हैं?
(A) केवल एक
(B) केवल दो
(C) सभी तीन
(D) कोई नहीं
उत्तर: (B)
व्याख्या:
कथन (a) गलत है। NCPCR एक वैधानिक निकाय है, जिसका गठन बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005 के तहत किया गया है, न कि संवैधानिक निकाय।
कथन (b) सही है। NCPCR POCSO अधिनियम के तहत बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा और कार्यान्वयन की निगरानी करता है।
कथन (c) सही है। NCPCR का व्यापक उद्देश्य भारत में बच्चों के सभी अधिकारों (जीवन, विकास, संरक्षण और भागीदारी के अधिकार सहित) को सुनिश्चित करना है।
10. यौन उत्पीड़न के मामलों की रिपोर्टिंग में बाधा डालने वाले प्रमुख सामाजिक कारकों में से एक क्या है?
(A) पर्याप्त कानूनी ढांचे का अभाव।
(B) न्यायपालिका द्वारा ऐसे मामलों को प्राथमिकता न देना।
(C) पीड़ितों और उनके परिवारों पर सामाजिक कलंक और बदनामी का डर।
(D) पुलिस कर्मियों में पर्याप्त प्रशिक्षण का अभाव।
उत्तर: (C)
व्याख्या:
हालांकि अन्य विकल्प भी चुनौतियां हो सकते हैं, लेकिन ‘सामाजिक कलंक और बदनामी का डर’ अक्सर पीड़ितों को ऐसे अपराधों की रिपोर्ट करने से रोकने वाला एक प्रमुख कारक होता है। समाज में अक्सर पीड़ितों को ही दोषी ठहराने की प्रवृत्ति होती है, जिससे वे चुप रहने को मजबूर होते हैं।
मुख्य परीक्षा (Mains)
(यहाँ 3-4 मेन्स के प्रश्न प्रदान करें)
1. “यौन उत्पीड़न के मामले में न्याय में देरी, न्याय से इनकार है।” इस कथन के आलोक में, भारत में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों में न्यायिक विलंब के प्रमुख कारणों का विश्लेषण कीजिए और इनके समाधान हेतु संस्थागत व सामाजिक सुधारों का सुझाव दीजिए। (250 शब्द)
2. शिक्षण संस्थानों में छात्राओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना केवल कानूनी प्रावधानों तक सीमित नहीं है, बल्कि एक व्यापक संस्थागत जवाबदेही प्रणाली की मांग करता है। इस कथन का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए और ओडिशा जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने हेतु संस्थानों की भूमिका और आवश्यक उपायों पर प्रकाश डालिए। (250 शब्द)
3. संवेदनशील सामाजिक मुद्दों का राजनीतिकरण अक्सर मूल समस्या से ध्यान भटकाता है और न्याय प्रक्रिया को बाधित करता है। ओडिशा में छात्रा की मौत के संदर्भ में इस कथन का मूल्यांकन कीजिए। क्या आप मानते हैं कि राजनीतिक दलों को ऐसी घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया में अधिक संवेदनशीलता और रचनात्मकता दिखानी चाहिए? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क प्रस्तुत कीजिए। (250 शब्द)
4. भारत में महिलाओं और बच्चों को यौन उत्पीड़न से बचाने हेतु उपलब्ध कानूनी और संवैधानिक ढाँचे का विस्तार से वर्णन कीजिए। क्या आप मानते हैं कि इन कानूनों के होते हुए भी ऐसी घटनाएँ क्यों होती हैं, इसके मूल कारण सामाजिक मानसिकता में निहित हैं? समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिए। (250 शब्द)