बिहार चुनाव: नेताओं के तेज और मुद्दों की धार – सियासी बिसात पर कौन मारेगा बाज़ी?
चर्चा में क्यों? (Why in News?):
भारत की राजनीतिक धुरी पर बिहार का स्थान सदैव से महत्वपूर्ण रहा है। जब भी बिहार में चुनाव का बिगुल बजता है, यह केवल एक राज्य के भविष्य का निर्धारण नहीं करता, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की दिशा और दशा पर भी गहरा प्रभाव डालता है। इस बार का बिहार चुनाव भी कोई अपवाद नहीं है; बल्कि यह मुद्दों की धार और नेताओं के तेज की एक अभूतपूर्व कसौटी बनने जा रहा है। जिस प्रकार महाभारत के ‘कुरुक्षेत्र’ में धर्म और अधर्म के बीच निर्णायक युद्ध लड़ा गया था, उसी प्रकार बिहार की चुनावी रणभूमि में भी विभिन्न राजनीतिक दल और उनके नेता अपने-अपने दावों, वादों और रणनीतियों के साथ आमने-सामने हैं। यह चुनाव महज सत्ता परिवर्तन से कहीं अधिक है; यह बिहार के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने, उसकी आशाओं, आकांक्षाओं और चुनौतियों का सीधा प्रतिबिंब होगा। इस व्यापक विश्लेषण में, हम बिहार चुनाव के सारे समीकरणों को गहराई से समझेंगे, उन प्रमुख मुद्दों को उजागर करेंगे जो मतदाताओं को प्रभावित करेंगे, और उन नेताओं के कौशल का आकलन करेंगे जो इस सियासी बिसात पर अपनी चालें चल रहे हैं।
बिहार की राजनीतिक पृष्ठभूमि और उसका राष्ट्रीय महत्व
बिहार, भारतीय राजनीति का वह हृदय स्थल है जिसने सदैव से देश की दशा और दिशा को प्रभावित किया है। इसकी राजनीतिक विरासत अत्यंत समृद्ध और जटिल है, जहाँ विभिन्न विचारधाराओं और सामाजिक आंदोलनों ने जन्म लिया है।
ऐतिहासिक संदर्भ: जातिगत राजनीति और सामाजिक न्याय
बिहार की राजनीति को समझे बिना, भारत की सामाजिक न्याय की अवधारणा अधूरी है। मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद से ही, बिहार जातिगत राजनीति का केंद्र रहा है। यहाँ जाति केवल एक सामाजिक पहचान नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली राजनीतिक उपकरण है। विभिन्न जातियों के समीकरण, उप-जातियों के विभाजन और उनके राजनीतिक जुड़ाव ने चुनाव परिणामों को हमेशा प्रभावित किया है।
“बिहार की राजनीति को ‘जाति का प्रयोगशाला’ कहा जाता है, जहाँ सामाजिक न्याय और पहचान की राजनीति गहराई से जड़ें जमा चुकी है।”
यह वह भूमि है जहाँ ‘मंडल-कमंडल’ की राजनीति ने देश की दिशा बदल दी। पिछड़े वर्गों, दलितों और अल्पसंख्यकों के सशक्तिकरण के मुद्दे ने यहाँ की राजनीति को नया आयाम दिया। इसने न केवल राज्य के भीतर नेतृत्व को जन्म दिया, बल्कि राष्ट्रीय फलक पर भी कई नेताओं को स्थापित किया।
राष्ट्रीय राजनीति में बिहार का स्थान
लोकसभा में 40 सीटों के साथ, बिहार देश का चौथा सबसे बड़ा राज्य है जो लोकसभा में प्रतिनिधित्व करता है। इसका मतलब है कि केंद्र में सरकार बनाने में बिहार की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। अक्सर, बिहार के चुनावी रुझान राष्ट्रीय स्तर पर एक संदेश देते हैं या कम से कम राष्ट्रीय विमर्श को प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि देश के बड़े राजनीतिक दल बिहार में अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं।
गठबंधन की राजनीति का गढ़
बिहार में गठबंधन की राजनीति एक परंपरा रही है। दशकों से, यहाँ विभिन्न विचारधाराओं और सामाजिक समूहों को साधने के लिए राजनीतिक दलों ने गठबंधन बनाए और तोड़े हैं। यह चुनावी अंकगणित का खेल है, जहाँ दो या दो से अधिक दल मिलकर बहुमत हासिल करने का प्रयास करते हैं। ये गठबंधन अस्थिर भी हो सकते हैं और बेहद मजबूत भी, जैसा कि हमने अतीत में देखा है। यह गठबंधन की जटिलता ही है जो बिहार के चुनावों को और भी दिलचस्प बना देती है, जहाँ चुनाव पूर्व और चुनाव पश्चात दोनों तरह के गठजोड़ संभव होते हैं।
- उदाहरण: राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) बनाम महागठबंधन (Grand Alliance) – ये दो प्रमुख ध्रुव हैं जो बिहार की राजनीति को दशकों से परिभाषित कर रहे हैं।
मुद्दों की धार: मतदाताओं को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक
चुनाव में नेता कितने भी प्रभावशाली क्यों न हों, अंततः मतदाता उन मुद्दों पर ही मतदान करते हैं जो उनके दैनिक जीवन को सीधे प्रभावित करते हैं। बिहार में कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिनकी धार इतनी तेज है कि वे चुनावी हवा का रुख बदलने की क्षमता रखते हैं।
1. बेरोजगारी: युवाओं की सबसे बड़ी पीड़ा
बिहार भारत के उन राज्यों में से एक है जहाँ युवा आबादी का प्रतिशत काफी अधिक है, लेकिन रोजगार के अवसर सीमित हैं। यह एक ऐसा मुद्दा है जो सीधे तौर पर हर घर को प्रभावित करता है।
- पलायन: रोजगार की तलाश में लाखों युवा हर साल बिहार से बाहर पलायन करते हैं, जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और परिवारों में चिंता बढ़ती है।
- रोजगार सृजन: सरकार द्वारा किए गए प्रयासों के बावजूद, औद्योगिक विकास की धीमी गति और निवेश की कमी रोजगार सृजन में बड़ी बाधा है।
“बिहार का युवा वर्ग अब केवल आरक्षण या जातिगत पहचान तक सीमित नहीं है; वे ठोस रोजगार के अवसरों की तलाश में हैं, और जो दल इन आकांक्षाओं को पूरा करने का वादा करेगा, उसे उनका समर्थन मिलेगा।”
2. शिक्षा: गुणवत्ता और ढाँचागत चुनौतियाँ
राज्य में शिक्षा की स्थिति हमेशा से एक बड़ी चिंता का विषय रही है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक, गुणवत्ता, शिक्षकों की कमी, और आधारभूत संरचना का अभाव एक गंभीर चुनौती है।
- सरकारी स्कूलों की स्थिति, कॉलेज और विश्वविद्यालयों में शिक्षा का स्तर, और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग सुविधाओं का अभाव।
- शैक्षणिक सुधार और रोजगारोन्मुखी शिक्षा की आवश्यकता, ताकि युवाओं को आत्मनिर्भर बनाया जा सके।
3. स्वास्थ्य: ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाओं का अभाव
कोविड-19 महामारी ने राज्य की स्वास्थ्य प्रणाली की कमियों को उजागर किया है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की कमी, डॉक्टरों और नर्सों का अभाव, और आवश्यक दवाओं की अनुपलब्धता एक बड़ी समस्या है।
- सरकारी अस्पतालों की बदहाली और निजी स्वास्थ्य सेवाओं की बढ़ती लागत।
- महामारी के बाद स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश और सुधार की मांग।
4. जातिगत जनगणना और आरक्षण: एक संवेदनशील राजनीतिक हथियार
बिहार ने हाल ही में जातिगत जनगणना कराई है, जिसके नतीजों ने आरक्षण और सामाजिक न्याय की बहस को फिर से तेज कर दिया है। यह मुद्दा न केवल सामाजिक रूप से संवेदनशील है, बल्कि राजनीतिक रूप से भी बेहद शक्तिशाली है।
- विभिन्न राजनीतिक दल इस मुद्दे पर अपने-अपने दांव चल रहे हैं, कोई इसके समर्थन में है तो कोई इसके विरोध में, और दोनों ही ध्रुव अपने पक्ष में तर्क दे रहे हैं।
- यह मुद्दा पारंपरिक वोट बैंक को मजबूत करने और नए समीकरण बनाने की क्षमता रखता है।
5. कानून व्यवस्था: शासन पर सीधा प्रभाव
बिहार में ‘जंगल राज’ का नैरेटिव हमेशा से एक राजनीतिक हथियार रहा है। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में स्थिति में सुधार देखा गया है, लेकिन अपराध दर, खासकर छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में, अभी भी एक चिंता का विषय है। सरकार की प्रशासनिक क्षमता और कानून व्यवस्था बनाए रखने की प्रतिबद्धता पर सवाल उठते रहते हैं, और यह मतदाताओं के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है।
6. आधारभूत संरचना (सड़क, बिजली, पानी): विकास की कसौटी
हालांकि बिहार ने पिछले कुछ वर्षों में सड़क निर्माण, बिजली आपूर्ति और पेयजल उपलब्धता में महत्वपूर्ण प्रगति की है, लेकिन अभी भी कई क्षेत्र हैं जहाँ सुधार की आवश्यकता है। ग्रामीण सड़कों की गुणवत्ता, बिजली की निर्बाध आपूर्ति और हर घर तक स्वच्छ पानी पहुंचाना अभी भी एक बड़ा चुनावी वादा है।
7. कृषि और ग्रामीण विकास: अन्नदाताओं की पीड़ा
बिहार एक कृषि प्रधान राज्य है, जहाँ बड़ी आबादी कृषि पर निर्भर है। किसानों की आय, सिंचाई सुविधाओं की कमी, बाढ़ की समस्या और फसल खरीद प्रणाली की अक्षमता जैसे मुद्दे किसानों को सीधे प्रभावित करते हैं।
- सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं हर साल किसानों को नुकसान पहुँचाती हैं, जिससे उनकी स्थिति और भी दयनीय हो जाती है।
- कृषि आधारित उद्योगों का विकास और किसानों के लिए बेहतर समर्थन मूल्य एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा है।
8. शराबबंदी: सामाजिक बनाम आर्थिक बहस
बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू है, जिसके सामाजिक लाभ और आर्थिक नुकसान दोनों पर बहस जारी है।
- सामाजिक प्रभाव: कुछ लोग इसे महिलाओं के लिए वरदान मानते हैं, क्योंकि इसने पारिवारिक कलह और घरेलू हिंसा को कम किया है।
- आर्थिक प्रभाव: दूसरी ओर, अवैध शराब का कारोबार, राजस्व का नुकसान और पर्यटन पर नकारात्मक प्रभाव भी देखा गया है।
यह एक ऐसा मुद्दा है जो महिलाओं और पुरुषों दोनों को अलग-अलग तरीकों से प्रभावित करता है और चुनावी बहस में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
नेताओं का तेज: चुनावी रणनीति और नेतृत्व कौशल
मुद्दों की धार को सही ढंग से पेश करना और मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाना नेताओं के ‘तेज’ या उनकी राजनीतिक चतुराई पर निर्भर करता है। बिहार में कुछ प्रमुख चेहरे हैं जिनका कौशल इस चुनाव में निर्णायक साबित होगा।
1. मुख्यमंत्री का चेहरा: अनुभव बनाम बदलाव
वर्तमान मुख्यमंत्री का चेहरा हमेशा केंद्र में रहता है। उनकी छवि, पिछले कार्यकाल की उपलब्धियाँ, और भविष्य की योजनाओं का प्रस्तुतिकरण बेहद महत्वपूर्ण होता है।
- अनुभव: वर्षों के प्रशासनिक अनुभव और राज्य की नब्ज समझने की क्षमता।
- चुनौतियाँ: एंटी-इनकंबेंसी, गठबंधन के भीतर संतुलन बनाए रखना, और नए मुद्दों पर प्रतिक्रिया देना।
मतदाताओं के मन में यह सवाल होता है कि क्या वे वर्तमान नेतृत्व से संतुष्ट हैं या बदलाव चाहते हैं।
2. प्रमुख विपक्षी नेता: आक्रमण और वैकल्पिक दृष्टिकोण
विपक्षी नेता का काम सरकार की कमियों को उजागर करना, जनता की समस्याओं को उठाना, और एक विश्वसनीय विकल्प प्रस्तुत करना होता है।
- युवा जोश: नए चेहरे अक्सर युवाओं और बदलाव चाहने वालों को आकर्षित करते हैं।
- मुद्दों का चुनाव: सरकार को घेरने के लिए बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, और कानून व्यवस्था जैसे मुद्दों को प्रमुखता से उठाना।
- रणनीति: जनसभाएं, पदयात्राएं, और सोशल मीडिया पर आक्रामक प्रचार।
3. गठबंधन की रसायन विज्ञान: एकता और विश्वास
बिहार में गठबंधन की राजनीति की सफलता गठबंधन में शामिल दलों के बीच तालमेल और विश्वास पर निर्भर करती है।
- सीटों का बँटवारा: यह अक्सर गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है। सभी सहयोगी दलों को संतुष्ट करना और उनके जनाधार का सही आकलन करना।
- नेतृत्व स्वीकार्यता: गठबंधन के भीतर नेता की सर्वमान्यता और सामूहिक नेतृत्व का प्रदर्शन।
- एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम: मतदाताओं को एक स्पष्ट संदेश देने के लिए सभी सहयोगी दलों का एक साथ खड़ा होना।
“बिहार की राजनीति में गठबंधन केवल सीटों के योग से नहीं बनता, बल्कि यह राजनीतिक ‘केमिस्ट्री’ पर आधारित होता है – जहाँ अलग-अलग तत्व मिलकर एक स्थिर यौगिक बनाते हैं।”
4. युवा नेतृत्व का उदय: आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व
बिहार में युवा नेताओं की एक नई पीढ़ी उभर रही है, जो पारंपरिक जातिगत राजनीति से हटकर विकास और रोजगार के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर रही है। ये युवा नेता सोशल मीडिया का प्रभावी ढंग से उपयोग करते हैं और युवा मतदाताओं को सीधे अपनी ओर खींचते हैं।
5. सामाजिक समीकरण साधने की कला: सूक्ष्म प्रबंधन
बिहार में जाति, धर्म और वर्ग के आधार पर वोट बैंक का सूक्ष्म प्रबंधन नेताओं की एक महत्वपूर्ण कला है। यह केवल बड़े जातीय समूहों को साधने तक सीमित नहीं है, बल्कि उप-जातियों, अति-पिछड़ों और अति-दलितों तक पहुँच बनाना भी इसमें शामिल है।
- प्रत्याशी चयन में जातिगत संतुलन।
- सार्वजनिक रैलियों में विभिन्न समुदायों के नेताओं को मंच पर लाना।
- सरकारी योजनाओं का लक्षित समुदायों तक पहुँचाना।
6. प्रचार शैली और सोशल मीडिया: नैरेटिव पर नियंत्रण
आधुनिक चुनाव में प्रचार शैली और सोशल मीडिया का महत्व बढ़ता जा रहा है।
- पारंपरिक रैलियाँ: अभी भी महत्वपूर्ण हैं, जहाँ नेता सीधे जनता से जुड़ते हैं।
- डिजिटल अभियान: फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप ग्रुप के माध्यम से संदेश फैलाना।
- फेक न्यूज़ और दुष्प्रचार: चुनावी माहौल में फेक न्यूज़ का मुकाबला करना और अपना नैरेटिव स्थापित करना एक बड़ी चुनौती है।
चुनावी समीकरण और भविष्य की राह
बिहार का चुनावी रणभूमि कई जटिल समीकरणों से भरा है, जहाँ हर कारक परिणाम को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।
1. मतदान पैटर्न: जाति, धर्म और क्षेत्र का प्रभाव
बिहार में मतदान पैटर्न को समझना अत्यंत जटिल है। यहाँ मतदाता कई कारकों से प्रभावित होते हैं:
- जाति: यह सबसे प्रमुख कारक है। पारंपरिक रूप से, कुछ जातियाँ कुछ दलों या नेताओं के साथ जुड़ी हुई हैं।
- धर्म: मुस्लिम मतदाता और हिंदू मतदाता विभिन्न दलों के साथ अपने हितों के आधार पर जुड़ते हैं।
- क्षेत्रीय मुद्दे: सीमांचल, मगध, मिथिलांचल जैसे क्षेत्रों के अपने विशिष्ट मुद्दे होते हैं जो मतदान को प्रभावित करते हैं।
- विकास कार्य: हाल के वर्षों में विकास एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में उभरा है, खासकर शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में।
2. महिला मतदाताओं की भूमिका: साइलेंट वोटर्स
बिहार में महिला मतदाता हमेशा से निर्णायक भूमिका निभाती रही हैं। शराबबंदी, स्वयं सहायता समूहों को प्रोत्साहन, और साइकिल योजना जैसी सरकारी योजनाओं ने महिलाओं को सशक्त किया है, और अक्सर वे ‘साइलेंट वोटर’ के रूप में उभरती हैं, जिनके रुझान को चुनाव से पहले समझना मुश्किल होता है। राजनीतिक दल अब महिला सशक्तिकरण और सुरक्षा को अपने एजेंडे में प्रमुखता से शामिल कर रहे हैं।
3. युवा मतदाताओं की आकांक्षाएँ: परिवर्तन की लहर
बिहार में एक बड़ी संख्या में युवा मतदाता हैं जो पहली बार मतदान करेंगे। उनकी प्राथमिकताएँ पारंपरिक जातिगत समीकरणों से अलग हो सकती हैं। वे रोजगार, शिक्षा, तकनीकी विकास और एक बेहतर भविष्य की आकांक्षा रखते हैं। जो दल इन आकांक्षाओं को संबोधित करेगा, उसे युवाओं का समर्थन मिल सकता है।
4. छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रभाव: ‘किंगमेकर’ की भूमिका
कई बार छोटे क्षेत्रीय दल या प्रभावशाली निर्दलीय उम्मीदवार बड़े दलों के लिए ‘किंगमेकर’ की भूमिका निभाते हैं। ये दल कुछ क्षेत्रों में निर्णायक वोट काट सकते हैं या बाद में गठबंधन में शामिल होकर सरकार गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
5. बाहरी कारकों का प्रभाव: राष्ट्रीय मुद्दे और पड़ोसी राज्यों का असर
राष्ट्रीय राजनीति में चल रहे बड़े मुद्दे (जैसे महंगाई, किसान आंदोलन, केंद्र सरकार की नीतियां) भी बिहार के मतदाताओं को प्रभावित कर सकते हैं। इसके अलावा, पड़ोसी राज्यों (जैसे उत्तर प्रदेश, झारखंड) में राजनीतिक घटनाक्रम का भी बिहार पर कुछ हद तक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है।
6. चुनौतियाँ: धनबल, बाहुबल और फेक न्यूज़
किसी भी चुनाव की तरह, बिहार चुनाव में भी धनबल (पैसे का दुरुपयोग), बाहुबल (अपराधियों का प्रभाव), और फेक न्यूज़ (झूठी खबरें फैलाना) जैसी चुनौतियाँ मौजूद हैं। चुनाव आयोग और प्रशासन के लिए निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराना एक बड़ी चुनौती होती है। सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग से फेक न्यूज़ का प्रसार आसान हो गया है, जिससे मतदाताओं को गुमराह किया जा सकता है।
आगे की राह: बिहार के लिए स्थिर सरकार का महत्व
बिहार जैसे राज्य के लिए एक स्थिर और जनोन्मुखी सरकार का होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। सरकार को इन चुनौतियों का सामना करते हुए समावेशी विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा:
- स्थिरता: बार-बार गठबंधन बदलने या राजनीतिक अस्थिरता से विकास प्रभावित होता है।
- शासन: सुशासन, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन, और जवाबदेही पर जोर देना।
- समावेशी विकास: सभी वर्गों, क्षेत्रों और समुदायों को साथ लेकर चलने वाला विकास मॉडल अपनाना।
- निवेश: राज्य में औद्योगिक निवेश को आकर्षित करना और रोजगार के अवसर पैदा करना।
- सामाजिक सौहार्द्र: जाति और धर्म के आधार पर विभाजनकारी राजनीति से ऊपर उठकर सामाजिक समरसता को बढ़ावा देना।
निष्कर्ष
बिहार चुनाव सिर्फ एक राज्य के विधानसभा या लोकसभा सीटों के लिए होने वाली लड़ाई नहीं है, बल्कि यह बिहार की आत्मा, उसके संघर्षों और उसकी संभावनाओं का प्रतिबिंब है। यह उन नेताओं की कसौटी है जो राज्य की जनता का नेतृत्व करने का दावा करते हैं, और यह उन मुद्दों की धार का प्रमाण है जो लाखों लोगों के जीवन को सीधे प्रभावित करते हैं। कुरुक्षेत्र में जिस प्रकार धर्म की स्थापना के लिए युद्ध लड़ा गया था, उसी प्रकार बिहार की यह सियासी लड़ाई सुशासन, विकास और सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए लड़ी जा रही है। मतदाता अंततः अपने विवेक का उपयोग करेंगे और तय करेंगे कि मुद्दों की धार और नेताओं के तेज की इस कसौटी पर कौन खरा उतरता है। यह चुनाव न केवल बिहार के भविष्य को आकार देगा, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और परिपक्वता का भी एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करेगा।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
(यहाँ 10 MCQs, उनके उत्तर और व्याख्या प्रदान करें)
1. बिहार में राजनीतिक दलों द्वारा जातिगत जनगणना के मुद्दे पर व्यापक चर्चा के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- भारत में जनगणना प्रत्येक 10 वर्ष पर होती है और इसका संचालन केंद्रीय गृह मंत्रालय करता है।
- जातिगत जनगणना का विचार पहली बार 1931 की जनगणना में शामिल किया गया था।
- भारत के संविधान में जातिगत जनगणना का स्पष्ट उल्लेख है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 1 और 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (a)
व्याख्या:
कथन 1 सही है। भारत में जनगणना प्रत्येक 10 वर्ष पर होती है और इसका संचालन रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त, गृह मंत्रालय के तहत किया जाता है।
कथन 2 गलत है। भारत में अंतिम जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी। उसके बाद, प्रत्येक जनगणना में अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) का डेटा एकत्र किया जाता है, लेकिन अन्य जातियों का नहीं।
कथन 3 गलत है। भारत के संविधान में जातिगत जनगणना का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। जनगणना अधिनियम, 1948 जनगणना के संचालन के लिए कानूनी ढाँचा प्रदान करता है।
2. भारतीय संविधान के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन-सा अनुच्छेद राज्य विधानमंडलों के चुनाव से संबंधित है?
(a) अनुच्छेद 324
(b) अनुच्छेद 325
(c) अनुच्छेद 326
(d) ये सभी
उत्तर: (d)
व्याख्या:
अनुच्छेद 324: चुनावों के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण के लिए एक चुनाव आयोग की स्थापना करता है।
अनुच्छेद 325: धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी व्यक्ति को चुनावी रोल में शामिल न करने का प्रावधान करता है।
अनुच्छेद 326: लोकसभा और प्रत्येक राज्य की विधानसभा के चुनावों को वयस्क मताधिकार के आधार पर होने का प्रावधान करता है।
ये सभी अनुच्छेद राज्य विधानमंडलों सहित चुनावों से संबंधित हैं।
3. ‘एंटी-इनकंबेंसी (Anti-Incumbency)’ शब्द का सबसे अच्छा वर्णन क्या है, जैसा कि अक्सर भारतीय चुनावों के संदर्भ में उपयोग किया जाता है?
(a) सरकार के खिलाफ जनता में असंतोष की भावना जिसके कारण मौजूदा सरकार के खिलाफ मतदान होता है।
(b) सत्तारूढ़ दल के प्रति मजबूत समर्थन की भावना।
(c) किसी निर्वाचन क्षेत्र में नए उम्मीदवारों की जीत की प्रवृत्ति।
(d) चुनाव आयोग द्वारा चुनाव में धांधली को रोकने के उपाय।
उत्तर: (a)
व्याख्या: ‘एंटी-इनकंबेंसी’ उस भावना या प्रवृत्ति को संदर्भित करती है जहाँ मतदाता वर्तमान सरकार या मौजूदा जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मतदान करते हैं, आमतौर पर उनके प्रदर्शन या कुछ मुद्दों पर असंतोष के कारण।
4. बिहार जैसे कृषि प्रधान राज्य में, किसानों की आय बढ़ाने के लिए निम्नलिखित में से कौन-सी पहल सबसे प्रभावी हो सकती है?
- सिंचाई सुविधाओं का आधुनिकीकरण और विस्तार।
- कृषि-आधारित उद्योगों को बढ़ावा देना।
- न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर प्रभावी खरीद प्रणाली सुनिश्चित करना।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 1 और 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (d)
व्याख्या: किसानों की आय बढ़ाने के लिए ये सभी उपाय महत्वपूर्ण हैं। सिंचाई सुविधाओं में सुधार से उपज बढ़ेगी, कृषि-आधारित उद्योगों से उत्पादों का मूल्यवर्धन होगा और रोजगार सृजित होंगे, और MSP पर प्रभावी खरीद से किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिलेगा, जिससे उनकी आय में वृद्धि होगी।
5. भारत में ‘महिला मतदाता’ के बढ़ते प्रभाव के संदर्भ में, ‘साइलेंट वोटर’ शब्द क्या दर्शाता है?
(a) वे महिलाएँ जो चुनाव में भाग नहीं लेतीं।
(b) वे महिलाएँ जो अपना मत सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं करतीं लेकिन चुनाव परिणामों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती हैं।
(c) वे महिलाएँ जो केवल महिला उम्मीदवारों को वोट देती हैं।
(d) वे महिलाएँ जो ऑनलाइन मतदान पसंद करती हैं।
उत्तर: (b)
व्याख्या: ‘साइलेंट वोटर’ उन मतदाताओं को संदर्भित करता है जो चुनाव से पहले अपने राजनीतिक झुकाव या मतदान के इरादे को सार्वजनिक रूप से व्यक्त नहीं करते हैं, जिससे चुनाव सर्वेक्षणों में उनके प्रभाव का आकलन करना मुश्किल हो जाता है। हालाँकि, वे बड़ी संख्या में मतदान करते हैं और अक्सर चुनाव परिणामों को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जैसा कि बिहार में महिलाओं के मामले में देखा गया है।
6. भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत, ‘जनगणना’ किस सूची का विषय है?
(a) संघ सूची
(b) राज्य सूची
(c) समवर्ती सूची
(d) अवशिष्ट विषय
उत्तर: (a)
व्याख्या: भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की संघ सूची की प्रविष्टि 69 ‘जनगणना’ से संबंधित है, जिसका अर्थ है कि जनगणना संघ सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती है।
7. ‘मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट (MCC)’ के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- यह भारत के संविधान में निहित एक वैधानिक प्रावधान है।
- यह चुनावों की घोषणा के साथ लागू होता है और चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक प्रभावी रहता है।
- इसका मुख्य उद्देश्य निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव सुनिश्चित करना है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (b)
व्याख्या:
कथन 1 गलत है। मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट भारत के संविधान में निहित एक वैधानिक प्रावधान नहीं है। यह चुनाव आयोग द्वारा विकसित सिद्धांतों का एक समूह है, जिसे राजनीतिक दलों की सहमति से लागू किया जाता है।
कथन 2 सही है। यह चुनावों की घोषणा के साथ लागू होता है और चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक प्रभावी रहता है।
कथन 3 सही है। इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा ऐसे आचरण को विनियमित करना है जिससे निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव सुनिश्चित हो सकें।
8. पलायन (Migration) के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन-सा ‘पुश फैक्टर’ का उदाहरण है जो लोगों को बिहार से अन्य राज्यों में पलायन करने के लिए प्रेरित करता है?
- राज्य में रोजगार के अवसरों की कमी।
- बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की तलाश।
- उच्च वेतन और बेहतर जीवन स्तर की उम्मीद।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 1 और 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (b)
व्याख्या: ‘पुश फैक्टर’ वे कारक होते हैं जो लोगों को किसी स्थान को छोड़ने के लिए मजबूर करते हैं। कथन 1 (रोजगार अवसरों की कमी) और 2 (बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की तलाश) दोनों बिहार से पलायन के लिए ‘पुश फैक्टर’ हैं क्योंकि ये राज्य के भीतर की कमियों को दर्शाते हैं। कथन 3 (उच्च वेतन और बेहतर जीवन स्तर की उम्मीद) एक ‘पुल फैक्टर’ है, जो लोगों को किसी नए स्थान की ओर आकर्षित करता है, न कि उन्हें अपना मूल स्थान छोड़ने के लिए मजबूर करता है।
9. भारत में वयस्क मताधिकार के बारे में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- भारत में मतदान की न्यूनतम आयु मूल रूप से 21 वर्ष थी।
- 61वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1988 द्वारा मतदान की आयु 18 वर्ष की गई।
- यह एक संवैधानिक अधिकार है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (d)
व्याख्या:
कथन 1 सही है। मूल रूप से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत मतदान की न्यूनतम आयु 21 वर्ष निर्धारित की गई थी।
कथन 2 सही है। 61वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1988 ने मतदान की आयु को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दिया।
कथन 3 सही है। वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise) भारत के संविधान के अनुच्छेद 326 द्वारा गारंटीकृत एक संवैधानिक अधिकार है।
10. ‘मंडल आयोग’ के गठन का मुख्य उद्देश्य क्या था, जिसका बिहार की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा?
(a) भाषाई राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश करना।
(b) भारत में शिक्षा प्रणाली में सुधारों का सुझाव देना।
(c) सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करना और उनके उत्थान के लिए सिफारिशें देना।
(d) केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा करना।
उत्तर: (c)
व्याख्या: मंडल आयोग (द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग) का गठन 1979 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई द्वारा किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (SEBCs) की पहचान करना और उनकी स्थिति में सुधार के लिए सिफारिशें करना था, विशेष रूप से सरकारी नौकरियों में आरक्षण के संबंध में। इसकी सिफारिशों को 1990 में लागू किया गया, जिससे भारत की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया और इसने बिहार की राजनीति को विशेष रूप से प्रभावित किया, जहाँ ‘सामाजिक न्याय’ का मुद्दा प्रमुखता से उभरा।
मुख्य परीक्षा (Mains)
(यहाँ 3-4 मेन्स के प्रश्न प्रदान करें)
1. बिहार में चुनावों को ‘जातिगत राजनीति का प्रयोगशाला’ क्यों कहा जाता है? राज्य के विकास और शासन पर जातिगत समीकरणों के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। (250 शब्द)
2. बिहार में बेरोजगारी और पलायन एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। बिहार चुनाव के संदर्भ में, राज्य की अर्थव्यवस्था में इन समस्याओं के मूल कारणों का विश्लेषण करें और संभावित नीतिगत समाधानों पर चर्चा करें जो युवाओं को राज्य में वापस लाने और रोजगार सृजन को बढ़ावा दे सकते हैं। (250 शब्द)
3. बिहार में शराबबंदी के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण कीजिए। क्या आपको लगता है कि यह एक सफल नीति रही है, या इसके अनपेक्षित परिणाम हुए हैं? चुनावी राजनीति में इस मुद्दे की प्रासंगिकता पर भी प्रकाश डालें। (250 शब्द)
4. महिला मतदाताओं को अक्सर ‘साइलेंट वोटर’ कहा जाता है, लेकिन वे चुनावी परिणामों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती हैं। बिहार के संदर्भ में, महिला मतदाताओं के मतदान पैटर्न को प्रभावित करने वाले कारकों का विश्लेषण करें और बताएं कि राजनीतिक दल उनकी भागीदारी को कैसे भुनाते हैं। (250 शब्द)
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[–SEO_TITLE–]बिहार चुनाव: नेताओं के तेज और मुद्दों की धार – सियासी बिसात पर कौन मारेगा बाज़ी?
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बिहार चुनाव: नेताओं के तेज और मुद्दों की धार – सियासी बिसात पर कौन मारेगा बाज़ी?
चर्चा में क्यों? (Why in News?):
भारत की राजनीतिक धुरी पर बिहार का स्थान सदैव से महत्वपूर्ण रहा है। जब भी बिहार में चुनाव का बिगुल बजता है, यह केवल एक राज्य के भविष्य का निर्धारण नहीं करता, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की दिशा और दशा पर भी गहरा प्रभाव डालता है। इस बार का बिहार चुनाव भी कोई अपवाद नहीं है; बल्कि यह मुद्दों की धार और नेताओं के तेज की एक अभूतपूर्व कसौटी बनने जा रहा है। जिस प्रकार महाभारत के ‘कुरुक्षेत्र’ में धर्म और अधर्म के बीच निर्णायक युद्ध लड़ा गया था, उसी प्रकार बिहार की चुनावी रणभूमि में भी विभिन्न राजनीतिक दल और उनके नेता अपने-अपने दावों, वादों और रणनीतियों के साथ आमने-सामने हैं। यह चुनाव महज सत्ता परिवर्तन से कहीं अधिक है; यह बिहार के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने, उसकी आशाओं, आकांक्षाओं और चुनौतियों का सीधा प्रतिबिंब होगा। इस व्यापक विश्लेषण में, हम बिहार चुनाव के सारे समीकरणों को गहराई से समझेंगे, उन प्रमुख मुद्दों को उजागर करेंगे जो मतदाताओं को प्रभावित करेंगे, और उन नेताओं के कौशल का आकलन करेंगे जो इस सियासी बिसात पर अपनी चालें चल रहे हैं।
बिहार की राजनीतिक पृष्ठभूमि और उसका राष्ट्रीय महत्व
बिहार, भारतीय राजनीति का वह हृदय स्थल है जिसने सदैव से देश की दशा और दिशा को प्रभावित किया है। इसकी राजनीतिक विरासत अत्यंत समृद्ध और जटिल है, जहाँ विभिन्न विचारधाराओं और सामाजिक आंदोलनों ने जन्म लिया है।
ऐतिहासिक संदर्भ: जातिगत राजनीति और सामाजिक न्याय
बिहार की राजनीति को समझे बिना, भारत की सामाजिक न्याय की अवधारणा अधूरी है। मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद से ही, बिहार जातिगत राजनीति का केंद्र रहा है। यहाँ जाति केवल एक सामाजिक पहचान नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली राजनीतिक उपकरण है। विभिन्न जातियों के समीकरण, उप-जातियों के विभाजन और उनके राजनीतिक जुड़ाव ने चुनाव परिणामों को हमेशा प्रभावित किया है। यह वह भूमि है जहाँ ‘मंडल-कमंडल’ की राजनीति ने देश की दिशा बदल दी और पिछड़े वर्गों के सशक्तिकरण को मुख्यधारा में लाया।
“बिहार की राजनीति को ‘जाति का प्रयोगशाला’ कहा जाता है, जहाँ सामाजिक न्याय और पहचान की राजनीति गहराई से जड़ें जमा चुकी है।”
दशकों से, राजनीतिक दल जातिगत पहचानों को साधते हुए अपनी रणनीति बुनते रहे हैं। मुख्यमंत्री से लेकर स्थानीय नेताओं तक, सभी अपनी जातिगत पृष्ठभूमि और उसके आधार पर गठित वोट बैंक का लाभ उठाने का प्रयास करते हैं। यह प्रवृत्ति राज्य के सामाजिक ताने-बाने को भी प्रभावित करती है, जहाँ राजनीतिक गोलबंदी अक्सर जातिगत रेखाओं पर होती है। हालांकि, बदलते समय के साथ, विकास और सुशासन जैसे मुद्दे भी अब मतदाताओं के मन में अपनी जगह बना रहे हैं, जिससे जातिगत समीकरणों में भी सूक्ष्म बदलाव देखने को मिल रहे हैं।
राष्ट्रीय राजनीति में बिहार का स्थान
लोकसभा में 40 सीटों के साथ, बिहार देश का चौथा सबसे बड़ा राज्य है जो लोकसभा में प्रतिनिधित्व करता है। इसका मतलब है कि केंद्र में सरकार बनाने में बिहार की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। अक्सर, बिहार के चुनावी रुझान राष्ट्रीय स्तर पर एक संदेश देते हैं या कम से कम राष्ट्रीय विमर्श को प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि देश के बड़े राजनीतिक दल बिहार में अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं।
उदाहरण के लिए, 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में बिहार के नतीजों ने केंद्र की सत्ता के समीकरणों को सीधे तौर पर प्रभावित किया। यह राज्य न केवल वोटों का गढ़ है, बल्कि यह देश के संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक विविधता का भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक है। बिहार के नेताओं की राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान है और वे अक्सर राष्ट्रीय बहसों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
गठबंधन की राजनीति का गढ़
बिहार में गठबंधन की राजनीति एक परंपरा रही है। दशकों से, यहाँ विभिन्न विचारधाराओं और सामाजिक समूहों को साधने के लिए राजनीतिक दलों ने गठबंधन बनाए और तोड़े हैं। यह चुनावी अंकगणित का खेल है, जहाँ दो या दो से अधिक दल मिलकर बहुमत हासिल करने का प्रयास करते हैं। ये गठबंधन अस्थिर भी हो सकते हैं और बेहद मजबूत भी, जैसा कि हमने अतीत में देखा है। यह गठबंधन की जटिलता ही है जो बिहार के चुनावों को और भी दिलचस्प बना देती है, जहाँ चुनाव पूर्व और चुनाव पश्चात दोनों तरह के गठजोड़ संभव होते हैं।
- उदाहरण: राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) बनाम महागठबंधन (Grand Alliance) – ये दो प्रमुख ध्रुव हैं जो बिहार की राजनीति को दशकों से परिभाषित कर रहे हैं। इन गठबंधनों में लगातार बदलाव होते रहे हैं, जिससे मतदाताओं के लिए भी यह समझना चुनौतीपूर्ण हो जाता है कि कौन सा दल किस पक्ष में है। एक सफल गठबंधन केवल सीटों के बंटवारे से नहीं बनता, बल्कि इसमें विचारधाराओं का संगम, साझा न्यूनतम कार्यक्रम, और घटक दलों के बीच आपसी विश्वास भी महत्वपूर्ण होता है।
- स्थिरता का प्रश्न: बिहार में बार-बार बदलते गठबंधन राज्य में राजनीतिक स्थिरता पर भी प्रश्नचिह्न लगाते रहे हैं, जिसका सीधा असर विकास परियोजनाओं और शासन पर पड़ता है।
मुद्दों की धार: मतदाताओं को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक
चुनाव में नेता कितने भी प्रभावशाली क्यों न हों, अंततः मतदाता उन मुद्दों पर ही मतदान करते हैं जो उनके दैनिक जीवन को सीधे प्रभावित करते हैं। बिहार में कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिनकी धार इतनी तेज है कि वे चुनावी हवा का रुख बदलने की क्षमता रखते हैं।
1. बेरोजगारी: युवाओं की सबसे बड़ी पीड़ा
बिहार भारत के उन राज्यों में से एक है जहाँ युवा आबादी का प्रतिशत काफी अधिक है, लेकिन रोजगार के अवसर सीमित हैं। यह एक ऐसा मुद्दा है जो सीधे तौर पर हर घर को प्रभावित करता है।
- पलायन: रोजगार की तलाश में लाखों युवा हर साल बिहार से बाहर पलायन करते हैं, जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और परिवारों में चिंता बढ़ती है। यह पलायन केवल आर्थिक मजबूरी नहीं, बल्कि सामाजिक अलगाव और भावनात्मक टूटन का भी कारण बनता है।
- रोजगार सृजन: सरकार द्वारा किए गए प्रयासों के बावजूद, औद्योगिक विकास की धीमी गति और निवेश की कमी रोजगार सृजन में बड़ी बाधा है। राज्य में कृषि आधारित उद्योगों, IT क्षेत्र और सेवा क्षेत्र में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो पाई है, जिससे कुशल और अकुशल दोनों तरह के श्रमिकों के लिए अवसरों की कमी है।
“बिहार का युवा वर्ग अब केवल आरक्षण या जातिगत पहचान तक सीमित नहीं है; वे ठोस रोजगार के अवसरों की तलाश में हैं, और जो दल इन आकांक्षाओं को पूरा करने का वादा करेगा, उसे उनका समर्थन मिलेगा।”
यह मुद्दा चुनावी रैलियों और घोषणा पत्रों में प्रमुखता से उठाया जाता है, और युवा मतदाता इस पर अपनी पैनी नजर रखते हैं।
2. शिक्षा: गुणवत्ता और ढाँचागत चुनौतियाँ
राज्य में शिक्षा की स्थिति हमेशा से एक बड़ी चिंता का विषय रही है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक, गुणवत्ता, शिक्षकों की कमी, और आधारभूत संरचना का अभाव एक गंभीर चुनौती है।
- सरकारी स्कूलों की स्थिति: शिक्षकों की अनुपस्थिति, बुनियादी सुविधाओं की कमी (शौचालय, पेयजल, बिजली), और पाठ्यक्रम की अप्रसंगता सरकारी स्कूलों को आकर्षक नहीं बनाती।
- उच्च शिक्षा: कॉलेज और विश्वविद्यालयों में शिक्षा का स्तर, शोध और नवाचार की कमी, और शिक्षकों के रिक्त पद उच्च शिक्षा के भविष्य पर सवालिया निशान लगाते हैं।
- प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी: बेहतर कोचिंग और मार्गदर्शन के लिए छात्रों को बड़े शहरों का रुख करना पड़ता है, जिससे आर्थिक बोझ बढ़ता है।
शैक्षणिक सुधार और रोजगारोन्मुखी शिक्षा की आवश्यकता, ताकि युवाओं को आत्मनिर्भर बनाया जा सके, चुनावी वादों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
3. स्वास्थ्य: ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाओं का अभाव
कोविड-19 महामारी ने राज्य की स्वास्थ्य प्रणाली की कमियों को उजागर किया है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHCs) की कमी, डॉक्टरों और नर्सों का अभाव, और आवश्यक दवाओं की अनुपलब्धता एक बड़ी समस्या है।
- सरकारी अस्पतालों की बदहाली: अपर्याप्त उपकरण, गंदगी, और स्टाफ की कमी के कारण सरकारी अस्पताल अक्सर मरीजों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते।
- निजी स्वास्थ्य सेवाओं की बढ़ती लागत: गरीब और मध्यम वर्ग के लिए निजी अस्पतालों में इलाज करवाना महंगा होता जा रहा है।
- महामारी के बाद स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश और सुधार की मांग ने इस मुद्दे को और भी प्रासंगिक बना दिया है।
4. जातिगत जनगणना और आरक्षण: एक संवेदनशील राजनीतिक हथियार
बिहार ने हाल ही में जातिगत जनगणना कराई है, जिसके नतीजों ने आरक्षण और सामाजिक न्याय की बहस को फिर से तेज कर दिया है। यह मुद्दा न केवल सामाजिक रूप से संवेदनशील है, बल्कि राजनीतिक रूप से भी बेहद शक्तिशाली है।
- विभिन्न राजनीतिक दल इस मुद्दे पर अपने-अपने दांव चल रहे हैं, कोई इसके समर्थन में है तो कोई इसके विरोध में, और दोनों ही ध्रुव अपने पक्ष में तर्क दे रहे हैं। समर्थक इसे सामाजिक न्याय और समान प्रतिनिधित्व के लिए आवश्यक मानते हैं, जबकि विरोधी इसे समाज को बांटने वाला कदम बताते हैं।
- यह मुद्दा पारंपरिक वोट बैंक को मजबूत करने और नए समीकरण बनाने की क्षमता रखता है, खासकर अति-पिछड़ा और अति-दलित वर्गों के बीच।
5. कानून व्यवस्था: शासन पर सीधा प्रभाव
बिहार में ‘जंगल राज’ का नैरेटिव हमेशा से एक राजनीतिक हथियार रहा है। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में स्थिति में सुधार देखा गया है, लेकिन अपराध दर, खासकर छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में, अभी भी एक चिंता का विषय है। सरकार की प्रशासनिक क्षमता और कानून व्यवस्था बनाए रखने की प्रतिबद्धता पर सवाल उठते रहते हैं, और यह मतदाताओं के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है। बलात्कार, अपहरण, रंगदारी जैसे अपराधों पर लगाम लगाना और पुलिस-प्रशासन में सुधार लाना एक बड़ी चुनौती है।
6. आधारभूत संरचना (सड़क, बिजली, पानी): विकास की कसौटी
हालांकि बिहार ने पिछले कुछ वर्षों में सड़क निर्माण, बिजली आपूर्ति और पेयजल उपलब्धता में महत्वपूर्ण प्रगति की है, लेकिन अभी भी कई क्षेत्र हैं जहाँ सुधार की आवश्यकता है। ग्रामीण सड़कों की गुणवत्ता, बिजली की निर्बाध आपूर्ति और हर घर तक स्वच्छ पानी पहुंचाना अभी भी एक बड़ा चुनावी वादा है। शहरों में शहरीकरण की चुनौतियों जैसे जल निकासी, सीवरेज और सार्वजनिक परिवहन का अभाव भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं।
7. कृषि और ग्रामीण विकास: अन्नदाताओं की पीड़ा
बिहार एक कृषि प्रधान राज्य है, जहाँ बड़ी आबादी कृषि पर निर्भर है। किसानों की आय, सिंचाई सुविधाओं की कमी, बाढ़ की समस्या और फसल खरीद प्रणाली की अक्षमता जैसे मुद्दे किसानों को सीधे प्रभावित करते हैं।
- सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं हर साल किसानों को नुकसान पहुँचाती हैं, जिससे उनकी स्थिति और भी दयनीय हो जाती है। कोसी, गंडक जैसी नदियाँ जहाँ जीवनदायिनी हैं, वहीं बाढ़ के दौरान भयंकर तबाही भी लाती हैं।
- कृषि आधारित उद्योगों का विकास और किसानों के लिए बेहतर समर्थन मूल्य (MSP) एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा है। साथ ही, कृषि ऋण, बीज और उर्वरकों की उपलब्धता भी किसानों के लिए मायने रखती है।
8. शराबबंदी: सामाजिक बनाम आर्थिक बहस
बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू है, जिसके सामाजिक लाभ और आर्थिक नुकसान दोनों पर बहस जारी है।
- सामाजिक प्रभाव: कुछ लोग इसे महिलाओं के लिए वरदान मानते हैं, क्योंकि इसने पारिवारिक कलह और घरेलू हिंसा को कम किया है। महिलाओं के बीच इस नीति का काफी समर्थन देखा गया है।
- आर्थिक प्रभाव: दूसरी ओर, अवैध शराब का कारोबार, राजस्व का नुकसान और पर्यटन पर नकारात्मक प्रभाव भी देखा गया है। अवैध शराब के कारण जहरीली शराब से मौतें भी एक गंभीर मुद्दा बनी हुई हैं।
यह एक ऐसा मुद्दा है जो महिलाओं और पुरुषों दोनों को अलग-अलग तरीकों से प्रभावित करता है और चुनावी बहस में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
नेताओं का तेज: चुनावी रणनीति और नेतृत्व कौशल
मुद्दों की धार को सही ढंग से पेश करना और मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाना नेताओं के ‘तेज’ या उनकी राजनीतिक चतुराई पर निर्भर करता है। बिहार में कुछ प्रमुख चेहरे हैं जिनका कौशल इस चुनाव में निर्णायक साबित होगा।
1. मुख्यमंत्री का चेहरा: अनुभव बनाम बदलाव
वर्तमान मुख्यमंत्री का चेहरा हमेशा केंद्र में रहता है। उनकी छवि, पिछले कार्यकाल की उपलब्धियाँ, और भविष्य की योजनाओं का प्रस्तुतिकरण बेहद महत्वपूर्ण होता है।
- अनुभव: वर्षों के प्रशासनिक अनुभव और राज्य की नब्ज समझने की क्षमता उन्हें एक स्थिर और अनुभवी नेता के रूप में प्रस्तुत करती है। उनकी ‘सुशासन बाबू’ की छवि एक समय उनकी सबसे बड़ी ताकत थी।
- चुनौतियाँ: सत्ता विरोधी लहर (एंटी-इनकंबेंसी), गठबंधन के भीतर संतुलन बनाए रखना, और नए मुद्दों पर प्रतिक्रिया देना, खासकर युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करना, उनके लिए बड़ी चुनौतियाँ हैं। जनता उनसे पिछले कार्यकाल के अधूरे वादों और वर्तमान समस्याओं का जवाब भी चाहती है।
मतदाताओं के मन में यह सवाल होता है कि क्या वे वर्तमान नेतृत्व से संतुष्ट हैं या बदलाव चाहते हैं।
2. प्रमुख विपक्षी नेता: आक्रमण और वैकल्पिक दृष्टिकोण
विपक्षी नेता का काम सरकार की कमियों को उजागर करना, जनता की समस्याओं को उठाना, और एक विश्वसनीय विकल्प प्रस्तुत करना होता है।
- युवा जोश: नए चेहरे अक्सर युवाओं और बदलाव चाहने वालों को आकर्षित करते हैं। वे पुरानी पीढ़ी की राजनीति से हटकर एक नई ऊर्जा और दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- मुद्दों का चुनाव: सरकार को घेरने के लिए बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, और कानून व्यवस्था जैसे मुद्दों को प्रमुखता से उठाना। विपक्षी नेता इन मुद्दों पर सरकार को लगातार कटघरे में खड़ा करने का प्रयास करते हैं।
- रणनीति: जनसभाएं, पदयात्राएं, और सोशल मीडिया पर आक्रामक प्रचार के माध्यम से जनसंपर्क स्थापित करना और अपनी बात सीधे जनता तक पहुंचाना।
3. गठबंधन की रसायन विज्ञान: एकता और विश्वास
बिहार में गठबंधन की राजनीति की सफलता गठबंधन में शामिल दलों के बीच तालमेल और विश्वास पर निर्भर करती है।
- सीटों का बँटवारा: यह अक्सर गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है। सभी सहयोगी दलों को संतुष्ट करना और उनके जनाधार का सही आकलन करना, ताकि कोई भी महत्वपूर्ण सहयोगी नाराज़ होकर बाहर न चला जाए।
- नेतृत्व स्वीकार्यता: गठबंधन के भीतर नेता की सर्वमान्यता और सामूहिक नेतृत्व का प्रदर्शन। यदि गठबंधन में आंतरिक कलह या नेतृत्व पर असहमति दिखती है, तो इसका नकारात्मक संदेश जाता है।
- एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम: मतदाताओं को एक स्पष्ट संदेश देने के लिए सभी सहयोगी दलों का एक साथ खड़ा होना और विकास व सामाजिक न्याय के साझा एजेंडे पर सहमत होना आवश्यक है।
“बिहार की राजनीति में गठबंधन केवल सीटों के योग से नहीं बनता, बल्कि यह राजनीतिक ‘केमिस्ट्री’ पर आधारित होता है – जहाँ अलग-अलग तत्व मिलकर एक स्थिर यौगिक बनाते हैं।”
4. युवा नेतृत्व का उदय: आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व
बिहार में युवा नेताओं की एक नई पीढ़ी उभर रही है, जो पारंपरिक जातिगत राजनीति से हटकर विकास और रोजगार के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर रही है। ये युवा नेता सोशल मीडिया का प्रभावी ढंग से उपयोग करते हैं और युवा मतदाताओं को सीधे अपनी ओर खींचते हैं। वे अक्सर अपनी पढ़ाई-लिखाई और पेशेवर पृष्ठभूमि का भी हवाला देते हुए खुद को एक आधुनिक, सक्षम विकल्प के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनकी रैलियों में भीड़ और सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता उनके बढ़ते प्रभाव का संकेत है।
5. सामाजिक समीकरण साधने की कला: सूक्ष्म प्रबंधन
बिहार में जाति, धर्म और वर्ग के आधार पर वोट बैंक का सूक्ष्म प्रबंधन नेताओं की एक महत्वपूर्ण कला है। यह केवल बड़े जातीय समूहों को साधने तक सीमित नहीं है, बल्कि उप-जातियों, अति-पिछड़ों और अति-दलितों तक पहुँच बनाना भी इसमें शामिल है।
- प्रत्याशी चयन में जातिगत संतुलन का विशेष ध्यान रखा जाता है, ताकि प्रत्येक समुदाय का प्रतिनिधित्व हो।
- सार्वजनिक रैलियों में विभिन्न समुदायों के नेताओं को मंच पर लाना और उनके मुद्दों को संबोधित करना।
- सरकारी योजनाओं का लक्षित समुदायों तक पहुँचाना और उनके लाभों को रेखांकित करना।
- यह सामाजिक इंजीनियरिंग की कला ही है जो बिहार के चुनावी परिणामों को अप्रत्याशित बना सकती है।
6. प्रचार शैली और सोशल मीडिया: नैरेटिव पर नियंत्रण
आधुनिक चुनाव में प्रचार शैली और सोशल मीडिया का महत्व बढ़ता जा रहा है।
- पारंपरिक रैलियाँ: अभी भी महत्वपूर्ण हैं, जहाँ नेता सीधे जनता से जुड़ते हैं और बड़े जनसमूह को संबोधित करते हैं। बड़े शहरों के साथ-साथ ग्रामीण इलाकों में भी ये रैलियां राजनीतिक माहौल बनाती हैं।
- डिजिटल अभियान: फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप ग्रुप के माध्यम से संदेश फैलाना, मीम्स बनाना, लाइव स्ट्रीमिंग करना और प्रतिद्वंद्वी पर हमला करना आम हो गया है।
- फेक न्यूज़ और दुष्प्रचार: चुनावी माहौल में फेक न्यूज़ का मुकाबला करना और अपना नैरेटिव स्थापित करना एक बड़ी चुनौती है। गलत सूचनाओं का तेजी से प्रसार मतदाताओं के निर्णय को प्रभावित कर सकता है। राजनीतिक दल अपनी आईटी सेल के माध्यम से इस पर नियंत्रण रखने का प्रयास करते हैं।
चुनावी समीकरण और भविष्य की राह
बिहार का चुनावी रणभूमि कई जटिल समीकरणों से भरा है, जहाँ हर कारक परिणाम को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।
1. मतदान पैटर्न: जाति, धर्म और क्षेत्र का प्रभाव
बिहार में मतदान पैटर्न को समझना अत्यंत जटिल है। यहाँ मतदाता कई कारकों से प्रभावित होते हैं:
- जाति: यह सबसे प्रमुख कारक है। पारंपरिक रूप से, कुछ जातियाँ कुछ दलों या नेताओं के साथ जुड़ी हुई हैं। हालांकि, शिक्षा और जागरूकता बढ़ने से यह प्रवृत्ति कुछ हद तक कमजोर हुई है, लेकिन पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है।
- धर्म: मुस्लिम मतदाता और हिंदू मतदाता विभिन्न दलों के साथ अपने हितों के आधार पर जुड़ते हैं। अल्पसंख्यक वोट बैंक कई सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है।
- क्षेत्रीय मुद्दे: सीमांचल (बांग्लादेशी सीमा से निकटता और अल्पसंख्यक आबादी), मगध (ऐतिहासिक महत्व और कृषि संबंधी मुद्दे), मिथिलांचल (संस्कृति, बाढ़ और शिक्षा) जैसे क्षेत्रों के अपने विशिष्ट मुद्दे होते हैं जो मतदान को प्रभावित करते हैं।
- विकास कार्य: हाल के वर्षों में विकास एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में उभरा है, खासकर शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में, जहाँ मतदाता जाति से ऊपर उठकर विकास के वादों को प्राथमिकता दे सकते हैं।
2. महिला मतदाताओं की भूमिका: साइलेंट वोटर्स
बिहार में महिला मतदाता हमेशा से निर्णायक भूमिका निभाती रही हैं। शराबबंदी, स्वयं सहायता समूहों को प्रोत्साहन, और साइकिल योजना जैसी सरकारी योजनाओं ने महिलाओं को सशक्त किया है, और अक्सर वे ‘साइलेंट वोटर’ के रूप में उभरती हैं, जिनके रुझान को चुनाव से पहले समझना मुश्किल होता है। राजनीतिक दल अब महिला सशक्तिकरण और सुरक्षा को अपने एजेंडे में प्रमुखता से शामिल कर रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि महिलाएँ एक ठोस वोट बैंक का प्रतिनिधित्व करती हैं।
3. युवा मतदाताओं की आकांक्षाएँ: परिवर्तन की लहर
बिहार में एक बड़ी संख्या में युवा मतदाता हैं जो पहली बार मतदान करेंगे। उनकी प्राथमिकताएँ पारंपरिक जातिगत समीकरणों से अलग हो सकती हैं। वे रोजगार, शिक्षा, तकनीकी विकास और एक बेहतर भविष्य की आकांक्षा रखते हैं। जो दल इन आकांक्षाओं को संबोधित करेगा, उसे युवाओं का समर्थन मिल सकता है। युवा वर्ग अब सोशल मीडिया के माध्यम से अधिक जागरूक और संगठित है, जिससे उनकी आवाज चुनाव में अधिक मायने रखती है।
4. छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रभाव: ‘किंगमेकर’ की भूमिका
कई बार छोटे क्षेत्रीय दल या प्रभावशाली निर्दलीय उम्मीदवार बड़े दलों के लिए ‘किंगमेकर’ की भूमिका निभाते हैं। ये दल कुछ क्षेत्रों में निर्णायक वोट काट सकते हैं या बाद में गठबंधन में शामिल होकर सरकार गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इनकी भूमिका इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि बिहार में कई सीटों पर जीत का अंतर बहुत कम होता है।
5. बाहरी कारकों का प्रभाव: राष्ट्रीय मुद्दे और पड़ोसी राज्यों का असर
राष्ट्रीय राजनीति में चल रहे बड़े मुद्दे (जैसे महंगाई, किसान आंदोलन, केंद्र सरकार की नीतियां, धार्मिक मुद्दे) भी बिहार के मतदाताओं को प्रभावित कर सकते हैं। इसके अलावा, पड़ोसी राज्यों (जैसे उत्तर प्रदेश, झारखंड) में राजनीतिक घटनाक्रम का भी बिहार पर कुछ हद तक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। राष्ट्रीय नेताओं की रैलियां और बयान भी राज्य के चुनावी विमर्श को प्रभावित करते हैं।
6. चुनौतियाँ: धनबल, बाहुबल और फेक न्यूज़
किसी भी चुनाव की तरह, बिहार चुनाव में भी धनबल (पैसे का दुरुपयोग), बाहुबल (अपराधियों का प्रभाव), और फेक न्यूज़ (झूठी खबरें फैलाना) जैसी चुनौतियाँ मौजूद हैं। चुनाव आयोग और प्रशासन के लिए निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराना एक बड़ी चुनौती होती है। सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग से फेक न्यूज़ का प्रसार आसान हो गया है, जिससे मतदाताओं को गुमराह किया जा सकता है। इन चुनौतियों से निपटना एक पारदर्शी और विश्वसनीय चुनावी प्रक्रिया के लिए आवश्यक है।
आगे की राह: बिहार के लिए स्थिर सरकार का महत्व
बिहार जैसे राज्य के लिए एक स्थिर और जनोन्मुखी सरकार का होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। सरकार को इन चुनौतियों का सामना करते हुए समावेशी विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा:
- स्थिरता: बार-बार गठबंधन बदलने या राजनीतिक अस्थिरता से विकास प्रभावित होता है और राज्य में निवेश का माहौल खराब होता है।
- शासन: सुशासन, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन, और जवाबदेही पर जोर देना, जिससे जनता का विश्वास सरकार में बना रहे।
- समावेशी विकास: सभी वर्गों, क्षेत्रों और समुदायों को साथ लेकर चलने वाला विकास मॉडल अपनाना, ताकि कोई भी वर्ग पीछे न छूटे।
- निवेश: राज्य में औद्योगिक निवेश को आकर्षित करना और रोजगार के अवसर पैदा करना, जिससे पलायन की समस्या कम हो सके।
- सामाजिक सौहार्द्र: जाति और धर्म के आधार पर विभाजनकारी राजनीति से ऊपर उठकर सामाजिक समरसता को बढ़ावा देना, जो राज्य की प्रगति के लिए अनिवार्य है।
- मानव विकास: शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों में व्यापक सुधार, जो लंबे समय में राज्य के मानव पूंजी को मजबूत करेगा।
निष्कर्ष
बिहार चुनाव सिर्फ एक राज्य के विधानसभा या लोकसभा सीटों के लिए होने वाली लड़ाई नहीं है, बल्कि यह बिहार की आत्मा, उसके संघर्षों और उसकी संभावनाओं का प्रतिबिंब है। यह उन नेताओं की कसौटी है जो राज्य की जनता का नेतृत्व करने का दावा करते हैं, और यह उन मुद्दों की धार का प्रमाण है जो लाखों लोगों के जीवन को सीधे प्रभावित करते हैं। कुरुक्षेत्र में जिस प्रकार धर्म की स्थापना के लिए युद्ध लड़ा गया था, उसी प्रकार बिहार की यह सियासी लड़ाई सुशासन, विकास और सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए लड़ी जा रही है। मतदाता अंततः अपने विवेक का उपयोग करेंगे और तय करेंगे कि मुद्दों की धार और नेताओं के तेज की इस कसौटी पर कौन खरा उतरता है। यह चुनाव न केवल बिहार के भविष्य को आकार देगा, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और परिपक्वता का भी एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करेगा।
UPSC परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न (Practice Questions for UPSC Exam)
प्रारंभिक परीक्षा (Prelims) – 10 MCQs
(यहाँ 10 MCQs, उनके उत्तर और व्याख्या प्रदान करें)
1. बिहार में राजनीतिक दलों द्वारा जातिगत जनगणना के मुद्दे पर व्यापक चर्चा के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- भारत में जनगणना प्रत्येक 10 वर्ष पर होती है और इसका संचालन केंद्रीय गृह मंत्रालय करता है।
- भारत में अंतिम जातिगत जनगणना (अनुसूचित जातियों और जनजातियों को छोड़कर) 1931 में हुई थी।
- भारत के संविधान में जातिगत जनगणना का स्पष्ट उल्लेख है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 1 और 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (b)
व्याख्या:
कथन 1 सही है। भारत में जनगणना प्रत्येक 10 वर्ष पर होती है और इसका संचालन रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त, गृह मंत्रालय के तहत किया जाता है।
कथन 2 सही है। भारत में अंतिम जातिगत जनगणना (अनुसूचित जातियों और जनजातियों को छोड़कर) 1931 में हुई थी। उसके बाद, प्रत्येक जनगणना में अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) का डेटा एकत्र किया जाता है, लेकिन अन्य जातियों का नहीं।
कथन 3 गलत है। भारत के संविधान में जातिगत जनगणना का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। जनगणना अधिनियम, 1948 जनगणना के संचालन के लिए कानूनी ढाँचा प्रदान करता है, लेकिन इसमें गैर-SC/ST जातियों के डेटा के संग्रह का अनिवार्य प्रावधान नहीं है।
2. भारतीय संविधान के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन-सा अनुच्छेद राज्य विधानमंडलों के चुनाव से संबंधित है?
(a) अनुच्छेद 324
(b) अनुच्छेद 325
(c) अनुच्छेद 326
(d) ये सभी
उत्तर: (d)
व्याख्या:
अनुच्छेद 324: चुनावों के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण के लिए एक चुनाव आयोग की स्थापना करता है। यह लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों से संबंधित है।
अनुच्छेद 325: धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी व्यक्ति को चुनावी रोल में शामिल न करने या शामिल होने का दावा करने के लिए अपात्र घोषित न करने का प्रावधान करता है।
अनुच्छेद 326: लोकसभा और प्रत्येक राज्य की विधानसभा के चुनावों को वयस्क मताधिकार के आधार पर होने का प्रावधान करता है।
ये सभी अनुच्छेद राज्य विधानमंडलों सहित चुनावों से संबंधित हैं।
3. ‘एंटी-इनकंबेंसी (Anti-Incumbency)’ शब्द का सबसे अच्छा वर्णन क्या है, जैसा कि अक्सर भारतीय चुनावों के संदर्भ में उपयोग किया जाता है?
(a) सरकार के खिलाफ जनता में असंतोष की भावना जिसके कारण मौजूदा सरकार के खिलाफ मतदान होता है।
(b) सत्तारूढ़ दल के प्रति मजबूत समर्थन की भावना।
(c) किसी निर्वाचन क्षेत्र में नए उम्मीदवारों की जीत की प्रवृत्ति।
(d) चुनाव आयोग द्वारा चुनाव में धांधली को रोकने के उपाय।
उत्तर: (a)
व्याख्या: ‘एंटी-इनकंबेंसी’ उस भावना या प्रवृत्ति को संदर्भित करती है जहाँ मतदाता वर्तमान सरकार या मौजूदा जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मतदान करते हैं, आमतौर पर उनके प्रदर्शन, वादों को पूरा करने में विफलता, या कुछ मुद्दों पर असंतोष के कारण। यह एक राजनीतिक घटना है जो चुनावों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकती है।
4. बिहार जैसे कृषि प्रधान राज्य में, किसानों की आय बढ़ाने के लिए निम्नलिखित में से कौन-सी पहल सबसे प्रभावी हो सकती है?
- सिंचाई सुविधाओं का आधुनिकीकरण और विस्तार।
- कृषि-आधारित उद्योगों को बढ़ावा देना।
- न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर प्रभावी खरीद प्रणाली सुनिश्चित करना।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 1 और 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (d)
व्याख्या: किसानों की आय बढ़ाने के लिए ये सभी उपाय महत्वपूर्ण हैं। सिंचाई सुविधाओं में सुधार से कृषि उत्पादन और उपज बढ़ेगी, जिससे किसानों की फसलें सूखे या अत्यधिक वर्षा से कम प्रभावित होंगी। कृषि-आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने से किसानों के उत्पादों का मूल्यवर्धन होगा, उन्हें बेहतर बाजार मिलेगा और ग्रामीण रोजगार भी सृजित होगा। MSP पर प्रभावी खरीद प्रणाली सुनिश्चित करने से किसानों को उनकी उपज का उचित और लाभकारी मूल्य मिलेगा, जिससे उनकी आय में स्थिरता आएगी।
5. भारत में ‘महिला मतदाता’ के बढ़ते प्रभाव के संदर्भ में, ‘साइलेंट वोटर’ शब्द क्या दर्शाता है?
(a) वे महिलाएँ जो चुनाव में भाग नहीं लेतीं।
(b) वे महिलाएँ जो अपना मत सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं करतीं लेकिन चुनाव परिणामों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती हैं।
(c) वे महिलाएँ जो केवल महिला उम्मीदवारों को वोट देती हैं।
(d) वे महिलाएँ जो ऑनलाइन मतदान पसंद करती हैं।
उत्तर: (b)
व्याख्या: ‘साइलेंट वोटर’ उन मतदाताओं को संदर्भित करता है जो चुनाव से पहले अपने राजनीतिक झुकाव या मतदान के इरादे को सार्वजनिक रूप से व्यक्त नहीं करते हैं, जिससे चुनाव सर्वेक्षणों में उनके प्रभाव का आकलन करना मुश्किल हो जाता है। हालाँकि, वे बड़ी संख्या में मतदान करते हैं और अक्सर चुनाव परिणामों को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जैसा कि बिहार में महिलाओं के मामले में देखा गया है, जहाँ शराबबंदी जैसी नीतियों ने उनके मतदान व्यवहार को प्रभावित किया है।
6. भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत, ‘जनगणना’ किस सूची का विषय है?
(a) संघ सूची
(b) राज्य सूची
(c) समवर्ती सूची
(d) अवशिष्ट विषय
उत्तर: (a)
व्याख्या: भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की संघ सूची की प्रविष्टि 69 ‘जनगणना’ से संबंधित है, जिसका अर्थ है कि जनगणना संघ सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती है और इसका संचालन केंद्रीय कानून के तहत होता है।
7. ‘मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट (MCC)’ के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- यह भारत के संविधान में निहित एक वैधानिक प्रावधान है।
- यह चुनावों की घोषणा के साथ लागू होता है और चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक प्रभावी रहता है।
- इसका मुख्य उद्देश्य निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव सुनिश्चित करना है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (b)
व्याख्या:
कथन 1 गलत है। मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट भारत के संविधान में निहित एक वैधानिक प्रावधान नहीं है, न ही यह किसी संसदीय कानून द्वारा लागू किया गया है। यह चुनाव आयोग द्वारा राजनीतिक दलों की सहमति से विकसित सिद्धांतों का एक समूह है, जिसका अनुपालन स्वैच्छिक है, हालांकि इसका उल्लंघन करने पर कानूनी कार्रवाई भी हो सकती है।
कथन 2 सही है। यह चुनावों की घोषणा के साथ लागू होता है और चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक प्रभावी रहता है।
कथन 3 सही है। इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा ऐसे आचरण को विनियमित करना है जिससे निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव सुनिश्चित हो सकें और चुनावी प्रक्रिया में समान अवसर मिलें।
8. पलायन (Migration) के संदर्भ में, निम्नलिखित में से कौन-सा ‘पुश फैक्टर’ का उदाहरण है जो लोगों को बिहार से अन्य राज्यों में पलायन करने के लिए प्रेरित करता है?
- राज्य में रोजगार के अवसरों की कमी।
- बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की तलाश।
- उच्च वेतन और बेहतर जीवन स्तर की उम्मीद।
- लगातार बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएँ।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 4
(c) केवल 2, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (b)
व्याख्या: ‘पुश फैक्टर’ वे कारक होते हैं जो लोगों को किसी स्थान को छोड़ने के लिए मजबूर करते हैं।
कथन 1 (रोजगार अवसरों की कमी), 2 (बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की तलाश), और 4 (प्राकृतिक आपदाएँ) तीनों बिहार से पलायन के लिए ‘पुश फैक्टर’ हैं क्योंकि ये राज्य के भीतर की कमियों या प्रतिकूल परिस्थितियों को दर्शाते हैं।
कथन 3 (उच्च वेतन और बेहतर जीवन स्तर की उम्मीद) एक ‘पुल फैक्टर’ है, जो लोगों को किसी नए स्थान की ओर आकर्षित करता है, न कि उन्हें अपना मूल स्थान छोड़ने के लिए मजबूर करता है।
9. भारत में वयस्क मताधिकार के बारे में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
- भारत में मतदान की न्यूनतम आयु मूल रूप से 21 वर्ष थी।
- 61वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1988 द्वारा मतदान की आयु 18 वर्ष की गई।
- यह भारत के प्रत्येक नागरिक का एक कानूनी अधिकार है।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर: (a)
व्याख्या:
कथन 1 सही है। मूल रूप से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत मतदान की न्यूनतम आयु 21 वर्ष निर्धारित की गई थी।
कथन 2 सही है। 61वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1988 ने मतदान की आयु को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दिया।
कथन 3 गलत है। वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise) भारत के संविधान के अनुच्छेद 326 द्वारा गारंटीकृत एक ‘संवैधानिक अधिकार’ है, न कि केवल एक कानूनी अधिकार। ‘कानूनी अधिकार’ वे होते हैं जो संसद के अधिनियमों द्वारा बनाए जाते हैं, जबकि संवैधानिक अधिकार संविधान में सीधे वर्णित होते हैं।
10. ‘मंडल आयोग’ के गठन का मुख्य उद्देश्य क्या था, जिसका बिहार की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा?
(a) भाषाई राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश करना।
(b) भारत में शिक्षा प्रणाली में सुधारों का सुझाव देना।
(c) सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करना और उनके उत्थान के लिए सिफारिशें देना।
(d) केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा करना।
उत्तर: (c)
व्याख्या: मंडल आयोग (द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग) का गठन 1979 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई द्वारा किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (SEBCs) की पहचान करना और उनकी स्थिति में सुधार के लिए सिफारिशें करना था, विशेष रूप से सरकारी नौकरियों में आरक्षण के संबंध में। इसकी सिफारिशों को 1990 में लागू किया गया, जिससे भारत की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया और इसने बिहार की राजनीति को विशेष रूप से प्रभावित किया, जहाँ ‘सामाजिक न्याय’ का मुद्दा प्रमुखता से उभरा।
मुख्य परीक्षा (Mains)
(यहाँ 3-4 मेन्स के प्रश्न प्रदान करें)
1. बिहार में चुनावों को ‘जातिगत राजनीति का प्रयोगशाला’ क्यों कहा जाता है? राज्य के विकास और शासन पर जातिगत समीकरणों के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। (250 शब्द)
2. बिहार में बेरोजगारी और पलायन एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। बिहार चुनाव के संदर्भ में, राज्य की अर्थव्यवस्था में इन समस्याओं के मूल कारणों का विश्लेषण करें और संभावित नीतिगत समाधानों पर चर्चा करें जो युवाओं को राज्य में वापस लाने और रोजगार सृजन को बढ़ावा दे सकते हैं। (250 शब्द)
3. बिहार में शराबबंदी के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण कीजिए। क्या आपको लगता है कि यह एक सफल नीति रही है, या इसके अनपेक्षित परिणाम हुए हैं? चुनावी राजनीति में इस मुद्दे की प्रासंगिकता पर भी प्रकाश डालें। (250 शब्द)
4. महिला मतदाताओं को अक्सर ‘साइलेंट वोटर’ कहा जाता है, लेकिन वे चुनावी परिणामों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती हैं। बिहार के संदर्भ में, महिला मतदाताओं के मतदान पैटर्न को प्रभावित करने वाले कारकों का विश्लेषण करें और बताएं कि राजनीतिक दल उनकी भागीदारी को कैसे भुनाते हैं। (250 शब्द)