प्रोटेस्टेन्ट धर्म तथा पूँजीवाद के विकास में सह – सम्बन्ध
धर्म का समाजशास्त्र
( Sociology or Religion )
मैक्स वेबर बह सर्वप्रमुख विचारक हैं जिन्होंने धर्म का बहुत सूक्ष्म वैज्ञानिक अध्ययन करके समाजशास्त्र में धर्म के समाजशास्त्र ‘ ( Sociology of Religion ) जैसी एक स्वतन्त्र शाखा को स्थापित किया । वेबर ने अपने विद्यार्थी जीवन में ही प्रोटेस्टेण्ट धर्म के काल्विन मत का अध्ययन करना आरम्भ कर दिया था । अपने व्यावहारिक अनुभवों के आधार पर वेबर की यह मान्यता बन गयी कि धर्म का सम्बन्ध केवल पूजा और विश्वासों की व्यवस्था से ही नहीं है बल्कि धर्म का सार उसकी वे नीतियां अथवा आचार हैं जो एक विशेष धर्म के मानने वालों के आर्थिक तथा सामाजिक व्यवहारों को प्रभावित करती हैं । इस परिकल्पना के आधार पर वेबर ने संसार के विभिन्न धर्मों तथा मुख्यतः प्रोटेस्टेण्ट एवं कैथोलिक मत व्यापक अध्ययन करके अपने जो विचार प्रस्तुत किये , वह आपकी विश्ववि पुस्तक ‘ प्रोटेस्टेण्ट धर्म तथा पूंजीवाद का सार ‘ ( Protestant Ethic and the Spirit of Capitalism ) में प्रकाशित हुए । यह पुस्तक धर्म का अध्ययन करने वाले समाज – विज्ञानियों के लिए पथ – प्रदर्शक बन गयी । इसके अन्तर्गत धर्म के अध्ययन के लिए उपयोग में लायी गयी पद्धति वेबर की एक नयी सूझ – बूझ थी जिसके कारण मैक्स वेबर को ‘ धर्म के समाजशास्त्र का जनक ‘ भी कह दिया जाता है । वेबर के विचारों की पृष्ठभमि में उन दशाओं को समझना भी आवश्यक है जिन्होंने वबर को धर्म के बारे में एक नया दष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा दी ।
सर्व प्रथम , वेबर के एक विद्यार्थी बाडेन ( Baden ) ने अपने अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष किया था कि कैथोलिक धर्म को मानने वाले विद्यार्थियों की तुलना में प्रोटे स्टेण्ट धर्म को मानने वाले विद्यार्थी औद्योगिक शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश लेने के लिए अधिक प्रयत्नशील रहते हैं । दूसरे , वेबर ने यह भी देखा कि योरोप के अनेक देशों में आर्थिक और राजनैतिक संकट के समय प्रोटेस्टेण्ट धर्म के मानने वाले लोगों ने परिश्रम के द्वारा अपनी आर्थिक दशा को फिर से सुदृढ़ बना लिया जबकि कैथोलिक धर्म के अनुयायी ऐसा नहीं कर सके । तीसरे , योरोप के जिन देशों में प्रोटेस्टेण्ट धर्म का प्रभाव अधिक है , वहाँ पूंजीवाद का विकास उन देशों की तुलना में अधिक हुआ जहाँ कैथोलिक धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या अधिक थी । इन सभी दशाओं ने वेबर को इस बात की प्रेरणा दी कि संसार के सभी प्रमुख धर्मों का अध्ययन करके व्यक्ति के व्यवहारों पर धार्मिक आचारों के प्रभाव को समझा जाये । विभिन्न धर्मों का व्यापक अध्ययन करने के पश्चात् वेबर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि साधारण मनुष्य अपनी सांसारिक आकांक्षाओं के कारण ही धर्म से प्रभावित होते हैं । वे धर्म से इसलिए प्रभावित नहीं होते कि बड़े – बड़े धार्मिक विचारों से उनका कोई विशेष लगाव होता है । विभिन्न समाज में धार्मिक आचारों के प्रभाव को ज्ञात करने के साथ ही वेबर ने इस तथ्य को विशेष रूप से जानने का प्रयत्न किया कि क्या प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों तथा पूंजीवाद के विकास में कोई सह – सम्बन्ध है । वेबर का यही अध्ययन उनके ‘ धर्म के समाजशास्त्र ‘ का मुख्य आधार है । इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि वेबर द्वारा बतायी गयी पूंजीवाद की मुख्य विशेषताओं तथा प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों को समझकर आर्थिक व्यवस्था और धार्मिक कारकों के पारस्परिक सम्बन्ध को समझा जाय ।
पूँजीवाद का सार
( Spirit of Capitalism )
वेबर ने अपनी पुस्तक ‘ दि प्रोटेस्टेण्ट इथिक एण्ड द स्पिरिट ऑफ कैपिट लिज्म ‘ के अधिकांश भाग में इस समस्या पर प्रकाश डाला है कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म की नीतियाँ अथवा शुद्धाचरणवादी विचारों ने पंजीवाद को किस तरह प्रभावित किया है ? इसे स्पष्ट करने के लिए वेबर ने बतलाया कि पूंजीवाद आधुनिक समाजों की एक प्रमुख विशेषता है । यह सच है कि पंजीवादी अर्थव्यवस्था अनेक ऐतिहासिक – स्तरों में मौजूद रही लेकिन आधुनिक पूंजीवाद की प्रकृति पुरातन पूंजीवादी व्यवस्था से भिन्न है । आधुनिक पूंजीवाद की प्रकृति का आभास वेबर को सर्वप्रथम अपने परिवार से ही होने लगा था । उन्हें अपने परिवार में व्यक्तिवाद तथा आर्थिक आचरणों से सम्बन्धित नैतिकता का अनूठा सम्मिश्रण देखने को मिला । वेबर के चाचा कार्ल डेविड एक सम्मानित उद्यमकर्ता थे । उनके व्यवहारों और रहन – सहन में कठोर परिश्रम , दिखावे का अभाव , दयालुता और तार्किकता के गुण थे । यह वह गुण थे जो आधुनिक पूंजीवाद के अन्तर्गत सभी बड़े उद्योगपतियों में विद्यमान थे । इसके फलस्वरूप वेबर की यह धारणा बनने लगी कि आधुनिक पूंजीवाद एक विशेष प्रकार की नैतिकता है जिसमें अनेक विचारों का समावेश है । बेबर के अनुसार आधुनिक औद्योगिक जगत के मनुष्य का यह एक विशेष गुण है कि उसके लिए कठोर परिश्रम एक कर्तव्य है और वह इसका फल इसी जीवन में मानने का विश्वास करता है ।
पूंजीवाद में मनुष्य की वैयक्तिक सन्तुष्टि का आधार यह है कि वह अपने व्यवसाय को परिश्रम से करे – इस भावना से नहीं कि वह कार्य उसे मजबूरी में करना पड़ रहा है बल्कि इस भावना से कि वह स्वयं ऐसा करना चाहता है । वेबर ने लिखा है कि ” एक व्यक्ति से अपनी आजीविका से सम्बन्धित कर्तव्यों का अनुभव करने की आशा की जाती है और वह उसे करता भी है , भले ही वह क्रिया किसी भी क्षेत्र से सम्बन्धित हो । ” अमरीका में एक कहावत कही जाती है कि यदि कोई काम करने योग्य है तो उसे सबसे अच्छे ढंग से पूरा करना चाहिए । वेबर के अनुसार यह कहावत पूंजीवाद का सार है क्योंकि इस धारणा का सम्बन्ध किसी अलौकिक उद्देश्य से नहीं बल्कि आर्थिक जीवन में व्यक्ति को प्राप्त होने वाली सफलता से है । पंजीवाद के सार को स्पष्ट करने के लिए वेबर ने इसकी तुलना एक दूसरी आर्थिक क्रिया से की जिसका नाम उन्होंने ‘ परम्परावाद ‘ रखा । आर्थिक क्रियाओं में परम्पराबाद एक विशेष स्थिति है जिसमें व्यक्ति अधिक प्रतिफल मिलने के बाद भी कम से कम काम करना चाहते हैं । काम के दौरान वे अधिक से अधिक आराम पसन्द करते हैं तथा कार्य की नयी प्रविधियों को उपयोग में लाना नहीं चाहते । परम्परावाद की दशा में लोग जीवनयापन के लिए साधारण आय से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं तथा ऐसे प्रयत्न करते हैं जिनसे अकस्मात लाभ प्राप्त किया जा सके । ग्राहकों तथा कर्मचारियों से इनके सम्बन्ध वैयक्तिक होते हैं । सिद्धान्तहीन ढंग से धन का संचय करना भी आर्थिक परम्परावाद का ही एक पहलू है ।
यह सभी विशेषताएं पंजीवाद के सार के बिलकुल विपरीत हैं । वेबर का विचार था कि दक्षिणी योरोप , एशिया के विशेषाधिकार सम्पन्न समूहों , चीन के अधिकारियों , रोम के अभिजात वर्गों तथा एल्बी नदी के पूर्व के जमींदारों की आर्थिक क्रियाएँ अकस्मात लाभ प्राप्त करने के लिए की गयी थीं जिनमें उन्होंने सभी नैतिक विचारों का परित्याग कर दिया था । उनकी क्रियाओं में तार्किक प्रयत्नों का भी अभाव था जिसके कारण उन क्रियाओं को आधुनिक पूंजीवाद के समकक्ष नहीं रखा जा सकता । इस आधार पर पूंजीवाद को परिभाषित करते हुए वेबर ने लिखा कि ” आधुनिक पूजीवाद परस्पर सम्बन्धित संस्थाओं का एक ऐसा संकुल है जिसका आधार तर्क पर आधारित आर्थिक प्रयत्न हैं , न कि सटोरियों के प्रयत्न । ”
इसका तात्पर्य है कि व्यापारिक निगमों का कानूनी रूप , संगठित विनिमय प्रणाली , तार्किक आधार पर वस्तुओं का उत्पादन , विक्रय की संगठित व्यवस्था , ऋण प्रणाली , निजी सम्पत्ति तथा श्रम – विभाजन पर आधारित पारस्परिक निर्भरता आधुनिक पूंजीवाद की प्रमुख विशेषताएं हैं । वेबर के अनुसार पूंजीवाद के सार से सम्बन्धित यह विशेषताएं केवल पश्चिमी समाजों का ही गुण रही हैं । अनेक दूसरे समाजों में भी ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने अपने व्यापार को बहुत तार्किक ढंग से चलाया , जो नौकरों से भी अधिक कठोर परिश्रम करते थे , जिनका जीवन आडम्बरों से दूर था तथा जो अपनी बचत को व्यापार के प्रसार में लगा देते थे । इसके बाद भी इन पूंजीवादी विशषताओं का प्रभाव दूसरे समाजों की अपेक्षा पश्चिमी समाजों में कहीं अधिक पाया जाता रहा । इसका कारण यह था कि पश्चिम में यह गुण वैयक्तिक गुण न रहकर जीवनयापन के सामान्य ढंग के रूप में विकसित हो गये । इस प्रकार जनसामान्य में व्याप्त कठोर परिश्रम , व्यापारिक तर्कनावाद , सार्वजनिक ऋण व्यवस्था , पूंजी का निरन्तर विनियोजन तथा परिश्रम के लिए ऐच्छिक स्वीकृति पूंजीवाद का सार है । इसके विपरीत , अकस्मात आर्थिक लाभ पाने का प्रयत्न करना , परिश्रम को बोझ और अभिशाप समझकर उससे दूर भागना . धन का सिद्धान्तहीन ढंग से संचय करना तथा जीवनयापन के लिए सामान्य आय से ही सन्तुष्ट हो जाना परम्परावादी आर्थिक प्रवृत्तियाँ हैं । वेबर ने उन विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला है जो आधुनिक जीवादी व्यवस्था से प्रभावित समाजों में पायी जाती हैं । संक्षेप में , इन विशेषताओं को निम्नांकित रूप में समझा जा सकता है :
( 1 ) व्यवसाय की व्यवस्था का वैज्ञानिक ढंग ( Scientific mode of Business Management ) – आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था की प्रमुख विशेषता यह है कि यह व्यापार अथवा व्यवसाय में वैज्ञानिक ढंग को अधिक महत्त्व देती है । इसके अन्तर्गत समाज में व्यवसाय की नयी पद्धतियों का विकास होने लगता है । आय तथा व्यय का हिसाब रखने के लिए न केवल व्यवस्थित विधियों को उपयोग में लाया जाता है बल्कि तार्किक आधार पर भविष्य में वस्तुओं की मांग का अनुमान लगाकर साधनों का अधिकतम उपयोग करने का प्रयत्न किया जाता है ।
( 2 ) उत्पादन प्रणाली में वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग ( Use of Scientific Techniques in the System of Production ) – वेबर का मत है कि पूंजीवादी समाजों में व्यवसाय करने वाले लोग सदैव ऐसी तकनीकों का प्रयोग करते रहते हैं जिनसे वे अधिक से अधिक सफलता प्राप्त कर सकें । उनका उद्देश्य ऐसे तरीकों पर विचार करना तथा उन्हें उपयोग में लाना होता है जिनसे वस्तु के उत्पादन में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल , श्रम तथा प्रबन्ध का अधिक से अधिक उपयोग किया जा सके । इन समाजों में लोगों के परम्परागत सामन्तवादी विचार बदलने लगते हैं । समाज में रोजगार के नये – नये अवसरों में वृद्धि होती है । श्रमिकों को इस तरह की पद्धतियों में मजदूरी और वेतन देने का प्रावधान किया जाता है जिससे उनकी कार्य कुशलता बढ़ सके । श्रमिकों की कार्य की दशाओं में इस तरह सुधार किया जाने लगता है जिससे वे अपने को सुरक्षित समझकर उत्पादन की प्रक्रिया में अधिका धिक योगदान कर सकें ।
( 3 ) वैज्ञानिक नियम ( Scientific Laws ) – पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में समाज के नियमों में भी इस तरह परिवर्तन होने लगता है जिससे उत्पादन की प्रक्रिया में लगे सभी वर्गों को एक – दूसरे का विश्वास प्राप्त हो सके । फलस्वरूप राज्य के द्वारा ऐसे कानून बनाये जाते हैं जो एक ओर उद्यमियों और श्रमिकों के हितों का संरक्षण कर सकें तथा दूसरी ओर औद्योगिक विकास के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार कर सकें । यह कानून तथा नियम किसी परम्परा पर आधारित न होकर वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं के अनुसार होते हैं ।
( 4 ) मुक्त श्रम तथा मुक्त व्यवसाय ( Free Labour and Free Trade ) मैक्स वेबर ने बतलाया कि पूंजीवादी समाजों में प्रत्येक व्यक्ति को अपना व्यवसाय चनने की स्वतन्त्रता होती है । वेबर ने स्पष्ट किया कि भारत परम्परागत समाज का एक उदाहरण है जिसमें जाति व्यवस्था के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही जाति के लिए निर्धारित व्यवसाय करने के लिए बाध्य है । फलस्वरूप भारत में व्यावसायिक गतिशीलता बहुत कम हो गयी है । दूसरी ओर पूंजीवादी आश्कि व्यवस्था वाले समाजों में व्यावसायिक गतिशीलता इसलिए अधिक होती है कि वहीं व्यक्ति को अपने श्रम अथवा व्यवसाय के चुनाव में किसी प्रथा अथवा परम्परा के द्वारा नहीं रोका जाता । यह स्थिति व्यक्ति को अपनी आवश्यकता तथा महत्त्वा कांक्षा में सन्तुलन स्थापित करने का अवसर प्रदान करती है ।
( 5 ) व्यवसाय तथा बिक्री के लिए संगठित बाजार ( Organized Markets for Trade and Sale of Goods ) – वेबर ने स्पाट किया कि आधुनिक पूंजीवादी समाजों में व्यापार तथा वस्तुओं की बिक्री के लिए संगठित बाजारों का निर्माण किया जाता है । यह बाजार स्थानीय स्तर से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक के होते हैं । आर्थिक क्रियाओं के लिए इन बाजारों के अपने कुछ विशेष नियम होते हैं । इनमें ऋणों के लेन – देन को व्यवस्थित आधार पर संचालित किया जाता है तथा बड़े – बड़े संगठनों द्वारा ऋण सम्बन्धी गतिविधियों पर नियन्त्रण रखा जाता है । वेबर का कथन है कि इस तरह के बाजारों का विकास मुख्यतः योरोप की औद्योगिक क्रान्ति का परिणाम है । इस प्रकार वेबर ने यह स्पष्ट किया कि पूंजीवाद का सार एक विशेष प्रकार की व्यावसायिक नैतिकता है जिसमें व्यक्ति का मूल्यांकन प्रदत्त स्थितियों ( Ascribed Status ) के आधार पर नहीं होता बल्कि उसकी ताकिकता तथा कार्यकुशलता के आधार पर होता है ।
प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचार
( Protestant Ethic )
पूंजीवाद का सार स्पष्ट कर लेने के बाद वेवर ने अनेक ऐसे कारणों को प्रस्तुत किया जिनके आधार पर पूंजीवाद को उत्पत्ति को धार्मिक आचारों के सन्दर्भ में खोजा जा सके । वेबर से पहले पेटी ( Petty ) , मान्टेस्क्यू ( Montesquieu ) , बकल ( Buckle ) तथा कीट्स ( Keats ) ने अपने अध्ययनों के द्वारा यह स्पष्ट किया था कि प्रोटेस्टेन्ट धर्म तथा व्यापारी प्रवृत्ति के विकास के बीच एक सह – सम्बन्ध है । इनसे प्रभावित होकर वेबर ने यह विचार प्रस्तुत किया कि विभिन्न धर्मों और उनसे सम्बन्धित सिद्धान्तों ( बाचारों ) पर इस दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए कि वे बपने मानने वालों को किस तरह की शिक्षाएं देते हैं तथा मनुष्य और ईश्वर के सम्बन्धों की विवेचना के द्वारा किस तरह आचरणों को प्रोत्साहन देते हैं । वेबर यह स्पष्ट करना चाहते थे कि प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचार किस प्रकार उन लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गये जो आर्थिक लाभ को तार्किक दृष्टि से प्राप्त करने के पक्ष में थे । इस बात को ध्यान में रखते हुए वेबर ने एक बोर प्रोटेस्टेन्ट धर्म के बाचारों की बनेक पादरियों से सही जानकारी प्राप्त की तथा दूसरी ओर कैथोलिक मत की तुलना में लोगों के दैनिक आचरणों पर इन आचारों के प्रभाव को स्पष्ट किया । प्रोटेस्टेन्ट धर्म के बाचार के रूप में सेन्ट पॉल ने बतलाया कि ” प्रोटेस्टेन्ट धर्म की नीति बह है कि जो व्यक्ति काम नहीं करेगा वह भोजन का अधिकारी नहीं श्वर के गौरव को बढ़ाने के लिए गरीबों के साथ धनी लोग भी किसी न किसी व्यवसाय में अवश्य जुटे रहें ; तथा व्यक्ति की सबसे बड़ी धार्मिक निष्ठा यह है कि वह अधिक से अधिक सक्रिय जीवन व्यतीत करें । ” रिचार्ड बेक्सटर ( Richard Baxter ) ने प्रोटेस्टेन्ट आचार पर प्रकाश डालते हए कहा कि ” केवल धर्म के लिए ही ईश्वर हमारी और हमारे कार्यों की रक्षा करता है । परिश्रम ही शक्ति का नैतिक और प्राकृतिक उद्देश्य है । केवल परिश्रम से ही ईश्वर की सबसे अधिक सेवा करके उसका सम्मान बढ़ाया जा सकता है । “
एक अन्य ईसाई सन्त जॉन बनियन ने प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचार को इन शब्दों में स्पष्ट किया कि ” मृत्यु के बाद तुमसे यह नहीं पूछा जायेगा कि तुम क्या विश्वास करते थे ; केवल यह पूछा जायेगा कि तुम कुछ परिश्रम भी करते थे या केवल बातों में ही समय बिताते थे । ” इन कथनों से स्पष्ट होता है कि प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचारों ने परिश्रम पर आधारित एक विस्तृत नियमावली को जम दिया । इसके अनुसार समय को व्यर्थ में खोना एक घातक पाप है । जीवन क्षणभंगुर तथा मूल्यवान है , इसलिए मनुष्य की ईश्वर का गौरव बढ़ाने के लिए अपना प्रत्येक क्षण उपयोगी व्यवसाय में लगाना चाहिए 17 व्यर्थ की बात – चीत , लोगों से अधिक मिलना – जुलना , आवश्यकता से अधिक सोना तथा दैनिक क्रियाओं को हानि पहुंचाकर धार्मिक क्रियाओं में लगे रहना पाप है क्योंकि इनके कारण व्यक्ति आजीविका उपार्जित करने के काम को ईश्वर की इच्छा के अनुरूप सक्रिय ढंग से पूरा नहीं कर सकता । इस दृष्टिकोण से प्रोटेस्टेन्ट धर्म की नीतियाँ वैयक्तिक आचार के इस आदर्श के विरुद्ध हैं कि ” धनी व्यक्ति कोई भी काम न करे अथवा यह कि धार्मिक ध्यान व्यक्ति के सांसारिक दायित्वों से अधिक मूल्यवान है । “
प्रोटेस्टेन्ट धर्म तथा पूँजीवाद के विकास में सह – सम्बन्ध
( Corelation of Protes tant Ethic and Rise of Capitalism )
. पूंजीवाद की मुख्य विशेषताओं तथा प्रोटेस्टेन्ट आचारों के अध्ययन से वेबर को इनके बीच अनेक समानताएं देखने को मिलीं । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि अपने सम्पूर्ण अध्ययन के द्वारा वेबर ने प्रोटेस्टेन्ट धर्म के ऐसे अनेक तत्त्वों को खोज निकाला जिनका पूंजीवाद के विकास से सीधा सम्बन्ध हो सकता है । वेबर द्वारा बतलाये गये प्रोटेस्टेन्ट धर्म के इन आचारों को समझकर ही उनकी पूंजीवाद के विकास से सम्बन्ध ज्ञात किया जा सकता है ।
परम्परागत मूल्यों से तकपूर्ण मूल्यों की स्थापना ( Establishment of Rational Values from Traditional Values ) – वेबर का विचार अन्य धर्मों में पायी जाने वाली रूढ़िवादिता इसलिए विकसित हुई कि व्यक्ति का के रहस्य को जानने के लिए तरह – तरह के कर्मकाण्डों तथा उपासना के तरीकों में लगे रहे । इसके विपरीत , प्रोटेस्टेन्ट आचारों ने एक ऐसे विवेक अथवा तर्क को प्रोत्साहन दिया जो ईश्वर को तो स्वीकार करता है लेकिन उसके रहस्यों को जानने में अपना समय नहीं खोता । वेबर का मत है कि योरोप के कुछ देशों में पूंजीवाद को प्रोत्साहन देने वाले वैज्ञानिक आविष्कारों तथा तर्कपूर्ण चिन्तन में इसलिए वृद्धि हुई क्योंकि प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचार स्वयं तर्कपूर्ण चिन्तन को प्रोत्साहन दे रहे थे । इसके विपरीत , भारत के आध्यात्मिक चिन्तन में ज्ञान – योग , भक्ति – योग तथा तपस्या के द्वारा ईश्वर के रहस्यों को खोजने का प्रयास किया गया । बौद्ध धर्म ने तो ईश्वर के रहस्य को जानना ही मुक्ति के मार्ग के रूप में स्वीकार कर लिया । यही कारण है कि अन्य धर्मों की तुलना में प्रोटेस्टेन्ट धर्म एक अधिक विवेकशील और तार्किक धर्म के रूप में विकसित हुआ जो पूंजीवाद के विकास के लिए एक अनुकूल दशा है ।
( 2 ) कार्य के प्रति रचनात्मक दृष्टिकोण ( Creative Attitude towards Work ) – प्रोटेस्टेण्ट आचार के अनुसार कार्य अपने आप में पूजा है । ‘ वेबर ने स्पष्ट किया कि परिश्रम को एक धार्मिक आचार मानने के कारण ही प्रोटेस्टेन्ट धर्म के अनुयायियों में अधिकाधिक कार्य करने की प्रवृत्ति बढ़ी जो पूंजीवाद से इसके सह सम्बन्ध को स्पष्ट करती है । प्रोटेस्टेन्ट धर्म में जहाँ कार्य तथा परिश्रम को व्यक्ति का महत्त्वपूर्ण गुण माना गया है वहीं कुछ अन्य धर्मों में कार्य के प्रति पाये जाने वाले दृष्टिकोण इससे भिन्न हैं । उदाहरण के लिए , रोमन कैथोलिक धर्म में कार्य को एक ऐसा दण्ड माना गया है जो ईश्वर ने आदम और ईव को दिया । कैथोलिक धर्म की मान्यताओं के अनुसार , आदम ने जब ईव के कहने पर स्वर्ग के पेड़ से फल तोड़ लिया तो ईश्वर ने दण्डस्वरूप उन्हें पृथ्वी पर भेज दिया । ईश्वर ने उन्हें यह श्राप दिया कि ईव और उसकी कन्याओं को बच्चों को जन्म देते समय कष्ट होगा तथा उनकी सन्तानों को जीविका उपार्जित करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी । इस मान्यता के आधार पर ही कैथोलिक मत के अनुयायी किसी भी कार्य और परिथम को ईश्वर के द्वारा दिए जाने वाले दण्ड के रूप में देखते हैं । कैथोलिक धर्म के आचार केवल पुरुषों को ही कार्य करने की अनुमति देते हैं जबकि स्त्रियों द्वारा घरेल काम करना ही उचित माना जाता है । इसके विपरीत , प्रोटेस्टेण्ट आचार स्त्रियों द्वारा किये जाने वाले कार्य को उनके एक विशेष गुण के रूप में स्वीकार करते हैं । इस प्रकार वेबर ने कार्य तथा श्रम के प्रति प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचारों को पंजीवाद के एक सहायक आधार के रूप में स्वीकार किया ।
( 3 ) मुक्ति की अवधारणा ( The Concept of Salvation ) – – प्रोटेस्टेण्ट धर्म में मुक्ति की अवधारणा काल्विन मत की मान्यताओं पर आधारित है । इस अवधारणा को ‘ पूर्व निश्चय का सिद्धान्त ‘ ( Theory of Predestination ) कहा जाता है । काल्विन के मत के अनुसार , जिस ईश्वर ने मनुष्य को जन्म दिया , उसी ईश्वर ने उनके स्वर्ग या नरक में जाने का निश्चय पहले से ही कर दिया है । व्यक्तिद्वारा किया जाने वाला पूजा – पाठ या कोई भी दूसरा प्रयत्न ईश्वर के इस निश्चय को नहीं बदल सकता । काल्विन मत के अनुसार व्यक्ति के कार्यों की सफलता के आधार पर केवल इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि कौन – सा व्यक्ति स्वर्ग में जायेगा । इस प्रकार प्रोटेस्टेण्ट धर्म के अनुयायी यह मानते हैं कि जो व्यक्ति अपने कार्य को जितनी सफलता से पूरा कर लेता है , उसका स्वर्ग में जाना उतना ही अधिक निश्चित है । इस मान्यता के आधार पर प्रोटेस्टेण्ट धर्म के अनुयायी अपने कार्य तथा व्यवसाय में सफल होने के लिए अधिक से अधिक प्रयत्नशील रहते हैं । वेबर ने बतलाया कि अनेक दूसरे धर्मों में स्वर्ग अथवा मुक्ति को प्राप्त करने के लिए व्यावसायिक सफलता को एक आधार के रूप में नहीं देखा जाता । हिन्दू धर्म में तो व्यक्ति को केवल गृहस्थ आश्रम की अवधि में ही व्यावसायिक कार्य करने की अनुमति प्रदान की गयी है । इस प्रकार अन्य धर्मों से प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों की तुलना करते हुए वेबर ने यह बतलाया कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचार पूंजीवाद के विकास से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं ।
( 4 ) ऋण के लिए ब्याज के प्रति नवीन दृष्टिकोण ( New Attitudes towards Collection of Interest on Loans ) – – जहाँ कैथोलिक धर्म ऋण के ऊपर ब्याज लेना एक अपराध मानता है , वहीं प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचार धन से धन कमाने की अनुमति प्रदान करते हैं । सन् 1545 में जब काल्विन चर्च ने यह नारा दिया कि धन से धन कमाया जाना चाहिए , तभी से प्रोटेस्टेण्ट धर्म द्वारा ऋण पर लिये गये ब्याज को उचित माना जाना लगा । केवल इसी विचार के कारण प्रोटेस्टेण्ट धर्म को मानने वाले समाजों में पंजीवाद का विकास होना आरम्भ हो गया जबकि कैथोलिक धर्म के अनुयायी अपनी नैतिकता के कारण ऋण और ब्याज के लेन – देन से दूर रहे । वेबर के अनुसार अनेक दूसरे धर्मों में भी ऋण पर ब्याज को अनुचित माना जाता है । उदाहरण के लिए , इस्लाम धर्म के ग्रन्थ कुरान में लिखा है कि सूद लेना अपराध है । कुरान में सूद लेने वाले व्यक्ति को दण्ड देने की भी व्यवस्था है । वेबर का मत है कि जिन समाजों में धन से धन कमाने की प्रवृत्ति नहीं है , उन समाजों में मुक्त रूप से ऋण लेने तथा देने का प्रचलन नहीं बढ़ पाता । इसके फल स्वरूप ऐसे समाजों में व्यवसायों तथा उद्योगों की भी अधिक स्थापना नहीं हो पाती । प्रोटेस्टेण्ट धर्म ने ऋण तथा ब्याज के प्रति अधिक उदारवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जिसके फलस्वरूप इससे प्रभावित समाजों में पूंजी का महत्त्व बढ़ने लगा ।
( 5 ) नशे पर प्रतिबन्ध ( Strictures on Alcohalism ) – प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचार अपने अनुयायियों पर नशा करने पर प्रतिबन्ध लगाते हैं । वेबर ने नशे पर लगाये जाने वाले इस प्रतिबन्ध को पूंजीवाद के विकास का एक महत्त्वपूर्ण कारण स्वीकार किया है । ऐसा इसलिए है कि शराब न पीने वाले व्यक्ति ही बड़ी – बड़ी मशीनों के बीच अधिक कुशलतापूर्वक कार्य कर सकते हैं । वेबर ने बतलाया कि कैथोलिक धर्म में नशे के प्रति इस तरह का कोई प्रतिबन्ध नहीं है जिसके फलस्वरूप
इसके अनुयायियों में कार्य के प्रति अधिक उत्साह नहीं पाया जाता । दूसरी ओर प्रोटेस्टण्ट धर्म के अनुयायियों ने मद्यनिषेध का एक व्यापक आन्दोलन चलाकर न केवल अपने आलस्य को कम कर लिया बल्कि कार्य के प्रति अपनी कुशलता तथा उत्साह में भी वृद्धि की । इस प्रकार प्रोटेस्टेण्ट धर्म का यह आचार भी पूंजीवाद के विकास में सहायक सिद्ध हुआ ।
( 6 ) साक्षरता तथा सीखने को प्रोत्साहन ( Encouragement to Literacy and Learning ) – – प्रोटेस्टेण्ट धर्म का एक प्रमुख आचार यह है कि उसके प्रत्येक अनुयायी को बाइबिल पढ़ने के लिए किसी पुरोहित अथवा पादरी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए बल्कि इस पवित्र ग्रन्थ को स्वयं पढ़ना चाहिए । वेबर का कथन है कि इस आचार के कारण प्रोटेस्टेण्ट धर्म के अनुयायियों में पढ़ने और सीखने की प्रवृत्ति बढ़ी तथा इसी के फलस्वरूप प्रोटेस्टेण्ट धर्म के अनुयायियों में साक्षरता तथा शिक्षा की दर बढ़ सकी । वेबर के साथ अनेक दूसरे समाजशास्त्रियों ने यह भी स्पष्ट किया है कि शिक्षा की दर में होने वाली वृद्धि का सामाजिक विकास से एक सीधा सम्बन्ध है । वास्तविकता यह है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था जिन तर्कप्रधान सम्बन्धों पर आधारित है , उनका विकास शिक्षा के बिना नहीं हो सकता । इस दृष्टिकोण से प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचार पुनः पूंजीवाद में सहायक प्रतीत होते हैं ।
( 7 ) अवकाश का बहिष्कार ( Rejection of Holidays ) – वेबर ने बत लाया कि कार्य के प्रति प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचार अधिक अवकाश के पक्ष में नहीं हैं । इसके फलस्वरूप इस धर्म के अनुयायी ईश्वर को सम्मान देने के लिए अधिक से अधिक कार्य करना पसन्द करते हैं । वे कर्मकाण्डों और उत्सवों के कारण अधिक अवकाश लेने में विश्वास नहीं रखते । इसके साथ ही इस धर्म में उन कर्मकाण्डों तथा उत्सवों की संख्या भी अधिक नहीं है जिनके कारण इसके अनुयायियों को अपने कार्य से अवकाश लेना पड़े । वेबर ने इस सम्बन्ध में कैथोलिक , इस्लाम , बौद्ध तथा हिन्दू धर्म की चर्चा करते हुए बतलाया कि इन धर्मों में कर्मकाण्डों की संख्या अधिक होने के कारण सामाजिक रूप से भी लोगों को अधिक अवकाश लेने की स्वीकृति दी जाती है । दूसरी और प्रोटेस्टेण्ट धर्म के मानने वाले लोग कम अवकाश लेने के कारण अधिक धन उपामित करने में सफल हो जाते हैं । यह दशा भी पंजीवाद के विकाम में सहयोग करती है ।
( 8 ) प्रोटेस्टेण्ट वैराग्य ( Protestant Asceticism ) – – वैराग्य की अवधारणा संसार के सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में अवश्य पायी जाती है लेकिन प्रोटेस्टेण्ट धर्म में वैराग्य की प्रकृति अन्य धर्मों में वैराग्य के रूप से बिलकुल भिन्न है । संसार के विभिन्न धर्मों में वैराग्य का सम्बन्ध जहाँ सांसारिक दायित्वों से विमुख हो जाना अथवा एक सक्रिय जीवन को छोड़ देना है वहीं प्रोटेस्टण्ट धर्म एक ऐसे वैराग्य का प्रधानता देता है जिसमें व्यक्ति धन लो उपाजित करता है लेकिन उसके संचय स ।वैराग्य ले लेता है । इसका तात्पर्य है कि प्रोटेस्टेण्ट वैराग्य धन को संचित करने के स्थान पर उसका अधिक से अधिक उपयोग करने पर बल देता है । यह धर्म जीवन को नश्वर और गलतियों से युक्त मानता है । इसलिए प्रोटेस्टेण्ट आचार यह है कि जय तक जीवन है तब तक अधिक से अधिक श्रम करके धन उपार्जित करना चाहिए और अधिक से अधिक आनन्द प्राप्त करने के लिए धन का उपभोग करना चाहिए । इसका तात्पर्य है कि प्रोटेस्टेण्ट वैराग्य ने व्यक्तियों की सुविधा से सम्बन्धित बस्तुओं के उत्पादन को बढ़ाने में विशेष योगदान दिया । वेबर का कथन है कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म का यह आचार बहुत बड़ी बीमा तक पूंजीवाद के सार के समकक्ष है ।
कारण तथा परिणाम पर विचार
( Consideration of Cause and Effect )
पूंजीवाद की विशेषताओं तथा प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों के बीच पायी जाने वाली उपर्युक्त समानताओं को स्पष्ट करने के बाद वेबर ने इस प्रश्न पर विचार किया कि इन दोनों में कौन कारण है तथा कौन परिणाम ? वेबर ने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि धार्मिक आचारों के प्रभाव से ही कुछ समाजों में आर्थिक जीवन तर्कपूर्ण बना जबकि कुछ समाजों में आर्थिक जीवन में ताकिकता का स्थान बहुत गौण रह गया । इस सम्बन्ध में यह भी कहा जा सकता है कि स्वयं पूंजीवाद की विशेषताएँ भी प्रोटेस्टेण्ट आचारों के विकास का कारण हो सकती हैं लेकिन ऐसा निष्कर्ष इसलिए सही नहीं है कि जिन समाजों में प्रोटेस्टेण्ट धर्माचार अथवा इससे मिलते – जुलते धर्माचार विकसित नहीं हुए , वहाँ पूंजीवादी प्रणाली के आधार पर आर्थिक विकास आरम्भ हो जाने के बाद भी वह कुछ समय बाद रुक गया । इसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि धर्म के आचार कारण हैं जबकि पूंजीवाद का विकास उसका परिणाम है । वेबर ने यह स्पष्ट किया कि पूंजीवाद वे विकास पर प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों का प्रभाव किस सीमा तक पड़ा है , इसे निश्चित नहीं किया जा सकता लेकिन एक कारण के रूप में इसे तब तक मान्यता दी जा सकती है जब तक पूंजी वाद के विकास का कोई दूसरा सुदृढ़ आधार न खोज लिया जाय ।
प्रोटेस्टेण्ट आचार तथा पूंजीवाद के विकास के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए वेबर ने बतलाया कि संसार के सभी धर्मों का विकास कुछ विशेष विचारों के सन्दर्भ में हुआ है । सच तो यह है कि जनसाधारण की मनोवृत्तियों तथा व्यवहार के ढंगों को प्रभावित करने में वहाँ के पुरोहितों और धर्माचायों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है । पुरोहित वर्ग अपने धर्म के आचारों के आधार पर ही जन सामान्य के जीवन को प्रभावित करता है । अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए वेबर ने संसार के सभी बड़े धर्मों का उदाहरण लेकर यह दिखलाया कि किस प्रकार इन धर्मों के आचारों ने वहाँ की आर्थिक व्यवस्था को प्रभावित किया है । उदाहरण के लिए , हिन्दू धर्म तथा बौद्ध धर्म ने पारलौकिक मोक्ष तथा संसार परित्याग की अवधारणा को प्रोत्साहन दिया जिसका स्पष्ट प्रभाव कृषि पर आ रित एक सरल अर्थ – व्यवस्था के रूप में देखने को मिलता है । प्रारम्भिक मत भी अलौकिक आचारों पर जोर देने के कारण उन प्रेरणाओं को विकसित नहीं कर सका जो पूंजीवाद के विकास के लिए आवश्यक हैं । इसी तरह बेबीलोन से यहदियों को निकाल देने के बाद जूडा धर्म भी निम्न श्रेणी के व्यक्तियों का धर्म रह गया । 31 इसके फलस्वरूप इसने परम्परावाद पर अधिक जोर दिया , न कि व्यवसाय सम्बन्धी दायित्वों पर । इस आधार पर वेबर ने स्पष्ट किया कि समाज में साधारण लोग अपनी सांसारिक आवश्यकताओं और आकांक्षओं को पूरा करने के लिए ही धर्म से प्रभावित होते हैं । वे धर्म से इसलिए प्रभावित नहीं होते कि किन्हीं बड़े धार्मिक सिद्धान्तों से उनका कोई लगाव होता है । प्रोटेस्टेण्ट तथा कैथोलिक धर्म के आचारों की भिन्नता तथा उनके विभिन्न प्रभावों की सहायता से भी पूंजीवाद के विकास में धार्मिक आचारों के योगदान को समझा जा सकता है । कैथोलिक धर्म के आचार मेहनत के जीवन को ईश्वर द्वारा दिया गया दण्ड मानते हैं । यह आचार धन के संग्रह तथा सांसारिक समृद्धि को मान्यता नहीं देते । इनमें सांसारिक जीवन की अपेक्षा पारलौकिक जीवन पर अधिक बल दिया गया है ।
साथ ही कैथोलिक धर्माचार एक ऐसे जीवन – चक्र में विश्वास करते हैं जिसमें पाप करने , उसका प्रायश्चित करने , उससे मुक्ति पाने तथा पुनः नए पाप करने के चक्र का विधान है । 32 यह सभी धर्माचार वे हैं जो पूंजीवाद की विशेषताओं के अनुकूल नहीं हैं । यही कारण है कि इटली , स्पेन तथा बेबीलोन जैसे देशों में , जहाँ कैथोलिक धर्माचार अधिक प्रभावपूर्ण हैं , वहाँ पूंजीवाद का अधिक विकास नहीं हो सका । इसके विपरीत , इंग्लण्ड , अमरीका तथा योरोप के उन देशों में जहाँ प्रोटेस्टेण्ट धर्म का प्रभाव अधिक है वहाँ पूंजीवाद का विकास भी सबसे अधिक हुआ । इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचार ही वे कारण हैं – जिन्होंने अपने मानने वालों की मनोवृत्तियों को एक विशेष ढंग से प्रभावित करके ” पूंजीवाद के विकास में योगदान किया । इस तरह धार्मिक आचारों तथा पूंजीवाद के सम्बन्ध को स्पष्ट करते हए वेबर ने यह निष्कर्ष दिया कि ” इतिहास की घटनाओं के कारणों की खोज करने में मेरा उद्देश्य आर्थिक कारकों के स्थान पर पूरी तरह धार्मिक कारकों को स्थापित कर देना नहीं है । यह भी सम्भव है कि आर्थिक कारक ही धार्मिक आचारों को प्रभावित करते हों । लेकिन इनमें से किसी भी एक को ‘ कारण ‘ और दूसरे को ‘ परिणाम ‘ मानने से पहले ऐतिहासिक और तुलनात्मक आधार पर विभिन्न समाजों का अध्ययन कर लेना अनिवार्य है । ” यदि इस दृष्टिकोण से विचार किया जाये तो निश्चय ही धार्मिक आचारों को पूंजीवाद के विकास का कारण माना जा सकता है ।
समालोचना ( Critical Appraisal ) – धर्म के समाजशास्त्र की विवेचना में वेबर की प्रमुख रुचि यह स्पष्ट करने में रही कि संसार के विभिन्न धर्मों के आचारों का आर्थिक क्रियाओं पर क्या प्रभाव पड़ा । इसके लिए वेबर ने केवल धार्मिक आचारों तथा आर्थिक व्यवहारों के सह – सम्बन्ध को ही स्पष्ट नहीं किया बस्कि सामाजिक संस्तरण पर भी धार्मिक विचारों के प्रभाव को स्पष्ट करने का प्रथल किया । उन्होंने यह बतलाया कि किस प्रकार प्रोटेस्टेण्ट धर्म के उपदेशकों , कन्फ्यूशियस विद्वानों , हिन्दू ब्राह्मणों तथा यहदी लेवी और पैगम्बरों की अपनी – अपनी एक अलग जीवन – शैली थी तथा किस प्रकार उन्होंने अपने धार्मिक आचारों के द्वारा सामाजिक संस्तरण तथा आर्थिक क्रियाओं को एक विशेष रूप देने का प्रयत्न किया । इस सम्पूर्ण विवेचना के द्वारा वेबर ने मार्क्स से असहमत होते हुए धार्मिक आचारों की भिन्नता को ही विभिन्न समाजों में पायी जाने वाली आर्थिक व्यवस्थाओं की भिन्नता का कारण मान लिया । इसके बाद भी अनेक विद्वानों ने वेबर की धर्म सम्बन्धी विवेचना से असहमति व्यक्ति की है । सॉरोकिन ने लिखा है कि वेबर ने पूँजीवाद के विकास पर धार्मिक आचारों के प्रभाव को स्पष्ट करने के लिए धर्म की जिस ढंग से विवेचना की है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनका विश्लेषण धर्म के समाजशास्त्र से सम्बन्धित न होकर संस्कृति के विश्लेषण से अधिक सम्बन्धित है । कुछ दूसरे आलोचक यह मानते हैं कि वेबर की व्याख्या से ऐसा प्रतीत होने लगता है कि पूंजीवाद की उत्पत्ति ही प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों के कारण हुई । * वेबर ने यद्यपि इस आलोचना का खण्डन यह कहकर किया है कि उनका उद्देश्य पूंजीवाद की उत्पत्ति को स्पष्ट करना न होकर पूंजीवाद के विकास के एक प्रमुख कारण को दंढना रहा है , लेकिन इन दोनों दशाओं को एक – दूसरे से पृथक् कर सकना बहुत कठिन है । प्रोफेसर बेन्डिक्स ने कुछ आलोचकों का सन्दर्भ देते हुए कहा है कि धर्म के समाजशास्त्र की व्याख्या में वेबर ने अनेक स्थानों पर पूर्वाग्रहों से युक्त विचार दिए हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न धमों के आचारों का अध्ययन करते समय वेबर केवल उन्हीं धर्माचारों को प्रकाश में लाना चाहते थे जो उनकी परिकल्पना को प्रमाणित कर सकें ।
साथ ही , वेबर ने धार्मिक आचारों की विवेचना में तो ऐति हासिक काल से लेकर वर्तमान सुधार आन्दोलनों तक की चर्चा की है लेकिन भारत , चीन तथा इजरायल में अतीत की उन आर्थिक उपलब्धियों को स्पष्ट नहीं किया जो वेवर की अवधारणा के अनुरूप एक विकसित ताकिकता पर आधारित थीं । यह भ सच है कि पश्चिम में पूजीवाद का विकास केवल प्रोटेस्टेण्ट आचारों का ही परिणाम नहीं था बल्कि यह पश्चिम की सांस्कृतिक विरासत से भी सम्बन्धित रहा है । कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि वेबर के विवेचन में वैज्ञानिकता की अपेक्षा अर्थ तात्विकता को अधिक महत्त्व दिया गया है । इन समस्त आलोचनाओं के बाद भी यह कहा जा सकता है कि वेबर ने एक विकसित पद्धतिशास्त्र तथा गहन अन्तदष्टि के द्वारा आर्थिक सम्बन्धों की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न धर्मों के आचारों के प्रभाव को जिस रूप में स्पष्ट किया , वह धर्म के समाजशास्त्र में निश्चय ही वेबर का एक महत्त्वपूर्ण योगदान है । वेबर का सम्पूर्ण विवेचन ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक पद्धतियों के उपयोग पर आधारित रहा जिसके फलस्वरूप उनके विचारों की सरलता से आलोचना कर सकना सम्भव नहीं है ।