प्रत्यक्षवादी कार्य – पद्धति
( Positive Methodology )
फ्रांस में दुर्थीम को कॉम्ट के प्रमुख उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता दी जाती है । इस दृष्टिकोण से दुर्शीम ने आरम्भ से ही इस बात पर विशेष बल देना आरम्भ किया कि भौतिक विज्ञानों के समान ही समाजशास्त्र को भी एक वैज्ञानिक स्वरूप मिलना आवश्यक है । यह कार्य तब तक नहीं हो सकता जब तक कुछ विशेष नियमों का पालन करते हुए सामाजिक तथ्यों का अध्ययन न किया जाय । दुर्थीम की यह दृढ़ मान्यता थी कि समाजशास्त्र की अध्ययन – वस्तु सामाजिक तथ्य ही हो सकते हैं । इन सामाजिक तथ्यों का वैज्ञानिक विधि से अध्ययन करके ही समाजशास्त्र की प्रकृति को वैज्ञानिक बनाया जा सकता है । इस सम्बन्ध में सबसे प्रमुख समस्या यह थी कि वे कौन से नियम हैं जिनके आधार पर समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए एक वैज्ञानिक पद्धति को विकसित किया जा सकता है । इसी कठिनाई को दूर करने के लिए दुर्वीम ने अपनी पुस्तक ‘ समाजशास्त्रीय पद्धति के नियम ‘ ( The Rule of Sociological Method ) के दूसरे अध्याय में कुछ विशेष नियमों को प्रस्तुत किया । या दुर्थीम की ‘ प्रत्यक्षवादी कार्य – पद्धति ‘ ( Positive methodology ) कहा जाता है । दुर्थीम ने बताया कि समाजशास्त्र के अध्येताओं द्वारा किये जाने वाले शोध – कार्य अनिवार्य रूप से इन नियमों को ध्यान में रखकर किये जाने चाहिए । संक्षेप में दुर्थीम द्वारा प्रस्तुत यह नियम इस प्रकार हैं :
1 . सामाजिक तथ्यों पर वस्तु के रूप में विचार किया जाय ( Social Facts be Considered as Things ) दुर्थीम ने बतलाया कि समाजशास्त्र में हम सामाजिक तथ्यों का अध्ययन करते हैं लेकिन सामाजिक घटनाएँ समाज में इतने अव्यवस्थित रूप में विद्यमान होती हैं कि इन घटनाओं के आधार पर सामाजिक तथ्यों का विश्लेषण करने में विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है । साधारणतता जब हम कोई समाजशास्त्रीय अध्ययन करते हैं तो हम अपने विचारों तथा भावनाओं के आधार पर ही सामाजिक घटनाओं के बीच एक विशेष सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं । यह पद्धति बहुत त्रुटिपूर्ण है । सामाजिक घटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन तभी किया जा सकता है जब हम सामाजिक तथ्यों को ठीक उसी प्रकार एक वस्तु के रूप में देखें जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञानों में प्राकृतिक तथ्यों को उनके वस्तुनिष्ठ रूप में देखा जाता है । इसका तात्पर्य है कि हम सामाजिक तथ्य को केवल एक ‘ विचार ‘ अथवा ‘ अवधारणा ‘ के रूप में न मानकर एक ऐसी ‘ वस्तु ‘ के रूप में देखें जिसका बाहरी रूप से अवलोकन किया जा सकता हो तथा इसी अवलोकन के आधार परे उसकी व्याख्या एवं तलना की जा सकती हो । वास्तव में एक वस्तु केवल वही होती है जिसे निरीक्षण और प्रयोग के द्वारा हम वास्तविक रूप से समझ सकें तथा उससे सम्बधित आँकड़े प्राप्त कर सकें । किसी वस्तु को हम अपने अनुमान या किसी पूर्व धारणा के आधार पर स्पष्ट नहीं कर सकते । दुर्थीम ने अपने पूर्ववर्ती विचारकों की आलोचना करते हुए कहा कि ऐसे सभी विचारकों ने सामाजिक तथ्यों का विश्लेषण केवल वैचारिक आधार पर प्रस्तुत किया है जबकि उन्हें यथार्यता से सम्बन्धित वैज्ञानिक विश्लेषण करना चाहिए था । इस सम्बन्ध में बीरस्टीड ने भी यह लिखा है कि ” दुर्थीम के समय तक समाज शास्त्रीय विश्लेषण यथार्थ अवलोकन की अपेक्षा अवधारणाओं के विवेचन से अधिक सम्बन्धित था । ” दुर्वीम ने यह स्वीकार किया कि सामाजिक तथ्य , भौतिक तथ्यों की तरह पूर्णतया मूर्त नहीं होते लेकिन इससे सामाजिक तथ्यों का वैज्ञानिक अध्ययन करने में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती । उन्होंने श्रम – विभाजन तथा आत्महत्या से सम्बन्धित अध्ययन करके अपने इस कथन को प्रमाणित कर दिया कि सामाजिक तथ्यों का वस्तु के रूप में अध्ययन करके कहीं अधिक सही आँकड़े एकत्रित किए जा – सकते हैं ।
प्रवधारणाओं का उन्मूलन किया जाय ( Preconceptions be Eradicated ) सामाजिक तथ्यों का वस्तुनिष्ठ अध्ययन करने के लिए यह आवश्यक है किअध्ययनकर्ता किसी पूर्व – धारणा से प्रभावित न हो । दुर्थीम का कथन है कि पूर्व धारणाएं किसी भी अध्ययनकर्ता के मस्तिष्क में भ्रम उत्पन्न करती हैं । साधारणतया किसी घटना को देखते या समझते हैं तो अतीत में दिए गये उनसे सम्बन्धित विचारों अथवा मान्यताओं के आधार पर ही हम उनके बारे में एक विशेष धारणा बना लेते हैं । ऐसी सभी पूर्व – धारणाएं अध्ययन की वैज्ञानिकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है । उदाहरण के लिए , दुर्थीम ने बताया कि शताब्दियों पहले कापरनिक्स ने ग्रहों के सम्बन्ध में कुछ मान्यताएं प्रस्तुत की थी लेकिन आज भी अनेक लेखक उन्हीं अवैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत कर देते हैं । दुर्शीम ने बताया कि पुराने विचारों में से अनेक विचार अत्यधिक गलत तथा खतरनाक होते हैं । इनके आधार पर कोई विशेष अध्ययन करके सत्य को खोजना सम्भव नहीं हो पाता । दुर्थीम के शब्दों में , ” यह पूर्व – धारणाएं वस्तुओं ( अर्थात् सामाजिक तथ्यों ) तथा अध्ययनकर्ता के बीच में एक ऐसे पर्दे का कार्य करती हैं जिसे अक्सर पारदर्शी समझ लिया जाता है लेकिन यह हमसे यथार्य को छिपा लेता है । ” इस आधार पर समाजशास्त्रियों के लिए यह आवश्यक है कि किसी सामाजिक तथ्य को उसी रूप में देखा जाय जैसा कि वह वास्तव में है । दुर्थीम ने लिखा है , समाजशास्त्री को या तो अनुसन्धान के लिए उन अवधारणाओं का परित्याग कर देना चाहिए जो पूर्णतः अवैज्ञानिक आवश्यकताओं के लिए पैदा हुई हैं , अन्यथा उसे उन झूठे विचारों से बचने का प्रयल करना चाहिए जो मस्तिष्क में भ्रम पैदा करती हैं । “
3 . भावनाओं का उन्मूलन ( Eradication of Sentiments ) दुर्थीम का मत है कि प्रत्येक समाज में पायी जाने वाली धार्मिक मान्यताएं , नैतिक मूल्य तथा अनेक दूसरे प्रकार की धारणाएँ व्यक्ति के चेतन और अचेतन मस्तिष्क में समायी रहती हैं । इनका व्यक्ति से एक भावनात्मक सम्बन्ध होता है । एक समाजशास्त्री के लिए यह आवश्यक है कि सामाजिक तथ्यों का अध्ययन करते समय ऐसी सभी भावनाओं को तथ्यों के विश्लेषण से पृथक् कर दिया जाय । ऐसा इसलिए है कि भावनाओं का हस्तक्षेप प्रायः सत्य की खोज में बाधक होता है । इसका तात्पर्य है कि जब हम भावनात्मक आधार पर किसी ‘ वस्तु ‘ के विषय में विचार करते हैं तो यह भावनात्मक विचार हम पर सत्य के विरोध में दबाव डालने लगते हैं । वास्तव में यथार्थ विश्लेषण और भावनात्मक विचार एक – दूसरे के विरोधी होते हैं । उदाहरण के लिए , यदि शोव के द्वारा कोई ऐसा निष्कर्ष निकल रहा हो जो व्यक्ति की राष्ट्रवादी भावना के विपरीत हो तो भावनात्मक धरातल पर शोधकर्ता उसके दबाव के कारण यथार्थ तथ्य की अवहेलना कर सकता है । इसी कारण दुर्थीम ने इस नियम पर बल दिया कि सामाजिक तथ्यों का अध्ययन करते समय शोधकर्ता को अपनी भावनाओं से अलग रहना चाहिए । दुर्थीम का मत है कि एक समाजविज्ञानी भावनाओं का अध्ययन तो कर सकता है किन्तु भावनात्मक आधार पर सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता । दुमि के शब्दों में , ” भावना वैज्ञानिक अध्ययन का विषय हो सकता है लेकिन यह वैज्ञानिक सत्य का मापदण्ड नहीं है । ” इस प्रकार सामाजिक तथ्यों का वास्तविक अवलोकन तभी किया जा सकता है जब अध्ययनकत्ता द्वारा सामाजिक तथ्यों को भावनाओं से अलग रखा जाय ।
4 . बाह्य विशेषताओं की परिभाषा करना ( Defining of External Features ) दुखीम का विचार है कि अध्ययनकर्ता द्वारा सामाजिक तथ्यों का अवलोकन करने से उसे जिन विशेषताओं का बोध हो उन्हें स्पष्ट रूप से परिभाषित कर लिया जाये । विभिन्न वस्तुओं की परिभाषा किन्हीं विशेष विचारों के आधार पर नहीं बल्कि उन वस्तुओं में निहित गुणों के आधार पर होनी चाहिए । दूसरे शब्दों में , सामाजिक तथ्यों की बाह्य विशेषताओं के सामान्य रूप को ध्यान में रखते हुए ही उन्हें परिभाषित करना आवश्यक है । बाह्य विशेषताओं का तात्पर्य उन विशेषताओं से है जिन्हें अवलोकन के द्वारा सामान्य रूप में समझा जा सके । दुर्थीम यह भी मानते हैं कि किसी वस्तु का जब तक पूरी तरह विश्लेषण न हो चुका हो , तब तक उन्हीं विशेष ताओं को स्वीकार कर लेना उचित है जो वस्तु का अवलोकन करने पर पहली बार में ही स्पष्ट रूप से दिखलाई देती हैं । 15 उदाहरण के लिए , यदि किसी अध्ययन में हम एकीकरण , विघटन , सम्पत्ति तथा अपराध से सम्बन्धित तथ्यों का उपयोग करते हैं तो इन सभी की बाह्य विशेषताओं को परिभाषित करना आवश्यक है । केवल इसी के द्वारा हम अध्ययन के क्षेत्र का निर्धारण कर सकते हैं तथा अध्ययन को वैज्ञानिक रूप दे सकते हैं ।
5 . सामाजिक तथ्य व्यक्तिगत तथ्यों से स्वतन्त्र हों ( Social Fact be Indepen – dent of Individual Facts ) दुर्थीम ने यह स्पष्ट किया कि वैज्ञानिक अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि सामाजिक तथ्यों का अध्ययन उन्हें व्यक्तिगत तथ्यों से पृथक रखकर स्वतन्त्र रूप से किया जाय । दीम के शब्दों में , “ सामाजिक तथ्यों के बारे में हमें यह सिद्धान्त स्थापित कर लेना चाहिए कि सामाजिक तथ्य जितना अधिक व्यक्तिगत तथ्यों से पृथक होंगे , वे उतना ही अधिक उद्देश्यपूर्ण प्रतिनिधित्व कर सकेंगे । इसे अधिक स्पष्ट करते हुए कहा जा सकता है कि सामाजिक अध्ययनकर्ता के लिए आवश्यक है
कि वह अपने व्यक्तिगत जीवन को सामाजिक जीवन से अलग करके देखें । समाज में अनेक ऐसे सामाजिक प्रवाह पाये जाते हैं जिनके द्वारा समाज में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । अपनी व्यक्तिगत सीमाओं के कारण व्यक्ति अक्सर सामाजिक प्रवाह के रूप में विद्यमान रहने वाले इन तथ्यों को नहीं देख पाता । इस स्थिति में सामाजिक तथ्यों द्वारा किसी विशेष व्यक्ति पर पड़ने वाले प्रभावों पर ध्यान न देकर उनका स्वतन्त्र रूप से अध्ययन किया जाना आवश्यक है । दुखीम के शब्दों में , ” जब समाजशास्त्री कुछ सामाजिक तथ्यों के क्रम का अन्वेषण करने का प्रयत्न करता है तो उसे उनके व्यक्तिगत प्रगटीकरणों से स्वतन्त्र दृष्टिकोण अपनाकर उनका अध्ययन करने का प्रयत्न करना चाहिए । सामाजिक एकता तथा उसके विभिन्न प्रकारों का अध्ययन करने के लिए दुर्थीम ने अध्ययन के इसी नियम का विशेष ध्यान रखा । वैज्ञानिक पद्धति से सामाजिक तथ्यों का अवलोकन करने के लिए दुखीम इस नियम को आवश्यक मानते हुए कहते हैं कि एक पद्धतिशास्त्रीय अध्ययन के लिए रेत पर आधार बनाने की अपेक्षा ठोस भूमि पर आधार बनाना आवश्यक है । इसका तात्पर्य है कि सामाजिक जीवन के उसी पक्ष को अधिक महत्त्व देना आवश्यक है जिसकी सहायता से अध्ययन की वैज्ञानिकता बनी रहे । यह पक्ष सामाजिक तथ्यों का स्वतन्त्र रूप से अध्ययन करना ही हो सकता है ।
6 . तथ्यों का वर्गीकरण ( Classification of Facts ) दुर्थीम के अनुसार वैज्ञानिक पद्धति के लिए यह आवश्यक है कि किसी विशेष अध्ययन से सम्बन्धित जो भी तथ्य प्राप्त हों उनका समुचित ढंग से वर्गीकरण किया जाय । एक शोधकर्ता यदि बिखरे हुए बहुत से तथ्यों के आधार पर विभिन्न घटनाओं के बीच कोई तुलना करने का प्रयत्न करेगा तो वह किसी निश्चित निष्कर्ष तक नहीं पहुँच सकता । विभिन्न तथ्यों के बीच वैज्ञानिक ढंग से तुलना तभी की जा सकती है जब तथ्यों को विभिन्न वर्गों में विभाजित करके एक – एक वर्ग में समान प्रकृति के तथ्यों को संयोजित कर लिया जाय । ऐसा करने से सामाजिक तथ्यों का निरीक्षण करना तथा इनसे सम्बन्धित वस्तुनिष्ठ निष्कर्ष लेना सरल हो जाता है ।
7 . कारण तथा प्रकार्य की खोज ( Search of Cause aud Function ) प्रत्येक सामाजिक घटना का जहाँ एक अथवा अनेक कारण होते हैं वहा प्रत्येक घटना के कुछ प्रकार्य भी होते हैं । वैज्ञानिक अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि जब हम किसी सामाजिक घटना की व्याख्या करें तो उससे सम्बन्धित कारणा की खोज करने के साथ ही एक विशेष घटना अथवा सामाजिक तथ्यों के प्रकार्यों का भी इंदने का प्रयन किया जाय । इसी की सहायता से हम अतीत और वर्तमान के ीच एक स्पष्ट तुलना कर सकते हैं । दुीम के अनुसार इस कार्य में ऐतिहासिक तथा प्रयोगात्मक पद्धति अधिक उपयुक्त नहीं हो सकती । सामाजिक घटनाओं के कार्य – कारण सम्बन्ध को तुलनात्मक पद्धति की सहायता से ही प्रामाणित रूप दिया जा सकता है । इस दृष्टिकोण से सामाजिक घटनाओं के कारण एवं प्रकार्य की खोज के लिए दुीम ने तुलनात्मक पद्धति के उपयोग को आवश्यक माना है । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि कुछ निश्चित नियमों का पालन करने से ही सामाजिक तथ्यों का यथार्थ अवलोकन कर सकना सम्भव है । दुर्थीम का यह स्पष्ट मत है कि यह सभी नियम न केवल सामाजिक तथ्यों के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए आवश्यक हैं बल्कि इन्हीं की सहायता से सामाजिक अध्ययनों को अधिक यथार्थ बनाया जा सकता है ।