प्रजननता का अर्थ

प्रजननता का अर्थ एवं परिभाषा :

साधारणतः प्रजननता का अभिप्राय किसी स्त्री या उनके समूह के द्वारा किसी समयावधि में कुल सजीव जन्मे बच्चों की वास्तविक संख्या से है । प्रजननता की माप बच्चों की संख्या से होती है , अथवा एक दी हुई अवधि पर सजीव जन्मे बच्चों की बारबारता ही उर्वरता का माप है । इस शब्द की परिभाषा विभिन्न जनांकिकीवेत्ताओं ने भिन्न भिन्न ढंग से दी है । प्रमुख परिभाषाओं का आलोचनात्मक विश्लेषण निम्नवत् है : बर्नार्ड बेंजामिन ने कहा है कि प्रजननता उस दर का माप है जिसमें कोई जनसंख्या जन्म द्वारा जनसंख्या में वृद्धि करती है और सामान्यतया जनसंख्या के किसी वर्ग के विवाहित दपत्तियों की संख्या शिशु जनन क्षमता वाली आयु वर्ग की स्त्रियों की संख्या अर्थात् प्रजननता की क्षमता उपयुक्त मापदण्ड हो सकता है । ” जार्ज बादले के अनुसार , यथार्थ स्तर की क्रियाविधि है । प्रजननता जीवित जन्म की संख्या पर आधारित जनसंख्या की थाम्पसन और लेक्सि के शब्दों में साधारणतया प्रजननता का अभिप्राय किसी स्त्री या इनके समूह द्वारा किसी समयावधि में कुल संजीव उत्पन्न बच्चों की संख्या से लगाया जाता है । ” उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से आप जान पायेंगे कि उर्वरता की निम्नलिखित विशेषताएं है

  1. प्रजननता का संबंध जन्म की जीवन घटना से होता है ।

 प्रजननता का संबंध जनसंख्या के मात्र एक वर्ग से है ।

  1. यह वर्ग उस स्त्री जनसंख्या से संबद्ध हैं , जो प्रजनन योग्य आयु ( अर्थात् 15 से 49 वर्ष के मध्य ) के अंतर्गत है ।

  1. इसमें उत्पन्न बच्चों का सामूहिक अध्ययन किया जाता है ।

  1. प्रजननता के मापों में सजीव बच्चों को ध्यान में रखा जाता है । इसे यथार्थ सफलता का स्तर या जीवित प्रसवों की संख्या की संज्ञा भी दी जा सकती है ।

किसी एक समाज के भिन्न वर्गों की प्रजनन दरों में भिन्नता पाई जाती है । विकसित एवं अविकसित देशों की प्रजनन दरों में निश्चित प्रकार की प्रजनन – भिन्नतायें देखी गयी हैं । कुछ सामाजिक , आर्थिक , जाति – सम्बन्धी , धार्मिक तथा सांस्कृतिक समुदायों में प्रजनन दरों की परस्पर भिन्नताएँ राष्ट्रीय औसत जन्म दरों के कम या अधिक होने की प्रवृत्ति जनांकिकीय अनुसन्धानों के माध्यम से सामने आई है । परन्तु ऐसा क्यों होता है ? प्रजनन की वर्गीय भिन्नताओं के सामाजिक कारक क्या हो सकते हैं ? इस सम्बन्ध में कई मत तथा अनुसंधान उपलब्ध है ।

वस्तुतः प्रजनन की प्रक्रिया न केवल एक जैवकीय अपितु एक सामाजिक प्रक्रिया भी है । जनसंख्या सिद्धान्तों के अन्तर्गत हम इसे एक जैवकीय प्रक्रिया के रूप में पाते हैं जिसे सही अर्थ में जैवकीय निर्णायकवाद ( Biological Determinism ) की संज्ञा दी जा सकती है । जैवकीय निर्णायकवादी विचार पशु – पौधों पर भले ही क्रियाशील होते हुए दिखाई पड़े लेकिन मानव समाज के सन्दर्भ में इनकी पूर्णरूपेण क्रियाशीलता असम्भव दिखाई पड़ती है । इसका कारण मनुष्य की सांस्कृतिक उपलब्धि तथा इसका समाजीकृत व्यक्तित्व है । मानव व्यवहार पूर्णरूपेण जैवकीय न होकर उसकी संस्कृति के अनुरूप प्रतिमानित होता है । प्रजनन प्रक्रिया को जब हम जैविकीय प्रक्रिया के रूप में देखते हैं तो हमारा ध्यान सन्तानोत्पादन क्षमता पर केन्द्रित हो जाता है । सन्तानोत्पादन की क्षमता स्वयं आयु एवं लिंग जैसे अनेक महत्वपूर्ण तत्वों पर निर्भर करती है । इन विभिन्न तत्वों के सन्दर्भ में सन्तानोत्पादन क्षमता क्या सभी समाजों एवं उनके सदस्यों के सन्दर्भ में भिन्नता पाई जाती है । यह भिन्नता आयु तत्व से अत्यधिक प्रभावित होती है । प्रजनन प्रक्रिया का सम्बन्ध एक आयु विशेष की जनसंख्या से होता है जिसे सन्तानोत्पादन क्षमता सम्पन्न आयु ( 15 से 50 वर्ष ) की संज्ञा दी जाती है । इस आयु के विभिन्न चरणों पर भी

प्रजननशीलता की प्रवृत्ति सन्तानोत्पादन क्षमता भिन्न – भिन्न होती है । जैविकीय दृष्टिकोण से सन्तानोत्पादन क्षमता की भिन्नता ही प्रजनन भिन्नता का प्रमुख कारक है । प्रजनन प्रक्रिया को जब हम सामाजिक – सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखते हैं तो अनेक सांस्कृतिक कारक इसे प्रभावित करते हुए दिखाई पड़ते हैं । इन कारकों को निम्न प्रकार देखा जा सकता है

व्यवसाय ( Occupation ) — व्यावसायिक विभेदीकरण के सन्दर्भ में भी प्रजनन दर भिन्न – भिन्न पाई जाती है । शारीरिक श्रम करने वाले व्यक्तियों की प्रजनन दर मानसिक श्रम करने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक होती है । जो व्यक्ति व्यवसाय करते हैं , उनकी भी प्रजनन दर कम रहती है , क्योंकि वे जीवन में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें इस दिशा में सोचने का मौका ही नहीं मिलता । इसी प्रकार स्त्री – जनसंख्या के सन्दर्भ में भी रोजगार संलग्न स्त्रियों की प्रजनन दर निम्न पाई जाती है । इसका कारण यह है कि कार्य की दशाएँ एवं शर्ते प्रजनन व्यवहार पर भी प्रभाव डालती हैं तथा बच्चों की उपस्थिति कार्य से बाधक सिद्ध होती है ।

मृत्यु दर ( Mortality Rate )

 मृत्यु दर भी प्रजनन दर को प्रभावित करती है । जब बाल एवं शिशु दर अधिक होती है तो प्रजनन – दर अधिक होती है । कारण यह है कि मृत्यु दर अधिक होने से परिवार सीमित हो जाता है , लेकिन क्योंकि लोगों को पुत्र या पुत्री की लालसा बनी रहती है अतः जन्म – दर अधिक होती है । इसके विपरीत बाल मृत्यु दर कम होने पर लोगों को परिवार के सीमित होने की चिन्ता नहीं रहती , अतः प्रजनन दर भी कम हो जाती है । इस प्रकार कन्याओं तथा वृद्धों की मृत्यु के कारण भी प्रजनन दर कम होती है ।

 अन्य कारण ( Other Factors ) उपर्युक्त प्रभावकारी तत्वों के अलावा जो अन्य कारण प्रजनन दर को प्रभावित करते हैं , वे निम्नलिखित हैं ( i ) कहीं – कहीं आवास की समस्या , बेरोजगारी व असुरक्षा के कारण भी लोग परिवार नियोजन अपनाकर , प्रजनन दर को कम रखते हैं । ( ii ) गर्म देशों में उपलब्ध भोज्य सामग्री में ऐसे सभी तत्व विद्यमान रहते हैं जो काम प्रवृत्ति अधिक उत्पन्न करते हैं । इन देशों में लड़कियों का शारीरिक विकास कम आयु में ही हो जाता है तथा शीघ्र ही जनन – आयु प्राप्त हो जाने के कारण मातृत्व – काल बढ़ जाता है , इससे प्रति स्त्री प्रजनन संख्या भी बढ़ जाती है । इसके विपरीत शीत कटिबन्धीय प्रदेशों में लड़कियों को जनन की आयु देर से प्राप्त होती है तथा यहाँ का भोजन भी कामोत्तेजक नहीं होता । इससे इन प्रदेशों में प्रजनन दर कम होती है । ( iii ) विकसित देशों में परिवार नियोजन को क्योंकि हर वर्ग ने अपनाना प्रारम्भ कर दिया है , इससे प्रजनन दर में कमी हुई है ।

  वैवाहिक स्तर ( Marital Status ) –

 वैवाहिक स्तर प्रजनन दर को काफी हद तक प्रभावित करता है । प्रजनन दर में भिन्नता इस तथ्य पर निर्भर करेगी कि विभिन्न वर्गों के वैवाहिक स्तर में पुनरुत्पादन काल कितने वर्षों का था । अर्थात् मातृत्व काल कितने वर्षों का रहा । किसी संस्कृति में बाल विवाह तो कर दिया जाता है किन्तु लड़की अपनी जनन आयु ( अर्थात् वह आयु जिस पर लड़की को मासिक धर्म होने लगता है और वह सन्तानोत्पादन करने योग्य की जाती है ) पर देर में पहुँचती है तो विवाह के समय का प्रभाव प्रजनन दर पर कम ही पड़ेगा । इसी प्रकार जहाँ विवाह देर में होते हैं अर्थात् सामाजिक , आर्थिक व सांस्कृतिक परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि बिना विवाह के भी रहा जा सकता है , वहाँ प्रजनन दर कम होती है ।

 प्रजनन दर को कम व अधिक बनाने वाले तत्वों में रीति – रिवाजों को भी लिया जा सकता है , जैसे – जहाँ तलाक का प्रचलन है और पुनर्विवाह का नहीं , वहाँ प्रजनन दर कम होगी , क्योंकि तलाक के बाद प्रजनन की कोई सम्भावना नहीं रह जाती जिससे कुल सन्तानोत्पादन काल में भी कमी आ जाती है लेकिन इसके विपरीत जहाँ पुनर्विवाह , विधवा विवाह तथा बहुविवाह सम्भव है , वहाँ की प्रजनन दर अधिक होगी । अमेरिका में यह देखा गया है कि जहाँ पति पत्नी से 5 वर्ष या उससे अधिक बड़ा होता है । वहाँ प्रजनन – दर औसत से कम होती है , परन्तु जब पति पत्नी से छोटा होता है तो प्रजनन दर औसत से अधिक होती है । लंका में दो प्रकार की विवाह – पद्धतियाँ प्रचलित हैं— ( i ) दिगा और ( ii ) बीना । ‘ दिगा ‘ से स्त्री पति के घर चली जाती है तथा ‘ बीना ‘ में पति स्त्री के घर चला जाता है । देखा गया है कि ‘ दिगा ‘ की प्रजनन दर ‘ बीना ‘ से अधिक होती है । भारत में कम आयु में विवाह के कारण , बाद की आयु में लैंगिक दोष के उत्पन्न हो जाने के कारण प्रजनन दर कम होती देखी जाती है । फिर भारत में तलाक की अपेक्षा विलगाव ( पति का पत्नी से दूर रहना ) अधिक पाया जाता है जिसका कि प्रजनन दर पर प्रभाव पड़ता है । वस्तुतः सम्पूर्ण प्रजननता के निर्धारण में विवाह – आयु का महत्वपूर्ण स्थान है । प्राय : देखा जाता है कि निम्न प्रजनन दर वाले देशों में उच्च प्रजनन दर वाले देशों की अपेक्षा विवाह आमतौर से पाँच – छ : वर्ष देर से होता है । इसके अतिरिक्त बहुपतित्व तथा बहुपत्नित्व का भी प्रजनन दर पर प्रभाव पड़ता है । अफ्रीका में बहुपत्नित्व के कारण प्रजननता में ह्रास देखा गया है ।

 नगरीकरण ( Urbanization ) – ग्रामीण एवं नगरीय सन्दर्भ में किए गए सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है कि सामान्यतः गाँवों की अपेक्षा नगरों में प्रजनन दर कम पाई

अनुसन्धानों से ज्ञात होता है कि शिक्षा तथा प्रजननता में ऋणात्मक सह – सम्बन्ध है अर्थात् जैसे – जैसे शिक्षा का स्तर ऊँचा होता है , प्रजनन दर कम होती जाती है । इसके कई कारण हो सकते हैं , जैसे- शिक्षित स्त्रियाँ घर के कार्यों अलावा बाहर नौकरी आदि भी करती है , इसलिए अशिक्षित स्त्रियों की भाँति उन पर मातृत्व लादा नहीं जा सकता वरन् जब तक पति व पत्नी दोनों की इच्छा न हो , तब तक वे स्वेच्छा से परिवार नियोजन को अपनाए रहती है । इसी प्रकार शिक्षित स्त्रियाँ क्योंकि विवाह भी देर से करती हैं , इससे उनका मातृत्व काल छोटा हो जाता है । इसके अतिरिक्त जीवन की सबसे अधिक उत्पादक आयु तो शिक्षा में ही व्यतीत हो जाती है । आज की स्त्री , कम से कम , हर विकसित देश में स्वतन्त्र है तथा उसे सामाजिक व राजनीतिक अधिकार भी प्राप्त है । आज उसको पूँजीवादी व्यवस्था में कई विशिष्ट स्थान प्राप्त हैं । लेकिन इससे यह आशय नहीं है कि शिक्षित व आधुनिक स्त्री अपना प्राकृतिक जैविक कार्य ( बच्चे जनना ) छोड़ देती है । मातृत्व में भी आनन्द है और हर स्त्री उसे प्राप्त करना चाहती है । परन्तु वह केवल बच्चे पैदा करने की मशीन के रूप में नहीं रहना चाहती । इसी कारण विकसित देशों में या उन्नत समाज के लोगों में जन्म – दर कम रहती है ।

धर्म एवं सामाजिक रीति – रिवाज ( Religion and Social Customs ) –

धार्मिक मान्यताएँ एवं रीति – रिवाज भी प्रजनन दर को प्रभावित करते हैं । कैथोलिक ईसाईयों की प्रजनन दर प्रोटेस्टेण्ट्स तथा यहूदियों की अपेक्षा अधिक रही है । भारत में 15-49 वर्ष की 1000 की 1000 स्त्रियों के 0.4 वर्ष के बच्चों की संख्या हिन्दुओं मे 678 , मुसलमानों में 770 और आदिवासियों में 808 थी । पारसियों में भी जन्म दर कम पाई जाती है । स्पष्ट है कि धर्म का प्रजनन दर से भी सम्बन्ध है । वस्तुतः यह बात धर्म की व्यापक विचारधारा पर निर्भर करती है । फिर व्यक्ति अपने आपको सामाजिक नियमों के अनुकूल भी ढालता है । किसी – किसी समाज में व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखने की दृष्टि से भी बच्चे पैदा करता है । जिन धर्मों में बिना एक कन्या के माँ का मातृत्व सफल नहीं माना जाता , वहाँ निश्चित रूप से प्रजनन दर अधिक होगी । पश्चिम में पुत्र का पैदा होना ‘ परलोक सुधारने ‘ के लिए जरूरी नहीं है , अत : वहाँ बच्चों की समस्त आवश्यकताओं को सन्तुष्ट रखने की इच्छा से कम बच्चे ही उत्पन्न किए जाते हैं ।

प्रजननता एवं संतानोत्पादकता में अन्तर

 संतानोत्पादकता से आशय औरतों की बच्चों को जन्म देने की शक्ति से है , चाहे उसने बच्चों को जन्म दिया हो या न दिया हो , किंतु उर्वरता से आशय वास्तव में बच्चों को जन्म देने से है । अर्थात् समस्त औरतों को दो भागों में बांटा जा सकता है । वे औरतें जिनमें संतानोत्पादन शक्ति है , उन्हें संतानोत्पादक कहा जाता है तथा वे औरतें जिनमें संतानोत्पादन की शक्ति ही न हो , उन्हें गैर – संतानोत्पादक कहा जाएगा । संतानोत्पादन शक्ति से युक्त औरतें मे ही सर्वरता हो सकती है । संतानोत्पादक औरतों में से जो औरतें विवाह करती है तथा जिनके विवाह के उपरांत बच्चे हो जाते है , उन्ही में उर्वरता होती है । अतः वे सब औरतें जिनमें उर्वरता होती है , उनमें संतानोत्पादकता भी होती है , किन्तु सभी संतानोत्पादक औरतों में उर्वरता होना अनिवार्य नहीं है । उर्वरता के लिए उनका विवाह होना आवश्यक है ।

 प्रजननता को प्रभावित करने वाले तत्व या घटक

 प्रजननता को प्रभावित करने वाले अनेक तत्व हैं । लुई हैनरी ने उर्वरता को प्रभावित करने वाले तत्वों का अध्ययन करने के उद्देश्य से उर्वरता को दो भागों में विभाजित किया है ।

 ( i ) स्वाभाविक प्रजननता ,

( ii ) नियंत्रित प्रजननता

 ( i ) स्वाभाविक प्रजननता यह एक ऐसी उर्वरता है , जिसमें व्यक्ति अपने परिवार का आकार नियंत्रण करने के लिए सजग नहीं है । वे बच्चों की संख्या के प्रति बिल्कुल चिंतित नहीं है । बच्चों की संख्या सहवास की बारंबारता एवं शारीरिक क्षमता पर निर्भर करती है । अतः ऐसे समाज में उर्वरता को प्रभावित करने वाले घटक मात्र जैविकीय या शारीरिक ( Physiological ) होते हैं ।

( ii ) नियंत्रित प्रजननता यह इस प्रकार की प्रजननता है जिसके अंतर्गत लोग परिवार नियोजन के आदर्श को स्वीकार करते हैं । इस प्रकार का समाज परिवार नियोजन के विभिन्न उपायों का प्रभावपूर्ण ढंग से प्रयोग करता है । ऐसे अतिरिक्त व्यावहारिक तत्वों का भी समावेश किया जाता है ।. समाज में शारीरिक तत्वों के उर्वरता एक सामाजिक विषय भी है द विशुद्ध वैयक्तिक विषय भी । अतः उर्वरता को प्रभावित करने वाले घटकों का वर्गीकरण अलग – अलग किया है । कुछ प्रमुख वर्गीकरण निम्नलिखित हैं

  1. प्रो . नाग का वर्गीकारण 2. प्रो . डोनाल्ड जे . बोग का वर्गीकारण 3. प्रो . किंग्सले डेविस एवं ज्यूडिथ ब्लैक का वर्गीकरण

1 प्रो . नाग का वर्गीकरण प्रो . नाग ने उर्वरता को प्रभावित करने वाले घटकों को तीन भागों में बांटा है . जैविकीय तत्व : – इन तत्वों के अंतर्गत स्वास्थ्य संबंधी परिस्थितिया , विभिन्न बीमारियां गुप्तरोग अथवा बांझपन , भोजन संबंधी आदत , प्रजननता आदि का समावेश किया जाता है । ये विभिन्न तत्व स्वास्थ्य संबंधी है तथा देश में उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं पर आधारित रहते हैं । स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं में विस्तार संतानोत्पादन शक्ति में वृद्धि करता है तथा मृत्यु दर में कमी विगत वर्षों में विश्व जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि का प्रमुख कारण स्वास्थ्य सुविधाओं में विस्तार होना है । उर्वरता को प्रभावित करते है । सामान्यतः इनको सामाजिक तत्व कहा जाता है । ये विभिन्न तत्व प्रजननता को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते है । इन तत्वों में प्रमुख तत्व ये है

 ( 1 ) विवाह की आयु

 ( ii ) तलाक एवं अलगाव ,

( iii ) वैद्यव्य ,

 (i v ) बहु पत्नी प्रथा ,

( v ) पति – पत्नी के बीच सामाजिक अथवा धार्मिक कारणों से अलगाव

 ( vi ) प्रसवोपरान्त अलगाव की समयावधि

( vII ) विवाहोपरान्त अस्थायी आत्म – संयम आदि

 प्रत्यक्ष सामाजिक तत्व : – इसके अंतर्गत उन तत्वों का समावेश किया जाता है जो जनसंख्या वृद्धि को प्रभावित करते है । इन तत्वों के अंतर्गत जनसंख्या नियंत्रण के विभिन्न उपायों का समावेश किया जाता है । ये तत्व प्रजननता को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं , इन तत्वों में से प्रमुख तत्व ये है आत्मसंयम , संतति नियमन संबंधी उपाय , गर्भ समापन , संततिनियम संबंधी शिशु हत्या इत्यादि । विवाह की आयु , विवाहित

प्रो . डोनाल्ड जे . बोग का वर्गीकरण : – वैवाहिक स्तर अविवाहित विधवा , विधुर , अलगाव , तलाक आदि की मात्रा , उर्वरता को प्रभावित करती है । शिक्षा का स्तर शिक्षा का स्तर बढ़ने के साथ उर्वरता हास हो जाती हैं- ” Throughout the world there appears to be a strong inverse correlation between the amound of educational attainment and the level of fertility . सर्वाधिक उर्वरता उन औरतों में होती है , जो निरक्षर हैं तथा सबसे कम उनमें होती है , जिनकी शिक्षा अधिकतम है । शहरी तथा ग्रामीण निवास नगरीकरण और उर्वरता के मध्य ऋणात्मक संबंध होता है । नगर एवं गांव की उर्वरता के आंकड़ों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट रूप से पता चलता है कि प्रत्येक आयु में शहर की अपेक्षा अधिक है । निवास का क्षेत्र : जलवायु का भी प्रभाव पड़ता है । प्रायः गर्म क्षेत्रों में ठंडे क्षेत्र की अपेक्षा उर्वरता अधिक होती है । यही करण है कि विश्व में उन देशों की जनसंख्या अपेक्षाकृत अधिक है , जहां की जलवायु गर्म हैं । पति का व्यवसाय पति के व्यवसाय और प्रजननता में गहरा संबंध होता है । यदि पति का सामाजिक स्तर ऊंचा होता है , तो प्रजननता प्रायः कम होती है , जबकि नीचे स्तर पर ऊंची उर्वरता होने की संभावना रहती है । फिर भी यह संबंध सरल व स्पष्ट नहीं है । प्रायः निम्न वर्ग के व्यक्तियों की न्यूनतम होती है , जबकि उच्च मध्य वर्ग में उर्वरता निम्न मध्य वर्ग से अधिक पाई जाती है । वर्ग की स्त्रियों की उर्वरता गांव प्रजननता पर निवास स्थान की आय : प्रो . बोग का विचार है कि आय स्तर एवं उर्वरता के बीच यू ( U ) आकृति है । जब होती है , वो उर्वरता न्यूनतम होती है , किंतु उच्च आप स्तर में तो सर्वरता ऊंची होती पति का के वक्र कस संबंध है ।

जब आय स्तर बहुत नीची होती है , आय स्तर मध्यम वर्ग की पुनः बढ़ने की प्रवृत्ति पायी जाती है । प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का विचार था कि गरीबी और प्रजननता में प्रत्यक्ष सह – संबंध होता है , अर्थात् परिवार जितना निर्धन होगा , बच उतने ही अधिक होंगे तथा परिवार जितना धनी होगा , बच्चे उतने ही कम होंगे । किन्तु 1945 के उपरांत विचारधारा में परिवर्तन आ गया है । कार्यरत स्त्रियों का व्यवसाय सामान्यतया घरेलु स्त्रियों की तुलना में कार्यरत स्त्रियों की प्रजननता कम होती है । कार्यरत स्त्रियों में भी सामाजिक विज्ञानवेत्ता , लेखपाल एवं ऑडीटर , डिजाइनर , ड्राफ्टमैन , कॉलेज के प्रोफेसर एवं वकील स्त्रियों में उर्वरता विशेष रूप से कम होती है । प्रो . बोग का बिचार है कि मानसिक कार्य करने वाली स्त्रियों में उर्वरता सामान्य से कम होती है । निरोधक उपायों का उपयोग : निरोधक उपायों का उर्वरता के स्तर पर प्रत्यक्ष व प्रभावकारी प्रभाव पड़ता है । जैसे – जैसे निरोधक उपायों का उपयोग बढ़ता जाता है , उर्वरता का स्तर घटता जाता है । परिवार के आकार के प्रति दृष्टिकोण परिवार के संबंध में सन् 1860 में हैल्पटन ने अमरीका का अध्ययन किया तथा कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं , जो इस प्रकार हैं :

कि प्रत्येक व्यक्ति संतान चहता है और अधिकांश व्यक्ति दो , तीन या चार बच्चे चाहते हैं । किंतु उससे अधिक बच्चे चाहने वालों का प्रतिशत बहुत कम है ।

प्रो . किंग्सले डेविस का वर्गीकरण प्रो . किंग्सले डेविस ने प्रजननता को प्रभावित करने वाले समस्त घटकों को तीन श्रेणियों में रखा है । उनका मत था कि एक शिशु तभी उत्पन्न हो सकता है जबकि :

( 1 ) सहवास हो , ( 2 ) सहवास के परिणामस्वरूप गर्भाधान हो , व इसके बाद

 ( 3 ) गर्भ सफलतापूर्वक अपनी अवधि पूरी करें । अतः ये तीनों अवस्थाएं उर्वरता के समस्त घटकों को शामिल कर लेती हैं ।

इन तीनों अवस्थाओं को डेविस एवं ज्यूडिथ ने ‘ Intermediate Variables माना है , जिनके अंतर्गत 11 घटक शामिल किए जा सकते हैं .

  1. वे घटक जिनके परिणामस्वरूप सहवास होता है ( अ ) पुनरुत्पादन अवधि में संयोग एवं वियोग को प्रभावित करने वाले तुत्व | ( i ) लैंगिक संबंध प्रारंभ करने के समय आयु ( ii ) स्थायी पवित्रता उन स्त्रियों का अनुपात जो कभी भी लैंगिक संबंध स्थापित नहीं कर पाती । पुनरूत्पादन आयु वर्ग का वह काल जिसमें सबध विद्यमान थे । ( क ) संबंध विच्छेद तलाक , अलगाव अथवा छोड़ने के कारण कम हुआ । ( ख ) पति की मृत्यु के कारण संबंध विच्छेद कब हुआ ।

( ब ) संयोग के अंतर्गत सहवास को प्रभावित करने वाले तत्व ( iv ) स्वेच्छानुसार संयम बलात , संयम ( बीमारी , अपरिहार्य , अल्पकालीन , अलगाव अथवा सहवास के अयोग्य ) । ( vi ) सहवास की बारंबारता । 2. वे घटक जिनके परिणामस्वरूप गर्भाधान होता है : ( vii ) संतानोत्पादक में अक्षमता अथवा असमर्थता में अनैच्छिक कारणों का प्रभाव । ( viii ) गर्भ निरोधक उपायों का उपयोग अथवा उपयोग न करना । ( क ) रासायनिक अथवा औषधि संबंधी अथवा मशीनी उपाय । ( ख ) अन्य उपाय ( ix ) सतानोत्पादन असमर्थता में स्वैच्छिक घटकों का प्रभाव ( नसबंदी अथवा अन्य चिकित्सा कार्य ) ।

  1. वे घटक जो गर्भाविधि को पूरा करने में प्रभाव डालते है ( x ) भ्रूण मृत्यु ( xi ) भ्रूण मृत्यु अनैच्छिक कारणों से ऐच्छिक कारणों से । यद्यपि विभिन्न विद्वानों ने उर्वरता को प्रभावित करने वाले घटकों को अलग अलग ढंग से वर्गीकृत किया है , परंतु उर्वरता को प्रभावित करने वाले घटकों को मोटे तौर पर हम तीन शीर्षकों के अंतर्गत अध्ययन कर सकते हैं , जैसे कि चार्ट में दिखाया गया है : प्रजननता को प्रभावित करने वाले तत्व परोक्ष सामाजिक घटक प्रत्यक्ष सामाजिक तत्व अन्य सामाजिक तत्व ( i ) विवाह की आयु ( i ) निरोधक उपाय ( i ) सामाजिक आर्थिक परिस्थिति ( ii ) तलाक एवं अलगाव ( ii ) मृत्युक्रम या मरणांक ( ii ) औरतों का सामाजिक स्तर वैधव्य ( iii ) गर्भपात ( iii ) बच्चों के प्रति दृष्टिकोण ( iv ) ( iv ) बन्ध्याकरण ( iv ) ( v ) मासिक धर्म एवं अन्य कारणों से अलगाव ( v ) भ्रूण हत्या ( vi ) संयम ( vii ) सहवास की बारंबारता ( viii ) बहुपत्नी प्रथा प्रसवोपरान्त के प्रतिबंध सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य

प्रजननता को प्रभावित करने वाले प्रत्यक्ष सामाजिक तत्व

प्रजननता को प्रभावित करने वाले प्रत्यक्ष सामाजिक तत्वों में सन्तति नियमन संबंधी उपायों का समावेश किया जाता है । इसके अन्तर्गत मुख्यतः निम्नलिखित उपायों को सम्मिलित किया जाता है . निरोधक उपाय प्राचीन काल में संयम एवं अविवाहित जीवन की उर्वरता पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए एक प्रभावकारी साधन के रूप में ग्रहण किया गया था , लेकिन सभ्यता के विकास के साथ – साथ उनका स्थान गर्भाधान निरोध एवं बंध्याकरण से संबंधित साधन एवं विधियां लेती जा रही है । इनके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि ये संयम एवं अविवाहित जीवन कष्टकारी होते हैं और दीर्घकाल में इसका प्रभाव स्वास्थ्य पर अच्छा नही पड़ता है । अतः गर्भाधान निरोधक द्वारा व्यक्ति बिना यौन सुख से वंचित हुए अपने परिवार को नियोजित कर सकता है । परिवार को नियोजित करने के साधन , विधियां एवं इनके प्रति जन – जागरूकता आवश्यक रूप से उच्च उर्वरता को नियंत्रित करेगी ।

मृत्युक्रम या मरणांक अर्द्धविकसित देशों में उर्वरता को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण घटक मरणांक या मृत्युक्रम स्वयं ही है । यह प्रजनन क्रिया के तीन चरणों को प्रभावित करता है । उच्च मरणांक भ्रूण और जन्म के पश्चात् उत्तरजीविता की संभावना को घटा देती है और इस प्रकार बच्चे आर्थिक रूप से उत्पादक स्तर तक नहीं पहुंच पाते हैं । इस कारण से अपने बुढ़ापे में सुरक्षा के लिए विवाहित जीवन के बाद के वर्षों में भी अधिक जनन किया आवश्यक हो जाती है , जिससे कि मृत्यु के खिलाफ बीमा हो सके उच्च उर्वरता दर यह प्रदर्शित नहीं करती कि जनन शक्ति भी उच्च है , बल्कि यह बताती है कि जनन कार्य अर्द्धविकसित राष्ट्रों में और कार्यों की तरह अकुशल है । वस्तुतः तीन परस्पर गहरे संबंधित चर संबंधित चर , स्वास्थ्य एवं गैरपौष्टिक आहार , अत्यधिक मृत्यु दर और वृद्धावस्था में कुछ न्यूनतम संख्या में बच्चे जीवित रहें , इसके लिए अधिक बच्चों की आवश्यकता- ये सब मिलकर अन्ततः प्रजनन शक्ति और प्रजनन दर को कम कर सकते है । प्रारंभ में बच्चे होने की इच्छा पर उत्तरजीविता का ऋणात्मक प्रभाव होना आवश्यक नहीं है । किन्तु अंततः उत्तरजीवित अनुपात प्रजनन दर को नीचा करेगा ही । मूलतः माता – पिता कितने बच्चों की इच्छा रखते हैं और इन बच्चों की संख्या को प्राप्त करने की क्या अवधि है . इन बातों पर प्रजनन दर निर्भर करती है । इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रजनन दर को कम करने की एक आवश्यक शर्त यह है कि मृत्यु दर भी गिरे हा मृत्य दर के गिरने और प्रजनन दर के गिरने में एक समय अंतराल अवश्य होगा । गर्भपात गर्भपात प्राय सभ्य समाजों में परिवार नियोजन की प्रभावकारी स्वीकृति विधि है ।

गर्भपात विश्व के सभी प्रगतिशील देशों में वैध माना गया है । भारतवर्ष में भी गर्भपात को वैध कर दिया गया है । प्रो . चन्द्रशेखर का मत है कि गर्भपात का उद्देश्य किसी जीव की हत्या नहीं , बल्कि इसका उद्देश्य उन शिशुओं को मौत से बचाना है , जो सुरक्षा , सेवा , भोजन आदि के अभाव में मौत की ओर अग्रसर हो रहे हैं । ” गर्भपात की घटनाएं निश्चित के रूप से उस भावी जनसंख्या जनसंख्या को कम कर देती है , जो नवजातों के रूप में जनसंख्या में वृद्धि करने वाली थीं । बन्धाकरण बन्धाकरण संतति नियमन का एक स्थायी उपाय है ।

 पुरुषों में बन्ध्याकरण को वैसेक्टोगी तथा स्त्रियों में बन्ध्याकरण को ट्यूबेक्टोमी कहा जाता है । वर्तमान समय में भारतवर्ष में स्त्री तथा पुरुष दोनों को संध्याकरण को सतति नियमन के स्थायी उपाय के रूप में विशेष महत्व प्रदान किया गया है । इस प्रकार बंध्याकरण के कारण उर्वरता दर में कमी आती है । भ्रूण हत्या अति प्राचीन काल में भी यूनानी विचारकों ने स्वस्थ जनसंख्या के लिए भ्रूण हत्या का अनुमोदन किया था । आदिम समाजों में भी प्राय भ्रूण हत्या का प्रचलन पाया जाता था ।

 भारत में भी इसका प्रचलन था अनेक समाजों में ऐसे बच्चों की हत्या कर दी जाती थी , जिनका आसाधारण होता था , जैसे वे बच्चे जिनके जन्म से दांत होते थे , जिनका जन्म किसी कुसमय पर होता था , जिनके जन्म होते ही घर में कोई मर जाता था आदि । परंतु अब यह प्रथा घट गयी है और इस प्रकार की हत्याओं का उर्वरता को प्रभावित करने में कोई विशेष महत्व नहीं है ।

प्रजननता को प्रभावित करने वाले अन्य सामाजिक तत्व

 सामाजिक – आर्थिक प्रस्थिति : उर्वरता पर व्यक्तियों की सामाजिक आर्थिक प्रस्थिति का भी प्रभाव पड़ता है । प्रायः यह देखा गया है कि उच्च प्रस्थिति वालों की अपेक्षा निम्न प्रस्थिति वालों में उर्वरता दर ऊंची होती है । यदि हम किसी समाज की जनसंख्या का विश्लेषण प्रस्थिति के सोपान क्रम में करें , तो हमें यह पिरामिड के आकार में प्राप्त होगी , जिसमें निम्नतम प्रस्थिति वाले व्यक्तियों समूहों की जनसंख्या सबसे अधिक और उच्चतम प्रस्थिति वाले समूह की जनसंख्या सबसे कम होगी । निम्न प्रस्थिति वाले व्यक्तियों में उर्वरता अधिक होने के कारण इस प्रकार है । दूरदर्शिता की कमी , ( ब ) संतानों को सम्पत्ति के रूप ( अ ) में स्वीकार करना , ( स ) संतान को बुढ़ापे का सहारा मानना और ( द ) संभोग को मनोरंजन के साधन के रूप में स्वीकार करना आदि । इसके अतिरिक्त , गरीब के सामने अपने जीवन – यापन की समस्या रहती है , और वे बच्चों को भार स्वरूप नहीं देखते , क्योंकि उनके पालन – पोषण का व्यय बहुत कम है ।

औरतों का सामाजिक स्तर उर्वरता पर औरतों के सामाजिक स्तर का भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है । जिन समाजों में स्त्रियों को मात्र संतानोत्पादन एवं लालन – पालन का साधन माना जाता है , उन्हें गृहकार्य तक सीमित रखा जाता है , उनमें प्रायः उर्वरता अधिक होती है । परंतु जहां स्त्रियां पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर राष्ट्रीय कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाती है , वहाँ स्त्रियां अपने को घर तक ही सीमित नहीं रखना चाहतीं । अतः वे अपने परिवार को सीमित करना चाहती हैं ।

यही कारण है कि शिक्षित एवं रोजगार प्राप्त स्त्रियों की उर्वरता अशिक्षित एवं गृहकार्यरत स्त्रियों से कम है । है अंतर विकसित एवं आधारभूत प्रश्न अर्द्धविकसित देशों में मूल्यों एवं दृष्टिकोणों में परंपरागत उच्च प्रजनन प्रतिरूप ( Pattern ) आधुनिक निम्न प्रजनन प्रतिरूप व्यक्ति और प्रकृति मनुष्य प्रकृति और भगवान का दास है । के बीच कैसा संबंध है ? भाग्य पर मनुष्य का तनिक भी नियंत्रण नहीं है । भाग्यवादिता । मनुष्य प्रकृति का नियमन कर सकता है । ईश्वर मनुष्य के माध्यम से कार्य करता है । आशावादिता ॥ मनुष्य और समय का क्या संबंध है ? भविष्य उन्मुख वर्तमान- उन्मुख ( वर्तमान में जीते हैं ) अधिक आयोजन नहीं ।

लैंगिक संबंधों की मूलरूप से पापमूलक प्रकृति लैंगिक संबंध या तो कर्त्तव्य परितुष्टि के लिए परस्पर अथवा परिभाषित लैंगिक संबंधी वंश को चलाने के मूलरूप से अच्छा लैंगिक संबंधी तुष्टि के लिए परिभाषित । लैंगिक संबंध वंश को चलाने और मनोरंजन के लिए । कार्य करना कार्य उन्मुख व्यक्तिवादी । भाई – भतीजा के अतिरिक्त लिए । जिंदा है जीवन यापन के लिए और प्रकृति क्या है ? मनवीय गतिविधियाँ कार्य की उन्मुख परिवार उन्मुख भाई – भतीजा आधारित । मनवीय संबंधों की प्रवृत्ति क्या है ? दूसरे आधार सामाजिक संगठनों में हिस्सा नगरपारिवारिक सामाजिक संगठनों में हिस्सा लेना । लेना ।

बच्चों के प्रति दृष्टिकोण + बच्चों की संख्या एक व्यक्तिगत विषय है । समाज में परिवार की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए अधिकांश समाज संतान को अनिवार्य मानते हैं । कुछ समाजों में उस परिवार को अधिक समृद्धि माना जाता है , जहां संताने अधिक होती है । अब भी लड़कियों की अपेक्षा लड़कों को अधिक महत्व दिया जाता है । अतः जब तक पुत्र की प्राप्ति नहीं हो जाती परिवार का आकार बढ़ता जाता है । आज भी पुत्रवती औरतें ही समाज में प्रतिष्ठा का पात्र बनती हैं । अतः जब तक सामाजिक मूल्य संतान एवं पुत्र को विशेष महत्व देंगे , उर्वरता कम नहीं होगी ।

सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का उर्वरता दरों पर प्रत्यक्ष अथवा कारकों के माध्यम से प्रभाव पड़ सकता है । अविकसित देशों में उर्वरता की दर उन देशों के पारंपरिक मूल्य ढांचे के कारण ऊंची है । अद्धविकसित और विकसित देशों में मूल्यों और दृष्टिकोणों का अंतर निम्नलिखित सारणी से स्पष्ट है । उपर्युक्त सारणी के विवेचन से स्पष्ट है कि इन देशों में सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक मूल्य आर्थिक विकास के अनुकूल नहीं हैं , इसलिए उर्वरता दर को कम करने में सहायक नहीं है । इन देशों में गैर – आर्थिक कारक मूलतः आर्थिक कारकों के प्रभाव को निरस्त कर देते हैं और ये गैर – आर्थिक कारक उर्वरता दर को ऊंचा बनाए रखते हैं ।

शिक्षा शिक्षा से विचारों में नयापन आता है तथा परिवार और व्यक्ति को प्रभावित करने वाले घटकों के महत्व का ज्ञान होता है , इसलिए अन्य बातें समान रहने पर शिक्षा और विशेषकर स्त्री शिक्षा का उर्वरता दर से ऋणात्मक सह – संबंध पाया जाता है । शिक्षा के द्वारा उर्वरता दर घटने के अनेक कारण उत्तरदायी है , जैसे

 ( i ) शिक्षित स्त्रियों की विवाह की आयु अधिक होती है , जिससे उनका पुररूत्पादन काल घट जाता है , ( ii ) शिक्षित सित्रयों की गतिविधियां केवल घर आगन तक ही सीमित नहीं रहती है , बल्कि वे घर से बाहर निकलकर नौकरी भी करती है , ( iil ) इन पर अनावश्यक मातृत्व का बोझ लादा नहीं जा सकता है , ( iv ) शिक्षित व्यक्ति सामान्यतः अपने जीवन स्तर के प्रति अधिक सजग रहते हैं तथा वे अपने परिवार के आकार में अनावश्यक वृद्धि कर जीवन स्तर को गिराना नहीं चाहते हैं , तथा ( v ) वे संतति नियमन की विभिन्न विधियों का प्रयोग सफलतापूर्वक करते हैं ।

कोलिन क्लार्क ने कई अर्द्धविकसित राष्ट्रों में आंकड़े संग्रह करके यह निष्कर्ष निकाला है कि नगरीय और ग्रामिण क्षेत्रों में शिक्षा का प्रजनन दर पर प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है । भारतवर्ष में पूना और मैसूर के अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ कि सांक्षर औरतों के लिए 45 साल की आयु की औरातों में बच्चों की औसत संख्या 503 , सातवीं कक्षा तक पढ़ी औरतों में बच्चों की संख्या 5.5 और 10 वीं कक्षा से अधिक पढ़ी हुई औरतों में यह संख्या 3.4 थी ।

शिक्षा  विश्वविद्यालयीन शिक्षा दण्डेकर के ‘ Mysore Population Study के अनुसार शिक्षा तथा प्रजनन दर में  सह – संबंध है । दण्डेकर का अध्ययन भी इस अवधारणा का समर्थन करता है कि शिक्षा से प्रजनन दर से कम हो जाती है । परिवार का प्रकार एवं संरचना सामान्यतः यह परिकल्पना की जाती है कि संयुक्त परिवार प्रजनन की दर को ऊंचा करते हैं । वह समस्त सांस्कृतिक ढांचा , जो बड़े परिवार को समर्थन प्रदान करता है , प्रजनन दर को ऊंचा करने की ओर कार्य करता है । ” प्रागनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उपर्युक्त कथन सत्य है ।

 संयुक्त परिवार का उच्च प्रजनन से संबंध होना स्वाभाविक लगता है , क्योंकि इसमें विवाह की आयु नीची होती है विवाह और बच्चे के प्रति किसी का व्यक्तिगत दायित्व नहीं होता । किंतु संयुक्त परिवार में उर्वरता की दर को कम करने के भी कई कारण हो सकते है जैसे कि इसमें समागम की संभावनाएं कम हो जाती है , परंपराओं का नियंत्रण अधिक होता है , मैथुन बारबारता उपर्युक्त कारणों से कम होने की संभावना होती है , परिवार में बच्चों और बूढ़ों की भीड़ – भाड़ होने के कारण समागम को एक शर्मनाक कार्य समझा जाता है । इन सब कारणों से प्रजनन , विशेषकर ऊंची आयु वर्गों में कम होने का प्रभाव होता है । यही कारण है कि इन उच्च आयु वर्गों में प्रजनन की दर अर्द्धविकसित राष्ट्रों में विकसित राष्ट्रों की अपेक्षा नीची है । रोजगार और व्यवसाय सामान्यतया शारीरिक श्रम से संबंधित व्यवसाय में संलग्न व्यक्तियों की उर्वरता दर मानसिक श्रम करने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा होती है ।

व्यापार आदि करने वाले व्यक्तियों की उर्वरता दर कम ही होती है । इसका कारण यह है कि उन्हें समय का अभाव रहता है और जीवन में इतने व्यस्त रहते हैं कि इस दिशा में सोचने का अवसर ही नहीं मिलता है । थॉम्पसन के अनुसार हाथ से काम करने वालों में श्वेत कालर कर्मचारियों की अपेक्षा और किसानों में श्रमिकों की अपेक्षा प्रजनन दर ऊनी होती है । जाफी और अजूनी ने यह बतलाया है कि ” इन उपलब्ध आकड़ा की सीमाओं के बावजूद वह रोजगार , जो कि स्त्री के निवास के आस – पास गैरकृषि कार्य में किया जाता है , प्रजनन दर को काफी ऊंचा उठाने में सहायक होता है अर्थात यह प्रजनन दर उन औरतो की अपेक्षा ऊंची होगी , जो कि अपने घर से दूर कार्य करने जाती है । इनके अध्ययन के दोनों क्षेत्र अर्थात जापान और प्यूरेटोरिका में उन औरतों में जो कि श्रम सेना में शामिल नहीं होती है और जो कि गांव में ही कुटीर उद्योग धंधों में लगी रहती है , प्रजनन दर समान पायी गयी है ।

 जिन औरतों ने कार्य के लिए अपना घर छोड़ा है उनमें बच्चों की संख्या उक्तलिखित दोनों वर्गों की अपेक्षा आधी है । इस प्रकार कुटीर उद्योग अमिश्रित वरदान नहीं है , जैसा कि भारतवर्ष में समझा जाता है । स्त्री जनसंख्या के संदर्भ में भी रोजगार में संलग्न स्त्रियों की प्रजनन दर नीची पाई जाती है । इसका कारण यह है कि कार्य की दशाएं एवं शर्तें प्रजनन व्यवहार पर भी प्रभाव डालती है तथा बच्चों की उपस्थिति कार्य में बाधक सिद्ध होती है । में आय सामान्यतया यह देखने में आता है कि आय और उर्वरता दर में विपरीत संबंध होता है । इसका एक कारण तो यह है कि उच्च आय का स्तर शिक्षा अनुकूल व्यावसायिक स्तर , संतुलित उपभोग रचना आदि से सहसंबंधित होता है , जिससे मृत्यु दर गिर जाती है । यह भी परिकल्पना की जाती है कि जितना ही प्रति व्यक्ति प्रोटीन का उपभोग अधिक होगा , उतनी ही उर्वरता दर कम होगी । प्रोटीन के उपभोग की दर और प्रति व्यक्ति आय  की दर में धनात्मक सह – संबंध होता है ।

 लेबेन्स्टीन ने आय में वृद्धि का प्रजनन दर पर प्रभाव का अध्ययन एक अतिरिक्त बच्चे की उपयोगिता और लागत की तुलना के आधार पर किया था । उनका मत है कि अर्द्धविकसित देशों में बच्चा उत्पन्न होने से प्राप्त होने वाली उपयोगिता उसकी लागत से भी अधिक रहती है , क्योंकि इन देशों में बच्चे पालने का खर्च केवल जीवन निर्वाह के बराबर देना पड़ता है , जबकि अमीर के बच्चों को उच्च शिक्षा व रहन – सहन के कारण अधिक खर्च करना पड़ता है ।

 जन्म दर व प्रजननता दर में अंतर

प्रायः लोग जन्म दर व उर्वरता दर को एक समान अर्थ में उपयोग करते हैं परन्तु दोनों में महत्वपूर्ण अंतर है । जन्म दर व उर्वरता दर में अंतर को सारणी द्वारा स्पष्ट किया गया है । सारणी जन्म दर व उर्वरता दर में अन्तर उर्वरता दर जन्म दर अंतर का आधार गणना का आधार जन्म दर केवल एक ही स्थान पर जन्म लेने तथा कुल शिशुओं की संख्या के आधार पर ज्ञात की जाती है । प्रकार उर्वरता दर प्रजननकाल ( 15-49 ) वर्ष की स्त्रियों द्वारा पैदा होने वाले शिशुओं की संख्या के आधार पर ज्ञात की जाती है । उर्वरता दरें तीन प्रकार सामान्य विशिष्ट तथा कुल की होती है । उर्वरता दर प्रति एक हजार प्रजनन योग्य अवधि वाली स्त्रियों के आधार पर ज्ञात की जाती है । साधारणतया उर्वरता दर अपेक्षाकृत अधिक होती है । उर्वरादरे लिंगानुपात की असमानता के प्रभाव को दूर करने तथा स्त्रियों की का अध्ययन करने के लिए जात जन्म दर दो प्रकार प्रमापित तथा अप्रमापित की होती है । जन्म दर प्रति एक एक हजार व्यक्तियों के आधार पर ज्ञात की जाती है । जन्म दर से से साधारणतया जन्मदर उर्वरता दर से अपेक्षाकृत कम होती है । की जाती है । उर्वरता दर की एक माम पाल उरला दर स्त्रियों की संपूर्ण प्रजनन 15-40 वर्ष से संबंधित होता है । जन्म दर किसी स्थान पर जन्म लेने वाले कुल बच्चों की संख्या एवं वृद्धि के अध्ययन के लिए बात की जाती है । जन्म दर साधारणतया एक अवधिश्चित समय जो होता है से संबंधित होती है

उर्वरता या प्रजननता दरें किसी जनसंख्या की उर्वरता की माप प्रारंभ से ही जनांकिकी अध्ययन का मुख्य केंद्र रही है । उर्वरता मापन में निम्नलिखित तथ्य महत्वपूर्ण है :

( 1 ) जन्म संबंधी घटनाओं को तत्कालीन समग्र जनसंख्या के अनुपात में देखा जाता है । ( ii ) जन्म संबंधी घटनाओं कुछ विशिष्ट आयु समूहों से ही संबंधित होती है । सामान्य रूप से 14-15 अथवा 49 वर्ष की आयु अवधि को प्रजनन योग्य आयु माना जाता है । में ( iii ) जन्म संबंधी घटनाओं को प्रजनन योग्य आयु की संपूर्ण स्त्री जनसंख्या के अनुपात देखा जाता है । ( iv ) उर्वरता प्रवृत्तियों को मापने की आधुनिकतम प्रवृत्ति में पुनः एक परिमार्जन के अनुरूप संपूर्ण जनसंख्या संबंधी घटनाओं में से केवल कन्या संतानों एवं प्रजनन योग्यता से संबंधित स्त्री जनसंख्या के परस्पर अनुपात को ज्ञात करने की है , अर्थात् एक माता अपने संपूर्ण प्रजनन काल को बिता लेने के बाद अपने पीछे कितनी भविष्यकलीन माताओं को छोड़ जाती है । उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए विभिन्न दरों की स्थापना की गयी है । उर्वरता मापन के लिए सामान्य रूप से दो प्रकार की दरें निकाली जाती है , जैसा कि नीचे चार्ट में दर्शाया गया

उर्वरता दरें

उर्वरता दरें ( Fertility Rate ) यथार्थ पुनरोत्पादन ( Actual Reproduction ) जन्म दरें इतिहास ( Birth Rate History ) ( i ) अशोधित जन्म दर ( Crude Birth Rate ) ( ii ) सामान्य प्रजननता दर ( General Fertility Rate ) ( iii ) विशिष्ट प्रजननता दर ( Age Specific Rate ) ( iv ) कुल प्रजननता दर प्रजनन या पुनरूत्पादन दरें ( Reproduction Rate ) ( i ) कुल पुररूत्पादन या प्रजनन दरें ( Gross Reproduction Rate ) ( ii ) शुद्ध पुनरुत्पादन या प्रजनन दरें ( Net Reproduction Rates ) ” ( Total Fertility Rate ) ( v ) संचयी प्रजननता दर ( Cumulative Rate ) ( vi ) मानकीकृत या प्रभाषित जन्म दरें ( Standardized Birth Rate ) ( vii ) वैवाहिक जन्म दर ( Marital Birth Rate ) ( viii ) शोधित जन्म दर ( Corrected Birth Rate )

अशोधित जन्म दर

बच्चों यह प्रजनन शीलता को मापने की सबसे सरल विधि है । किसी विशेष वर्ष में जन्में कुल प्रायः इसे प्रति हजार में व्यक्त किया जाता है । इसका सूत्र निम्नलिखित है : ER | CBR = -x1,000 अथवा किसी वर्ष विशेष में किसी दिये गये क्षेत्र में कुल जन्मे शिशुओं की संख्या अशोधित जन्म दर X1,000 उसी वर्ष विशेष में क्षेत्र विशेष की कुल संख्या जहां CBR = अशोधित जन्म दर EB = किसी वर्ष विशेष में किसी दिये गये क्षेत्र में जीवित शिशुओं की कुल संख्या 2B = उस क्षेत्र की उसी वर्ष की कुल जनसंख्या ( वर्ष के मध्य में ) उदाहरण के लिए , यदि किसी शहर की जनसंख्या 20,000 है और जन्म संख्या 500 है तो , अशोधित जन्म दर 500 ( 28 ) ( CBR ) = -x1,000 25 प्रति हजार 20,000 ( EP ) इसको अशोधित जन्मदर इसलिए कहा जाता है , क्योंकि इसकी गणना करते समय किसी भी समुदाय की जनसंख्या के गठन अर्थात् आयु और लिंग के अन्तरों को ध्यान में नही रखा जाता है । अतः गणना की दृष्टि से सरल होते हुए भी इसे प्रजनन शीलता का उचित माप नहीं समझा जाता । उर्वरता मापने की दृष्टि से इसमें अनेक दोष है

( i ) लिंग भेद का अभाव जन्म दर की गणना करते समय कुल नवजात शिशुओं की संख्या का अनुपात कुल जनसंख्या पर निकाला जाता है , जिसमें पुरुष तथा स्त्रियों दोनों सम्मिलित होती है , जबकि प्रजनन क्रिया केवल स्त्रियों द्वारा की जाती है , अतः समस्त जनसंख्या के स्थान पर केवल उन्हीं स्त्रियों की संख्या को आधार माना जाना चाहिए , जो पुनरूत्पादन आयु वर्ग में आती है ।

 ( ii ) प्रजनन काल ( 15-49 वर्ष ) को महत्व न देना कुल जनसंख्या के आधार पर उर्वरता ज्ञात करना उचित नहीं है , क्योंकि समस्त जनसंख्या में प्रजननता नहीं होती है । बच्चों व वृद्धि व्यक्तियों में प्रजननता नहीं होती है । अतः उर्वरता दर के माप में केवल 15 से 49 वर्ष की स्त्रियों को ही सम्मिलित करना चाहिए ।

 ( iii ) अल्पकालीन अथवा समाज की अल्पकालीन दरें निकालने के लिए है । एक अशोधित जन्म दर की विशेष उपयोगिता केवल एक ही जनसंख्या जनसंख्या की समय – समय पर क्या दरें है , इसे निकालने से जनसंख्या के गठन में अंतर नहीं आएगा , क्योंकि इस जनसंख्या में आयु संरचना , स्त्री – पुरुष अनुपात , विवाहित स्तर इत्यादि में कोई अंतर नहीं होता । किंतु उसी जनसंख्या में भी ये समस्त बातें दीर्घकाल में बदल जाती है । अतः यह केवल अल्पकालीन अध्ययन के लिए उपयुक्त है । दीर्घकाल में यह अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं होता ।

  ( iv ) स्थिर अनुपात : अशोधित दर तभी सत्य हो सकती है , जबकि प्रजनन आयु वर्ग की जनसंख्या का कुल जनसंख्या से अनुपात स्थिर रहे ।

सामान्य प्रजननता

 सामान्य प्रजननता दर का अभिप्राय प्रजनन योग्य आयु अथवा गर्भधारण काल की प्रति हजार स्त्रियों द्वारा जन्मित कुल जीवित शिशुओं की संख्या से है । यह दर कुल ऐसी स्त्रियों सामान्य उर्वरता के स्वरूप का दिग्दर्शन कराती है । उर्वरता दर सदा 1,000 में व्यक्त की जाती है । सूत्र के रूप में की किसी एक वर्ष या अवधि SB GFRx1,000 , SPP अवा शेष सामान्य प्रजननता दर 15-40 आयु वर्ग केबीसी -X1,000 संख्या जहां 2B वर्ष में जन्मित जीवित शिशुओं की कुल संख्या 2Bf154 आयु वर्ग अर्थात प्रजननो आयु सामान्य प्रजनन दर की गणना करते समय इस बात की जानकारी करना महत्वपूर्ण है कि स्त्रियों कि प्रजनन काल क्या माना जाय । सन्तानोत्पादन योग्य स्त्रियों का प्रजनन काल स्थान स्थान पर अलग अलग होता है । विधि प्रजनन दर ज्ञात करने के लिए उन है स्त्रियों को भी शामिल कर लेती है जो इस आयु का भाग में अविवाहित विधवा या जाती है तथा इस आयु वर्ग में होने भी प्रजननशीलता के प्रभावित नहीं कर पाती है ।

आयु विशिष्ट प्रजननता दर

सामान्य उर्वरता दर का संबंध स्त्रियों के पूरे प्रजनन काल से होता है , जबकि प्रजनन शक्ति आयु वर्गों के अनुसार कम या अधिक होती है । उदाहरण के लिए 15-19 आयु वर्ग में स्त्रियों की उर्वरता भारत में कम होती है , परंतु 20-24 आयु वर्ग में वह एकदम बढ़ जाती है । इसलिए सामान्य उर्वरता दर समुचित मापदंड प्रदान नहीं करती । विशिष्ट उर्वरता दर किसी आयु विशेष या आयु वर्ग विशेष की उर्वरता दर है । यह दर प्रजनन काल की स्त्रियों को भिन्न भिन्न आयु वर्गों में बांटकर निकाली जाती है । जैसे 15-19 , 20-24 , 25-29 , 30-34,40-44 , 45-49 आयु वर्ग 5-5 के वर्गान्तर पर बनाए जा सकते है और किसी वर्ग विशेष की उर्वरता दर ज्ञात की जा सकती है । यदि हमें 20-24 आयु के बीच उर्वरता दर ज्ञात करनी है तो इस प्रकार निकालेंगे ।

 कुल प्रजननता दर ‘ भिन्न भिन्न आयु वर्गों की विशेष उर्वरता दरों के कुल जोड़ को कुल उर्वरता दर कहते हैं । यह दर यह बतलाती है कि यदि प्रजनन योग्य आयु में किसी स्त्री की मृत्यु हो जाती है . तो इस काल में 1,000 स्त्रियों द्वारा जन्मित शिशुओं की कुल प्रत्याशित संख्या क्या होगी । यह दर निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है

 1 . प्रजनन योग्य आयु में किसी स्त्रिी की मृत्यु नही होती है ,

तथा 2. प्रजनन काल के विभिन्न आयु वर्गों में उर्वरता दर समान रहती है ।

 सूत्र के रूप में TERSpecific Fertility Rate ( SFR ) xi जहां 1 आयु वर्ग का विस्तार ( Interval of the Age Groups ) यदि आयु विशिष्ट उर्वरता दरें 5 वर्षों के बर्गातर से ज्ञात की गयी हो , तो SFR के जोड़ को 5 ( वर्ग विस्तार 1 ) से गुणा कर कुल उर्वरता दर ज्ञात की जाती है . TER = SER X5 कुल उर्वरता दर प्रति 1000 सित्रयों के प्रजनन काल में प्रत्याशित कुल बच्चों की संख्या संबंधित होती है । है जब उर्वरता काल को विभिन्न आयु वर्गों में विभाजित कर दिया जाता है तो किसी स्त्री के उस आयु वर्ग में प्रवेश करने के बाद वह उम्र आयु वर्ग में उतने वर्ष रहेगी , जो उस आयु वर्ग का विस्तार है । इस प्रकार उस आयु वर्ग में वह स्त्री उतने वर्ष बच्चे उत्पन्न करती रहेगी , जो उस आयु वर्ग का विस्तार है । अतः संपूर्ण आयु वर्ग में जन्मित शिशुओं की संख्या प्राप्त करने के लिए आयु वर्ग की विशिष्ट उर्वरता दर को वर्ग विस्तार से करना आवश्यक होता है । उदाहरण के लिए , यदि हम 1990 वर्ष के लिए विशिष्ट उर्वरता गुणा दर का आगणन कर रहे हैं और विभिन्न आयु वर्ग 15-19 , 20-24,25-29 , 30-34 , 35-39 , 40-44 , 45-49 है । अब प्रथम आयु वर्ग 15-19 को लीजिए । इसका वर्ग विस्तार 5 है । अतः इस ( 15–19 ) संपूर्ण आयु वर्ग में जन्मित बच्चों की संख्या ज्ञात करने के लिए ( यह मानते हुए कि वह स्त्री जीवित रहेगी तथा उर्वरता दर में परिवर्तन नहीं होगा ) SER को 5 से गुणा करना आवश्यक हो जाता है । उदाहरण उदाहरण के आधार पर कुल प्रजनन दर की गणना कीजिए हल : TFR = ESFR x 1 = 500×5 = 2.500 प्रति हजार अर्थात् प्रत्येक एक हजार स्त्रियों के पीछे उनके संपूर्ण उर्वस्ताकाल में 2.500 शिशुओं का जन्म अपेक्षित है । उपर्युक्त उदाहरण में आयु वर्गातर समान है , इसलिए SFR के योग को आयु वर्गातर से गुणा किया गया है । यदि प्रश्न में स्त्रियों की कुल संख्या तथा जन्मित बच्चों की संख्या नहीं दी जाती है परंतु विशिष्ट उर्वरता दर दी रहती , तो प्रत्येक आयु वर्ग में स्त्रियों की कोई काल्पनिक संख्या मानकर सामान्य उर्वरता दर ज्ञात की जा सकती है ।

संचयी या योगात्मक प्रजननता दर

 यह कुल उर्वरता दर से मिलती विशिष्ट जन्म दर के आधार पर ही की जाती हैं । इसमें प्रत्येक आयु समूह की उर्वरता जुलती उर्वरता दर है तथा इसकी गणना भी आयु दर में पूर्ववर्ती आयु समूह की उर्वरता दर भी जोड़ ली जाती है । इस प्रकार आयु समूह के क्रम में हम जैसे – जैसे आगे अग्रसर होते जाते हैं , वैसे – वैसे प्रत्येक पूर्ववर्ती आयु समूह की भी आयु विशिष्ट जन्म दर को अनुवर्ती आयु समूह की आयु विशिष्ट जन्म दरें में जोड़ते 8.5.1.6 मानकीकृत अथवा प्रमापित जन्म दर उर्वरता दर साधारणतया स्त्रियों की आयु संरचना से प्रभावित होती है तथा विभिन्न आयु वर्गों की स्त्रियों में भिन्न – भिन्न होती है ।

प्रायः यह देखा गया है कि 20 वर्ष से कम आयु में उर्वरता कम होती है . 20 से 35 आयु वर्ग में अधिकतम होती है , तत्पश्चात् 35-49 आयु वर्ग में पुनः घट जाती है । यदि दो देशों अथवा समाजों की जनसंख्या में आयु के इस वितरण में बहुत असमानता है तो दोनों की जनसंख्या समान होने पर भी दोनों की उर्वरता में अंतर होगा दो समाजों की स्त्रियों की जनसंख्या यदि 25-29 आयु वर्ग में अलग – अलग है , अन्य वर्गों में समान होने पर भी उनकी उर्वरता में अंतर होगा । न केवल आयु के वितरण में बल्कि शिक्षा का स्तर , व्यवसाय , जाति , धर्म आदि के अंतर भी उर्वरता को प्रभावित करते हैं । अतः दो समाजा की उर्वरता की तुलना करने से हम किसी निश्चित निर्णय पर नहीं पहुंच सकते । अत शुद्ध सरता के अंतर को ज्ञात करने के लिए दो समाजों की तुलना करने में अन्य घटकों को स्थिर रखा जाना आवश्यक है ।

 प्रमाणित उर्वरता दर किसी उद्देश्य को पूरा करता है । इस दर की गणना के लिए हम सर्वप्रथम एक मानक या जनसंख्या स्वीकार कर लेते हैं तदनंतर जिन समाजो अथवा भिन्नताओं संदर्भ में तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता होती है , उनकी जनसंख्याओं को प्रामाणिक संख्या के आधार पर विभिन्न आयु समूहों में विभाजित कर लेते हैं । इन आयु समूहों की आयु विशिष्ट जन्म दर के अनुसार हम इनसे संबंधित संतानों की संख्या मालूम कर लेते हैं । ऐसा करने के लिए आयु विशिष्ट जन्म दर को संबंधित आयु समूह की मानक या प्रामाणिक जनसंख्या के आधीन , संपूर्ण जनसंख्या से गुणा करके एक हजार से भाग दे देते हैं । इस प्रकार प्राप्त विभिन्न आयु वर्गों से संबंधित कुल जन्म संबंधी घटनाओं का योग कर लिया जाता है । इस योग को प्रमापित जनसंख्या से भाग देकर एक हजार से गुणा कर दिया जाता है ।

इस प्रकार प्रति हजार प्रमापित जनसंख्या ज्ञात हो जाती है ।

वैवाहिक जन्म दर वैवाहिक जन्म दर किसी जनसंख्या में एक वर्ष की अवधि में वैधानिक रूप से जन्म लेने वाली संतानों का उस जनसंख्या की प्रजनन काल आयु से संबंधित संपूर्ण विवाहित स्त्रियों के साथ स्थापित प्रति हजार अनुपात है । सूत्र के रूप में : एक वर्ष में उत्पन्न वैद्य संतानों की कुल संख्या वै . जद . x 1,000 जनन योग्य आयु की विवाहित स्त्रियों की कुल संख्या इस प्रकार जन्म दर की गणना के लिए किसी निश्चित जनसंख्या में एक वर्ष की अवधि में वैधानिक जन्म संबंधी घटनाओं को उस जनसंख्या की प्रजनन योग्य विवाहिता स्त्रियों की संख्या में भाग देकर एक हजार से गुणा कर दिया जाता है । वैवाहिक जन्म दर वैधानिक एवं अवैधानिक प्रजनन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालती है । 8.5.1.8 संशोधित जन्म दर जब हम अशोधित सम्मिलित नहीं कर पाते जन्म दर की गणना करने लगते हैं तो कुछ ऐसे जन्मों को उसमें हैं जिनकी सूचना का पंजीकरण नही होता है । प्रायः ग्रामीण क्षेत्रों मे लॉग जन्में बच्चों का पंजीयन नहीं कराते हैं । अतः प्रजनन सम्बन्धी आंकड़ों का सही सही ज्ञान नहीं हो पाता है । ऐसी दशा में सही जन्म दर की संख्या में जोड़ दिया जाता है । यह अनुमानित संख्या सम्पूर्ण पंजीकृत संख्या का एक छोटा हिस्सा हो सकती है । संशोधित जन्म दर सदैव अशोधित जन्म दर से अधिक होती है B + b | [ Corrected Birth Rate ] = -x K P

 संशोधित जन्म दर ( Corrected Birt rate ) जहाँ B = वर्ष विशेष में पंजीकृत जन्मों की संख्या b = वर्ष विशेष में अपजीकृत जन्मों की संख्या P = वर्ष विशेष की सम्पूर्ण जनसंख्या K = स्थिरांक 1000 को दर्शाता है ।

कुल पुरसत्पादन या प्रजनन दर

हम जनसंख्या वृद्धि की उचित माप के लिए जनसंख्या के आयु लिंग की संरचना के बारे में जानकारी प्राप्त करना आवश्यक होता है । चूंकि हम जनसंख्या वृद्धि की माप करना चाहते है अतः इसके लिए यह उचित होगा कि स्त्री जन्म अर्थात् कन्याओं के जन्म पर ही विचार करें क्योंकि आज की नवजात कन्याए ही कल की माताएं होती है अतः जनसंख्या वृद्धि सही अर्थों में कन्याओं की संख्या पर ही निर्भर करती है । यही कारण है कि जनसंख्या वृद्धि की माप के पुनरुत्पादन दर की गणना की जाती है । सकल प्रजनन दर 15-49 वर्ष आयु वर्ग वाली स्त्रियों की केवल कन्या जन्म पर आधारित आयु विशिष्ट प्रजनन दरों का योग है । ” लिए सकल हम कन्याओं के जन्म पर आधारित आयु – विशिष्ट प्रजनन दरों को इस प्रकार लिख सकते -FIC -x1000 FP , जहां FB = किसी समुदार विशेष की आयु x की स्त्रियों द्वारा किसी दिए गए समय में जन्म दी गयी कन्याओं की संख्या । FP = दिए गए समुदाय की समय विशेष पर आयु x की स्त्रियों की कुल संख्या । F1 = आयु x पर स्त्री जन्म दर यदि पूरे पुनरुत्पादन काल के समस्त आयु वर्ग की इन दरों का योग कर लिया जाय तो जनसंख्या वृद्धि की माप की जो दर प्राप्त होगी वह सकल पुनरुत्पादन दर कही जाती है । सूत्रानुसार , GRR = -ŻA , ( w ) तथा w2 स्त्रियों के पुनरूत्पादन काल की क्रमशः निम्नतम एवं उच्चतम आयु सीमा हैं । समान्यतया w 15 वर्ष तथा w : – 49 वर्ष होती है । )

इस तरह , सकल प्रजनन दर इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि प्रत्येक आयु वर्ग की स्त्रियों आयु वर्ग की स्त्रियों द्वारा औसत रूप से कितनी कन्याओं को जन्म दिया जाएगा । अर्थात् किस दर पर माताएं , कन्याओं तथा पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी द्वारा प्रतिस्थापित की जाएगी बशर्ते यदि यह मान लिया जाए कि सभी स्त्रियां अपनी शिशु – जनन आयु ( अर्थात 49 वर्ष ) तक जीवित रहती है . परदेशगमन नहीं करतीं तथा अपनी यह चालू प्रजनन दर FI , बनाए रखती है । यदि आयु – विशिष्ट प्रजनन दर 5 वर्षीय आयु वर्गों के लिए है तब इसे इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है EI _EB , E.P. GRR का मूल्य होगा : GRR = 5 xYE ! यहां सभी पांच वर्षीय आयु वर्गों की स्त्री प्रजनन दर का योग किया गया है । GRR को TER की सहायता से भी ज्ञात किया जा सकता है । सूत्रानुसार , GRR = TFR x sex – ratio या GRR कुल प्रजनन दर x लिंग अनुपात यदि किसी जनसंख्या में GRR का मूल्य 1 है तो इसका अर्थ यह होता है कि सम्बन्धित लिंग ( अर्थात स्त्री जनसंख्या ) अपने आपको पूरी तरह से प्रतिस्थापित कर रहा है और जनसंख्या स्थिर है । यदि GRR > | तो इसका अर्थ है भविष्य में जनसंख्या बढ़ेगी तथा यदि GRR 1 तो जनसंख्या में कमी होगी क्योंकि भविष्य में माताओं की संख्या में निरन्तर कमी होती जायेगी ।

शुद्ध पुररूत्पादन या प्रजनन दर

 यदि हम GRR पर ध्यान दे तो उसमें एक महत्वपूर्ण कमी यह दृष्टिगोचर होती है कि इसमें चालू प्रजननशीलता पर तो ध्यान दिया जाता है । परन्तु चालू मृत्युक्रम को नज़रन्दाज कर दिया जात है अर्थात GRR में इस दोषपूर्ण मान्यता को स्वीकार कर लिया जाता है कि शिशु जनन की उच्चतम सीमा पर पहुंचने तक किसी स्त्री की मृत्यु ” नहीं होती है । जबकि हो सकता है कि कुछ कन्याएं अपना दाम्पत्य जीवन प्रारम्भ करने से पूर्व अर्थात 15 वर्ष की आयु पूरी होने से पूर्व ही मर जाती हों तथा कुल 15 तथा 16 वर्ष के बीच में मर जाती हों । इसी प्रकार कुछ अन्य स्त्रियों की मृत्यु पुनरूत्पादन काल के मध्य हो सकती हैं । अतः प्रजननशीलता की सही दर ज्ञात करने के लिए मरण तत्व का समायोजन करना आवश्यक होता है । GRR की इसी कमी को दूर करने के लिए हम NRR का अध्ययन करते हैं ।

 इस तरह , ” शुद्ध पुररूत्पादन दर से आशय चालू प्रजनन दर के आधार पर और मरण दरों के समायोजन के पश्चात् 1000 नवजात कन्याओं द्वारा अपने सम्पूर्ण प्रजनन काल में उत्पन्न की जाने वाली कन्याओं की संख्या से है । ” यह दर इस तथ्य की जानकारी देती है कि किस हद तक माताएं उन कन्याओं को जन्म देती हैं जो स्वयं उन्हें माताओं को प्रतिस्थापित करने के लिए पूरे प्रजनन काल तक जीवित बनी रहती है । NRR की गणना सामान्यतया निम्न सूत्र की सहायता से की जाती है : NRR = FLE.P. जहां _ FI , = GRR [ F ] तथा F.Po = = स्त्रियों का जीवित अनुपात FL ( 1 , उन व्यक्तियों की संख्या है जो ठीक आयु तक जीवित रहते हैं तथा 4 कुल जन्मों की संख्या है । स्पष्टतया NRR ( GRR ) X ( Survival ratio ) इस तरह NRR एक काल्पनिक संख्या है जो यह प्रदर्शित करती है कि किसी समूह की स्त्रियों के सम्पूर्ण प्रजनन काल दौरान उत्पत्ति एवं मृत्युक्रम को में कुल कितनी कन्याओं का जन्म होता है यदि प्रजनन काल के यहां यह बात उल्लेखनीय है कि NRR का ध्यान में रखा जाय । मूल्य GRR से अधिक नहीं हो सकता अर्थात GRR वह ऊपरही सीमा है जिससे अधिक NRR नहीं हो सकता क्योंकि मृत्यु होने से कुल । जन्मी स्त्रियों की संख्या में कमी आ कमी आ जाती है ।

यदि NRR का मूल्य एक के बराबर है अर्थात NRR 1 तो यह कहा जा सकता है कि वर्तमान उत्पत्ति क्रम एवं मृत्युक्रम इस प्रकार है कि नयी जन्मी कन्याएं भविष्य में अपने आपको पूर्णतया प्रतिस्थापित कर लेंगी अर्थात वर्तमान पीढ़ी अगली नयी पीढ़ी के बराबर होगी । ऐसी स्थिति में जनसंख्या में स्थिर रहने की प्रवृत्ति होती है । NRR > 1 की दशा में जनसंख्या में वृद्धि की प्रवृत्ति तथा NRR < 1 जनसंख्या में कमी की प्रवृत्ति जनसंख्या का प्रतिस्थापन द होती है । क्योंकि NRR > 1 की स्थिति में असली पीढ़ी में स्त्री की दशा में वर्तमान स्त्री जनसंख्या से अधिक होगा तथा NRR < 1 की स्थिति में स्त्री जनसंख्या का प्रतिस्थापन वर्तमान स्त्री जनसंख्या से कम होगा ।

यथार्थ पुनरोत्पादन इतिहास

 इस विधि के अंतर्गत स्त्रियों के एक संख्या का आगणन किया जाता है । समूह में वास्तविक रूप से जन्म लिये हुए शिशुओं की यह विधि अत्यन्त सरल और स्पष्ट है ।

 इस विधि में आगणन की अवधि ( 14-49 ) 35 वर्ष की होती है । अंतिम आंकड़ों को एक औसत के रूप में दर्शाया जाता है , अर्थात् प्रति परिवार में जन्म लिये हुए औसत शिशुओं की संख्या , जिसे परिवार का औसत आकार कहते हैं । इसमें किसी प्रकार के कृत्रिम सहगण ( Artificial Cohort ) के निर्माण की कोई आवश्यकता नहीं होती है , बल्कि किसी यथार्थ सहगण के अनुभवों का अवलोकन किया जाता है अर्थात किसी स्त्री समूह द्वारा उनके संपूर्ण उर्वरता योग्य आयु में किए गये पुनरोत्पादन को मापा जाता है । इस विधि में निम्नलिखित स्रोतों से उर्वरता को मापने के लिए समंक प्राप्त किए जाते है

  1. व्यक्तिगत स्त्रियों की संपूर्ण प्रजनन योग्य आयु में जन्मित कुल शिशुओं की संख्या पंजीयन के लेखे से यथार्थ पुनरोत्पादन की संगणना करना ।

  1. वार्षिक आँकड़ों के आधार पर क्रमानुसार तिथियों में परंपरागत आयु विशिष्ट जन्म दरों की गणना करना । यदि कम से कम 30 से 35 वर्ष की अवधि के जन्म दर उपलब्ध हों , तो साधारण पंजीयन एवं जनगणना के आधार पर इसकी गणना की जाती है ।

  1. किसी विशेष सर्वेक्षण द्वारा प्रत्येक स्त्रियों के भूतकाल में जन्मित शिशुओं की संख्या के विषय में जानकारी प्राप्त करके पुनरोत्पादन इतिहास की संगणना करना । इस विधि में सबसे बड़ी कठिनाई यह हैं कि इसमें 35 वर्षों के लिए जन्म दर से संबंधित आंकड़ों का लेखा रखना पड़ता है , जो साधारणतः उपलब्ध नहीं होता है । जन्मांतर एवं जन्मक्रम दो जन्मों के बीच की समयावधि को जन्मांतरण कहा जाता है । सामान्यतया जितना ही अधिक जन्मांतर होता है , उतनी ही कम उर्वरता दर होती है । जन्मांतर का उर्वरता दर पर प्रभाव मालूम करने के लिए जन्म क्रम संबंधी एकत्र किए जाते हैं । नीचे दिए गये तरीकों से किसी स्थान विशेष में एक वर्ष में होने वाले जन्मों को माता की आयु एवं जन्म क्रम में वर्गीकृत किया जा सकता है : यदि आंकड़े उपर्युक्त सारणी के अनुसार उपलब्ध हो , तो औसत जन्म क्रम ( Average Parity ) एवं उच्च क्रम मालूम किया जा सकता है । यदि शादीशुदा महिलाओं की आयु एवं जन्मों की संख्या के अनुसार वर्गीकरण प्राप्त हो , तो औसत जन्म क्रम सरलता से मालूम किया जा सकता है । जो महिलाएं सन्तानोत्पादन योग्य उनकी उर्वरता की माप के लिए औसत जन्म क्रम बहुत उपयुक्त है जिससे महिलाओं की आपस में तुलना करने के लिए पैरिटी जाता है , 35 के जन्मों का अनुपात में सीमा पार कर चुकी हैं , दर हैं । यह एक ऐसी सूची प्रोग्रेसन रेशिओ मालूम किया इस जनसंख्या में विभिन्न आयु वर्गों के व्यक्तियों अनुपात अपरिवर्तनीय रहता है , अर्थात जनसंख्या का आयु संबंधी वर्गीकरण प्रारंभिक आयु संबंधी वर्गीकरण से प्रभावित नहीं होता है और एक सा ही बना रहता है । यह आयु संबंधी वर्गीकरण केवल वर्तमान उर्वरता एवं मृत्यु दर से प्रभावित होता है ।

यदि किसी जनसंख्या में आयु संबंधी वर्गीकरण का अनुपात अपरिवर्तनीय हो और वृद्धि दर शून्य हो , तो ऐसी जनसंख्या को स्थिर जनसंख्या कहा जाता है ।

यदि किसी जनसंख्या में कुछ लंबे समय तक आयु विशिष्ट उर्वरता दर अपरिवर्तनीय रहे और आयु विशिष्ट मृत्यु दर में बहुत मामूली परिवर्तन होते रहें , तो आयु वर्गीकरण लगभग एक रहेगा । इस वर्गीकरण को अर्द्ध – वर्गीकरण ( Quast Age Distribution ) कहते है तथा जनसंख्या को अस्थायी जनसंख्या ( Quasl stable Population ) कहते है । निम्नांकित चित्र से इस प्रकार की जनसंख्या में उर्वरता दर का महत्व स्पष्ट हो जाता है :

वार्षिक घातांक वृद्धि दर ( Annual Exponential Growth Rate )

वार्षिक घातांक वृद्धि दर को संदर्भित समयावधियों के बीच यौगिक गणना दो जनसंख्या में होने वाली सतत वृद्धि को प्रदिर्शित करता है । इसकी गणना दो जनगणना वर्षों के बीच जनसंख्या में होने वाली औसत वार्षिक वृद्धि दर को ज्ञात करने के लिए की जाती है । In ( P2011 / 2001 ) 10 r = जहाँ वार्षिक धातांक वृद्धि दर In = प्राकृतिक लघु गणक P2011 = वर्ष 2011 की जनसंख्या • P2001 = वर्ष 2001 की जनसंख्या

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