प्रचार की आवश्यकता

प्रचार की आवश्यकता

प्रचार

अंग्रेजी भाषा में ‘ प्रोपेगण्डा ‘ शब्द के साथ संवेगात्मक प्रतिक्रियाएं जुड़ी हुई हैं । इसे कपटतापूर्ण , भ्रांतिजनक , गर्हणीय तथा अनैतिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है । यह एक ऐसा साधन समझा जाता है जिसे तत्काल – सिद्ध विचारों द्वारा अविवेकी जनसाधारण को भ्रांत करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है । इस अध्याय में हमारा उद्देश्य उस प्रक्रिया का विश्लेषण करना है जिसके द्वारा किसी समूह में जनमत – निर्माण के लिए प्रचार का उपयोग किया जाता है । अतः प्रचार उन साधनों में से एक है जिन्हें किसी खास समय किसी समूह विशेष में व्यक्ति के समाजीकरण के लिए काम में लाया जाता है । ‘ प्रोपेगण्डा ‘ ( प्रचार ) शब्द लैटिन शब्द ‘ प्रोपगेयर ‘ से निकला है जिसका अर्थ है उत्पन्न करना या पुनः प्रस्तुत करना । ( हिन्दी शब्द ‘ प्रचार ‘ का अभिप्राय है कि बात या विचार को पूर्णतया चालित करना ) प्रत्येक धर्म अपने धार्मिक विश्वासों के प्रसारार्थ कुछ पद्धतियां अपनाता है । इस दृष्टि से धार्मिक संस्थाएं अपने विचारों तथा जीवन – यापन सम्बन्धी तरीकों को प्रचलित करने के लिए लोगों को प्रचार द्वारा प्रभावित करती

 सन् 1920 तथा 1930 में ‘ प्रोपेगण्डा ‘ ( प्रचार ) शब्द अंग्रेजी भाषा में बदनाम हो गया । इसके तीन कारण थे । प्रथम , युद्ध के दौरान विद्वानों ने दोनों पक्षों द्वारा प्रचार – यंत्र द्वारा प्रसारित झूठ को नग्न कर दिया । प्राविधिक प्रगति द्वारा सुलभ की गई सार्वजनिक संचार – व्यवस्था की सहायता से , प्रत्येक देश ने अपनी सफलता तथा अपने शत्रुओं की असफलता के बारे में जान – बूझकर झूठी खबरें फैलाई । द्वितीय , उसी समय , सोवियत रूस , इटली तथा साम्राज्यवादी जापान की सरकारों ने प्रचार तथा संस्कृति के अपने – अपने मंत्रालय स्थापित किए जिन्होंने इस बात का प्रचार किया कि उनके अपने देशवासी इस बात पर विश्वास करें कि सारे संसार पर नियंत्रण रखना उन्हीं के भाग्य में है तथा दूसरे राष्ट्र निन्द्य एवं दुष्टमना हैं ।

 इन मंत्रालयों ने प्रेस , रेडियो तथा चलचित्रों पर भी नियंत्रण रखा । जो व्यक्ति या समूह भिन्न विचार रखते थे , उनको दंडित किया गया । प्रत्येक देश में अपने अपने राजनीतिक बंदी शिविर थे और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक थी तथा शासन के विरोधियों के मनों में भय उत्पन्न किया जाता था । इन क्रियाओं से प्रचार शब्द अंग्रेजी में बुरे अर्थ में प्रयुक्त होने लगा । तृतीय , संसार के अंग्रेजी भाषी देशों की जनता का विश्वास अपनी प्रजातांत्रिक संस्थाओं में था । वे यह मानते थे कि व्यक्तियों को बिना किसी भय से प्रभावित हए अपना निर्णय स्वयं कर लेना चाहिए । इससे भी प्रचार की प्रविधियों के प्रति संवेगात्मक विरुचि उत्पन्न हो गई ।

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  प्रचार तथा शिक्षा

 इन दो शब्दों में अन्तर स्पष्ट करने के लिए प्रयास किया जा सकता है ताकि इनके अन्तर्गत होनेवाली प्रक्रियाओं को समझा जा सके । जैसाकि हम ऊपर देख चुके हैं कि प्रचार को कपटतापूर्ण तथा भ्रांतिजनक रूप में देखा जाता है । किन्तु , शिक्षा को सात्विक , नैतिक , प्रबुद्ध तथा निःस्वार्थ ज्ञान की भांति माना जाता है । फिर भी , हमें यह देखना है कि शिक्षा तथा प्रचार दोनों ही लोगों को कहां तक प्रभावित करते हैं । पुरानी पीढ़ी भी तथा शिक्षण पद्धति भी नवयुवकों को प्रभावित करना चाहती हैं । यह समाजीकरण की प्रक्रिया का एक अंग है । कभी – कभी शिक्षा तथा प्रचार के बीच के अन्तर को यह समझ लिया जाता है कि प्रचार का आधार संसूचन है जबकि शिक्षा का आधार जिज्ञासा तथा मनन है । यद्यपि यह अन्तर केवल तभी तक उचित है जबकि हम समाज के वयस्क वर्ग के सम्बन्ध में विचार कर रहे हों , लेकिन जब बच्चों को प्रभावित करनेवाले तरीकों पर विचार करते हैं , तो यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि ऐसी स्थिति में यह अन्तर समाप्त हो जाता है । बच्चे का अधिकांश समाजीकरण संसूचन पर आधारित है ।

निस्सन्देह यह सत्य है कि शिक्षा का ध्येय , खासतौर से माध्यमिक तथा कॉलेज स्तर पर यह होता है कि व्यक्ति अपने बारे में स्वयं सोचने की योग्यता प्राप्त कर सकें और किसी संसूचन द्वारा पथभ्रष्ट न हों । शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा समाज यह मान लेता है कि उसके नागरिक विभिन्न दलों की बातों तथा उनके प्रचार को सुनकर अपने निर्णयों पर पहुंचते हैं तथा किसी बात को सही , अच्छा और सच मानने के लिए अपने निर्णय लेते हैं ।

शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह है कि व्यक्ति के ज्ञान या कौशल का विकास किया जाए । लेकिन हम किस प्रकार के ज्ञान की बात करते हैं ? प्रचार वादी भी तो ज्ञानवर्द्धन कराता है । तो फिर शिक्षा द्वारा प्राप्त ज्ञान और प्रचार द्वारा प्राप्त ज्ञान किस रूप में भिन्न है । स्कूलों और कालेजों में जो ज्ञान दिया जाता

केवर सक्षम लोगों द्वारा सही समझा जाता है तथा प्रमाणिक होता है । अतः शिक्षा और प्रचार के बीच कोई सीमा रेखा खींचना अत्यंत कठिन है । सोवियत स तथा नाजी जर्मनी में भी स्कूलों को प्रचार का माध्यम बनाया गया । पाठ्य पुस्तकों में इस प्रकार के पाठ लिखाए गए जो एक विशेष प्रकार की सरकार तथा विशेष प्रकार के समाज की प्रशंसा में थे और दूसरे प्रकार की सरकार और समाज की निन्दा में । यहां तक कि बच्चों की कहानियों की पुस्तकों में भी रूस तथा चीन में साम्यवाद के प्रचार की सामग्री होती है । यह कहा जा सकता है कि रूस तथा चीन में सक्षम लोग इस प्रकार की शिक्षा को अपने देशों के बच्चों के पालन – पोषण के समय बहुत आवश्यक , लाभप्रद तथा सही मानते हैं । इसी भांति भिन्न – भिन्न देशों में इतिहास की पुस्तके प्रचार की पप्ति सामग्री से भरी रहती हैं ।

अंग्रेजी शासन काल में बच्चों के लिए निर्धारित भारतीय इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में भारत में अंग्रेजों के काम की सराहना की जाती थी तथा जो लोग ब्रिटिश प्रभाव के प्रसार का विरोध करते थे , उनकी भर्त्सना की जाती थी । उदा हरणार्थ , जबकि सन् 1857 की क्रांति को भारतीयों ने ‘ स्वाधीनता युद्ध ‘ की संज्ञा दी तो अंग्रेज इतिहास लेखकों ने उसे ‘ सैनिक विद्रोह ‘ कहा । यही कारण है कि आज संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक , वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन ने एक कार्यक्रम बनाया है जिसका उद्देश्य यह देखना है कि स्कूल के बच्चों के लिए जो इतिहास की पुस्तकें लिखी जाएं वे वस्तुनिष्ठ हों तथा इस बात की सूचक हों कि प्रत्येक देश की प्रगति तथा उसकी संस्कृति न केवल उसकी भूमि के महान पुरुषों की देन है बल्कि पड़ोसी देशों के प्रभावों की भी देन है । अतः यह कहना बहुत कठिन है कि कहां शिक्षा समाप्त होती है तथा किस स्थान से प्रचार का प्रारम्भ होता है ।

यह बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है कि शिक्षा का लक्ष्य लोगों को सत्य की खोज के लिए अग्रसर करना है । इसमें जांच तथा निर्णय की स्वाधी नता की अभिवृत्ति निहित रहती है । यह बात दृढ़तापूर्वक कही जा सकती है कि इस पक्ष विशेष में प्रचार तथा शिक्षा के बीच अन्तर है चाहे प्रचार किसी धर्म विशेष द्वारा किया जा रहा है अथवा अधिनायकवादी सरकार द्वारा । इस प्रकार से हम देखते हैं कि प्रचार प्रोत्साहन देने वाली जिज्ञासा को बढ़ाने की बजाय बने बनाए मत ग्रहण कराता है । दूसरे शब्दों में प्रचार का लक्ष्य है – मनुष्य के मस्तिष्क को एक सीमित विचारधारा में बांधना तथा दूसरी ओर शिक्षा का ध्येय है लोगों में स्वतन्त्र चिन्तन का विकास करना । यही कारण है कि पामिक संगठन तथा अधिनायकवादी सरकारें भी अपने विचारों से विरोध रखने वाले लोगों को दण्ड देती हैं । प्रचार स्वतन्त्र चिंतन को सहन नहीं करता , जबकि बास्तविक शिक्षा स्वतन्त्र चितन को अनुमति तथा प्रोत्साहन देती है ।

 इससे हमें यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि प्रचार सदैव कपटता पूर्ण , अनैतिक या भ्रांतिजनक होता है । बहुत से अच्छे कार्यों के लिए प्रचार की आवश्यकता पड़ती है । उदाहरण के लिए , जब किसी देश का जन स्वास्थ्य विभाग कुछ विशेष प्रकार की व्याधियों को दूर करने के लिए सामूहिक जीवन की कुछ प्रवृत्तियों के विरुद्ध अभियान शुरू करना चाहता है , तो उसे प्रचार की प्रविधियों का अवश्यमेव सहारा लेना पड़ता है । उदाहरणस्वरूप यद्यपि पुरातन काल से ही भारत में वैयक्तिक स्वास्थिकी पर बहुत ध्यान दिया जाता रहा है , लेकिन व्यावहारिक रूप से 80 % से 90 % तक लोग वैयक्तिक स्वच्छता पर ध्यान नहीं देते । आज हमारा एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह भी है कि हम लोगों से कहें कि वे नियमित रूप से स्नान करें तथा प्रतिदिन अपने वस्त्र धोएं और अपने घरों तथा घरों के परिवेश को स्वच्छ बनाए रखें । यह केवल तभी हो सकता है जबकि हम शहरों तथा गांवों और स्कूलों तथा अस्पतालों में भी खूब प्रचार करें ।

इसी प्रकार जब कोई महामारी , हैजा या आंत्र ज्वर जैसी व्याधि फैलती है तो यह आवश्यक है कि लोगों की बस्तियों में प्रचार – वाहनों को भेजा जाए और उन्हें बीमारी से बचने के लिए टीका लगवाने के लिए प्रेरित किया जाए । अतः संकट – काल , अकाल के समय तथा बाढ़ और महामारी के समय प्रचार का प्रयोग करना पड़ता है जिससे लोग संभावित खतरों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सके तथा कठिनाइयों पर विजय पाने के लिए अपेक्षित साधनों को काम में ला सके । इसी भांति स्वाधीनता – संघर्ष के दौरान गांधीजी और उनके अनु यायियों ने प्रचार की प्रविधियों का प्रयोग किया था ताकि अनपढ़ जनता तथा पढ़े – लिखे समाज को भी स्वराज्य की आवश्यकता के प्रति सचेत किया जा सके । यह नहीं कहा जा सकता कि स्वतन्त्रता प्राप्ति , उपनिवेशवाद से मुक्ति , तथा प्रजातांत्रिक जीवनचर्या के पक्ष में जो प्रचार किया जाता है वह भी भ्रान्तिजनक या कपटतापूर्ण है । दूसरे शब्दों में यह आवश्यक है कि हम पहले किसी समूह विशेष के मूल्य – निर्णयों तथा लक्ष्यों को समझें और यह देखें कि क्या किसी सूचना का संचरण शिक्षा के रूप में है , या प्रचार के रूप में । अमेरिका में प्रजातन्त्र के आदर्शों से सम्बंधित भाषणों को शिक्षा के रूप में समझा जाएगा जबकि उन्हीं भाषणों को अधिनायकवादी देशों में प्रचार समझा जाएगा और संगठनकर्ताओं तथा व्याख्यान करने वालों को गिरफ्तार कर लिया जाएगा एवं उन्हें नजरबन्दी शिविरों में भेज दिया जाएगा ।

इस प्रकार से प्रचार क्या है , यह बात उस समह विशेष के समस्या पर विचार करने के तरीके पर निर्भर करती है जिस पर प्रचार प्रविधि का उपयोग किया जा रहा है । उदाहरणार्थ , भारत में पिछले कुछ वर्षों में जबकि कांग्रेस दल तथा सरकार ने मंच तथा प्रेस से भी समाज के समाजवादी ढांचे ‘ के अनिवार्य लक्षणों को वणित किया , तो उन्हें इन कार्यक्रमों से प्रभावित MINठेले दूसरे राजनैनिक दलों तथा सामाजिक वर्गों ने प्रचार समझा । दूसरी ओर , जब व्यावसायिक तथा व्यापारी लोगों ने मंच तथा प्रेस के द्वारा प्राइवेट उपक्रम की आवश्यकता पर बल दिया , तो राजनैतिक दलों और सरकार ने भी इसे प्रचार समझा । अतः हम इसे एक सापेक्ष समस्या के रूप में देख सकते हैं जो किसी खास समय पर किसी समूह विशेष के सामाजिक प्रतिमानों और सामाजिक उद्देश्यों पर निर्भर होती है ।

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– एक सामान्य धारणा यह है कि प्रचार से लोगों के विश्वासों तथा उनकी अभिवृत्तियों को प्रभावित किया जाता है तथा इस प्रकार से अन्ततः प्रचार द्वारा उनकी क्रियाओं पर भी असर डाला जाता है । प्रचार का लक्ष्य लोगों के विचारों तथा अभिवृत्तियों पर असर डालकर उनकी क्रियाओं को प्रभावित करना है । जैसाकि हम पहले देख चुके हैं कि लोग सामान्यतया यह समझते हैं कि जिन विशिष्ठ विश्वासों और अभिवृत्तियों को प्रभावित किया जाता है वे न तो स्वयं में मूल्यवान होती हैं और न ही समाज द्वारा वांछनीय होती हैं । यह मान लिया जाता है कि प्रचारवादी लोगों के विश्वासों तथा उनकी अभिवृत्तियों को इसलिए प्रभावित करता है क्योंकि उसके मस्तिष्क में कुछ अन्तःस्थ अभिप्रेरण और उद्देश्य निहित रहते हैं । फलतः यह माना जाता है कि जो व्यक्ति प्रचार से प्रभा वित होता है उसके प्रत्युत्तर आलोचना रहित होते हैं । वे प्रचारक के तर्क और तथ्य – मूल्यांकन या उसके उद्देश्यों पर आधारित नहीं होते ।

 इसके विपरीत , शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति का ज्ञानवर्द्धन कराना होता है । यहां हमें प्रचार तथा शिक्षा में विपरीतता देखने को मिलती है । जबकि प्रचार द्वारा लोगों के विश्वासों तथा उनकी अभिवृत्तियों को प्रभावित किया जाता है , तो शिक्षा का लक्ष्य लोगों में ज्ञान की वृद्धि करना होता है । फलस्वरूप शिक्षा द्वारा जो विशिष्ठ ज्ञान दिया जाता है , वह स्वयमेव मूल्यवान होता है तथा समाज द्वारा बांछनीय भी होता है । यह माना जाता है कि ज्ञान के आधार पर जो कार्य किया जाता है वह व्यक्ति तथा समाज दोनों के ही कल्याण में वृद्धि करता है । अन्त में , यह विश्वास किया जाता है कि शिक्षित आदमी का प्रत्युत्तर एक समीक्षात्मक प्रत्युत्तर होता है जो तर्क पर आधारित होता है जबकि प्रचार द्वारा प्रभावित किसी व्यक्ति का प्रत्युत्तर आलोचना रहित तथा तर्कविहीन होता है ।

 इससे हमारे सामने मूलभूत समस्या यह उत्पन्न होती है कि क्या प्रचार तथा शिक्षा की पद्धतियों में कोई संज्ञानात्मक प्रक्रिया निहित है । ऐसा हो सकता है कि अध्यापक के अचेतन मन में प्रचार की इच्छा विद्यमान हो । उदाहरणार्थ , हम उन प्रश्नों का विश्लेषण कर सकते हैं जिन्हें फ्रीमैन ( 1 ) ने थॉर्नडाइक की गणित की पुस्तक में दिया है । फ्रीमैन का कहना है कि थॉर्नडाइक की पुस्तक में दिए हुए कई प्रश्न , निजी स्वामित्व , मजदूरी , ब्याज आदि के बारे में पूंजीवादी भावना पर जोर क्टर से फ्रीमैन के अनुसार ये प्रश्न बच्चों के विश्वासों तथा उनकी

अभिवृत्तियों को किसी विशेष प्रकार की आर्थिक – प्रवृत्तियों के बारे में सुदृढ़ बनाते हैं । फ्रीमैन का अनुरोध है कि हम कल्पना करें कि गणित की उस पुस्तक के संबंध में लोगों के क्या मत रहे होंगे जिसमें अमरीका के दक्षिणी राज्यों में कपास के कारखानों में काम करने वाले नीग्रो लोगों की अल्प मजदूरी तथा उनके अल्प पोषण से सम्बन्धित समस्याओं का उल्लेख है । इस प्रकार की गणितीय समस्याएं निश्चित रूप से बच्चों को , गणितीय सिद्धान्तों को उतनी ही कुशलता के साथ सिखाने के लिए प्रेरित करेंगी जितनी थॉर्नडाइक की पुस्तक या गणित पर कोई दूसरी पुस्तक । लेकिन यह आलोचना भी हुई होगी कि ऐसी पुस्तक प्रचारवादी है और शुद्ध गणित के योग्य नहीं ।

 हम मेयर्स ( 2 ) के कार्य का उदाहरण भी दे सकते हैं जिसने संसूचनों द्वारा आचरण के नियंत्रण को अध्ययन करने के लिए एक परीक्षण किया । उसने अमरीकी सेना के विदेशों में उत्पन्न हुए सिपाहियों को अंग्रेजी में पत्र लेखन के शिक्षण की जो रूपरेखा तैयार की थी , उसका उद्देश्य उन्हें न केवल पत्र लिखना सिखाना था , अपितु उन आदर्श – पत्रों में कुछ विशिष्ट विचारों तथा तथ्यों का भी समावेश कराना था जिनसे उन सिपाहियों का ” अमरीकीकरण ” करने में सहायता मिल सके । मेयर्स ने देखा कि इस पाठ्यक्रम से विद्यार्थियों की न केवल लेखन – योग्यता ही बढ़ी बल्कि उससे अमरीकी जीवन – यापन की दिशा में उनके विश्वासों तथा उनकी अभिवृत्तियों को प्रभावित करने में भी सफलता मिली । यह उदाहरण सचेष्ट प्रचार का है ।

जहां एक ओर फ्रीमैन थॉर्नडाइक के प्रश्नों को ‘ अचेष्ट प्रचार ‘ की संज्ञा देता है , वहां दूसरी ओर हम देखते हैं कि मेयर के आदर्श पत्र “ सचेष्ट प्रचार ” के प्रतीक हैं । सचेष्ट प्रचार तथा अचेष्ट प्रचार में क्या अन्तर है ? यह स्पष्ट है कि थॉर्नडाइक तथा मेयर के उद्देश्य भिन्न – भिन्न थे । थॉर्नडाइक का अभिप्राय यह नहीं था कि वह किसी आर्थिक प्रवृत्ति का प्रचार करे , जबकि मेयर्स निश्चित रूप से विदेश में पैदा हुए सैनिकों में ऐसे विश्वास तथा अभिवृत्तियां भरना चाहता था जिनसे उनको अमरीकी जन – जीवन में अधिक अच्छी तरह से मिलाया जा सके । फिर भी , जहां तक बच्चों या सिपाहियों पर पड़े प्रभाव का प्रश्न है , लेखकों के इरादों के आधार पर उसमें अन्तर नहीं है । फलतः जहां तक मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं का सम्बन्ध हैं , उनमें कोई अन्तर नहीं है हालांकि अभिप्राय में अन्तर पाया जा सकता है । प्रचार में अनिवार्य मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएं ठीक वैसी ही हैं जैसी दूसरे प्रकार की सामग्री के सीखने में होती हैं । चाहे प्रचार में हो या शिक्षा में , चाहे सचेतन अभिप्राय लिए हो या अचेतन आशय , किन्तु लोग ऐसी बातें अवश्य सीखते हैं जो उनके विश्वासों तथा उनकी अभिवृत्तियों पर असर डालती है  ।

प्रचार की आवश्यकता

 प्रचार शब्द द्वारा उत्पन्न प्रतिकूल अभिवृत्ति के कारण तथा प्रचार की प्रविधियों द्वारा भ्रान्त बौद्धिक तथा संवेगात्मक प्रतिरोध ने प्रचार के महत्त्व को कम कर दिया है ।

 जैसाकि हम ऊपर देख आए हैं कि अनेक सामाजिक समस्याओं पर प्रचार करने की अत्यंत आवश्यकता पड़ती है । बहुत – सी समस्याओं की महत्ता के प्रति लोगों को सजग रखने के लिए प्रचार बहुत जरूरी है । उदाहरणार्थ भारत में क्षय रोग एक ऐसी बीमारी है जो प्रतिवर्ष अनेक जानें ले लेती है । फलतः , चिकित्सकों केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों ने लोगों को यह समझाने के लिए बहुत से चार्ट तथा पूस्तिकाएं तैयार की हैं कि इस बीमारी को फैलने से कैसे रोका जा सकता है तथा इस छ्त लगने से स्वयं को तथा बच्चों को कैसे बचाया जा सकता है । जैसा कि यह बात सबको मालूम है कि ‘ क्षय रोग – निवारण के प्रचारार्थ धन संग्रह करने के लिए ‘ क्षय टिकट ‘ डाकघरों तथा दूसरी संस्थाओं द्वारा विक्रय की जाती हैं । इसी भांति , लोगों को उन अनेक कल्याण – कार्यक्रमों की महत्ता को समझाने की महती आवश्यकता है , जिन्हें स्वयं सेवी संस्थाओं , राज्य तथा केन्द्रीय सरकारों ने शुरू कर रखा है ।

समाज कल्याण ‘ , ‘ योजना ‘ , ‘ स्वस्थ हिन्द ‘ आदि जैसे अनेक पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जा रहा है । ये पत्रिकाएँ अनेक भाषाओं में छपती हैं तथा विविध संस्थाओं के ठोस कार्यक्रमों का वर्णन करने में बहुत उपयोगी हैं । इस संस्थाओं से संबंधित समस्याओं तथा उनके बारे में रुचि लेने वाले व्यक्तियों द्वारा की गई परिचर्चाओं पर भी ये पत्रिकाएं सामग्री प्रदान करती हैं । अतः ये पत्र – पत्रिकाएं सूचना के बहुत बड़े स्रोत हैं तथा समाज की उन्नति के लिए इन महत्त्वपूर्ण पक्षों के बारे में लोगों में भारी जोश उत्पन्न करती हैं । फलस्वरूप हमें प्रचार शब्द का भ्रांतिजनक अर्थ नहीं लेना चाहिए और इस नतीजे पर नहीं पहुंच जाना चाहिए कि प्रचार भ्रांतिजनक या बुरा है । जैसाकि हम पिछले अध्याय में देख चुके हैं कि जनमत में जन – परिचर्चा का समावेश होता है । जन परिचर्चा के लिए सामग्री का होना बहुत आवश्यक है और यहां होती है , जहाँ लोगों को समस्याओं के प्रति जागरूक रखने के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं तथा

राज्यों द्वारा भी प्रचार की प्रविधियां अपनाई जाती हैं । जैसाकि हम अगले अध्याय में पढ़ेंगे कि सभाओं , संगोष्ठियों तथा समूह – परिचर्चाओं का यही उद्देश्य होता है । पुरातन काल से आज तक लोगों को समस्याओं से अवगत कराने के लिए , समाज इन्हीं प्रविधियों को अपनाता आ रहा है ताकि लोग अपने निर्णय स्वयं दे सकें । रिष्टि तब होती है जबकि प्रचार की प्रविधियों से लोगों को पथभ्रांत किया जाता है और उन्हे संसूचनों को निर्णय के रूप में स्वीकार कराया जाता है तथा उन्हें यह नहीं बताया जाता कि समस्या के दूसरे पहल भी हैं और केवल परिचर्चा के बाद ही कोई निर्णय लेने चाहिएं । अन्त में , प्रचार अवपीडक नहीं होना चाहिए और न ही वह लोगों के स्वतंत्र चिन्तन पर रोक लगाने वाला होना चाहिए । प्रचार में स्वयं कोई दोष नहीं है बल्कि दोष है असहिष्णुता को बढ़ावा देने के लिए प्रचार को अपनाने में ।

भाषा तथा प्रचार

प्रचार को जिस माध्यम से क्रियान्वित किया जाता है वह है भाषा – कथ्य अथवा लिखित । फलतः प्रचार के प्रमुख उपकरण के रूप में हम भाषा की महत्ता पर संक्षेप में विचार करेंगे । प्रचार ( वाचिक और लिखित ) ने उन ‘ शक्तियों ‘ में अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की है जो मानव को नियंत्रित करती हैं । यह युद्ध काल में अणुबम की अपेक्षा अधिक भयंकर अस्त्र सिद्ध हुआ है तथा शांतिकाल में संयुक्त राष्ट्र संघ की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली साधन सिद्ध हुआ है । नियंत्रण प्रविधि के रूप में प्रचार के गुणों में इसका अपेक्षाकृत सस्तापन , इसकी विचक्षणता तथा इसकी लगभग असीम क्षमताएं शामिल हैं ( 3 : 316 ) ।

यह एक सामान्य धारणा है कि शब्द वस्तुओं या क्रियाओं के केवल प्रतीक मात्र हैं । फलस्वरूप यह मान लिया जाता है कि भाषा व्यवहार का एक प्रकार का प्रतिस्थापक है । दूसरी ओर यह धारणा है कि शब्दों को उसी तरह से समझा जाता है जैसे वस्तुओं को । आधुनिक शिक्षा प्रणाली में यह एक प्रविधि है कि बच्चों को आरम्भ में ही शब्द भी और समूचे वाक्य भी सिखाने चाहिएं । इस प्रविधि का आधार यही विश्वास है कि शब्दों का प्रत्यक्ष ज्ञान वस्तुओं की भांति होता है । यहां एक उदाहरण देना उपयुक्त होगा । यह बात सर्वविदित है कि जब हम कोई ऊंची आवाज सुनते हैं तो उसे सुनकर या तो स्तंभित हो जाते हैं अथवा उसके प्रति भयभीत हो जाते हैं । यहां हमारी प्रतिक्रिया स्वयं ऊंची आवाज पर आधारित होती है । यह आवाज सार्थक समझी जाती है किसी वस्तु के लिए प्रतीक के रूप में नहीं । जैसाकि हम पहले ( अध्याय 8 ) देख चुके हैं कि हम दूसरे लोगों के द्वारा प्रयुक्त शब्दों के साथ या जिन शब्दों को हम अपने आप बोलते हैं उनके साथ समायोजन स्थापित करते हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि हम जिस तरह स्वयं

को वस्तओं से समायोजित करते हैं उसी प्रकार स्वयं को शब्दों के प्रति भी समय योजित करते हैं । जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने इर्द – गिर्द की वस्तुओं से प्रभावित होता है , उसी प्रकार वह उन शब्दों से भी प्रभावित होता है , जो उसके बारे में बोले जाते हैं । जब हम कोई शब्द या वाक्य सुनते हैं या किसी समाचार पत्र में कोई शब्द या वाक्य देखते हैं तो हम प्रायः उसका मतलब प्रत्यक्ष रूप से और तरन्त समझ जाते हैं तथा इन शब्दों , वाक्यांशों और वाक्यों के प्रति वैसी ही प्रतिक्रिया करते हैं जैसी यथार्थ जगत में किसी अन्य वस्तु के प्रति की जाती है । प्रचारवादी शब्दों का प्रयोग करता है तथा वह शब्दों को कुशलतापूर्वक घढकर व्यक्तियों के व्यवहार में बड़े – बड़े परिवर्तन लाता है । इसी से प्रचार की विलक्षण शक्ति सम्भव होती है , लेकिन इससे यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि प्रचार में मूलभूत प्रविधि , शब्दों तथा वाक्यांशों का चतुर प्रयोग करके किन्हीं नारों को दोहराना है , शब्दों को आंतरिक तथा वाह्य पक्षों के सन्दर्भ में समझा जाता है ।

दूसरे शब्दों में , यह समझने के लिए कि भाषण द्वारा लोगों को प्रभावशाली ढंग से क्यों फुसलाया जा सकता है , हमें श्रोताओं के अभिप्रेरणों तथा संवेगों को अवश्य समझ लेना चाहिए । हमें श्रोताओं के तत्कालीन विश्वासों , आवश्यकताओं तथा अभिवत्तियों को अवश्य जान लेना चाहिए । यह तभी हो सकता है जबकि हम इन दोनों पक्षों अर्थात् एक ओर शब्दों का प्रभाव तथा दूसरी ओर लोगों की आवश्यकताओं का प्रभाव समझ लें , इसके बाद ही हम प्रचार की विलक्षणता को संतोषजनक ढंग से जान सकते हैं । उदाहरणार्थ , भारत के कुछ राजनीतिक दलों ने लोगों के मतों तथा अभिवृत्तियों को प्रभावित करके सरकार के अनेक कार्यों के विरुद्ध प्रचार करने के प्रयत्न किए हैं । उन्होंने खाद्यान्नों का अभाव जैसी समस्याओं को हाथ में लिया है । ताकि वे सरकार के विरुद्ध विपरीत अभिवृतियां बना सकें ।

उदाहरणार्थ , उन्होंने गणतंत्र दिवस तथा स्वाधीनता दिवस ‘ सत्याग्रह ‘ शुरू करने के लिए चुने हैं । उदाहरणार्थ , सन् 1958 में मैसूर के महाराजा , जो उस समय मैसूर राज्य के राज्यपाल थे , के जलस के विरुद्ध एक राजनीतिक दल ने सत्याग्रह किया था । इसमें महाराजा को दशहरे के अवसर पर हाथी पर चढ़कर निकलने का विरोध किया गया था । निस्संदेह यह बात सत्य है कि महाराजा को हाथी पर बिठाकर जुलूस निकालना सामंतवादी प्रवृत्तियों का अवशेष मात्र है । लेकिन सभी लोगों पर इस प्रचार का प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि लोगों की इच्छा सामंतवादी प्रवृत्ति को समाप्त करने की अपेक्षा महाराजा मैसूर को दशहरे के विशाल जुलस में देखने के लिए अधिक तीव्र थी । संभवत : आम जनता ने सामंत वाद तथा प्रजातंत्र में वैसा कठोर विरोध नहीं समझा जैसाकि उस राजनीतिक दल ने समझा था ।

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