प्रकार्यवादी सिद्धांत

प्रकार्यवादी सिद्धांत

सर्वप्रथम ‘FUNCTION’ शब्द की चर्चा हरबर्ट स्पेन्सर की रचनाओं में आई लेकिन FUNCTION शब्द की वैज्ञानिक अवधारणा के रूप में प्रयोग करने का श्रेय फ्रेंच विचारक इमाइल दुर्शीम ने अपनी पुस्तक The rules of sociological Method (1895) में की है।  उनके अनुसार टाइप्य किसी व्यवस्था की किसी भी इकाई का वह योगदान जो व्यवस्था की आवश्यकता पूर्ति में सहायता प्रदान करता है उसे ‘प्रकार्य’ कहते हैं।]  में हे प्रकार्य को दो भागों में बाँटा है-

          1.धनात्मक प्रकार्य (Positive function)

          2.ऋणात्मक प्रकार्य (Negative Function) 

       धर्म को जहाँ में उसने कई धनात्मक प्रकार्यो – अनुशासन, संगठन आदि की चर्चा की वहीं आत्महत्या के ऋणात्मक प्रकारों की चर्चा की है।  इमाईल दुर्थीम के बाद प्रकार्य शब्द पर विशद विश्लेषण हमें रेडक्लिफ ब्रान और मौलिनोस्की की रचनाओं में मिलता है।  रेडक्लिफ ब्र ने ने टाइप्य शब्द को दो भागों में बाँटा है-

                     1.यूनोमिया (Eunomia) 

                     2.डिस्नोमिया (Dysnomia) 

 

     यूनोमिया से इनका तात्पर्य इकाई का इंतजाम स्वाभाव प्रभाव से है और डिसनोमिया से तात्पर्य हानिकारक प्रभाव से है। 

बी0 मौलिनोस्किनी ने अपनी पुस्तक A Scientific Study of Culture and Argonoutes of the Western Pacific में प्रकार्यावाद का विशद विश्लेषण किया।  ब्रून और मौलिनोस्किी दोनों विद्वानों ने टाइप्यवाद के तीन मौलिक मान्यताओं की चर्चा की है- 

                     1.यूनिवर्सल टाइपिज्म (Universal Functionalism)

                     2.प्रकार्यात्मकता (Functional Unity) और

                     3.प्रकार्यात्मक अपरिहार्यता (Functional Indespensability) 

 

      सार्वभौमिक प्रकारवाद की मान्यता के अनुसार सामाजिक व्यवस्था की प्रत्येक इकाई।  किसी-न-किसी प्रकार्य में योगदान देता है।  अतः कोई भी इकाई ऐसी नहीं है जो कुछ-न-कुछ सहयोगात्मक न हो।  इसलिए सम्पूर्ण इकाईयाँ प्रकार्यात्मक होते हैं।  इस सिद्धांत को सार्वभौमिक प्रकार्यावाद कहते हैं।

                                प्रकार्यात्मक एकता से तात्पर्य यह है कि जब व्यवस्था की सारी ईकाइयाँ प्रकायात्मक हा हैं तो इन सभी इकाइयों में एकता स्थापित होती है । इस तरह प्रत्येक इकाई सहयोगात्मक की होती है । अतः सभी इकाई अपना-अपना प्रकार्य करते हुए प्रकार्यात्मक एकता बनाए रखता है l प्रकार्यात्मक अपरिहार्यता से तात्पर्य यह है कि जब सारी इकाईयाँ प्रकार्य करता ह साथ ही प्रकार्यात्मक एकता स्थापित किये होती है तो उसमें से कोई भी इकाई की व्यवस्था स हटाया नहीं जा सकता है । अतः प्रत्येक इकाई का अपना महत्त्व है इसलिए किसी भी इकाइका व्यवस्था से निष्कासित नहीं किया जा सकता है ।

                          आधुनिक समाजशास्त्रीय जगत में प्रकार्यवाद का व्यापक विश्लेषण अमेरिकी समाजशास्त्री आर० के मर्टन ने किया । इन्होंने अपनी पुस्तक The Social Theory and Social Structure में न केवल प्रकार्यवाद को समाजशास्त्रीय जगत में वापस लाया बल्कि इसकी पुनव्याख्या का ।

                  प्रकार्यवादी सिद्धांत के प्रमुख समर्थक टॉलगट पारसन्स हैं इन्होंनी अपनी पुस्तक The Structure of Social Action ( 1837 ) तथा The Social System ( 1851 ) में प्रकार्यवाद का स्थापित करने का प्रयास किया है । इनके अनुसार , किसी भी सामजिक व्यवस्था का तीन पूर्व आवश्यकताएँ (Pre-requisties) होती है ।

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                 1.जैविकीय पूर्व आवश्यकताएँ (Biological Pre-requisites)

                     2.सांस्कृतिक पूर्व आवश्यकताएँ (Cultural Pre-requisites) एवं,

                     3.प्रकार्यात्मक पूर्व आवश्यकताएँ (Functional Pre-requisites) 

पारसन्स ने इन तीन पूर्व आवश्यकताओं में सबसे अधिक बल प्रकार्यात्मक पूर्व आवश्यकता पर दी है और बतलाया है कि किसी भी समाज व्यवस्था की चार प्रकार्यात्मक पूर्व आवश्यकताएँ होती हैं जिनकी पूर्ति उस व्यवस्था की चार उप-व्यवस्थाएँ करती हैं । ये चार पूर्व आवश्यकताएँ  हैं-

1.प्रतिमान निरूपण एवं तनाव की मुक्ति (Latency)

2.लक्ष्य की प्राप्ति (Goal Attainment)

3.अनुकूलन (Adaptation) एवं

4.एकीकरण (Integration)

 

 इसे संक्षेप में AGIL भी कहा जाता है । साथ ही चार पूर्व उप-व्यवस्थाएँ भी हैं-

            1.मूल्य व्यवस्था (Value System)

            2.राजनीतिक व्यवस्था (Political System)

            3.आर्थिक व्यवस्था (Economic System) एवं

            4.सामाजिक व्यवस्था (Social System) 

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मूल्य – व्यवस्था जहाँ Latency की आवश्यकता की पूर्ति करती है वहीं राजनीतिक व्यवस्था लक्ष्य – प्राप्ति से संबंधित आवश्यकताओं की पूर्ति करती है ; अर्थव्यवस्था का संबंध अनुकूलन से तथा एकीकरण का संबंध सामाजिक व्यवस्था से है । इस तरह पारसन्स का कहना है कि यह चारों उप – व्यवस्थाएँ क्रमशः चार तरह की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । इसे संक्षेप में इस रह देख सकते है-

                     Sub – System                         Pre – requisites 

                          Value                                    Latency 

                         Political                                  Goal

                        Economic                             Adaptation

                         Social                                  Integration

 इसके अलावा पारसन्स ने पाँच जोड़े Pattern Variables की चर्चा की है । इसमें उन्होंने यह बतलाया है कि यदि कोई कर्ता किसी भी क्रिया को करना चाहता है तो उसके समक्ष दो विकल्प होते हैं जिसमें से वह किसी एक को चनता है तथा सामाजिक क्रिया करता है । यह पाँच जोड़ Pattern Variable निम्नलिखित है । 

                           1.अनुशासन मुक्ति बनाम अनुशासन बद्धता 

                           2.स्वहित बनाम परहित

                           3.विशिष्टवाद बनाम सार्वभीमिक 

                           4.अंश बनाम सम्पूर्ण एवं 

                            5.प्रदत्त बनाम अर्जित

 

 अतः स्पष्ट है कि पारसंस ने सामाजिक परिवर्तन को समझने के लिए बारीक विश्लेषण किया है । 

 

 

आर० के० मर्टन : 

 

 

अमेरिकी समाजशास्त्री राबर्ट किंग्सले मर्टन ने समाजशास्त्रीय जगत में प्रकार्यवादी विश्लेषण पर काफी बल दिया है अतः उन्हें प्रकार्यवाद के समर्थकों में से एक माना जाता है । मर्टन न केवल पारसन्स के समकालीन हैं बल्कि उनके शिष्य भी रह चुके हैं , फलस्वरूप मर्टन पर पारसन्स का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है । टॉलकट पारसन्स के अलावे मैक्स – वेवर तथा डव्ल्य० आई० थामस ( W.I.Thomas) का प्रभाव भी मर्टन पर पड़ा है । मर्टन ने मैक्स वेवर के सामाजिक क्रिया के ‘ Frame Work ‘ को स्वीकार करते हुए उनके विश्लेषण की तकनीकी को भी स्वीकार किया है । इसी तरह ने डब्ल्यू० आई० थामस के सामाजिक घटनाओं के विश्लेषण में सामाजिक परिस्थिति की महत्ता को भी स्वीकार किया है । यद्यपि मर्टन सर सामाजिक क्रिया के सिद्धांत तथा सामाजिक व्यवहारवाद ( Social Behaviour ) का काफी प्रभाव पड़ा है , लेकिन सामाजिक घटनाओं के विश्लेषण में मर्टन का दृष्टिकोण बिल्कुल अलग है । मर्टन की अध्ययन – पद्धति को पैराडाइम ( Paradiom ) कहते हैं जिसके आधार पर उन्होंने प्रकार्यवाद के विश्लेषण को प्रस्तुत किया है । 

         प्रकार्यवादी विश्लेषण कोई नई घटना नहीं है बल्कि इस तरह के विचार हमें पूर्व के समाजशास्त्रियों एवं सामाजिक की रचनाओं में देखने को मिलता है । लेकिन समाजशास्त्रीय जगत में इस विचारधारा को पुनः लाने और इसे स्थापित कर सवल आधार देने का श्रेय मर्टन को ही जाता है । मर्टन ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि प्रकार्यवाद के संबंध में हमें लिखित सामग्री बहुत मिलती है । साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण (Functional analysis) पद्धति , सिद्धांत एवं तथ्य तीनों पर आधारित है (Method Principles & Facts) जिसमें सबसे कमजोर पथ पद्धति का ही है l

      मर्टन ने प्रकार्य (Function) शब्द को न केवल समाजशास्त्र में लाया बल्कि इसकी पुनः व्याख्या की और इसके अलावे अन्य अवधारणाओं जैसे – प्रकार्य तथा अनेक प्रकारों प्रकट (Manifest) एवं अप्रकट (Latew) आदि की चर्चा की । मर्टन से पहले दर्शीम (Durkheim) रेडक्लीफ ब्राउन (R. Brown) , मौलिनोवस्की (Malinowski) आदि विद्वान प्रकार्यवाद की चर्चा कर चुके थे । ब्राउन एवं मैलिनोवस्की ने प्रकार्यवाद की तीन मान्यताओं की चर्चा की थी । पहली , समाज का हर तत्व निश्चित रूप से बने रहने में योगदान देता है यदि ऐसा नहीं करे तो वह अस्तित्वहीन हो जाएगा । दूसरी , सभी तत्वों के बीच प्रकार्यात्मक एकता पायी जाती है एवं तीसरी . किसी भी तत्व को अलग नहीं किया जा सकता है । मर्टन ने इन तीनों ही मान्यताओं का खण्डन किया।

                   रेडक्लिफ ब्राऊन एंड मौलिनोवस्की द्वारा प्रतिपादित प्रकार्यावाद की पहली मान्यता का खण्डन करते हुए मर्टन ने लिखा है कि मानवशास्त्रियों ने इस मान्यता के आधार पर समाज का जिस प्रकार व्यावहारिकता का उल्लेख किया है, उसकी वास्तविकता परीक्षण या द्वारा ज्ञात करना आवश्यक हैं।  यह सच है कि प्रत्येक समाज में कुछ एकता अवश्य विद्यमान होती है लोकना समाजा म एकाकरण का यह स्तर अलग – अलग हो सकता है।  इसकी तात्पर्य यह है कि समाज में जो ‘प्रचलन’ व्यवहार प्रकार कार्यात्मक होते हैं, दूसरे समाज या समूह में अकार्यवादी भा हा सकते हैं।  इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण करते समय विभिन्न इकाइयों के प्रकारों की विशेषताओं को निश्चित रूप से समझा जाए।  इसी की सहायता से यह समझा जा सकता है कि किसी विशेष समाज में सामाजिक एकीकरण उत्पन्न करने में विभिन्न इकाईया के प्रकार्य कैसे और कितना योगदान करते हैं। 

               ब्राउन एवं मौलिनोवस्की की दूसरी मान्यता का खण्डन करते हुए मर्टन ने कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि संस्कृति के स्थापित तत्व के रूप में प्रत्येक परम्परा समाज को बनाए रखने में निश्चित ही सहयोगी हो।  दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जो परम्पराएँ कई पीढ़ियों तक समाज को सुरक्षित प्रदान करती रहती है वे कभी – कभी या किसी विशेष अवधि में या तो अनुपयोगी सिद्ध होने लगती है या समाज में परिवर्तन की दशा उत्पन्न कर देती है।  उदाहरणार्थ, भारत में जाति प्रथा के परम्परागत प्रकार्य वर्तमान समय में उसके अकार्य बन गए हैं और यह प्रथा सामाजिक व्यवस्था को पशु प्रदान करने की जगह उसमे परिवर्तन उत्पन्न करने लगी है।  इस प्रकार मर्टन यह स्वीकार नहीं करता है कि किसी भी इकाई के प्रकार्यो की प्रकृति सार्वभौमिक होती है।  उनका कथन है कि संस्कृति या सामाजिक संरचना का कोई तत्व प्रकार कार्यात्मक भी हो सकता है, लेकिन यह मान लेना उचित नहीं है कि ऐसा प्रत्येक तत्व कोई न कोई प्रकार्य अवश्य होगा।

               ब्राऊन एवं मौलिनोवस्की की तीसरी मान्यता को भी अस्वीकार करते हुए मर्टन ने कहा है कि ऐसा नहीं है कि ‘प्रत्येक प्रकार की सभ्यता’ रीति – रिवाज, भौतिक तत्व, विचार और विश्वास आदि कुछ सामाजिक प्रकारों को पूरा करते हैं।  मर्टन का कथन है कि इस वाक्यांश से यह पता नहीं चल रहा है कि इसके द्वारा मैलिनोवस्की टाइप्य की अपरिहार्यता को स्पष्ट करना चाहते हैं या उनका तात्पर्य सांस्कृतिक तत्वों की अपरिहार्य से है।  वास्तविकता यह है कि टाइप्य की अपरिहार्य की मान्यता को दो परस्पर संबंधित दशाओं के आधार पर ही समझा जा सकता है।  पहला यह की कुछ प्रकार्य इसलिए अपरिहार्य होते हैं कि यदि वे अपना कार्य के द्वारा न तो समाज के अस्तित्व को बनाकर रख सकते हैं।  इसकी तात्पर्य यह है कि प्रत्येक समाज में कुछ प्रकार्य वे होते हैं जो समाज का निर्माण करने वाली पूर्व परिस्थितियों को उत्पन्न करते हैं।  उन्हें मर्टन ने समाज की “टाइपस्टिक पूर्व संस्थानों” (कार्यात्मक पूर्व – आवश्यकताएं) कहा और उसी के आधार पर उन्होंने ‘टाइपस्टिक पूर्व’ आवश्यकताओं के संदर्भ को प्रस्तुत किया।  दसरी दशा की चर्चा करते हुए मर्टन ने बतलाया कि प्रत्येक समाज के कुछ निश्चित सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूप होते हैं जो इन टाइपो को पूरा करने में सहयोग देते हैं।  इस मान्यता को सरल रूप से प्रस्तुत करते हुए मटेन ने कहा कि जिस प्रकार समान प्रकृति के तत्वों के एक दसरे से भिन्न प्रकृति वाले कई प्रकार्य होते हैं, उसी प्रकार एक ही तरह का प्रकार्य कई इकाइयों से भी संबंधित हो सकता है।  इसकी तात्पर्य है कि मर्टन ने टाइप्य की अपरिहार्यता का इसका संबोधित रूप में “प्रकार्यात्मक विकल्प (Functional-alternatives) के रूप में प्रस्तुत किया।

                                  मर्टन का कहना है कि प्रकार्य शब्द की व्याख्या के क्रम में अनेक विद्वान इसे अब तक अनेक रूप में व्यवहार कर चुके हैं । अतः एक शब्द प्रकार्य के लिए विविध अवधारणाओं की एक समस्या खड़ी हो गयी है । प्रकार्य शब्द का प्रयोग उपयोगिता , उद्देश्य , परिणाम , लक्ष्य आदि – आदि के रूप में अब तक किए गए हैं । इनका यह भी कहना है कि प्रकार्य की अवधारणा वैषयिक ( Objective ) एवं अवलोकनीय है । प्रकार्य की परिभाषा देते हुए इन्होंने लिखा है कि किसी भी इकाई अथवा तत्व की वह गतिशीलता जो इस व्यवस्था को बने रहने में मदद दे या दूसरी व्यवस्थाओं के साथ अनुकूलन में मदद दे तो उसे प्रकार्य कहते हैं । मर्टन का कहना है कि हर इकाई न तो हमेशा प्रकायामक होती है और न ही सार्वभौमिक । यहीं उन्होंने दुर्थीम , ब्राउन एवं मैलिनोवस्की के विचारों की आलोचना की है । इसका कहना है कि हर व्यवस्था में कुछ ऐसी इकाइयाँ होती हैं जो व्यवस्था की आवश्यकता की पूर्ति में बाधा डालने की चेष्टा करती है या बाधा डालती है या फिर व्यवस्था के संतुलन को कमजोर करती है । अतः ऐसी क्रियाशीलता प्रकार्य न कहलाकर अकार्य कहलाती है । इस तरह यह मर्टन ने अकार्य शब्द की चर्चा की है । इनका यह भी कहना है कि एक ही तत्व व्यवस्था के लिए एक समय में प्रकार्यात्मक हो सकता है दूसरे समय में अकार्यात्मक भी । साथ ही , जो एक समूह के लिए प्रकार्यात्मक है वह दूसरे के लिए अकायामक हो सकता है अतः फिर ब्राउन एवं मैलिनीवस्की के खिलाफ इनका कहना है कि हर तत्व का समाज में बना रहना आवश्यक नहीं है , जो तत्व अकार्यात्मक हो चुके हैं उन्हें हटाया जा सकता है । इस आधार पर इन्होंने तत्वों की अपृथकता भी मान्यता को भी अस्वीकार कर दिया है ।

               स्पष्टतः मर्टन के अनुसार समाज के हर तत्व के दोनों ही पक्ष होते हैं । किसी भी तत्व की वह क्रियाशीलता जो व्यवस्था को धनात्मक योगदान करती है वह प्रकार्य कहलाता है जो ऋणात्मक योगदान करती है वह अकार्य कहलाता है । उदाहरणार्थ यदि धर्म किसी भी समाज में लोगों को एकता के सूत्र में बाँधता है , जिससे समाज का संगठन मजबूत होता है तो यह धर्म का प्रकार्य है । लेकिन यदि धर्म आपस में ईर्ष्या , द्वेष और वैमनस्य को फैलाता है जिसके फलस्वरूप धार्मिक दंगे होते हैं तो यह धर्म का अकार्य है । इस तरह प्रकार्य और अकार्य को अनेकों उदाहरण द्वारा समझाया जा सकता है । उदाहरणस्वरूप , किसी भी संगठन द्वारा यदि अपने कर्मचारियों को कालबद्ध पदोन्नति देने की व्यवस्था है और यदि इससे कर्मचारियों की कार्य – कुशलता बढ़ती है , उनके बीच की आपसी प्रतिद्वन्द्विता घटती है तो यह इसका प्रकार्य है । लेकिन कालबद्ध प्रोन्नति के परिणामस्वरूप कर्मचारियों में शिथिलता आती है और यह उनकी कार्य – कुशलता को घटाती है तो यह इसका अकार्य है । 

       प्रकार्य , अकार्य के अलावे मर्टन ने नकार्य [Non-Function] का भी उल्लेख किया है । इनके अनुसार हर व्यवस्था में कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो न तो व्यवस्था को तोड़ने की चेष्टा करते हैं और न ही इसके संगठन को मजबूत रखते हैं । ऐसे तत्वों को ही मर्टन ने नकार्य कहा है , जैसे – पर्दा – प्रथा । मध्यकाल में चाहे प्रदा – प्रथा के जो भी प्रकार्य रहे हों लेकिन आज के इस औद्योगिक समाज में इसकी कोई प्रकार्यात्मक महत्ता नहीं है । फिर भी यह निम्न मध्यम वर्गीय कुछ मुस्लिम परिवारों में प्रचलन में है जिसका कोई अकार्यात्मक पक्ष भी नहीं है । इस तरह नकार्य वह है जिसका व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । 

          अकार्य की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए मर्टन का कहना है कि जब समाज में इसकी मात्रा काफी बढ़ जाती है और सामाजिक नियंत्रण के अधिकरण इन्हें रोकने में असमर्थ हो जाते हैं तो समाज में परिवर्तन अवश्यम्भावी हो जाती है । इस तरह मर्टन के अनुसार अकार्यात्मक विधि बढ़ने से ही व्यवस्था में परिवर्तन आता है ।

          अपने विश्लेषण के क्रम में मर्टन ने प्रकार्य एवं अकार्य को पनः दो भागों में बाँटा है – प्रकट एवं अप्रकट । मर्टन ने दोनों शब्दों को फ्रायड के स्वप्न के सिद्धांत से लिया है । इनके अनुसार । प्रकट प्रकार्य , उस प्रकार्य को कहते हैं जो समाज के सदस्यों द्वारा इच्छित एवं स्पष्ट रूप स प्रमाणित होता है । दूसरी तरफ अप्रकट प्रकार्य उसे कहते हैं जो न तो इच्छित होता है और न हा स्पष्ट रूप से प्रमाणित । इनके अनसार अप्रकट संबोधन से समाजशास्त्रियों को एक नवीन दृष्टि प्रदान होती है जिससे वह अनुसंधान कार्य में और प्रवीण हो जाता है । अतः मर्टन के अनुसार समाजशास्त्रियों का काम समाज के बाकी छिपे रहस्यों का पता लगाना है । प्रकट एव अप्रकट का कई उदाहरणों से समझा जा सकता है । मर्टन ने होपी जनजाति का उदाहरण दिया है । इनका कहना है कि इस जनजाति के लोग वर्षा लाने के लिए एक साथ इकट्ठा होकर कुछ सासारिक अनुष्ठान करते हैं । इस अनुष्ठान से वर्षा तो नहीं होती पर होपी जनजाति के विखड़े सदस्य एक जगह जमा होकर सामूहिक रूप से कार्य करते हैं , उनकी एकजुटता मजबूत होती है । यह मामूली उपलब्धि नहीं है । यही इस अनुष्ठान का अप्रकट प्रकार्य है । इसी तरह निकटाभिगमन निषेध आज दुनियाँ के सभी समाजों में मान्य है । इसका प्रकट प्रकार्य यह है कि इससे परिवार में यौन संबंध के लिए ईर्ष्या एवं झगड़े नहीं होते । अतः परिवार संगठित रहता है पर इसका अप्रकट प्रकार्य यह है कि निकट रक्त संबंधियों के बीच यौन संबंध निषेध से बच्चे बदसूरत एवं अपंग नहीं होते । 

                थर्सटीन बेवलीन ने बताया कि कीमती चीजों को खरीदना विलासी वर्ग में काफी प्रचलित है । कीमती चीजों के खरीदने का प्रकट प्रकार्य यह है कि यह हमारी जरूरतों की पूर्ति करता है , पर इसका अप्रकट प्रकार्य यह है कि यह खरीदने वाले की उच्च आर्थिक हैसियत का सूचक वन जाता है। 

               इसी तरह अकार्य के भी प्रकट एवं अप्रकट स्वरूप को समझा जा सकता है , जैसे – किसी कारखाने में कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी तो इसका प्रकट अकार्य यह है कि इससे उत्पादन ठप पड़ जाता है , पर यदि हड़तालियों ने आमरण अनशन कर दिया और उसमें से कोई एक कर्मचारी मर गया तथा कर्मचारियों ने कारखाने में तोड़ – फोड़ कर दी तो यह अप्रकट अकार्य है , क्योंकि इसकी आशा किसी ने नहीं की थी ।

                   उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि मर्टन ने प्रकार्यात्मक विश्लेषण की एक विस्तृत रूप – रेखा प्रस्तुत की है । लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से मर्टन संहित प्रकार्यावाद की भी तीखी आलोचना की गयी है और यह सिद्धान्त लोकप्रियता की दृष्टि से कमजोर साबित हुआ है । इसका प्रमुख कारण यह है कि इन वर्षों में समाजशास्त्र के क्षेत्र में अनेक उपयोगी पद्धतियों का विकास हुआ है – जैसे विनिमय – सिद्धान्त , लोकविधि विज्ञान आदि । इसके अतिरिक्त प्रकार्यवादी विश्लेषण अनेक ऐसी मान्यताओं को लेकर चलता है जिसकी व्यवस्था की जाँच आवश्यक है क्योंकि उन्हें किसी भी रूप में स्वयंसिद्ध नहीं माना जा सकता । पर्शियस कोहन (Percys Cohen) ने प्रकार्यवाद से संबंधित समस्त आलोचनाओ को तीन भागों में बाँटा है-

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                    1.तार्किक

        2.मौलिक एवं वैचारिकीय

         3.तार्किक

आलोचनाओं में कोहेन के अनुसार प्रकार्यवाद उद्देश्यपरक व्याख्या को बढ़ावा देता है । यह ऐसी उपकल्पनाओं का सुझाव देता है जो जाँच के योग्य नहीं है साथ ही , यह ऐसे वैज्ञानिक स्तर की जाँच करता है जो समाजशास्त्र में विद्यमान नहीं है । 

                   मौलिक आलोचनाओं में कोहेन का कहना है कि प्रकार्यवाद सामाजिक जीवन में आदर्शात्मक तत्वों पर आवश्यकता से अधिक बल देते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि सामाजिक स्थायित्व की कीमत पर सामाजिक संघर्ष के महत्त्व को कम कर देता है । प्रकार्यवाद में सामाजिक व्यवस्था के सामंजस्यपूर्ण प्रकृति पर इतना जोर दिया गया है कि यह सामाजिक  परिवर्तन के महत्त्व को समझाने में असफल रहता है । वैचारकीय आलोचनाओं में कोहेन के अनुसार प्रकार्यवाद रूढ़िवादी पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देता है । इसके पीछे तर्क यह है कि प्रकार्यवाद सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न भागों के बीच सामंजस्य – पूर्ण संबंधों पर बल देकर यह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि सभी व्यवस्थाएँ विश्व की सबसे अच्छी सम्भावित विशेषताओं में से है । 

          मर्टन की आलोचना करते हुए कहा गया है कि वे यह निश्चय नहीं कर पाए हैं कि उनके सिद्धांत में अध्ययन पद्धति की क्या भूमिका होगी । साथ ही , मर्टन के प्रकार्य और अकार्य की अवधारणाएँ काफी अस्पष्ट हैं क्योंकि इनके अनुसार कोई भी परिणाम किसी के लिए प्रकार्यात्मक हो सकते हैं तो दूसरे के लिए अकार्यात्मक । ऐसी स्थिति में प्रकार्य एवं अकार्य के बीच स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं खींची जा सकती है । मर्टन का कहना है कि समाज में जब अकार्य की मात्रा बढ़ती है तो परिवर्तन होता है । लेकिन , आलोचकों का कहना है कि अकार्य ही मात्रा बढ़ने से समाज में परिवर्तन नहीं होगा बल्कि समाज का विघटन होगा ।

           ऊपर की समस्त चर्चाओं के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मर्टन का योगदान यह है कि इन्होंने प्रकार्यवाद को न केवल मानवशास्त्र से समाजशास्त्र के क्षेत्र में लाया बल्कि उसकी जीवन्तता भी प्रदान की । यद्यपि मर्टन की आलोचनाएँ की गयी हैं बल्कि यह सत्य है कि 20वीं सदी के पूर्वाद्ध में प्रकार्यवाद समाजशास्त्रीय जगत में एक सबल विचारधारा रही है ।

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